मंगलवार, 22 जनवरी 2019

बहुत दिलचस्प है अजमेर संसदीय क्षेत्र का चुनावी मिजाज

तेजवानी गिरधर
अरावली पर्वत शृंखला के दामन में पल रहे अजमेर संसदीय क्षेत्र मेवाड़ और मारवाड़ की संस्कृतियों को मिला-जुला रूप है। नजर को और विहंगम करें तो इसकी तस्वीर में अनेक संस्कृतियों के रंग नजर आते हैं। और यही वजह है कि न तो इसकी कोई विशेष राजनीतिक संस्कृति हैं और न ही विशिष्ट राजनीतिक पहचान बन पाई। राजनीतिक लिहाज से यदि ये कहा जाए कि ये तीन लोक से मथुरा न्यारी है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सन् 1952 से शुरू हुआ अजमेर का संसदीय सफर काफी रोचक रहा है। राजस्थान में शामिल होने से पहले अजमेर एक अलग राज्य था। सन् 1952 में हुए प्रथम लोकसभा चुनाव में अजमेर राज्य में दो संसदीय क्षेत्र थे-अजमेर उत्तर व अजमेर दक्षिण।
तेजवानी गिरधर
राजस्थान में विलय के बाद 1957 में यहां सिर्फ एक संसदीय क्षेत्र हो गया।
चुनावी मिजाज की बात करें तो कभी यह राष्ट्रीय लहर में बह कर मुख्य धारा में एकाकार हो गया तो कभी स्थानीयतावाद में सिमट कर बौना बना रहा। और यही वजह है कि लंबे अरसे तक यहां कभी सशक्त राजनीतिक नेतृत्व उभर कर नहीं आया। जब कभी नेतृत्व की बात होती तो घूम-फिर कर बालकृष्ण कौल, पं. ज्वाला प्रसाद शर्मा या मुकुट बिहारी लाल भार्गव जैसे ईन, बीन और तीन नामों पर आ कर ठहर जाती। नतीजतन आजादी के बाद राजस्थान की राजधानी बनने का दावा रखने वाला अजमेर राजनीतिक उपेक्षा का शिकार रहा। हां, अलबत्ता सचिन पायलट के यहां से जीत कर केन्द्र में राज्य मंत्री बनने पर जरूर इसका कद बना।

