सोमवार, 26 मई 2014

सांवरलाल जाट के साथ अजमेर के साथ भी हुआ धोखा

देशभर में चली मोदी सुनामी लहर के चलते अजमेर सहित राजस्थान की सभी सीटों पर भाजपा की जीत के बाद अच्छे दिन आने वाले हैं का नारा अजमेर में भी फलित होने की आशा थी। हो भी क्यों नहीं। राज्य मंत्रीमंडल में अजमेर का प्रतिनिधित्व करने वाले नसीराबाद विधायक प्रो. सांवरलाल जाट का केबीनेट मंत्री पद शहीद कर उन्हें अनिच्छा के बावजूद लोकसभा चुनाव लड़ाया गया। जाहिर सी बात है कि मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने उन्हें आश्वासन दिया होगा कि सरकार बनने पर उन्हें मंत्री बनवाया जाएगा, वरना भला कौन केबीनेट मंत्री पद छोड़ कर अदद सांसद बनने को तैयार होगा। रणनीति के लिहाज से वसुंधरा को लगा होगा कि अकेले वे ऐसे नेता हैं जो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट को टक्कर दे सकते हैं, सो लोकसभा में पार्टी सांसदों का नंबर बढ़ाने के लिए उनको राजी किया गया। वे न केवल जीते, बल्कि शानदार वोटों से जीत दर्ज की, मगर धोखा हो गया। धोखा खाने का मलाल साफ तौर पर उनके चेहरे पर देखा गया, जब चैनलों पर उनसे पूछा गया कि मंत्री न बनाने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है। असल में यह सवाल ही उनके घाव पर नमक जैसा प्रतीत हो रहा था। वे चिढ़ कर महज इतना ही कह पाए कि आप क्या कहलाना चाहते हैं, देखते जाइये, आगे कुछ होगा। यानि कि उन्हें भी पूरा विश्वास था कि वे मंत्री बनाए जाएंगे। जब उनसे पूछा गया कि क्या आपको भरोसा है, तो वे बोले कि भरोसा क्या, उनको तो पता है। ऐसा कह कर उन्होंने यह जताने की कोशिश की मानो उन्हें यह कहा गया हो कि भविष्य में जब भी मंत्रीमंडल का विस्तार होगा, उनका भी नंबर आएगा, मगर उनकी बॉडी लैंग्वेज साफ चुगली कर रही थी कि वे धोखा होने से बेहद आहत हैं।
असल में यह धोखा अजमेर के साथ भी है। केन्द्रीय मंत्री पायलट को हराने वाले को भाजपा का पूर्ण बहुमत होने के बावजूद मंत्री नहीं बनाया गया है, तो यह सरासर धोखा ही है। पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत को तो इस वजह से मौका नहीं मिला था क्योंकि तब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अनेक दलों के सहयोग से बनी थी। मगर इस बार कोई दिक्कत नहीं थी, फिर भी नंबर नहीं आया। केन्द्र में मंत्री होने व न होने के क्या मायने होते हैं, इसका अजमेर को ठीक से अनुभव है। प्रो. रावत पांच बार सांसद रहे, मगर मंत्री न बनने के कारण कुछ नहीं कर पाए, जबकि पायलट मंत्री बने तो अजमेर विकास की पटरी पर चलने लगा था। ये उनके ही प्रयासों का फल है कि अजमेर में हवाई अड्डे के निर्माण में आ रही सारी बाधाएं दूर हो गईं व अब निर्माण कार्य प्रगति पर है। उन्होंने केन्द्रीय विश्वविद्यालय आरंभ करवाया। अनेक नई ट्रेनें शुरू करवाईं। अजमेर के इतिहास में पहला मेगा मेडिकल कैंप आयोजित करवाया। उनकी इन उपलब्धियों को भाजपाई भी स्वीकार करते हैं। आजादी के बाद पहली बार केन्द्र में अजमेर का मंत्री बनने का स्वाद कैसा होता है, यह अजमेर ने चखा है। अजमेर को आशा थी कि मोदी के कथित अच्छे दिन अजमेर में भी आएंगे, मगर अफसोस। राज्य की पच्चीसों सीटें मोदी की झोली में डालने वाली वसुंधरा राजे के खास सिपहसालार मंत्री बनने से वंचित रह गए। एक टीवी चैनल पर एंकर अपने वरिष्ठ सहयोगी से बतिया रहे थे कि क्या प्रो. जाट की उम्मीद पर यकीन किए जाने की स्थिति है तो वे मुस्करा कर बोले की राजनीति संभावनाओं व जीवन आशाओं का खेल है, देखते हैं आगे क्या होगा है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 18 मई 2014

