शनिवार, 30 नवंबर 2013

अजमेर जिले की पांच विधानसभा सीटों पर सीधा मुकाबला

ब्यावर व केकड़ी में होगी त्रिकोणीय टक्कर, मसूदा में घमासान ने उलझाये सारे समीकरण
ajmer map thumbअजमेर। जिले में इस बार विधानसभा चुनाव न केवल दिलचस्प है, अपितु राजनीतिक पंडितों का दिमाग चकराने वाला बन पड़ा है। बेशक महंगाई व भ्रष्टाचार के साथ केन्द्र व राज्य की कांग्रेस सरकारों का सफलता-विफलता और नरेन्द्र मोदी लहर की छाया इस चुनाव पर पड़ रही है, मगर धरातल पर जातीय समीकरण ही सर्वाधिक प्रभाव डाल रहे हैं। स्वाभाविक रूप से परंपरागत जातीय रुझान के साथ मौजूदा हालात के अनुरूप जातीय पंचायतों की ओर से किए गए निर्णय प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला करने वाले हैं। मौटे तौर पर यही तस्वीर उभरी है कि जिले की आठ में पांच सीटों अजमेर उत्तर, अजमेर दक्षिण, पुष्कर, नसीराबाद व किशनगढ़ पर सीधी टक्कर है, मगर ब्यावर व केकड़ी में मुकाबला त्रिकोणीय होता नजर आता है। मसूदा में सर्वाधिक दिलचस्प घमासान है, जहां सशक्त बागियों के कारण गड्ड-मड्ड हुए समीकरण अच्छे-अच्छे राजनीतिक पंडितों की समझ से बाहर हैं।
आइये, जरा नजर डालें विधानसभा वार चुनावी तस्वीर पर:-
अजमेर उत्तर सीट पर आठ प्रत्याशियों में से कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती और भाजपा प्रत्याशी वासुदेव देवनानी के बीच सीधा मुकाबला है। सर्वाधिक प्रभावित करने वाला फैक्टर है सिंधीवाद बनाम वैश्यवाद। राज्य की दो सौ में से एक भी सीट नहीं देने के कारण सिंधी समुदाय में कांग्रेस के प्रति गुस्सा है, जिससे डॉ. श्रीगोपाल बाहेती परेशान हैं, मगर साथ ही प्रतिक्रिया में अंदर ही अंदर वैश्यवाद के सक्रिय होने के कारण भाजपा तनिक सकते में है। अब जीत-हार इस बात पर तय होगी कि कौन सा समुदाय मतदान में अधिक सक्रिय भूमिका अदा करता है। ज्ञातव्य है कि पिछली बार भी ठीक ऐसी ही स्थिति थी, जिसके चलते भाजपा के प्रो. वासुदेव देवनानी ने कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को 688 मतों से पराजित किया था। यहां उल्लेखनीय है कि अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट किसी सिंधी को ही टिकट दिलवाने पर अड़े हुए थे, मगर आखिरकार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की चली और उन्होंने डॉ. बाहेती को टिकट दिलवा दिया।
जहां तक अन्य समीकरणों का सवाल है कांग्रेस ने बसपा के सैयद दानिश को चुनाव मैदान से हटवा कर कुछ राहत पाई है, मगर निर्दलीय सोहन चीता कुछ मुस्लिम वोटों में सेंध मार सकते हैं। इसी को देखते हुए कांग्रेस मुस्लिमों का मतदान प्रतिशत बढ़ाने की जुगत में है। दूसरी ओर संघ ने सशक्त रूप से मैदान में डटने की घोषणा करने वाले निर्दलीय पार्षद ज्ञानचंद सारस्वत को राजी कर भाजपा का बड़ा सिरदर्द समाप्त कर दिया है। चुनाव मैदान में छह और प्रत्याशी हैं, मगर उनमें इतनी ताकत नहीं कि चुनावी गणित पर खास असर डाल सकें। बात अगर सांगठनिक मुद्दे की करें तो प्रत्यक्षत: दोनों ही दलों में अंतर्विरोध नजर नहीं आता, मगर सच ये है कि देवनानी व डॉ. बाहेती को अपनी-अपनी पार्टी में ही निजी विरोधियों का असहयोग झेलना पड़ रहा है। लब्बोलुआब सवाल ये है कि क्या कांग्रेस लगातार दस से काबिज भाजपा को बेदखल कर पाती है या नहीं।
इस विधानसभा क्षेत्र में कुल एक लाख 78 हजार 695 मतदाता हैं, जिनमें से 87 हजार 292 महिलाएं व 91 हजार 403 पुरुष मतदाता हैं।
जहां तक जातीय समीकरण का सवाल है, यहां भाजपा को परंपरागत सिंधी, वैश्य व राजपूतों का भरोसा है तो कांगे्रस की ताकत मुस्लिम व अनुसूचित जाति के मतदाता हैं। जानकारों के अनुसार इस विधानसभा क्षेत्र में अनुसूचित जाति के तकरीबन 30 हजार, मुस्लिमों के 23 हजार, सिंधियों के 24 हजार, महाजनों के 22 हजार, राजपूत 12 हजार, ब्राह्मण 9 हजार, माली 9 हजार, रावत 5 हजार, गुर्जर 8 हजार वोट हैं।
अब तक के विधायक
1957-अर्जुनदास (निर्दलीय)
1962-पोहूमल (कांग्रेस)
1967-भगवानदास (जनसंघ)
1972-किशन मोटवानी (कांग्रेस)
1977-नवलराय बच्चानी (जनतापार्टी)
1980-भगवानदास शास्त्री (भाजपा)
1985-किशन मोटवानी (कांग्रेस)
1990-हरीश झामनानी (भाजपा)
1993-किशन मोटवानी (कांग्रेस)
1998-किशन मोटवानी (कांग्रेस)
2002-नानकराम जगतराय (कांग्रेस)
2003-प्रो. वासुदेव देवनानी (भाजपा)
2008 वासुदेव देवनानी (भाजपा)
