रविवार, 30 जनवरी 2011

रासासिंह ही होंगे शहर भाजपा अध्यक्ष !


सुविज्ञ सूत्रों से पता लगा है कि काफी विचार-विमर्श और दावों-प्रतिदावों के बाद आखिरकार पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत को ही शहर भाजपा अध्यक्ष पद के काबिल माना गया है और उनकी नियुक्ति की घोषणा होना मात्र शेष रह गया है।
यहां उल्लेखनीय है कि आखिरी दौर में हालांकि प्रो. बी. पी. सारस्वत कुर्सी के काफी करीब पहुंच गए थे, संघ का भी पूरा सहयोग मिल रहा था, लेकिन विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी सहित अन्य महत्वपूर्ण नेताओं की ओर से प्रो. सारस्वत के नाम पर सहमति नहीं देने पर पार्टी ने अब लगभग तय सा कर दिया है कि प्रो. रावत को अध्यक्ष बना दिया जाए। प्रो. सारस्वत को तो फिर भी कभी और मौका दिया जा सकता है, लेकिन पांच बार सांसद रहे प्रो. रावत को पार्टी आइसोलेटेड नहीं होने देना चाहती। यदि अभी उन्हें कोई ढंग का पद नहीं दिया गया तो इतने अनुभवी नेता की राजनीतिक हत्या हो जाएगी। इससे भी अहम बात ये है कि उनके नाम पर भले ही कार्यकर्ताओं में कोई उत्साह न हो, मगर एक भी नेता उनके खिलाफ नहीं है। एक महत्वपूर्ण पहलु ये माना भी जा रहा है कि प्रो. रावत को अध्यक्ष बनाने से संगठन के मौजूदा ढ़ांचे में कोई बहुत ज्यादा उठापटक नहीं होगी, जब कि प्रो. सारस्वत के आने से पार्टी में भले नई जान आ जाए, लेकिन कई नेता उनको हजम नहीं कर पाएंगे, जिससे परेशानियां ही बढ़ेंगी।

बजाड़ का भिड़ते ही हो गया कबाड़

अजमेर जिला परिषद सदस्य के लिए हुए चुनाव में, जैसी कि आशंका थी, कांग्रेस के प्रत्याशी सौरभ बजाड़ को अपनी ही पार्टी के लोगों का सहयोग नहीं मिला और राजनीति की पहली सीढ़ी पर ही उनका कबाड़ कर दिया गया है। असल में कांग्रेस प्रत्याशी होने के कारण शुरू में तो मौटे तौर पर यही माना जा रहा था कि उनको केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट का आशीर्वाद हासिल है और इसी कारण इस चुनाव को पायलट व युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई के रूप में देखा जा रहा था, मगर कांग्रेस के अंदरखाने में चर्चा यही चर्चा बनी रही कि उन्होंने सचिन से आशीर्वाद हासिल नहीं किया है। पायलट की छोड़ो, बजाड़ के हारने के बाद तो अब यह भी कहा जाने लगा है कि उन्हें नसीराबाद विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर व वरिष्ठ एडवोकेट हरिसिंह गुर्जर का भी पूरा सहयोग नहीं मिला है। इसके पीछे तर्क ये दिया जा रहा है कि वे यह नहीं चाहते थे कि बजाड़ जीतने के बाद उनके लिए सिरदर्द बनें। वैसे भी बजाड़ जिस तरीके से शॉर्टकट से राजनीति में आए, वह अन्य गुर्जर नेताओं को रास नहीं आ रहा था। सच्ची बात तो ये है कि सचिन पायलट के अजमेर पदार्पण से पहले बजाड़ के नाम का कहीं अता-पता नहीं था। जैसे ही सचिन के नजदीक आए तो पहचान बनी और उनकी राजनीतिक गाडी भी चलने लगी। बाद में जब सचिन को पता लगा कि उनके नाम से अनेक स्थानीय नेता उनकी फ्रेंचाइजी चला रहे हैं तो उन्होंने सावधानी बरतना शुरू कर दिया। बहरहाल, इस चुनाव परिणाम से यह लगभग साबित हो गया है कि बजाड़ को आशीर्वाद हासिल ही नहीं था। वे तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सी. पी. जोशी की सिफारिश पर टिकट ले कर आए थे।
जहां तक भाजपा के ओमप्रकाश भडाणा का सवाल है, उनके जीतने से युवा भाजपा नेता भंवरसिंह पलाड़ा का पलड़ा और भारी हो गया है। हालांकि इससे जिला प्रमुख पद पर काबिज उनकी पत्नी श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के संख्यात्मक समीकरण पर कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है, मगर इससे यह तो साबित हो ही गया है कि पलाड़ा की स्थानीय राजनीति पर पकड़ और मजबूत होती जा रही है। वैसे भडाणा को गुर्जर आरक्षण आंदोलन में अग्रणी भूमिका अदा करने का भी लाभ मिला है। ऐसा प्रतीत होता है कि आठ हजार गुर्जर मतदाताओं में अधिसंख्य गुर्जरों के वोट हासिल करने में वे कामयाब हो गए हैं, वरना हार-जीत का अंतर ज्यादा नहीं होता। इसके अतिरिक्त भडाणा जहां जमीन से जुड़े हुए हैं, वहीं बजाड़ थोड़ा हाई प्रोफाइल ही चल रहे थे।

पत्रकार तेजवानी जिला स्तर पर सम्मानित


अजमेर। वरिष्ठ पत्रकार गिरधर तेजवानी को बुधवार, 26 जनवरी को पटेल मैदान में आयोजित जिला स्तरीय गणतंत्र दिवस समारोह में राज्य की पर्यटन मंत्री श्रीमती बीना काक ने सम्मानित किया। उन्हें यह सम्मान अजमेर के इतिहास, वर्तमान व भविष्य पर लिखित शोध परक पुस्तक अजमेर एट ए ग्लांस को उनकी उपलब्धि और अजमेर के लिए किए गए उल्लेखनीय योगदान के रूप में मानते हुए दिया गया है।
तेजवानी लम्बे अरसे से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं और उन्होंने दैनिक भास्कर सहित अनेक समाचार पत्रों में संपादन का काम किया है और अब भी संपादन व लेखन का कार्य जारी रखे हुए हैं। हाल ही उन्होंने अजमेर एट ए ग्लांस नामक पुस्तक का लेखन किया है, जिसे अगर अजमेर के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वस्तुत: प्रख्यात इतिहासकार कर्नल टॉड व हरविलास शारदा की अजमेर के इतिहास पर लिखित पुस्तकों के बाद अजमेर एट ए ग्लांस एक ऐसी पुस्तक है, जिसमें न केवल अजमेर का इतिहास, अपितु वर्तमान संदर्भों का विस्तृत वर्णन है।
असल में अजमेर में अरसे से एक ऐसी पुस्तक की जरूरत महसूस की जा रही थी, जिसमें न केवल जिले की समग्र महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारियां हों, अपितु नवीनतन सूचनाओं के साथ पूरे राजनीतिक, प्रशासनिक व सामाजिक ढ़ांचे के तथ्य संग्रहित हों। पुस्तक के अंतर्गत जिले की ऐतिहासिक व पुरातात्विक पृष्ठभूमि, उठापटक भरे इतिहास की गवाह तिथियां, वैभवशाली संस्कृति, समस्त पर्यटन स्थल, आजादी के आंदोलन में अजमेर की भूमिका, सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थिति के महत्वपूर्ण तथ्यों के अतिरिक्त महत्वपूर्ण सरकारी विभागों, गैर सरकारी संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं और राजनीतिक, धार्मिक व सामाजिक शख्सियतों के बारे में जानकारी दी गई है। इतना ही नहीं अजमेर के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि एक पुस्तक का विमोचन समारोह अजमेर की बहबूदी पर चिंतन का यज्ञ बन गया, जिसमें अपनी आहूति देने को भिन्न राजनीतिक विचारधारों के दिग्गज प्रतिनिधि एक मंच पर आ गए। यह न केवल राजनीतिकों, बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों व गणमान्य नागरिकों एक संगम बना, अपितु अजमेर के विकास के लिए समवेत स्वरों में प्रतिबद्धता भी जाहिर की गई। पहली बार एक ही मंच पर अजमेर में कांग्रेस के दिग्गज केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट व दिग्गज भाजपा नेता पूर्व सांसद औंकारसिंह लखावत, प्रो. रासासिंह रावत, पूर्व उप मंत्री ललित भाटी और नगर निगम महापौर कमल बाकोलिया एकत्रित हुए और इस पुस्तक को अत्यंत उपयोगी व स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने वाला प्रयास बताया। वस्तुत: यह पुस्तक इतिहास के शोधार्थियों, स्कूल के विद्यार्थियों, आम नागरिकों और पर्यटकों के लिए बेहद उपयोगी है।

