बुधवार, 13 सितंबर 2017

रावत समाज ने ठोकी ताल, भाजपा की बढ़ी मुसीबत

अजमेर जिले के रावत समाज ने आगामी नवंबर-दिसंबर में अजमेर संसदीय क्षेत्र के संभावित चुनाव के लिए ताल ठोक दी है। समाज किसी रावत को टिकट देने की मांग कर रहा है। भाजपा के लिए यह मुसीबत का सबब है। वह इस चुनौती से कैसे निपटेगी, यह आने वाला वक्त ही बताएगा।
असल में भाजपा की लगभग मजबूरी सी है कि वह किसी जाट को ही टिकट दे। एक तो इस वजह से कि यह सीट प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई है, दूसरा ये कि अजमेर संसदीय क्षेत्र अब जाट बहुल माना जाता है। हालांकि रावत मतदाताओं की संख्या भी कम नहीं है, जिनका रुझान भाजपा की ओर रहता आया है। ज्ञातव्य है कि पांच बार लोकसभा का चुनाव प्रो. रासासिंह रावत ने समाज के वोटों के दम पर ही जीता था। हर एक चुनाव को छोड़ कर पांच बार अस्सी से नब्बे प्रतिशत मतदान करने वाले रावतों और पार्टी के जनाधार वाले वोटों के योग से प्रो. रावत को जीतने में दिक्कत नहीं होती थी। केवल एक बार डॉ. प्रभा ठाकुर उन्हें हरा पाई, वो भी इसलिए कि उन्होंने भाजपा के राजपूत वोट बैंक में सेंध मारी थी। खैर, रासासिंह रावत का अवसान तब जा कर हुआ, जब परिसीमन में इस संसदीय क्षेत्र का रावत बहुल इलाका मगरा कट गया। अकेले इसी वजह से भाजपा ने प्रो. रावत को टिकट नहीं दिया गया। उनके स्थान पर भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती किरण माहेश्वरी को लाया गया और वे मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट से हार गईं। इसके बाद में हुए चुनाव में भाजपा ने प्रो. जाट पर दाव खेला और जाटों की बहुलता व विशेष रूप से मोदी लहर के कारण वह प्रयोग सफल रहा। लहर इतनी प्रचंड थी कि लोग सचिन पायलट के कराए गए कामों को ही भूल बैठे। अब जबकि प्रो. जाट का निधन हो गया है, ऐसे में भाजपा पर दबाव है कि वह किसी जाट को और विशेष रूप से प्रो. जाट के परिवार से किसी को टिकट दे। हालांकि प्रो. रावत के पांच बार सांसद बनने से रावत भाजपा मानसिकता के ही माने जाते हैं, मगर जिस प्रकार उन्होंने ताल ठोकी है, वह भाजपा के लिए चिंता का कारण है। एक ओर वह किसी गैर जाट को टिकट दे कर जाटों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहेगी, दूसरी ओर वर्षों से कायम अपने रावत वोट बैंक को भी नहीं खोना चाहेगी। ऐसा नहीं है कि रावतों का जिले में प्रतिनिधित्व नहीं है। पुष्कर के विधायक सुरेश रावत हैं। इसके अतिरिक्त संसदीय क्षेत्र से ही सटे और जिले के ब्यावर से भी शंकर सिंह रावत विधायक हैं। ऐसे में रावतों का टिकट के लिए अडऩा अटपटा है, मगर लोकतंत्र में कुछ न कुछ हासिल करने के लिए समाज अड़ते ही हैं। अब देखना ये होगा कि भाजपा रावतों के कितने दबाव में आती है।
रहा कांग्रेस का सवाल तो उसके लिए रावत एक बेहतरीन कार्ड के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। गुर्जरों, अनुसूचित जाति व मुस्लिमों के वोट तो बहुतायत में कांग्रेस को मिलने ही हैं। कांग्रेस के पास एक और कार्ड राजपूतों का भी है। वे भी भाजपा मानसिकता के माने जाते हैं, मगर कुख्यात आनंदपाल मामले के बाद भाजपा से रुष्ठ हैं। ऐसे में कांग्रेस राजपूत कार्ड भी खेल सकती है, जो कि एक बार प्रभा ठाकुर के रूप में सफल हो चुका है।  इस लिहाज से कांग्रेस सुविधानजक स्थिति में है। उसके पास बहुत विकल्प हैं। गुर्जर कार्ड के अतिरिक्त वह किसी दिग्गज जाट को भी मैदान में उतार सकती है। इस सिलसिले में राजस्थान के दिग्गज जाट नेता स्वर्गीय परसराम मदेरणा की पोती दिव्या मदेरणा का नाम चर्चा में आया है। बहरहाल, जैसे जैसे चुनाव नजदीक आएंगे कई नाम उभरेंगे व डूबेंगे। प्रत्याशियों का फैसला नामांकन पत्र भरने की तिथी से एक-दो दिन पहले ही हो पाएगा। तब तक चर्चाओं की जुगाली चलती रहेगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

टंडन साहब, क्या अनादि सरस्वती जी को चुनाव लड़वा कर ही मानोगे?