अजमेर दक्षिण में इस बार खास बात ये है कि जिन हेमंत भाटी के सहारे भाजपा प्रत्याशी श्रीमती अनिता भदेल चुनावी वैतरणी पार करती रही हैं, वे ही उनके सामने कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में आ डटे हैं। इसका सीधा सा अर्थ ये है कि भाटी का धन बल व बाहुबल इस बार श्रीमती भदेल के खिलाफ काम कर रहा है। हालांकि हेमंत भाटी को खतरा था कि उनके बड़े भाई पूर्व उप मंत्री ललित भाटी कहीं टिकट न मिलने से नाराज हो कर उनका खुल कर विरोध न कर दें, मगर मतदान से ठीक एक दिन पहले तक उनकी चुप्पी से कांग्रेस खेमे में राहत देखी जा रही है। भीतरघात की आशंका भी कम ही नजर आती है। श्रीमती भदेल की कमजोर कड़ी ये है कि पिछले दो चुनावों में उनके बड़े सहयोगी के रूप में साथ रहे हेमंत भाटी उनकी चुनावी रणनीति से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। यद्यपि दोनों प्रत्याशी कोली जाति से हैं, मगर समझा जाता है कि कोलियों की बहुसंख्या हेमंत के पक्ष में चली जाएगी। इसकी वजह ये है कि उनके पिता स्वर्गीय श्री शंकर सिंह भाटी प्रभावशाली समाजसेवी रहे हैं। खुद हेमंत भी समाजसेवा में अग्रणी हैं।
मुख्य मुकाबला हेमंत भाटी और अनिता भदेल के बीच ही है। हालांकि रेगर समाज के मदन नेता व कोली जाति की पूर्व पार्षद द्रौपदी व नरेंद्र के निर्दलीय खड़े होने के कारण कांग्रेस परेशान थी, मगर उनका परचा वापस करवा लिया गया। बावजूद इसके बसपा के गणपत लाल गौरा कांग्रेस के परंपरागत वोटों में सेंध मार सकते हैं। तीन निर्दलीय भी मैदान में हैं।
भाटी को टिकट दिलवाने में अहम भूमिका अदा करने के कारण यहां अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट की प्रतिष्ठा दाव पर है, इस कारण वे यहां विशेष निगरानी रख रहे हैं। असल में राजनीति व कांग्रेस में नया चेहरा होने के कारण भाटी को रणनीतिक रूप से कमजोर माना जा रहा है। इसके विपरीत अनिता का टिकट बहुत पहले ही पक्का हो जाने के कारण उन्होंने कार्यकर्ताओं की सेना को सुव्यवस्थित कर लिया था। इसके अतिरिक्त साफ-सुथरी छवि भी उनकी मदद कर रही है। महिला होने का स्वाभाविक लाभ भी उनका ही मिलना है।
91 हजार 906 पुरुषों व 87 हजार 503 महिलाओं को मिला कर कुल वोट 1 लाख 79 हजार 409 वाले इस क्षेत्र में अनुसूचित जाति के 53 हजार मतदाता हैं, जिनमें से सर्वाधिक कोली माने जाते हैं। रेगर, मेघवाल, भांभी, बलाई व बैरवा दूसरे स्थान पर हैं। वाल्मीकि, खटीक, सांसी आदि मतदाता भी खासी संख्या में है। इस सभी जातियों का रुझान कांग्रेस की ओर ही रहता है, हालांकि श्रीमती भदेल के विधायक बनने के बाद कोलियों व अन्य अनुसूचित जातियों में विभाजन हुआ है। करीब 13 हजार मुस्लिमों व 6 हजार ईसाइयों का झुकाव कांग्रेस की ओर ही माना जाता है। यहां तकरीबन 30 हजार सिंधी हैं, जो भाजपा के लिए बड़ा संबल हैं, क्योंकि वे परंपरागत रूप से भाजपा के साथ रहते हैं, हालांकि भाटी ने व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर इनमें कुछ सेंध मारी है। करीब 22 हजार माली व 11 हजार वैश्यों का रुझान भाजपा के पक्ष में है, हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के कारण कुछ माली कांगे्रस में माने जाते हैं।
ऐसा माना जाता है कि पिछली बार की तुलना में इस बार श्रीमती भदेल को कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा है। पिछले चुनाव में वे कांग्रेस के डॉ. राजकुमार जयपाल से 19 हजार से अधिक मतों से जीती थीं। तब पूर्व विधायक ललित भाटी ने कांग्रेस से बगावत कर एनसीपी का झंडा थामा और करीब 16 हजार वोट ले गए थे। इसी कारण कांग्रेस बुरी तरह से हारी। इस बार ललित भाटी चुप हैं, इस कारण मुकाबला सीधा है।
अब तक के विधायक
1957-महेन्द्र सिंह निर्दलीय
1962-बालकिशन कांगे्रस
1967-अम्बालाल जनसंघ
1972-माणकचंद सोगानी कांग्रेस
1977-कल्याण सिंह जनतापार्टी
1980-कैलाशचंद भाजपा
1985-राजकुमार जयपाल कांग्रेस
1990-श्रीकिशन सोनगरा भाजपा
1993-श्रीकिशन सोनगरा भाजपा
1998-ललित भाटी कांग्रेस
2003-श्रीमती अनिता भदेल भाजपा
2008-श्रीमती अनिता भदेल भाजपा
केकड़ी विधानसभा क्षेत्र कांग्रेस के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। यहां कांग्रेस के दिग्गज व मुख्य सचेतक डॉ. रघु शर्मा की प्रतिष्ठा दाव पर है। वे लगातार दूसरी बार यहां से चुनाव लड़ रहे हैं। पिछली बार की तरह उन्हें फिर से कांग्रेस के बागी बाबूलाल सिंगारियां परेशान किए हुए हैं। इस कारण मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है।
