शनिवार, 24 सितंबर 2016

जनता का नुमाइंदा होना चाहिए स्मार्ट सिटी कारपोरेशन लिमिटेड का अध्यक्ष

अन्य सभी संबंधित पक्षों के अतिरिक्त जिला कलेक्टर वैभव गोयल के विशेष प्रयासों और नगर निगम मेयर धर्मेन्द्र गहलोत के रुचि लेने से अब जब कि अजमेर को देशभर की तीसरी सूची में स्मार्ट सिटी बनाने के लिए शामिल कर लिया गया है तो स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि आखिर इसका काम कब शुरू होगा? इसकी मॉनिटरिंग कौन करेगा? क्या इस योजना के तहत आने वाले धन का सही उपयोग भी हो पाएगा या नहीं? ये सवाल इस कारण उठते हैं क्योंकि इससे पहले अजमेर की जनता स्लम फ्री सिटी और जेएनएनयूआरएम की आवास योजना विफल होने और सीवरेज लाइन योजना की कछुआ चाल को देख चुके हैं।
असल में अजमेर के लोग यह देखने के आदी हो चुके हैं कि यहां लाख दावों और प्रयासों के बाद भी विभिन्न विभागों में तालमेल नहीं हो पाता। निगम या पीडब्ल्यूडी सड़क बनाती है और उसके तुरंत बाद अजमेर विद्युत वितरण निगम या भारत दूरसंचार निगम उसे केबल डालने के लिए खोद डालता है। यह मुद्दा न जाने कितनी बार संभागीय आयुक्त व जिला कलेक्टर के सामने और अजमेर विकास प्राधिकरण की बैठकों में उठता रहा है। हर बार यही कहा जाता है कि अब तालमेल का अभाव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, मगर नतीजा ढ़ाक के तीन पात ही रहता है।
इसके अतिरिक्त ये भी पाया गया है कि जब जब अजमेर नगर सुधार न्यास, जो कि अब अजमेर विकास प्राधिकरण है, का मुखिया प्रशासनिक अधिकारी रहा है, विकास का काम ठप ही हुआ है। और जब भी जनता का कोई नुमाइंदा अध्यक्ष रहा है, उसने अपनी प्रतिष्ठा के लिए पूरी रुचि लेकर विकास के कार्य करवाए हैं। स्वाभाविक सी बात है कि सरकारी अधिकारियों की अजमेर के प्रति कोई रुचि नहीं होती, क्योंकि उन्हें तो केवल नौकरी करनी होती है और मात्र दो-तीन साल के लिए अजमेर आते हैं। ऐसे में यह जरूरी सा लगता है कि अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाए जाने के लिए जो अजमेर स्मार्ट सिटी कारपोरेशन लिमिटेड गठित होगा, उसका मुखिया जनता का ही कोई नुमाइंदा हो।
ज्ञातव्य है कि स्मार्ट सिटी योजना के तहत अब तक जयपुर व उदयपुर में कारपोरेशन बनाए गए हैं, जिनका जिम्मा अलग से नियुक्त सीईओ को दिया गया है। जयपुर की हालत ये है कि वहां एक साल में जा कर कंपनी गठित हुई, लेकिन धरातल पर काम ही शुरू नहीं हो पाए हैं। इसी प्रकार उदयपुर में भी कंपनी तो बनी है और रजिस्टर्ड भी हो गई है, लेकिन आठ माह में महज कुछ काम ही शुरू हो पाए हैं। समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस महत्वाकांक्षी योजना की रफ्तार कैसी है। कदाचित इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि अभी तक ठीक से गाइड लाइन तय नहीं हो पाई होगी और संबंधित अधिकारी भी अपनी ओर से कोई अतिरिक्त रुचि नहीं ले रहे होंगे। इसके अतिरिक्त भी इस महती योजना की ठीक से मॉनिटरिंग भी अधिकारियों की बजाय जनता का ऐसा नुमाइंदा कर सकता है या कर पाएगा, जो स्थानीय कठिनाइयों, जरूरतों और संभावनाओं को बेहतर जानता होगा। अधिकारियों के भरोसे काम किस प्रकार होते हैं, इसका अनुमान तो इसी बात से लग जाता है स्मार्ट सिटी के लिए सबसे पहले घोषित तीन शहरों में अजमेर का नाम शुमार होने के बाद भी उसकी औपचारिकता में कितनी लापरवाही बरती गई। ये तो मौजूदा कलेक्टर गौरव गोयल और नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत ने अतिरिक्त रुचि दिखाई, अन्यथा अजमेर का नाम ताजा सूची में भी नहीं आ पाता।
लब्बोलुआब, सरकार को नीतिगत निर्णय करते हुए स्मार्ट सिटी कारपोरेशनों को जनता के प्रतिनिधियों को सौंपना चाहिए और उसकी कमेटी में स्थानीय विशेषज्ञों के साथ संबंधित विभागों के जिम्मेदार अधिकारियों को सदस्य के रूप में शामिल करना चाहिए। तभी अपेक्षित परिणाम सामने आएंगे। नहीं तो इसका हाल वही होना है, जैसा अब स्लम फ्री सिटी, जेएनएनयूआरएम आवास योजना और सीवरेज लाइन योजना का हुआ है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

