बुधवार, 30 जनवरी 2019

दोनों सीटें जितवाईं, फिर भी हटा दिया अरविंद यादव को?

हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में अजमेर शहर की दोनों सीटें अजमेर उत्तर व अजमेर दक्षिण जितवाने के बाद भी शहर जिला भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव को हटा दिया गया। भाजपा हाईकमान का यह फैसला चौंकाने वाला है। भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी के लिहाज से भी यह बदलाव चकित करता है। एक ओर जहां माना जाता है कि प्रदेश भाजपा में संघ लॉबी हावी हो गई है और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के युग का अवसान हो गया, वहीं राजे लॉबी के शिवशंकर हेडा को अध्यक्ष बना दिया गया है, जबकि संघ लॉबी के यादव हटा दिए गए हैं। यादव को न केवल राज्यसभा सदस्य भूपेद्र यादव का करीबी माना जाता है, अपितु संघ पृष्ठभूमि के दिग्गज नेता ओम प्रकाश माथुर व श्रीकिशन सोनगरा के करीबी रहे हैं। उनको हटाए जाने का कारण क्या है, यह भाजपाइयों की समझ से बाहर है। यदि उन्हें हटा कर किसी और युवा व ऊर्जावान को अध्यक्ष बनाते तो भी समझ में आ सकता था कि आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बदलाव किया गया है।
फिलहाल यही समझा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में वैश्य समुदाय को राजी करने के लिए नई नियुक्ति हुई है, लेकिन इससे यह भी आशय निकलता है कि लोकसभा चुनाव में वैश्य समुदाय के दावेदारों, जिनमें स्वयं हेडा भी शामिल है, की आशाओं पर तुषारापात हो गया है। अर्थात जाट बहुल इस सीट पर भाजपा किसी जाट को ही प्रत्याशी बनाने के मूड में है।
रही संगठन के और सक्रिय होने की तो कम से कम हेडा से यह उम्मीद गलत ही की जा रही है। वे पूर्व में भी 2006 से लेकर 2011 तक शहर अध्यक्ष रहे हैं। तब के हालात से सब वाकिफ हैं। उनकी हालत ये थी कि नगर निगम चुनाव में सारी टिकटें अजमेर शहर के दोनों विधायकों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने आपस में बांट ली थीं। लुंजपुंज नेता गिने जाने वाले हेडा की सिफारिश पर किसी को टिकट नहीं मिल पाई थी। यही वजह रही कि उनकी लॉबी के कुछ लोग समानांतर कार्यक्रम कर रहे थे। पिछले भाजपा शासनकाल में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने जनवरी 2016 में एडीए अध्यक्ष पद उनकी ताजपोशी की और राज्यमंत्री का दर्जा भी दिया गया, मगर वे अपने खाते में कुछ खास उपलब्धि दर्ज नहीं करवा पाए। उनका कार्यकाल ढ़ीलाढ़ाला ही रहा। ऐसे में अब वे कोई नौ की तेरह कर पाएंगे, उसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है।
रहा सवाल अरविंद यादव का तो उनके लिए यह झटका वाकई तगड़ा है। फिलहाल उनको कोई नयी जिम्मेदारी नहीं दी गई है। यह सही है कि लोकसभा उप चुनाव में उत्तर विधानसभा क्षेत्र में करीब सवा छह हजार और दक्षिण विधानसभा क्षेत्र से करीब 12 हजार वोटों से पार्टी पिछड़ी थी, लेकिन हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा दोनों सीटें जीत गई। बावजूद इसके उन्हें हटाये जाने से भाजपा कार्यकर्ता चकित हैं। विशेष रूप से युवा कार्यकर्ताओं में गलत संदेश गया है। सवाल उठता है कि क्या दोनों सीटें जीतने में उनकी कोई भूमिका नहीं रही, देवनानी व भदेल अपने-अपने दम पर जीते?
ज्ञातव्य है कि शहर अध्यक्ष बदले जाने की चर्चा काफी समय से चल रही थी, मगर लोकसभा उपचुनाव व बाद में विधानसभा चुनाव के कारण बदलाव नहीं किया गया। आनंद सिंह राजावत का नाम लगभग फाइनल हो चुका था, मगर देवनानी ने उन्हें नहीं बनने दिया। इसी प्रकार भूपेन्द्र यादव के खासमखास पार्षद जे. के. शर्मा का नाम भी चला, जिनके संबंध देवनानी व भदेल से समान थे, मगर उनकी आशाओं पर भी पानी फिर गया है।
आखिर में एक बात और। पिछले पंद्रह साल में शहर भाजपा देवनानी व भदेल लॉबी में ही बंटी रही है। उन पर किसी अध्यक्ष का जोर नहीं चला। यहां तक कि पांच बार सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत तक को वे नहीं गांठते थे। अब देखने वाली बात ये होगी कि हेडा अपनी नई पारी कैसे खेलते हैं।

डॉ. भाकर का दावेदारी से कहीं ज्यादा हो रहा है प्रोजेक्शन

आगामी लोकसभा चुनाव के संदर्भ में इन दिनों एक नाम यकायक चमकने और चमकाने लगा है। वो है डॉ. दीपक भाकर। बताया जाता है कि वे अजमेर संसदीय क्षेत्र से भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार हैं। दावेदारी की प्रबलता को कैसे परिभाषित किया जाए, उसका क्या आधार माना जाए, इसको लेकर मतभिन्नता हो सकती है, मगर मीडिया जरूर उन्हें प्रबल दावेदार मान रहा है, बना भी रहा है।
सच बात तो ये है कि डॉ. भाकर अजमेर संसदीय क्षेत्र वासियों के लिए कोई सुपरिचित नाम नहीं है। आम आदमी की बात छोडिय़े, संभ्रांत तबके में भी चंद लोग ही उन्हें जानते हैं। कहने को भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता जरूर हैं, मगर स्थानीय गतिविधियों में उनकी सक्रियता नगण्य सी है। फिर भी वे प्रबल हैं तो यह सब मीडिया का ही कमाल नजर आता है। हो सकता है कि भाजपा हाईकमान में उनकी गहरी पेठ हो, बड़े-बड़े नेताओं से उनके गहरे ताल्लुक हों, मगर सामान्य मतदाता तक उनकी पहचान न के बराबर है। बेशक वे जाट जाति से हैं और इस संसदीय क्षेत्र में ढ़ाई लाख से ज्यादा जाट हैं, इस कारण उनका दावा बनता है। इसी वजह से खुद को प्रोजेक्ट कर रहे हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। मगर मीडिया भी उनके प्रोजेक्शन के प्रभाव में आ कर खुद भी उन्हें प्रोजेक्ट करने लगे तो चौंकना स्वाभाविक है। विशेष रूप से पहले से, वर्षों से दावेदारी कर रहे नेताओं का चौंकना। वे इस बात से नहीं चौंक रहे कि डॉ. भाकर दावेदारी कैसे कर रहे हैं, बल्कि इसलिए कि मीडिया उनकी दावेदारी को मजबूत बता रहा है। स्वाभाविक रूप से उनको तकलीफ हो रही होगी। उनकी दावेदारी इस कारण है कि उनका कंट्रीब्यूशन है। अगर कोई प्रोजेक्शन करके प्रबल बने तो परेशानी होनी ही है। या तो वे प्रोजेक्शन के लिए कुछ जतन करें। पहले से दावेदार माने जा रहे नेताओं में अधिसंख्य ऐसे हैं जो अपने दम पर टिकट चाहते हैं, न कि प्रोजेक्शन के आधार पर। वे टिकट चाहते हैं और उसके लिए दावा भी करते हैं, मगर मिजाज ऐसा कि पार्टी टिकट दे तो ठीक, न दे तो भी ठीक। अब तक सबसे प्रबल दावेदार माने जा रहे प्रो. बी. पी. सारस्वत तो चलन के सर्वथा विपरीत चलते हैं। मांगने से ज्यादा बेहतर वे ये मानते हैं कि पार्टी खुद उनकी योग्यता के आधार पर टिकट दे। यही दिक्कत है। उनकी दावेदारी पिछले बीस साल से है, मगर पार्टी ने आज तक उनकी पात्रता पर गौर नहीं किया।
दरअसल आज कल प्रोजेक्शन का चलन सा हो गया है। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी तो प्रोजेक्शन की ही पैदाइश हैं। कुछ ऐसा ही आपने हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव में देखा होगा। एक व्यक्ति आया। न जमीन पर पकड़ और न ऊपर सैटिंग। बोरा भर कर पैसे लाया। दबा कर लुटाया। खूब खिलाया, जम कर पिलाया। प्रचार ऐसा कि मानों टिकट मिल ही गया हो। मंत्री भी बन बैठे और रेवडिय़ां भी बांट दी। दमदार प्रोजेक्शन की इससे बड़ी मिसाल नहीं हो सकती। जाहिर तौर पर मीडिया भी उसका शिकार हुआ। उसे भी गलतफहमी हो गई। उसी ने उसकी गलतफहमी को और बढ़ा दिया। और नतीजा ये कि लुट कर चला गया। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। क्यों कि राजनीति में सदा दो और दो चार नहीं हुआ करते। कभी तीन तो कभी पांच भी हो जाते हैं।
खैर, बात डॉ. भाकर की। बता रहे हैं कि उन्होंने भी होर्डिंग्स-बैनर ऐसे लगाए हैं, मानो चुनाव प्रचार कर रहे हों। ऐसे में भला सबका चौंकना अस्वाभाविक तो नहीं। मीडिया हो या अन्य दावेदार, सब चकित हैं। हो सकता है, उन्हें इशारा हो गया हो। जो भी है, जल्द सामने आ जा जाएगा। खुदा खैर करे।