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

भारत माता पूजन व काव्य गोश्ठी संपन्न


संस्कार भारती अजयमेरू पंचषील नगर सैक्टर विकास समिति के संयुक्त तत्वावधान में गणतन्त्र दिवस के अवसर पर भारत माता पूजन तथा काव्य गोश्ठी का आयोजन सैक्टर स्थित चाणकय विहार सामुदायिक भवन में सम्पन्न हुआ। प्रातःकाल समिति के वयोवृद्ध निवासी विलसन डेविड द्वारा ध्वाजारोहरण किया गया तथा राश्ट्रगान का गायन पंचषील नगर के निवासीयों द्वारा सामूहिक रूप से किया गया तत्पष्चात् भारत माता का पूजन विकास समिति के अध्यक्ष श्री ज्ञानचन्द पंवार संस्कार भारती के कार्यकारी अध्यक्ष श्री अरूणकान्त षर्मा के द्वारा दीप प्रज्ज्वलन के साथ प्रारम्भ हुआ। उपस्थित कालोनीवासीयों के द्वारा भारत माता के चित्र के समक्ष पुश्प अर्पित कर भारत माता की अर्चना की गई। इसके बाद डा.नवलकिषोर भाभड़ा की अध्यक्षता में काव्य गोश्ठी आरंभ हुई। काव्य गोश्ठी में श्री गजेन्द्रकुमार सरगरा ने मेर प्यारे वतन, मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान गीत प्रस्तुत कर वातावरण को देषभक्ति से ओतप्रोत किया तो संतोश टेवाणी ने अपनी रचना वह देष -देष क्या है, जिसमें लेते हो जन्म षहीद नहीं प्रस्तुत कर देषभक्ति के वातावरण को उंचाईयां प्रदान की. उमेष चौरसिया ने महंगाई पर व्यंग्य करते हुए आदमी बोना है और भाव बढ़ते जा रहे हैं तथा भ्रश्टाचार पर व्यंग्य करते हुए भ्रश्ट अफसर मदतस्त राजनेता धर्मान्ध पण्डितों के कांधों पर लदा यह भारत कितनी प्रगति करेगा प्रस्तुत कर उपस्थित श्रोताओं को भारत के विकास और भ्रश्टाचार को मिटाने पर सोचने के लिए विवष किया। काव्य गोश्ठी को अरूण कुमार सक्सैना के मां को मां का दर्जा देना ही होगा प्रस्तुत कर भावों विभोर कर दिया तो डा. सत्यनारायण षर्मा की रचना मां करते सब गुणगान, मां करते सब सम्मान के द्वारा श्रोताओं को गाय, मां और भारत मां की वन्दना करने के लिए सोचने हेतु विवष किया। सिंधी हिन्दी की वरिश्ठ रचनाकार डा. कमला गोकलाणी ने सिंधी में झुके जंहि धरतीअ ते आकास चूमे थे चरण संदसि सागर मुकदस मंदिर घर रचना प्रस्तुत कर तालियां बटोरी तो पुणे के वरिश्ठ कवि डा. गोवर्धन षर्मा घायल ने हर हिन्दवासी कोे इकरार बस यही करना है, इस देष की खातिर जीना और इस देष की खातिर मरना है, प्रस्तुति पर उपस्थित श्रोता झूम उठे। हरीष गोयल ने लाल चौक पर झण्डा फहराने के विशय को षब्द देते हुए हम देख रहे हैं बेबस वे फहराते हैं देषद्राही झंडा लाल चौक पर पढकर आज के समय पर करारा व्यंगय किया. गोश्ठी के अन्त में कालेज षिक्षा के सेवानिवष्त्त आयुक्त डा. नवल किषोर भाभड़ा ने गजल गलत किया जो किया एतबार मौसम का के साथ साथ मां भारती के वंदना करते हुए हमको अपने सपनों से भी प्यारा है, रंगबिरंगा हिन्दुस्तान हमारा है, कार्यक्रम को पूर्णता के षिखर तक पहुंचाया कार्यक्रम का संचालन संस्कार भारती चितौड़ प्रान्त महामंत्री सुरेष बबलाणी ने किया। विकास समिति पदाधिकारीयों एस.पी.माथुर,एम.एस.चौहान, दिनेष गुप्ता, विश्णुसिंह राठौड़, सुरेष गोयल, विष्वजीत माथुर ने आगंतुक अतिथियों को स्मृति चिन्ह प्रदान किए।

