शनिवार, 11 दिसंबर 2010

बोर्ड विखंडन का मुद्दा टांय टांय फिस्स

शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल ने जिस तरह अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के विखंडन के आरोपों की गिल्लियां उड़ाते हुए पलटवार किया है, उसे देखते हुए तो यह साफ हो चुका है कि सरकार जो निर्णय कर चुकी है, उससे एक कदम भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। उन्होंने जयपुर स्थित शिक्षा संकुल में बनाए जाने वाले बोर्ड के भवन को बड़ी चतुराई से विस्तार की संज्ञा तो दी ही है, साथ ही उलटे देवनानी पर ही सवाल दाग दिया कि शायद उन्हें सरकार की ओर से किए जा रहे विकास कार्य पच नहीं रहे हैं। वे देवनानी पर लगभग बरसते हुए बोले कि आपने शिक्षा मंत्री रहते ऐसे विकास कार्य क्यों नहीं करवाए।
असल में इस प्रकरण यही हश्र होना था। अव्वल तो इसको लेकर शिक्षा बोर्ड कर्मचारी संघ चूं तक नहीं कर रहा। उसकी चुप्पी साबित करती है कि वह सरकार के इस निर्णय से सहमत है। रहा सवाल समय-समय पर अजमेर के हित की बात करने वाले कांग्रेसी विधायकों व नेताओं का, तो वे इस कारण बोलने वाले नहीं हैं कि वे अपने आकाओं को नाराज नहीं करना चाहते। पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती से जरूर जनता को उम्मीद थी, क्यों कि वे गाहे-बगाहे अजमेर के हित की बात करते रहते हैं, मगर वे भी शायद इसी कारण चुप हैं कि उनके आका मुख्यमंत्री अशोक गहलोत स्वयं उस भवन का 12 दिसम्बर को शिलान्यास करने जा रहे हैं। पूर्व विधायक ललित भाटी भी बोलने में कम नहीं पड़ते, मगर वे अभी तो बिखरी हुई को समेटने में व्यस्त हैं। बाकी बचे भाजपाई, जिन पर विपक्ष में रहते हुए जनता के हितों का ध्यान रखने की जिम्मेदारी है, उन्हें भी सांप सूंघा हुआ ही लग रहा है। अकेले देवनानी ही अपनी पूंपाड़ी बजा रहे हैं। अन्य मौकों पर बढ़-चढ़ कर बोलने वाली अजमेर शहर की दूसरी भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने भी चुप्पी साध रखी है। कदाचित वे इस कारण नहीं बोल रहीं कि मुद्दा देवनानी ने जो उठाया है। वे भला उनकी बात का समर्थन कैसे कर सकती हैं। बाकी बचा शहर भाजपा संगठन, वह तो वैसे भी नए अध्यक्ष इंतजार में मृतप्राय: सा पड़ा है। वैसे भी उसकी और अन्य भाजपा नेताओं की देवनानी से नाइत्तफाकी सर्वविदित ही है। जब अधिसंख्य भाजपा नेता देवनानी को निपटाने की कोशिश में जुटे हुए हों, तो भला उनकी बात को समर्थन करने कौन आएगा, भले ही वे शहर हित की बात कर रहे हों। कम से कम अभी तो कर ही रहे हैं, आईआईटी के मामले में भले ही उदयपुर जा कर उनकी जबान फिसल चुकी हो। जाहिर है ऐसे में देवनानी की आवाज नक्कारखाने में तूती की माफिक साबित हो रही है।
अब अगर मीडिया की बात करें तो वह पहले ही चोट खा चुका है। आईआईटी के मामले में स्थानीय दैनिक नवज्योति के मालिक दीनबंधु चौधरी ने अगुवाई की थी, मगर शेरनी की माफिक तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की नाराजगी होने पर एक तो सरकारी विज्ञापनों में कटौती का डर और दूसरा आम जनता की बेरुखी, दोनों कारणों से चुप हो कर बैठ गए। जनता का तो हम सब को पता ही है। हमारी बला से तो पूरा बोर्ड ही जयपुर ले जाएं तो हमें क्या फर्क पड़ता है। हमें तो पांच-पांच दिन के अंतराल से पानी सप्लाई किए जाने से ही फर्क नहीं पड़ता, बोर्ड तो चीज ही क्या है? यानि कुल मिला कर तय है कि बोर्ड विखंडन का मुद्दा टांय टांय फिस्स होता दिख रहा है।