दो दलों का ही रहा वर्चस्व
जहां तक राजनीतिक विधारधारा का सवाल है तो यहां प्राय: दो राजनीतिक दलों का ही वर्चस्व रहा है। आजादी के बाद सन् 1952 से 1977 तक इस इलाके में कांग्रेस का ही बोलबाला रहा। लेकिन इसके बाद कांग्रेस के खिलाफ चली देशव्यापी आंधी ने इस गढ़ को ढ़हा दिया और जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा ने बदलाव का परचम फहरा दिया। सन् 1980 में जैसे ही देश की राजनीति ने फिर करवट ली तो कांग्रेस के आचार्य भगवानदेव ने कब्जा कर लिया। भगवान देव ने जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा को 53 हजार 379 मतों से पराजित किया था। देव को 1 लाख 68 हजार 985 और शारदा को 1 लाख 25 हजार 606 मत मिले थे। उसके बाद सन् 1984 में विष्णु मोदी ने यह सीट कांग्रेस की झोली मे ही बनाए रखी। मोदी ने भाजपा के कैलाश मेघवाल को 56 हजार 694 वोटों से पराजित किया। मोदी को 2 लाख 16 हजार 173 और मेघवाल को 1 लाख 59 हजार 479 मत मिले थे। 1989 में लंबे अरसे के लिए यह सीट भाजपा की झोली में चली गई। भाजपा मानसिकता के डेढ़ लाख रावत वोटों का समीकरण ऐसा बैठा कि प्रो. रासासिंह रावत ने इस पर कब्जा कर लिया और पांच बार जीते। केवल एक बार 1998 में डॉ. प्रभा ठाकुर ने उन्हें हराया। रावत के सामने सन् 1989 में सवा लाख गुर्जरों के दम उतरे कांग्रेस के बाबा गोविंद सिंह गुर्जर 1 लाख 8 हजार 89 वोटों से हारे। गुर्जर को 1 लाख 86 हजार 333 व रावत को 2 लाख 11 हजार 676 वोट मिले। सन् 1991 में रावत ने डेढ़ लाख जाटों के वोट बैंक को आधार पर चुनाव मैदान में उतरे जगदीप धनखड़ को 25 हजार 343 वोटों से हराया। सन् 1996 में एक लाख सिंधी मतदाताओं का कार्ड खेलते हुए किशन मोटवानी मैदान में आए, मगर 38 हजार 132 वोटों से पराजित हो गए। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में सोनिया गांधी राजनीति में सक्रिय हुईं तो एक लहर चली और उस पर सवार हो कर डॉ. प्रभा ठाकुर ने रासासिंह के लगातार चौथी बार लोकसभा में जाने पर ब्रेक लगा दिया। जीत का अंतर सिर्फ 5 हजार 772 मतों का रहा। उसके बाद 1999 में रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को 87 हजार 674 मतों से हरा दिया। सन् 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के हाजी हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों के भारी अंतर से हराया। हबीबुर्रहमान को 1 लाख 86 हजार 812 व रावत को 3 लाख 14 हजार 788 वोट मिले थे। इसके बाद 2009 में चूंकि परिसीमन के कारण संसदीय क्षेत्र का रावत बहुल मगरा-ब्यावर इलाका कट कर राजसमंद में चला गया तो रावत का तिलिस्म टूट गया। भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया। उनके स्थान पर श्रीमती किरण माहेश्वरी आईं, मगर वे कांग्रेस के सचिन पायलट से 76 हजार 135 वोटों से हार गईं। कुल 14 लाख 52 हजार 490 मतदाताओं वाले इस संसदीय क्षेत्र में पड़े 7 लाख 70 हजार 875 मतों में सचिन को 4 लाख 5 हजार 575 और किरण को 3 लाख 29 हजार 440  मत मिले। सन् 2014 में मोदी लहर में पूरे राजस्थान में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। भारतीय जनता पार्टी के सांवर लाल जाट ने निकटतम प्रतिद्वंदी इण्डियन नेशनल कांग्रेस के सचिन पायलट को एक लाख 71 हजार 983 मतों से पराजित किया। जाट को 6 लाख 37 हजार 874 मत मिले, जबकि पायलट को 4 लाख 65 हजार 891 मत मिले। प्रो. जाट के निधन के बाद 2018 में हुए उपचुनाव में इण्डियन नेशनल कांग्रेस के रघु शर्मा विजयी रहे। उन्होंने भाजपा के रामस्वरूप लाम्बा को 84414 मतों से हराया। रघु शर्मा को 611514 एवं रामस्वरूप लाम्बा को 527100 मत मिले।

जातिवाद के दम पर पांच बार कब्जा रहा भाजपा का
असल में राजनीति का प्रमुख कारक जातिवाद यहां 1984 तक अपना खास असर नहीं डाल पाया था। अत्यल्प जातीय आधार के बावजूद यहां से मुकुट बिहारी लाल भार्गव तीन बार, विश्वेश्वर नाथ भार्गव दो बार व श्रीकरण शारदा एक बार जीत चुके हैं। आचार्य भगवान देव की जीत में सिंधी समुदाय और विष्णु मोदी की विजय में वणिक वर्ग की भूमिका जरूर गिनी जा सकती है। लेकिन सन् 1989 में डेढ़ लाख रावत वोटों को आधार बना कर रासासिंह को उतारा तो यहां का मिजाज ही बदल गया। कांग्रेस ने भी बदल-बदल कर जातीय कार्ड खेले मगर वे कामयाब नहीं हो पाए। रावत के सामने सन् 1989 में बाबा गोविंद सिंह गुर्जर, सन् 1991 में जगदीप धनखड़, सन् 1996 में किशन मोटवानी को उतारा गया, मगर वे हार गए। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में प्रभा ठाकुर ने रासासिंह को लगातार चौथी बार लोकसभा  में जाने रोक दिया। फिर 1999 में रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को हरा दिया। सन् 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के हाजी हबीबुर्रहमान को हराया। सन् 2009 के चुनाव में इस सीट की तस्वीर जातीय लिहाज से बदल गई। जहां रावत बहुल मगरा क्षेत्र की ब्यावर सीट राजसमंद में चली गई तो दौसा संसदीय क्षेत्र की अनुसूचित जाति बहुल दूदू सीट यहां जोड़ दी गई है। कुछ गांवों की घट-बढ़ के साथ पुष्कर, नसीराबाद, किशनगढ़, अजमेर उत्तर, अजमेर दक्षिण, मसूदा व केकड़ी यथावत रहे, जबकि भिनाय सीट समाप्त हो गई। परिसीमन के साथ ही यहां का जातीय समीकरण बदल गया। रावत वोटों के कम होने के कारण समझें या फिर सचिन जैसे दिग्गज की वजह से, रासासिंह रावत का टिकट पिछली बार काट दिया गया और श्रीमती किरण माहेश्वरी को पटखनी दे कर सचिन जीते तो यहां कांग्रेस का कब्जा हो गया। उसके बाद 2014 में एक तो मोदी लहर और दूसरा ढ़ाई लाख जाट वोटों के दम पर प्रो. सांवरलाल जाट ने विकास पुरुष माने जाने वाले पायलट को हरा दिया। प्रो. जाट के निधन के बाद 2018 में हुए उपचुनाव में हालांकि सहानुभूति वोट हासिल करने की गरज से भाजपा ने प्रो. जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा को मैदान में उतारा, मगर वे कांग्रेस के रघु शर्मा से हार गए।

