जैसे ही जिला प्रशासन ने सफाई, अतिक्रमण और यातायात व्यवस्था पर शिकंजा कसना शुरू किया है तो कांग्रेसी पार्षदों को उसका दखल खलने लगा है। असल में प्रशासन का दखल तो तभी नजर आने लगा था, जब उसने नगर निगम को नकारा मानते हुए शहर की सफाई व्यवस्था को सुचारू बनाने तथा उस पर पूरी निगरानी रखने के साथ-साथ सडक़ों के रख-रखाव के बारे में पूरी नजर रखने हेतु 9 अतिरिक्त प्रशासनिक अधिकारियों को जिम्मेदारी दी थी। अपुन ने तो तभी इशारा कर दिया था कि सफाई और अतिक्रमण सीधे तौर पर निगम की ही जिम्मेदारी है, जिला प्रशासन को तो कोई मतलब ही नहीं। लेकिन जब नगर निगम खुद के काम करने में विफल साबित हो रहा था तो जिला प्रशासन को शहर की सुध लेनी ही पड़ी।
निगम अपने काम के प्रति कितना लापरवाह है, इसके लिए क्या सबूत कम है कि कांग्रेस को ही खुद के मेयर पर भरोसा नहीं। तभी तो शहर कांग्रेस के प्रवक्ता महेश ओझा ने मेयर को कहने की बजाय जिला कलेक्टर को पत्र लिख कर 15 अवैध कॉम्पलैक्सों की सूची देते हुए कार्यवाही की मांग करनी पड़ी। जिला कलेक्टर को दखल देने को कहना पड़ा। इसी से साफ हो गया था कि उसे निगम पर से भरोसा उठ गया है। कितने अफसोस की बात है कि कांग्रेस ने ही भाजपा के बीस साल के शासन को उखाड़ फैंकने के लिए उस पर कॉम्पलैक्सों की फसल उगाने का आरोप लगा कर जनता से वोट हासिल किए, और आज वह अपना मेयर होते हुए भी अवैध कॉम्पलैक्सों के खिलाफ कार्यवाही करने में उसको को नकारा मानते हुए जिला कलेक्टर से अनुरोध कर रहा है। जब आप खुद ही अपने मेयर को नकारा मानते हैं तो अगर प्रशासन ने भी उसे नकारा मान लिया तो क्या गलत कर दिया। आज प्रशासन के दखल पर ऐतराज करने वाले कांगे्रसी पार्षदों ने अपनी ही पार्टी के प्रवक्ता पर सवाल नहीं उठाये कि वे क्यों प्रशासन को दखल देने का न्यौता दे रहे हैं? क्यों प्रशासन से कह रहे हैं कि आ बैल मुझे मार।
निगम के कामों में प्रशासन के दखल पर सवाल उठाने वाले कांग्रेसी पार्षद नीतिगत दृष्टि से भले ही सही हों, क्यों कि निगम एक स्वायत्तशासी संस्था है, मगर क्या उनके पास इस बात का कोई जवाब है कि एक ओर तो पार्षद इस बात की शिकायत करते हैं कि अतिक्रमण के खिलाफ उनकी शिकायत पर कार्यवाही नहीं होती और दूसरी ओर निगम के अधिकारी कार्यवाही करते हैं तो वे कार्यवाही को रुकवाने को पहुंच जाते हैं। ये कैसी स्वायत्तता है, इस पर पार्षदों को ही विचार करना होगा। क्या हाल ही घटित वह किस्सा याद नहीं है कि जब दो पार्षद नगर निगम कर्मियों पर केवल इसी कारण चढ़ बैठे कि उन्होंने अतिक्रमण की शिकायत के मामले में उनके नाम उजागर कर दिए। यानि कि कार्यवाही करवाना भी चाहते हैं और बुरे भी नहीं बनना चाहते। ऐसा कैसे हो सकता है? पार्षद होने का एडवांटेज भी उठाना चाहते हैं, अच्छे काम की क्रेडिट भी लेना चाहते हैं, लेकिन बुराई नहीं लेना चाहते। पार्षदों की इसी फितरत को जान कर जब प्रशासन ने निगम का काम अपने हाथ में ले लिया है तो उन्हें बुरा लग रहा है। आज पार्षद कह रहे हैं कि वे पार्किंग सहित अन्य सभी व्यवस्थाओं से वे सहमत हैं, लेकिन प्रशासन अपने स्तर पर निर्णय करने की बजाय निगम को सुझाव भेजे, निगम अपने हित व शहर के हित के अनुरूप कार्यवाही कर लेगा। अव्वल तो निगम को खुद ही कार्यवाही करने से रोका किसने था? सवाल ये भी है कि अगर निगम खुद ही निर्णय कर लेना शुरू करता तो प्रशासन को दखल क्यों देना पड़ता?
रहा सवाल मेयर बाकोलिया की नाकामी का तो ये उन्हें ही विचार करना होगा कि उनके पद की गरिमा क्या है? वे कितने अधिकार संपन्न हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि वे हनुमान की फितरत में हैं। उन्हें उनकी शक्तियों के बारे में जगाने वाला कोई जाम्वंत होना चाहिए। वैसे मेयर के नकारा सिद्ध होने के पीछे भी अपने अलग कारण हैं। ऐसा नहीं कि उन्होंने पहल नहीं की। उन्होंने भी अवैध कॉम्पलैक्सों के खिलाफ अभियान छेड़ा था, लेकिन भाजपा के विरोध, समाज विशेष की नाराजगी और कांग्रेस के असहयोग के कारण सहम गए और राजनीति में नए-नए होने के कारण चुप करके बैठ गए। उन्होंने भी संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा की प्रेरणा से आवारा जानवरों को पकडऩे का अभियान छेड़ा था, मगर पशुपालकों के सचिन पायलट तक पहुंच जाने के कारण मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
बहरहाल, सब जानते हैं कि इस मामले में विशेष रुचि ले रहे संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा अजमेर के ही रहने वाले हैं और जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल के भी अजमेर से संबंध हैं, इस कारण उनमें अजमेर के प्रति विशेष दर्द है। इसी दर्द की वजह से वे शहर पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। उनकी इस कारण तारीफ भी हो रही है। इस पर अपना तो सिर्फ इतना कहना है कि उन्हें तात्कालिक और अस्थाई समाधान निकालने की बजाय स्थाई व्यवस्था पर भी ध्यान देना चाहिए। अगर निगम के पास संसाधनों का अभाव है तो पहल करके राज्य सरकार से दिलवाने चाहिए। यह तो स्पष्ट ही है कि जिला प्रशासन के पास और भी महत्वपूर्ण काम हैं। वह बारहों महीने तो नगर निगम के काम पर ध्यान दे नहीं सकता। ताजा अभियान भी एक अस्थाई अभियान है। अभियान समाप्त होने पर हालात के जस के तस हो जाने वाले हैं। ऐसे में बेहतर यही है कि वह नगर निगम को अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करे। आखिर वह कब तक प्रशासन की बैसाखियों के सहारे चलेगा? वैसे भी यदि प्रशासनिक अधिकारियों ने सारा ध्यान निगम के कामों पर दिया तो आम जनता को उन कार्यों से वंचित होना पड़ेगा, जो कि प्रशासन के खाते में आते हैं। शहर तो साफ हो जाएगा, सुंदर हो जाएगा, मगर और किस्म की परेशानियां भुगतने लगेगा।