बुधवार, 30 जनवरी 2019

दोनों सीटें जितवाईं, फिर भी हटा दिया अरविंद यादव को?

हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में अजमेर शहर की दोनों सीटें अजमेर उत्तर व अजमेर दक्षिण जितवाने के बाद भी शहर जिला भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव को हटा दिया गया। भाजपा हाईकमान का यह फैसला चौंकाने वाला है। भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी के लिहाज से भी यह बदलाव चकित करता है। एक ओर जहां माना जाता है कि प्रदेश भाजपा में संघ लॉबी हावी हो गई है और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के युग का अवसान हो गया, वहीं राजे लॉबी के शिवशंकर हेडा को अध्यक्ष बना दिया गया है, जबकि संघ लॉबी के यादव हटा दिए गए हैं। यादव को न केवल राज्यसभा सदस्य भूपेद्र यादव का करीबी माना जाता है, अपितु संघ पृष्ठभूमि के दिग्गज नेता ओम प्रकाश माथुर व श्रीकिशन सोनगरा के करीबी रहे हैं। उनको हटाए जाने का कारण क्या है, यह भाजपाइयों की समझ से बाहर है। यदि उन्हें हटा कर किसी और युवा व ऊर्जावान को अध्यक्ष बनाते तो भी समझ में आ सकता था कि आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बदलाव किया गया है।
फिलहाल यही समझा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में वैश्य समुदाय को राजी करने के लिए नई नियुक्ति हुई है, लेकिन इससे यह भी आशय निकलता है कि लोकसभा चुनाव में वैश्य समुदाय के दावेदारों, जिनमें स्वयं हेडा भी शामिल है, की आशाओं पर तुषारापात हो गया है। अर्थात जाट बहुल इस सीट पर भाजपा किसी जाट को ही प्रत्याशी बनाने के मूड में है।
रही संगठन के और सक्रिय होने की तो कम से कम हेडा से यह उम्मीद गलत ही की जा रही है। वे पूर्व में भी 2006 से लेकर 2011 तक शहर अध्यक्ष रहे हैं। तब के हालात से सब वाकिफ हैं। उनकी हालत ये थी कि नगर निगम चुनाव में सारी टिकटें अजमेर शहर के दोनों विधायकों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने आपस में बांट ली थीं। लुंजपुंज नेता गिने जाने वाले हेडा की सिफारिश पर किसी को टिकट नहीं मिल पाई थी। यही वजह रही कि उनकी लॉबी के कुछ लोग समानांतर कार्यक्रम कर रहे थे। पिछले भाजपा शासनकाल में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने जनवरी 2016 में एडीए अध्यक्ष पद उनकी ताजपोशी की और राज्यमंत्री का दर्जा भी दिया गया, मगर वे अपने खाते में कुछ खास उपलब्धि दर्ज नहीं करवा पाए। उनका कार्यकाल ढ़ीलाढ़ाला ही रहा। ऐसे में अब वे कोई नौ की तेरह कर पाएंगे, उसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है।
रहा सवाल अरविंद यादव का तो उनके लिए यह झटका वाकई तगड़ा है। फिलहाल उनको कोई नयी जिम्मेदारी नहीं दी गई है। यह सही है कि लोकसभा उप चुनाव में उत्तर विधानसभा क्षेत्र में करीब सवा छह हजार और दक्षिण विधानसभा क्षेत्र से करीब 12 हजार वोटों से पार्टी पिछड़ी थी, लेकिन हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा दोनों सीटें जीत गई। बावजूद इसके उन्हें हटाये जाने से भाजपा कार्यकर्ता चकित हैं। विशेष रूप से युवा कार्यकर्ताओं में गलत संदेश गया है। सवाल उठता है कि क्या दोनों सीटें जीतने में उनकी कोई भूमिका नहीं रही, देवनानी व भदेल अपने-अपने दम पर जीते?
ज्ञातव्य है कि शहर अध्यक्ष बदले जाने की चर्चा काफी समय से चल रही थी, मगर लोकसभा उपचुनाव व बाद में विधानसभा चुनाव के कारण बदलाव नहीं किया गया। आनंद सिंह राजावत का नाम लगभग फाइनल हो चुका था, मगर देवनानी ने उन्हें नहीं बनने दिया। इसी प्रकार भूपेन्द्र यादव के खासमखास पार्षद जे. के. शर्मा का नाम भी चला, जिनके संबंध देवनानी व भदेल से समान थे, मगर उनकी आशाओं पर भी पानी फिर गया है।
आखिर में एक बात और। पिछले पंद्रह साल में शहर भाजपा देवनानी व भदेल लॉबी में ही बंटी रही है। उन पर किसी अध्यक्ष का जोर नहीं चला। यहां तक कि पांच बार सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत तक को वे नहीं गांठते थे। अब देखने वाली बात ये होगी कि हेडा अपनी नई पारी कैसे खेलते हैं।

