गुरुवार, 13 जून 2013

वक्त-वक्त का फेर है, इसी का नाम अजमेर है

हालांकि यह कहावत आम तौर पर अनेक शहरों में उनके शहरों के नाम के साथ प्रचलित हो सकती है, मगर अजमेर में तो खास तौर पर कही जाती है। निहितार्थ सिर्फ इतना कि आदमी कुछ नहीं होता, सब कुछ वक्त ही होता है। वक्त उसी आदमी को राजा तो उसी को रंक भी बना देता है। घड़ी की सुइयां अगर बारह बजाएं तो आदमी अर्श पर पहुंच जाता है और साढ़े छह बजें तो फर्श पर आ टिकता है। हालांकि कहावत इसके ठीक विपरीत बनी हुई है, वो यह कि जब किसी का बहुत बुरा हो जाता है तो कहते हैं उसकी तो बारह बज ही गई। अपुन को पता नहीं इस कहावत को कैसे गढ़ा गया।
खैर, बात मुद्दे की करें। चित्र में देख ही रहे हैं कि अजमेर के निलंबित एसपी राजेश मीणा और एएसपी लोकेश सोनवाल कैसी मुद्रा में खड़े हैं। कभी इन दोनों की इस शहर में तूती बोलती थी। अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाती थी। मगर जब वक्त बुरा आया तो इसी शहर में कोर्ट में ऐसी हालत में नजर आने लगे। यह फोटो शहर के जाने-माने फोटो जर्नलिस्ट महेश नटराज ने अपनी फेसबुक वाल पर लगाया है। ज्ञातव्य है कि थानों से मंथली वसूली के मामले में भ्रष्टाचार निरोधक मामले की विशेष अदालत में दोनों को पेश किया गया था।

भगत के मामले में भाजपा की चुप्पी के मायने?