सचिन पर नसीराबाद से चुनाव लडऩे का दबाव

लोकसभा चुनाव में प्रदेश की चार सीटों पर मौजूदा भाजपा विधायकों के जीतने के बाद अब जब प्रदेश कांग्रेस कमेटी में इन पर होने वाले उपचुनावों की रणनीति पर चर्चा हो रही है तो कुछ नेताओं की ओर से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे प्रदेश के जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट के जीतने के बाद खाली हो रही नसीराबाद सीट से चुनाव लड़ें। ऐसा इसलिए कि वे अजमेर जिले की इस सीट से अच्छी तरह से वाकिफ हैं और यहां उनके सजातीय गुर्जर वोटों की बहुलता है। प्रदेश कांग्रेस के नेता सचिन पर विधानसभा चुनाव के लिए दबाव इस वजह से बना रहे हैं कि एक विधायक के रूप में विधानसभा में उनकी मौजूदगी से 21 सदस्यीय विधायक दल को संबल मिलेगा। विधायक रहते हुए वे कांग्रेस पक्ष दमदार तरीके से रख सकते हैं। साथ ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के नाते जर्जर हो चुकी कांग्रेस को मजबूत करने में भी सुविधा रहेगी।
आइये, जरा इस सीट से जुड़े तथ्यों पर गौर करें:-
अजमेर जिले की नसीराबाद विधानसभा सीट पर स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर का लगातार छह बार कब्जा रहा और उनके निधन के बाद उनके ही भतीजे व श्रीनगर पंचायत समिति के पूर्व प्रधान महेन्द्र सिंह गुर्जर काबिज हुए। दरअसल यहां पूर्व में लगातार गुर्जर व रावतों के बीच मुकाबला होता था। बाबा के सामने लगातार तीन बार रावत समाज के मदन सिंह रावत खड़े किए गए, मगर जीत उनकी किस्मत में थी ही नहीं। परिसीमन के तहत पुष्कर व भिनाय विधानसभा क्षेत्र के कुछ हिस्सों को शामिल किए जाने के कारण यहां का जातीय समीकरण बदल गया। तकरीबन 25 हजार जाट मतदाताओं के मद्देनजर पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को उतारा गया, मगर महज 71 वोटों से हार गए। यानि की कांटे की टक्कर रही।
नसीराबाद यों तो एससी बहुल इलाका है, लेकिन किसी एक जाति की बात करें तो गुर्जर सबसे ज्यादा हैं। राजनीतिक पंडितों के मुताबिक नसीराबाद में एससी के करीब 45 हजार, गुर्जर करीब 30 हजार, जाट करीब 25 हजार, मुसलमान करीब 15 हजार, वैश्य करीब 15 हजार, रावत करीब 17 हजार हैं। इनके अलावा ब्राह्मण, यादव मतदाता भी हैं। परंपरागत मतों के हिसाब से जोड़ कर देखें तो गुर्जर, एससी, मुसलमान कांग्रेस का वोट बैंक 90 हजार से अधिक हो जाता है। क्षेत्र में प्रत्याशी के जातिगत मतों और परंपरागत मतों को जोड़कर देखें तो भाजपा का वोट बैंक भी करीब 90 हजार के लगभग हो जाता है। शेष मतों को लेकर दोनों दलों में कांटे का मुकाबला होता है। वैसे भी हार जीत का अंतर इस सीट पर काफी कम रहता आया है। दरअसल इस सीट पर कांग्रेस का पूरा जोर एससी और गुर्जर मतों पर रहता आया है। गुर्जरों का मतदान प्रतिशत 70 से 90 प्रतिशत तक कराया जाता है। पहली बार जब प्रो. जाट यहां से लड़े तो वे अपने सजातीय वोटों का प्रतिशत 70 से ऊपर नहीं ले जा पाए, उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। कुल मिला कर लंबे अरसे तक यह कांग्रेस का गढ़ रहा, मगर दिसम्बर में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस विरोधी लहर के चलते सारे जातीय समीकरण धराशायी हो गए और प्रो. जाट रिकार्ड 28 हजार 900 मतों से विजयी हुए। सांवर लाल को 84 हजार 953 मत मिले, जबकि महेन्द्र सिंह गुर्जर को 56 हजार 53 मत। इसके बाद हाल ही हुए लोकसभा चुनाव में मतांतर आश्चर्यजनक रूप से कम हो गया। हालांकि पूरे संसदीय क्षेत्र में जाट को 1 लाख 71 हजार 983 की लीड मिली, लेकिन नसीराबाद में लीड घट कर 10 हजार 999 मतों पर सिमट गई। प्रचंड मोदी लहर के बाद भी लीड कम होना रेखांकित करने लायक तथ्य है। यानि कि यदि आगामी उपचुनाव में लहर की तीव्रता बरकरार न रही तो कांग्रेस व भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला संभव है। सचिन जैसे दिग्गज गुर्जर नेता को यह मुकाबला जीत में तब्दील करना आसान हो सकता है। इसकी एक वजह ये भी है कि भाजपा के पास अब प्रो. जाट जैसा कोई दिग्गज नेता नहीं है। संभावना यही है कि प्रो. जाट इस सीट का टिकट अपने बेटे के लिए मांग सकते हैं। ज्ञातव्य है कि जाट ने लोकसभा चुनाव में रामस्वरूप लांबा के लिए टिकट मांगा था, मगर उन्हें खुद की चुनाव लडऩा पड़ गया। यूं लोकसभा टिकट के प्रबल दावेदार रहे देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. भगवती प्रसाद सारस्वत भी दावा ठोक सकते हैं। इसी प्रकार वैश्य समाज के कोटे में पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा भी टिकट मांग सकते हैं।
-तेजवानी गिरधर