रविवार, 27 जनवरी 2019

किशनगढ़ के निर्दलीय विधायक टाक के सामने है धर्मसंकट

हाल ही संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा से बगावत करके निर्दलीय रूप में जीते किशनगढ़ के विधायक सुरेश टाक, भले ही खुश हो लें कि उनकी विधायक बनने की इच्छा पूरी हो गई, मगर सरकार कांग्रेस की बनने के कारण वे धर्मसंकट में हैं। अगर आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा का साथ देते हैं तो किशनगढ़ के विकास के लिए सरकार का अपेक्षित सहयोग नहीं ले पाएंगे और अगर कांग्रेस का साथ देते हैं तो उनका खुद का भाजपाई जनाधार ही खो जाएगा।
भले ही वे निर्दलीय रूप से चुने गए हैं, मगर यह सच है कि उन्हें अधिसंख्य वोट भाजपा मानसिकता के ही मिले होंगे। जीत इस कारण गए क्योंकि पूरा शहर लगभग एकजुट सा हो गया। कांग्रेस विचारधारा के शहरी वोटर ने भी उनका साथ दिया ही होगा। किशनगढ़ वासियों की लंबे समय से यह इच्छा रही कि कोई गैर जाट जीत कर आए, मगर दोनों ही दल जातीय समीकरण के तहत जाट को ही प्रत्याशी बनाते रहे। ऐसे में हर बार जाट ही जीत कर आता, कभी कांग्रेस का तो कभी भाजपा का। चूंकि विधायक देहात पृष्ठभूमि के होते थे, इस कारण उनकी उतनी रुचि शहर में नहीं होती थी, जितना कि शहर वासी अपेक्षा करते थे।
इस बार कांग्रेस व भाजपा, दोनों ने जाट को ही टिकट दिया तो टाक को निर्दलीय रूप में मैदान में उतर कर त्रिकोण बनाने का मौका मिल गया।  संयोग ऐसा हुआ कि पूर्व कांग्रेस विधायक नाथूराम सिनोदिया भी बागी बन गए और मुकाबला चतुष्कोणीय हो गया। टाक ने 17452 मतों से जीत दर्ज की। टाक को 82678, भाजपा के विकास चौधरी को 65226, निर्दलीय नाथूराम सिनोदिया को 22851, कांग्रेस के नन्दाराम को 15157 वोट मिले।  यदि सिनोदिया व नंदाराम के वोटों को जोड़ लिया जाए तो भी आंकड़ा टाक व चौधरी को मिले वोटों से कम बैठता है। उसकी वजह साफ है कि शहर की हवा के साथ बहे कांग्रेसी वोट भाजपा मानसिकता के टाक की झोली में पड़ गए।
खैर, अब टाक के सामने धर्मसंकट ये है कि वे करें क्या? एक ओर विधानसभा क्षेत्र के विकास की समस्या है तो दूसरी ओर भाजपा मानसिकता के मतदाताओं की नाराजगी का खतरा। हालांकि होना ये है कि लोकसभा चुनाव में वे जो कुछ करें, मगर वोटों का बंटवारा विशुद्ध रूप से पार्टी के आधार पर हो जाएगा। जिन शहरी कांग्रेसी मतदाताओं ने टाक को वोट दिए, वे अब वापस कांग्रेस का रुख करेंगे। वो तो शहर के नाम पर टाक के साथ हुए थे, मगर अब वे स्वतंत्र हैं।
हालांकि जब टाक जीते तो मतगणना के तुरंत बाद उनसे पूछा गया कि वे किसका साथ देंगे तो उन्होंने डिप्लोमेटिक जवाब दिया कि परिस्थिति के अनुसार देखा जाएगा। परिस्थिति ऐसी बनी कि कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए निर्दलियों की उतनी जरूरत नहीं रही। अगर आंकड़ा कुछ कम होता तो कदाचित कांग्रेस का साथ दे कर कुछ हासिल कर सकते थे, जैसे पिछली बार ब्रह्मदेव कुमावत ने किया और संसदीय सचिव बन गए। उनके लिए तो फिर भी आसान रहा क्योंकि वे कांग्रेस पृष्ठभूमि से थे और सरकार भी कांग्रेस की ही बनी। लेकिन टाक के लिए यह आसान नहीं, क्योंकि उन्हें तो ऐसा करने के लिए पाला ही बदलना पड़ेगा। पिछले दिनों अन्य निर्दलियों के साथ जब वे सरकार से मिले तो सवाल उठा कि क्या वे कांग्रेस की ओर झुकाव रखने जा रहे हैं, इस पर उन्हें साफ करना पड़ा कि उनकी रुचि क्षेत्र के विकास में है और चूंकि सरकार कांग्रेस की है तो उनसे तो मिलना ही पड़ेगा।
बहरहाल, जब सरकार बनाने वाली पार्टी के पास बहुमत का आंकड़ा कम होता है तो निर्दलियों की बल्ले-बल्ले हो जाती है, मगर यदि ज्यादा गरज नहीं हो तो निर्दलियों का हाल वैसा ही हो जाता है, जैसा कि सुरेश टाक का।

भाजपा में बाहरी प्रत्याशी लाए जाने की चर्चा

राजनीतिक हलके में खुसर-फुसर है कि आगामी लोकसभा चुनाव में अजमेर सीट के लिए टिकट की दावेदारी कर रहे नेता भले ही अपने आपको मजबूत प्रत्याशी मान और बता रहे हैं, मगर उनमें से किसी पर भी इतना भरोसा नहीं किया जा पा रहा है कि वे जिताऊ हैं।
फिलहाल चर्चा में सबसे प्रबल नाम देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत का नाम है। उनके अतिरिक्त अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत, युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा, पूर्व यूआईटी चेयरमैन धर्मेश जैन, पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गैना, पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी आदि की भी दावेदारी सामने आई है। अजमेर लोकसभा सीट से पांच बार जीते प्रो. रासासिंह रावत भी दावा ठोक रहे हैं। हालांकि भाजपा हाईकमान जानता है कि इस संसदीय क्षेत्र में तकरीबन ढ़ाई लाख जाट मतदाता हैं, इस कारण जाट प्रत्याशी ही सबसे मजबूत रहेगा, मगर उसके पास दमदार जाट नेता नहीं है, जिसे जिताऊ मान लिया जाए।
ज्ञातव्य है कि भूतपूर्व मंत्री स्वर्गीय प्रो. सांवर लाल जाट ने पिछले चुनाव में कांग्रेस के सेलिब्रिटी केंडीडेट सचिन पायलट को हरा दिया था। इसमें उस वक्त चली मोदी लहर के साथ उनका जाट होना प्रमुख कारक माना जाता है। उनके निधन के बाद हुुए उपचुनाव में हालांकि भाजपा ने प्रो. जाट के निधन से उपजी सहानुभूति व जाट फैक्टर को ख्याल में रखते हुए उनके ही पुत्र रामस्वरूप लांबा पर दाव खेला, मगर वे कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा से हार गए। हार के कारणों में एंटी इन्कंबेंसी, लांबा की कमजोर प्रस्तुति, भाजपा संगठन में एकजुटता का अभाव आदि को प्रमुख कारणों में गिना गया। बावजूद इसके यह तथ्य स्थापित हो गया कि ब्राह्मण प्रत्याशी भी जीत सकता है। इसी कारण प्रो. सारस्वत सबसे प्रबल दावेदार बन कर उभरे हैं। इसके पीछे उनकी जिले भर में अब तक की मेहनत और संगठन पर मजबूत पकड़ को गिना जा रहा है। फिर भी समझा जा रहा है कि सारस्वत पूरी तरह से जीत का घोड़ा नहीं है। रघु शर्मा की जीत के समीकरण अलग थे। उनको उदाहरण मान कर सारस्वत को टिकट देना गलत कदम भी हो सकता है। तत्कालीन परिस्थितियों में कदाचित ब्राह्मण वोट लामबंद हो गया हो, मगर इस बार भी ऐसा ही होगा, यह पक्के तौर पर नहीं माना जा सकता। रघु शर्मा को एंटी इन्कंबेंसी का लाभ मिला था, जबकि सारस्वत को एंटी इन्कंबेंसी का सामना करना होगा। अगर उन्हें टिकट दिया जाता है तो जाट वोट बैंक का क्या किया जाएगा, यह भी सबसे बड़ा विचारणीय बिंदु है। सारस्वत के अतिरिक्त अन्य दावेदारों की बात करें तो जाटों में भागीरथ चौधरी व श्रीमती सरिता गैना को जिला स्तर पर सर्वमान्य जाट नेता नहीं माना जा रहा। गैर जाट दावेदारों में पलाड़ा, गहलोत, जैन व पहाडिय़ा हैं तो अच्छे दावेदार, मगर उन्हें पक्के तौर पर जिताऊ नहीं माना जा रहा। आज जब कि भाजपा का ग्राफ गिरा है तो यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी जानते हैं कि इस बार पूरी पच्चीस की पच्चीस सीटें तो मिलनी हैं नहीं। ताजा माहौल में भाजपा तकरीबन दस से पंद्रह सीटें खो सकती है। ऐसे में मोदी की पूरी कोशिश रहेगी कि एक-एक सीट पर ठोक बजा कर प्रत्याशी उतारे जाएं। स्थानीय दबाव की वजह से किसी भी सशंकित दावेदार पर दाव नहीं खेला जा सकता है। यदि नागौर के मौजूदा सांसद सी. आर. चौधरी का नाम चर्चा में है तो इसी कारण कि उन्हें अन्य सभी स्थानीय दावेदारों की तुलना में अपेक्षाकृत मजबूत माना जा रहा है। नाथूसिंह गूजर का नाम भी चर्चा में है, मगर गूजर नेता के रूप में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के रहते वे कितने गूजरों को अपनी ओर खींच पाएंगे, इसका अनुमान नहीं लगाया जा पा रहा। हालांकि हाल ही संपन्न विधासभा चुनाव में भाजपा ने आठ में से पांच पर जीत दर्ज की है, मगर लोकसभा चुनाव के समीकरणों को ध्यान में रखते हुए किसी सेलिब्रिटी को आयातित किए जाने की भी चर्चा है।