स्वतंत्रता सेनानियों से ऐसी तो उम्मीद नहीं थी

गणतंत्र दिवस पर पटेल मैदान में आयोजित जिला स्तरीय समारोह में स्वतंत्रता सेनानियों का सम्मान किए जाने के दौरान कतिपय स्वतंत्रता सेनानियों ने पर्यटन मंत्री श्रीमती बीना काक के सामने जिस प्रकार शॉल की क्वालिटी और उससे सर्दी नहीं रुकने को लेकर शिकायत की, उससे समारोह की गरिमा पर तो आंच आई ही, खुद स्वतंत्रता सेनानियों की महान मर्यादा भी भंग हुई। हालांकि स्वतंत्रता सेनानी आजाद भारत में खुली सांस ले रहे हम सब लोगों के लिए परम आदरणीय हैं। उनका अगर दिल दुखा है तो उसमें हम भी शरीक हैं, मगर एक अदद भौतिक वस्तु शॉल को लेकर ऐतराज करने से उनकी अपेक्षाकृत कुछ निम्न स्तरीय सोच ही उजागर हुई है, जो जिला प्रशासन को जलील करने की कोशिश मात्र ही कही जा सकती है।
कैसी विडंबना है कि आजादी के आंदोलन में देश की खातिर जिन महान लोगों ने घर-परिवार की खुशी का बलिदान कर दिया, वे सम्मान के लिए प्रतीकात्मक रूप में दी गई शॉल की क्वालिटी और उसकी कीमत पर आ कर अटक गए। सम्मान सम्मान ही होता है, उसकी कोई कीमत नहीं होती। या उसे किसी कीमती वस्तु से नहीं आंका जाता। महत्व भावना का है। रहा सवाल हमारी भावना का तो यह स्पष्ट है कि वे हमारे लिए अति सम्माननीय हैं और इसी खातिर जिला प्रशासन ने उनका सम्मान करवाने के लिए पर्यटन मंत्री के हाथों शॉल भेंट करवाई। उस भावना को उन्हें समझना चाहिए था। इतना तो तय है कि कम से कम दुर्भावनावश घटिया शॉल भेंट करने की तो जिला प्रशासन की सोच नहीं थी। फिर यदि शिकायत थी भी तो उसे बाद में कभी दर्ज करवा सकते थे। और कुछ नहीं तो कम से कम मौका तो देखना चाहिए था। गणतंत्र दिवस जैसे मर्यादित समारोह के हर्षोल्लासपूर्ण रंग में भंग डालने से पहले कम से कम एक बार मन ही मन पुनर्विचार तो करना ही चाहिए था।
असल में स्वाधीनता सेनानियों के बलिदान की तो कोई कीमत ही नहीं है। वे जब आंदोलन में शरीक हो रहे थे, तब उन्हें पता थोड़े था कि देश आजाद हो ही जाएगा और आजाद देश में उन्हें सम्मान के साथ देखा जाएगा। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि वे सम्मान पाने की खातिर थोड़े ही आंदोलन में शामिल हुए थे। जान हथेली पर रख कर आंदोलन में शरीक होने वालों को तो यह तक पता नहीं था कि वे जिंदा भी रहेंगे या शहीद हो जाएंगे। इसी से साबित होता है कि उनकी भावना और समर्पण कितना उच्च कोटि का था। वहां मौजूद एक स्वतंत्रता सेनानी शोभाराम गहरवार का यह कहना नि:संदेह उचित है कि स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों पर खेल कर देश को आजादी दिलवाई। उनका यह कर्ज सरकार सोने से तोल कर भी नहीं चुका सकती। ऐसी उच्च कोटि की भावना से लबरेज महानुभावों को अदद शॉल की क्वालिटी पर ऐतराज दर्ज करवाना शोभनीय तो नहीं रहा।

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

क्या भाजपा सहयोग करेगी बाबा रामदेव आहूत रैली को?

योग गुरू बाबा रामदेव महाराज के आह्वान पर आगामी 30 जनवरी को देश के सभी 624 जिला मुख्यालयों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली जाने वाली जनचेतना रैली को भाजपा और उससे जुड़े लोग सहयोग करेंगे अथवा नहीं, इस बात को लेकर संशय स्थिति बन गई है।
पतंजलि योग समिति एवं भारत स्वाभिमान ट्रस्ट जिला अजमेर के बैनर पर जनचेतना रैली की तैयारियां तो शुरू कर दी हैं, लेकिन इन संगठनों और बाबा रामदेव के प्रति आस्था रखने वाले लोगों में अधिसंख्य कार्यकर्ता किसी न किसी रूप में भाजपा व हिंदूवादी संगठनों से जुड़े हुए हैं, जो कि अभी असमंजस में हैं कि रैली को सहयोग किया जाए या नहीं। रहा आम आदमी का सवाल तो वह योग के मामले में भले ही बाबा के अनुयाई हों, राजनीतिक रूप से बाबा को सहयोग करेंगे ही, यह जरूरी नहीं है। बाबा रामदेव के संबंध चूंकि आर्य समाज से हैं, इस कारण उसका सहयोग तो मिल जाएगा, लेकिन अन्य सामाजिक संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं को, जो भाजपा से भी संबद्ध हैं, अभी ऊपर के आदेशों का इंतजार कर रहे हैं। यह एक संयोग ही है कि बाबा रामदेव से जुड़े अधिसंख्य लोग हिंदूवादी अथवा धार्मिक संगठनों के ही कार्यकर्ता हैं। उनमें संशय का एक बड़ा कारण है। यह सर्वविदित ही है कि बाबा रामदेव भ्रष्टाचार से मुक्ति, व्यवस्था परिवर्तन और विदेशों में जमा काला धन स्वदेश लाने के लिए यह घोषणा कर चुके हैं अथवा चेतावनी दे चुके हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में वे देश के सभी लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों से अपने प्रत्याशी खड़े करेंगे। मौजूदा रैली को उसी संदर्भ में जागृति लाने के मकसद से जुड़ा हुआ देखा जा रहा है। अगर रामदेव के प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरते हैं तो स्वाभाविक रूप से वे मुसलमानों व ईसाइयों की बजाय हिंदू और सात्विक किस्म के मतदाताओं को ज्यादा आकर्षित करेंगे। कम से कम कांग्रेस विचारधारा से जुड़े लोग तो उनका साथ देने वाले हैं नहीं। ऐसे में भाजपा को नुकसान हो सकता है। असल में जब तक बाबा रामदेव योग की बातें कर रहे थे, तब तक कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन जब से उन्होंने देश की चिंता करते हुए सक्रिय राजनीति में भी उतरने के संकेत दिए हैं, भाजपा में खलबली मची हुई है। एक हिसाब से देखा जाए तो रामदेव के प्रत्याशी उनके प्रत्याशियों के समानांतर खड़े हो कर नुकसान पहुंचाएंगे। हालांकि रामदेव के आदमी जीत कर आ ही जाएंगे, इसमें संशय है, लेकिन वोटों का कुछ नुकसान तो कर ही देंगे। यही वजह है कि ताजा रैली पर भाजपा की गहरी नजर है। अगर भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं को अंदर ही अंदर इशारा कर दिया कि इस रैली को सहयोग नहीं करना है तो रैली फीकी पडऩे की आशंका उत्पन्न हो सकती है। सिक्के का दूसरा पहलु ये भी है कि यदि बाबा रामदेव के प्रति आस्था के कारण रैली को सफल बनाने की खातिर कुछ भाजपाई शामिल हो भी गए तो इससे बाबा रामदेव भ्रम में पड़ जाएंगे, क्योंकि चुनाव के समय तो वे भाजपा के साथ बगावत नहीं करेंगे।
हालांकि यह सही है कि फिलहाल जो रैली निकाली जा रही है, वह विशुद्ध रूप से राजनीतिक नहीं है, लेकिन उसका उद्देश्य तो राजनीतिक ही है। कदाचित इस रैली के जरिए बाबा रामदेव अपनी ताकत को मापना चाहते हों। बहरहाल, भाजपा अथवा आरएसएस के सहयोग के बिना रैली कितनी सफल होगी, यह तो 30 जनवरी को उगने वाला सूरज की बताएगा।

