शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

भगवान परशुराम को विनयांजलि देने पर भी शांत नहीं हुए ब्राह्मण बंधु

ब्राह्मण समाज के बारे में शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी की कथित टिप्पणी को लेकर आंदोलनरत ब्राह्मणों को खुश करने के लिए देवनानी ने परशुराम जयंती के मौके पर ही ऐलान कर दिया कि स्कूली बच्चों को भगवान परशुराम के बारे में पढ़ाया जाएगा। मगर इसके बावजूद आंदोलनकारी ब्राह्मण शांत नहीं हुए हैं। अपितु वे इसे राजनीतिक जुमला करार दे रहे हैं और ये सवाल भी कर रहे हैं कि परशुराम जी की याद आज ही आनी थी क्या? उन्होंने समानांतर कार्यक्रम करने की भी निंदा की।
ज्ञातव्य है कि आंदोलनरत ब्राह्मणों के अपने आराध्य देव भगवान परशुराम जयंती के मौके पर और उग्र होने की आशंका थी। ऐसे में संघ ने तोपदड़ा में भारतीय शिक्षा मंडल अजमेर महानगर चितौड़ प्रांत के बैनर पर परशुराम जयंती का आयोजन किया, जिसमें देवनानी को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया, ताकि यह संदेश नहीं जाए कि परशुराम जयंती के मौके पर समाज ने उन्हें अलग-थलग कर दिया। इस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में संघ के नेता व जाने-माने व्यवसायी सुनीलदत्ता जैन थे, जबकि अध्यक्षता प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली ने की। इसी आयोजन में विप्र फाउंडेशन युवा मंच शहर जिला अध्यक्ष श्याम कृष्ण पारीक और सभी पदाधिकारियों ने देवनानी से मुलाकात कर भगवान परशुराम का अध्याय पाठ्यक्रम में शामिल करने का आग्रह किया, जिसे देवनानी तत्काल ने स्वीकार कर लिया। इस पर विप्र फाउंडेशन युवा मंच शहर जिला अजमेर ने उनका आभार जताया। वाकई यह एक बड़ी घोषणा है, जिससे यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि देवनानी का ब्राह्मणों के प्रति कोई दुराग्रह नहीं है, इसी कारण उनके आराध्य देव भगवान परशुराम के बारे में एक पाठ स्कूलों में पढ़ाने की मांग को मान लिया है। इस घोषणा के लिए मौका भी भगवान परशुराम जयंती का चुना गया। ऐसा लगता है कि यह सब पूर्व नियोजित था।
बहरहाल, जैसे ही यह खबर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए प्रकाश में आई तो सोशल मीडिया पर भी छा गई। हालांकि त्वरित टिप्पणी में आंदोलन से जुड़े नेताओं ने अपने ही समाज के कुछ साथियों के इस कृत्य को अन्यथा लिया और उनके बारे में कई तरह की टिप्पणियां की जा रही हैं और आंदोलन को और तेज करने की बात कर रहे हैं, मगर देवनानी का यह पैंतरा काम भी कर सकता है। एक प्रकार से उन्होंने ठंडे छींटे डालने की कोशिश की है।
इतना ही नहीं उन्होंने परशुराम जयंती के मौके पर एक संदेश भी जारी कर मामले का डाइल्यूट करने की कोशिश की है। संदेश में लिखा है कि अन्याय, अत्याचार पर न्याय और सदाचार की विजय के प्रतीक, शस्त्र और शास्त्र का समुचित समय पर सटीक उपयोग का संदेश देने वाले भगवान परशुराम के जन्मोत्सव पर सभी न्याय के पक्षधर मेरे अपनों को अनेकानेक शुभकामनाएं। अक्षय तृतीया का भी संदेश साफ है। समाज भी अक्षय रहे। भगवान श्री परशुरामजी पीडि़त मानवता को समर्थ बनायें और न्याय के लिए हमें लङने में सक्षम बनायें यहीं उनके श्री चरणों में प्रार्थना है।
देवनानी को उम्मीद होगी कि इससे कम से कम गुस्से की तीव्रता में कमी तो आ ही जाएगी, बाकी तो आगे भगवान मालिक है कि अपने विशिष्ट स्वभाव वाले भगवान परशुराम को मानने वालों का गुस्सा कब शांत होगा?
-तेजवानी गिरधर
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तो अब किशनगढ़ एयरपोर्ट के उद्घाटन की जरूरत कहां है?

लो जी, अजमेर जिले की बहुप्रतीक्षित व महत्वाकांक्षी किशनगढ़ एयरपोर्ट का शुभारंभ हो गया है। संसदीय सचिव सुरेश रावत व किशनगढ़ भाजपा विधायक भागीरथ चौधरी ने दिल्ली से यहां आए निजी कंपनी के चार्टर प्लेन को बाकायदा हरी झंडी दिखाई। इन दोनों नेताओं का नाम अजमेर के इतिहास में सदा के लिए स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया है। इनकी तो बल्ले बल्ले हो गई। जिले के ही राज्य किसान आयोग के अध्यक्ष प्रो. सांवरलाल जाट, राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत, शिक्षा राज्यमंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी, महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल, संसदीय सचिव शत्रुघ्न गौतम सरीखे नेता ये सोच रहे होंगे कि उनके होते, और उनके बिना रहते हरी झंडी फहरा दी गई।
कैसी विचित्र बात है कि इस एयरपोर्ट का औपचारिक व विधिवत शुभारंभ हुआ नहीं है, महज एक प्राइवेट कंपनी का ट्रायल चार्टर प्लेन आया था, मगर उसका स्वागत कुछ इस तरह से हुआ, मानो इसी के साथ हवाई अड्डों की दुनिया में अजमेर भी शुमार हो गया है। जबकि हकीकत ये है कि इससे पहले भी चार्टर प्लेन लैंड कर चुके हैं।
हालांकि यह पूरा घटनाक्रम हुआ कैसे, यह अभी गुत्थी ही है, मगर सोशल मीडिया पर दोनों जनप्रतिनिधियों ने बधाइयां बटोर लीं। वहां रावत बोले कि किशनगढ़ एयरपोर्ट को जो सपना देखा था, वह आज पूरा हो गया, जल्द ही एयरपोर्ट से नियमित विमान सेवाएं शुरू होगीं। मानो वह सपना उन्होंने ही देखा था। उन्होंने ही पूरा करवाया। जब कि सच ये है कि यह सपना सबसे पहले सिटीजंस कौंसिल के अध्यक्ष व दैनिक नवज्योति के प्रधान संपादक दीनबंधु चौधरी ने देखा था। बसरों तक राज्य व केन्द्र सरकार के साथ चि_ी पत्री करते रहे। मगर आखिर तभी साकार होने की दिशा में कदम बढ़ा जब पूर्व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट ने रुचि ली। बेशक अब जब कि यह एयरपोर्ट नियमित रूप से शुरू होने के मुकाम पर आया है तो इसका श्रेय भाजपा ही लेना चाहेगी। ऐसा होता रहा है। एक सरकार कोई योजना शुरू करवाती है और दूसरी पूरा करवाती है तो श्रेय दूसरी ही लेती है।  मगर हरी झंडी दिखाने का गौरव तो रावत व चौधरी ने ही हासिल किया।
खैर, सच्चाई ये है कि इस एयरपोर्ट से नियमित व्यावसायिक उड़ानें अगस्त माह से शुरू होंगी, जिसका विधिवत शुभांरभ करने केन्द्र का कोई बड़ा नेता यथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे आनी चाहिए। बड़ा जलसा होना अपेक्षित है। मगर अब जबकि संसदीय सचिव रावत व विधायक चौधरी एक प्राइवेट कंपनी के चार्टर प्लेन को हरी झंडी दिखाने वहां पहुंच चुके हैं तो सवाल उठता है कि क्या यहां फिर से हरी झंडी दिखाने की रस्म की जरूरत रह गई है?
ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब मीडिया का किया धरा है। उसी ने एक सामान्य सी खबर को इतना बढ़ा चढ़ा कर पेश किया कि ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो शुभारंभ होने जा रहा है।
बहरहाल, रावत व चौधरी को बधाई।

-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

क्या हाईकोर्ट को दिखाने भर के लिए बना अतिक्रमण हटाओ अभियान?

हाईकोर्ट के आदेश से शहर में अतिक्रमण हटाए जाने के लिए बनाए गए कार्यक्रम के पहले दिन ही नगर निगम का जो रवैया नजर आया, उसको लेकर निगम की खूब छीछालेदर हुई। जाहिर सी बात है कि जिन अफसरों पर अतिक्रमण हटाने की जिम्मेदारी थी, वे ही सरकारी दौरे पर दिल्ली चले गए तो आलोचना होनी ही थी। हार्टकोर्ट के आदेश की पालना में निगम के गंभीर नजर नहीं आने का सवाल भी उठा। अभियान का तो जो हश्र होना था, वह भी हुआ। उसका बखान करना बेकार है।
ज्ञातव्य है कि आगामी 30 अप्रैल को निगम को हाईकोर्ट में शपथ पत्र दे कर बताना है कि अतिक्रमण हटाने के उसके आदेश की अनुपालना कर दी गई है। अर्थात निगम पर ये दबाव था कि वह किसी भी तरह से अतिक्रमण हटाने के लिए बाकायदा अभियान चलाए। अभियान के लिए कार्ययोजना भी बनाई गई और दो जोन बना कर जिम्मेदारी भी तय की गई। शहर में जहां दुकानदारों में खलबली थी तो नगर वासियों में संतोष था कि आज तगड़ी कार्यवाही होगी और यातायात सुगम होगा। मगर हुआ ये कि दक्षिण जोन की प्रभारी उपायुक्त ज्योति ककवानी अपना कार्यभार उपायुक्त गजेन्द्र सिंह रलावता को सौंप कर दिल्ली चली गईं। साथ में प्रभारी अधिकारी रेखा जेसवानी और असेसर नीलू गुर्जर को ले गईं। उन्हें वहां स्मार्ट सिटी के लिए आयोजित कार्यशाला में हिस्सा लेना था। उत्तर जोन की स्थिति ये थी कि जोन प्रभारी पवन मीणा की छुट्टी पहले से ही मंजूर की हुई थी। एक दिन के लिए जैसे तैसे बुलाया गया, मगर रवैया टालमटोल वाला ही रही। समझा जा सकता है कि ऐसे में अतिक्रमण हटाने का जो हल्ला मचाया गया था, उसकी हवा तो खुद निगम के ही अधिकारी निकाल चुके थे।
सवाल ये उठता है कि जब तीन अधिकारी दिल्ली जाने थे और एक ने छुट्टी ले रखी थी तो अतिक्रमण हटाने का कार्यक्रम तय ही क्यों किया गया? ऐसा तो था नहीं कि कार्यक्रम तय होने के बाद अचानक रात में दिल्ली से न्यौता आया। जरूर पहले से सूचना या जानकारी रही होगी। बावजूद इसके मीडिया के जरिए ढि़ंढ़ोरा पीटा गया कि बुधवार को शहर को दो जोन में बांट कर बड़े पैमाने पर अतिक्रमण हटाए जाएंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब हाईकोर्ट के संज्ञान में लाने के लिए सायास किया गया, ताकि यदि आधी अधूरी कार्यवाही पर फटकार लगे तो बताया जा सके कि निगम तो तय समय में अतिक्रमण हटा देता, मगर अचानक नई परिस्थिति पैदा हो गई।
जहां तक अतिक्रमण हटाओ अभियान तय होने के बाद भी अधिकारियों के दिल्ली जाने का मसला है तो यह सही है कि दिल्ली जाना ज्यादा जरूरी था। अतिक्रमण तो कभी भी हट सकता है, एक-दो दिन देर से ही सही, मगर स्मार्ट सिटी के लिए दिल्ली में होने वाली कार्यशाला अजमेर के लिए तो टल नहीं सकती थी। कार्यशाला में न जाने पर अधिकारी जरूरी जानकारियों से वंचित रह जाते, साथ ही ऊपर से भी अनुपस्थिति पर खिंचाई हो सकती थी।
अजमेर के लिए जितना जरूरी स्मार्ट सिटी योजना है, उतना ही जरूरी अतिक्रमण हटाना भी है, दोनों को अंजाम भी इन्हीं अधिकारियों को देना है, तो बेहतर ये है कि तालमेल बैठा कर कार्ययोजना बनाई जाए।
हाईकोर्ट की बात छोडिय़े, निगम की खुद की ही जिम्मेदारी है कि अतिक्रमण हटाए, उसके लिए हाईकोर्ट को क्यों दखल देना पड़े? अव्वल तो अतिक्रमण होने ही नहीं देना चाहिए, मगर सच्चाई क्या है, इस बारे में ज्यादा खुलासा करने की जरूरत नहीं है। सब कुछ मिलीभगत से होता है। फिर जब समस्या बेहद गंभीर हो जाती है तो अतिक्रमण हटाने के लिए अभियान की जरूरत पड़ती है। अगर निगम शहर को वाकई अतिक्रमण से मुक्त करना चाहता है तो उसे बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से अभियान चलाना होगा। इतना ही नहीं, उसकी आगे भी मॉनिटरिंग करते रहनी होगी, ताकि फिर अतिक्रमण न होने पाए।
-तेजवानी गिरधर
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जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में पोपाबाई का राज?

