गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

कोरोना से जंग अभी बाकी है, आपस की जंग फिर कर लेना

अजमेर शहर भर में लगभग एक माह का लॉक डाउन और चार थाना क्षेत्रों में कफ्र्यू भोगने के साथ पांच के अतिरिक्त नए पोजीटिव सामने नहीं आने से उम्मीद जगी थी कि अजमेर भी भीलवाड़ा का तरह मॉडल बनने जा रहा है, मगर वह दिवा स्वप्न एक झटके में रेलवे म्यूजियम ने तोड़ दिया। उसके बाद मुस्लिम मोची मोहल्ले ने तो पूरे सिस्टम की पोल ही खोल कर रख दी। अर्थात जो क्रेडिट हम लेने जा रहे थे, वह भगवान भरोसे थी। जमीन पर  जो होना था, वह किया ही नहीं गया। नतीजा ये निकला कि सुप्त पड़ा कोराना का बम फट गया। बेशक बदइंतजामी की मार खाने के बाद अब हम चाक-चौबंद होने लगे हैं, मगर इस महामारी से निपटने के प्रति एकजुट होने की बजाय हम आरोप-प्रत्यारोपों में उलझ रहे हैं। जमीन पर आम जनता व दुकानदारों को राहत देने की बजाय, राजनीति करने पर उतर आए हैं। कभी एसपी और मेयर टकरा रहे हैं, तो कभी कांग्रेस और भाजपा। कभी फूड पैकेट्स के वितरण में भेदभाव की आवाज बुलंद रही है तो कभी जनप्रतिनिधियों को नहीं गांठने का आक्रोष उबल रहा है।
इस गंभीर मसले का सबसे अहम पहलु ये है कि कफ्र्यू के बाद भी अंदर ही अंदर पक रहे कोरोना मवाद का हमें पता ही नहीं लगा तो इसका मतलब साफ है कि कफ्र्यू पूरी तरह से निरर्थक हो गया। कफ्र्यू के दौरान हमें जो एक्ससाइज करनी थी, कहीं न कहीं वह हमने ठीक से की नहीं। एक भी मरीज सामने न आने पर केवल आत्मविमुग्ध हो कर चैन की बांसुरी बजाते रहे। बेशक... बेशक, कफ्र्यू के दौरान भी लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग की अवहेलना की, वह सोचनीय है, मगर साथ ही केवल उन लोगों को जाहिल ठहराना भी हमारी समझ की त्रुटि कहलाएगी, जो उन तंग गलियों में एक ही कमरे में चार से आठ की संख्या में रहने को मजबूर हैं।
गर हम ये कह कर खुद को बरी किए देते हैं कि हमने तो कफ्र्यू लगा दिया था, लोगों ने ही पालना नहीं की, तो इसका अर्थ ये है कि कफ्र्यू की मूल अवधरणा को समझने में हम चूक कर रहे हैं। अगर हम सभ्य कहलाने वाले लोग इतने ही अनुशासित नागरिक होते तो केवल लाउड स्पीकर पर घर से बाहर न निकलने की मुनादि करवाने से काम चल जाता। साथ में डंडे की फटकार की जरूरत ही क्या होती? अर्थात हमारी व्यवस्था उतनी चाक चौबंद नहीं थी, जितनी एसपी के सख्त चेहरे पर झलकती है।
अगर इस प्रकार मुस्लिम मोची मोहल्ला अचानक हॉट सेंटर बन कर सामने आया है तो 15 लाख लोगों की स्क्रीनिंग के दावे पर खुद ब खुद बड़ा सवालिया निशान लगता है। इलाके का एक मरीज अगर खुद अवतरित नहीं होता तो हम किसी बड़ी आपदा के मुहाने पर बैठ कर खैरियत मना रहे होते। इसी प्रकार रेलवे म्यूजियम शेल्टर होम में भी लापरवाही की चादर ओढ़े बैठे थे। सोशल डिस्टेंसिंग की कामयाबी अगर हम खुले रोड्स और बंद बाजारों में पसरे सन्नाटे को देख कर संतुष्ट हैं, तो हम पूरी तरह से गलत हैं। लॉक डाउन की कामयाबी का पैमाना बड़ी तादाद में वाहनों की जब्ती व चालान को ही मान लिया जाए तो वह भी एक भ्रम है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि पूरे उत्तर भारत में संपूर्ण साक्षर घोषित हुए अजमेर के 16 हजार से ज्यादा वाहन चालक आवारा की श्रेणी में दर्ज हो चुके हैं। उसकी अपनी अलग कहानी है। असल जरूरत शेल्टर होम में सोशल डिस्टेंसिंग की थी, जहां एक साथ डेढ़ सौ खानाबदोशों को ठहराया गया था। घटना स्थल का दौरा कर चुके मीडिया कर्मियों का कहना है कि कई दिन तक न नहाने के कारण वे बदबू मार रहे थे।