परचा छपवाने वालों पर भी नजर है मुख्यमंत्री गहलोत की


शहर कांगे्रस के उपाध्यक्ष डॉ. सुरेश गर्ग की लिखित शिकायत और एक गुमनाम परचे को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार ने अजमेर की पंचशील कॉलोनी में दीप दर्शन सोसायटी के नाम नगर सुधार न्यास की ओर से आवंटित 63 बीघा जमीन का आवंटन व लीज को रद्द तो कर दिया है, लेकिन परचे का मामला अब भी गरमाया हुआ है।
वस्तुस्थिति ये बताई जा रही है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने डॉ. गर्ग के शिकायती पत्र पर ध्यान दिया हो अथवा नहीं, मगर परचे को जरूर गंभीरता से लिया। इसकी वजह ये है कि उसमें मुख्यमंत्री गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत का जिक्र है। गहलोत भ्रष्टाचार के मामले में विशेष सतर्कता बररते हैं और कभी नहीं चाहते कि उनके अथवा उनके पारिवारिक सदस्य की वजह से वे किसी भी स्तर पर बदनाम हों, इस कारण उन्होंने आवंटन रद्द करने संबंधी कई कानूनी अड़चनों को नजरअंदाज कर एक झटके में ही कड़ा निर्णय लेते हुए आवंटन रद्द कर दिया। ऐसा करके उन्होंने अपने आप को पूरी तरह से पाक साबित कर दिया है, लेकिन सुना है कि जैसे ही यह परचा गहलोत विरोधी लॉबी के हाथ आया है, उसने इस पर खेल करना शुरू कर दिया है। वे इस कोशिश में हैं कि मामला हाईकमान तक पहुंच जाए, ताकि गहलोत को डेमेज किया जा सके। हालांकि जिस तरह से परचे के गुमनाम होने और उसमें लिखे गए आरोप निराधार होने के बावजूद अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए गहलोत ने त्वरित कार्यवाही करते हुए अपने आप को बचा लिया है, लेकिन विरोधी फिर भी अपनी मुहिम में लगे हुए हैं।
बताया जाता है कि गहलोत इस प्रकार की हरकत को गंभीरता से ले रहे हैं। इन दिनों वैसे ही जमीन घोटालों को लेकर देशभर में माहौल बना हुआ है और बड़े-बड़ दिग्गज धराशायी हो रहे हैं। गहलोत को तकलीफ इस बात की है कि झगड़ा तो स्थानीय लोगों के बीच में था, जबकि उनके पुत्र को बेवजह घसीटा गया है। अत: उन्होंने विभिन्न सूत्रों से यह पता लगा लिया है कि यह परचा किसने छपवाया और किसने इसे वृहद स्तर पर बंटवाने की व्यवस्था की है। समझा जाता है कि इसमें शामिल लोग कांग्रेस से ही जुड़े हुए हैं और वे कोई न कोई राजनीतिक नियुक्ति पाने की लालसा में हाथ-पैर मार रहे हैं। गहलोत अब उनमें से किसी को भी कोई राजनीतिक लाभ देने वाले नहीं हैं। परचे से जुड़े लोगों को इस बात की तो खुशी है कि उनका असल मकसद कामयाब हो गया, मगर अतिरिक्त उत्साह में गहलोत के पुत्र का नाम भी शामिल करने की गलती का अहसास अब होने लगा है। जैसे ही उन्हें इसकी भनक पड़ी कि गहलोत इस हरकत को गंभीरता से ले रहे हैं, उन्होंने एक-दूसरे का नाम उस परचे से जोडऩे का षड्यंत्र शुरू कर दिया है। इसका परिणाम ये होना है कि काम भले ही किसी एक ने किया हो, मगर एक साथ कई लोग निपट जाएंगे।

खिसकता जा रहा है देवनानी का जनाधार

विधानसभा चुनाव में एकजुट हुए सिंधी समुदाय की बदौलत कांग्रेस के लोकप्रिय व दिग्गज नेता पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को हरा चुके प्रो. वासुदेव देवनानी जनाधार खोते जा रहे हैं। निगम चुनाव में अन्य वार्डों को छोड़ कर केवल देवनानी के निवास स्थान वाले इलाके की बात करें तो पूरे वार्ड के अधिसंख्य कट्टर भाजपाइयों ने देवनानी को मजा चखाने के लिए भाजपा प्रत्याशी तुलसी सोनी के धोळों में धूल डाल दी। इसका परिणाम ये रहा कि वहां निर्दलीय ज्ञान सारस्वत भारी मतों से जीत गए। पार्टी के लिहाज से कहने को भी भले ही इसे हल्के में लिया जाए कि पूरे विधानसभा क्षेत्र के एक वार्ड में यदि विपरीत परिणाम आ जाएं तो कोई खास बात नहीं है, मगर एक मंत्री रहे और दुबारा जीते विधायक देवनानी के लिए व्यक्तिगत रूप से यह काफी गंभीर नुकसान गिना गया।
हाल ही पंचायत चुनाव में हाथीखेड़ा गांव में संरपंच पद पर भाजपा खेमे के शंकरसिंह रावत की हार का ठीकरा भी देवनानी पर फूट गया है। हालांकि उस गांव और आसपास की कॉलोनियों के लोग जो आरोप लगा रहे हैं कि देवनानी के इशारे पर उनके करीबियों ने रावत को हराने मेंं अहम भूमिका अदा की है, वह सही है या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता, मगर इतना तय है कि जिन लोगों ने रावत को हरवाया, वे कहलाए देवनानी के ही खास जाते हैं। हो सकता है कि उन्होंने अपनी स्थानीय राजनीति के तहत ही रावत को हराया हो, मगर ठीकरा तो देवनानी के सिर फूट गया है। गांव के लोगों को इसका मलाल है कि विधानसभा चुनाव में उन्होंने देवनानी को पूरा समर्थन दिया, मगर उन्होंने ही खिलाफत करवा दी। उन्होंने यहां तक ऐलान कर दिया कि देवनानी को सबक सिखाने के लिए अब उस इलाके में भाजपा नेताओं को नहीं घुसने देंगे। अपने ही इलाके में भाजपा मानसिकता के वोटों का इस प्रकार खराब होना बेशक देवनानी के लिए घातक है। संयोग से सरपंच चुनाव में हारे रावत अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल के करीबी हैं, इस कारण मामला और भी खराब हो गया है। श्रीमती भदेल हाईकमान को शिकायत कर सकती हैं कि देवनानी इस प्रकार व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के लिए पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
रावत के हारने का देवनानी को भी भारी मलाल है, इस कारण बताया जाता है कि उन्होंने अपने करीबियों को खूब खरी-खोटी सुनाई कि क्यों ऐसी हरकतें करके उन्हें बदनाम करवा रहे हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि अगर ऐसे ही उनकी भद्द पिटवाते रहे तो वे अगला विधानसभा चुनाव लडऩे की स्थिति में ही नहीं रहेंगे।