जहां कहीं भारी अव्यवस्था होती है, अराजकता होती है, उसके लिए आम तौर पर राजस्थान में एक शब्द का इस्तेमाल होता है- पोपाबाई का राज। ये पोपाबाई कौन थी, उनका राज इतिहास के किस कालखंड में था, इसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, मगर ये कहावत बनी है तो जरूर इसके कोई मायने होंगे। बीते दिन संभाग के सबसे बड़े अस्पताल जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में संभाग के सबसे आला अफसर हनुमान सहाय मीणा ने खुद जो हालात देखे, तो यही पाया कि वहां न तो भाजपा का राज है और न ही उनके प्रशासन का कोई डर, यानि कि वहां पोपाबाई का राज है।
जिस संभाग मुख्यालय पर दो-दो मंत्री रहते हों, एक राज्य स्तरीय प्राधिकरण अध्यक्ष का निवास हो, जिस जिले का जनप्रतिनिधि राज्य स्तरीय आयोग का अध्यक्ष और जहां से दो-दो संसदीय सचिव प्रतिनिधित्व करते हों, वहां अगर सबसे प्रमुख अस्पताल में लापरवाही का आलम हो तो यह वाकई शर्मनाक है। जिस जिले का कलेक्टर अपनी कार्यकुशलता और त्वरित निर्णय करने के कारण वाहवाही पा रहा हो, उसकी छत्रछाया में अगर अस्पताल के मासूम बच्चों वाले विभाग में जरूरी सुविधाएं न हों तो इससे ज्यादा अफसोसनाक बात क्या हो सकती है?
अस्पताल प्रशासन कितना बेखौफ है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संभागीय आयुक्त अस्पताल का दौरा कर रहे हों और वहां बदइंतजामी पसरी रहे। यानि कि आम दिनों में तो और भी हालत खराब रहती होगी। कैसी विडंबना है कि जनप्रतिनिधि और आला अफसर तो ए.सी. का आनंद लेते हैं और मासूम बच्चों के लिए पंखे व कूलर तक ठीक नहीं हैं। शायद 37 डिग्री तापमान में खुद संभागीय आयुक्त पसीने से तरबतर हो गए, तभी उन्हें वहीं की नारकीय स्थिति का अहसास हुआ होगा।
यह ठीक है कि उन्होंने शिशु वार्ड के सभी पंखे व कूलर ठीक करने के निर्देश दिए और आठ एयर कंडीशनर खरीदने पर सहमति जताई, मगर सवाल ये उठता है कि क्या अस्पताल प्रबंधन को खुद को यह ख्याल नहीं आता कि इस प्रकार की व्यवस्था वह अपने स्तर पर करे? अगर फंड का अभाव था तो उसके लिए जिला प्रशासन व सरकार से आग्रह करे। साफ है कि अस्पताल प्रशासन पूरी तरह से लापरवाह है, उसकी नतीजा है कि वहां ड्यूटी देने वाला स्टाफ यूनिफॉर्म में नहीं आता और न ही सफाई ड्यूटीचार्ट ठीक से भरा जाता। न ही शिकायत दर्ज करवाने की उचित व्यवस्था है। ऐसे में आम मरीज को कैसी अव्यवस्थाओं को भोगना पड़ता होगा, इसकी जानकारी कहां इंद्राज होगी। और जब बदइंतजामी की जानकारी रिकार्ड पर ही नहीं होगी तो उसे ठीक भी कौन करेगा?
अस्पताल प्रशासन कैसे आंख मूंद कर वहां की व्यवस्थाओं का संचालन कर रहा है, इसका अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि सफाई ठेकेदार ने मनमानी कर रखी है। जब उसको सुविधा होती है, तभी सफाई होती है। कैसा विरोधाभास है, जिस देश में सफाई के लिए राष्ट्रीय अभियान चलाया जा रहा हो, महात्मा गांधी को याद करके हर दफ्तर में सफाई की नौटंकी की जा रही हो। उस पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हों। घर-घर से कचरा संग्रहित करने की कवायद की जा रही हो, उसी के सबसे बड़े संभागीय अस्पताल में गंदगी का आलम हो। अरे, कभी गली में सफाई से चूक हो जाए तो समझ में आता है, मगर जहां सफाई पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए, बच्चों के जिस विभाग में सेनिटेशन की सबसे ज्यादा अहमियत होती है, वहीं समय पर कचरा नहीं उठाया जाता। इसका सीधा सा अर्थ है कि आदर्शों की बातें सिर्फ दिखाने के लिए होती हैं, धरातल पर तो सब कुछ पोपाबाई पर छोड़ देते हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

मीडिया की नजर में वह अब भी अकबर का किला

शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी ने अपने प्रभव का इस्तेमाल कर भले ही नया बाजार स्थित अकबर के किले का नाम अजमेर का किला करवा दिया हो, मगर मीडिया उसे अब भी अकबर का किला ही मान रहा है। प्रतिष्ठित समाचार पत्र दैनिक भास्कर ने अकबर के किले से संबंधित एक समाचार में अकबर के किले का ही जिक्र किया है। यहां तक कि हैडिंग में भी इसी का उल्लेख है। इसका सीधा सा अर्थ है कि मीडिया ने नाम के बदलाव को स्वीकार नहीं किया है।
ज्ञातव्य है कि प्रो. देवनानी डंके की चोट कहते हैं कि हां, नाम मैने बदलवाया और उनका निर्णय पूरी तरह से नियमानुसार व सही है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों किले के जिम्मेदार अधिकारी ने भी रिकार्ड के मुताबिक इसे अकबर का किला बताया तो शहर भाजपा ने उस पर कड़ा ऐतराज जताया था और उन्हें अपनी सीमा में रहने की घुड़की पिलाई थी।

समझाइश से हटाई गई मजार, जो पहले भी हो सकता था

पुष्कर रोड को साठ फीट चौड़ा करने की जद में आ रही मजार को आखिरकार प्रशासनिक अधिकारियों की ओर से की गई समझाइश से हटवा दिया गया। इसमें अतिरिक्त जिला कलेक्टर शहर अरविंद सेंगवा और कुछ समझदार मुस्लिम प्रतिनिधियों ने भी भूमिका अदा की। इसके लिए सेंगवा के साथ बातचीत हुई, जिसमें तनवीर बीबी, शहाबुद्दीन, कय्यूम, सैयद गोहर चिश्ती, सलीम बेग,  मोइनुउद्दीन, मोहम्मद यासीन, अस्मत बीबी, तनवीर बीबी व शहाबुद्दीन शामिल हुए। बातचीत के दौरान मुस्लिम प्रतिनिधियों का कहना था कि मजार को तोडऩे से पहले हमें विश्वास में नहीं लिया गया। आखिरकार सेंगवा के आग्रह पर वे स्वयं ही मजार को हटाने को राजी हो गए। शहर में सांप्रदायिक सौहाद्र्र के लिए यह जरूरी भी था कि बिना किसी विवाद के मसले का हल निकाला जाए।
असल में पुष्कर रोड को चौड़ा करने के लिए करंट बालाजी मंदिर की मूर्ति को सफलतापूर्वक व शांति से हटवाने में कामयाब होने पर हर किसी ने नगर निगम मेयर धर्मेन्द्र गहलोत को शाबाशी दी और भूरि भूरि प्रशंसा की। सभी को उम्मीद थी कि गहलोत की सूझबूझ से अन्य अतिक्रमण भी बिना किसी हील हुज्जत के हटवा दिए जाएंगे। मगर अगले ही कदम पर एक मजार का अतिक्रमण हटाने को लेकर विवाद हो गया। इसमें कहीं न कहीं तो चूक हुई। हालांकि विवाद का दो दिन बाद ही सही, हल निकल आया, मगर इससे अनेक सवाल पैदा होते हैं? क्या मजार को हटाने से पहले संबंधित पक्ष को विश्वास में ले लिया था? क्या उन्होंने इस बात की सहमति जाहिर कर दी थी कि करंट बालाजी मंदिर हटाए जाने पर उनका भी अतिक्रमण हटा दिया जाए? क्या उन्होंने उस वक्त यह मांग नहीं रखी थी कि मजार हटाने की एवज में आसपास कोई वैकल्पिक स्थान दिया जाए? क्या वे केवल मंदिर को हटाए जाने से ही राजी थे? क्या वैकल्पिक स्थान की मांग बाद में उठाई गई? क्या नगर निगम प्रशासन को इस बात का अंदाजा नहीं था कि इस प्रकार की मांग उठ सकती है?
इन सब सवालों का एक ही जवाब नजर आता है कि मजार का अतिक्रमण हटाने से पहले संबंधित पक्ष को बैठा कर नहीं समझाया गया। यही मान कर चला गया कि अतिक्रमण तो हटवा दो, बाद में जो होगा देखा जाएगा। अगर यही मसला समझाइश से हल हो सकता था तो यह समझाइश पहले भी तो हो सकती थी। अनावश्यक ही दो दिन के लिए शहर में अमन को लेकर संशय पैदा होने दिया गया। यदि थोड़ी सी भी सावधानी बरती जाती तो गलत संदेश नहीं जाता। अफसोसनाबक बात ये रही कि जल्दबाजी तो नगर निगम ने की और समझाइश अतिरिक्त जिला कलेक्टर सेंगवा को करनी पड़ी।
यह ठीक है कि यह मसला आसानी से हल को गया, मगर अभी जिस विचारधारा के दल की सत्ता है, उस पर और अधिक दायित्व है कि वह सभी को साथ लेकर चलने का भरोसा कायम करे। उम्मीद है कि दरगाह और पुष्कर की वजह से पूरी दुनिया में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल इस शहर में आगे भी अमन चैन कायम रहेगा।
-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

किसके प्रयास से खुल रहा है पासपोर्ट सेवा केन्द्र?

