बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

... कुत्ते की पूंछ भी भला कभी सीधी होती है?


एक कहावत है-कुत्ते की पूंछ कभी सीधी नहीं होती? इसके साथ एक किस्सा भी जुड़ा हुआ है कि कुत्ते की पूंछ को सीधा करने के लिए उसे एक बार लोहे की नली में फंसा दिया गया। बारह साल बाद निकाला तो पूंछ वही टेढ़ी की टेढ़ी। जब यह कहावत भी घिस गई तो किसी ने इसमें जोड़ दिया कि पूंछ तो सीधी नहीं हुई, उलटे नली ही टेढ़ी हो गई।
ये कहावत यकायक यूं याद आई कि अपुन ने केसरगंज में गोदामों में हुए अग्निकांड के बाद लोगों को सियापा करते देखा। सियापा ये कि यदि ट्रांसपोर्ट नगर बन व बस गया होता तो इतना बड़ा भीषण अग्निकांड शायद नहीं होता, अतिक्रमण नहीं होते तो इतना ज्यादा नुकसान नहीं होता, ज्वलनशील पदार्थों के गोदाम शहर से दूर बनने चाहिए, इत्यादि-इत्यादि।
असल में हादसों को न्यौता देने और हादसा हो जाने पर सियापा करने की हम अजमेरियन्स की पुरानी आदत है। ये सियापा भी कुछ हल निकाल दे, तब भी बात बनें, मगर जैसे हमारे हाल हैं, हम सुधरने वालों में से हैं नहीं।
अकेले ट्रांसपोर्ट नगर की ही बात करें तो अंदाजा लगाइये कि आज से कोई 25 साल पहले ही हमें भगवान ने सद्बुद्धि दी थी कि यातायात व्यवस्था को सुधारने व केसरगंज वासियों की आए दिन की परेशानी को मिटाने के लिए ट्रांसपोर्ट नगर शहर से बाहर बनाया जाना जरूरी है। अर्थात हम तब ही समझ गए थे कि ट्रांसपोर्ट नगर शहर से बाहर होना चाहिए, मगर ऐसी समझ का क्या अचार डालियेगा, जिसका उपयोग ही नहीं किया गया। न हमारे यहां के राजनेताओं में इच्छाशक्ति है और न ही प्रशासनिक अधिकारियों की कुछ खास रुचि। नेताओं को केवल वोटों से मतलब है और अधिकारियों को नौकरी पक्की करने से। रहा सवाल ट्रांसपोर्टरों का तो, उनकी जिद को कौन पार पा सकता है? स्टील लेडी तत्कालीन जिला कलेक्टर अदिति मेहता तक हल नहीं निकाल पाई। चतुर सुजान पूर्व न्यास सदर औंकारसिंह लखावत तक कुछ नहीं कर पाए। कोई सैकड़ों बार जद्दोजहद हुई होगी, फिर-फिर नए सिरे से बैठकें हुई होंगी, मगर ट्रांसपोर्ट संघ की अंदर की राजनीतिक के चलते गाडी गीयर में ही पड़ रही। नहीं निकली तो नहीं ही निकली। हर बार कोई नया रोड़ा। हर बार कोई नया पेच। जब बाहर जाना ही नहीं है तो आप लाख सिर पटक लीजिए, हर बार कोई नया बहाना बना लेंगे। ऐसे में मामला जहां है, वहीं ठहरा हुआ है। दोष किसे दें? रहा सवाल आम जनता का तो, वह दुनिया की सबसे महान सहनशील जमात है। न जाने किसी मिट्टी की बनी है? रोती रहती है, मगर हर हाल में संतुष्ट रहती है। ऐसे में भला कैसे उम्मीद की जा सकती है कि हम सुधर जाएंगे?
पिछले दिनों न्यास अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत ने पहल कर व्यापारियों को शिफ्ट करने के लिए तैयार किया। करीब 80 ट्रांसपोर्ट व्यवसाइयों ने न्यास में भूखंड की राशि भी जमा करा दी, लेकिन ट्रांसपोर्ट व्यवसायी बाहर नहीं जा रहे है। अब कहा जा रहा है कि जब तक प्रशासन सख्ती नहीं करेगा, तब तक ट्रांसपोर्ट व्यवसायी शहर से बाहर जाने वाले नहीं हैं। कैसी विडंबना है?
अग्निकांड ने कुछ और सवाल और उनके समाधान भी खड़े किए हैं। मसलन ज्वलनशील पदार्थों के गोदाम शहर से दूर होने चाहिए, व्यस्ततम क्षेत्रों में बने गोदामों में अग्निशमन यंत्र लगना अनिवार्य कर इसकी सख्त मॉनिटरिंग की जानी चाहिए, रास्तों में अतिक्रमण हटें ताकि राहत व बचाव कार्य में परेशानी नहीं आए। ये सवाल व समाधान पहले भी उठ चुके हैं, जब पुरानी मंडी में भीषण अग्निकांड हुआ था। मगर हुआ क्या? और होना इसलिए नहीं है कि हम तब न सुधरेंगे, जब सुधरने को तैयार होंगे। अखबार वाले हर बार पूरे के पूरे पेज रंग देंगे। सारे बुद्धिजीवी पूरा पेज चट कर जाएंगे। गरमागरम बहसें होंगी और फिर वही ढ़ाक के तीन पात। वही घोड़े और वही मैदान।
-तेजवानी गिरधर