यहां भाजपा ने इस बार ब्राह्मण के सामने ब्राह्मण कार्ड खेलते हुए नए चेहरे शत्रुघ्न गौतम को उतारा है। हालांकि रघु के पास विकास के नाम पर गिनाने को बहुत कुछ है और यही सोच रख कर ही उन्होंने अपने क्षेत्र पर पूरा ध्यान दिया था, मगर सरवाड़ व केकड़ी में हुई सांप्रदायिक घटनाओं ने मतदाताओं में धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण कर दिया है। यही रघु के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। रघु जहां एक कद्दावर नेता हैं और कांग्रेस सरकार बनने पर मंत्री बनने की हैसियत रखते हैं, वहां गौतम कम अनुभवी हैं, लेकिन मोदी फैक्टर के कारण युवा मतदाता उनकी ताकत बने हुए हैं।
1 लाख 8 हजार 32 पुरुष व 1 लाख 1 हजार 583 महिलाओं को मिला कर कुल 2 लाख 9 हजार 615 वोटों वाले इस क्षेत्र में अनुसूचित जाति के तकरीबन तीस हजार और मुस्लिमों के 12 हजार मतदाता हैं, जो कि हैं तो परंपरागत रूप से कांग्रेसी, मगर निर्दलीय सिंगारियां उसमें बड़ी सेंध मारने की स्थिति में हैं। उन्होंने पिछली बार भी उन्होंने करीब 22 हजार वोट हासिल किए थे। यहां वैश्य 25 हजार, गुर्जर 18 हजार, ब्राह्मण 20 हजार, जाट 14 हजार, माली 10 हजार, राजपूत 8 हजार और मीणा 9 हजार माने जाते हैं। कांग्रेस को अनुसूचित जाति के अतिरिक्त ब्राह्मण, गुर्जर व मुस्लिम मतदाताओं का भरोसा है तो भाजपा जाट, माली और वैश्य मतों के दम पर डटी हुई है। इस चुनाव की विशेष बात ये है कि भाजपा के गौतम ब्राह्मण वोटों में सेंध मारेंगे। जहां तक वैश्यों का सवाल है, वे हैं तो परंपरागत रूप से भाजपाई, मगर भाजपा द्वारा जिले की आठ में से किसी भी सीट पर वैश्य को टिकट नहीं देने के कारण उनकी नाराजगी को रघु भुनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। शत्रुघ्न गौतम के लिए भाजपा के राजपूत नेता भूपेन्द्र सिंह परेशानी पैदा कर सकते हैं। वे टिकट नहीं मिलने से नाराज हैं। पिछले दिनों उन्होंने गुलगांव में राजपूतों की बैठक करके गौतम की पेशानी पर सलवटें डाल दी हैं।
अब तक के विधायक
1957 - हरिभाऊ उपाध्याय, कांग्रेस
1957 - उपचुनाव - हजारी, कांग्रेस
1962 - हरिभाऊ उपाध्याय, कांग्रेस
1967 - देवीलाल, स्वतंत्र
1972 - जमना सोलंकी, कांग्रेस
1977 - मोहनलाल, जपा
1980 - तुलसीराम, कांग्रेस
1985 - ललित भाटी, कांग्रेस
1990 - शंभूदयाल बडग़ूजर, जद
1993 - शंभूदयाल बडग़ूजर, भाजपा
1998 - बाबूलाल सिंगारियां, कांग्रेस
2003 - गोपाल लाल धोबी, भाजपा
2008 - डॉ. रघु शर्मा, कांग्रेस
ब्यावर विधानसभा क्षेत्र में त्रिकोणीय मुकाबला होने जा रहा है। यह सीट रावत बहुल है और वहां कांग्रेस व भाजपा दोनों ने रावतों की तवज्जो दी है। भाजपा की ओर से मौजूदा विधायक शंकर सिंह रावत फिर मैदान में हैं तो कांग्रेस ने मनोज चौहान को, मगर शहरी और वैश्य वोटों के भरोसे भाजपा के दिग्गज देवीशंकर भूतड़ा ने ताल ठोक दी है, जो भाजपा के लिए बड़ी परेशानी साबित होगी। असल में यहां आरंभ से वोटों का धु्रवीकरण शहर व देहात में होता रहा है, उसी का फायदा भूतड़ा उठा सकते हैं। कांग्रेस को चीता, मेहरात व काठात समाज की नाराजगी भारी पड़ सकती है। निर्दलीय पप्पू काठात कांग्रेस को बड़ा झटका दे सकते हैं। असल में इस सीट पर आमतौर पर वैश्यों का कब्जा रहा, मगर परिसीमन के बाद रावतों की बहुलता होने के बाद भाजपा का रावत कार्ड कामयाब हो गया और शंकर सिंह रावत रिकार्ड वोटों से जीते। पिछली बार यहां कांग्रेस के बागी पूर्व विधायक के. सी. चौधरी ने वैश्य मतदाताओं के दम पर त्रिकोण बनाया था और वे दूसरे स्थान रहे, जबकि कांग्रेस तीसरे स्थान पर धकेल दी गई। इस बार फिर वैश्य के रूप में भूतड़ा ऐसा ही कुछ करने की स्थिति में हैं।
1 लाख 6 हजार 669 पुरुष व 1 लाख 2 हजार 291 महिलाओं को मिला कर 2 लाख 8 हजार 960 वोटों वाले इस क्षेत्र में रावत 39 हजार, महाजन 28 हजार, अनुसूचित जाति 27 हजार, मुसलमान 22 हजार, राजपूत 13 हजार, माली दस हजार, ब्राह्मण 6 हजार, जाट दस हजार, गुर्जर 7 हजार के करीब हैं। यहां आम तौर पर शहरी मतदाताओं का वर्चस्व रहता है, लेकिन परिसीमन के बाद 11 पंचायतें शामिल किए जाने से ग्रामीणों का वर्चस्व बढ़ा है।
अब तक के विधायक
1957 - बृजमोहन लाल शर्मा, कांग्रेस
1962 - कुमारानंद, सीपीआई
1967 - फतेहसिंह, निर्दलीय
1972 - केसरीमल, सीपीआई
1977 - उगमराज मेहता, जनता पार्टी
1980 - विष्णु प्रकाश बाजारी, कांग्रेस
1985 - माणकचंद डाणी, कांग्रेस
199०0 - चंपालाल जैन, निर्दलीय
1993 - उगमराज मेहता, भाजपा
1998 - डॉ.के.सी.चौधरी, कांग्रेस
2003 - देवीशंकर भूतड़ा, भाजपा
2008 - शंकर सिंह रावत, भाजपा