डॉ. भाकर का दावेदारी से कहीं ज्यादा हो रहा है प्रोजेक्शन

आगामी लोकसभा चुनाव के संदर्भ में इन दिनों एक नाम यकायक चमकने और चमकाने लगा है। वो है डॉ. दीपक भाकर। बताया जाता है कि वे अजमेर संसदीय क्षेत्र से भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार हैं। दावेदारी की प्रबलता को कैसे परिभाषित किया जाए, उसका क्या आधार माना जाए, इसको लेकर मतभिन्नता हो सकती है, मगर मीडिया जरूर उन्हें प्रबल दावेदार मान रहा है, बना भी रहा है।
सच बात तो ये है कि डॉ. भाकर अजमेर संसदीय क्षेत्र वासियों के लिए कोई सुपरिचित नाम नहीं है। आम आदमी की बात छोडिय़े, संभ्रांत तबके में भी चंद लोग ही उन्हें जानते हैं। कहने को भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता जरूर हैं, मगर स्थानीय गतिविधियों में उनकी सक्रियता नगण्य सी है। फिर भी वे प्रबल हैं तो यह सब मीडिया का ही कमाल नजर आता है। हो सकता है कि भाजपा हाईकमान में उनकी गहरी पेठ हो, बड़े-बड़े नेताओं से उनके गहरे ताल्लुक हों, मगर सामान्य मतदाता तक उनकी पहचान न के बराबर है। बेशक वे जाट जाति से हैं और इस संसदीय क्षेत्र में ढ़ाई लाख से ज्यादा जाट हैं, इस कारण उनका दावा बनता है। इसी वजह से खुद को प्रोजेक्ट कर रहे हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। मगर मीडिया भी उनके प्रोजेक्शन के प्रभाव में आ कर खुद भी उन्हें प्रोजेक्ट करने लगे तो चौंकना स्वाभाविक है। विशेष रूप से पहले से, वर्षों से दावेदारी कर रहे नेताओं का चौंकना। वे इस बात से नहीं चौंक रहे कि डॉ. भाकर दावेदारी कैसे कर रहे हैं, बल्कि इसलिए कि मीडिया उनकी दावेदारी को मजबूत बता रहा है। स्वाभाविक रूप से उनको तकलीफ हो रही होगी। उनकी दावेदारी इस कारण है कि उनका कंट्रीब्यूशन है। अगर कोई प्रोजेक्शन करके प्रबल बने तो परेशानी होनी ही है। या तो वे प्रोजेक्शन के लिए कुछ जतन करें। पहले से दावेदार माने जा रहे नेताओं में अधिसंख्य ऐसे हैं जो अपने दम पर टिकट चाहते हैं, न कि प्रोजेक्शन के आधार पर। वे टिकट चाहते हैं और उसके लिए दावा भी करते हैं, मगर मिजाज ऐसा कि पार्टी टिकट दे तो ठीक, न दे तो भी ठीक। अब तक सबसे प्रबल दावेदार माने जा रहे प्रो. बी. पी. सारस्वत तो चलन के सर्वथा विपरीत चलते हैं। मांगने से ज्यादा बेहतर वे ये मानते हैं कि पार्टी खुद उनकी योग्यता के आधार पर टिकट दे। यही दिक्कत है। उनकी दावेदारी पिछले बीस साल से है, मगर पार्टी ने आज तक उनकी पात्रता पर गौर नहीं किया।
दरअसल आज कल प्रोजेक्शन का चलन सा हो गया है। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी तो प्रोजेक्शन की ही पैदाइश हैं। कुछ ऐसा ही आपने हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव में देखा होगा। एक व्यक्ति आया। न जमीन पर पकड़ और न ऊपर सैटिंग। बोरा भर कर पैसे लाया। दबा कर लुटाया। खूब खिलाया, जम कर पिलाया। प्रचार ऐसा कि मानों टिकट मिल ही गया हो। मंत्री भी बन बैठे और रेवडिय़ां भी बांट दी। दमदार प्रोजेक्शन की इससे बड़ी मिसाल नहीं हो सकती। जाहिर तौर पर मीडिया भी उसका शिकार हुआ। उसे भी गलतफहमी हो गई। उसी ने उसकी गलतफहमी को और बढ़ा दिया। और नतीजा ये कि लुट कर चला गया। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। क्यों कि राजनीति में सदा दो और दो चार नहीं हुआ करते। कभी तीन तो कभी पांच भी हो जाते हैं।
खैर, बात डॉ. भाकर की। बता रहे हैं कि उन्होंने भी होर्डिंग्स-बैनर ऐसे लगाए हैं, मानो चुनाव प्रचार कर रहे हों। ऐसे में भला सबका चौंकना अस्वाभाविक तो नहीं। मीडिया हो या अन्य दावेदार, सब चकित हैं। हो सकता है, उन्हें इशारा हो गया हो। जो भी है, जल्द सामने आ जा जाएगा। खुदा खैर करे।