सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

तो फिर दरगाह कमेटी की मंजूरी के मायने क्या हैं?

तेजवानी गिरधर
पुलिस की रिपोर्ट के आधार पर जिला कलेक्टर की ओर से अजमेर में कायड़ विश्राम स्थली पर जमीयत उलेमा ए हिंद के राष्ट्रीय अधिवेशन की अनुमति न दिए जाने के बाद हालांकि दरगाह कमेटी ने भी मंजूरी को निरस्त कर दिया है, मगर सवाल ये उठता है कि उसकी मंजूरी के मायने क्या हैं?
असल में दोनों मंजूरियां अलग-अलग हैं। एक है कानून और व्यवस्था के लिहाज से और दूसरी आयोजन स्थल की। हुआ यूं कि आयोजन कर्ताओं ने दोनों मंजूरियों की अर्जियां दीं। चूंकि आयोजन स्थल कायड़ विश्राम स्थली  की देखरेख दरगाह कमेटी करती है, इस कारण उसने वहां अधिवेशन की मंजूरी दे दी। रहा सवाल जिला प्रशासन की अनुमति का तो उसने पुलिस रिपोर्ट को आधार बना कर मंजूरी दिए जाने से इंकार कर दिया। यानि कि दरगाह कमेटी की मंजूरी का अर्थ ही नहीं रहा। यद्यपि उसने मंजूरी को निरस्त कर दिया, मगर जिला प्रशासन की मंजूरी के बिना आयोजन हो भी तो नहीं सकता था, क्योंकि असल मंजूरी तो वही थी। यदि वह मंजूरी निरस्त नहीं करती, तब भी आयोजन असंभव था, क्योंकि वह तो मात्र स्थान की मंजूरी ही थी। दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही मंजूरियां जरूरी होने के बाद भी उनके बीच विरोधाभास पैदा किया जा रहा है। ऐसा जताया जा रहा है कि मानों दोनों सरकारी एजेंसियों के बीच टकराव है, जबकि ऐसा है नहीं। दोनों अलग-अलग हैं। मिसाल के तौर पर अगर दरगाह कमेटी स्थान की मंजूरी नहीं देती और जिला प्रशासन आयोजन की मंजूरी दे देता, तो क्या होता, तो स्वाभाविक रूप से आयोजकों को नया स्थान तलाशना पड़ता। अर्थात दरगाह कमेटी की मंजूरी की भी अपनी अहमियत है, भले ही वह मात्र स्थान की है।  ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या कमेटी ने जिला प्रशासन की मंजूरी से पहले अपनी मंजूरी दे कर गलत किया? क्या जिला प्रशासन मंजूरी दे देता तो दरगाह कमेटी भी मंजूरी देने के लिए बाध्य होती? क्या जिला प्रशासन की मंजूरी में ही स्थान की मंजूरी भी अंतर्निहित है? क्या मंजूरी देने की स्थिति में जिला कलेक्टर दरगाह कमेटी को बाध्य कर सकते हैं कि वह भी आयोजन स्थल की मंजूरी दे? इन सवालों पर गौर करने से यही लगता है कि विरोधाभास कहीं भी नहीं है, वह जानबूझ कर पैदा किया गया और नए आए नाजिम लेफ्टिनेंट कर्नल मंसूर अली विवाद से बचने के लिए मंजूरी निरस्त कर दी। उन्होंने बाकायदा जमीयत के महासचिव अब्दुल वाहिद को पत्र लिख कर सूचित किया है कि चूंकि जिला प्रशासन ने मंजूरी नहीं दी है, इस कारण उनकी भी मंजूरी निरस्त की जाती है।
असल में मंजूरी नए नाजिम ने दी भी नहीं थी, वह तो हाल ही इस अतिरिक्त पदभार से मुक्त हुए दौसा कलेक्टर अश्फाक हुसैन दे गए थे। आखिरकार वे भी आईएएस व कलेक्टर जैसे जिम्मेदार अधिकारी हैं। क्या उन्हें पता नहीं था कि जिला प्रशासन की मंजूरी से पहले स्थान की मंजूरी देना गलत है? जाहिर तौर पर उन्हें पता होगा, तभी तो मंजूरी दे दी। कदाचित  उन्हें इस बात का इल्म न हो कि जिला कलेक्टर मंजूरी नहीं देंगे। वैसे भी उन्होंने तो केवल आयोजन स्थल उपलब्ध करवाया था, वहां अधिवेशन जिला कलेक्टर की अनुमति के बिना हो भी नहीं सकता था। इसका अर्थ ये निकलता है कि दरगाह कमेटी को मंजूरी निरस्त करने की जरूरत नहीं थी। अगर वह निरस्त नहीं करती तो भी कानून व्यवस्था वाली मंजूरी के बिना जमीयत अधिवेशन नहीं कर सकती थी। वह ये तर्क नहीं दे सकती थी कि भले ही जिला प्रशासन ने मंजूरी नहीं दी है, मगर चूंकि दरगाह कमेटी ने मंजूरी दी है, इस कारण वे तो अधिवेशन करेंगे ही। बहरहाल, चूंकि विवाद उत्पन्न किया गया, इस कारण नए नाजिम ने मंजूरी निरस्त कर दी। बताया जा रहा है कि जमीयत आयोजन को लेकर अब भी प्रयासरत है, देखते हैं क्या होता है?
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