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

बहुत दिलचस्प है अजमेर संसदीय क्षेत्र का चुनावी मिजाज

तेजवानी गिरधर
अरावली पर्वत शृंखला के दामन में पल रहे अजमेर संसदीय क्षेत्र मेवाड़ और मारवाड़ की संस्कृतियों को मिला-जुला रूप है। नजर को और विहंगम करें तो इसकी तस्वीर में अनेक संस्कृतियों के रंग नजर आते हैं। और यही वजह है कि न तो इसकी कोई विशेष राजनीतिक संस्कृति हैं और न ही विशिष्ट राजनीतिक पहचान बन पाई। राजनीतिक लिहाज से यदि ये कहा जाए कि ये तीन लोक से मथुरा न्यारी है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सन् 1952 से शुरू हुआ अजमेर का संसदीय सफर काफी रोचक रहा है। राजस्थान में शामिल होने से पहले अजमेर एक अलग राज्य था। सन् 1952 में हुए प्रथम लोकसभा चुनाव में अजमेर राज्य में दो संसदीय क्षेत्र थे-अजमेर उत्तर व अजमेर दक्षिण।
तेजवानी गिरधर
राजस्थान में विलय के बाद 1957 में यहां सिर्फ एक संसदीय क्षेत्र हो गया।
चुनावी मिजाज की बात करें तो कभी यह राष्ट्रीय लहर में बह कर मुख्य धारा में एकाकार हो गया तो कभी स्थानीयतावाद में सिमट कर बौना बना रहा। और यही वजह है कि लंबे अरसे तक यहां कभी सशक्त राजनीतिक नेतृत्व उभर कर नहीं आया। जब कभी नेतृत्व की बात होती तो घूम-फिर कर बालकृष्ण कौल, पं. ज्वाला प्रसाद शर्मा या मुकुट बिहारी लाल भार्गव जैसे ईन, बीन और तीन नामों पर आ कर ठहर जाती। नतीजतन आजादी के बाद राजस्थान की राजधानी बनने का दावा रखने वाला अजमेर राजनीतिक उपेक्षा का शिकार रहा। हां, अलबत्ता सचिन पायलट के यहां से जीत कर केन्द्र में राज्य मंत्री बनने पर जरूर इसका कद बना।

दो दलों का ही रहा वर्चस्व
जहां तक राजनीतिक विधारधारा का सवाल है तो यहां प्राय: दो राजनीतिक दलों का ही वर्चस्व रहा है। आजादी के बाद सन् 1952 से 1977 तक इस इलाके में कांग्रेस का ही बोलबाला रहा। लेकिन इसके बाद कांग्रेस के खिलाफ चली देशव्यापी आंधी ने इस गढ़ को ढ़हा दिया और जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा ने बदलाव का परचम फहरा दिया। सन् 1980 में जैसे ही देश की राजनीति ने फिर करवट ली तो कांग्रेस के आचार्य भगवानदेव ने कब्जा कर लिया। भगवान देव ने जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा को 53 हजार 379 मतों से पराजित किया था। देव को 1 लाख 68 हजार 985 और शारदा को 1 लाख 25 हजार 606 मत मिले थे। उसके बाद सन् 1984 में विष्णु मोदी ने यह सीट कांग्रेस की झोली मे ही बनाए रखी। मोदी ने भाजपा के कैलाश मेघवाल को 56 हजार 694 वोटों से पराजित किया। मोदी को 2 लाख 16 हजार 173 और मेघवाल को 1 लाख 59 हजार 479 मत मिले थे। 1989 में लंबे अरसे के लिए यह सीट भाजपा की झोली में चली गई। भाजपा मानसिकता के डेढ़ लाख रावत वोटों का समीकरण ऐसा बैठा कि प्रो. रासासिंह रावत ने इस पर कब्जा कर लिया और पांच बार जीते। केवल एक बार 1998 में डॉ. प्रभा ठाकुर ने उन्हें हराया। रावत के सामने सन् 1989 में सवा लाख गुर्जरों के दम उतरे कांग्रेस के बाबा गोविंद सिंह गुर्जर 1 लाख 8 हजार 89 वोटों से हारे। गुर्जर को 1 लाख 86 हजार 333 व रावत को 2 लाख 11 हजार 676 वोट मिले। सन् 1991 में रावत ने डेढ़ लाख जाटों के वोट बैंक को आधार पर चुनाव मैदान में उतरे जगदीप धनखड़ को 25 हजार 343 वोटों से हराया। सन् 1996 में एक लाख सिंधी मतदाताओं का कार्ड खेलते हुए किशन मोटवानी मैदान में आए, मगर 38 हजार 132 वोटों से पराजित हो गए। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में सोनिया गांधी राजनीति में सक्रिय हुईं तो एक लहर चली और उस पर सवार हो कर डॉ. प्रभा ठाकुर ने रासासिंह के लगातार चौथी बार लोकसभा में जाने पर ब्रेक लगा दिया। जीत का अंतर सिर्फ 5 हजार 772 मतों का रहा। उसके बाद 1999 में रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को 87 हजार 674 मतों से हरा दिया। सन् 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के हाजी हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों के भारी अंतर से हराया। हबीबुर्रहमान को 1 लाख 86 हजार 812 व रावत को 3 लाख 14 हजार 788 वोट मिले थे। इसके बाद 2009 में चूंकि परिसीमन के कारण संसदीय क्षेत्र का रावत बहुल मगरा-ब्यावर इलाका कट कर राजसमंद में चला गया तो रावत का तिलिस्म टूट गया। भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया। उनके स्थान पर श्रीमती किरण माहेश्वरी आईं, मगर वे कांग्रेस के सचिन पायलट से 76 हजार 135 वोटों से हार गईं। कुल 14 लाख 52 हजार 490 मतदाताओं वाले इस संसदीय क्षेत्र में पड़े 7 लाख 70 हजार 875 मतों में सचिन को 4 लाख 5 हजार 575 और किरण को 3 लाख 29 हजार 440  मत मिले। सन् 2014 में मोदी लहर में पूरे राजस्थान में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। भारतीय जनता पार्टी के सांवर लाल जाट ने निकटतम प्रतिद्वंदी इण्डियन नेशनल कांग्रेस के सचिन पायलट को एक लाख 71 हजार 983 मतों से पराजित किया। जाट को 6 लाख 37 हजार 874 मत मिले, जबकि पायलट को 4 लाख 65 हजार 891 मत मिले। प्रो. जाट के निधन के बाद 2018 में हुए उपचुनाव में इण्डियन नेशनल कांग्रेस के रघु शर्मा विजयी रहे। उन्होंने भाजपा के रामस्वरूप लाम्बा को 84414 मतों से हराया। रघु शर्मा को 611514 एवं रामस्वरूप लाम्बा को 527100 मत मिले।