लंबी चुप्पी के बाद साध्वी अनादि सरस्वती एक बार फिर चर्चा में हैं। राजनीति के पंडित एडवोकेट राजेश टंडन ने फिर उनका नाम उछाला है। वे गईं तो थीं अविनाश माहेश्वरी स्कूल में आयोजित अश्विनी कुमार जी के सुंदरकांड पाठ में शिरकत करने और टंडन साहब ने उनका फोटो फेसबुक पर यह कह कर चिपका दिया कि वे अजमेर उत्तर से भाजपा की भावी विधायक हैं। यूं फोटो तो खुद अनादि जी ने भी शाया किया है, मगर उसका मकसद महज इतना सा दिखता है, जितना आम तौर पर फेसबुकियों का अपनी दिनचर्या को सार्वजनिक करने का होता है। इसमें कुछ खास बुराई भी नहीं है, क्योंकि इस बहाने व्यक्ति अपने समर्थकों या मित्रों के बीच लाइव रहता है। मगर टंडन साहब को इसमें भी कुछ खास अर्थ दिखाई दिया। उन्हें लग रहा है कि अनादि सरस्वती इस प्रकार हर सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक कार्यक्रम में शिरकत कर अपना जनाधार बढ़ा रही हैं।
अगर ये मान भी लिया जाए कि टंडन साहब का इशारा कपोल कल्पित है या अनादि सरस्वती ने भी कभी इस दिशा में सोचा तक न हो, मगर कानाफूसियों के बाजार में चर्चा तो हो ही रही है। बहरहाल, साध्वी अनादि सरस्वती का इस रूप में चर्चित होना कदाचित शिक्षा राज्य मंत्री व अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी को तकलीफ दे रहा होगा। वो इसलिए लिए कि उनके पासंद एक भी दावेदार उन्हें नजर नहींं आता, लिहाजा चौथी बार भी पक्के तौर टिकट हासिल करने का विश्वास रखते हैं। अगर संघ की बात करें तो वह क्या सोचता है और क्या करने वाला है, किसी को भनक तक नहीं लगने देता। वह एक साथ कई प्रयोग कर रहा होता है। कुछ गुप्त तो कुछ सार्वजनिक। हो सकता है कि अनादि सरस्वती को आगे लाने का उसका विचार हो, मगर जिस प्रकार वे हेडा के साथ एकाधिक कार्यक्रमों में नजर आई हैं, उससे जरूर प्रतीत होता है कि वे उन्हें देवनानी के मुकाबले में प्रमोट करना चाहते होंगे। कहने की जरूरत नहीं कि वे गैर सिंधीवाद के नाम पर टिकट चाहते हैं। कदाचित उन्हें लगता हो कि इसमें कामयाब नहीं हो पाएंगे तो बेहतर है विकल्प के तौर पर अनादि सरस्वती को ही आगे लाया जाए, जो कि सिंधी समुदाय की हैं। यहां इस बात को ख्याल में रखना ही चाहिए कि टिकट लाने की कलाकारी देवनानी में है, वो तो एक बात है, मगर विकल्प का अभाव भी कहीं न कहीं उनकी दावेदारी को कमजोर नहीं होने देता। अगर अनादि सरस्वती इस प्रकार उभर कर आती हैं तो वह बात तो खत्म हो ही जाएगी कि देवनानी का विकल्प ही नहीं है।
अब पता नहीं खुद अनादि सरस्वती की रुचि राजनीति में है या नहीं, मगर मौका अच्छा है। अगर देवनानी टिकट लाने में कहीं कमजोर होते हैं तो चांंस बनता है। ज्ञातव्य है कि पिछली बार जब टंडन साहब ने खोज खबर ला कर दी थी कि आरएसएस उनको चुनाव लड़वाने के मूड में है। आरआरएस के एक प्रमुख कार्यक्रम के बाद वे कई बार अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिव शंकर हेडा के साथ कार्यक्रमों में नजर आईं। इससे यह संदेश गया कि या तो उन्हें प्रोजेक्ट किया जा रहा है, या फिर वे स्वयं राजनीतिक व सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर राजनीतिक जमीन तलाश रही हैं। हालांकि उन्होंने कभी इसका खंडन नहीं किया कि उनकी राजनीति में कोई रुचि नहीं है। उनकी चुप्पी को मौन स्वीकृति भी माना जा सकता है, मगर ऐसा भी हो सकता है कि उन्होंने प्रतिक्रिया जाहिर कर व्यर्थ विवाद में पडऩा उचित नहीं समझा हो। इसी प्रकार की नीति संघ की रहती है। हो सकता है कि उनका नाम इस प्रकार राजनीति में घसीटे जाने पर उनको गुस्सा भी हो, चूंकि एक साध्वी के तौर पर उनका जो सम्मान है, वह एक राजनीतिक व्यक्ति की तुलना में कई गुना अधिक है। इसे यूं समझा जा सकता है कि साध्वी के रूप में हर राजनीतिज्ञ उनके आगे नतमस्तक हो रहा है, जो कि राजनीति में आने पर कम हो जाने वाला है। मगर संभावना इसकी भी कम नहीं है कि सुर्खियों में रहने की चाह में वे भी इस प्रकार की खबरों में रस ले रही हों, जो कि एक मानव स्वभाव है। वैसे उन्हें चर्चाओं को अन्यथा नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वे तो फिर भी एक आइकन हैं, जिनकी हर गतिविधि पर नजर रहती है, हालत तो ये है कि अगर कोई सामान्य व्यक्ति भी थोड़ा सा सामाजिक कार्यों में रुचि बढ़ाता है तो यही कयास लगाया जाता है कि वह आगे चल कर राजनीति की पगडंडी पकड़ेगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000