अजमेर के प्रति दिल में दर्द रख कर दिन-रात दौड़ रही सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती कीर्ति पाठक की फेसबुक पर की गई टिप्पणी काबिले गौर है कि अगर अजमेर को होट स्पॉट बनने के लिए कोई दोषी है, तो वो सिर्फ और सिर्फ हम नागरिक हैं। पुलिस कब तक एक ही दरवाजे के आगे गश्त लगाएगी? हम स्व अनुशासित जीवन नहीं जी रहे। मगर साथ ही स्वीकार करती हैं कि एक ही जगह से ये बीमारी इसी लिए परवान चढ़ रही है, क्योंकि यहां संकड़ी गालियां हैं, एक ही कमरे में कई-कई लोग रहते हैं और फिजिकल डिस्टेंसिंग नहीं हो पाती / नहीं रखते।
इस मंजर के ठीक उलट अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल का सार्वजनिक बयान भी सोचने को विवश करता है। संकट के वक्त प्रशासनिक तौर पर समस्या से निपटने के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार जिला कलेक्टर पर हमला करते हुए पूरी समस्या के लिए उन्हें ही दोषी करार देना सहज है, कुछ लोग उसे दिलेरी की संज्ञा भी दे सकते हैं, आपकी भावना वाजिब भी हो सकती है, मगर ऐसा करके क्या हम अपने ही टीम लीडर का हौसला पस्त नहीं कर रहे। हो सकता है कि आपकी उनसे मतभिन्नता हो अथवा किसी निर्णय से असहमति हो, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं कि पूरा ठीकरा ही उन पर फोड़ दिया जाए। श्रीमती भदेल के आक्रामक रुख से यह साफ झलकता है कि प्रशासन व जनप्रतिनिधियों के बीच तालमेल का अभाव है। उसका नतीजा है कि सरकार की ओर से प्रभारी सचिव भवानी सिंह देथा को मध्यस्थता करनी पड़ी। तालमेल की बात चली तो यह कहते हुए भी अफसोस होता है कि तकरीबन 16-16 साल से लगातार विधायकी करने वाले जनप्रतिनिधि, दो बार मेयर रह चुके शख्स और एक-एक बार विधायक रह चुके नेताओं को इतना दरकिनार करना अच्छे लोकतंत्र की निशानी नहीं है।
जनसहभागिता से खाने के पैकेट व सूखी खाद्य सामग्री बांटने के लिए मुक्तहस्त पास जारी किए जाने का दुरुपयोग भी विचारणीय है, मगर जरूरतमंद लोगों की मदद में उनके योगदान को अजमेर की सद्भावी संस्कृति के रूप में इतिहास में याद किया जाएगा। प्रशासन तो बहुत बाद में चेता, वरना लोग भूखे ही मर जाते।
एक जुट हो कर इस गंभीर समस्या से मुकाबला करने के वक्त कुछ अति समझदार बुद्धिजीवी कलेक्टर व एपी को भिड़ाने से नहीं चूक रहे। सोशल मीडिया पर इस किस्म की पोस्टें पसरी पड़ी हैं। यह साजिशन हो रहा है या अनायास पता नहीं, मगर धु्रवीकरण तो झलक ही रहा है। बतौर बानगी देखिए एक पोस्ट:- अजमेर को कप्तान साहेब ने बचाए रखा था। जिला कलेक्टर और अधिकारियों ने अपनी जिद्द के आगे किसी की नहीं सुनी। कोई सिंघम की जयजयकार कर रहा है तो कोई जिला कलेक्टर को निकम्मा साबित करने में जुटा है। बेशक हमें अभिव्यक्ति की आजादी है, मगर इसका अतिरेक ऐसा आभास देता है, मानो हमें सर्टिफिकेट जारी करने का लाइसेंस मिला हुआ है। सरकार को सब कुछ पता है कि कौन क्या कर रहा है, उसका भी अपना तंत्र है, मगर संकट के वक्त वह पहली प्राथमिकता समस्या से निपटने पर दे रही है। तभी तो चार आईएएस को सहयोग के लिए लगाया है, तभी तो उच्चाधिकारियों को दौरा कर समन्वय बैठाया जा रहा है।
-तेजवानी गिरधर
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