सचिन के हारने से कुछ कांग्रेसी नेताओं के दिलों को मिली ठंडक

अजमेर के निवर्तमान सांसद व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के लोकसभा चुनाव हार जाने से जहां कई कांग्रेसियों को बड़ी मायूसी हुई है, वहीं कुछ ऐसे भी हैं, जिनके दिलों को ठंडक पहुंची है। जाहिर तौर पर इनमें पूर्व देहात जिला अध्यक्ष व अजमेर डेयरी के सदर रामचंद्र चौधरी का नाम सबसे ऊपर है। उन्होंने तो सचिन को टिकट मिलने से पहले ही उन्हें हराने की घोषणा कर दी थी। असल में उनकी इच्छा तो सचिन के सामने चुनाव लड़ कर जाट वोटों में सेंध मारने की थी, मगर ऐन मौके पर जैसे ही भाजपा ने दिग्गज जाट नेता नसीराबाद विधायक प्रो. सांवरलाल जाट को टिकट दिया तो उन्होंने अपनी रणनीति बदल दी। विधानसभा चुनाव में मसूदा में बागी बन कर खड़े हो कर उन्होंने कांग्रेस से तो नाता पहले ही तोड़ लिया था,  लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ खुल कर आ गए। हालांकि उन्होंने भाजपा तो ज्वाइन नहीं की, मगर मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की मौजूदगी में हुई आमसभा में खुल कर प्रो. जाट का साथ देने का ऐलान कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने सचिन पर भी जम कर शब्द बाण चलाए। यह बात दीगर है कि उनका यह अनुमान गलत साबित हुए कि सचिन तीन लाख वोटों से हारेंगे।
दिल को ठंडक तो नगर सुधार न्यास के पूर्व सदर नरेन शहाणी भगत को भी पहुंची होगी। भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे होने के कारण भाजपा सरकार के भारी दबाव में उन्होंने ऐन चुनाव से पहले कांग्रेस छोड़ दी, हालांकि भाजपा में नहीं गए। उन्होंने सीधे तौर पर सचिन पर हमला बोला और सचिन को लिखे अपने इस्तीफे में लिखा -मैं नरेन शाहनी भगत करीब बीस वर्षो से कांग्रेस पार्टी का सक्रिय सदस्य हूं, परन्तु वर्तमान में पार्टी के नेतृत्व के कारण कार्यकर्ताओं का राजनीतिक भविष्य को चौपट हो गया है। आपके नेतृत्व में गुटबाजी के कारण यह हुआ है। आम कार्यकर्ता व वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं की अनदेखी के कारण मुझे बहुत पीडा हो रही है, जिसकी वजह से प्राथमिक मैं सदस्यता से इस्तीफा दे रहा हूं। आप अजमेर जिले के सांसद व केन्द्रीय मंत्री बनें, मगर अजमेर की जनता की सुनवाई के लिये आपने कोई भी स्वयं का स्थाई कार्यालय व निवास नहीं बनाया है, जिससे आम कार्यकर्ता व अजमेर की जनता का कांग्रेस से जुड़ाव कम हुआ है। आपके मंत्री होने के बावजूद भी अजमेर को एक भी नया उद्योग नहीं मिला है और न ही अजमेर रेलवे स्टेशन का स्तर आपकी घोषणानुसार वल्र्ड क्लास हो पाया है। इन परिस्थितियों में आमजन व कार्यकर्ता मायूस है।
पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारियां भी खुश हुए ही होंगे, जो कि चुनाव के वक्त भाजपा में शामिल हो गए। ये तीन नाम तो घोषित रूप से सचिन के विरोधी हैं, मगर ऐसे अनेक नाम हैं, जो कि प्रत्यक्षत: तो सचिन का विरोध इस कारण नहीं कर पाए क्योंकि सचिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं, मगर अंदर ही अंदर सचिन को हराने में लगे हुए थे। उनके नाम का जिक्र करना उचित नहीं, मगर अधिसंख्य कांग्रसियों को पता है कि वे कौन हैं। समझा जाता है कि सचिन को भी पता है। जाहिर सी बात है कि सचिन उनके प्रति कड़ा रुख अपनाएंगे। संभव है संगठन की प्रदेश व शहर जिला इकाई में उनको कोई स्थान न मिले।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 16 मई 2014