जातिवाद के दम पर पांच बार कब्जा रहा भाजपा का
असल में राजनीति का प्रमुख कारक जातिवाद यहां 1984 तक अपना खास असर नहीं डाल पाया था। अत्यल्प जातीय आधार के बावजूद यहां से मुकुट बिहारी लाल भार्गव तीन बार, विश्वेश्वर नाथ भार्गव दो बार व श्रीकरण शारदा एक बार जीत चुके हैं। आचार्य भगवान देव की जीत में सिंधी समुदाय और विष्णु मोदी की विजय में वणिक वर्ग की भूमिका जरूर गिनी जा सकती है। लेकिन सन् 1989 में डेढ़ लाख रावत वोटों को आधार बना कर रासासिंह को उतारा तो यहां का मिजाज ही बदल गया। कांग्रेस ने भी बदल-बदल कर जातीय कार्ड खेले मगर वे कामयाब नहीं हो पाए। रावत के सामने सन् 1989 में बाबा गोविंद सिंह गुर्जर, सन् 1991 में जगदीप धनखड़, सन् 1996 में किशन मोटवानी को उतारा गया, मगर वे हार गए। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में प्रभा ठाकुर ने रासासिंह को लगातार चौथी बार लोकसभा  में जाने रोक दिया। फिर 1999 में रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को हरा दिया। सन् 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के हाजी हबीबुर्रहमान को हराया। सन् 2009 के चुनाव में इस सीट की तस्वीर जातीय लिहाज से बदल गई। जहां रावत बहुल मगरा क्षेत्र की ब्यावर सीट राजसमंद में चली गई तो दौसा संसदीय क्षेत्र की अनुसूचित जाति बहुल दूदू सीट यहां जोड़ दी गई है। कुछ गांवों की घट-बढ़ के साथ पुष्कर, नसीराबाद, किशनगढ़, अजमेर उत्तर, अजमेर दक्षिण, मसूदा व केकड़ी यथावत रहे, जबकि भिनाय सीट समाप्त हो गई। परिसीमन के साथ ही यहां का जातीय समीकरण बदल गया। रावत वोटों के कम होने के कारण समझें या फिर सचिन जैसे दिग्गज की वजह से, रासासिंह रावत का टिकट पिछली बार काट दिया गया और श्रीमती किरण माहेश्वरी को पटखनी दे कर सचिन जीते तो यहां कांग्रेस का कब्जा हो गया। उसके बाद 2014 में एक तो मोदी लहर और दूसरा ढ़ाई लाख जाट वोटों के दम पर प्रो. सांवरलाल जाट ने विकास पुरुष माने जाने वाले पायलट को हरा दिया। प्रो. जाट के निधन के बाद 2018 में हुए उपचुनाव में हालांकि सहानुभूति वोट हासिल करने की गरज से भाजपा ने प्रो. जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा को मैदान में उतारा, मगर वे कांग्रेस के रघु शर्मा से हार गए।

रावत जीत-हार दोनों में अव्वल
मौजूदा सांसद रासासिंह रावत संसदीय इतिहास में ऐसे प्रत्याशी रहे हैं, जिन्होंने सर्वाधिक मतांतर से जीत दर्ज की है तो एक बार हारे भी तो सबसे कम मतांतर से।  रावत ने सन् 2004 में कांग्रेस की हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों से हराया, जो कि एक रिकार्ड है। इसी प्रकार सन् 1998 में वे मात्र 5 हजार 772 मतों  से ही हार गए, वह भी एक रिकार्ड है। सर्वाधिक मत हासिल करने का रिकार्ड भी रावत के खाते दर्ज है। सन् 1999 में उन्होंने 3 लाख 43 हजार 130 मत हासिल किए। सर्वाधिक बार जीतने का श्रेय भी रावत के पास है। वे यहां से कुल पांच बार जीते, जिनमें से एक बार हैट्रिक बनाई। यूं हैट्रिक मुकुट बिहारी लाल भार्गव ने भी बनाई थी। सर्वाधिक छह बार चुनाव लडऩे का रिकार्ड रावत के साथ निर्दलीय कन्हैयालाल आजाद के खाते में दर्ज है। चुनाव लडऩा आजाद का शगल था। वे डंके की चोट वोट मांगते थे और आनाकानी करने वालों को अपशब्द तक कहने से नहीं चूकते थे।

सबसे कम कार्यकाल प्रभा का
सबसे कम कार्यकाल प्रभा ठाकुर का रहा। वे फरवरी, 1998 के मध्यावधि चुनाव में जीतीं और डेढ़ साल बाद सितंबर, 1999 में फिर चुनाव हो गए। उनका कार्यकाल केवल 16 माह ही रहा, क्योंकि जून में लोकसभा भंग हो गई।

सर्वाधिक प्रत्याशी 1991 में
अजमेर के संसदीय इतिहास में 1991 के चुनाव में सर्वाधिक 33 प्रत्याशियों ने अपना भाग्य आजमाया। सबसे कम 3 प्रत्याशी सन् 1952 के पहले चुनाव में अजमेर दक्षिण सीट पर उतरे थे।

अब तक ये रहे हैं अजमेर से सांसद
1951 से 57 तक कांग्रेस के ज्वाला प्रसाद शर्मा
1957 से 67 तक (लगातार 2 बार) कांग्रेस के मुकुट बिहारी भार्गव
1967 से 77 तक (लगातार 2 बार) कांग्रेस के बीएन भार्गव
1977 से 80 तक जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा
1980 से 84 तक कांग्रेस के भगवानदेव आचार्य
1984 से 89 तक कांग्रेस के विष्णुकमार मोदी
1989 से 98 तक (लगातार 3 बार) भाजपा के रासासिंह रावत
1998 से 99 तक कांग्रेस की प्रभा ठाकुर
1999 से 2009 तक (लगातार 2 बार) भाजपा के रासासिंह रावत
2009 से 2014 तक कांग्रेस के सचिन पायलट
2014 से 2017 तक भाजपा के सांवरलाल जाट
2017 से 2018 तक कांग्रेस के रघु शर्मा

सिंधी क्यों नहीं हो सकता लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी?

जिस सिंधी समाज को कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार अजमेर उत्तर से विधानसभा का टिकट नहीं दिया, उसी की प्रतिनिधि संस्था सिंधु जागृति मंच ने हाल ही जब दोनों राजनीतिक दलों से सिंधी समाज के किसी व्यक्ति को लोकसभा का टिकट देने मांग की, तो सभी का चौंकना स्वाभाविक था। आम धारणा यही है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र में सिंधी वोट बैंक इतना भी बड़ा भी नहीं कि उसे गंभीरता से लेते हुए टिकट दे दिया जाए। इस सिलसिले में जब मंच के समन्वयक हरी चंदनानी से पूछा गया कि आपकी मांग अथवा दावे का आधार क्या है तो वे बोले कि मांग हवा में नहीं की गई है।
उन्होंने बताया कि भाजपा ने अपना वोट बैंक होते हुए भी भले ही सिंधी को टिकट नहीं दिया हो, मगर कांग्रेस ने दो बार सिंधी पर दाव खेला है। सन् 1980 में कांग्रेस ने आचार्य भगवानदेव को टिकट दिया था और वे जीते भी। भगवान देव ने जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा को 53 हजार 379 मतों से पराजित किया था। देव को 1 लाख 68 हजार 985 और शारदा को 1 लाख 25 हजार 606 मत मिले थे। इसके बाद 1996 में कांग्रेस ने किशन मोटवानी को टिकट दिया और वे मात्र 38 हजार 132 वोटों से पराजित हुए।
उन्होंने बताया कि छह लोकसभा चुनावों में, 1998 को छोड़ कर, पांच में रासासिंह रावत ने विजय पताका फहराई। कांग्रेस ने भी बदल-बदल कर जातीय कार्ड खेले, मगर वे कामयाब नहीं हो पाए। रावत के सामने सन् 1989 में सवा लाख गुर्जरों के दम पर उतरे बाबा गोविंद सिंह गुर्जर 1 लाख 8 हजार 89 वोटों से हारे। सन् 1991 में रावत ने डेढ़ लाख जाटों के दम पर उतरे जगदीप धनखड़ 25 हजार 343 वोटों से हराया। धनखड़ को 1 लाख 86 हजार 333 व रावत को 2 लाख 11 हजार 676 वोट मिले थे। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में सोनिया गांधी के राजनीति में सक्रिय होने के साथ चली हल्की लहर पर सवार हो कर सियासी शतरंज की नौसिखिया खिलाड़ी प्रभा ठाकुर ने रासासिंह को लगातार चौथी बार लोकसभा में जाने रोक दिया था। हालांकि इस जीत का अंतर सिर्फ 5 हजार 772 मतों का रहा, लेकिन 1999 में आए बदलाव के साथ रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को 87 हजार 674 मतों से पछाड़ कर बदला चुका दिया। इसके बाद 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के बाहरी प्रत्याशी हाजी हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों के भारी अंतर से कुचल दिया। हबीबुर्रहमान को 1 लाख 86 हजार 812 व रावत को 3 लाख 14 हजार 788 वोट मिले थे। इस हिसाब से देखा जाए तो कांग्रेस के सिंधी प्रत्याशी का प्रदर्शन कमजोर नहीं रहा है, उलटे गुर्जर व मुसलमान की तुलना में काफी बेहतर रहा है। वह भी तब जब कि सिंधियों में आरएसएस का कट्टर समर्थक वर्ग कांग्रेस के साथ नहीं आया। तब काको आडवाणी, मामो मोटवाणी का नारा चला था। अर्थात आरएसएस ने यह कह कर सिंधी वोट बैंक को टूटने से बचाने की कोशिश की कि मामा की बजाय काका का साथ दो।
चंदनानी ने कहा कि भाजपा शायद एक तो इस कारण सिंधी को लोकसभा का प्रत्याशी नहीं बनाती कि वह हर बार अजमेर उत्तर से सिंधी को प्रत्याशी बनाती आई है, दूसरा ये कि उसे पता है कि सिंधी वोट बैंक तो उसकी जेब में है, चाहे किसी भी गैर सिंधी को टिकट दो, सिंधी तो भाजपा को ही वोट देगा। दूसरी ओर कांग्रेस के लिए किसी सिंधी को टिकट देने का प्रयोग मुफीद है, क्योंकि उसका सिंधी प्रत्याशी जितने भी सिंधी वोट खींच सकता है, उसका दुगुना नुकसान भाजपा को हो सकता है।
खैर, अपुन को लगता है कि भाजपा यूं तो किसी सिंधी को टिकट देने वाली है नहीं, फिर भी अगर मानस बना तो पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का नंबर आ सकता है। कदाचित इसमें देवनानी रुचि भी हो, क्योंकि वे लंबी छलांग लगाने के मूड में हैं। रहा सवाल कांग्रेस का तो पहला सवाल ही यही उठता है कि जब विधानसभा का टिकट ही नहीं दिया तो लोकसभा के टिकट की उम्मीद कैसे की जा सकती है। देखते हैं मंच की मांग पर दोनों पार्टियां गौर करती हैं या नहीं?