स्मार्ट सिटी बनने जा रहे अजमेर को केन्द्र सरकार से एक और सौगात मिलने जा रही है। विदेश मंत्रालय ने अजमेर सहित राज्य में 5 स्थानों पर पासपोर्ट सेवा केन्द्र स्थापित करने पर सहमति जतायी है। यह जानकारी हाल ही शिक्षा राज्यमंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी ने बाकायदा प्रेस नोट जारी कर इसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्यमंत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे, विदेश राज्यमंत्री जनरल वी. के. सिंह एवं राज्य पासपोर्ट अधिकारी विवेक जैफ का आभार जताया। प्रो. देवनानी ने बताया कि पिछले दिनों 7 मार्च को केन्द्रीय विदेश राज्यमंत्री जनरल वी. के. सिंह से अजमेर में पासपोर्ट सेवा केन्द्र स्थापित करने का आग्रह किया गया था। उन्होंने आग्रह किया कि अजमेर प्रदेश की हृदय स्थली है। अजमेर प्रसिद्ध तीर्थस्थल पुष्कर, पृथ्वीराज चौहान की राजधानी, ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह, आर्य समाज के प्रमुख केन्द्र होने से यहां का ऐतिहासिक एवं धार्मिक दृष्टि से प्रदेश में एक विशिष्ट स्थान है, जिसके कारण प्रतिदिन हजारों की संख्या में देशी-विदेशी पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों का अजमेर में आना-जाना होता है। साफ है कि इसका श्रेय देवनानी ने लेने की कोषिष की। मगर देवनानी और महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल के बीच इतनी अधिक प्रतिस्पर्धा है कि यह अनिता भदेल की करीबी सीमा गोस्वामी को रास नहीं आई। उन्होंने दूसरे ही दिन बाकायदा एक डिजाइन बनवा कर सोषल मीडिया पर जारी कर दी, जिसमें दर्षाया गया है कि यह मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के प्रयासों से संभव हो पाया है, जिसकी सहमति विदेष मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने दी है। हालांकि आभार तो देवनानी ने भी श्रीमती वसुंधरा राजे का जताया है, मगर उन्होंने सुषमा स्वराज का नाम नहीं लिया है, उनके स्थान पर वी के सिंह का नाम है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर यह काम किसके प्रयास से और किसकी सहमति से संभव हो पाया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ही नई जानकारी की सूचना आई, उसे देवनानी ने लपक लिया, और मीडिया को जारी कर दिया, जबकि भदेल क्रिकेट प्रतियोगिता में व्यस्त होने के कारण चूक गईं। नतीजतन अकेले देवनानी ने क्रेडिट ले ली। उसकी भरपाई करने के लिए सीमा ने नए अंदाज में अनिता भदेल की ओर से आभार व्यक्त कर दिया। श्रेय लेने की होड कांग्रेस व भाजपा के बीच हो तो समझ में आता है, मगर एक ही पार्टी के दो मंत्रियों के बीच ऐसी होड। ओह माई गॉड। माषाअल्लाह, गजब की खींचतान है। बहरहाल, स्मार्ट सिटी बनने जा रहे अजमेर में सीमा गोस्वामी की इतनी स्मार्टनेस तो जायज ही है.
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

मंत्रियों ने की खुद लाल बत्ती हटाने की नौटंकी

वीआईपी संस्कृति को खत्म करने की दिशा में केन्द्र सरकार के निर्णय एवं राज्य सरकार द्वारा अधिसूचना जारी करने पर तुरन्त कार्यवाही करते हुए मंत्रियों व अधिकारियों ने अपने-अपने वाहनों से लाल बत्ती हटाई। कुछ मंत्री तो ऐसे भी थे, जिन्होंने बाकायदा नौटंकी की। इस सामान्य सी प्रक्रिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की शाबाशी लेने के लिए अथवा जनता की वाहवाही लूटने के लिए खुद ही अपने वाहनों से लाल बत्ती हटाई। और तो और सबूत दिखाने की खातिर फोटो तक खिंचवाई और मीडिया को जारी की। केन्द्रीय वित्त राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने तो खुद ही अपने फेसबुक अकाउंट पर अपनी फोटो पोस्ट की, जबकि राजस्थान की महिला व बाल विकास राज्यमंत्री श्रीमती अनिता भदेल के एक समर्थक ने खबर के साथ फोटो जारी की। संभव है कि कुछ और मंत्रियों ने भी ऐसा किया हो। वे चाहते तो अपने ड्राइवर या किसी कर्मचारी से भी लाल बत्ती हटवा सकते थे, मगर हर छोटी मोटी कार्यवाही या उपलब्धि का प्रोपेगंडा करने के आदी राजनेता भला यह मौका कैसे चूक सकते थे। हो सकता है कि इन मंत्रियों को ऐसा करते हुए बड़ा गर्व अनुभव हो रहा हो, मगर उनकी ऐसी हरकत पर लोग हंस भी रहे थे कि क्या आसमान से तारे तोड़ कर लाए हैं जो इस प्रकार प्रदर्शित कर रहे हैं।
रहा सवाल अधिकारियों का तो जब अधिसूचना जारी हुई है तो उन्होंने भी लाल बत्ती हटवाई होगी, मगर उन्होंने नौटंकी करने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि वे नौकरशाह हैं। उन्हें ऐसा करना शोभा नहीं देता। मगर नेताओं को तो शोभा देता है।
श्रीमती अनिता भदेल के बारे आए समाचार में तो उन्होंने यह कहा कि देश में वीआईपी संस्कृति की आवश्यकता नहीं है। देश का हर नागरिक अपने आप में अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति है। सवाल उठता है क्या केवल लाल बत्ती हट जाने मात्र से वे वीआईपी नहीं रह जाएंगे? क्या उनकी सुख-सुविधाओं में कटौती हो जाएगी? क्या नौकर-चाकर हटा दिए जाएंगे? क्या उनके वेतन-भत्ते कम हो जाएंगे? क्या उनकी सुरक्षा का तामझाम हट जाएगा? क्या समारोहों में विशेष सम्मान नहीं पाएंगे? क्या अधिकारी उनकी चापलूसी करना छोड़ देंगे? क्या वाकई अपने व्यवहार में भी एक सामान्य व्यक्ति का आभास करवाएंगे? अफसोस, हम ऐसे देश में रह रहे हैं, जहां के नेता वीआईपी संस्कृति समाप्त करने के नाम पर भी हो रही कवायद में भी अपने वीआईपी होने का अहसास करवा रहे हैं।

बुधवार, 19 अप्रैल 2017

गर गहलोत कांग्रेसी मेयर होते तो क्या मंदिर का अतिक्रमण हटा सकते थे?

अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत ने पुष्कर रोड पर करन्ट बालाजी मंदिर को जिस युक्तिपूर्ण ढंग से शांतिपूर्वक हटवा दिया, उसके लिए वे वाकई साधुवाद के पात्र हैं। उनकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। हो भी रही है। मगर तस्वीर का दूसरा पहलु ये है कि ऐसा अतिक्रमण, ऐसे अतिक्रमण को हटाने का माद्दा केवल उसका विरोध करने वाले ही प्रदर्शित कर सकते हैं। ऐसे में एक सवाल यह उठता है कि क्या वे कांग्रेस के मेयर होते तो उन्हें भाजपा या हिंदूवादी मंदिर को हटाने देते? कदापि नहीं।
यह सही है कि गहलोत ने बड़ी ही चतुराई से हार्डकोर हिंदुवादियों, पार्षदों व भक्तों से समझा कर मंदिर की मूर्ति को अन्यत्र हस्तांतरित करवा दिया। कदाचित कोई और भाजपाई मेयर होता तो नहीं कर पाता। यह सच्चाई है कि ऐसी समझाइश वे इसी कारण कर पाए, चूंकि वे एक सशक्त मेयर हैं, उन पर शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का वरदहस्त है और राज्य व केन्द्र में भाजपा की सरकार है।
अब जब कि उन्होंने अपनी बहादुरी और बुद्धिमत्ता का एक नायाब उदाहरण पेश कर स्मार्ट होने जा रहे शहर में एक बड़ा काम किया है, तो यह भी अपेक्षा की जा रही है कि वे क्रिश्चियनगंज में मुख्य वैशालीनगर मार्ग, जिसे कि गौरव पथ कहा जाता है, वहां सड़क के बीचोंबीच स्थित शिव मंदिर सहित अन्य मंदिर व मजारों को हटवाने में भी अहम भूमिका निभाएंगे।  हो सकता है कि उन्हें आगे भी कामयाबी मिले, मगर जरा पीछे मुड़ कर देखें कि जब गौरव पथ बन रहा था और शिव मंदिर को आनासागर किनारे शिफ्ट करने का प्रस्ताव था तो उन्हीं के विचारधारा वाले आड़े आ गए थे। कितना बवाल हुआ था, सबको पता है। नतीजा ये है कि मंदिर को सड़क के बीच में ही रख कर गौरव पथ बनाया गया। वह आज तक यातायात के लिए एक बड़ी समस्या बना हुआ है। कई बार दुर्घनाएं हो चुकी हैं।
बहरहाल, शहर वासियों केलिए अच्छा है कि नगर निगम पर भाजपा का कब्जा है, गहलोत जैसा चतुर राजनीतिज्ञ मेयर है, तो यातायात में बाधक बने अन्य धर्मस्थलों को हटवाने की उम्मीद की जा सकती है। यदि ऐसे अतिक्रमणों को आस्था के नाम पर नहीं हटने देने वाले ही तय कर लें कि इन्हें हटना चाहिए तो कोई भी दिक्कत नहीं है। कांग्रेसी तो विरोध करने से रहे।

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

दरगाह में हथियार आ कैसे जाते हैं?

आतंकियों के निशाने पर रही सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में कड़ी सुरक्षा के दावे किए जाते हैं, मगर उनमें कितना दम है, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि आपसी रंजिश के चलते अपराधी किस्म के लोग न केवल अंदर हथियार ले जाते हैं, अपितु उनका इस्तेमाल तक कर लेते हैं।
वाकया सोमवार का है। कुछ युवकों ने धारदार हथियारों से लेस हो कर एक फूल वाले पर जानलेवा हमला कर दिया। जाहिर तौर पर वहां हड़कंप मचना ही था। न केवल दरगाह में रहने वाले खादिम, कर्मचारी व दुकानदारों में दहशत फैल गई। सुरक्षा में इस सेंध की अफसोसनाक बात ये है कि हमलावार अपने कारनामे को अंजाम देने के बाद फरार भी हो गए।
हमले में घायल जुबेद के रिश्तेदार सयरफर खान अली ने बताया कि जुबेद दरगाह में फूल बेचने का काम करता है। सोमवार सुबह भी जुबेद अपनी फूल की दूकान पर बैठा था, तभी अचानक आठ दस लोग आए और उस पर धारधार हथियारों से हमला कर दिया। अचानक हुए इस हमले में जुबेद बुरी तरह जख्मी हो गया।
सवाल ये उठता है कि कड़ी सुरक्षा के बावजूद हथियारबंद हमलावर दरगाह के अंदर कैसे आ गए? क्या उन्हें किसी भी गेट से अंदर आते वक्त चैक नहीं किया गया? जाहिर है कि इस प्रकार का हमला करने वाले दरगाह की सुरक्षा में लगे जवानों के प्रति कितने बेखौफ हैं? वे हमला बाहर भी कहीं कर सकते थे, मगर सुरक्षा बंदोबस्त की खामी की रैकी करने के बाद दरगाह में ही हमला कर दिया। सुरक्षा में चूक तो ठीक, मगर हमला करने के बाद वे फरार भी हो गए तो इसका मतलब है कि दरगाह की कड़ी सुरक्षा का दावा कितना खोखला है? यह ठीक है कि यह वारदात आपसी रंजिश की हो सकती है, मगर बड़ा सवाल ये है कि दरगाह कितनी महफूज है?
ऐसा नहीं कि यह पहला वाकया है, जबकि दरगाह में हथियारों का इस्तेमाल हुआ हो। पहले भी इस प्रकार की घटनाएं हो चुकी हैं। उसके बाद भी अगर सुरक्षा एजेंसियां इतनी लापरवाह हैं तो यह वाकई सोचनीय है।
ज्ञातव्य है कि सुरक्षा तंत्र तो अच्छी तरह से पता है कि दरगाह आतंकियों के निशाने पर रही है। एक बार तो बाकायदा बम ब्लास्ट भी किया जा चुका है, जिसके आरोपियों को सजा भी हो चुकी है। इस ब्लास्ट के बाद सुरक्षा को और कड़ा किया गया, मगर बावजूद इसके हमले जैसी वारदातें हो रही हैं तो यह बेहद चिंताजनक है।
-तेजवानी गिरधर
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अपनी ही पार्टी के लोगों से परेशान हैं अजमेर के दोनों मंत्री