देखिए, किस विधायक का रहा कैसा परफोरमेंस

क्या देवनानी को मिलेगा सर्वाधिक बढ़त हासिल करने का फायदा?
अब जब कि अजमेर संसदीय क्षेत्र के चुनाव परिणाम के विस्तृत आंकड़े आ चुके हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या अपने अजमेर उत्तर क्षेत्र में भाजपा को सर्वाधिक बढ़त दिलवाने वाले विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी को उसका फायदा मिलेगा?
ज्ञात रहे कि राज्य मंत्रीमंडल में जगह पाने के लिए संसदीय क्षेत्र के विधायकों में अधिक से अधिक बढ़त दिलवाने की प्रतिस्पद्र्धा रही, विशेष रूप से लगातार तीन बार जीते अजमेर उत्तर के प्रो. वासुदेव देवनानी व अजमेर दक्षिण की श्रीमती अनिता भदेल के बीच। अन्य विधायकों में पुष्कर के सुरेश रावत, मसूदा की श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा, केकड़ी के शत्रुघ्न गौतम, दूदू के डॉ. प्रेमचंद बैरवा पहली बार विधायक बने हैं, इस कारण इनका दावा कुछ कमजोर है। हां, अलबत्ता किशनगढ़ के भागीरथ चौधरी जरूर गंभीर दावेदार हो सकते हैं, जो कि दो बार जीते हैं। जाट कोटे से केबीनेट मंत्री बने प्रो. सांवरलाल जाट के सांसद बनने के बाद इसी कोटे में वे दावा कर सकते हैं। किशनगढ़ में उन्होंने भाजपा को 32 हजार 984 की बढ़त भी दिलवाई है। विधानसभा क्षेत्र किशनगढ़ में भारतीय जनता पार्टी के सांवर लाल जाट को 99 हजार 685 मत मिले, जबकि कांगे्रस के सचिन पायलट को 66 हजार 701 मत मिले। चौधरी के लिए यह बात जरूर बाधा बनेगी कि क्या भाजपा जाट कोटे से प्रो. जाट को केन्द्र में मंत्री बनवाने के बाद उसी कोटे से चौधरी को राज्य मंत्रीमंडल में स्थान देगी?
बात अगर अजमेर उत्तर की करें तो यहां भारतीय जनता पार्टी के सांवर लाल जाट को 79 हजार 243 मत मिले, जबकि कांगे्रस के सचिन पायलट को 43 हजार 465 मत मिले। अर्थात मतांतर 35 हजार 778 का हुआ, जो कि संसदीय क्षेत्र में सर्वाधिक है। यहां आपको बता दें कि विधानसभा चुनाव में खुद ने 20 हजार 479 मतों की बढ़त हासिल की थी। देवनानी को 68 हजार 461 मत मिले, जबकि कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को 47 हजार 982 मत मिले। ऐसे में लोकसभा चुनाव में मिली बढ़त उल्लेखनीय है। बेशक यह मोदी लहर का ही असर है, मगर इसी आधार पर यहां के विधायक प्रो. देवनानी का दावा मजबूत होता है। मगर उनके साथ दिक्कत ये है कि इस बार सिंधी जाति के श्रीचंद कृपलानी व ज्ञानदेव आहूजा भी जीत कर आए हैं, जो वसुंधरा के लिए विकल्प उपलब्ध करवा रहे हैं।
अजमेर दक्षिण की बात करें तो यहां भी मतांतर विधानसभा चुनाव की तुलना में बढ़ा है। लोकसभा चुनाव में अजमेर दक्षिण में सांवर लाल जाट को 77 हजार 236 मत मिले, जबकि सचिन पायलट को 48 हजार 476 मत मिले। अर्थात मतांतर 28 हजार 760 रहा। विधानसभा चुनाव में अनिता भदेल ने कांग्रेस के हेमन्त भाटी को 23 हजार 158 मतों से हराया था। अनिता भदेल को 70 हजार 509 मत मिले, जबकि हेमन्त भाटी को 47 हजार 351 मत मिले थे। यानि कि यहां भाजपा की लीड 5 हजार 602 बढ़ी है। यानि कि श्रीमती भदेल की परफोरमेंस में भी उल्लेखनीय इजाफा हुआ है। इस नाते उनका मंत्री पद का दावा मजबूत हुआ है। कहने की जरूरत नहीं है कि वे लगातार तीन बार जीतने के अतिरिक्त अनुसूचित जाति की महिला होने के नाते मंत्री पद की प्रबल दावेदार हैं। उनका प्लस पाइंट ये भी है कि स्थानीय भाजपाइयों का बड़ा धड़ा उनके साथ है।
लगे हाथ आपको बता दें कि विधानसभा क्षेत्र पुष्कर में सांवर लाल जाट को 75 हजार 852 मत मिले, जबकि सचिन पायलट को 62 हजार 707 मत मिले। यानि मतांतर 13 हजार 145 रहा। विधानसभा चुनाव में भाजपा के सुरेश रावत ने कांग्रेस की नसीम अख्तर इंसाफ को 41 हजार 290 मतों से हराया था। सुरेश रावत को 90 हजार 13 वोट मिले, जबकि नसीम को 48 हजार 723 मत। यहां मतांतर कम होने की वजह कदाचित श्रवण सिंह रावत बने, जो कि पायलट के करीबी हैं। विधानसभा चुनावों में समधी सुरेश रावत के मैदान में होने के कारण कांग्रेस का साथ नहीं दिया था।
खुद सांवरलाल जाट के विधानसभा क्षेत्र नसीराबाद  में उन्हें 72 हजार 482 मत मिले, जबकि सचिन पायलट को 61 हजार 490 मत मिले। मतांतर 10 हजार 992 रहा। चौंकाने वाला तथ्य ये कि विधानसभा चुनाव में उन्होंने 28 हजार 900 मतों की बढ़त हासिल की थी। सांवर लाल को 84 हजार 953 मत मिले, जबकि महेन्द्र सिंह गुर्जर को 56 हजार 53 मत मिले थे। यानि कि खुद के ही विधानसभा क्षेत्र में वे पिछली बार की तुलना में पिछड़ गए।
विधानसभा क्षेत्र मसूदा में सांवर लाल जाट को 79 हजार 27 मत मिले, जबकि सचिन पायलट को 70 हजार 59 मत मिले। मतांतर 8968 रहा। विधानसभा चुनाव में भाजपा की सुशील कंवर पलाड़ा ने कांग्रेस के ब्रह्मदेव कुमावत को 4475 मतों से पराजित किया था। सुशील कंवर पलाड़ा को 34 हजार 11  मत मिले, जबकि कुमावत को 29 हजार 536 मत मिले थे। हालांकि यहां चुनाव बहुकोणीय था। बसपा के गोविन्द को 2098, निर्दलीय नवीन शर्मा को 22 हजार 186, निर्दलीय भंवर लाल बूला को 8433, कांग्रेस के बागी निर्दलीय रामचन्द्र चौधरी को 28447, निर्दलीय वाजिद चीता को 20690, निर्दलीय शान्ति लाल को 10622 मत मिले।
विधानसभा क्षेत्र केकड़ी में सांवर लाल जाट को 73 हजार 270 मत मिले, जबकि सचिन पायलट को 59 हजार 407 मत मिले। मतांतर 13 हजार 863 का रहा। विधानसभा चुनाव में भाजपा के शत्रुघ्न गौतम ने कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा को 8 हजार 867 मतों से हराया था। अर्थात मतांतर बढ़ा है,  इसकी वजह ये रही होगी कि विधानसभा चुनाव में एनसीपी के बैनर पर लड़े कांग्रेस के बागी पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारियां पिछले दिनों भाजपा में शामिल हो गए। उन्हें 17 हजार 35 मिले थे। हांलाकि वे उतने ही वोटों का इजाफा तो नहीं दिलवा पाए, मगर उनकी वजह से भाजपा को मिले फायदे के चलते उनका कद बढ़ेगाद्ध
इसी प्रकार विधानसभा क्षेत्र दूदू में सांवर लाल जाट को 79 हजार 195 मत मिले, जबकि सचिन पायलट को 52 हजार 767 मत मिले। मतांतर 26 हजार 428 का रहा।
-तेजवानी गिरधर

क्या एनसीपी के सांवरलाल को मिला नाम का फायदा?

अजमेर संसदीय क्षेत्र के चुनाव में जिस प्रकार नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार सांवरलाल को 12 हजार 149 वोट मिले हैं, उस पर कानाफूसी  है कि कहीं उन्हें अपने नाम का तो फायदा नहीं मिला, क्योंकि उनका नाम ईवीएम मशीन पर भाजपा के प्रो. सांवरलाल जाट के ठीक नीचे था?
ज्ञातव्य है कि अजमेर में मुख्य मुकाबला कांग्रेस व भाजपा के बीच ही था। हालांकि अन्य राष्ट्रीय दल भी मैदान में थे, मगर उनका अजमेर संसदीय क्षेत्र में कोई खास असर नहीं माना जाता, ऐसे में सांवरलाल को 12 हजार से ज्यादा वोट मिलना चौंकाता तो है ही। जहां तक बहुजन समाज पार्टी का सवाल है, उसको चाहने वाले जरूर कुछ संख्या में हैं, इसी कारण इस पार्टी के प्रत्याशी जगदीश को 7 हजार 974 वोट मिलना गले उतरता है, मगर नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी का न तो यहां कोई असर है और न ही सांवरलाल कोई जाना पहचाना नाम है, फिर भला उन्हें 12 हजार 149 वोट कैसे मिल गए? यहां बता दें कि अखिल भारत हिन्दू महासभा के मुकुल मिश्रा को एक हजार 869, अखिल भारतीय आमजन पार्टी के रामलाल को 1 हजार 40,  निर्दलीय अनिता जैन को 910, कृष्ण कुमार दाधीच को 1 हजार 15, जगदीश सिंह रावत को 1 हजार 374, नारायण दास सिंधी को 3 हजार 518, भंवर लाल सोनी को 4 हजार 970 तथा निर्दलीय सुरेन्द्र कुमार जैन को 5 हजार 184 मत मिले। इन सब में से सांवरलाल ही ऐसे हैं, जिनको सबसे ज्यादा वोट हासिल हुए हैं। ऐसे में यह कानाफूसी होना लाजिमी है कि कहीं प्रो. सांवरलाल जाट के नाम के ठीक नीचे सांवरलाल का नाम होने के कारण मतदाता को कन्फ्यूजन तो नहीं हुआ? ये तो गनीमत रही कि प्रो. जाट मोदी लहर पर सवार होने के कारण एक लाख 71 हजार 983 वोटों से जीते हैं, अगर मतांतर कम होता तो सांवरलाल को मिले वोट उनके लिए दिक्कत पैदा कर सकते थे।
-तेजवानी गिरधर