रावत जीत-हार दोनों में अव्वल
मौजूदा सांसद रासासिंह रावत संसदीय इतिहास में ऐसे प्रत्याशी रहे हैं, जिन्होंने सर्वाधिक मतांतर से जीत दर्ज की है तो एक बार हारे भी तो सबसे कम मतांतर से।  रावत ने सन् 2004 में कांग्रेस की हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों से हराया, जो कि एक रिकार्ड है। इसी प्रकार सन् 1998 में वे मात्र 5 हजार 772 मतों  से ही हार गए, वह भी एक रिकार्ड है। सर्वाधिक मत हासिल करने का रिकार्ड भी रावत के खाते दर्ज है। सन् 1999 में उन्होंने 3 लाख 43 हजार 130 मत हासिल किए। सर्वाधिक बार जीतने का श्रेय भी रावत के पास है। वे यहां से कुल पांच बार जीते, जिनमें से एक बार हैट्रिक बनाई। यूं हैट्रिक मुकुट बिहारी लाल भार्गव ने भी बनाई थी। सर्वाधिक छह बार चुनाव लडऩे का रिकार्ड रावत के साथ निर्दलीय कन्हैयालाल आजाद के खाते में दर्ज है। चुनाव लडऩा आजाद का शगल था। वे डंके की चोट वोट मांगते थे और आनाकानी करने वालों को अपशब्द तक कहने से नहीं चूकते थे।

सबसे कम कार्यकाल प्रभा का
सबसे कम कार्यकाल प्रभा ठाकुर का रहा। वे फरवरी, 1998 के मध्यावधि चुनाव में जीतीं और डेढ़ साल बाद सितंबर, 1999 में फिर चुनाव हो गए। उनका कार्यकाल केवल 16 माह ही रहा, क्योंकि जून में लोकसभा भंग हो गई।

सर्वाधिक प्रत्याशी 1991 में
अजमेर के संसदीय इतिहास में 1991 के चुनाव में सर्वाधिक 33 प्रत्याशियों ने अपना भाग्य आजमाया। सबसे कम 3 प्रत्याशी सन् 1952 के पहले चुनाव में अजमेर दक्षिण सीट पर उतरे थे।

अब तक ये रहे हैं अजमेर से सांसद
1951 से 57 तक कांग्रेस के ज्वाला प्रसाद शर्मा
1957 से 67 तक (लगातार 2 बार) कांग्रेस के मुकुट बिहारी भार्गव
1967 से 77 तक (लगातार 2 बार) कांग्रेस के बीएन भार्गव
1977 से 80 तक जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा
1980 से 84 तक कांग्रेस के भगवानदेव आचार्य
1984 से 89 तक कांग्रेस के विष्णुकमार मोदी
1989 से 98 तक (लगातार 3 बार) भाजपा के रासासिंह रावत
1998 से 99 तक कांग्रेस की प्रभा ठाकुर
1999 से 2009 तक (लगातार 2 बार) भाजपा के रासासिंह रावत
2009 से 2014 तक कांग्रेस के सचिन पायलट
2014 से 2017 तक भाजपा के सांवरलाल जाट
2017 से 2018 तक कांग्रेस के रघु शर्मा

सिंधी क्यों नहीं हो सकता लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी?