एक ओर जहां भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रहा है, वहीं धरातल पर हालात ये है कि राजस्थान सरकार में अजमेर के दोनों मंत्री आगामी विधानसभा चुनाव में चौका लगाने की तैयारी कर रहे हैं, मगर उनकी की पार्टी के लोग उनके लिए कांटे बो रहे हैं। महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल नगर निगम चुनाव में खोयी जमीन पर अपनी ताकत बढ़ाने के लिए अजमेर दक्षिण में बड़ी क्रिकेट प्रतियोगिता कर रही हैं, तो शहर भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव की नाराजगी झेल रही हैं तो शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी के खिलाफ उनकी ही पार्टी के लोग षड्यंत्र रच कर ब्राह्मणों को भड़का रहे हैं।
ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयंती पर श्रद्धांजलि सभा के दौरान श्रीमती अनिता भदेल व अरविंद यादव के बीच हुई खटपट हुई, जिससे सत्ता व संगठन के बीच ट्यूनिंग में गड़बड़ उजागर हो गई। श्रीमती भदेल को चिंता है आगामी चुनाव की, लिहाजा अपने निर्वाचन क्षेत्र के 32 वार्डों की क्रिकेट प्रतियोगिता कर युवाओं को जोड़ रही हैं। इसके लिए बाकायदा अजमेर दक्षिण के तीनों मंडल अध्यक्षों व पार्षदों का साथ ले रही हैं, मगर यादव को शिकायत है कि शहर भाजपा को आपने साथ क्यों नहीं लिया। उनकी नजर में यही प्रतियोगिता शहर के सभी 60 वार्डों के लिए आयोजित की जानी थी, मगर यह सवाल अनुत्तरित ही है कि यही विचार मन में रख कर खुद पहल करके उन्होंने खुद ने क्यों नहीं यह प्रतियोगिता करवा ली। मिसाल के तौर पर अगर अनिता भदेल यादव की सलाह मान कर पूरे शहर में यह प्रतियोगिता करवातीं तो यही माना जाता ना कि वे अजमेर उत्तर में अतिक्रमण काहे को कर रही हैं। प्रो. वासुदेव देवनानी कौन से चुप रहने वाले थे? क्या वे उनके विधानसभा क्षेत्र के मंडल अध्यक्षों व पार्षदों को इसमें शिरकत करने से रोक नहीं देते। बहरहाल, अनिता भदेल पार्टी की जमीन मजबूत करने के लिए कुछ कर रही हैं, मगर पार्टी वालों को ही नागवार गुजर रहा है।
उधर प्रो. देवनानी चौथी बार चुनाव लडऩे के लिए कमर कस कर बैठे हैं, मगर पार्टी के लोग ही उनके खिलाफ षड्यंत्र रच रहे हैं। राजस्थान पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू को सही मानें तो वे कह रहे हैं कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि ब्राह्मण लोग अपने नाम के आगे पंडित क्यों लगाते हैं। इस बारे में किसी के पास कोई सबूत नहीं है। यह सब एक राजनीतिक षड्यंत्र है। मेरी ही पार्टी के कुछ लोग इसके पीछे हैं, जिनकी शिकायत में जल्द ही प्रदेश नेतृत्व को करूंगा। अगले विधानसभा चुनाव में चौका लगाने को आतुर प्रो. देवनानी साफ कह रहे हैं कि यह सब मामले पार्टी तय करती है, मगर जहां तक मेरी इच्छा का सवाल है, तो जरूर लडऩा चाहता हूं, चूंकि पार्टी द्वारा उम्र, परफोरमेन्स, छवि आदि के बारे में तय किसी भी फार्मेूले में मैं फिट हूं। कैसी विडंबना है कि वे अजमेर में पार्टी का किला मजबूत किए बैठे हैं, मगर उनकी ही पार्टी के लोग उनके खिलाफ षड्यंत्र रच कर ब्राह्मणों के वोट खराब करने पर तुले हुए हैं। ब्राह्मणों को जैसा रौद्र रूप है, उससे तो यही लगता है कि यदि सुलह नहीं हुई तो पर्दे के पीछे कहीं न कहीं गैर सिंधीवाद खड़ा होने की तैयारी करेगा।
-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

वंदना नोगिया को अजमेर दक्षिण का विधायक बनाने की दुआ

अजमेर दक्षिण की विधायक व महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल जहां लगातार तीन बार जीतने के बाद आगामी विधानसभा चुनाव में चौका लगाने की तैयारी कर रही हैं, वहीं ऐसे भी भाजपा कार्यकर्ता हैं, जिन्हें इस बार जिला प्रमुख श्रीमती वंदना नोगिया को अजमेर दक्षिण के विधायक के रूप में देखने की इच्छा है। वरिष्ठ भाजपा कार्यकर्ता महेन्द्र भाटी ने फेसबुक पर बाकायदा एक पोस्ट डाली है, जिसमें लिखा है:- अबकी बार अजमेर दक्षिण से विधायक और मंत्री बहन जिला प्रमुख सुश्री वंदना नोगिया जी।। जय भीम, बाबा साहेब अमर रहे, बाबा साहेब जिन्दाबाद, जय भीम।।
भाटी ने पोस्ट के साथ एक फोटो भी शेयर की है, जिसमें वे वंदना नोगिया के साथ दिखाई दे रहे हैं।

चल रही है गहलोत को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाने की मुहिम

हालांकि विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं, मगर पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाने की मुहिम अभी से चल पड़ी है। इस सिलसिले में वाट्स ऐप पर बाकायदा अपील करते हुए एक लिंक शेयर की गई है, जिस पर जा कर फार्म में अपना नाम, वाट्स ऐप नंबर, जिला, विधानसभा क्षेत्र, पता व ईमेल एड्रेस भरने को कहा गया है। यकीन न हो तो इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं:-
https://goo.gl/7yTPse

फिर उजागर हुई शहर भाजपा की गुटबाजी

एक कहावत है- देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर। महिला व बाल विकास राज्यमंत्री श्रीमती अनिता भदेल व शहर जिला भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव के बीच शुक्रवार को हुई हल्की नोंक-झोंक पर यह सटीक बैठती है। कहने भर को यह मामूली नोक-झोंक थली, मगर इसके अर्थ बेहद गंभीर हैं।
हुआ यूं कि अंबेडकर सर्किल पर बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को श्रद्धासुमन अर्पित करने को जब भाजपाई एकत्रित हुए तो श्रीमती भदेल ने यादव से आग्रह किया कि वे इस मौके पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय जन्म शताब्दि के उपलक्ष में आयोजित क्रिकेट प्रतियोगिता की भी सूचना दें, मगर यादव ने साफ इंकार कर दिया। उनकी शिकायत थी कि आपने इस प्रतियोगिता  से संगठन को नहीं जोड़ा। निमंत्रण पत्र पर शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी, मेयर धर्मेन्द्र गहलोत व स्वयं उनका नाम नहीं दिया, जबकि अजमेर विकास प्राधिकरण अध्यक्ष शिवशंकर हेडा व अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी को तवज्जो दी। इसके अतिरिक्त प्रतियोगिता में शहर के सभी साठ वार्डों को जोडऩे का आग्रह किया, मगर आपने केवल अजमेर दक्षिण के 32 वार्ड ही जोड़े। चूंकि यादव की शिकायत जायज थी, इस कारण श्रीमती भदेल कुछ कहने की स्थिति में नहीं थीं।
यह घटना कहने भर को छोटी है, मगर शहर भाजपा में कितनी खतरनाक गुटबाजी है, इसका साफ इशारा करती है। सत्ता व संगठन में तालमेल का कितना अभाव है, इसका स्पष्ट संकेत देती है। यदि श्रीमती भदेल को शहर भाजपा को विश्वास में लिए बिना प्रतियोगिता करवानी पड़ रही है, तो इसका मतलब साफ है कि उनकी संगठन से नाइत्तफाकी है। यहां यह बताना प्रासंगिक है कि यादव को शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का पक्षधर माना जाता है, जिनका कि श्रीमती भदेल से छत्तीस का आंकड़ा सर्वविदित है। जब संगठन श्रीमती भदेल को भाव नहीं देता तो वे भला क्यों कर तवज्जो देने लगीं। उन्हें आगामी चुनाव की तैयारी करनी है, लिहाजा यह बड़ा आयोजन कर क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत कर रही हैं। और जब सारा जमावड़ा खुद ही कर रही हैं तो देवनानी लॉबी को क्यों जोडऩे लगीं।
असल में देवनानी व भदेल के बीच ऐसे रिश्ते हैं ही नहीं कि अपने-अपने इलाके में हो रहे कार्यक्रमों में सामान्य शिष्टाचार के नाते एक-दूसरे को बुलाएं। पार्टी मंच पर भले ही एक मंच पर दिखाई देते हैं, मगर मुंह फेर कर। इस प्रकरण में गौरतलब है कि चौंकाने वाली बात ये है कि न तो पार्टी स्तर पर दोनों के बीच सुलह की कोशिश हुई है और न ही संघ की ओर से कोई समझाइश, जबकि दोनों संघ पृष्ठभूमि से हैं।
लब्बोलुआब, इतना जरूर तय है कि दोनों संगठन पर पूरी तरह से हावी रहे हैं। यादव तो फिर भी अभी अपेक्षाकृत छोटे कद के नेता हैं, मगर उन्होंने तो प्रो. रासासिंह रावत व शिवशंकर हेडा तक को नहीं गांठा। स्थानीय निकाय चुनाव में दोनों अपनी-अपनी पसंद के ही प्रत्याशी तय करते हैं, संगठन तो सिर्फ अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए प्रचार कार्य करता है। पार्टी में इतनी गुटबाजी के बावजूद दोनों लगातार तीन बार चुनाव जीते हैं तो यह वाकई अचंभे वाली बात है।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 12 अप्रैल 2017

अपने ही सिंधी वोट बैंक के प्रति भाजपा लापरवाह

तीन साल बाद भी नहीं बना राजस्थान सिंधी अकादमी का बोर्ड

अपने जिस वोट बैंक के दम पर भाजपा प्रदेश की अनेक सीटों पर काबिज है, उसकी उसे कितनी खैर खबर है, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि मौजूदा सरकार के गठन को तीन साल से भी ज्यादा हो जाने के बाद भी उसकी अकादमी का बोर्ड अब तक गठित नहीं कर पाई है। हालत ये है कि सरकार की इस लापरवाही को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध संस्था को सरकार से मांग करनी पड़ रही है।
ज्ञातव्य है कि अधिसंख्य सिंधियों का रुझान भाजपा की ओर ही रहा है। यही वजह है कि भाजपा उन्हें अपना वोट बैंक मानती है। उसी के अनुरूप विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरण बैठाती है। उसे गुमान है कि कुछ भी हो जाए मगर सिंधी वोट कभी इधर से उधर नहीं होंगे। इसकी बड़ी वजह ये है कि संघ ने भी पूरी तरह से सिंधी समुदाय को लामबंद कर रखा है। ऐसे में वह इस वोट बैंक के प्रति लापरवाह हो गई है। मौजूदा सरकार को गठित हुए तीन साल से भी अधिक का समय हो गया है, मगर अब तक राजस्थान सिंधी अकादमी के बोर्ड का गठन नहीं किया है। हालांकि अकादमी का सामान्य सरकारी कामकाज तो जारी है, मगर इसके माध्यम से सिंधी भाषा, संस्कृति आदि के संरक्षण के लिए किए जाने वाले काम ठप पड़े हैं। इस सिलसिले में सिंधी समाज के प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से आग्रह कर चुके हैं, मगर उन पर कोई गौर नहीं किया गया है। विधानसभा में भाजपा के बैनर पर जीते स्वायत्त शासन मंत्री श्रीचंद कृपलानी, शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी व विधायक ज्ञानदेव आहूजा भी सरकार पर दबाव बनाने में नाकामयाब रहे हैं। ऐसे में संघ की ही एक शाखा भारतीय सिंधु सभा की प्रदेश कार्यसमिति ने अपनी एक बैठक में पांच प्रस्ताव पारित कर सरकार के सम्मुख रखे हैं, जिनमें सिंधी अकादमी के गठन का मुद्दा प्रथम है। दूसरा मुद्दा अकादमी का बजट दो करोड़ रुपये वार्षिक तक करने का है। सिंधी समुदाय के प्रति यह संस्था कितनी सतत प्रयत्नशील है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संस्था की ओर से तैयार सिन्धी भाषा मान्यता के स्वर्ण जयंती वर्ष 2017-18 के पोस्टर व वार्षिक कार्यक्रमों के कैलेण्डर का विमोचन राज्यपाल कल्याण सिंह से करवाया गया। 10 अप्रैल 1967 को सिन्धी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करते हुए मान्यता मिलने के 50 वर्ष पूरे होने पर 10 अप्रेेल 2017 से 10 अप्रेल 2018 तक सिन्धी भाषा की मान्यता का स्वर्ण जयंती वर्ष मनाया जा रहा है। इस दौरान संगोष्ठियां, 150 बाल संस्कार शिविर, सिन्धु ज्ञान परीक्षाएं, सिन्धी भाषा की सात संभागीय रथयात्राओं सहित विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जाएंगे। संस्था अपने स्तर पर इन कार्यक्रमों को आयोजित करवाएगी, मगर उसे मलाल है कि सिंधी अकादमी के माध्यम से होने वाले काम बोर्ड का गठन न पाने व कम बजट के कारण रुके हुए हैं। अब देखना ये है कि जिस भाजपा की वर्तमान में सरकार है, वह अपनी मातृ संस्था संघ की शाखा की मांग पूरी करती है या नहीं।
-तेजवानी गिरधर
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हिंदी पत्रकारिता के युग पुरुष का देहावसान