हारने के बाद सचिन पायलट की भूमिका क्या होगी?

अजमेर संसदीय क्षेत्र से हारने के साथ प्रदेश की सभी 25 सीटों पर कांग्रेस की करारी हार के बाद अब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की क्या भूमिका रहेगी? क्या उन्हीं के नेतृत्व में प्रदेश की कांग्रेस को नया अध्याय शुरू करने का मौका मिलेगा या फिर किसी और वरिष्ठ नेता को यह जिम्मेदारी दी जाएगी? क्या इस हार के लिए सीधे तौर पर सचिन को ही जिम्मेदार माना जाएगा कि वे अपेक्षा पर खरे नहीं उतरे?
हालांकि सचिन विरोधियों का यही मानना है कि अब ये जिम्मेदारी उनसे ले ली जाएगी क्योंकि वे अपनी सीट तक नहीं बचा पाए, मगर सचिन समर्थकों का तर्क ये है कि इस करारी हार के लिए सचिन अकेले जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि उन्हें जिस हालत में कांग्रेस संगठन का काम सौंपा गया और चंद माह बाद ही लोकसभा चुनाव थे, इस कारण उनसे बेहतर परिणाम की अपेक्षा करना बेमानी है। उन्हें इतना भी वक्त नहीं मिला कि अपनी नई टीम गठित कर पाते, ऐसे में पुरानी टीम, जो कि कहीं न कहीं अन्य वरिष्ठ नेताओं के इशारों पर चल रही थी, ने सहयोग नहीं किया और विधानसभा चुनाव जैसे ही परिणाम सामने आ गए। एक तर्क ये भी है कि राजस्थान ही क्या, पूरे देश में ही कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया है, ऐसे कांग्रेस विरोधी माहौल में वे कर भी क्या सकते थे। अत: उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहरा कर कांग्रेस में जान फूंकने का मौका मिलना ही चाहिए। उनके तर्क में दम है। सचिन को हटाया जाना इस कारण भी गले नहीं उतरता क्योंकि वे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी हैं और बहुत सोच विचार ही उन्हें जिम्मा सौंपा गया था। सचिन समर्थक तो यहां तक कहते हैं कि असल में राहुल गांधी ने सचिन को जिम्मेदारी यह सोचते हुए दी थी कि राजस्थान में करारी हार के बाद चेहरा बदलना जरूरी था, ताकि कुछ तो असर पड़े। उनसे बहुत अपेक्षा की भी नहीं गई थी। मगर दूसरी ओर समझा ये जाता है कि चूंकि पूरे देश में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा है, ऐसे में संभव है कांग्रेस हाईकमान नए सिरे से सारे पत्ते फैंटे, संगठन में आमूलचूल परवर्तन किया जाए, केन्द्रीय कार्यकारिणी में नए चेहरे लाए जाएं और प्रदेशों में भी व्यापक परिवर्तन हो। ऐसे में यह भी हो सकता है कि राजस्थान के बारे में भी नए सिरे से विचार किया जाए।
-तेजवानी गिरधर

क्या अजमेर के भी अच्छे दिन आएंगे?

देश भर में चली मोदी सुनामी लहर के चलते अजमेर सहित राजस्थान की सभी सीटों पर भाजपा की जीत के बाद अच्छे दिन आने वाले हैं का नारा अजमेर में भी फलित होगा, इस पर हर अजमेर वासी की नजर है। समझा जा सकता है कि अजमेर के अच्छे दिन तभी आ सकते हैं, जबकि भाजपा के बैनर तले जीते राज्य के जलदाय मंत्री सांवरलाल जाट को केन्द्र में मंत्री पद हासिल हो। ज्ञातव्य है कि जाट से पराजित कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष व निवर्तमान सांसद सचिन पायलट पहले ऐसे सांसद थे, जिन्होंने आजादी के बाद पहली बार केन्द्रीय मंत्रीमंडल में अजमेर का प्रतिनिधित्व किया। इससे पांच बार सांसद बने प्रो. रासासिंह रावत के उपलब्धिशून्य  कार्यकाल से निराश आमजन में उम्मीदें जागीं और सचिन उन पर खरे भी उतरे। ये उनके ही प्रयासों का फल है कि अजमेर में हवाई अड्डे के निर्माण में आ रही सारी बाधाएं दूर हो गईं व अब निर्माण कार्य प्रगति पर है। उन्होंने केन्द्रीय विश्वविद्यालय आरंभ करवाया। अनेक नई ट्रेनें शुरू करवाईं। अजमेर के इतिहास में पहला मेगा मेडिकल कैंप आयोजित करवाया। उनकी इन उपलब्धियों को भाजपाई भी स्वीकार करते हैं।
खैर, अब जब कि केन्द्र में भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने जा रही है और प्रदेश में भी प्रचंड बहुमत वाली भाजपा सरकार है, यह उम्मीद की जा रही है कि पायलट को हराने वाले मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के खास सिपहसालार प्रो. जाट को केन्द्र में मंत्री बनने का मौका मिलेगा। उनके नाम की चर्चा एक्जिट पोल सर्वे के साथ ही शुरू हो गई थी। जब उन्हें राज्य का केबीनेट मंत्री होने के बावजूद लोकसभा चुनाव लडऩे भेजा गया तो भी यही अनुमान था कि वे इसी शर्त पर तैयार हुए होंगे कि अगर वे जीते और केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी तो उन्हें मंत्री बनवाया जाएगा, एक आम सांसद बने रहने का तो कोई भी मतलब नहीं। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि प्रो. रासासिंह रावत इस कारण मंत्री नहीं बन पाए थे क्योंकि या तो केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी या फिर भाजपा नीत गठबंधन की सरकार थी तो उसमें भाजपा को अन्य दलों को मौका देना पड़ा और रावत वंचित रह गए।  बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की पहल पर प्रो. जाट को मंत्री बनने का मौका  मिलेगा ताकि अजमेर के भी अच्छे दिन आएं।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 8 मई 2014