नसीराबाद विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के दिग्गज व पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट की प्रतिष्ठा दाव पर लगी है। वे एक बार फिर यहां से कांग्रेस विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर के सामने मैदान में हैं। इस लिहाज से मुकाबला पहले जैसा ही है, मगर इस बार भाजपा के बागी अशोक खाबिया जाट के लिए परेशानी बढ़ा रहे हैं। उनके अतिरिक्त परंपरागत रूप से भाजपा के साथ रहने वाले राजपूत मतदाताओं में निर्दलीय संगीता सेंध मार सकती हैं। उधर कांग्रेस को निर्दलीय गुर्जर सुवा लाल गुंजल, सालम चीता से खतरा है।
नसीराबाद में मुख्य मुकाबला कांग्रेस के महेंद्र गुर्जर व भाजपा के सांवर लाल जाट के बीच है, लेकिन बसपा के अशोक खाबिया व भागू सिंह रावत भाजपा मतों में सेंध लगा सकते हैं। इसी प्रकार सलाम चीता व सलामुद्दीन समेत संगीता राठौड़, रेगर समाज के प्रभुलाल उदेनिया व राजेश सुनारीवाल कांग्रेस के लिए कुछ मुसीबत पैदा कर सकते हैं। इसी प्रकार गुर्जर समाज के सुवालाल गुंजल कांग्रेस के महेन्द्र गुर्जर को कुछ नुकसान पहुंचा सकते हैं।
आरंभ से कांग्रेस के कब्जे वाली इस सीट को बरकरार रखना जहां महेन्द्र सिंह गुर्जर के लिए एक चुनौती है, वहीं जाट के लिए राजनीतिक कैरियर को बचाने की। ज्ञातव्य है कि जाट पिछला चुनाव महेंद्र गुर्जर से मात्र 71 मतों से हार गए थे। इस कारण माना यही जा रहा है कि इस बार भी मुकाबला कांटे का रहेगा।
96 हजार 561 पुरुष व 89 हजार 397 महिलाओं को मिला कर 1 लाख 85 हजार 958 वोटों वाले इस इलाके में जातिवाद का गहरा असर है। गुर्जर व जाटों के बीच सीधी टक्कर है। उनका मतदान प्रतिशत भी तगड़ा रहता है। परिणाम पर इसी मतदान का ही असर रहने वाला है। यहां अनुसूचित जाति के मतदाता 45 हजार, गुर्जर 30 हजार, जाट 25 हजार, मुसलमान 15 हजार, वैश्य 15 हजार, रावत 17 हजार हैं। गुर्जर, अनुसूचित जाति और मुसलमान परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ हैं तो जाट, रावत व वैश्य भाजपा का साथ दे रहे हैं। चूंकि आंकड़ों के लिहाज से मुकाबला बराबर का और पिछले चुनाव जैसा है, इस कारण इस बार फिर हार-जीत का अंतर ज्यादा होने के आसार नहीं हैं। साधनों के लिहाज से कांग्रेस व भाजपा दोनों मजबूत हैं। कांग्रेस को जहां विकास कार्यों के साथ निशुल्क दवा व पेंशन योजना का बल है तो भाजपा एंटी इनकंबेंसी के भरोसे है।
अब तक के विधायक
1957 - ज्वाला प्रसाद शर्मा (कांग्रेस)
1962 - ज्वाला प्रसाद शर्मा (कांग्रेस)
1967 - विजयसिंह (निर्दलीय)
1970 - शंकर सिंह (कांग्रेस)
1972 उपचुनाव- शंकर सिंह (कांग्रेस)
1977 - भंवरलाल (जनता पार्टी)
1980 - गोविंद सिंह गुर्जर (कांग्रेस)
1985 - गोविंद सिंह गुर्जर (कांग्रेस)
1990 - गोविंद सिंह गुर्जर (कांग्रेस)
1993 - गोविंद सिंह गुर्जर (कांग्रेस)
1998 - गोविंद सिंह गुर्जर (कांग्रेस)
2003 - गोविंद सिंह गुर्जर (कांग्रेस)
2008 - महेन्द्र सिंह गुर्जर (कांग्रेस)
किशनगढ़ विधानसभा क्षेत्र जाट बहुल है, जहां एक बार फिर कांग्रेस के नाथूराम सिनोदिया और भाजपा के भागीरथ चौधरी के बीच सीधा मुकाबला है, मगर भाजपा के पूर्व विधायक जगजीत सिंह के पुत्र हिम्मत सिंह बसपा के बैनर पर चुनाव लड़ रहे हैं और वे बसपा के नाते कांग्रेस के अनुसूचित जाति के मतों में सेंध मार सकते हैं तो खुद की राजपूत जाति के वोट ले कर भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते हैं। चूंकि मुख्य मुकाबला जाट समाज के दोनों पुराने चेहरों के बीच ही है, इस कारण टक्कर कांटे की मानी जा रही है।
1 लाख 17 हजार 79 पुरुष और 1 लाख 6 हजार 799 महिलाओं को मिला कर 2 लाख 23 हजार 878 वोटों वाले इस इलाके में जाट 43 हजार, अनुसूचित जाति 27 हजार, महाजन 25 हजार, गुर्जर 23 हजार, राजपूत 20 हजार, ब्राह्मण 19 हजार, मुस्लिम 18 हजार, माली 5 हजार, रावत 3 हजार व शेष अन्य हैं। यहां पिछले कई चुनाव से जाट व गैर जाट का मुद्दा छाया रहता है। जाट बड़ी तादात में होने के कारण वे निर्णायक भूमिका में रहते हैं। उधर राजपूत, महाजन व अनुसूचित जाति के मतदाता गैर जाटवाद के मुद्दे पर अहम किरदार निभा सकते हैं। भाजपा को अपने वैश्य, ब्राह्मण व सिंधी का भरोसा है तो कांग्रेस को अनुसूचित जाति और मुस्लिम का संबल मिला हुआ है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नाम पर कांग्रेस माली मतदाताओं का रवैया अपने पक्ष में मानकर चल रही है। ऐसे में सबसे निर्णायक भूमिका गुर्जरों की हो जाएगी। केंद्रीय मंत्री सचिन पायलट के कारण करीब 21 हजार गुर्जर मतदाताओं का फायदा सिनोदिया को मिल सकता है।