भाजपा पार्षद पढऩे गए नमाज, गले पड़ गए रोजे

सामुदायिक भवनों के व्यावसायिक दुरुपयोग के खिलाफ जैसे ही नगर निगम महापौर कमल बाकोलिया नजरे टेढ़ी की हैं, भाजपा पार्षद उबल पड़े हैं। वे एकजुट हो कर गए तो थे महापौर पर दबाव बनाने, मगर उसमें कामयाब होने की बजाय उलटे दलाली का आरोप लेकर लौटे।
अजयनगर स्थित डीजे गार्डन को सील किए जाने के बाद जैसे ही पार्वती उद्यान का नंबर आया वहां के निवासी लामबंद हो गए। नगर निगम चुनाव में उस इलाके के दो वार्ड गंवा चुकी और विपक्ष में होने के बाद भी लंबे समय से चुप भाजपा को भी अपनी हैसियत व अपने परंपरागत वोट बैंक का ख्याल आया। और आव देखा न ताव, केवल ये एजेंडा ले कर बाकोलिया पर चढ़ गए कि उन्होंने यह कार्यवाही शुरू करने से पहले उनको विश्वास में क्यों नहीं लिया। वे यह तो कहने की स्थिति में थे कि नहीं कि सामुदायिक भवन को सील कैसे कर दिया, लेकिन चूंकि तकलीफ हुई तो बहाना बनाया विश्वास में न लेने का। असल में इसमें विश्वास में लेने जैसा कुछ था ही नहीं। यदि सामुदायिक भवनों का दुरुपयोग हो रहा था तो वह गैर कानूनी ही था। इस मामले में कार्यवाही जायज ही थी। इसमें किसी को जानकारी देने या फिर विश्वास में लेने जैसी कोई बात थी ही नहीं। सीधी कार्यवाही की ही दरकार थी। और यही वजह रही कि बाकोलिया ने भी बड़ी ही चतुराई से जवाब दिया कि चोरी होने पर सामने खड़े चोर को पहले पकड़ें या पुलिस को बुलाने जाएं। इस जवाब पर भाजपा पार्षदों की बोलती बंद हो गई।
यहां तक भी ठीक था कि वे अपनी बात रखने के लिए ज्ञापन देने गए थे और ज्ञापन दे भी दिया, मगर तकलीफ तब ज्यादा हुई, जब वहां पहले से मौजूद कांग्रेसी पार्षद भी उनके सामने हो गए। इस भिड़ंत में कांग्रेसियों ने जम कर खरी-खोटी सुनाई। उन्होंने तो जो आरोप लगाए, उससे भाजपाइयों की हालत रोजे गले पडऩे जैसी हो गई। कांग्रेस पार्षद नौरत गुर्जर ने तो खुल्लम खुल्ला आरोप लगाया कि सामुदायिक भवनों के मामले में भाजपा से जुड़े लोगों व पार्षदों ने दलाली खाई है। इसी कारण सामुदायिक भवनों के मामले में कार्यवाही करने पर पैरवी करने आ गए हैं। उन्होंने तो यहां तक कहा कि भाजपाइयों ने अब तक जो दलाली खाई है, उसकी वसूली होनी चाहिए।
बहरहाल, भाजपा के इस दबाव से बाकोलिया और सख्त हो गए हैं। कांग्रेस पार्षदों का भी कहना है कि मिशन अनुपम के तहत जो सामुदायिक भवन या पार्क दे रखे हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए और उन्हें किराये पर देने की नीति बनाई जाए। अब देखना ये है कि इस मामले में मुंह की खाए भाजपाई अगला कदम क्या उठाते हंै।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

क्या पायलट की नहीं है बजाड़ में रुचि?

अजमेर जिला परिषद सदस्य के लिए आगामी 28 जनवरी को होने जा रहे चुनाव में प्रत्यक्षत: यही नजर आता है कि कांग्रेस के प्रत्याशी सौरभ बजाड़ को केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट का आशीर्वाद हासिल है, पार्टी के नाते भी यही माना जा रहा है, मगर कांग्रेस के अंदरखाने में चर्चा है कि असलियत कुछ और है। बताते हैं कि हालांकि शुुरआत में जब पायलट अजमेर आए तो बजाड़ उनके काफी करीब आ गए थे। असल में बजाड़ को जाना ही तब से जाने लगा था। उनकी चवन्नी अठन्नी में चलने लगी। लेकिन बाद में बताते हैं कि स्थितियों में परिवर्तन आया है। असल में पायलट के नाम से अनेक स्थानीय नेताओं ने जब अपना सिक्का चलाना शुरू कर दिया तो उन्होंने सावधानी बरतना शुरू कर दिया, क्यों कि उनकी किसी भी करतूत का खामियाजा तो पायटल को ही भुगतना पड़ता। लिहाजा पायलट ने उनकी फ्रंैचाइजी ले कर घूमने वालों से दूरी बनाना शुरू कर दिया। असल बात तो ये है कि स्थानीय किसी भी नेता की पायलट से सीधी बात नहीं होती। हद से उनके पीए अथवा बॉडी गार्ड से ही संपर्क कर पाते हैं। बजाड़ के मामले में भी ऐसा ही बताया जा रहा है कि जितना वरदहस्त माना जा रहा है, उतना है नहीं। कांग्रेस में एक चर्चा और है, वो ये कि बजाड़ को टिकट पायलट की नहीं, बल्कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सी. पी. जोशी की सिफारिश पर मिला है। सच्चाई क्या है, अपुन को नहीं पता, मगर कांग्रेसी आपस में ऐसी चर्चा कर रहे हैं तो हो सकता है सच हो।
आखिर कब बंद होगा टे्रन की छत पर सफर?
ग्वालियर-उदयपुर इंटरसिटी एक्सप्रेस की छत पर सफर कर रहे कांस्टेबल भर्ती परीक्षा देने आए तीन अभ्यर्थियों की मौत से एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर टे्रन की छत पर सफर कब बंद होगा?
हालांकि यह बात सौ फीसदी सच है कि जिन युवकों की मौत हुई, वे अनुशासित कहे जाने वाले बेड़े में शामिल होने को आए थे, मगर उन सहित अन्य सभी युवकों का अनुशासन से कोई ताल्लुक नहीं था, इस कारण हादसा हुआ, मगर रेलवे अधिकारियों का रवैया भी पूरी तरह से गैर जिम्मेदारी भरा है। उनका कहना है कि परीक्षार्थियों को ट्रेन की छत से नीचे उतरने को कहा गया, तो वे जीआरपी सिपाहियों पर बोतलें व अन्य सामान फैंकने लगे। यदि जबरदस्ती की जाती तो वे उत्पात करते। बस इसी डर से टे्रन को रवाना कर दिया गया। इस जवाब से यह साफ जाहिर है कि रेलवे अधिकारियों ने समझते-बूझते हुए भी लापरवाही बरती। रहा सवाल उत्पात मचाने का तो यह भी स्पष्ट है कि अगर ट्रेन के अंदर जगह नहीं होगी तो यात्री मजबूरी में आखिर छत पर ही बैठेगा, क्योंकि उसे यह पता है कि इसके तुरंत बाद दूसरी टे्रन नहीं है। और दूसरी व्यवस्था किए बिना नीचे उतारा जाएगा तो उत्पात मचाएंगे ही। होना तो यह चाहिए था कि रेलवे अधिकारी पूर्व के अनुभवों से सबक लेते हुए परीक्षार्थियों की भीड़ के मद्देनजर अतिरिक्त ट्रेनों की व्यवस्था पहले से करते और पुलिस का भी अतिरिक्त जाप्ता तैनात करते। मगर ये दोनों ही उपाय नहीं किए गए और नतीजतन हादसा हो गया।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