शनिवार, 3 सितंबर 2016

नहीं आई धर्मेन्द्र गहलोत की सफाई

हाल ही आनासागर चौपाटी पर निर्धारित ऊंचाई से बड़ी गणेश प्रतिमाओं पर ऐतराज जताने गए नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत पर एक संगीन आरोप ये लग रहा है कि एक गणेश प्रतिमा को उन्होंने स्वयं ने लात मार कर तोड़ा। बेशक इस बारे में प्रिंट मीडिया ने अपनी मर्यादा और रीति-नीति के तहत खबर छापी, मगर पूरे सोशल मीडिया पर उनकी जो छीछालेदर हुई है, वह बहुत ही शर्मनाक है। सच क्या है ये या तो वे जानते हैं और या फिर प्रत्यक्षदर्शी, मगर अफवाह तो यही फैली या फैलाई गई कि प्रतिमा को उन्होंने तोड़ा। हां, ये बात ठीक है कि इस प्रकार का आरोप प्रतिमा बनाने वाले लगा सकते हैं, लगाया भी है, क्योंकि जिसका नुकसान हुआ, वे मामले को संगीन बनाने के लिए कुछ भी आरोप लगा सकते हैं, मगर जिस प्रकार मूर्ति टूटने के बाद हिंदूवादी गुस्सा हो कर मौके पर आए, उससे ही माहौल गरमाया। और आग में घी डालने का काम किया नए जमाने के वाट्स एपी और फेसबुकिये पत्रकारों ने। बताने की जरूरत नहीं कि वाट्स ऐप और फेसबुक पर कुछ भी लिखने की आजादी है और लिखने के शौकीन, जिन्हें अखबारों में पत्रकार बनने का मौका नहीं मिला, वे जम कर भड़ास निकालने से नहीं चूकते। कुछ ने तो साफ तौर पर यही मान कर गहलोत की आलोचना की कि मूर्ति खुद उन्होंने ही तोड़ी। तोड़ी कि नहीं, इसका प्रमाण किसी के पास नहीं, मगर उन्हें तो मौका चाहिए था, इस कारण इसकी आड़ में हिंदूवादी भावनाएं भड़काने में कसर नहीं छोड़ी।
हो सकता है कि इस घटना से हिंदुओं की भावनाएं आहत हुई हों, सो कुछ ने समाज का प्रतिबिंब बनते हुए बड़ा ऐतराज उठाया कि अक्सर हिंदुओं के साथ ही ऐसा क्यों होता है? उनका ऐतराज था कि होली आती है तो कहते हैं कि पानी काम में मत लो, दीवाली आती है तो कहते हैं कि आतिशबाजी मत करो। इन नेताओं का बस चले तो हिंदुओं के सभी त्यौहारों पर रोक लगा दें। एक ने इस तर्क को खारिज करते हुए कि मूर्ति की कोई प्राणप्रतिष्ठा थोड़े ही हुई थी, प्रतितर्क दिया कि ये तर्क उस देश में दिया जा रहा है, जिस देश की संस्कृति में पत्थर पर सिन्दूर लगा कर उसे ही भैरव मान कर उसकी उपासना की जाती है। यहां की संस्कृति में कंकर को भी शंकर माना जाता है। एक के इस तर्क में दम था कि यदि मूर्ति को हटाना ही था तो और भी विकल्प हो सकते थे, सत्ता की मदहोशी का प्रदर्शन क्यों किया। एक का कहना था कि अगर यही कृत्य कोई गैर हिंदूवादी करता तो बवाल हो जाता, मगर चूंकि हिंदवादी नेता के हाथों हुआ, इस कारण कोई कुछ नहीं बोला। कुल जमा लिखने वालों का सारा जोर इस बात पर था कि यही नेतागण अब गणपति महोत्सव में जाकर उन्हीं गणपति की आरती उतार कर उनके भक्त बनने का स्वांग करते भी नजर आएंगे, क्योंकि उस वक्त इन्हीं नेताओं को गणपति के भक्तों में अपने वोट बैंक नजर आएंगे।