एडीए में स्थानीय राजनीतिक अध्यक्ष के बिना विकास मुश्किल

एक ओर जहां कांग्रेस सरकार बनने के बाद कांग्रेसी नेता अजमेर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनने का सपना संजो रहे हैं, वहीं इस आशय की चर्चा सामने आने से कि जयपुर विकास प्राधिकरण की तर्ज पर अजमेर व जोधपुर विकास प्राधिकरणों में भी स्वायत्त शासन मंत्री को ही अध्यक्ष बनाए जाने पर विचार हो रहा है, उनकी आशाओं पर तुषारापात होता दिख रहा है। इतना ही नहीं इस प्रकार की खबर से विकास की बाट जोह रही जनता भी चिंतित है, क्योंकि अगर स्वायत्त शासन मंत्री प्राधिकरण के अध्यक्ष हुए तो प्राधिकरण के स्थानीय सारे कामकाज पर अफसरशाही ही हावी रहेगी और उनकी सुनवाई ठीक से नहीं होगी। स्वायत्त शासन मंत्री केवल महत्वपूर्ण विषय के लिए ही वक्त दे पाएंगे। हर काम के लिए मंत्री महोदय का ही मुंह ताकना पड़ेगा। हमारे यहां सरकार कामकाज का ढर्ऱा कैसा होता है, सब जानते हैं। हर फाइल स्वीकृति के लिए जयपुर जाएगी तो विकास की रफ्तार कितनी धीमी होगी, कल्पना की जा सकती है।
यह सर्वविदित ही है कि पहले यूआईटी हो या अब एडीए, शहर के विकास के नए आयाम स्थानीय राजनीतिक व्यक्ति के अध्यक्ष के रहने पर स्थापित हुए हैं। जब भी प्रशासनिक अधिकारी के हाथों में कमान रही है, विकास की गति धीमी रही है। इसके अनेक उदाहरण हैं। उसकी वजह ये है कि जिला कलेक्टर या संभागीय आयुक्त के पास अध्यक्ष का भी चार्ज होने के कारण वे सीधे तौर पर कामकाज पर ध्यान नहीं दे पाते। वैसे भी उनकी कोई रुचि नहीं होती। वे तो महज औपचारिक रूप से नौकरी को अंजाम देते हैं। उनके पास अपना मूल दायित्व ही इतना महत्वपूर्ण होता है कि वे टाइम ही नहीं निकाल पाते। निचले स्तर के अधिकारी ही सारा कामकाज देखते हैं। इसके विपरीत राजनीतिक व्यक्ति के पास अध्यक्ष का कार्यभार होने पर विकास के रास्ते सहज निकल आते हैं। एक तो उसको स्थानीय जरूरतों का ठीक से ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त जनता के बीच रहने के कारण यहां की समस्याओं से भी भलीभांति परिचित होता है। वह किसी भी विकास के कार्य को बेहतर अंजाम दे पाता है। प्रशासनिक अधिकारी व जनता के प्रतिनिधि का आम जन के प्रति रवैये में कितना अंतर होता है, यह सहज ही समझा जा सकता है। राजनीतिक व्यक्ति इस वजह से भी विकास में रुचि लेता है, क्योंकि एक तो उसकी स्थानीय कामों में दिलचस्पी होती है, दूसरा उसकी प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है। उनका प्रयास ये रहता है कि ऐसे काम करके जाएं ताकि लोग उन्हें वर्षों तक याद रखें और उनकी राजनीतिक कैरियर भी और उज्ज्वल हो। आपको ख्याल होगा कि राजनीतिक व्यक्तियों के अध्यक्ष रहने पर बने पृथ्वीराज स्मारक, सिंधुपति महाराजा दाहरसेन स्मारक, लवकुश उद्यान, झलकारी बाई स्मारक, वैकल्पिक ऋषि घाटी मार्ग, अशोक उद्यान, गौरव पथ, महाराणा प्रताप स्मारक, सांझा छत  इत्यादि आज भी सराहे जाते हैं। कुल मिला कर बेहतर यही है कि प्राधिकरण का अध्यक्ष कोई राजनीतिक व्यक्ति ही हो।

चर्चा में रहने के आदी हैं देवनानी

पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री व अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी चर्चा में रहने के आदी हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि कहां फटे में टांग डालनी है, ताकि अखबारों की सुर्खियां बनें। हाल ही मौजूदा शिक्षा राज्य मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा ने आरएसएस व शिक्षा जगत को लेकर एक बयान दिया तो देवनानी भड़क गए और पलटवार किया। चाहतीं तो अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल भी प्रतिक्रिया कर सकती थीं, मगर आमतौर पर उन्हें विवाद करने में रुचि नहीं होती है, जबकि देवनानी तो तलाशते हैं कि कोई मुद्दा सामने आए तो वे उसमें कूदें।
चलो अभी तो वे अदद विपक्षी विधायक हैं, इस कारण उनकी भूमिका थोड़ी-बहुत समझ में आती है, मगर जब से सत्ता में थे और शिक्षा राज्य मंत्री का जिम्मेदार पद संभाल रहे थे, तबकि लगातार विवादों में बने रहे। कभी अकबर के किले का नाम बदल कर अजमेर का किला करने को लेकर तो कभी ब्राह्मणों के बारे में टिप्पणी करने पर। प्रोफेसर विवाद भी काफी दिन तक चलता रहा। हाल ही ट्रेफिक पुलिस की अधिकारी के साथ हॉट टाक भी खूब चर्चा में रहा।
ऐसा लगता है कि उनके विवादों का सिलसिला थमने वाला नहीं है। अब तो विपक्ष में हैं, इस कारण और अधिक सक्रिय हो जाने वाले हैं। चूंकि शिक्षा राज्य मंत्री रहते उन्होंने संघ विचारधारा को पोषित करने के लिए कई कदम उठाए और दूसरी ओर डोटासरा भी संघ के मामले में कुछ आक्रामक मुद्रा में नजर आते हैं, इस कारण टकराव अवश्यंभावी है। साफ नजर आता है कि डोटासरा उन सभी फैसलों को बदलने वाले हैं, जो कि संघ को खुश करने के लिए उठाए गए थे।
हाल ही जब डोटासरा ने बयान दिया तो देवनानी ने पलटवार किया। इस पर भला कांग्रेसी भी क्यों चुप रहने वाले थे। चूंकि देवनानी प्रतिक्रियावादी मिजाज के हैं, इस कारण कांग्रेसियों को भी उन्हें निशाने पर लेने में मजा आता है। डोटासरा देवनानी के बयान पर कुछ प्रतिक्रिया दें, इससे पहले ही स्थानीय कांग्रेसियों ने देवनानी पर हमला बोल दिया। अजमेर शहर जिला कांग्रेस कमेटी के महासचिव शिव कुमार बंसल, ललित भटनागर, अशोक बिंदल, आरिफ खान, डॉ संजय पुरोहित आदि देवनानी के बयान की कड़ी निंदा की और आरोप लगाया कि भारतीय जनता पार्टी के कुशासन में देवनानी ने तबादला उद्योग खोल रखा था, जिसकी परिणति में भाजपा के एक विधायक ने देवनानी के साथ अभद्र व्यवहार किया था। आरोप में ये भी कहा गया कि देवनानी ने अजमेर के होने के बावजूद माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान  की समस्याओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। बोर्ड में आज भी स्टाफ की कमी है। उन्होंने विशेष श्रेणी के स्थानांतरण में भी खुल कर कृपा पात्रों और अपने चहेतों को उपकृत किया। शिक्षा विभाग में विभिन्न कार्यालयों में कई कर्मचारियों को भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने रंगे हाथ रिश्वत लेते हुए पकड़ा। अत: देवनानी को कांग्रेस पर उंगली उठाने से पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए।
प्रदेश महासचिव ललित भाटी ने बयान जारी किया कि देवनानी के कार्यकाल में उनके जयपुर स्थित सरकारी बंगले पर नियुक्त निजी सहायक पर जयपुर जिले के मंत्रालयिक कर्मचारी ने स्थानांतरण के नाम पर लाखों रुपए लेने का आरोप लगाते हुए आत्महत्या करने का मामला भी है, देवनानी सरकार में थे, इसलिए कोई ठोस जांच नहीं हो पाई।