देश में हिंदी पत्रकारिता के युग पुरुष श्री रमेशचंद्र अग्रवाल का बुधवार को देहावसान हो गया। असल में यह सिर्फ उनकी देह का अवसान है, जबकि वे आज भी देशभर में सबसे बड़े नेटवर्क के साथ गांव-गांव ढ़ाणी-ढ़ाणी में आम पाठक के बीच जिंदा हैं।
उन्हें हिंदी पत्रकारिता का युग पुरुष कहना इस कारण सटीक है क्योंकि उनकी दूरदृष्टि व पक्का इरादे की वजह से ही आज हिंदी पत्रकारिता में युगांतरकारी परिवर्तन आया है। न केवल समाचार पत्र में अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने की शुरुआत करने का श्रेय उनके खाते में है, अपितु पत्रकारिता को केरियर की शक्ल प्रदान करना भी उनकी ही देन है। पत्रकारिता को मिशन से निकाल कर दुनिया के साथ कदमताल करते हुए प्रोफेशनल टच देना भी उनकी सोच का परिणाम है। मगर साथ ही सामाजिक सरोकारों को मिशन की भांति अपना कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि अखबार सिर्फ सूचना के आदान-प्रदान का जरिया नहीं, अपितु समाजोत्थान का भी माध्यम है। अपनी सोच को जिस प्रकार वृहद स्तर पर उन्होंने विस्तार दिया, उसी का परिणाम है कि आज दैनिक भास्कर दुनिया के श्रेष्ठ समाचार पत्रों में किए जा रहे प्रयोगों को अपनाता है और तकरीबन हर दो साल में उसके कलेवर में परिवर्तन देखा जा सकता है। पत्रकारिता में परंपरागत शैली का परित्याग कर इसे नए आयाम दिए हैं, उसका तो कोई सानी ही नहीं है।
दैनिक भास्कर के राजस्थान में पदार्पण के वक्त किसी ने भी नहीं सोचा कि यह समाचार पत्र जल्द ही न केवल पूरे राज्य पर छा जाएगा, अपितु एक के बाद एक अन्य गैर हिंदी भाषी राज्यों में भी पांव पसार लेगा। जयपुर के बाद जब अजमेर संस्करण का आरंभ करने श्री रमेश चंद अग्रवाल यहां आए तो मुझे भी इससे जुडऩे का अवसर मिला। तब हिंदी व अंग्रेजी के सिद्धहस्त पत्रकार प्रदीप पंडित को इस संस्करण को दिशा देने का दायित्व दिया गया। उनके साथ भोपाल से जो टीम आई, उसे देख कर तो मैं चकित रह गया। मात्र बीस-पच्चीस साल के युवा पत्रकारिता की हर विधा में पारंगत थे। तब पहली बार महसूस हुआ कि राजस्थान में पत्रकारिता की स्कूलिंग कितनी कमजोर है। बहरहाल, चंद माह बाद ही दैनिक नवज्योति से डॉ. रमेश अग्रवाल को बुलवा कर संपादन का दायित्व सौंपा गया। उन्हीं के नेतृत्व में मैंने सिटी डेस्क इंचार्ज व चीफ रिपोर्टर का दायित्व निर्वहन किया। वे तकरीबन पांच साल यहां रहे। इसके बाद उनका जयपुर तबादला हो गया। उनके बाद राजस्थान पत्रिका के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार श्री जगदीश शर्मा व अजमेर के सपूत मूर्धन्य पत्रकार श्री अनिल लोढ़ा के साथ काम करने सौभाग्य हासिल हुआ। आठ साल तक अजमेर संस्करण में सेवाएं देने के बाद जब मेरा तबादला जयपुर कर दिया गया तो होम सिकनेस की वजह से मैने इस्तीफा दे दिया। हालांकि यह सही है कि मेरी मजबूत स्कूलिंग वरिष्ठ पत्रकार श्री सतीश शर्मा की देखरेख में हुई और पत्रकारिता में खुल कर बल्ला चलाने का मौका दैनिक न्याय में श्री राजहंस शर्मा के आशीर्वाद से मिला, मगर पत्रकारिता के नए आयामों को छूने का सारा श्रेय दैनिक भास्कर को है। यही वह मंच रहा, जिसने मुझे पहचान प्रदान की। दैनिक भास्कर में काम करने का वह काल मेरे जीवन का स्वर्णिम काल रहा।
आज जबकि दैनिक भास्कर नामक वट वृक्ष के शीर्ष पुरुष श्री रमेशचंद्र अग्रवाल हमारे बीच नहीं हैं, लगता है कि उनकी क्षतिपूर्ति कभी नहीं हो पाएगी। उनके नेतृत्व में चल रहे पत्रकारिता के इस जंगी जहाज का कभी मैं भी एक कलपुर्जा था, यह कहते हुए मुझे गर्व है। मैं दैनिक भास्कर के प्रबंधन व साथी पत्रकारों से मिले स्नेह को कभी नहीं भुला पाउंगा।
अंत में दैनिक भास्कर के पुरोधा को मेरी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

शहर भाजपा ने दी देवनानी के पक्ष में लचर दलील

नाम के आगे प्रोफेसर शब्द लगाने को लेकर दायर याचिका के बाद हाईकोर्ट की ओर से जारी नोटिस की कड़ी में शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी द्वारा पत्रकारों से बातचीत के दौरान दिया गया तर्क एक नए विवाद का कारण बन ही गया। ब्राह्मण समाज के कुछ लोगों ने सुदामा शर्मा के नेतृत्व में मुख्यमंत्री के नाम एक ज्ञापन जिला कलेक्टर को सौंप कर उन्हें पदमुक्त करने की मांग कर डाली। दूसरी ओर हर बार की तरह इस बार भी शहर जिला भाजपा देवनानी की ढ़ाल बन कर सामने आई। मगर दलील बेहद लचर ही रही। जिस पंडित शब्द की वजह से विवाद हुआ, उसको डाइल्यूट करने के लिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम का सहारा लिया गया, मगर कहीं भी ये स्पष्ट नहीं किया कि देवनानी के नाम से जो बयान छपा है, वह कितना गलत है, या उन्होंने ये बयान दिया ही नहीं अथवा उसे किस प्रकार तोड़ा मरोड़ कर छापा गया है।
ज्ञातव्य है कि पंजाब केसरी, जयपुर में छपे उनके बयान के अनुसार उन्होंने दलील दी थी कि लोगों को मेरे नाम के आगे प्रोफेसर शब्द लगाने से ईष्र्या है, जबकि ब्राह्मण बिना किसी योग्यता के अपने नाम के आगे पंडित लगा लेते हैं। अगर किसी ने अपने नाम के आगे पंडित शब्द लगा लिया तो क्या उसे इसके लिए किसी डिग्री की आवश्यकता होती है?
शहर जिला अध्यक्ष अरविंद यादव की ओर से जारी बयान का हाल देखिए:-
उसमें देवनानी की तारीफ करते हुए कहा गया है कि वे शिक्षा राज्य मंत्री होने के साथ-साथ भाजपा के प्रबुद्ध कार्यकर्ता है तथा पंडित दीनदयाल जी के आदर्शों को ध्येय मानकर ही कार्य कर रहे हैं। पंडित शब्द को लेकर सोशल मीडिया व राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित लोग देवनानी के कथित बयान का हवाला देकर समाज विशेष को उकसा रहे हैं, वह निराधार है। देवनानी किसी भी सूरत में ऐसी बात नहीं कह सकते हैं।
बेशक देवनानी बुद्धिजीवी हैं, दीनदयाल उपाध्याय के आदर्शों पर चल रहे हैं, ये भी मान लिया कि समाज विशेष को उकसाया जा रहा है, जो कि राजनीति में होता ही है, आप भी होते तो ऐसा ही करते, मगर इसका क्या जवाब है कि पंजाब केसरी में जो छपा है, वह क्या उसके रिपोर्टर के दिमाग की उपज है। जरूर उससे संबंधित कुछ तो कहा ही होगा, वरना रिपोर्टर को क्या सपना आ रहा था? कदाचित रिपोर्टर की समझ में कुछ फर्क हो गया होगा या खबर लिखते समय कलम कुछ फिसल गई होगी, मगर आप ये कह कर देवनानी जी ऐसा कह नहीं सकते, क्या खबर का खंडन करने के लिए पर्याप्त है।
यादव की विज्ञप्ति में अधिसंख्य उन भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं के नाम सायास शामिल किए गए हैं, जो कि ब्राह्मण हैं, ताकि ये संदेश जाए कि ब्राह्मण देवनानी के साथ हैं।
जिस पंडित शब्द का उल्लेख करने से देवनानी फंसे, उसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि पंडित उपाधि आदर व सम्मान का सूचक है तथा जनसंघ स्थापना हो या भाजपा स्थापना इसका अपना विशेष महत्व रहा है। जनसंघ के संस्थापक सदस्य पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय भाजपा के कार्यों का मूल आधार है और तत्व रूप में आज भी हमारे लिये अनुकरणीय व मार्गदर्शक हैं। पंडित दीनदयाल जी हो या अटल बिहारी वाजपेयी हो केवल जनसंघ, भाजपा के ही नहीं बल्कि पूरे देश में सर्व समाजों व वर्गों के गौरव हैं।
यादव जी से यह पूछने का मन करता है कि श्रीमान्, दीनदयाल जी या वाजपेयी जी का तो मुद्दा है ही नहीं, वे बीच में कहां से आ गए। उनकी महिमा या पंडित शब्द की महत्ता साबित करने से कहां साफ हो रहा है कि देवनानी ने पंडित शब्द का उल्लेख क्यों कर किया है?
यादव ने यह भी कहा कि देवनानी ने राज्य भर में राष्ट्रीय मूल्य आधारित शिक्षा का विस्तार किया है तथा आचार्य चाणक्य, गोस्वामी तुलसीदास व पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय के संदर्भों व आदर्शों को पाठ्यक्रम में जुड़वा कर सम्मान बढ़ाया है। बहुत अच्छी बात है। देवनानी जी तो बहुत महान हैं, मगर आप तो ये बताइये कि उनका बयान आखिर था क्या?
अलबत्ता देवनानी जी के नाम से वाट्स ऐप पर एक बयान भी चला, जो कुछ बेहतर है। उसमें भले ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम का सहारा लिया गया है, मगर साथ ही यह कह कर कि वे ब्राह्मण समाज के व्यक्तित्व व आस्थाओं का सम्मान करता हूं, स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि ब्राह्मणों के प्रति उनके मन में कोई द्वेष भाव नहीं। उसमें कहा गया है कि मैं भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता हूं। हम सभी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के आदर्शों पर चलने का प्रयास करते हैं। हमारा विश्वास समाजिक समरसता में है। कुछ लोग राजनीतिक द्वेषता के कारण भ्रामक बातें करके सामाजिक समरसता बिगाडऩे का प्रयास कर रहे हैं। मैं इसकी निन्दा करता हूं। व्यक्तिगत रूप से मैं सभी समाजों का आदर करता हूं एवं जीवन मैं  ब्राह्मण समाज के व्यक्तित्व एवं आस्थाओं का सम्मान करता रहा हूं।
हालांकि उनके इस बयान में भी कहीं इस बात का जिक्र नहीं है कि आखिर उन्होंने कहा क्या था और पंजाब केसरी में छप क्या गया, जो ब्राह्मण समाज के लोगों को उत्तेजित कर गया।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, 9 अप्रैल 2017