पुरामहत्व का तो है ही केईएम

किंग एडवर्ड मेमोरियल के मालिकाना हक को लेकर वर्षों से चल रहा विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है। इस पर अभी जिला प्रशासन का कब्जा है, जबकि नगर निगम का कहना रहा है कि यह उसकी संपत्ति है। इसके पीछे उसका तर्क ये है कि उसने यह संपत्ति सराय के लिए लीज पर दी थी, जिसकी अवधि समाप्त हो गई है, इस कारण उसे लौटा दिया जाए। जब वह अपने इस तर्क को रिकार्ड के आधार पर साबित नहीं कर पाया तो सरकार ने यह तय किया कि इसे पुरामहत्व का घोषित कर दिया जाए। इसके लिए बाकायदा कला, साहित्य, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग जिला प्रशासन की पहल पर अधिसूचना जारी की गई और उस पर आपत्तियां मांगी गईं।
हालांकि इसके साथ ही निगम की सारी कवायद समाप्त हो गई, मगर उसने अपने कब्जे की उम्मीद नहीं छोड़ी और अधिसूचना पर आपत्ति करते हुए कहा कि भवन को पुरामहत्व का घोषित करने पर सौ मीटर दायरे में किसी प्रकार के विकास कार्य नहीं हो पाएंगे। सौ मीटर के दायरे में रेलवे स्टेशन, मदार गेट, पड़ाव सहित अन्य क्षेत्र आते हैं। हाल ही में मेमोरियल के पास दुकानों की नीलामी की गई हैं। ऐसे में यदि इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया जाता है तो भारी परेशानी होगी। निगम के तर्कों में दम तो है, मगर वस्तुस्थिति ये है कि यह संपत्ति है तो पुरामहत्व की। उसकी वजह ये है कि भले ही यह संपत्ति निगम ने कभी लीज पर दी हो मगर संपत्ति पर भवन का निर्माण इंग्लैंड के राजा एडवर्ड सप्तम की याद में वर्ष 1912-1913 में करवाया गया था। दो मंजिला भवन की नींव का पत्थर लार्ड होर्डिग्स द्वारा वर्ष 1912 में रखा गया था। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह पुरामहत्व का हो गया।
हांलाकि निगम के सीईओ सी आर मीणा ने कहा है कि वह अपने हक को लेकर रहेगा, मगर इसमें तनिक संदेह नजर आता है।
इस मसले का एक पहलु ये भी है कि संपदा अधिकारी ने निगम को मेमोरियल सौंपने का फैसला किया है, जो कि न्यायिक फैसले की श्रेणी में आता है, जबकि सरकार ने जो फैसला किया है, वह प्रशासनिक है। संपदा अधिकारी के फैसले पर जिला सत्र न्यायालय में ही अपील की जा सकती है। निगम चाहे तो संपदा अधिकारी के फैसले के आधार कब्जा ले सकता है, लेकिन अधिकारी सरकार के फैसले के खिलाफ जाने से परहेज कर रहे हैं।
परहेज की जो भी वजह हो, मगर मोटे तौर पर यही माना जाता है कि निगम में मौजूद अधिकारी जिला प्रशासन से टकराव मोल नहीं लेना चाहते। ज्ञातव्य है कि इस सराय पर प्रशासन का कब्जा होने के कारण उसके अधिकारियों को आसानी से ऑब्लाइज किया जा सकता है, जबकि निगम को सौंपने के बाद ऐसा नहीं हो पाएगा।