मंगलवार, 15 जनवरी 2019

यातायात की सुगमता के लिए दो नए वैकल्पिक मार्ग जरूरी

इन दिनों अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाए जाने का कार्य किया जा रहा है। इसमें अन्य विकास कार्यों के अतिरिक्त वर्षों पुरानी ट्रैफिक जाम की समस्या से निजात दिलाने के लिए एलिवेटेड रोड पर काम शुरू हो गया है। हालांकि इसमें थोड़ा समय लगेगा, मगर जब यह पूरा हो जाएगा, तो इसके फायदे से हर व्यक्ति रूबरू होगा। इसी के साथ स्मार्ट सिटी योजना में अगर दो वैकल्पिक मार्गों को भी बनाया जाए तो शहर में यातायात का दबाव काफी हद तक कम किया जा सकता है।
एक वैकल्पिक मार्ग नाका मदार से जयपुर रोड तक वाया रसूलपुरा हो सकता है। इसकी कल्पना कई साल पहले तत्कालीन यूआईटी चेयरमैन औंकारसिंह के कार्यकाल में की गई थी। इसके लिए बाकायदा सर्वे का प्रस्ताव भी पारित किया गया, मगर बाद में इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।  न तो स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने इसमें रुचि दिखाई और न ही अफसरशाही ने इसकी सुध ली। वे तो झगडऩे में व्यस्त रहे। सच तो ये है कि जनप्रतिनिधियों की लापरवाही और आपसी खींचतान के चलते एलिवेटेड रोड तक खटाई में पड़ा हुआ था। तत्कालीन यूआईटी चेयरमैन नरेन शहाणी भगत के कार्यकाल में सर्वे भी हुआ, मगर बाद में उसे लंबे अरसे तक ठंडे बस्ते में डाल कर रख दिया गया। कभी उसकी उपयोगिता के नाम पर विवाद हुआ तो कभी निर्माण के लिए उपयुक्त बजट न होने का रोना रोया गया। कभी उसे अव्यावहारिक बताया गया तो कभी व्यापारियों की नाराजगी का बहाना बनाया गया। पिछली सरकार में शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी व अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिवशंकर हेडा इस मुद्दे पर लगातार टकराते रहे। अगर स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट में इसे शामिल नहीं किया जाता तो यह एक कल्पना मात्र रह जाता।
बहरहाल, बात वैकल्पिक मार्ग की। यदि राजनीतिक मतभेद भुला कर केवल जन हित का ही ख्याल रखा जाए तो अजमेर का कुछ भला हो सकता है। नाका मदार, जेपी कॉलोनी, टैम्पो स्टैंड से जयपुर रोड वाया रसूलपुरा तक वैकल्पिक मार्ग बनादिया जाए तो जयपुर रोड, यूनिवर्सिटी, जनाना हॉस्पिटल, लोहागल तक की जनता को मदार रेलवे स्टेशन पर आने-जाने में सुविधा मिलेगी। इससे जनता को नगर के अन्दर से नहीं आना पड़ेगा और नगर में ट्रेफिक के भार में भी कमी आएगी।
इसी प्रकार शास्त्री नगर से वैशाली नगर तक भी एक वैकल्पिक मार्ग बनाया जा सकता है। इसके निर्माण से मुख्य आनासागर सक्र्यूलर रोड पर ट्रेफिक में भारी कमी होगी। आपको बता दें कि इसका प्रारूप जाने-माने इंजीनियर कमलेन्द्र झा ने बनाया था, जो कि काफी हद तक कारगर हो सकता है।

क्या भाजपाई किसी बाहरी दावेदार को बर्दाश्त करेंगे?

ऐसी खुसर-फुसर है कि आगामी लोकसभा चुनाव में अजमेर सीट पर इसे चरागाह समझने वालों की भी नजर है। अब तक तो स्थानीय दावेदारों के नाम ही उभर कर आए थे, मगर एक बाहरी दावेदार की भी चर्चा हो रही है। वो हैं पूर्व केबीनेट मंत्री डॉ. नाथूसिंह गुर्जर। अजमेर संसदीय क्षेत्र में तकरीबन सवा लाख गुर्जर मतदाता हैं। यहां से एक बार मौजूदा उप मुख्यमंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत चुके हैं। कदाचित यही सोच कर गुर्जर को यहां लॉंच किए जाने की चर्चा है।
पहले आपको बता दें कि यहां स्थानीय दावेदार कौन-कौन से हैं। वे हैं भाजपा देहात जिलाध्यक्ष प्रो बी पी सारस्वत, भाजपा नेता भंवरसिंह पलाड़ा, पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी, पूर्व यूआईटी चेयरमैन धर्मेश जैन, युवा नेता डॉ. मिथलेश गौतम व जिला मंत्री सत्यनारायण चौधरी। इन सबमें सबसे प्रबल दावेदारी सारस्वत की मानी जा रही है। चूंकि लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा यहां से जीत चुके हैं, इस कारण ऐसा माना जा रहा है कि भाजपा इस बार ब्राह्मण कार्ड खेल सकती है।
आइये, अब जरा पीछे चलते हैं। जिस चुनाव में यहां सचिन पायलट आए थे, उस समय कांग्रेस के पास कोई तगड़ा स्थानीय दावेदार था नहीं। हालांकि परिसीमन के बाद यह सीट जाट बहुल हो चुकी थी, मगर जब कांग्रेस ने पायलट को मैदान में उतारा तो सैलिब्रिटी के सामने सैलिब्रिटी को भिड़ाने के लिए भाजपा ने श्रीमती किरण माहेश्वरी को आयातित किया। तब दावा स्वर्गीय प्रो. सांवरलाल जाट का दावा था, मगर उन्हें पायलट के सामने कमजोर माना गया। खैर पायलट जीत गए। बाद के चुनाव में कांग्रेस की ओर से तो पायलट ही आए, मगर भाजपा ने जाट को मौका दिया। हालांकि पायलट ने भरपूर काम करवाए, मगर मोदी लहर के चलते जाट जीत गए।  उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में भाजपा ने सहानुभूति के नाम पर उनके पुत्र रामस्वरूप लांबा पर दाव खेला, लेकिन वे कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा  के सामने टिक नहीं पाए। लांबा अब नसीराबाद से विधायक हैं। ताजा स्थिति ये है कि भाजपा के पास तगड़ा जाट दावेदार है नहीं। गिने-चुने दो नाम हैं पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी व पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गैना। विशेष परिस्थिति में नागौर से सी आर चौधरी को इंपोर्ट किया जा सकता है। गैर जाट में सारस्वत ही सबसे प्रबल दावेदार हैं।
अब सवाल ये उठता है कि क्या स्थानीय दावेदार चौधरी अथवा गुर्जर को बर्दाश्त कर पाएंगे। चौधरी तो फिर भी पचा लिए जा सकते हैं, क्योंकि अजमेर उनका कार्यक्षेत्र रहा है और यह सीट जाट बहुल है, लेकिन मात्र सवा लाख वोटों के आधार पर गुर्जर को यदि लाया गया तो संभव है, पार्टी में विरोध के स्वर उभर कर आएं। बेशक गुर्जर एक सैलिब्रिटी हैं, क्योंकि एक तो वे दो बार सांसद और चार बार विधायक रहे हैं, इसके अतिरिक्त क्रिकेट खिलाड़ी व फिल्म अभिनेता भी हैं। उन्होंने गुर्जरों के आराध्य देवता देवनारायण पर बनाई गई राजस्थानी फिल्म देव में बतौर अभिनेता के रूप में देवनारायण की भूमिका निभाई है। खैर, देखते हैं कि आगे आगे होता है क्या? हो सकता है कि कुछ और नए नाम भी उभर कर आएं।