देवनानी का तर्क कर सकता है ब्राह्मण समाज को नाराज

नाम के आगे प्रोफेसर शब्द लगाने को लेकर दायर याचिका के बाद हाईकोर्ट की ओर से जारी नोटिस की कड़ी में शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी द्वारा दिया गया पत्रकारों से बातचीत के दौरान दिया गया तर्क एक नए विवाद को जन्म दे सकता है। पंजाब केसरी, जयपुर में छपे उनके बयान के अनुसार उन्होंने दलील दी है कि लोगों को मेरे नाम के आगे प्रोफेसर शब्द लगाने से ईष्र्या है, जबकि ब्राह्मण बिना किसी योग्यता के अपने नाम के आगे पंडित लगा लेते हैं। अगर किसी ने अपने नाम के आगे पंडित शब्द लगा लिया तो क्या उसे इसके लिए किसी डिग्री की आवश्यकता होती है?
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि देवनानी ने यह स्वीकार किया है कि उनके पास प्रोफेसर की शैक्षिक योग्यता और डिग्री नहीं है, लेकिन लोग उन्हें प्रोफेसर के नाम से बुलाते हैं, इसलिए उन्होंने अपने नाम से पहले प्रोफेसर शब्द लगा रखा है। अर्थात उनको इस शब्द के उपयोग में कोई गलती नजर नहीं आती। तभी तो इसी कड़ी में तर्क दिया है कि कोई भी ब्राह्मण अपने नाम के आगे पंडित शब्द लगा लेता है, जबकि उसके पास इसकी कोई डिग्री नहीं होती। यह तर्क एक बहस उत्पन्न करता है। वस्तुत: प्रोफेसर शब्द एक सरकारी पद है, जिसकी बाकायदा डिग्री व अर्हता होती है, जबकि पंडित पांडित्य करने वाले को कहा जाता है, जिसकी कोई डिग्री नहीं होती। दोनों की तुलना सटीक प्रतीत नहीं होती। ऐसे तो संघ विचारधारा के शीर्ष पुरुष स्वर्गीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम के आगे लगे पंडित शब्द पर भी सवाल उठता है, उन्होंने कौन सी पंडित होने की डिग्री ली थी। कुल मिला कर देवनानी ने अपनी बात को पुष्ट करने के लिए जो तर्क चुना, वह ब्राह्मण समाज में नाराजगी पैदा कर सकता है।
सोशल मीडिया पर तो इसको लेकर टीका टिप्पणियां शुरू भी हो गई हैं। एक शख्स ने तो टिप्पणी की है कि प्रोफेसर शब्द लगाने की सफाई में पंडित शब्द पर टीका करना और ब्राह्मणों पर कटाक्ष करना बेहद गंभीर है। अपनी गलती छिपाने के लिए ऐसी हरकत करने के लिए उन्हें ब्राह्मण समाज से माफी मांगनी चाहिए।
अगर ब्राह्मण समाज इसको मुद्दा बनाता है तो यह देवनानी केलिए दिक्कत पैदा कर सकता है। किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए समुदाय विशेष की नाराजगी कितनी गंभीर होती है, इसे आसानी से समझा जा सकता है।
देवनानी का कहना है कि उन्हें अभी हाईकोर्ट का नोटिस नहीं मिला है। मिलेगा तो जवाब दे दिया जाएगा। उन्होंने प्रोफेसर शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि प्रोफेसर का हिंदी में अर्थ होता है प्राध्यापक, यानि कि व्याख्याता से ऊपर का पद। जो प्राध्यापक है, वह प्रोफेसर शब्द का इस्तेमाल कर सकता है। उनका यह तर्क हाईकोर्ट में कितना टिकता है, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। मगर इससे इस अवधारणा पर तो सवाल उठता ही है कि कानूनी रूप से प्रोफेसर शब्द का उपयोग वही कर सकता है, जिसने कि पीएचडी की हो और प्रोफेसर के रूप में नौकरी कर रहा हो या कर चुका हो।
ज्ञातव्य है कि राजस्थान हाईकोर्ट में अजमेर निवासी लोकेश शर्मा की ओर से लगाई गई याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायाधीश मनीष भंडारी की खंडपीठ ने नोटिस जारी कर राज्य के मुख्य सचिव व देवनानी से चार सप्ताह में जवाब मांगा है। । लोकेश शर्मा की एडवोकेट मनजीत कौर ने बताया कि देवनानी केवल बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग की डिग्री लिए हुए हैं। उन्होंने न तो पीएचडी की डिग्री ली और न ही कभी प्रोफेसर रहे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

बड़ी किरकिरी हुई देवनानी की

प्रदेश के शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी एक बारगी फिर सुर्खियों में हैं। इस बार विवाद है उनका नाम के पहले प्रोफेसर लगाने को लेकर। राजस्थान हाईकोर्ट में अजमेर निवासी लोकेश शर्मा की ओर से लगाई गई याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायाधीश मनीष भंडारी की खंडपीठ ने नोटिस जारी कर राज्य के मुख्य सचिव व देवनानी से चार सप्ताह में जवाब मांगा है। । लोकेश शर्मा की एडवोकेट मनजीत कौर ने बताया कि शिक्षा विभाग, राज्य सरकार व लोकायुक्त से सवाल किया गया था कि देवनानी नाम के पहले प्रोफेसर शब्द किस आधार लगाते हैं, मगर कोई जवाब नहीं मिला। इसके बाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की गई। एडवोकेट मनजीत कौर के अनुसार देवनानी केवल बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग की डिग्री लिए हुए हैं। उन्होंने न तो पीएचडी की डिग्री ली और न ही कभी प्रोफेसर रहे।
सवाल ये उठता है कि राज्य के शिक्षा मंत्री जैसे महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठे देवनानी से इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई। या फिर जानबूझकर उन्होंने इस शब्द का दुरुपयोग किया। हालांकि फैसला तो हाईकोर्ट ही करेगा कि उनका नाम से पहले प्रोफेसर लगाना उचित है या नहीं, मगर याचिका में जो तथ्य दिए गए हैं, वे तो चौंकाते ही हैं। जैसा कि मीडिया में आया है कि देवनानी की ओर से यह स्वीकार किया गया कि उनके पास प्रोफेसर की शैक्षिक योग्यता और डिग्री नहीं है, लेकिन लोग उन्हें प्रोफेसर के नाम से बुलाते हैं, इसलिए उन्होंने अपने नाम से पहले प्रोफेसर शब्द लगा रखा है, बड़ा अजीब सा है। अव्वल तो जब वे प्रोफेसर हैं नहीं तो उन्हें खुद ही लोगों को उन्हें प्रोफेसर कहने से रोकना चाहिए था। उलटे उन्होंने खुद को प्रोफेसर कहलवा कर गलत बात को प्रोत्साहित किया। एक आम चालबाज अगर ऐसा करता तो भी गंभीर बात है, मगर इस मामले की गंभीरता और अधिक हो जाती है, क्योंकि देवनानी एक राज्य के शिक्षा राज्य मंत्री हैं। इतना तो उन्हें भी भान रहा होगा कि इस प्रकार प्रोफेसर शब्द का उपयोग सर्वथा गलत है। सवाल उठता है कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि उन्होंने इतने महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज कर दिया? जो कुछ भी हो जब से वे राजनीति में आए हैं, उन्होंने इस शब्द के बहाने हाईली एजुकेटेड होने का लाभ तो ले ही लिया है। उन्हें महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल से अधिक सम्मान इस कारण भी मिलता रहा है कि वे बहुत पढ़े-लिखे हैं। अगर कोर्ट का फैसला उनके विपरीत आता है तो इसका मतलब ये होगा कि वे श्रीमती भदेल से कम पढ़े लिखे हैं। श्रीमती भदेल ने तो आट्र्स में मास्टर डिग्री ली है, जबकि वे इंजीनियरिंग में बेचलर डिग्री लिए हुए हैं।
कोर्ट का फैसला जो भी हो, मगर फिलहाल तो उनकी बहुत किरकिरी हो गई है। सोशल मीडिया पर तो उन्हें झोलाछाप प्रोफेसर तक की संज्ञा दी जा रही है, जैसे एमबीबीएस किए बगैर कई नीम हकीम फर्जी डिग्री लेकर अपने नाम के आगे डॉक्टर शब्द का इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें झोलाछाप डाक्टर कहा जाता है। जैसे ही देवनानी से संबंधित यह खबर आई, तुंरत सोशल मीडिया पर छा गई। लोगों ने चटकारे ले लेकर इस पर टिप्पणियां कीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

अगर माथुर मुख्यमंत्री बने तो बदल जाएंगे स्थानीय समीकरण

जैसे-जैसे ही संसद का मानसून सत्र समाप्ती की ओर अग्रसर है, एक बारगी फिर केन्द्रीय मंत्रीमंडल में बदलाव की चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया है। इतना ही नहीं राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को केन्द्रीय मंत्रीमंडल में बतौर विदेश मंत्री शामिल किए जाने के भी कयास लगाए जा रह हैं। उनके स्थान पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खासमखास ओम प्रकाश माथुर को मुख्यमंत्री बनाए जाने की संभावना बताई जा रही है। मीडिया में जिस पुख्ता तौर पर ये खबरें चल रही हैं, उससे लगता है कि मानसून सत्र समाप्त होते ही यह बड़ा बदलाव हो जाएगा।
अगर ऐसा होता है तो समझिये राजस्थान में वसुंधरा युग का अवसान हो जाएगा। वे तकरीबन दो दशक से राज्य की राजनीति पर हावी रही हैं। सच तो ये है कि राज्य में वसुंधरा व भाजपा एक दूसरे के पर्याय हैं। जाहिर तौर पर उनके हटने के साथ ही राज्य में आरएसएस हावी हो जाएगी। इसका परिणाम ये होगा कि अजमेर में भी भाजपा के समीकरण बदल जाएंगे। यह सही बात है कि राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत, शिक्षा राज्यमंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी व महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमत अनिता भदेल वसुंधरा राजे के साथ ट्यूनिंग की वजह से पदों पर हैं, मगर हैं वे मौलिक रूप से संघ पृष्ठभूमि के। इस कारण उनकी स्थिति में अंतर नहीं आना चाहिए। अलबत्ता श्रीमती भदेल चूंकि प्रो. देवनानी को बैलेंस करने के लिए वसुंधरा की निजी पसंद के कारण मंत्री बनीं, इस कारण उन पर आंच आ जाए तो कुछ कहा नहीं जा सकता। बात करें, किसान आयोग के अध्यक्ष प्रो. सांवरलाल जाट की तो वे सर्वविदित तौर पर वसुंधरा खेमे से ही हैं, मगर चूंकि जाट समाज के दिग्गज नेता हैं, इस कारण उनको छेडऩा आसान नहीं होगा। अलबत्ता आगामी विधानसभा चुनाव में उनके पुत्र को नसीराबाद से टिकट मिलता पाता है या नहीं, यह बदले समीकरणों पर निर्भर होगा।
अगर माथुर मुख्यमंत्री बने तो एक लॉबी काफी मजबूत हो जाएगी, जिसमें मुख्य रूप से पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा, शहर जिला भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव, पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत आदि शामिल हैं। गत दिनों माथुर के अजमेर आगमन पर स्वागत करने पहुंचे सोनगरा के पुत्र विकास सोनगरा, नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन, सोमरत्न आर्य, पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गैना, कमला गोखरू, पूर्व नगर परिषद सभापति सरोज यादव, पूर्व शहर जिला अध्यक्ष पूर्णाशंकर दशोरा, तुसली सोनी, विनीत पारीक, श्रीमती रश्मि शर्मा, श्रीमती वनिता जैमन आदि को भी संतुष्टि होगी कि अब उन्हें वसुंधरा राजे की नाराजगी का शिकार नहीं होना पड़ेगा। यहां बता दें कि इन सबके के नामों की सूची वसुंधरा तक पहुंच चुकी है। माथुर के स्वागत में देवनानी लॉबी की जिला प्रमुख वंदना नोगिया, पार्षद नीरज जैन, वीरेन्द्र वालिया, महेन्द्र जादम, राजेन्द्र लालवानी, अनीश मोयल, रमेश सोनी आदि भी गए, मगर तब ये समझा गया कि वे गफलत में पहुंचे, मगर अब वही गफलत उपयोगी भी हो सकती है। इससे ऐसा अंदेशा होता है कि कहीं देवनानी को पहले से ही  अंदरखाने पक रही खिचड़ी का पता तो नहीं था। चूंकि वे वसुंधरा राजे के मंत्रीमंडल में शामिल हैं, इस कारण उनका स्वागत समारोह में जाना कदाचित अनुचित था, मगर संभव है उन्होंने अपने शागिर्दों को भेज कर माथुर के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की हो।
वैसे माथुर के मुख्यमंत्री बनने का सबसे बड़ा फायदा सुरेन्द्र सिंह शेखावत को होगा। इससे न केवल उनका भाजपा में पुनर्वास होगा, अपितु आगे का केरियर भी बन जाएगा। ज्ञातव्य है कि वे अजमेर उत्तर विधानसभा क्षेत्र की टिकट के प्रबल दावेदार हैं। गर देवनानी का टिकट कट पाना संभव नहीं हुआ तो कम से कम भाजपा सरकार बनने पर अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद के तो प्रबल दावेदार हो ही जाएंगे।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

तो दीवान के छोटे भाई इस्लामिक कट्टरपंथियों की साजिश में शामिल हैं?

