बुधवार, 2 नवंबर 2016

जमीअत के जलसे से सूफीवाद को कैसा खतरा?

जमीअत उलेमा-ए-हिंद के प्रस्तावित राष्ट्रीय जलसे के विरोध के कारण अटकी आयोजन की मंजूरी के बीच उसकी तैयारी भी चल रही है, लेकिन सवाल ये उठता है कि आखिर ये विरोध हो क्यों रहा है? इस आयोजन से सूफीवाद को खतरा क्यों है? हालांकि मूल रूप से ऑल इंडिया उलेमा मशायख बोर्ड इसका विरोध कर रहा है, मगर कुछ खादिम भी इसके साथ जुड़े हुए हैं, अलबत्ता पूरी खुद्दाम जमात और आम मुसलमान कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं।
जहां तक महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से जुड़े चंद सूफी मतावलंबियों के तर्क का सवाल है, वो तो पूरी तरह से बेदम नजर आता है। बताया जा रहा है कि दरगाह से जुड़े कुछ प्रतिनिधि ये तर्क दे रहे हैं कि चूंकि जमीअत की विचारधारा ख्वाजा साहब के सूफीवाद से अलग है, वे दरगाहों व खानकाहों को नहीं मानते, इस कारण जमीयत की विचारधारा वालों को अजमेर में अधिवेशन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
सवाल ये उठता है कि क्या पूरा अजमेर सूफीवाद को मानता है? अगर मानता भी है तो क्या किसी और विचारधारा वालों को यहां आने पर आप उन्हें रोकेंगे? क्या अजमेर के सारे मुसलमान केवल सूफीवाद को ही मानते हैं? क्या अजमेर में दरगाहों व खानकाहों को नहीं मानने वाले नहीं रहते हैं? क्या केवल विचारधारा भिन्न होने के आधार पर आप किसी और विधारधारा वाले को कोई जलसा नहीं करने देंगे? क्या जिस प्रकार जमीयत के जलसे का जिस तर्क के आधार पर विरोध किया जा रहा है, ठीक उसी प्रकार हिंदूवादी विचारधारा वाले संगठनों का कोई सम्मेलन हो तो वे उसका भी उसी तर्क के आधार पर विरोध करेंगे? क्या सूफीवाद इतना कमजोर है कि किसी और विधारधारा वाले अजमेर में जलसा करेंगे तो वह प्रभावित होगा? यानि कि जहां तक तर्क का सवाल है, वह बिलकुल लचर है।
दरअसल सूफीवाद के जो पैरोकार इस जलसे का विरोध कर रहे हैं, वे खुद ही सूफीवाद से नावाकिफ लगते हैं। सूफीवाद अपने आप में सभी धर्मों को समान तवज्जो देने के जीवन दर्शन पर टिका है। उसकी शिक्षाएं किसी भी धर्म के विरोध की बात नहीं करतीं। उलटे सभी को अपने में समाने की क्षमता रखती हैं। तभी तो ख्वाजा साहब के दर पर हर मजहब का आदमी आता है। कदाचित मुसलमानों से भी ज्यादा हिंदू जायरीन यहां आते हैं। जब पूरी तरह से भिन्न जीवन पद्धति को मानने वालों का यहां स्वागत है तो विशुद्ध मुसलमान का विरोध क्यों कर होना चाहिए?
कैसी विडंबना है। जिस हिंदू बहुल शहर में सूफीवाद को कोई खतरा नहीं है तो इस्लाम को मूल रूप में मानने वाले मुस्लिमों से क्या खतरा है? आखिरकार सूफीवाद इस्लाम से ही तो निकला है। यदि आसान शब्दों में कहें तो उदार और सभी मान्यताओं को अपने में समाने वाला पंथ है सूफीवाद। वस्तुत: आम मुस्लिम और सूफी में मोटा फर्क ये है कि मुस्लिम धर्म को मूल रूप में मानने वाले बुतपरस्ती व किसी मजार पर सजदा करने के खिलाफ हैं। वे केवल खुदा के आगे ही झुकते हैं और मोहम्मद साहब को उनका पेगम्बर मानते हैं, जबकि सूफी खुदा में अकीदा रखते हुए मस्जिद के अतिरिक्त दरगाहों में भी इबादत करते हैं। सूफी परंपरा में ख्वाजा साहब का मुकाम सबसे ऊंचा है, जिनकी बारगाह में आ कर हर धर्म का आदमी रूहानी सुकून पाता है।
खैर, होना तो यह चाहिए कि सूफी मत करे मानने वाले जमीअत का इस्तकबाल करें, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि भले ही चंद खादिमों में विरोध के लिए साथ रखा गया है, मगर लड़ाई वर्चस्व की है। ऑल इंडिया उलेमा मशायख बोर्ड नहीं चाहता कि जमीअत का प्रभाव बढ़े। पिछले दिनों बोर्ड ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने जलसे में बुलवाया था। वैसे बताया जाता है कि जमीअत के नेता भी काफी प्रभाव रखते हैं और जलसे की सशर्त मंजूरी के लिए पूरा दबाव बनाए हुए हैं।
-तेजवानी गिरधर
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