डॉ. जयपाल से बाजी मार गए डॉ. सुरेश गर्ग

दीप दर्शन सोसायटी के नाम से नगर सुधार न्यास द्वारा पंचशील क्षेत्र में अवैध तरीके से आवंटित 63 बीघा जमीन के मामले को प्रत्क्षत: प्रेस कॉन्फ्रेंस करके पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल ने उछाला था, मगर सारी क्रेडिट ले गए शहर कांग्रेस के उपाध्यक्ष डॉ. सुरेश गर्ग। उल्लेखनीय है कि इस जमीन का आवंटन और लीज राज्य सरकार के आदेश पर रद्द कर दिया गया है और सोसायटी द्वारा जमा करवाई गई राशि को लौटाने के लिए प्रस्ताव बना कर भेजने को कहा है।
असल में इस मामले की शिकायत लिखित में डॉ. गर्ग ने पहले ही कर दी थी कि जमीन गलत तरीके से आवंटित की गई है, मगर उसको प्रेस में उजागर नहीं किया, इस कारण किसी को पता ही नहीं लगा। बाद में जब डॉ. राजकुमार जयपाल ने न्यास सचिव अश्फाक हुसैन को निशाना बनाते हुए दीप दर्शन सोसायटी का मामला उछाला तब जा कर मामला सबके सामने आया। हालांकि जयपाल ने यह तथ्य राज्य सरकार को भी भेज दिया था, मगर वह अभी प्रोसेस में आया ही नहीं कि इससे पहले ही डॉ. गर्ग के पत्र पर कार्यवाही हो गई। नतीजतन सारी क्रेडिट डॉ. गर्ग ही ले गए और उनकी बल्ले-बल्ले हो गई। हालांकि डॉ. जयपाल के पास अब भी कहने को ये तो है कि भले ही डॉ. गर्ग ने पत्र पहले ही लिख दिया, लेकिन उस पर कार्यवाही नहीं हो रही थी। जब उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके मामले को उजागर किया तो पत्र का वजन बढ़ गया और सरकार को मामले की गंभीरता समझ में आई और इसी कारण दबाव में आ कर निर्णय करना ही पड़ा। बहरहाल, इस मामले में भले ही डॉ. गर्ग ने बाजी मारी हो, मगर डॉ. जयपाल का असल मकसद तो पूरा हो ही गया। ऐसे में अब न्यास अधिकारी डॉ. गर्ग व डॉ. जयपाल, दोनों से ही घबरी खाएंगे और उनसे पंगा मोल लेने से पहले दस बार सोचेंगे कि जमीनों के मामलों में इतने जानकार लोगों से संभल कर रहना होगा।
रहा सवाल दीप दर्शन सोसायटी के अधिकृत प्रतिनिधि कमल शर्मा का, तो उनकी प्रतिक्रिया में भी दम है। उनका कहना है कि उनका पक्ष सुने बिना ही सरकार ने एक झटके में कार्यवाही कर दी, जो कि अनुचित है। वैसे भी उन्होंने कोई न्यास की जमीन पर अतिक्रमण थोड़े ही किया था। बाकायदा न्यास अधिकारियों की सहमति से ही नियमानुसार आबंटन करवाया था। आज यदि उसे नियम विरुद्ध कर उस आवंटन को रद्द किया जा रहा है तो कम से कम आवंटी का पक्ष तो सुना ही जाना चाहिए था। देखना ये है कि अब जब वे अपना पक्ष रखने को राज्य सरकार के समक्ष पेश होते हैं तो मामला कौन सी करवट बैठता है।
धर्मस्थलों का सर्वे कोरी खानापूर्ति ही तो है
बैठे-बैठे क्या करें, करना है कुछ काम। शुरू करो अंताक्षरी लेकर हरि का नाम। लगभग उसी तर्ज पर नगर निगम शहर में सडक़ों व सार्वजनिक स्थलों पर बने धर्मस्थलों को सर्वे कर रहा है। कहा यही जा रहा है कि सर्वे के साथ नए धर्मस्थल न बनें, इसकी जिम्मेदारी जमादार व सफाई निरीक्षकों को दी जा रही है और लापरवाही बरतने पर उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी, मगर होना जाना क्या है, सबको पता है।
सवाल ये उठता है कि सडक़ों पर यातायात में बाधक बने धर्म स्थलों का जब निर्माण हो रहा था, तब निगम का तंत्र क्या कर रहा था? क्या तब किसी को जिम्मेदारी सौंपी हुई नहीं थी कि वे अवैध निर्माण की सूचना तुरंत उच्चाधिकारियों को दें? क्या पहली बार जमादारों व सफाई निरीक्षकों पर जिम्मेदारी आयद की जा रही है? अब इस पर ध्यान दे रहे हैं कि सडक़ों पर धर्म स्थल न बनें, तो क्या पूर्व में इसकी छूट दे रखी थी, जो जगह-जगह कुकुरमुत्ते की तरह धर्म स्थल उग आए हैं? जाहिर सी बात है कि अवैध निर्माण के लिए कभी छूट नहीं दी हुई थी, मगर इस ओर ध्यान दिया ही नहीं गया। धर्म स्थल तो फिर भी आस्था के केन्द्र हैं, इस कारण आस्था की वजह से या फिर पंगा लेने से बचने के कारण उसको नोटिस नहीं लिया जाता था, मगर निगम के कर्मचारियों को अवैध दुकानें और कॉम्पलैक्स तक बनते हुए कभी नजर नहीं आए। आए भी तो उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। यदि रिपोर्ट हुई और शिकायत भी आई, तब भी अधिकारियों ने आंखें मूंद लीं।
रहा सवाल केन्द्र सरकार द्वारा सार्वजनिक स्थलों पर धर्म स्थल बनाए जाने के बारे में सन् 2008 में जारी कड़े निर्देश का तो उस पर ही अमल हो जाता तो स्थिति नहीं बिगड़ती। अब जा कर जो कवायद की जा रही है, उसका हश्र क्या होना है, कौन नहीं जानता? सर्वे तो आठ माह पहले भी हुआ था और यातायात में बाधक बने तकरीबन एक सौ धर्मस्थल चिह्नित किए गए थे, मगर उस पर कार्यवाही आज तक कुछ नहीं हुई। शहर में अनेक ऐसे धर्म स्थल हैं, जो यातायात व्यवस्था को चौपट कर रहे हैं, मगर शासन-प्रशासन में हिम्मत नहीं है कि उन्हें छेड़ सके। और जब इच्छा शक्ति ही नहीं है तो ऐसे बीसियों सर्वे करवा लो, मगर परिणाम तो ढ़ाक के तीन पात ही होना है। यानि कि यह सब केन्द्र व राज्य सरकार के निर्देशों की खानापूर्ति के तहत किया जा रहा है। असल में अंग्रेजों से हमने कुछ और सीखा हो, न सीखा हो, मगर खानापूर्ति करना जरूर सीख लिया। खानापूर्ति के तो हम माहिर हैं। जब-जब भी कोई हादसा होता है, हम खानापूर्ति शुरू कर देते हैं। जोधपुर और पाली में जहरीली शराब से हुई मौतों के बाद अजमेर में भी जो कार्यवाही की गई, वह खानापूर्ति नहीं तो क्या है? जोधपुर व पाली के हादसों के पहले भी अजमेर में कच्ची शराब की भट्टियां थीं, मगर जैसे ही ऊपर से डंडा पड़ा तो लगे उन्हें तोड़ कर खानापूर्ति करने।
असल में हम न केवल खानापूर्ति में माहिर हैं, अपितु लकीर के भी पक्के फकीर हैं। सार्वजनिक स्थलों पर बने धर्म स्थलों का तो सर्वे कर रहे हैं, मगर सरकारी परिसरों में बने धर्म स्थलों को फिर छोड़ दिए जा रहे हैं, चूंकि अभी उसके बारे में स्पष्ट निर्देश नहीं हैं। सवाल ये उठता है कि भले ही सरकारी परिसरों में बने धर्मस्थल यातायात में बाधक नहीं हैं, मगर हैं तो सार्वजनिक स्थल पर और अवैध ही। उनकी सुध कौन लेगा? उसकी सुध भी तभी लेंगे, जब कोई जनहित याचिका दायर करेगा और कोर्ट डंडा मारेगा। जब तक इस तरह की मानसिकता रहेगी, यूं ही सर्वे होते रहेंगे और यूं ही धार्मिक आस्था के ठीये आबाद होते रहेंगे।