तीन तलाक के मामले पर बयान पर सूफी संत हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन की दरगाह के दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान को पद से हटा कर खुद काबिज होने का ऐलान करने वाले उनके छोटे भाई एस. ए. अलीमी क्या इस्लामिक कट्टरपंथियों की साजिश में शामिल हैं? इस विवाद पर दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान के बयान से तो यही जाहिर होता है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि ख्वाजा साहब के वंशज दीवान समय समय पर राष्ट्रीय मसलों पर सूफी मत के अनुसार अपनी राय जाहिर करते रहे हैं, जो कि इस्लामिक कट्टरपंथियों को नागवार गुजरता ही होगा। मगर बकौल दरगाह दीवान यह पहला मौका है कि उनके ही छोटे भाई उन इस्लामिक कट्टरपंथियों की साजिश में शामिल हो गए हैं। ज्ञातव्य है कि तीन तलाक मसले पर जैसे ही दरगाह दीवान ने राय जाहिर की, उसके दूसरे ही दिन उनके छोटे भाई ने यह कह कर कि मुफ्ती की राय में दीवान हनफी मुसलमान नहीं रह गए हैं, इस कारण वे उन्हें अपदस्थ कर खुद दीवान की गद्दी पर काबिज हो रहे हैं। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए दरगाह दीवान ने बाकायदा संवाददाता सम्मेलन आयोजित कर स्पष्ट कर दिया कि उन्हें हटाने का अधिकार किसी को नहीं है और उन्हें हटा देने का बयान हास्यापद होने के साथ इस्लामिक कट्टरपंथियों की साजिश मात्र है। चूंकि दीवान पद से हटाने का ऐलान उनके छोटे भाई ने किया था, तो दीवान का बयान का यही अर्थ निकलता है कि उनके छोटे भाई इस्लामिक कट्टरपंथियों की साजिश में शामिल हो गए हैं। अगर यह सही है तो यह बेहद अफसोसनाक है कि जो दरगाह दुनिया में सूफी मत की सबसे कदीमी दरगाह है, और जहां से पूरे विश्व में महान संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती का सांप्रदायिक सौहार्द्र का संदेश जाता है, उसी के एक वंशज इस्लामिक कट्टपंथियों में शुमार हो गए हैं।
हालांकि ताजा विवाद दो भाइयों का विवाद है, जो पहले से चला आ रहा है, मगर इस मुकाम पर आ कर अगर एक भाई कथित रूप से सूफी से इतर इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर चला गया है तो यह चिंतनीय है। यह चिंता का विषय इस कारण भी है, क्योंकि अब तक तो दीवान को बाहरी ताकतों का खतरा रहता था, मगर अब वे बाहरी ताकतें उनके भाई के जरिए घर में ही दखल देने लगी हैं तो उन्हें और अधिक सतर्क होना पड़ेगा। देखने वाली बात ये है कि अगर एस. ए. अलीमी ने इस्लामिक कट्टपंथियों के इशारे पर दीवान को हटाने संबंधी बयान दिया है, तो दीवान के पद पर बने रहने के बयान के बाद वे प्रतिक्रिया में जरूर कुछ न कुछ करेंगी। सरकार के लिए भी यह गौर करने लायक है। अब उसे दीवान को और अधिक सुरक्षा देनी होगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, 5 अप्रैल 2017

मसूदा से चुनाव लडऩे को तैयार दिखते हैं वाजिद

हालांकि अभी विधानसभा चुनाव दूर हैं और मसूदा से कांग्रेस टिकट के प्रबल दावेदार पूर्व विधायक हाजी कयूम खान माने जाते हैं, मगर कानाफूसी है कि वाजिद खान ने भी पूरी तैयारी कर रखी है। जाहिर तौर पर वे कांग्रेस की ही टिकट मांगेंगे। बताया जाता है कि उनके पास तगड़ी टीम है, जो कि अभी सक्रिय हो गई है। हाल ही फेसबुक पर एक पोस्ट से यह संकेत मिला कि वाजिद की टीम टिकट के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोडऩे वाली है। हालांकि उनको टिकट मिलना आसान नहीं है, मगर उनको टिकट से वंचित रखना भी कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है।

क्या दरगाह दीवान को उनके भाई पद से हटा सकते हैं?

महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के सालाना उर्स के आखिरी दिन दरगाह शरीफ में जो घटनाक्रम हुआ, उससे यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या दरगाह दीवान जेनुल आबेदीन को उनके छोटे भाई अलाउद्दीन अलीमी पद से हटाने का अधिकार रखते हैं? ज्ञातव्य है कि अलीमी ने बयान जारी कर कहा है कि दीवान आबेदीन ने तीन तलाक के संबंध में जो बयान दिया है, उसके संबंध में उन्होंने मुफ्ती साहब से मौखिक संपर्क किया। मुफ्ती ने कहा कि उसके द्वारा दिए गए बयान के आधार पर वह मुरतद हो गया है, अर्थात अब वह हनफी मुसलमान नहीं रहा। इस बारे में 10-12 अन्य मुफ्तियों को पत्र लिख कर फतवा मंगाने की भी राय दी गई। अलीमी ने कहा कि इस फतवे के बाद खानदान की रस्मों के अनुसार परिवार की एक बैठक आयोजित कर तय किया गया है जो व्यक्ति हनफी मुसलमान नहीं रह गया, वह गद्दी के लिए अयोग्य हो गया है। वह ख्वाजा साहब का सज्जादा नशीन दरगाह दीवान कैसे रह सकता है।
दरअसल दरगाह दीवान जेनुल आबेदीन उच्चतम न्यायालय के आदेश से इस पर काबिज हैं। सवाल उठता है कि क्या मुफ्ती को यह कानूनी अधिकार है कि वह तीन तलाक के बारे में निजी राय जारी करने वाले को हनफी मुसलमान न होने का फतवा दे सकते हैं? क्या हनफी मुसलमान न होने की स्थिति में उनके छोटे भाई को यह अधिकार है कि वे स्वयं जेनुल आबेदीन को हटा कर खुद को दीवान घोषित करें? क्या अलीमी के ऐलान को वैध मान कर उस पर प्रशासन व सरकार अमल करेंगे?
जानकारी के अनुसार दरगाह दीवान व उनके भाई के बीच विवाद पहले से चला आ रहा है। उर्स के दौरान ही दो दिन पहले विवाद हुआ था। तीन तलाक पर बयान तो बाद में आया। यानि कि इस बयान के बाद ही मामले ने तूल पकड़ा। दीवान ने अपने छोटे भाई को सचिव पद हटा दिया और उनके स्थान पर अपने बेटे नसीरुद्दीन को नियुक्त किया, उसकी प्रतिक्रिया में अलीमी ने जेनुल आबेदीन को दीवान पद से हटाने का ऐलान कर दिया।
एक नजर दीवान के बयान पर:-
दरगाह दीवान ने इस्लामी शरीयत के हवाले से कहा कि इस्लाम में शादी दो व्यक्तियों के बीच एक सामाजिक करार माना गया है। इस करार की साफ-साफ शर्तें निकाहनामा में दर्ज होनी चाहिए। कुरान में तलाक को अति अवांछनीय बताया गया है। उस संवेदनशील मसले पर उनका तर्क है कि एक बार में तीन तलाक का तरीका आज के समय में अप्रासंगिक ही नहीं, खुद पवित्र कुरान की भावनाओं के विपरीत भी है। क्षणिक भावावेश से बचने के लिए तीन तलाक के बीच समय का थोड़ा-थोड़ा अंतराल जरूर होना चाहिए। यह भी देखना होगा कि जब निकाह लड़के और लड़की दोनों की रजामंदी से होता है, तो तलाक मामले में कम से कम स्त्री के साथ विस्तृत संवाद भी निश्चित तौर पर शामिल किया जाना चाहिए। यह भी कि निकाह जब दोनों के परिवारों की उपस्थिति में होता है तो तलाक एकांत में क्यों ?
उन्होने कहा कि पैगंबर हजरत मुहम्मद ने कहा था कि अल्लाह को तलाक सख्त नापसंद है। कुरान की आयतों में साफ दर्शाया गया है कि अगर तलाक होना ही हो तो उसका तरीका हमेशा न्यायिक एवं शरअी हो। कुरान की आयतों में कहा गया है कि अगर पति-पत्नी में क्लेश हो तो उसे बातचीत के द्वारा सुलझाने की कोशिश करें। जरूरत पडऩे पर समाधान के लिए दोनों परिवारों से एक-एक मध्यस्थ भी नियुक्त करें। समाधान की यह कोशिश कम से कम 90 दिनों तक होनी चाहिए।
दरगाह दीवान ने कहा कि कुरान ने समाज में स्त्रियों की गरिमा, सम्मान और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बहुत सारे प्रावधान किए हैं। तलाक के मामले में भी इतनी बंदिशें लगाईं गई हैं कि अपनी बीवी को तलाक देने के पहले मर्दों को सौ बार सोचना पड़े। कुरान में तलाक को न करने लायक काम बताते हुए इसकी प्रक्रिया को कठिन बनाया गया है, जिसमें रिश्ते को बचाने की आखिरी दम तक कोशिश, पति-पत्नी के बीच संवाद, दोनों के परिवारों के बीच बातचीत और सुलह की कोशिशें और तलाक की इस पूरी प्रक्रिया को एक समय-सीमा में बांधना शामिल हैं।
उन्होने कहा कि इस विषय पर कुरान के शुरा में एक पूरे अध्याय का जिक्र है जिसे अल तलाक कहते हैं जिसमें 12 छंद हैं। इन छंदों में तलाक के लिए कुरान एक प्रक्रिया पालन करने की बात कहता है। कुरान कहता है कि तीनों तलाक कहने के लिए एक एक महीने का वक्त लिया जाना चाहिए कुरान एक बार में तीन तलाक कहने की परंपरा को जायज नहीं मानता है।
बहरहाल, सवाल ये कि क्या तीन तलाक के मामले में इस प्रकार का मन्तव्य जाहिर करने के आधार पर दीवान को हनफी मुसलमान होने का फतवा जारी किया जा सकता है? ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि यह मसला कहां तक जाता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