भारी दबाव में प्रो. जाट को बनाना पड़ा किसान आयोग का अध्यक्ष

जाट नेता डॉ. हरिसिंह के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री सुभाष महरिया और महरिया के छोटे भाई फतेहपुर से निर्दलीय विधायक नंदकिशोर महरिया के कांग्रेस में शामिल होने की प्रबल संभावनाओं के चलते भाजपा हाईकमान को पूर्व केन्द्रीय जलदाय राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को राजस्थान किसान आयोग का अध्यक्ष बनाना पड़ा। हालांकि केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाए जाने के बाद से ही जाट समाज में रोष था, जिसका खुल कर प्रदर्शन भी हुआ, नतीजतन भाजपा हाईकमान पर प्रो. जाट को मंत्री के समकक्ष पद देने पर विचार करना पड़ रहा था। यह भी लगभग तय सा था कि उन्हें किसान आयोग का अध्यक्ष बनाया जाएगा। मगर इस मामले में सुस्ती दिखाई जा रही थी।  जैसे ही यह जानकारी आई कि हरिसिंह और महरिया बंधुओं को कांग्रेस में लिया जा सकता है, जाटों के भाजपा से खिसक कर कांग्रेस में जाने का खतरा भांप कर भाजपा हाईकमान भी हरकत में आया। और आखिरकार प्रो. जाट को किसान आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया।
असल में प्रो. जाट को मंत्रीमंडल से हटाए जाने के कारण विशेष रूप से अजमेर का जाट समाज भाजपा से नाराज था। हालांकि प्रदेश स्तर पर तो कोई बड़ा नुकसान होने की आशंका नहीं थी, मगर जाट बहुल अजमेर संसदीय क्षेत्र और अजमेर जिले की तीन विधानसभा सीटों पर जाट भाजपा को झटका देने की स्थिति में थे। ऐसे में प्रो. जाट को राजनीतिक रूप से पुन: प्रतिष्ठित करने का भारी दबाव था।
वस्तुत: प्रो. जाट के साथ बड़ा राजनीतिक मजाक हुआ। वे अच्छे खासे  राज्य में केबीनेट मंत्री थे, मगर केवल पूर्व केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट को हराने के लिए लोकसभा चुनाव लड़ाया गया। दाव कामयाब होने के बाद उन्हें इसके एवज में केन्द्र में राज्य मंत्री बनाया गया, मगर कथित रूप से स्वास्थ्य कारण बताते हुए उन्हें हटा दिया गया और वे महज सांसद बन कर रह गए। ज्ञातव्य है कि वे वसुंधरा के काफी करीब रहे हैं, मगर वसुंधरा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच ट्यूनिंग ठीक न होने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा था। मगर जब देखा कि कुछ जाट नेता कांग्रेस का रुख कर रहे हैं तो तुरतफुरत में उन्हें किसान आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया।
-तेजवानी गिरधर
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