रविवार, 11 मार्च 2012

ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से होती है दवाइयों में लूट


दवाइयों की मनमानी कीमतें तय करने के खिलाफ एडवोकेट दिलीप शर्मा द्वारा शास्त्रीनगर निवासी टी सी जसवानी की ओर से हाल ही दायर एक जनहित याचिका पर हाईकोर्ट ने प्रदेश के मुख्य सचिव, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, ड्रग कंट्रोलर समेत राज्य की 60 दवा निर्माता कंपनियों को नोटिस जारी कर जवाब-तलब किया है।
इस सिलसिले में अजमेरनामा की तफ्तीश है कि दवाइयों के मूल्य पर नियंत्रण रखने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू है और उसकी पालना करने के लिए औषधि नियंत्रक संगठन बना हुआ है, लेकिन दवा निर्माता कंपनियों की मनमानी और औषधि नियंत्रक ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही के कारण अनेक दवाइयां बाजार में लागत मूल्य से कई गुना महंगे दामों में बिक रही हैं। जाहिर तौर पर इससे इस गोरखधंधे में ड्रग कंट्रोलर की मिलीभगत का संदेह होता है और साथ ही डॉक्टरों की कमीशनबाजी की भी पुष्टि होती है।
वस्तुत: सरकार ने बीमारों को उचित दर पर दवाइयां उपलब्ध होने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू कर रखा है। इसके तहत सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों पर अधिकतम विक्रय मूल्य सभी कर सहित एमआरपी इन्क्लूसिव ऑफ ऑल टैक्सेज छापना जरूरी है। इस एमआरपी में मटेरियल कॅास्ट, कन्वर्जन कॉस्ट, पैकिंग मटेरियल कॉस्ट व पैकिंग चार्जेज को मिला कर एक्स-फैक्ट्री कॉस्ट, एक्स फैक्ट्री कॉस्ट पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई, एक्साइज ड्यूटी, सेल्स टैक्स-वैल्यू एडेड टैक्स और अन्य लोकल टैक्स को शामिल किया जाता है। अर्थात जैसे किसी दवाई की लागत या एक्स फैक्ट्री कॉस्ट एक रुपया है तो उस पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई को मिला कर उसकी कीमत दो रुपए हो जाती है और उस पर सभी कर मिला कर एमआरपी कहलाती है। कोई भी रिटेलर उससे अधिक राशि नहीं वसूल सकता।
नियम ये भी है कि सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों की एमआरपी निर्धारित करने के लिए ड्रग कंट्रोलर से अनुमति लेनी होती है। उसकी स्वीकृति के बाद ही कोई दवाई बाजार में बेची जा सकती है। लेकिन जानकारी ये है कि इस नियम की पालना ठीक से नहीं हो रही। या तो दवा निर्माता कंपनियां ड्रग कंट्रोलर से अनुमति ले नहीं रहीं या फिर ले भी रही हैं तो ड्रग कंट्रोलर से स्वीकृत दर से अधिक दर से दवाइयां बेच रही हैं।
एक उदाहरण ही लीजिए। हिमाचल प्रदेश की अल्केम लेबोरेट्री लिमिटेड की गोली ए टू जेड एन एस की 15 गोलियों की स्ट्रिप की स्वीकृत दर 10 रुपए 52 पैसे मात्र है, जबकि बाजार में बिक रही स्ट्रिप पर अधिकतम खुदरा मूल्य 57 रुपए लिखा हुआ है। इसी से अंदाजा हो जाता है कि कितने बड़े पैमाने पर लूट मची हुई है। इसमें एक बारीक बात ये है कि स्वीकृत गोली का नाम तो ए टू जेड है, जबकि बाजार में बिक रही गोली का नाम ए टू जेड एन एस है। यह अंतर जानबूझ कर किया गया है। एन एस का मतलब होता है न्यूट्रिनेंटल सप्लीमेंट, जो दवाई के दायरे बाहर आ कर उसे एक फूड का रूप दे रही है। अर्थात दवाई बिक्री की स्वीकृति ड्रग कंट्रोलर से दवा उत्पाद के रूप में ली गई है, जबकि बाजार में उसका स्वरूप दवाई का नहीं, बल्कि खाद्य पदार्थ का है। इसका मतलब साफ है कि जब कभी बाजार में बिक रही दवाई को पकड़ा जाएगा तो निर्माता कंपनी यह कह कर आसानी से बच जाएगी कि यह तो खाद्य पदार्थ की श्रेणी में आती है, ड्रग कंट्रोल एक्ट के तहत उसे नहीं पकड़ा जा सकता। मगर सवाल ये उठता है कि जिस उत्पाद को सरकान ने दवाई मान कर स्वीकृत किया है तो उसे खाद्य पदार्थ के रूप में कैसे बेचा जा सकता है?
एक और उदाहरण देखिए, जिससे साफ हो जाता है कि एक ही केमिकल की दवाई की अलग-अलग कंपनी की दर में जमीन-आसमान का अंतर है। रिलैक्स फार्मास्यूटिकल्स प्रा. लि., हिमाचल प्रदेश द्वारा उत्पादित और मेनकाइंड फार्मा लि., नई दिल्ली द्वारा मार्केटेड गोली सफाकाइंड-500 की दस गोलियों का अधिकतम खुदरा मूल्य 189 रुपए मात्र है, जबकि ईस्ट अफ्रीकन ओवरसीज, देहरादून-उत्तराखंड द्वारा निर्मित व सिट्रोक्स जेनेटिका इंडिया प्रा. लि. द्वारा मार्केटेड एलसैफ-50 की दस गोलियों की स्ट्रिप का अधिकतम खुदरा मूल्य 700 रुपए है। इन दोनों ही गोलियों में सेफ्रोक्सिम एक्सेटाइल केमिकल 500 मिलीग्राम है। एक ही दवाई की कीमत में इतना अंतर जाहिर करता है कि दवा निर्माता कंपनियां किस प्रकार मनमानी दर से दवाइयां बेच रही हैं और ड्रग कंट्रोलर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। इससे यह भी साबित होता है कि बाजार में ज्यादा कीमत पर दवाइयां बेचने वाली कंपनियां डॉक्टरों व रिटेलरों को किस प्रकार आकर्षक कमीशन देती होंगी।
दरों में अंतर एक और गोरखधंधा देखिए। जयपुर की टोलिमा लेबोरेट्रीज का अजमेर के एक मेडिकल स्टोर को दिए गए बिल में 300 एमएल की टोल्युविट दवाई की 175 बोतलों की टे्रड रेट 18 रुपए के हिसाब से 3 हजार 150 रुपए और उस पर कर जोड़ कर उसे 3 हजार 621 रुपए की राशि अंकित की गई है, जबकि उसी बिल में दवाई की एमआरपी 70 रुपए दर्शा कर कुल राशि 12 हजार 250 दर्शायी गई है। अर्थात मात्र 18 रुपए की दवाई को रिटेलर को 70 रुपए में बेचने का अधिकार मिल गया है। तस्वीर का दूसरा रुख देखिए कि बीमार जिस दवाई के 70 रुपए अदा कर खुश हो रहा है कि वह महंगी दवाई पी कर जल्द तंदरुस्त हो जाएगा, उस दवाई को निर्माता कंपनी ने जब रिटेलर को ही 18 रुपए में बेचा है तो उस पर लागत कितनी आई होगी। यदि मोटे तौर पर एक सौ प्रतिशत एमएपीई ही मानें तो उसकी लागत बैठती होगी मात्र नौ रुपए। वह नौ रुपए लागत वाली दवाई कितनी असरदार होगी, इसकी सहज की कल्पना की जा सकती है। कुल मिला कर यह या तो ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से हो रहा है या फिर मिलीभगत से। सवाल ये उठता है कि ऐसी दवा निर्माता कंपनियों व ड्रग कंट्रोलर को कंट्रोल कौन करेगा?
तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