कांटे की टक्कर है बजाड़ व भडाणा के बीच

जिला परिषद सदस्य के लिए आगामी 28 जनवरी को होने जा रहे चुनाव में कांग्रेस के सौरभ बजाड़ व भाजपा के ओमप्रकाश भडाणा के बीच कांटे की टक्कर है। बजाड़ को जहां कांग्रेस के सत्ता में होने व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के वरदहस्त का फायदा मिलता दिखता है तो भडाणा को जिला परिषद पर काबिज भाजपा बोर्ड व गुर्जर आरक्षण आंदोलन में अग्रणी भूमिका अदा करने का लाभ मिलने की उम्मीद है।
जहां तक व्यक्तिगत छवि का सवाल है, दोनों ही प्रत्याशी युवा और बेदाग हैं। दोनों के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है। ऐसे में नकारात्मक वोटिंग की कोई आशंका नहीं है। रहा सवाल दोनों के एक ही जाति गुर्जर से होने का तो तकरीबन आठ हजार गुर्जर मतदाताओं वाले इस वार्ड में प्रत्क्षत: गुर्जर आंदोलन में उग्र नेता के रूप में उभरने के कारण यह माना जा रहा है कि उन्हें गुर्जर समाज का भरपूर समर्थन मिलेगा, मगर वस्तुत: धरातल पर ठीक ऐसा ही नहीं है। भले ही कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व में आंदोलन सफल हुआ और भडाणा बैंसला के ही शागिर्द हैं, मगर समझौता होने के बाद स्थितियों में बदलाव आया है। अब बजाड़ भी यह कहने की स्थिति में हैं कि सचिन पायलट की वजह से समझौते की राह निकली, इस कारण उनके हाथ मजबूत करने के लिए उन्हें समर्थन दिया जाना चाहिए। आंदोलन के दौरान भले ही गुर्जर जाति के लोग सरकार के खिलाफ थे, मगर समझौते के बाद उनके लिए सचिन की अहमियत भी उतनी ही है, जितनी कि बैंसला की। कदाचित सचिन का महत्व इस कारण ज्यादा है क्योंकि वे आज सत्ता की गाडी पर सवार हैं और निजी तौर लाभ देने की स्थिति में हैं। अगर पायलट इसे व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से जोड़ कर घेराबंदी करेंगे तो बेशक गुर्जरों के वोट बजाड़ के खाते में दर्ज करवा पाने में सफल हो सकते हैं। वैसे भी गुर्जर आमतौर पर पंरपरागत रूप से कांग्रेसी ही माने जाते हैं।
अन्य जातियों में दस हजार मुस्लिम व चीता-मेहरात और दो हजार एससी-एसटी का परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ होने का लाभ बजाड़ को मिलेगा तो सात हजार रावत, चार हजार जाट और डेढ़-डेढ़ हजार ब्राह्मण, महाजन व राजपूतों को परंपरागत रूप से भाजपा के साथ होने का फायदा भडाणा उठा सकते हैं। गैर गुर्जर जातियों में आंकड़ों के लिहाज से भडाणा आगे नजर आते हैं, ऐसे में गुर्जर जाति के वोट निर्णायक स्थिति में हैं। जो प्रत्याशी गुर्जरों के वोट ज्यादा ले जाएगा, वह जीत के करीब आ जाएगा।
स्थानीय राजनीति के हिसाब से देखें तो बजाड़ को जहां प्रधान रामनाराण गुर्जर के साथ होने का लाभ मिल रहा है तो भडाणा को जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा के समर्थन का बड़ा संबल है।
एक फैक्टर और काम कर सकता है। वो ये कि अगर भडाणा ने बैंसला के नाम पर गुर्जरों को लामबंद करने की कोशिश की तो संभव है वे गुर्जरों का भावनात्मक लाभ उठा लें, मगर आंदोलन के दौरान गैर गुर्जरों में जनजीवन ठप होने की जो शिकायत रही, वह उन्हें नुकसान दे सकती है।
कुल मिला कर हार-जीत के समीकरण काफी उलझे हुए हैं और पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि जीत की ओर कौन अग्रसर है। प्रचार के मामले में दोनों ने एडी-चोटी का जोर लगा रखा है। ऐसे में फिलहाल यही कहा जा सकता है कि दोनों के बीच कांटे की टक्कर है।