अजमेर के लिए धर्मेश जैन ने ठोकी सबसे पहली दावेदारी

चंद माह बाद ही होने जा रहे लोकसभा चुनाव में अजमेर सीट से भाजपा टिकट के लिए यूआईटी के पूर्व चेयरमैन धर्मेश जैन ने सबसे पहली दावेदारी ठोक दी है। हालांकि अन्य दावेदार भी अपना मानस बना चुके हैं और टिकट हासिल करने की इक्सरसाइज कर रहे हैं, मगर किसी ने खुल कर दावेदारी अथवा इच्छा नहीं जताई है। जिससे भी पूछो, वह यही कहता है कि अगर पार्टी ने उसे इस योग्य समझा तो वह चुनाव लडऩे को तैयार है।
असल में हुआ ये कि एक दिन पहले ही एक समाचार पत्र ने भाजपा के चार दावेदारों का जिक्र किया था, जिनमें देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत, मेयर धर्मेन्द्र गहलोत, पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी व युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा का नाम था। स्वाभाविक रूप से यह जैन को नागवार गुजरा कि उन्हें तो मीडिया दावेदार ही नहीं मान रहा। इस पर भला वे चुप क्यों रहने वाले थे। उन्हें तुरंत मौका भी मिल गया। उन्होंने सवर्णों को आरक्षण दिए जाने पर सरकार की तारीफ करने के बहाने पत्रकारों को बुलाया। चूंकि दावेदारी की खबर ताजा थी, इस कारण उस पर भी चर्चा हुई। इसमें जैन ने साफ तौर पर कह दिया कि इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव में अजमेर संसदीय सीट से वे भाजपा के टिकट पर चुनाव लडऩे की इच्छुक हैं। जैन ने कहा कि लोकसभा क्षेत्र की सभी विधानसभा सीटों से यह मांग उठ रही है कि पार्टी के कर्मठ व निष्ठावान तथा वरिष्ठता के नाते उन्हें टिकट दिया जाना चाहिए। जैन का कहना है कि उन्हें संसदीय क्षेत्र के सभी जाति वर्ग से जुड़े लोगों का समर्थन प्राप्त है और यह संगठन से जुड़ी सीट है, उनको अवसर दिए जाने पर वरिष्ठता को सम्मान मिलेगा और भाजपा को निश्चित जीत हासिल होगी।
वैसे खुसर-फुसर है कि सर्वाधिक दमदार दावेदारी सारस्वत की मानी जा रही है। उनकी खासियत ये है कि वे कभी अपनी ओर से दावेदारी की बात नहीं कहते। पार्टी के भीतर भले ही कोशिश करते हों, मगर मीडिया के सामने यही कहते हैं कि पार्टी का आदेश हुआ तो वे उसके लिए तैयार हैं। हाल ही संपन्न विधानसभा चुनाव में भी केकड़ी से उनकी दावेदारी का जिक्र हुआ था। माना जाता है कि उन्होंने संगठन के लिए अच्छा काम किया है। इस कारण उनका दावा मजबूत है। बात चली है तो बता दें कि पिछले बीस साल से टिकट के इच्छुक हैं। पहले ब्यावर से लडऩे का मानस रखा करते थे।
बताते हैं कि मेयर गहलोत का भी मानस है कि लोकसभा का चुनाव लड़ें। उन्होंने जीत का गणित भी कूत लिया है। जहां तक पलाड़ा का सवाल है, उन्होंने भी पूरी तैयारी आरंभ कर दी है। उनकी दावेदारी के बारे में तो सोशल मीडिया पर भी खबरें आने लग गई हैं। उसमें साफ तौर पर लिखा है कि भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा की उम्मीदवारी जोर पकडऩे लगी है। उनका नाम सर्वमान्य नेता के तौर पर तेजी से उभर के आ रहा है। युवाओं एवं आमजन के मुंह पर लोकसभा चुनाव की चर्चा के साथ ही भंवर सिंह पलाड़ा का नाम आम हो चुका है। आम चुनाव से 5 महीने पहले से ही सोशल मीडिया सहित गली, मोहल्ले, चौराहे पर भंवर सिंह पलाड़ा के नाम की चर्चा शुरू हो चुकी है। पलाड़ा ने पत्नी श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के जिला प्रमुख के कार्यकाल और मसूदा विधायक रहते आमजन के दिलों पर विकास कार्य के साथ ही अपने सरल सहज स्वभाव एवं उपलब्धता के साथ ही त्वरित कार्यवाही से अपनी अलग पहचान बनाई है। हर आम और खास उनकी कार्यशैली के कायल है। पलाड़ा द्वारा बिना भेदभाव एवं पार्टी पॉलिटिक्स के हर फरियादी की फरियाद सुनकर त्वरित न्याय दिलवाने की खूबी भी आज क्षेत्र के लोग गिनाते नहीं थक रहे हैं। शायद ही अजमेर जिले में ऐसा कोई नेता हो, जिसके लिए क्षेत्र के लोग पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठ कर वोट करने के लिए तैयार हो। अगर भाजपा जन भावना के अनुरूप पलाड़ा को प्रत्याशी बनाती है तो अजमेर जिले से बहुत बड़ी जीत होने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए।
अगर पार्टी ने इस क्षेत्र में ढ़ाई लाख जाट मतदाताओं को मद्देनजर रखते हुए किसी जाट को मैदान में उतारने की सोची तो पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी का नाम आ सकता है। भूतपूर्व केबीनेट मंत्री स्वर्गीय प्रो. सांवरलाल जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा पिछले लोकसभा उपचुनाव में हारने के बाद हाल नसीराबाद विधानसभा सीट से जीत चुके हैं। उनके अतिरिक्त पूर्व जिला प्रमुख सरिता गैना भी दावेदारी करेंगी ही। अगर किसी जाट को ही टिकट देना तय हुआ और अजमेर मौजूद दावेदार कमजोर माने गए तो सी. आर. चौधरी नागौर छोड़ कर यहां टपक सकते हैं। गैर जाटों में पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा की भी दावेदारी सामने आने वाली है। 

लीज को लेकर लटके हुए हैं दुकानदार

अजमेर नगर निगम के तकरीबन आठ सौ किरायेदार दुकानदार पिछली सरकार के दौरान जारी हुए लीज के आदेश अमल में नहीं लाए जाने के कारण लटके हुए हैं। चूंकि आदेश की अवधि 31 दिसंबर 2018 को ही समाप्त हो गई थी, इस कारण निगम को अब नए आदेशों का इंतजार है। स्वाभाविक रूप से निगम की दुकानों के किरायेदार दुकानदार भी उसी के इंतजार में बैठे हैं।
असल में निगम के इन किरायेदार दुकानदारों का दुकानों को लीज में कनवर्ट किए जाने का मसला काफी दिन से लटका पड़ा था। कई दौर की वार्ता के बाद लीज के बारे में सहमति तो हो गई, मगर फाइल पूर्व स्वायत्त शासन मंत्री श्रीचंद कृपलानी के पास अटकी रही। जब फाइल मुख्यमंत्री के पास भेजी गई तो वहां से भी आदेश जारी होने में देरी हो गई। आदेश जारी होते ही दुकानदारों को राहत की उम्मीद बंधी, मगर इसी दौरान विधानसभा चुनाव की आचार संहिता लागू होने के कारण मामला अटका रहा। इस बीच आयुक्त का तबादला हो गया। नए आयुक्त को मामला समझने के लिए वक्त चाहिए था। जैसे ही आचार संहिता समाप्त हुई तो तुरत-फुरत में लीज की कार्यवाही आरंभ की गई, मगर औपचारिकताएं अधिक होने के कारण उसे 31 दिसंबर तक पूरा करना संभव नहीं रहा। हालांकि मेयर धर्मेन्द्र गहलोत चाहते थे कि कैसे भी आदेश पर अमल करवा लिया जाए, मगर संभवत: निगम प्रशासन का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया। ज्ञातव्य है कि इस मामले में पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी ने विशेष रुचि ली थी। उन्होंने बाकायदा दुकानदारों की बैठक भी ली। उन्हें उम्मीद थी कि दुकानदारों का काम करने से वोटों का लाभ मिलेगा। स्वाभाविक रूप से मिला भी। मगर अब आदेश की अवधि समाप्त हो जाने व सरकार बदल जाने के कारण मामला अटक गया है। इस बारे में निगम ने डायरेक्टर से मार्गदर्शन मांगा है, मगर समझा जाता है कि इस मामले में अब स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल नए सिरे से विचार करेंगे। हालांकि वे चाहें तो पिछले ही आदेश की अवधि बढ़ा सकते हैं, मगर लगता यही है कि वे आदेश की फिर से समीक्षा करेंगे। दुकानदारों को भी लगता है कि अब धारीवाल रुचि लेंगे, तभी कुछ हो पाएगा, इस कारण वे उनसे संपर्क करने और दबाव बनाने की जुगत में लग गए हैं। इसके लिए वे विभिन्न माध्यमों का इस्तेमाल कर रहे हैं। चूंकि पांच माह के भीतर लोकसभा चुनाव होने हैं, इस कारण दुकानदारों को उम्मीद है कि वोटों की चाहत में कांग्रेस सरकार जरूर राहत प्रदान करेगी। दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यदि इस पर जल्द से जल्द फैसला नहीं हुआ तो आचार संहिता फिर से लागू हो जाएगी, और मामला फिर से लटक जाएगा। दुकानदारों का प्रयास है कि कैसे भी आचार संहिता लागू होने से पहले कार्यवाही पूरी हो जाए।