जिस सिंधी समाज को कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार अजमेर उत्तर से विधानसभा का टिकट नहीं दिया, उसी की प्रतिनिधि संस्था सिंधु जागृति मंच ने हाल ही जब दोनों राजनीतिक दलों से सिंधी समाज के किसी व्यक्ति को लोकसभा का टिकट देने मांग की, तो सभी का चौंकना स्वाभाविक था। आम धारणा यही है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र में सिंधी वोट बैंक इतना भी बड़ा भी नहीं कि उसे गंभीरता से लेते हुए टिकट दे दिया जाए। इस सिलसिले में जब मंच के समन्वयक हरी चंदनानी से पूछा गया कि आपकी मांग अथवा दावे का आधार क्या है तो वे बोले कि मांग हवा में नहीं की गई है।
उन्होंने बताया कि भाजपा ने अपना वोट बैंक होते हुए भी भले ही सिंधी को टिकट नहीं दिया हो, मगर कांग्रेस ने दो बार सिंधी पर दाव खेला है। सन् 1980 में कांग्रेस ने आचार्य भगवानदेव को टिकट दिया था और वे जीते भी। भगवान देव ने जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा को 53 हजार 379 मतों से पराजित किया था। देव को 1 लाख 68 हजार 985 और शारदा को 1 लाख 25 हजार 606 मत मिले थे। इसके बाद 1996 में कांग्रेस ने किशन मोटवानी को टिकट दिया और वे मात्र 38 हजार 132 वोटों से पराजित हुए।
उन्होंने बताया कि छह लोकसभा चुनावों में, 1998 को छोड़ कर, पांच में रासासिंह रावत ने विजय पताका फहराई। कांग्रेस ने भी बदल-बदल कर जातीय कार्ड खेले, मगर वे कामयाब नहीं हो पाए। रावत के सामने सन् 1989 में सवा लाख गुर्जरों के दम पर उतरे बाबा गोविंद सिंह गुर्जर 1 लाख 8 हजार 89 वोटों से हारे। सन् 1991 में रावत ने डेढ़ लाख जाटों के दम पर उतरे जगदीप धनखड़ 25 हजार 343 वोटों से हराया। धनखड़ को 1 लाख 86 हजार 333 व रावत को 2 लाख 11 हजार 676 वोट मिले थे। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में सोनिया गांधी के राजनीति में सक्रिय होने के साथ चली हल्की लहर पर सवार हो कर सियासी शतरंज की नौसिखिया खिलाड़ी प्रभा ठाकुर ने रासासिंह को लगातार चौथी बार लोकसभा में जाने रोक दिया था। हालांकि इस जीत का अंतर सिर्फ 5 हजार 772 मतों का रहा, लेकिन 1999 में आए बदलाव के साथ रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को 87 हजार 674 मतों से पछाड़ कर बदला चुका दिया। इसके बाद 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के बाहरी प्रत्याशी हाजी हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों के भारी अंतर से कुचल दिया। हबीबुर्रहमान को 1 लाख 86 हजार 812 व रावत को 3 लाख 14 हजार 788 वोट मिले थे। इस हिसाब से देखा जाए तो कांग्रेस के सिंधी प्रत्याशी का प्रदर्शन कमजोर नहीं रहा है, उलटे गुर्जर व मुसलमान की तुलना में काफी बेहतर रहा है। वह भी तब जब कि सिंधियों में आरएसएस का कट्टर समर्थक वर्ग कांग्रेस के साथ नहीं आया। तब काको आडवाणी, मामो मोटवाणी का नारा चला था। अर्थात आरएसएस ने यह कह कर सिंधी वोट बैंक को टूटने से बचाने की कोशिश की कि मामा की बजाय काका का साथ दो।
चंदनानी ने कहा कि भाजपा शायद एक तो इस कारण सिंधी को लोकसभा का प्रत्याशी नहीं बनाती कि वह हर बार अजमेर उत्तर से सिंधी को प्रत्याशी बनाती आई है, दूसरा ये कि उसे पता है कि सिंधी वोट बैंक तो उसकी जेब में है, चाहे किसी भी गैर सिंधी को टिकट दो, सिंधी तो भाजपा को ही वोट देगा। दूसरी ओर कांग्रेस के लिए किसी सिंधी को टिकट देने का प्रयोग मुफीद है, क्योंकि उसका सिंधी प्रत्याशी जितने भी सिंधी वोट खींच सकता है, उसका दुगुना नुकसान भाजपा को हो सकता है।
खैर, अपुन को लगता है कि भाजपा यूं तो किसी सिंधी को टिकट देने वाली है नहीं, फिर भी अगर मानस बना तो पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का नंबर आ सकता है। कदाचित इसमें देवनानी रुचि भी हो, क्योंकि वे लंबी छलांग लगाने के मूड में हैं। रहा सवाल कांग्रेस का तो पहला सवाल ही यही उठता है कि जब विधानसभा का टिकट ही नहीं दिया तो लोकसभा के टिकट की उम्मीद कैसे की जा सकती है। देखते हैं मंच की मांग पर दोनों पार्टियां गौर करती हैं या नहीं?