मंगलवार, 6 मई 2014

चंद खादिमों की हरकतें बनेंगी सारे खादिमों पर सख्ती का सबब

महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में बम ब्लास्ट की घटना के बाद कड़ी सुरक्षा व्यवस्था का दावा खादिमों के झगड़े में चले हथियारों ने खारिज कर दिया है। दरगाह परिसर में खुले आम तलवारें, चाकू और अन्य हथियारों से हमले की घटना ने मेटल डिटेक्टर और लगेज स्कैनर की व्यवस्था पर तो सवाल खड़ा किया ही है, इससे खादिमों को भी सुरक्षा जांच के दायरे में लाने व उनके लिए परिचय पत्र जारी करने की जरूरत पर गंभीर विचार को बल दिया है। ज्ञातव्य है कि जब भी खादिमों और उनके हुजरों की जांच का सवाल आता है, वे एकजुट हो जाते हैं और उसी का नतीजा है कि सरकार इस दिशा में केवल विचार मात्र ही कर पाई है। घटना के बाद पुलिस अधीक्षक महेंद्र सिंह चौधरी चौधरी का यह बयान कि खादिम सुरक्षा जांच के दायरे में नहीं हैं, यह बताने के लिए काफी है कि  सरकार व प्रशासन खादिमों के सामने कितने बौने हैं। चौधरी की यह स्वीकारोक्ति कि खादिमों के हुजरे, परिसर में स्थित दुकानें और इनके अन्य सामान की जांच कार्रवाई नहीं होती, यह प्रमाणित करता है कि पुलिस प्रशासन कितना मजबूर है। यानि कि अगर पुलिस को यह पता भी लग जाए कि किसी हुजरे में हथियार रखे हैं तो भी वह मूकदर्शक रहने को विवश है। खादिमों के दो गुटों के झगड़े में तलवारें और अन्य हथियार भी शायद सुरक्षा में इसी कमी के चलते उपयोग हो सके हैं। बेशक खादिम चूंकि दरगाह का अहम हिस्सा हैं, इस कारण उन पर संदेह करना ठीक नहीं प्रतीत होता, मगर इस प्रकार की वारदात सरकार को मजबूर कर सकती है कि वह अब इन पर भी सख्ती बरते। इस आशय के संकेत चौधरी ने यह कह कर दिए कि घटना की पुनरावृत्ति रोकने के लिए वे मुख्यालय को इस बारे में रिपोर्ट देंगे, जिसमें दरगाह परिसर में खादिमों और उनका सामान चैक करने का सुझाव भी देंगे।
आपको याद होगा कि बम ब्लास्ट की घटना के बाद दरगाह में विशेष सुरक्षा इंतजाम के तहत भीतर और बाहर आने-जाने वाले सामान को चैक करने के लिए आधुनिक लगेज स्कैनर मशीनें लगाई गई थीं। हालांकि खादिमों ने विरोध किया, लेकिन यह मशीनें दरगाह के सोलह खंभा गेट और लंगर खाना गेट पर लगा दीं थी, मगर दरगाह परिसर में हथियारों से हमले की घटना ने साबित हो गया है कि ये मशीनें भी नाकाम हो गई हैं। ऐसे में स्पष्ट हो जाता है कि खादिमों को मिली छूट का कुछ खादिमों ने दुरुपयोग किया है, जिसका खामियाजा सारे खादिमों को उठाना पड़ सकता है। ताजा वारदात ने सुरक्षा व्यवस्था पर ही नहीं, अपितु दरगाह शरीफ की पवित्रता पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। यदि खुद खादिम ही करोड़ों लोगों की आस्था के केन्द्र दरगाह की गरिमा का ख्याल नहीं रखेंगे तो सरकार को सख्त होना ही चाहिए।

सोमवार, 5 मई 2014

अनेक समाचार पत्रों के जनक नारायण दास सिंधी नहीं रहे

अजमेर ने एक ऐसे वरिष्ठ पत्रकार को खो दिया है, जिन्हें यदि अनेक समाचार पत्रों का जनक कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनका दूसरा परिचय है ऐसे शख्स के रूप में, जिन्होंने लोकसभा व विधानसभा के अनेक चुनाव निर्दलीय रूप से लड़े, महज शौक की खातिर। शायद उनकी इच्छा थी कि सर्वाधिक चुनाव लड़ कर गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड्स में अपना नाम दर्ज करवाएं। अनेक चुनाव लडऩे के लिए उनका नाम स्वर्गीय श्री कन्हैया लाल आजाद के बाद लिया जाता है। हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में भी वे निर्दलीय प्रत्याशी थे। आप समझ गए होंगे कि हम श्री नारायण दास सिंधी का जिक्र कर रहे हैं।
शक्ल-सूरत, रहन-सहन और चाल-ढ़ाल से आम आदमी होने का अहसास कराने वाले इस शख्स ने पत्रकारों का अखिल भारतीय संगठन गठित कर उसका संचालन किया होगा, इस पर सहज ही विश्वास नहीं होता। वे ऑल इंडिया स्माल जर्नलिस्ट एसोसिएशन के संस्थापक अध्यक्ष थे और अजमेर सहित देश के अनेक स्थानों पर उन्होंने पत्रकारों के सम्मेलन आयोजित किए। अनेक स्मारिकाएं प्रकाशित कीं। मैं उन्हें मजाक में पत्रकारों का भीष्म पितामह कहा करता था। वस्तुत: उन्होंने अनेक लोगों को समाचार पत्र शुरू करने की प्रेरणा दी। प्रेरणा ही नहीं दी, शुरू भी करवाया और उनके मुद्रण से लेकर सारी सार-संभाल तक की। कई समाचार पत्रों को विज्ञापनों के लिए केन्द्र व राज्य सरकार से मान्यता दिलवाई। वे न केवल स्वयं एक अखबार जंयती जनता पाक्षिक के संपादक थे, अपितु पत्नी श्रीमती विमला देवी को डायरेक्टर पाक्षिक अखबार शुरू करवाया। पुत्रियों को भी समाचार पत्र आरंभ करवाए। उन्हें समाचार पत्रों के प्रकाशन संबंधी सभी ताजातरीन तकनीकी जानकारियां थीं, इस कारण जिस भी संपादक-प्रकाशक को कुछ पूछना होता था तो उन्हीं के पास जाया करते थे। वे सदैव सहयोग करने को तत्पर रहते थे। आरएनआई, डीएवीपी व डीआईपीआर से संबंधित सभी जानकारियां व फार्म उनके कंप्यूटर में मौजूद रहते थे। प्रसंगवश बता दें कि इस मामले में दूसरा नाम समाचार सम्राट पाक्षिक के संपादक श्री रमेश शर्मा का लिया जाता है।
जहां तक मेरी जानकारी है, श्री सिंधी का पूरा जीवन संघर्ष में बीता। आरंभ में गांधीधाम में बंदरगाह पर काम किया। कुछ समय उन्होंने माउंट आबू में ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय में ब्रह्माकुमार के रूप में बिताया। उन्हें डाक टिकट और उपन्यास संग्रहित करने का भी शौक था। अजमेर में फिलेटेली सोसायटी आरंभ करवाने में भी उनकी अहम भूमिका रही। वे सिंधी समाज समारोह समिति के अध्यक्ष भी रहे। जीवन के आखिरी दिनों में भी वे सक्रिय रहे। हाल ही दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक श्री रमेश अग्रवाल के पुत्र की शादी में भी उन्हें देखा गया। ऐसी विलक्षण शख्सियत को अजमेरनामा की ओर से भावपूर्ण श्रद्धांजलि।
-तेजवानी गिरधर

