मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

खुद के बचाव के लिए लिया देथा ने लिया गूगरवाल का पक्ष?

शहर कांग्रेस कमेटी ने भाजपा प्रत्याशी सांवर लाल जाट के स्वजातीय अधिकारी जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी लालाराम गूगरवाल पर दरगाह इलाके में आरएसएस मानसिकता के कर्मचारी लगाने का आरोप लगा कर उन्हें चुनाव कार्य से मुक्त करने की कांग्रेस की मांग को जिला निर्वाचन अधिकारी भवानी सिंह देथा ने भले ही दमदार तर्क दे कर खारिज कर दिया, लेकिन चुनाव आयोग ने किसी भी संभावित विवाद से बचने के लिए गूगरवाल को हटाना ही बेहतर समझा।
बेशक देथा के तर्क में दम था कि रेंडम सिस्टम के जरिए यह पता ही नहीं लग पाता कि कौन से कर्मचारी की ड्यूटी कहां पर लगी है। कर्मचारी को खुद भी मतदान दल की रवानगी वाले दिन पता चलता है, उसे कौन से स्थान पर जाना है, मगर अजमेर लोकसभा क्षेत्र की केंद्रीय चुनाव पर्यवेक्षक बसु इंगति को कहीं न कहीं गड़बड़ लगी, जिसकी उन्होंने आयोग को रिपोर्ट भेज दी, भले ही मीडिया को शेयर नहीं किया। ऐसा प्रतीत होता है कि देथा ने गूगरवाल के विरुद्ध की गई शिकायत को यह मान कर अपने ऊपर ले लिया कि भला उनकी देखरेख में नीचे गड़बड़ कैसे चल रही है। इस चक्कर में वे गूगरवाल का पक्ष ले बैठे। ऐसे में चुनाव पर्यवेक्षक बसु इंगति ने उनसे सीधा टकराव लेने की बजाय आयोग से दिशा-निर्देश मांग लिए। और आयोग ने सख्ती दिखाते हुए देथा के तर्क को दरकिनार करते हुए राज्य निर्वाचन आयोग के मुख्य चुनाव अधिकारी अशोक जैन को निर्देश दे दिए, जिसकी पालना में देथा को गूगरवाल को हटाना पड़ गया। इस पूरे घटनाक्रम में यह स्पष्ट है कि चुनाव पर्यवेक्षक बसु इंगति ने आगे चल कर कोई बड़ा विवाद होने से बचने के लिए रिपोर्ट भेजी होगी। आखिर उन्हें भी तो अपनी खाल बचानी थी। उनकी रिपोर्ट पर हुई कार्यवाही से जहां देथा की किरकिरी हुई है, वहीं एक नजर में इससे कांग्रेस के आरोप की कहीं न कहीं पुष्टि होती है। संभव है उनके पास आरोप संबंधी तथ्य रहे होंगे।

चुनाव आयोग के निर्देश अव्यावहारिक व अस्पष्ट

चुनाव आयोग के निर्देश पर जिला निर्वाचन अधिकारी भवानी सिंह देथा ने यह तो व्यवस्था दे दी कि चुनाव प्रचार समाप्त होने के बाद मतदाता या अभ्यर्थी के अलावा कोई भी राजनीतिक व्यक्ति निर्वाचन क्षेत्र में नहीं रह सकता, मगर यह अस्पष्ट ही है। निर्देश में कहीं भी ये स्पष्ट नहीं है कि राजनीतिक व्यक्ति माने कौन? आयोग किसे राजनीतिक व्यक्ति मान रहा है, राजनीतिक दल के पदाधिकारी सहित सभी जनप्रतिनिधियों को अथवा केवल जनप्रतिनिधि यथा निगम मेयर, नगर परिषद सभापति, जिला प्रमुख, प्रधान, सरपंच, विधायक व सांसद आदि को?
असल में आयोग का यह निर्देश पालना के लिहाज से भी अव्यावहारिक है। एक ओर जहां चुनाव कार्य के लिए बड़े पैमाने पर विभिन्न विभागों के अधिकारियों व कर्मचारियों को लगाया जा चुका है, ऐसे में भला जिले के सभी सामुदायिक केन्द्र, धर्मशाला, गेस्ट हाउस, लॉज, होटल आदि में ठहरने वाले व्यक्तियों की जानकारी तथा बाहर से आने वाले वाहनों पर निगरानी की व्यवस्था करना कैसे संभव हो पााएगा? माना कि जिला निर्वाचन अधिकारी ने निर्देश की पालना करने की बात कही है, मगर प्रतीत यही होता है कि किसी बाहरी राजनीतिक व्यक्ति के यहां होने की जानकारी शिकायत होने पर ही मिल पाएगी। यदि कोई नेता किसी के घर पर है तो उसका पता सरकारी मशीनरी को कैसे मिल पाएगा? निर्देश की अव्यवहारिकता का एक पहलु ये भी है कि क्या कोई राजनेता अपने निर्वाचन क्षेत्र से बाहर अपने निजी काम से भी नहीं रुक पाएगा क्या? और यह भी कैसे सत्यापित हो पाएगा कि वह निजी काम से आया है या फिर कोई राजनीतिक गतिविधि कर रहा है?
निर्देश में यह भी लिखा है कि मतदान से 48 घंटे पूर्व की अवधि में अनेक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगाया गया है, जिनका उल्लंघन करना दण्डनीय अपराध होगा, मगर यह स्पष्ट नहीं है कि दंड किस प्रकार का होगा।
निर्देश में यह भी लिखा है कि चुनाव प्रचार समाप्त होने के बाद टेलिविजन, रेडियो, ऐसे ही अन्य किसी उपकरण या इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से चुनाव प्रचार करने, एस.एम.एस. या मोबाइल फोन के जरिये चुनाव प्रचार-प्रसार करने पर पाबन्दी रहेगी, मगर यह वाकई संभव हो पाएगा, इसमें संशय ही है। सवाल उठता है कि क्या राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक दलों की ओर से टीवी पर जारी हो रहे वोट अपील के विज्ञापन रोके जा सकेंगे, जबकि चुनाव के एकाधिक चरण अभी बाकी हैं? निर्देश में यह स्पष्ट नहीं है कि क्या चुनाव प्रचार समाप्त होने के बाद 16 व 17 तरीख को छपने वाले अखबारों में विज्ञापन प्रतिबंधित रहेंगे?
-तेजवानी गिरधर