दो साल में कांग्रेसियों को कुछ नहीं दिया गहलोत ने

प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भले ही अपने दो साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना कर नहीं थकें, मगर जिन कार्यकर्ताओं के दम पर वे सत्ता का स्वाद आनंद भोग रहे हंै, उन्हें तो निराशा ही हाथ लगी है। नरेगा, प्रशासन शहरों की ओर, प्रशासन गांवों की ओर जैसे अभियानों से आम आदमी को भले ही दोनों हाथों से लुटा रहे हों, मगर कार्यकर्ताओं को उन्होंने कुछ नहीं दिया है। वे अब भी राजनीतिक नियुक्तियों को तरस रहे हैं। रोष तो उनमें बहुत है, मगर कर कुछ नहीं पा रहे। मलाईदार पदों की छोड़ भी दें, मगर संगठन के पदों पर नई नियुक्तियों का इंतजार करते-करते भी एक साल बीतने को आया है। सत्ता व संगठन के बीच तालमेल न होने के कारण प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर भी नई नियुक्ति नहीं हो पा रही। कांग्रेस कार्यकर्ताओं को गहलोत इस रवैये पर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि क्या से वही गहलोत हैं, जिन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते प्रदेशभर के कार्यकर्ताओं में अपनी पहचान बनाई थी और उन्हें कार्यकर्ताओं की भावनाओं के बारे में भी भरपूर जानकारी है।
राजनीति जानकारों का मानना है कि पिछली बार के मुख्यमंत्री गहलोत और इस बार के मुख्यमंत्री गहलोत में काफी फर्क है। इस बार जब से मुख्यमंत्री बने हैं, तब से न जाने कितनी बार मीडिया उनसे पूछ चुका है कि राजनीतिक नियुक्तियां कब कर रहे हैं और वे भी न जाने कितनी बार यह कह चुके हैं कि बस अब जल्द ही तोहफे बांटे जाएंगे। रहा सवाल कांग्रेसियों का तो जो भी उनके पास हाजिरी देने जाता है, उससे बड़ी गर्मजोशी से मिल कर जादूई स्टाइल में मुस्कराते हैं और सिर्फ एक ही बात कहते हैं, तसल्ली रखो, मुझे सब कुछ ध्यान में है, जल्द ही कुछ करेंगे। ऐसा कहते-कहते उन्होंने पूरे दो साल निकाल दिए। अब तो कांग्रेसियों को भी निराशा होने लगी है। उन्हें बार-बार जा कर भिखारी की तरह मांगने में शर्म आने लगी है। कई कार्यकर्ता तो इस कारण उनके सामने जाने से कतराने लगे हैं कि कहीं टोक न दें कि एक बार कह दिया न कि तसल्ली रखें, समय आने पर सब कुछ मिलेगा। राजनीनिक नियुक्ति की आशा में अपना निजी व्यवसाय चौपट कर चुके कांग्रेसी तो अब सब कुछ छोड़ छाड़ कर वापस धंधे पर ध्यान देने की सोच रहे हैं।
हालांकि दो साल पूरे होने पर एक बार फिर राजधानी में तोहफे बंटने की चर्चा जोरों पर है, मगर कांग्रेसियों को यही लगता है कि जन्म से जादूगर गहलोत के झोले में से कुछ नहीं निकलने वाला है। वे इस बार काफी कंजूस हो गए हैं। या फिर उन्हें यह समझ में आ गया है कि जब तक कुछ नहीं बांटो, कार्यकर्ता मुंह ताकता है, देने के बाद तो मुट्ठी खुल जाएगी। या फिर उन्हें ये रहस्य पता लग गया है कि कार्यकर्ताओं को देने के लालच में अटकाए रखो तो वे काम करते हैं, मलाई चखाने से तो बिगड़ जाते हैं। अभी तो कोई सेवा मांग रहे हैं और सेवा कार्य दे दिए जाने के बाद खुद की सेवा में लग जाएंगे। इसी का परिणाम रहा कि पिछली बार सुशासन देने के कारण देश के नंबर वन मुख्यमंत्री घोषित होने के बाद भी सत्ता में लौट नहीं पाए। अकाल राहत के नाम पर इतना लुटाया कि चुनाव के दो-तीन माह के बाद तक ग्रामीणों के घरों में गेहूं की बोरियां पड़ी थीं, मगर यही सेवा मांगने वाले जन-जन तक गहलोत की उपलब्धियों को नहीं पहुंचा पाए थे। कार्यकर्ताओं व छोटे नेताओं की छोडिय़े, मंत्री पद पर बैठे नेता तक यहीं इंतजार कर रहे हैं कि उन्हें अब तक के परफोरमेंस को देख कर कोई अच्छा विभाग मिल जाएगा। कई विधायक भी इसी इंतजार में हैं कि कब मंत्रीमंडल का विस्तार अथवा फेरबदल हो और उनका नंबर आए।
समझदानी में सियासत की बारीकियां रखने वाले मानते हैं कि असल में गहलोत को इतनी फुर्सत ही नहीं कि कार्यकर्ताओं पर ध्यान दे पाएं। असल में उन्हें तो अपनी ही कुर्सी की चिंता लगी रहती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सी. पी. जोशी ने नींद हराम कर रखी है। वे आए दिन कोई घोचा कर देते हैं। केन्द्रीय मंत्री होने के कारण अधिकांश समय दिल्ली में रहते हैं, इस कारण वहां बैठे-बैठे सोनिया गांधी के प्रमुख सलाहकारों के बीच चक्कर चलाते रहते हैं। खुद ही कई बार मुख्यमंत्री पद का दावेदार होने की सुर्री छोड़ चुके हैं। हालांकि बताया जाता है कि सोनिया दरबार में गहलोत के पैर जमे हुए हैं, मगर राजनीति का क्या भरोसा, कब पलटी खा जाए। इसकी वजह ये है कि कांग्रेस में सत्ता का केन्द्र अब केवल सोनिया गांधी ही नहीं है, राहुल बाबा की भी चलती है। और राहुल के रजिस्टर में जोशी ने खासे नंबर हासिल कर रखे हैं। यही वजह है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नई नियुक्ति नहीं हो पा रही है। जोशी चाहते हैं उनकी पसंद का अध्यक्ष हो, जो गहलोत को चैक करता रहे, जबकि गहलोत चाहते हैं कि उनसे ट्यूनिंग बैठाने वाला अध्यक्ष बने। इसी खींचतान में इसी साल एक जनवरी को शुरू हुए संगठन चुनाव की प्रक्रिया अब तक पूरी नहीं हो पा रही है। पीसीसी व एआईसीसी के सदस्य तो तय हो गए, सदर का फैसला नहीं हो पा रहा। और जब तक सदर का फैसला नहीं होगा, तब तक भला सत्ता व संगठन के बीच मलाईदार पदों का बंटवारा कैसे हो सकता है?