एडीए में स्थानीय राजनीतिक अध्यक्ष के बिना विकास मुश्किल

एक ओर जहां कांग्रेस सरकार बनने के बाद कांग्रेसी नेता अजमेर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनने का सपना संजो रहे हैं, वहीं इस आशय की चर्चा सामने आने से कि जयपुर विकास प्राधिकरण की तर्ज पर अजमेर व जोधपुर विकास प्राधिकरणों में भी स्वायत्त शासन मंत्री को ही अध्यक्ष बनाए जाने पर विचार हो रहा है, उनकी आशाओं पर तुषारापात होता दिख रहा है। इतना ही नहीं इस प्रकार की खबर से विकास की बाट जोह रही जनता भी चिंतित है, क्योंकि अगर स्वायत्त शासन मंत्री प्राधिकरण के अध्यक्ष हुए तो प्राधिकरण के स्थानीय सारे कामकाज पर अफसरशाही ही हावी रहेगी और उनकी सुनवाई ठीक से नहीं होगी। स्वायत्त शासन मंत्री केवल महत्वपूर्ण विषय के लिए ही वक्त दे पाएंगे। हर काम के लिए मंत्री महोदय का ही मुंह ताकना पड़ेगा। हमारे यहां सरकार कामकाज का ढर्ऱा कैसा होता है, सब जानते हैं। हर फाइल स्वीकृति के लिए जयपुर जाएगी तो विकास की रफ्तार कितनी धीमी होगी, कल्पना की जा सकती है।
यह सर्वविदित ही है कि पहले यूआईटी हो या अब एडीए, शहर के विकास के नए आयाम स्थानीय राजनीतिक व्यक्ति के अध्यक्ष के रहने पर स्थापित हुए हैं। जब भी प्रशासनिक अधिकारी के हाथों में कमान रही है, विकास की गति धीमी रही है। इसके अनेक उदाहरण हैं। उसकी वजह ये है कि जिला कलेक्टर या संभागीय आयुक्त के पास अध्यक्ष का भी चार्ज होने के कारण वे सीधे तौर पर कामकाज पर ध्यान नहीं दे पाते। वैसे भी उनकी कोई रुचि नहीं होती। वे तो महज औपचारिक रूप से नौकरी को अंजाम देते हैं। उनके पास अपना मूल दायित्व ही इतना महत्वपूर्ण होता है कि वे टाइम ही नहीं निकाल पाते। निचले स्तर के अधिकारी ही सारा कामकाज देखते हैं। इसके विपरीत राजनीतिक व्यक्ति के पास अध्यक्ष का कार्यभार होने पर विकास के रास्ते सहज निकल आते हैं। एक तो उसको स्थानीय जरूरतों का ठीक से ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त जनता के बीच रहने के कारण यहां की समस्याओं से भी भलीभांति परिचित होता है। वह किसी भी विकास के कार्य को बेहतर अंजाम दे पाता है। प्रशासनिक अधिकारी व जनता के प्रतिनिधि का आम जन के प्रति रवैये में कितना अंतर होता है, यह सहज ही समझा जा सकता है। राजनीतिक व्यक्ति इस वजह से भी विकास में रुचि लेता है, क्योंकि एक तो उसकी स्थानीय कामों में दिलचस्पी होती है, दूसरा उसकी प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है। उनका प्रयास ये रहता है कि ऐसे काम करके जाएं ताकि लोग उन्हें वर्षों तक याद रखें और उनकी राजनीतिक कैरियर भी और उज्ज्वल हो। आपको ख्याल होगा कि राजनीतिक व्यक्तियों के अध्यक्ष रहने पर बने पृथ्वीराज स्मारक, सिंधुपति महाराजा दाहरसेन स्मारक, लवकुश उद्यान, झलकारी बाई स्मारक, वैकल्पिक ऋषि घाटी मार्ग, अशोक उद्यान, गौरव पथ, महाराणा प्रताप स्मारक, सांझा छत  इत्यादि आज भी सराहे जाते हैं। कुल मिला कर बेहतर यही है कि प्राधिकरण का अध्यक्ष कोई राजनीतिक व्यक्ति ही हो।