आखिर कब बनेगी शहर भाजयुमो की कार्यकारिणी


भारतीय जनता युवा मोर्चा की शहर जिला कार्यकारिणी बीरबल की खिचड़ी हो गई है। असंतुष्ट गुट को राजी न किए जा पाने के कारण गाडी गीयर में अटकी हुई है। नतीजतन नए शहर अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह शेखावत की हालत भी त्रिशंकु वाली हो गई है। मन ही मन सोचते होंगे कि ये कहां फंस गया। न जाने कौन से मुहूर्त में नियुक्ति करवा ली थी।
यहां उल्लेखनीय है कि इस विवाद पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए यह साफ कर दिया है कि शहर अध्यक्ष पद पर देवेन्द्र सिंह शेखावत की नियुक्ति का संगठन फैसला ले चुका है, अत: इसे अब बदला नहीं जाएगा। इसके पीछे तर्क ये भी दिया जा रहा है कि असंतुष्ट गुट ने अनुशासन की सारी सीमाएं लांघ कर पार्टी की किरकिरी की है। अगर संगठन झुकता है तो और अधिक किरकिरी होगी। फिलहाल तो कोई रद्दोबदल नहीं किया जा सकता। चतुर्वेदी के रुख को भांपने के बाद असंतुष्ट गुट कुछ मायूस जरूर है, मगर समानांतर संगठन चलाने को लेकर कदम पीछे हटाने को तैयार भी नहीं है। लगता है कि वह अब भी दबाव की राजनीति करना चाहता है। उम्मीद की जा रही है कि चतुर्वेदी के यह कहने पर कि सभी कार्यकर्ताओं को पार्टी में पूरा सम्मान और दायित्व दिया जाएगा, असंतुष्ट नरम पड़ सकते हैं। इसी के मद्देनजर शेखावत ने शहर जिला भाजपा अध्यक्ष रासासिंह रावत के साथ मिल कर कार्यकारिणी के गठन की कवायद तेज कर दी है।
असल में रावत के काफी दिन तक बीमार होने के कारण शेखावत टीम तैयार करने के बावजूद उसे घोषित नहीं करवा सके। अब जब कि रावत अजमेर आ गए हैं, कार्यकारिणी गठन को अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। इसमें अन्य पदाधिकारियों का भी सहयोग लिया जा रहा है। जानकारी के अनुसार असंतुष्ट कार्यकर्ताओं में संघ के कर्मठ कार्यकर्ता भी शामिल हैं, इस कारण संघ ने भी दखल दे कर मामला सुलझाने की कोशिश शुरू की है।
यूं हर संगठन में इस प्रकार के विवाद की स्थिति आती है, मगर मात्र एक अग्रिम संगठन की कार्यकारिणी लंबे समय तक अटकने पर राजनीतिक जानकारी अचरज जाहिर कर रहे हैं। जाहिर है कि असंतुष्ट गुट काफी प्रभावशाली है और उसे दरकिनार करना पार्टी को भारी पड़ सकता है, इस कारण संगठन सुलह कराने के बाद ही कार्यकारिणी घोषित करना चाहता है ताकि विवाद आगे न बढ़े।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com