लैंड फोर लैंड के मामले में रिश्वतखोरी की साजिश के मामले में एडीबी की जांच अभी लंबित है, मगर पहले ही दिन इस मामले में नगर सुधार न्यास के सदर नरेन शहाणी भगत से इस्तीफा मांगने वाली भाजपा की अब कायम चुप्पी पर हर किसी को अचरज हो रहा है। लोगों का मानना है कि भाजपा ने इस प्रकरण में महज औपचारिकता निभाई है, इसे भुनाने की कोशिश नहीं की। हालांकि सच ये भी है कि अगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भगत को हटाना ही होगा तो वे गुण-दोष, लाभ-हानि को देख कर ही कार्यवाही करवाएंगे, भाजपा के कहने से तो हटाने से रहे।
असल में भले ही एसीबी के अधिकारी भले ही ये कहें कि उसके पास साजिश के पर्याप्त सबूत हैं, मगर ट्रैप की कार्यवाही में विफल होने के बाद उसका मनोबल गिरा हुआ है। रही सही कसर जांच प्रक्रिया आगे बढऩे में हो रही देरी की वजह से पूरी हो गई और कई सवाल खड़े हो रहे हैं। चर्चाएं तो यहां तक हैं कि सरकार मामले को लंबा खींच कर ठंडा करना चाहती है, इसी कारण ब्यूरो के महानिदेशक अजीत सिंह छुट्टी पर चले गए, ताकि इसका कोई तोड़ निकाला जा सके। कहने वाले यह कहने से भी नहीं चूक रहे कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भगत के खिलाफ कार्यवाही की हरी झंडी देकर चुनावी साल में सिंधी मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहते। यहां यह बताना प्रासंगिक ही होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में नाराज हुए सिंधी मतदाताओं को राजी करने की खातिर ही भगत को न्यास अध्यक्ष बनाया गया था। अगर अब हटाया जाता है सिंधी मतदाता फिर नाराज हो सकते हैं, जिन्हें फिर कैसे राजी किया जाएगा, यह उनकी समझ से परे है।
खैर, बात भाजपा की। सरकार तो भले ही निहित हितों की वजह से ऐसा रवैया अपना सकती है, मगर भाजपा की चुप्पी दर्शाती है कि दाल में कुछ काला है। वरना भला कोई इतने हॉट कैक को यूं ही ठंडा क्यों होने देगा? जहां तक संगठनात्मक दृष्टि का सवाल है, शहर भाजपा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष व प्रवक्ता अरविंद यादव पर चूंकि अखबारबाजी का जिम्मा है, इस कारण उन्होंने तुरंत विरोध जताते हुए विज्ञप्ति जारी कर दी, मगर इसमें पूरी पार्टी व अध्यक्ष रासासिंह रावत ने कोई खास रुचि ली हो, ऐसा कहीं से लगता नहीं है। इसकी एक प्रमुख वजह ये भी रही हो सकती है कि पिछले दिनों हुए नियमनों का लाभ भाजपा से जुड़े लोगों ने भी उठाए हैं। अगर वे ज्यादा हांगामा करते हैं तो गढ़े मुर्दे उखड़ सकते हैं। रहा सवाल अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी का तो उन्होंने भी पहले दिन औपचारिक रूप से लंबी विज्ञप्ति जारी कर दी। समझा जाता है कि वे सीधे भगत पर हमला बोल कर अजमेर उत्तर के सिंधी मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहते। कहने की जरूरत नहीं है कि भगत की सिंधी समाज के खासी प्रतिष्ठा है और अगर उन पर व्यक्तिगत हमला अधिक होता है तो इसका खामियाजा देवनानी को चुनाव में उठाना पड़ सकता है, अगर पार्टी उन्हें अपना प्रत्याशी बनाती है तो। न्यास के मामलों में बढ़-चढ़ कर हमले बोलने वाली अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल की चुप्पी के पीछे भी यही वजह समझ में आती है। अगर उन्हें पार्टी फिर प्रत्याशी बनाती है तो जीतने के लिए सिंधी वोटों की जरूरत होगी और उन्हें वे भगत पर व्यक्तिगत हमला कर नहीं खोना चाहेंगी। इस मामले में सर्वाधिक रुचि लेने वाले न्यास के पूर्व सदर और वरिष्ठ भाजपा नेता धर्मेश जैन ने भी पहले दिन दमदार तरीके से इस्तीफे की मांग की, क्योंकि चंद दिन पहले ही उन्होंने न्यास में व्याप्त भ्रष्टाचार पर संवाददाता सम्मेलन बुलाया था और बिना सबूत के ही भगत पर आरोपों की अतिरंजना की थी। हालांकि बाद में जब एसीबी की कार्यवाही हुई तो उनके आरोपों को संबल मिला। मगर बाद में वे भी चुप हो गए। उनकी चुप्पी की वजह समझ में नहीं आती। ये खबर लिखे जाने पर प्रतिष्ठा की खातिर मुंह खोलें तो बात अलग है।
चलते-चलते आपको ये भी बता दें कि चर्चा ये भी है कि एसीबी के पास मौजूद रिकार्डिंग में चंद पत्रकारों की आवाज भी है, भले ही वे इस मामले में न हो। चूंकि भगत का मोबाइल सतत सर्विलांस पर था, इस कारण बीट रिपोर्टर्स की आवाज तो होनी ही है, मगर बताते हैं कि नियमन के कुछ मामलों में भी उनकी आवाज रिकार्डिंग पर आ गई है। कुछ नेताओं व अफसरों की आवाजें भी होनी संभावित हैं, क्योंकि काम तो उनसे संबंधित लोगों के भी हुए ही हैं। यह बात दीगर है कि एसीबी को मतलब केवल ताजा मामले से है, ऐसे में वह इन आवाजों को कांट-छांट कर अलग कर देगी। वे तभी काम आएंगी, अगर ताजा प्रकरण के अतिरिक्त अन्य मामलों की भी जांच की जरूरत महसूस की जाती है।
-तेजवानी गिरधर