चर्चा में रहने के आदी हैं देवनानी

पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री व अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी चर्चा में रहने के आदी हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि कहां फटे में टांग डालनी है, ताकि अखबारों की सुर्खियां बनें। हाल ही मौजूदा शिक्षा राज्य मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा ने आरएसएस व शिक्षा जगत को लेकर एक बयान दिया तो देवनानी भड़क गए और पलटवार किया। चाहतीं तो अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल भी प्रतिक्रिया कर सकती थीं, मगर आमतौर पर उन्हें विवाद करने में रुचि नहीं होती है, जबकि देवनानी तो तलाशते हैं कि कोई मुद्दा सामने आए तो वे उसमें कूदें।
चलो अभी तो वे अदद विपक्षी विधायक हैं, इस कारण उनकी भूमिका थोड़ी-बहुत समझ में आती है, मगर जब से सत्ता में थे और शिक्षा राज्य मंत्री का जिम्मेदार पद संभाल रहे थे, तबकि लगातार विवादों में बने रहे। कभी अकबर के किले का नाम बदल कर अजमेर का किला करने को लेकर तो कभी ब्राह्मणों के बारे में टिप्पणी करने पर। प्रोफेसर विवाद भी काफी दिन तक चलता रहा। हाल ही ट्रेफिक पुलिस की अधिकारी के साथ हॉट टाक भी खूब चर्चा में रहा।
ऐसा लगता है कि उनके विवादों का सिलसिला थमने वाला नहीं है। अब तो विपक्ष में हैं, इस कारण और अधिक सक्रिय हो जाने वाले हैं। चूंकि शिक्षा राज्य मंत्री रहते उन्होंने संघ विचारधारा को पोषित करने के लिए कई कदम उठाए और दूसरी ओर डोटासरा भी संघ के मामले में कुछ आक्रामक मुद्रा में नजर आते हैं, इस कारण टकराव अवश्यंभावी है। साफ नजर आता है कि डोटासरा उन सभी फैसलों को बदलने वाले हैं, जो कि संघ को खुश करने के लिए उठाए गए थे।
हाल ही जब डोटासरा ने बयान दिया तो देवनानी ने पलटवार किया। इस पर भला कांग्रेसी भी क्यों चुप रहने वाले थे। चूंकि देवनानी प्रतिक्रियावादी मिजाज के हैं, इस कारण कांग्रेसियों को भी उन्हें निशाने पर लेने में मजा आता है। डोटासरा देवनानी के बयान पर कुछ प्रतिक्रिया दें, इससे पहले ही स्थानीय कांग्रेसियों ने देवनानी पर हमला बोल दिया। अजमेर शहर जिला कांग्रेस कमेटी के महासचिव शिव कुमार बंसल, ललित भटनागर, अशोक बिंदल, आरिफ खान, डॉ संजय पुरोहित आदि देवनानी के बयान की कड़ी निंदा की और आरोप लगाया कि भारतीय जनता पार्टी के कुशासन में देवनानी ने तबादला उद्योग खोल रखा था, जिसकी परिणति में भाजपा के एक विधायक ने देवनानी के साथ अभद्र व्यवहार किया था। आरोप में ये भी कहा गया कि देवनानी ने अजमेर के होने के बावजूद माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान  की समस्याओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। बोर्ड में आज भी स्टाफ की कमी है। उन्होंने विशेष श्रेणी के स्थानांतरण में भी खुल कर कृपा पात्रों और अपने चहेतों को उपकृत किया। शिक्षा विभाग में विभिन्न कार्यालयों में कई कर्मचारियों को भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने रंगे हाथ रिश्वत लेते हुए पकड़ा। अत: देवनानी को कांग्रेस पर उंगली उठाने से पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए।
प्रदेश महासचिव ललित भाटी ने बयान जारी किया कि देवनानी के कार्यकाल में उनके जयपुर स्थित सरकारी बंगले पर नियुक्त निजी सहायक पर जयपुर जिले के मंत्रालयिक कर्मचारी ने स्थानांतरण के नाम पर लाखों रुपए लेने का आरोप लगाते हुए आत्महत्या करने का मामला भी है, देवनानी सरकार में थे, इसलिए कोई ठोस जांच नहीं हो पाई।