अब तक के विधायक
1952 - चांदमल, कांग्रेस
1952 उपचुनाव-जयनारायण व्यास, कांग्रेस
1957 - पुरुषोत्तम लाल, कांग्रेस
1962 - बालचंद, निर्दलीय
1967 - सुमेर सिंह, निर्दलीय
1972 - प्रतापसिंह, निर्दलीय
1977 - करतार सिंह, जनता पार्टी
1980 - केसरीचंद चौधरी, कांग्रेस
1985 - जगजीत सिंह, भाजपा
1990 - जगजीत सिंह, भाजपा
1993 -जगदीप धनखड़, कांग्रेस
1998 - नाथूराम सिनोदिया, कांगे्रस
2003 - भागीरथ चौधरी, भाजपा
2008 - नाथूराम सिनोदिया, कांग्रेस
पुष्कर विधानसभा क्षेत्र में मौजूदा शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ की प्रतिष्ठा दाव पर लगी हुई है। इस रावत बहुल सीट पर उनका सीधा मुकाबला भाजपा के नए चेहरे सुरेश सिंह रावत से है। कांग्रेस ने जिला परिषद सदस्य मजीद अली व इदरीस मोहम्मद का नामांकन पत्र वापस करवा कर राहत पाई है, लेकिन लतीफ अली से खतरा बना हुआ है। उधर राजपूत समाज के प्रेम सिंह कालवा भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते हैं। यहां नेशनल पीपुल्स पार्टी, जागो पार्टी, बसपा और एक निर्दलीय समेत कुल सात प्रत्याशी मैदान में हैं।
1 लाख 6 हजार 669 पुरुष व 1 लाख 2 हजार 291 महिलाओं को मिला कर 2 लाख 8 हजार 960 वोटों वाले इस इलाके में 35-35 हजार रावत व मुसलमान हैं। करीब 25-25 हजार अनुसूचित जाति व जाट, 15 हजार गुर्जर व 20 हजार राजपूत, 14 हजार ब्राह्मण, 9 हजार वैश्य व 8 हजार माली मतदाता हैं। रावत, राजपूत, वैश्य, व ब्राह्मण परंपरागत रूप से भाजपा के साथ रहते आए हैं। कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक मुस्लिम, अनुसूचित जाति, जाट व गुर्जर है। राजपूत मतदाताओं का रुख इस बार निर्णायक रहेगा। निर्दलीय प्रेमसिंह कालवा भाजपा के लिए परेशानी पैदा कर सकते हैं।
इस चुनाव की विशेषता ये है कि भाजपा ने पहली बार यहां रावत कार्ड खेला है। इसकी वजह ये है कि पिछली बार रावतों की चेतावनी को नजरअंदाज कर जब भाजपा ने भंवर सिंह पलाड़ा को टिकट दिया तो श्रवण सिंह रावत ने बगावत कर ताल ठोक दी, जो कि तकरीबन तीस हजार वोट हासिल कर भाजपा की हार का कारण बन गए। रावतों ने पुष्कर सहित तीन सीटों पर भाजपा को हराने में भूमिका अदा की। ठीक इसी प्रकार का त्रिकोणीय मुकाबला 2003 के चुनाव में भी हुआ था, जबकि पलाड़ा के निर्दलीय रूप से मैदान उतर कर तीस हजार वोट काटने के कारण भाजपा के रमजान खान कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती के सामने हार गए थे। इस बार भाजपा ने रावतों की चेतावनी को ध्यान में रखते हुए ब्यावर के अतिरिक्त पुष्कर में भी रावत को ही मैदान में उतार दिया।
अब तक के विधायक
1957 - प्रभा मिश्रा, कांग्रेस
1962 - प्रभा मिश्रा, कांग्रेस
1967 - प्रभा मिश्रा, कांग्रेस
1972 - प्रभा मिश्रा, कांग्रेस
1977 - चिरंजीलाल गर्ग, जनता पार्टी
1980 - सूरजदेवी मल्होत्रा, कांग्रेस
1985 - रमजान खान, भाजपा
1990 - रमजान खान, भाजपा
1993 - विष्णु मोदी, कांग्रेस
1998 - रमजान खान, भाजपा
2003 - डॉ.श्रीगोपाल बाहेती
2008 - श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ
मसूदा विधानसभा क्षेत्र में पहली बार होने जा रहा बहुकोणीय मुकाबला बहुत ही दिलचस्प है। तस्वीर इतनी धुंधली है कि कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कयास यहां तक लगाए जा रहे हैं कि यहां से कोई निर्दलीय बाजी मार सकता है।
यह सीट भाजपा के लिए इसलिए प्रतिष्ठापूर्ण है क्योंकि उसने यहां से जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा को राजपूतों के दबाव में उतारा है। उनको भाजपा के बागी देहात जिला भाजपा अध्यक्ष नवीन शर्मा तो चुनौती दे रहे हैं। इस किस्म की बगावत अपने आप में अनूठी है। माना जाता है कि शर्मा की बिजयनगर में अच्छी पकड़ है। श्रीमती पलाड़ा को शांति लाल गुर्जर व भंवरलाल बूला की बगावत भी झेलनी पड़ रही है।
उधर कांग्रेस की ओर से उतारे गए संसदीय सचिव ब्रह्मदेव कुमावत को अजमेर डेयरी के अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी की बगावत भारी पड़ती नजर आ रही है। इसके अतिरिक्त चीता समाज के आव्हान पर मैदान में उतरे वाजिद खां चीता भी तगड़ी टक्कर दे रहे हैं। वे इस समय जेल में हैं, बावजूद इसके चीता, मेहरात, काठातों ने उनकी कमान संभाल रखी है। बसपा के गोविंद गुर्जर भी कांग्रेस के परंपरागत मतों में सेंध मार सकते हैं। ज्ञातव्य है कि पिछली बार कांग्रेस से बगावत कर मैदान में उतरे ब्रह्मदेव कुमावत ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी रामचंद्र चौधरी को हरवा दिया था, इस कारण इस बार चौधरी अपनी हार का बदला लेना चाहते हैं।
