गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

बिना गड़बड़ के कैसे मान गए गड़बड़?

मुस्लिम वक्फ बोर्ड के सदर के लिए हुए चुनाव में सेवानिवृत्त आईजीपी लियाकत अली के निर्विरोध जीतते ही स्पष्ट हो गया है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उन पर पहले से कायम आशीर्वाद बरकरार रखा है और इस पद के दूसरे दावेदार दरगाह सरवाड़ शरीफ के आरजी मुतवल्ली यूसुफ उर्फ गड़बड़ को गड़बड़ करने का मौका नहीं मिल पाया है। यही वजह रही वे अजमेर से तो निकले थे दावेदारी करने को, मगर वहां जा कर तलवार म्यान में डाल कर अपना समर्थन जता दिया। जिन पुष्कर विधायक श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ का पल्लू वे थाम कर चल रहे थे, वे भी खुल कर लियाकत अली के साथ हो लीं। और तो और बधाई देने वालों में भी वे ही छुटभैये सबसे आगे रहे, जो कि गड़बड़ का साथ दे रहे थे।
चुनाव भले ही शांतिपूर्वक व निर्विरोध हो गए हों, मगर चर्चा यही है कि यूसुफ गड़बड़ बिना कोई गड़बड़ किए चुप नहीं हुए हैं। जैसी उनकी फितरत है, बिना किसी मतलब के कुछ नहीं करते। इतने नादान भी नहीं कि जीतने या दावा करके कुछ पाने के बिना दावा करके चुनाव में अपनी फजीहत करवाएं। उनके करीबी उन्हें अच्छी तरह जानते हैं कि वे कितने गुरू घंटाल हैं। आरजी मुतवल्ली होने के कारण उनकी माली हालत खासी तगड़ी है। इसको लोग उन पर दरगाह में वित्तीय गड़बड़ के आरोपों से जोड़ कर देखते हैं। तीसरी आंख को तो पहले से पता था कि चुनाव जीतने के लिए पैसा पानी की तरह बहाने का माद्दा रखते हैं। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि लियाकत अली भी केवल मुख्यमंत्री के वरदहस्त पर निर्भर नहीं थे। वे भी दिल खोल कर बैठे थे। ऐसे अनेक गड़बड़ वे अपनी जेब में रखते हैं। जब पंजा लड़ा तो लियाकत भारी पड़ गए, ऐसे में गड़बड़ ने यही सोचा कि सार्वजनिक गड़बड़ क्यों की जाए, जब अंदर की गड़बड़ ही आखिरी रास्ता है। कुल मिला कर अपुन तो यही कहेंगे कि कोई गड़बड़ न करके भी गड़बड़ कर जाना हर किसी के बूते की बात नहीं।