शनिवार, 22 जनवरी 2011

समाधान नहीं है डीजे गार्डन जब्त करना

लंबे समय से नगर निगम अधिकारियों की मिलीभगत से व्यावसायिक रूप से चल रहे अजयनगर स्थित डीजे गार्डन के बारे में एक अखबार में जब खबर छपी तब जा कर महापौर कमल बाकोलिया को होश आया कि उसे जब्त किया जाना चाहिए, मगर यह कोई समाधान भी तो नहीं है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि निगम ने देर से यह जो कार्यवाही की है, वह सराहनीय ही कही जाएगी, मगर इसके साथ जुड़े अनेक सवालों के जवाब खुद निगम के पास ही नहीं हैं। अव्वल तो जब से मिशन अनुपम योजना के तहत इसकी सार-संभाल की जिम्मेदारी विजय केवलरामानी को दी गई, उसके बाद खुद निगम ने ही ध्यान नहीं दिया कि उस गार्डन में हो क्या रहा है? निगम तो केवलरामानी को जिम्मेदारी दे कर चैन की नींद सो गया। हां, उसके कुछ अधिकारी जरूर जागे, मगर स्वार्थपूर्ति की खातिर। उन्होंने केवलरामानी से हाथ मिला लिया। और इस प्रकार केवलरामानी ने तो उसका व्यावसायीकरण कर फायदा उठाया ही और निगम के अधिकारियों की भी मौज हो गई। मिंया-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी। ऐसा लंबे समय से चलता रहा। रहा सवाल उस गार्डन का समारोह स्थल के रूप में उपयोग करने वाले अजयनगर के निवासियों का तो उन्हें तो तुलनात्मक रूप से सस्ते में अपने ही इलाके में सुसज्जित और सुविधापूर्ण समारोह स्थल मिल रहा था, इस कारण उनके तो आपत्ति करने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। जब मामला उजागर किया गया तो महापौर को लगा कि कार्यवाही करनी चाहिए। उन्होंने उसे सील तो कर दिया, मगर उनके पास अब इस बात का कोई जवाब नहीं है कि इसका किया क्या जाएगा? सवाल ये भी है कि क्या वे वाकई जांच करवाएंगे कि किन-किन अधिकारियों की मिलीभगत से गार्डन का व्यावसायिक उपयोग किया जा रहा था? क्या जांच हो जाने के बाद उन अधिकारियों को दंडित करवाएंगे?
यह तो है सिक्के का एक पहलु। जरा दूसरे पहलु पर भी नजर डाल लेते हैं। अव्वल तो मिशन अनुपम योजना में ही कुछ गड़बड़ लगती है। सीधी सी बात है कि कोई क्यों बिना किसी स्वार्थ के निगम से ऐसे गार्डन लेकर उसकी सार-संभाल करेगा। यह निगम भी जानता है कि जो ऐसे गार्डन में पैसे लगाएगा, वह उसका उपयोग भी करेगा। और केवल एक बार पैसे लगाने का सवाल नहीं है। निरंतर मैंटिनेंस के पैसे तो कोई कुबेर भी नहीं देने वाला है। यह सीधा सा सच है, मगर निगम के अधिकारियों को यह मामूली सी बात समझ में नहीं आई। समझ में आई भी तो सरकारी योजनाओं में ऐसी खामी के बारे में सरकार को उसकी जानकारी देने की बजाय उन्होंने बीच की गली से उसका दुरुपयोग होने दिया, क्यों कि उनका भी पेट भर रहा था।
इसमें कोई संशय नहीं कि डीजे गार्डन का जिस प्रकार दुरुपयोग हो रहा था, वह निश्चित रूप से गैर कानूनी था, मगर उसे बंद देना भी कोई समाधान नहीं है। यह एक कटु सत्य है कि निगम उस पर ताला लगाने के बाद फिर घोड़े बेच कर सो जाएगा और वह गार्डन कुछ ही दिनों में उजाड़ हो जाएगा, जैसे कि उसके अन्य गार्डन बिना रखरखाव के कारण उजाड़ पड़े हैं। जो गार्डन उसने डीजे गार्डन की तरह मिशन अनुपम योजना के तहत सार-संभाल के लिए किसी को नहीं दे रखे हैं, उनकी दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। यानि न तो निगम खुद उनकी सार-संभाल करने को तैयार है और न ही किसी और के सार-संभाल करके कमा खाने पर राजी है। तो आखिर समाधान क्या है?
यह सब को पता है कि इसका एक समाधान पिछले भाजपा बोर्ड ने निकाला था और विजय लक्ष्मी पार्क को ठेके पर दिया था। आज वह समारोह स्थल के रूप में शानदार तरीके से सेवा दे रहा है। सरकारी और प्राइवेट कामकाज में कितना फर्क है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण वहीं पर देखा जा सकता है। विजयलक्ष्मी पार्क तो देखते ही बनता है और पास ही सटा हुआ आजाद पार्क उजाड़ पड़ा है। हालांकि विजय लक्ष्मी पार्क को ठेक पर दिए जाने को लेकर भी कानूनी फच्चर फंसाई जा चुकी हैं, मगर वह उसके कथित रूप से गलत तरीके से ठेके पर देने की वजह से है।
बहरहाल, डीजे गार्डन का मामला उजागर होने के बाद अब निगम को यह विचार करना ही होगा कि उसे अपने गार्डनों की देखभाल के लिए आखिर करना क्या चाहिए?

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

पोखरणा भी टॉप के दावेदारों में शामिल

अजमेर नगर सुधार न्यास के सदर पद के लिए चल रही दौड़ में अब तक तो नरेन शहाणी भगत, दीपक हासानी, डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व महेन्द्र सिंह रलावता के नाम ही प्रमुख रूप से उभर कर आए थे, मगर अब एक ऐसे दावेदार का नाम भी प्रमुखता से लिया जा रहा है, जिसकी अब तक कोई चर्चा ही नहीं हुई है। कदाचित राजनीति में भी यह नाम नया ही है।
महाशय का नाम है मुकेश पोखरणा, और वे वरिष्ठ कांग्रेस नेता ज्ञानचंद पोखरणा के पुत्र हैं। अन्य दावेदार चूंकि जाने-पहचाने हैं, इस कारण उनकी गतिविधियों पर प्रेस की नजर है और कौन कहां गया, किससे मिला, किससे पैरवी करवा रहा है, किस पर किसका हाथ है आदि सब कुछ पता लग रहा है, मगर पोखरणा गुपचुप तरीके से ही कवायद कर रहे हैं। जैसा कि सुनाई दिया है, इस पद से पार्टी की ठीक से सेवा करने वाले को ही नवाजा जाएगा, उस पहलु पर भी वे खरे उतरते हैं। उनका फाइनेंस का ही काम है, इस कारण साधन संपन्न हैं। केवल संपन्नता ही नहीं है, अपितु समर्पण भाव भी है। इसके अतिरिक्त एक और फैक्टर में भी वे फिट बैठ रहे हैं। जैसा कि अनुमान है, सरकार सिंधी या वणिक वर्ग में से किसी पर हाथ रखने वाली है, वे वणिक वर्ग से हैं। यूं भी सरकार के पास वणिक वर्ग से मुख्य रूप से केवल पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का नाम है। उनके बारे में यह साफ है कि वे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की पहली पसंद हैं, मगर एक किंतु यह जुड़ा हुआ है कि क्या वे पिछले विधानसभा चुनाव में हार चुके प्रत्याशी को राजनीतिक नियुक्ति देने की रिस्क उठाएंगे? वणिक वर्ग से यूं डॉ. सुरेश गर्ग ने भी गुपचुप खूब पापड़ बेल रखे हैं, मगर वे लो प्रोफाइल में चल रहे हैं, इस कारण उनकी गिनती टॉप के दोवदारों में की नहीं जा रही। शायद उनकी जिद केवल इसी पद की नहीं है, वे कोई और पद भी मिल गया तो राजी हो जाएंगे। ऐसे में भगत व रलावता के नाम ही मेरिट पर माने जा रहे हैं। रहा सवाल हासानी का तो वे चूंकि मुख्यमंत्री गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत के दोस्त हैं और उन्होंने एडी-चोटी का जोर लगा रखा है, इस कारण वे भी मेरिट पर आ गए। संपन्नता के मामले में तीनों अव्वल हैं। मूल रूप से डॉ. बाहेती सहित इन्हीं तीनों के बीच प्रतिस्पद्र्धा है। केवल प्रतिस्पद्र्धा ही नहीं, बल्कि पूरी टांग खिंचाई है। बाकायदा एक-दूसरे के खिलाफ पुलिंदे के पुलिंदे भेजे जा रहे हैं। गढ़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं। जिसके हाथ जो मामला लग रहा है, वह तुरंत ऊपर भिजवा रहा है। इस राजनीतिक घमासान के बीच पोखरणा चुपचाप अपने काम पर लगे हुए हैं। उन्होंने इसमें भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई कि उनका नाम अखबारों में दावेदारों के रूप में आए। इसी कारण मीडिया से दूरी भी बना रखी है। जानते हैं कि जैसे ही नाम आया तो उनकी भी कारसेवा हो जाएगी। बताते हैं कि उन्होंने सरकार में दूसरे नंबर पर विराजमान शांति धारीवाल के जरिए पूरी ताकत लगा रखी है। उन्होंने राजगढ़ वाले चंपालाल जी महाराज से आशीर्वाद हासिल करने के बाद तो अपनी नियुक्ति पक्की ही मान रखी है। मगर पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है। इस नए नाम के सामने आने पर भले ही किसी को यकायक विश्वास न हो, मगर यदि उनकी नियुक्ति हो जाए तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।