बहरहाल, जो कुछ हुआ, अच्छा नहीं हुआ। भले ही आधिकारिक रूप से किसी भी रिपोर्टिंग में यह बात सामने नहीं आई कि मूर्ति स्वयं गहलोत ने तोड़ी, मगर जिस प्रकार सोशल मीडिया पर उबाल नजर आया, उसे गहलोत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। ये कह कर भी बात को टाला जा सकता है कि सोशल मीडिया में कुछ भी आता रहता है, हर बात का जवाब देते फिरेंगे क्या, मगर जो अफवाह फैली, उसका निस्तारण होना ही चाहिए था। चाहे गहलोत की ओर से चाहे निगम की आधिकारिक विज्ञप्ति में कि मूर्ति कैसे खंडित हुई। अब ये तो गहलोत व निगम प्रशासन ही बेहतर समझ सकते हैं कि अफवाह का खंडन किया जाना चाहिए या नहीं, मगर जनमानस में ऐसी अपेक्षा रही कि वस्तुस्थिति सामने आनी चाहिए। गहलोत जैसे मुखर नेता से तो ये उम्मीद थी कि वे सीना तान कर पूछेंगे कि कौन कहता है कि मूर्ति उन्होंने तोड़ी, साबित करके दिखाएं, मगर वे इस मसले पर चुप्पी साध गए। कदाचित पद की गरिमा का मसला हो। या फिर स्पष्टीकरण देने की जरूरत ही नहीं समझी, क्योंकि उन्होंने इसे नोटिस में ही नहीं लिया। कोई बात नहीं। मगर जनमानस के सबकॉन्शस में जो चला गया, उसका परिणाम अभी नहीं बाद में उभर कर आ सकता है।
क्या आपको गाबदू गहलोत चाहिए?
इस मसले का एक पहलु और भी है। वो ये कि क्या ऐसे मामलों में गहलोत को स्वयं मौजूद रह कर कार्यवाही करवानी चाहिए? यह सवाल तब भी उठा था, जब पिछले कार्यकाल के दौरान उन्हें ठेले वालों को खुद हटाते देखा गया था। कुछ लोग ऐसी सीख दे रहे हैं कि गहलोत को ऐसे मामलों से बचना चाहिए। यह एक विचारणीय विषय हो सकता है। सवाल उठता है कि क्या आपको पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत जैसा अतिविनम्र गहलोत चाहिए, जो हर जगह हाथ जोड़ कर काम चला ले। ऐसे जनप्रतिनिधि अजमेर को क्या दे पाएं हैं, ये किसी से छिपा नहीं है। बेशक विवादित मसलों पर मेयर जैसे जनप्रतिनिधि का मौके पर होना उन्हें विवादित बना सकता है, मगर साथ ही इससे जनहित के मुद्दों के प्रति उसका जज्बा भी साफ नजर आता है। भूतपूर्व नगर परिषद सभापति स्वर्गीय श्री वीर कुमार का भी यही स्टाइल था। इतिहास के झरोखे से थोड़ा पीछे देखें। श्रीमती अदिति मेहता तो जिला कलेक्टर थीं, मगर अतिक्रमण हटाओ अभियान का नेतृत्व खुद कर रही थीं। आपको याद होगा कि अभियान के दौरान दरगाह इलाके में पत्थरबाजी के बाद भी टीम की हौसला अफजाई के लिए पालथी मार कर बैठ गई थीं। उनके कार्यकाल के परिणामों को आज भी याद किया जाता है। खैर, आप ही विचार कीजिए कि आपको गाबदू गहलोत चाहिए या फिर मुखर गहलोत?
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000