भाजपाई कर रहे हैं दमदार दावा, बेउम्मीद कांग्रेसी भी नहीं

अजमेर संसदीय क्षेत्र के लिए हुए मतदान के बाद एक ओर जहां भाजपाइयों को उनके उम्मीदवार प्रो. सांवरलाल जाट की जीत का पक्का विश्वास है, और वह भी भारी मतांतर से, वहीं कांग्रेस प्रत्याशी सचिन पायलट के समर्थक कुछ समीकरणों को गिनाते हुए उनकी जीत के प्रति उम्मीद पाले हुए हैं। हालांकि मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि जीत जाट की ही होगी, भले ही मतांतर कुछ कम हो जाए। रेडंम सर्वे करें तो भी मोदी लहर के परिप्रेक्ष्य में आपको हर कोई यही कहता नजर आएगा कि जीतेंगे जाट ही। ऐसे में यदि सचिन जीतते हैं तो यह एक आश्चर्य ही होगा।
असल में भाजपाइयों को जाट की जीत का विश्वास इस कारण है कि एक तो उन्हें पूरा भरोसा है कि विधानसभा चुनाव की तरह इस बार भी मोदी लहर का जबरदस्त असर रहा है। दूसरा ये कि विधानसभा चुनाव में भाजपा की बढ़त पूरे संसदीय क्षेत्र में तकरीबन दो लाख वोटों की रही, जिसे पाटना कांग्रेस विरोधी माहौल में सचिन के लिए बेहद मुश्किल रहा। सांगठनिक दृष्टि से भी भाजपा मजबूत रही और उसके कार्यकर्ताओं ने पूरे उत्साह के साथ काम किया। दूसरी ओर कांग्रेसी हतोत्साहित थे व सचिन को उसी लचर ढ़ांचे के सहारे ही चुनाव लडऩा पड़ा, जिसके चलते संसदीय क्षेत्र की सभी आठों सीटों पर कांग्रेस हार गई थी। हालांकि सचिन ने चुनाव प्रचार के दौरान रूठे हुए कांग्रेसियों को मनाने में कामयाबी हासिल की, मगर मतदान के दिन उनकी सक्रियता कम ही नजर आई। यानि कि सचिन से नाइत्तफाकी रखने वाले उनके प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के कारण ऊपर से तो राजी हो गए, मगर धरातल पर उन्होंने काम नहीं किया। सच तो ये है कि कई कांग्रेसी ऐसे हैं, जो कि मन ही मन दुआ कर रहे हैं कि सचिन हार जाएं तो अच्छा रहे।  वस्तुत: ये कांग्रेसी जानते हैं कि उनकी अब तक की हरकतों के चलते आगे उनको संगठन में कोई स्थान मिलने वाला है नहीं, क्योंकि वे सचिन की निगाह में आ चुके हैं और प्रदेश अध्यक्ष के नाते सारे अधिकार उनके पास सुरक्षित हैं। वे दुआ कर रहे हैं कि सचिन हार जाएं ताकि प्रदेश में सचिन विरोधी लॉबी उन्हें खराब परफोरमेंस, विशेष रूप से खुद ही चुनाव हार जाने के नाम पर पद से हटाने के लिए हाईकमान पर दबाव बना सके। वे उम्मीद कर रहे हैं कि जब सचिन को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया जाएगा तो दूसरे किसी अध्यक्ष से लिंक बैठा कर फिर पद हासिल कर लेंगे।
समझा जाता है कि कांग्रेस की यह हालत इस कारण है, क्योंकि विधानसभा चुनाव में जिले की आठों सीटें हार जाने के बाद सचिन को संगठन को दुरुस्त करने का वक्त ही नहीं मिला। कुछ वक्त मिला तो उन्होंने पूरे ढ़ांचे को छेडऩे की बजाय उसी से काम लेने की कोशिश की। उन्हें डर था कि अगर संगठन में भारी फेरबदल किया तो लोकसभा चुनाव में हार की एक प्रमुख वजह यही मानी जा सकती है। इसी कारण पुराने सेटअप से ही काम लिया। स्पष्ट है कि पुराने सेटअप में प्रदेश के अनेक दिग्गजों के शागिर्द जमे बैठे थे, जिनकी रुचि नहीं थी कि सचिन को कामयाबी हासिल हो।
दिलचस्प बात ये है कि भाजपा प्रत्याशी व राज्य के जलदाय मंत्री प्रो. सांवर लाल जाट के कुछ समर्थक भी चाहते हैं कि वे नहीं जीतें। इसकी वजह ये बताई जा रही है कि ये वे शुभचिंतक हैं, जिन्हें प्रो. जाट से कहीं अधिक अपने हित की चिंता है। इन समर्थकों ने इस उम्मीद में कि जाट के मंत्री बनने के बाद अपना हित साधेंगे, विधानसभा चुनाव में भरपूर सेवा की थी। उन्होंने अपना हित साधा ही नहीं कि इतने में लोकसभा चुनाव आ गए। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने जाट की अनिच्छा के बावजूद उन्हें लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी बना दिया। अब हितचिंतक चाहते हैं कि जाट हार जाएं ताकि वे राज्य में ही मंत्री बने रहें और उनके हित सधते रहें।
जहां तक सचिन के समर्थकों की बात है वे आंकड़ों को खींचतान कर जीतने का हिसाब लगा रहे हैं। उनका तर्क ये है कि विधानसभा चुनाव की तुलना में छह प्रतिशत से भी ज्यादा वोट प्रतिशत गिरा है, जिसका सीधा नुकसान भाजपा को होगा। उनके हिसाब से करीब एक लाख का अंतर तो इसी से कम हो जाएगा। उनका दूसरा तर्क ये है कि विधानसभा चुनाव में मसूदा में निर्दलीय खड़े हुए वाजिद खान चीता करीब चालीस हजार वोट ले गए थे, इस बार चूंकि वे सचिन के साथ थे, इस कारण उसका सीधा फायदा होगा। इसके अतिरिक्त रावत व राजपूत मतों में भी सचिन ने कुछ सेंध मारी है। जीत की आशा पाले कांग्रेसियों की सोच है कि सचिन की ओर से कराए गए विकास कार्यों और सचिन की साफ सुथरी छवि का भी लाभ मिलेगा। कुल मिला कर उनका मानना है कि भले ही कुछ हजार वोटों से ही सही, मगर सचिन जीत जाएंगे।