इस विधानसभा क्षेत्र में मुसलमान 32 हजार, गूजर 30 हजार, जाट 24 हजार, अनुसूचित जाति 26 हजार, रावत 20 हजार, राजपूत 14 हजार, महाजन 15 हजार, ब्राह्मण 11 हजार व कुमावत 5 हजार हैं।
अब तक के विधायक
1957- नारायण सिंह, कांग्रेस
1962- नारायण सिंह, कांग्रेस
1967- नारायण सिंह, कांग्रेस
1972- नारायण सिंह, कांग्रेस
1977- नूरा काठात, सीपीआई
1980- सैयद मो. अय्याज, कांग्रेस
1985- सोहनसिंह, कांग्रेस
1990- किशन गोपाल कोगटा, भाजपा
1993- किशन गोपाल कोगटा, भाजपा
1998- हाजी कयूम खान, कांग्रेस
2003- विष्णु मोदी, भाजपा
2008 - ब्रह्मदेव कुमावत, निर्दलीय
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

परचे की हवा अजमेर दक्षिण में न चली जाए

हाल ही किसी शरारती ने सिंधी समाज को निशाना बनाते हुए अजमेर उत्तर के कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती की ओर से जो परचा शहर में जगह-जगह शाया किया, उससे अजमेर उत्तर के सिंधियों में तो रोष है ही, यह हवा अजमेर दक्षिण की ओर भी चले जाने का अंदेशा व्याप्त हो गया है।
वस्तुत: किसी शातिर दिमाग ने डॉ. बाहेती को परेशान करने और शांत बैठे सिंधी समाज में आग सुलगाने के लिए यह परचा जारी किया था। इससे सिंधी समाज में डॉ. बाहेती के विरुद्ध माहौल बनने लगा है। हालांकि डॉ. बाहेती ने डेमेज कंट्रोल करते हुए तुरंत सिंधी समाज के कांग्रेसी नेताओं को साथ लेते हुए प्रेस कांफ्रेंस बुलवा ली। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि ये परचा एक साजिश है और वे किसी समाज के खिलाफ नहीं है, मगर भाजपा मानसिकता के लोग परचे का चर्चा बरकरार रखने में जुटे हुए हैं। यह हवा मतदान का दिन आते-आते कितनी रह पाती है, ये तो पता नहीं, मगर यह हवा अजमेर दक्षिण के सिंधी मतदाताओं में भी प्रवेश करने का अंदेशा उत्पन्न हो गया है। जाहिर तौर पर भाजपा प्रत्याशी श्रीमती अनिता भदेल के लिए यह हवा सौभाग्य का संदेश ला रही है, वहीं कांग्रेस प्रत्याशी हेमंत भाटी को तनाव दे रही है। इसी के चलते उन्होंने पाल बांध ली है। उनकी कोशिश ये रहेगी कि डॉ. बाहेती के खिलाफ बन रहा माहौल अजमेर दक्षिण में डाइल्यूट हो जाए। इसके पीछे उनके पास एक तगड़ा तर्क है। वो ये कि वे तो आखिरी वक्त तक अजमेर उत्तर से किसी सिंधी को ही टिकट देने पर अड़े हुए थे। अव्वल तो उनकी शर्त ही ये थी कि अजमेर उत्तर से किसी सिंधी को ही टिकट देने पर ही वे अजमेर दक्षिण से चुनाव लड़ेंगे। आखिरी वक्त तक यही भरोसा दिलाया जाता रहा कि ऐसा ही होगा, मगर ऐन वक्त पर पासा पटल गया। तब तक वे चुनाव की पूरी तैयारी कर चुके थे, अत: मैदान में उतरना उनकी मजबूरी हो गया। उनका ये तर्क सिंधियों के कितना गले उतरता है, ये तो पता नहीं, मगर अकेला यही तर्क उनको राहत प्रदान कर सकता है।

देवनानी अब अपनी टीम के भरोसे

अजमेर उत्तर के भाजपा प्रत्याशी प्रो. वासुदेव देवनानी इस बार केवल अपनी टीम के भरोसे ही हैं, अधिसंख्य भाजपा नेता उनके साथ लगने की बजाय पार्टी के प्रति अपनी वफादारी दिखाने की खातिर खानापूर्ति के लिए अजमेर दक्षिण में सेवाएं दे रहे हैं।
असल में देवनानी को यह अहसास पहले से ही था कि इस बार वे टिकट ले कर भी आ गए तो टिकट कटवाने का आतुर लखावत एंड कंपनी उन्हें जीतने नहीं देगी। कोई चार माह पहले ही विभिन्न वार्डों में देवनानी को हराने की रणनीति तैयार की जा चुकी थी। स्थिति को भांपते हुए देवनानी ने तभी अपनी विश्वसनीय टीम गठित कर ली थी। बाकायदा वार्ड और बूथ वार भरोसे के कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी दे दी थी। अब उसी टीम के दम पर चुनाव लड़ रहे हैं। उनकी हालत ये हो गई कि पार्टी के नाते काम करने आने वाले पर वे यकायक यकीन ही नहीं कर पा रहे। इसी कारण उन्हें शक्की कहा जाने लगा है। कई कार्यकर्ता तो इसी कारण नाराज हो रहे हैं कि उन्हें शक की नजर से देखा जा रहा है। वे काम तो करना चाहते हैं, मगर उन्हें देवनानी की पर्सनल टीम पास फटकने ही नहीं दे रही। कुल मिला कर टीम के नजरिये से देखा जाए तो देवनानी कमजोर दिखाई दे रहे हैं, मगर जल्द ही आरएसएस मोर्चा संभाल लेगा। उसके बाद कारसेवा करने वाले और अजमेर उत्तर की बजाय दक्षिण में काम करने वालों पर निगरानी बढ़ा दी जाएगी।

इस बार कैसे लड़ेंगी अनिता भदेल?

