बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

बाइयों की एकजुटता अनूठी, पर कायम रखना कठिन


कांग्रेस कच्ची बस्ती प्रकोष्ठ की अध्यक्ष सुशीला चौधरी की पहल और दैनिक भास्कर के समर्थन से शहर में पहली बार पॉश कॉलोनियों के बंगलों में काम करने वाली बाइयों को एकजुट करने का अनूठा प्रयोग किया गया है। माकड़वाली रोड स्थित रामदेव नगर कच्ची बस्ती से शुरू हुआ आंदोलन वैशाली नगर, एलआईसी कॉलोनी, आनंद नगर तक पहुंच गया। राजीव कॉलोनी कच्ची बस्ती की काम वाली बाइयों ने भी बंगलों में काम-काज का बहिष्कार कर दिया। बाइयों के हितों के लिए किया गया यह प्रयोग कुछ हद तक सफल हुआ है, जिसका बाइयों को लाभ भी मिला है, मगर इसमें विसंगतियां भी हैं, जिन्हें अगर नहीं समझा गया तो इस प्रकार की एकजुटता ज्यादा समय तक टिक नहीं पाएगी।
असल में बंगलों में रहने वाले लोग इतने आराम पसंद हैं कि बाइयों के बिना उनकी जिंदगी अधूरी है। एक भी दिन बाई छुट्टी करती है तो घर की मालकिन के हाथ पांव फूल जाते हैं। बीवी के काम में मियां को भी हाथ बंटाना पड़ जाता है। जिन घरों में मियां-बीवी दोनों कमाते हैं, उनके यहां तो बाई के बिना काम ही नहीं चल सकता, क्योंकि उनके पास टाइम ही नहीं है। ऐसे में वे बाइयों की पगार बढ़ाने की मांग को पूरा करने को मजबूर हैं। कई ने तो पगार बढ़ा भी दी है। इससे उनके बजट पर कुछ खास असर भी नहीं पड़ा है, क्योंकि जितनी उनकी मासिक आय, उसकी तुलना में पगार में बढ़ोत्तरी कुछ भी नहीं, मगर परेशानी में वे आ गए हैं, जो मध्यम वर्ग के हैं। उन्हें ज्यादा परेशानी ये है कि इस प्रकार यदि बाइयों की एकजुटता रही तो आगे फिर बढ़ोतरी की मार झेलनी होगी।
बेशक एक ओर जहां संगठित क्षेत्र के मजदूरों को ही एकजुट करना कठिन होता है, ऐसे में असंगठित क्षेत्र के ऐसे मजदूर, जो कि पार्ट टाइम काम करते हैं, उन्हें एकजुट करना वाकई तारीफ ए काबिल है। मेहतनतकश लोगों के हितों के मद्देनजर चलाया गया यह अभियान शाबाशी देने योग्य है, मगर आंदोलन के सूत्रधार व रणनीतिकारों को इसकी विसंगतियों की ओर भी ध्यान देना चाहिए, वरना आगे चल कर यह दम भी तोड़ सकता है।
सबसे बड़ी समस्या तो ये है कि मेहनताने का फार्मूला क्या हो? हर घर में अलग किस्म का काम है, कहीं कम तो कहीं ज्यादा। हालांकि इसका फार्मूला फौरी तौर पर बनाया तो गया है मगर ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे पक्ष को कत्तई ख्याल नहीं रखा गया है। बाइयों से काम करवाने वालों का कहना है कि वे पहले से ही काम से ज्यादा पगार दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त मानवीय संवेदना रखते हुए काम वाली बाइयों की छुट्टियों का कोई हिसाब नहीं रखा जाता। कई बाइयां आए दिन किसी न किसी बहाने से छुट्टियां करती हैं, मगर उनके पैसे नहीं काटे जाते। साथ ही त्यौहार अथवा घर में कोई उत्सव होने पर कुछ न कुछ दिया करते हैं। वस्त्र इत्यादि का तो कोई हिसाब ही नहीं है। काम ठीक से न करने की शिकायतें तो आम हैं। कई जगह तो हालत ये है कि बाइयों ने काफी एडवांस ले रखा है, वे पुरानी पगार पर ही काम करने को मजबूर हैं। इन समस्याओं का समाधान तलाशना भी आंदोलन को हवा देने वालों की जिम्मेदारी बनती है। माना कि कुछ लोग पगार बढ़ाने को मजबूर हुए हैं, मगर कई ऐसे भी हैं, जिन्होंने बाइयों से यह कह दिया है कि काम पर आना है तो आ नहीं तो हिसाब कर ले। उन घरों से बाइयों का काम छूटा तो उन्हें काम कौन दिलवाएगा? अगर इस समस्या का समाधान नहीं हुआ तो आर्थिक तंगी के चलते बाइयां कम पगार पर ही काम करने को मजबूर हो जाएंगी। कुल मिला कर यह आंदोलन है भले ही अनूठा, मगर इससे जुड़ी समस्याओं का भी समुचित समाधान और दोनों पक्षों के बीच संतुलन भी जरूरी है, वरना अन्ना हजारे जैसे दिग्गजों के आंदोलन को टांय टांय फिस्स होते हुए हमने देखा है। (फोटो-दैनिक भास्कर से साभार)
-तेजवानी गिरधर