सबके हित जुड़े होने के कारण है अजमेर में सांप्रदायिक सौहार्द्र

महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह पूरी दुनिया में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल है। जाहिर तौर पर उसमें ख्वाजा साहब की शिक्षाओं की भूमिका है। साथ ही हिंदुओं की उदारता, कि वे अपने धर्म के प्रति कटïïï्टर नहीं और अन्य धर्मों के प्रति भी पूरा सम्मान भाव रखते हैं। यदि वजह है कि इस दरगाह में साल भर में आने वाले जायरीन में हिंदुओं की तादाद भी काफी है। ऐसे में यह संदेश जाना स्वाभाविक है कि यह मरकज सांप्रदायिक सौहार्द्र का समंदर है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ये है कि जब जब भी देश भर में किसी वजह से सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगड़ा और दंगे हुए, अजमेर शांत ही बना रहा।
असल में सुकून की बड़ी वजह है, सभी धर्मों व वर्गों के लोगों का हित साधन। उर्स मेले में आने वाले लाखों जायरीन यहां के अर्थ तंत्र की धुरि हैं। मेला ही क्यों, अब तो साल भर यहां जायरीन का तांता लगा रहता है। भरपूर खरीददारी के कारण आम दुकानदार की अच्छी कमाई होती है। सैकड़ों होटलों का साल भर का खर्चा अकेले उर्स मेले के दौरान निकल जाता है। छोटी छोटी मजदूरी करने वाले भी इस दौरान खूब कमाते हैं। रहा सवाल खादिमों का तो वे सूफी मत को मानने वाले होने के कारण उदार प्रवृत्ति के हैं, मगर साथ ही उनकी आजीविका ही जायरीन पर टिकी हुई है। हालांकि अब खादिम भी अन्य व्यवसाय करने लगे हैं, फिर भी उनकी मुख्य आजीविका का जरिया खिदमत से होने वाली अच्छी आय ही है। स्वाभाविक रूप से जब वे दिल खोल कर खर्च करते हैं तो उसका लाभ आम दुकानदार को होता है। दरगाह शरीफ में लाखों रुपए का गुलाब चढ़ता है, जिसकी खेती पुष्कर में अधिसंख्य हिंदू करते हैं। समझा जा सकता है कि जिस शहर में जायरीन या पर्यटक कह लीजिए, के आगमन से अर्थ चक्र घूमता हो, वहां स्वाभाविक रूप से सभी का हित इसमें जुड़ा हुआ है कि यहां शांति कायम रहे। यहां शांति रहेगी तो बाहर से आने वाला भी बेखौफ आएगा। इसका यहां हर वर्ग को ख्याल रहता है। जब भी कोई छुटपुट घटना होती है तो सभी की कोशिश रहती है कि विवाद जल्द निपटा लिया जाए।
इन सबके बावजूद अजमेर को सांप्रदायिक तौर पर संवेदनशील माना जाता है, उसकी वजह है अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर का आंतकवाद। इसी कारण दरगाह की अतिरिक्त सुरक्षा की जाती है। एक बार तो दरगाह में बम ब्लास्ट भी हो चुका है, जिसके आरोपियों को हाल ही सजा सुनाई गई है। इस घटना के बाद अब यहां सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा है। उससे आभास ये होता है कि यहां खतरा है, मगर सच्चाई ये है कि अजमेर का नागरिक आम तौर पर शांति पसंद है। वह किसी उद्वेग में नहीं बहता। शहर के ऐसे शांत मिजाज के कारण एक बार अजमेर आ चुके अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद अजमेर में ही बसना पसंद करते हैं।
बहरहाल, चाहे जिस वजह से अजमेर सुकून भरी जगह हो, मगर इसी वजह से यह सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल बना हुआ है।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

जोशी ने दिया पायलट के नेतृत्व में ही चुनाव लडऩे का बयान

कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की ओर से भेजी गई चादर दरगाह शरीफ में चढ़ाने के दौरान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट व पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच ट्यूनिंग को वाच कर रहा मीडिया भले ही यह कयास लगा रहा हो कि कांग्रेस किसके नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ेगी, मगर इसी बीच इस मामले में राजस्थान से कईं दिनों से दूरी बनाए बैठे कद्दावर नेता सी पी जोशी ने चुप्पी तोड़ी है। जोशी ने कहा कि पीसीसी चीफ सचिन पायलट के नेतृत्व में सब मिल कर चुनाव लड़ेंगे और कांग्रेस की सरकार लाने के प्रयत्न करेंगे। यूथ कांग्रेस सभा को संबोधित करने के बाद मीडिया से बातचीत करते हुए सी पी जोशी ने यह बात कही। हालांकि उनके इस बयान में से कुछ लोग अब भी किंतु परंतु निकाल सकते हैं, मगर उनका यह बयान बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। जोशी ने संभवत: पहली बार मीडिया में सचिन पायलट और नेतृत्व को लेकर ऐसा बयान दिया है। इससे पहले राजस्थान कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर उन्होंने एक शब्द भी नहीं बोला था।
असल में कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर कन्फ्यूजन के कयास इसी वजह से उठते रहे हैं क्योंकि गहलोत के प्रति निजी आस्था रखने वाले येन केन प्रकारेण ऐसा जाहिर करते रहे हैं कि राजस्थान के आगामी मुख्यमंत्री गहलोत ही होंगे, हालांकि गहलोत ने कभी इस आशय का बयान नहीं दिया। अगर वे यह कहते हैं कि मुख्यमंत्री का फैसला हाईकमान करेगा तो उसका अर्थ ये निकाला जाता है कि पायलट को अभी से मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानना गलत है या फिर वे अपने फिर मुख्यमंत्री बनने की संभावना को नकारना नहीं चाहते। वस्तुत: यह शब्दों की बारीक राजनीति है। स्वाभाविक सी बात है कि जब पायलट को अध्यक्ष बनाया गया तो तभी यह स्पष्ट था कि उनके ही नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाना है। जिसके हाथ में प्रदेश कांग्रेस की कमान है, वही तो चुनाव के दौरान नेतृत्व करेगा। इसको लेकर सवाल करना ही बेमानी है। वस्तुत: सवाल इतना भर है कि क्या कांग्रेस पहले से मुख्यमंत्री का नाम प्रोजेक्ट करेगी या नहीं, मगर इस बारे में हाईकमान ने कोई नीति नहीं बनाई है।
बहरहाल, पायलट व गहलोत जब सोनिया गांधी की चादर चढ़ाने को अजमेर आए तो मीडिया इस विवादित विषय पर बड़े गौर से निगाहें टिकाए हुई थी। उसने इसका भी अर्थ निकाला कि चादर चढ़ाने के दौरान साथ थे, मगर अलग अलग क्यों आए? पत्रकारों ने दोनों से अलग-अलग जगह सवाल किए, इसको इस रूप में प्रजेंट किया गया कि दोनों ने अलग अलग प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों की? कदाचित पहले गहलोत के अजमेर आने का कार्यक्रम नहीं था, बाद में बना, इसको लेकर भी सवाल उठाया गया कि एक दिन पहले जारी सूचना में गहलोत का क्यों नाम नहीं था?
कुल जमा बात इतनी है कि चूंकि कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं की गहलोत के प्रति निजी आस्था है, इसी को ध्यान में रख कर नेतृत्व को लेकर सवाल उठाये जा रहे हैं, जबकि वस्तुस्थिति ये है कि गहलोत के मुख्यमंत्रित्व काल में अजमेर के मिनी मुख्यमंत्री कहलाने वाले पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती भी पायलट के आगमन पर वैसी ही उपस्थिति देते हैं, जैसी कथित रूप से पायलट समर्थक।

जोशी का बयान देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए:-
https://youtu.be/nphalFScGrk


-तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

किले का नाम कुछ भी रख दें, बनवाया तो अकबर ने ही था

नया बाजार स्थित अजमेर का किला एवं संग्रहालय को लेकर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले दिनों इस किले का नाम अकबर का किला से बदल कर अजमेर का मिला एवं संग्रहालय करने को लेकर खादिम तरन्नुम चिश्ती के नाम से शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी को भेजे गए धमकी भरे पत्र की वजह से यह किला चर्चा में आ था, अब इसको लेकर  शहर जिला भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव की ओर से जारी एक बयान से यह सुर्खियों में है।
यादव ने किले के वृत्त अधीक्षक जफर उल्लाह खान द्वारा अजमेर के किले को अकबर का किला बताने के बयान को उन्होंने तथ्यहीन बताया है। यादव ने कहा है कि जिस 1968 की अधिसूचना का जफर उल्लाह खान हवाला दे रहे हैं, उससे पूर्व वर्ष 1950 से ही इसका नाम राजपूताना संग्रहालय था तथा यहां पर देश के गौरव से जुड़ी कई ऐतिहासिक जानकारियां व तथ्य उपलब्ध थे। प्रख्यात विद्वान हरविलास शारदा द्वारा लिखित पुस्तक जो कि ऐतिहासिक तथ्यों के प्रमाणित आधार पर रचित है इसमें भी तथा अनेक ऐतिहासिक व पुरातत्व दस्तावेजों से यह सिद्व होता है कि यह राजपुताना संग्रहालय, म्यूजियम व अजमेर का किला है।
यादव ने जिन तथ्यों का हवाला दिया है, वे वाकई सही हैं, इसमें कोई दोराय नहीं है, मगर क्या इन तथ्यों से इस बात को नकारा जा सकता है कि इस किले का निर्माण अकबर ने करवाया था? अगर वृत्त अधीक्षक जफर उल्लाह खान बता रहे हैं कि इसका नाम अकबर का किला है, तो उसमें कुछ भी गलत नहीं है। वे केवल उपलब्ध सरकारी रिकार्ड के हिसाब से जानकारी दे रहे हैं। इतिहासकारों ने भले ही अपनी पुस्तकों में वस्तुस्थिति का हवाला दिया हो। विचारधारा विशेष के महानुभावों को भले ही किसी नाम विशेष से वितृष्णा हो, मगर इतिहास को नहीं झुठलाया जा सकता।
रहा सवाल नाम का तो स्थानों व योजनाओं के नाम बदलने के अनेकानेक उदाहरण हैं। सत्ता पर काबिज राजनेता व दल अपनी पसंद व विचारधारा के अनुसार नाम बदलते रहे हैं। बस, उसकी विधिक प्रक्रिया का पालन करते हैं, ताकि नाम परिवर्तन रिकार्ड पर आ जाए। ऐसा अनेकानेक इमारतों के साथ हुआ है। जैसे किसी समय जवाहर लाल नेहरू अस्पताल का नाम विक्टोरिया अस्पताल था। आजादी के बाद सरकार ने इसका नाम बदल कर जवाहर लाल नेहरू के नाम पर कर दिया। ढ़ाई दिन का झौंपड़ा को ही लीजिए। वह था तो संस्कृत विश्वविद्यालय, मगर मुगल काल में उसे तोड़ कर नई इमारत बना दी गई, जिसका नाम ढ़ाई दिन का झौंपड़ा कर दिया गया।
खैर, वस्तुस्थिति ये है कि अजमेर शहर के केन्द्र में नया बाजार के पास स्थित इस किले का निर्माण अकबर ने 1571 से 1574 ईस्वी में राजपूतों से होने वाले युद्धों का संचालन करने और ख्वाजा साहब के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए करवाया था। किले के मुख्य द्वार के बाद दीवार पर लगे शिलालेख पर भी लिखा है कि अजमेर का मुगल किला बादशाह अकबर के द्वारा हिजरी 978(1570 ईसी) में बनाया गया है अकबर फोर्ट अजमेर। अकबर ने यहां से समस्त दक्षिणी पूर्वी व पश्चिमी राजस्थान को अपने अधिकार में कर लिया था। जहांगीर ने भी 1613 से 1616 के दौरान यहीं से कई सैन्य अभियानों का संचालन किया। बाद में ब्रिटिश काल में 1818 से 1863 तक इसका उपयोग शस्त्रागार के रूप में हुआ, इसी कारण इसका नाम मैगजीन पड़ गया। वर्तमान में यह संग्रहालय है। पूर्वजों की सांस्कृतिक धरोहर का सहज ज्ञान जनसाधारण को कराने और संपदा की सुरक्षा करने की दृष्टि से भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक मार्शल ने 1902 में लार्ड कर्जन के अजमेर आगमन के समय एक ऐसे संग्रहालय की स्थापना का सुझाव रखा था, जहां जनसाधारण को अपने अतीत की झांकी मिल सके। संग्रहालय की स्थापना 19 अक्टूबर, 1908 को एक शानदार समारोह के साथ हुई।
बहरहाल, मुद्दा सिर्फ इतना है कि जब इसका नाम अजमेर का किला व संग्रहालय किया गया तो, उसके लिए उचित विधिक प्रक्रिया क्यों नहीं अपनाई गई? अगर सरकार चाहे तो इसके लिए बाकायदा गजट नोटिफिकेशन जारी कर रिकॉर्ड में इसका नाम बदल सकती है। उस पर किसी को ऐतराज भले ही हो, मगर उसमें कोई बाधा नहीं है।
-तेजवानी गिरधर
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