आसन्न विधानसभा चुनाव में अजमेर दक्षिण सीट को लेकर एक ही चर्चा आम है कि इस बार भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल कैसे चुनाव लड़ेंगी? अर्थात मौजूदा कांग्रेस प्रत्याशी हेमंत भाटी के जिस धन बल व बाहुबल के दम पर लगातार दो बार चुनाव जीतीं, वह इस बार उनके साथ नहीं है। ऐसे में केवल भाजपा कार्यकर्ताओं के बल पर क्या उन्हें चुनाव लडऩे में दिक्कत नहीं आएगी? अकेले इसी फैक्टर को ध्यान में रखा जाए तो यही राय उभर कर आती है कि इस बार उन्हें चुनाव जीतने के लिए भारी मशक्कत करनी होगी। एक तो उन्हें ऑरीजनल भाजपा कार्यकर्ताओं की टीम को मजबूत करना होगा, क्योंकि पहले हेमंत भाटी की जिस टीम का सहारा मिलता था, वह तो मूल रूप से कांग्रेसी थी, केवल हेमंत के कहने पर अनिता के लिए काम करती थी। दूसरा हेमंत भाटी के धनबल से दो चार होना होगा। कुल मिला कर इस बार उन्हें दस साल में जोड़ी टीम व भाजपा कार्यकर्ता ही काम आएंगे, हेमंत की बैसाखी उनका साथ देने की बजाय उनके खिलाफ जो काम कर रही है।
वैसे बताया जा रहा है कि इस बार आरएसएस कुछ ज्यादा मुस्तैदी से काम करने वाली है। अभी भले ही भाटी मजबूत नजर आ रहे हों, मगर जैसे ही आरएसएस पूरी कमान अपने हाथ में लेगी, हेमंत को भी पसीने आ जाएंगे।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

भंवर सिंह पलाड़ा ने दिखाई अपनी दमदारी

युवा भाजपा नेता व अजमेर जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति भंवर सिंह पलाड़ा ने एक बार फिर दिखा दिया है कि राजनीति में दमदारी किसे कहते हैं। माना जा रहा था कि उन्हें प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे ने विधानसभा चुनाव का टिकट देने से साफ इंकार कर दिया था, लेकिन आखिरी वक्त में समाज को एकजुट करके जिस तरह से श्रीमती पलाड़ा के लिए मसूदा का टिकट लेकर आ गए, उससे यह साबित हो गया है कि वे कितने प्रभावशाली हैं। आपको याद होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में अधिसंख्य भाजपा नेताओं के असहमत होने के बाद भी वे हाईकमान से पुष्कर का टिकट लेकर आ गए थे, यह बात दीगर है कि वे बागी के खड़े होने के कारण हार गए। इस बार फिर जिस तरह से ऐन वक्त पर अपनी पत्नी के लिए टिकट ले कर आए हैं, उन्होंने साबित कर दिया है कि वे राजनीति अपनी शर्तों पर कर रहे हैं। जिला परिषद का बिंदास अंदाज में संचालन इसका जीता जागता उदाहरण है। असल में वे जिले में अपनी किस्म के इकलौते नेता हैं। रुतबे के साथ टिकट ला कर उन्होंने एक दमदार राजपूत नेता का खिताब हासिल कर लिया है। अब देखना ये है कि वे अपनी पत्नी को भी इसी दमदार तरीके से जितवा कर ला पाते हैं या नहीं, क्योंकि मसूदा का चुनावी समीकरण काफी उलझा हुआ है।
-तेजवानी गिरधर

ज्ञान के मैदान में न आने से देवनानी ने ली राहत की सांस

मूलत: भाजपा-संघ विचारधारा के निर्दलीय पार्षद ज्ञान सारस्वत के अजमेर उत्तर विधानसभा चुनाव में न उतरने से भाजपा प्रत्याशी प्रो. वासुदेव देवनानी ने राहत की सांस ली है। ज्ञातव्य है कि सारस्वत के बारे में काफी समय से यह धारणा थी कि जैसे ही भाजपा देवनानी को टिकट देगी, वे उन्हें हराने के लिए निर्दलीय रूप में मैदान में आ डटेंगे। कुछ दिन पहले तो उन्होंने वाट्स एप पर बाकायदा बतौर निर्दलीय प्रत्याशी वोट की अपील भी शुरू कर दी थी। उनका अपने वार्ड सहित सटे दो वार्डों में खासा प्रभाव होने के कारण माना जा रहा था कि वे देवनानी को तगड़ा झटका देंगे। कयास ये भी था कि देवनानी विरोधी और वैश्यवाद के पोषक भी उन्हें अंदरूनी समर्थन देंगे, जिससे मुकाबला त्रिकोणीय भी हो सकता है। नामांकन भरने की आखिरी तारीख से एक दिन पहले तक यह अंदाजा था कि वे मैदान में आएंगे ही, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब लोग कयास लगा रहे हैं कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि ज्ञान ने मैदान में उतरना मुनासिब नहीं समझा। कदाचित ज्ञान को यह लगा हो कि उनके उतरने से देवनानी तो हार जाएंगे, मगर उन्हें क्या हासिल होगा। अब कम से कम सरकार बनने पर भाजपा उन्हें इनाम के तौर पर कुछ दे सकती है। खैर, जाहिर तौर पर इससे देवनानी को बड़ी भारी राहत मिली है। राहत तो उन्हें नगर परिषद के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत के मैदान में न उतरने से भी मिली है, जिनके बारे में यह लगभग पक्का था कि वे भी बागी हो सकते हैं। उन्होंने भी आखिरी वक्त में पैंतरा बदला।
-तेजवानी गिरधर

एक परचे ने बिगाड़ा अजमेर का राजनीतिक मिजाज

अजमेर उत्तर के कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती के समर्थन में और समाज विशेष के खिलाफ किसी शरारती व्यक्ति की ओर से जारी किए गए एक परचे ने अजमेर शहर का राजनीतिक मिजाज बिगाड़ दिया। हालांकि स्वाभाविक रूप से यह परचा डॉ. बाहेती की ओर से जारी किया हुआ प्रतीत नहीं होता क्योंकि कोई भी प्रत्याशी ऐन चुनाव के मौके पर एक समाज विशेष को निशाना बना कर उसकी नाराजगी मोल लेने की गलती नहीं करेगा, मगर परचे की भाषा इतनी खतरनाक है कि उससे शहर में एक बार फिर जातिवाद का जहर फैलने की खतरा उत्पन्न हो गया है। जिला निर्वाचन अधिकारी ने भी इसे गंभीरता से लिया और जगह-जगह चिपकाए गए परचे को हटवाया है।
सिंधी-गैरसिंधीवाद में उलझी अजमेर की राजनीति के चलते किसी शरारती तत्व की ओर से जारी किए गए इस परचे में सिंधी समुदाय को निशाना बनाते हुए डॉ. बाहेती को जिताने की अपील की गई है। परचे का मामला कितना गंभीर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहर में कुछ प्रमुख स्थानों पर चिपकाए गए इस परचे की फोटो खींच कर कुछ लोगों ने इसे वाट्स एप पर चला दिया, जिस पर बेहूदा और आपत्तिजनक टिप्पणिया शुरू हो गईं। जाहिर तौर पर इससे पूरे सिंधी समुदाय में रोष व्याप्त हो गया। साथ ही डॉ. बाहेती भी भौंचक्के रह गए। यह रोष चुनाव में अहम भूमिका निभा सकता है, इसको भांपते हुए डॉ. बाहेती ने तुरंत कांग्रेस से जुड़े कुछ नेताओं को बुलवा लिया और बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके भड़काऊ परचे की निंदा की। एक तीर से दो शिकार वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए डॉ. बाहेती ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए यह भी प्रदर्शित करने की कोशिश भी की कि सिंधी समुदाय उनके साथ है। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि इसका कितना असर पड़ पाएगा।
बेशक कॉन्फ्रेंस में कुछ सिंधी नेताओं को साथ रखने से मामला कुछ डाइल्यूट हुआ है, मगर परचे की वजह से सिंधी समुदाय में किस कदर गुस्सा है, जिसका अनुमान लगाना मुश्किल है। यह परचा एक ओर जहां सिंधी समुदाय को उद्वेलित किए हुए है, वहीं वैश्य समुदाय में भी प्रतिक्रिया होने की आशंका है। सबसे बड़ी बात ये है कि इससे जहां डॉ. बाहेती की पेशानी पर परेशानी की लकीरें उभर आई हैं, वहीं भाजपा प्रत्याशी प्रो. वासुदेव देवनानी को भी डर सता रहा होगा कि कहीं एक बार फिर सिंधी-वैश्य का विवाद न उठ खड़ा हो जाए। ज्ञातव्य है कि पिछले चुनाव में यह विवाद काफी मुखर था, मगर इस बार दोनो ही समुदायों ने संयम बरत रखा है। मगर इस परचे के जरिए ठंडी हुई आग को फिर से सुलगाने की कुटिल चाल चली गई है। संयोग से पिछली बार की तरह इस बार भी डॉ. बाहेती व देवनानी आमने-सामने हैं, इस कारण प्रशासन को और अधिक सतर्क होना पड़ेगा। एक खतरा ये भी है कि कहीं विवाद अजमेर दक्षिण तक न पहुंच जाए, जहां बड़ी तादात में सिंधी मतदाता हैं।
परचा जारी करने की करतूत किसकी है, ये तो पुलिस जांच में ही सामने आ पाएगा, मगर डॉ. बाहेती ने अपनी ओर एहतियात बरतते हुए कोतवाली थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई कि शहर में कई जगह उनके नाम से भ्रामक पोस्टर चिपकाए गए हैं। उससे उनकी छवि और उनके चुनावी माहौल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। उन्होंने शक जताया कि विरोधी प्रत्याशी के कार्यकर्ताओं की यह साजिश है। बाहेती ने कहा है कि यह कांग्रेस पार्टी व उनके खिलाफ साजिश है। पर्चे के माध्यम से जातीय विद्वेष फैलाने का प्रयास किया गया है, जो निंदनीय है।