अब कई नेताओं की नजर मेयर सीट पर

कांग्रेस के सत्तारूढ़ होते ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने स्वायत्तशासी संस्थाओं में अध्यक्ष, सभापति व मेयर आदि के चुनाव सीधे कराने के अपने पिछली सरकार के फैसले को फिर से लागू कर दिया है। ज्ञातव्य है कि पिछली भाजपा सरकार ने अध्यक्ष, सभापति व मेयर के चुनाव वार्ड पार्षदों में से चुनने का नियम लागू किया था। इसे यूं समझें कि जिस प्रकार कांग्रेस सरकार के दौरान कमल बाकोलिया सीधे चुनाव से मेयर बने थे, जबकि भाजपा सरकार में धर्मेन्द्र गहलोत पार्षदों में चुन कर मेयर बने। बहरहाल, अब जब कि नया आदेश लागू हो गया है तो कई नेता मेयर बनने का सपना देखने लगे हैं।
जहां तक सीट के रिजर्वेशन का सवाल है, अभी यह खुलासा नहीं हुआ है कि क्या रिजर्वेशन की लॉटरी नए सिरे से निकाली जाएगी, या फिर वर्तमान सामान्य सीट को छोड़ कर लॉटरी निकाली जाएगी। अगर नए सिरे से लॉटरी निकाली गई तो सामान्य वर्ग के लिए संभावनाएं बनी रहेंगी। कुछ का मानना है कि चूंकि अनुसूचित जाति महिला, अनुसूचित जाति पुरुष, सामान्य पुरुष वर्ग से एक-एक बार सभापति-मेयर रहे हैं, इस कारण इस बार ओबीसी पुरुष व ओबीसी महिला को चांस मिल सकता है। कुल मिला कर मेयर बनने के इच्छुक नेताओं की नजर लॉटरी पर टिकी हुई है।
मेयर की सीट सामान्य होने पर भाजपा में पार्षद जे. के. शर्मा, नीरज जैन की नजर है तो निवर्तमान एडीए चेयरमैन शिवशंकर हेडा, पूर्व यूआईटी चेयरमैन धर्मेश जैन सरीखे वरिष्ठ नेता भी मन बना सकते हैं। हालांकि मौजूदा मेयर धर्मेन्द्र गहलोत दुबारा मेयर बनने के इच्छुक नहीं बताए जाते, विशेष रूप से सीधे फाइट करके, चूंकि उनकी रुचि अब लोकसभा चुनाव में है, मगर मेयर की सीट ओबीसी के लिए रिजर्व होने पर वे भी मन कर सकते हैं। अगर मेयर की सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होती है तो हाल ही विधानसभा चुनाव में अजमेर दक्षिण से पराजित हेमंत भाटी, पूर्व मेयर कमल बाकोलिया, पूर्व उप मंत्री ललित भाटी व पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल कांग्रेस टिकट के दावेदार हो सकते हैं। इसी प्रकार भाजपा की ओर से मौजूदा जिला प्रमुख सुश्री वंदना नोगिया, पूर्व राज्यमंत्री श्रीकिशन सोनगरा के पुत्र विकास सोनगरा आदि का दावा बन सकता है।
मेयर की सीट ओबीसी के लिए रिजर्व होने पर माली, स्वर्णकार आदि ओबीसी जातियों के नेता दावा ठोक सकते हैं। ये नेता कौन होंगे, इस बारे में अभी से कयास लगाना कठिन है। बानगी के तौर बता सकते हैं कि भाजपा में तुलसी सोनी दावा ठोक सकते हैं, जिनकी विधायक का टिकट हासिल करने की इच्छा पूरी नहीं हो पाई है।
वैसे, एक बात है। मेयर का चुनाव लडऩा आसान काम नहीं है। जो भी नेता पार्टी का टिकट लेकर आएगा, उसको कम से कम तीस लाख रुपए तो केवल पार्षद प्रत्याशियों पर खर्च करने होंगे। साठ वार्डों में प्रत्याशी कम से कम पचास हजार रुपए तो मेयर प्रत्याशी से झटकेंगे, वरना काम नहीं करेंगे।
आखिर में एक फैक्टर का भी जिक्र करना अनुचित नहीं होगा, वो यह कि स्थानीय राजनीति में सिंधियों की अहम भूमिका आंकी गई है। भाजपा जरूर किसी सिंधी को टिकट नहीं देगी, क्योंकि उसका मौजूदा विधायक सिंधी है, मगर कांग्रेस भाजपा मानसिकता के सिंधी वोट बैंक में सेंध मारने के लिए कदाचित किसी सिंधी को टिकट देने पर कम से कम एक बार तो विचार कर ही सकती है।

रामचंद्र चौधरी होंगे अजमेर लोकसभा क्षेत्र के प्रबल कांग्रेस दावेदार

खुसर-फुसर है कि अजमेर डेयरी के चेयरमैन रामचंद्र चौधरी आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से प्रबल दावेदार होंगे। बताया जाता है कि हाल ही संपन्न विधानसभा चुनाव के दौरान फिर से कांग्रेस में शामिल होने के दौरान ही लगभग यह तय हो गया था कि उनकी दावेदारी को गंभीरता से लिया जाएगा।
ज्ञातव्य है कि प्रदेश कांग्रेस से नाइत्तफाकी के चलते उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि वे भाजपा में तो शामिल नहीं हुए, मगर उन्होंने भाजपा को खुला समर्थन दिया था। इसके एवज में उन्हें भाजपा हाईकमान से कोई लाभ नहीं दिया। विधानसभा चुनाव में जाट वोट बैंक में सेंध मारने के लिए उन्हें कांग्रेस में लिया गया। कहते हैं कि मसूदा में उनकी मेहनत की वजह से ही कांग्रेस के राकेश पारीक विजयी हुए। अब जबकि लोकसभा चुनाव की सरगरमी बढऩे लगी है तो समझा जाता है कि वे टिकट के प्रबल दावेदार होंगे। इस दिशा में उन्होंने प्रयास भी शुरू कर दिए हैं।
यहां आपको बता दें कि अजमेर लोकसभा क्षेत्र में तकरीबन ढ़ाई लाख जाट मतदाता हैं। ऐसे में कांग्रेस किसी जाट पर ही दाव खेलने का विचार कर सकती है। यूं जाट दावेदारों में पूर्व जिला प्रमुख रामस्वरूप चौधरी का नाम भी लिया जा रहा है। रहा सवाल पूर्व विधायक नाथूराम सिनोदिया का तो वे चूंकि पिछले विधानसभा चुनाव में किशनगढ़ से बागी बन कर खड़े हो गए थे, इस कारण उनकी संभावनाएं पूरी तरह से समाप्त मानी जाती हैं। अलबत्ता जाट वोटों पर पकड़ के लिए उन्हें फिर से कांग्रेस में जरूर शामिल किया जा सकता है।
उधर पूर्व जिला प्रमुख व पूर्व मसूदा विधायक श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पतिदेव युवा भाजपा नेता व समाजसेवी भंवर सिंह पलाड़ा आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं। श्रीमती पलाड़ा के हाल ही मसूदा से हार जाने के बाद सक्रिय राजनीति में बने रहने की मंशा से उन्होंने पूरे लोकसभा क्षेत्र का बारीकी से अध्ययन शुरू कर दिया है।
असल में डॉ. रघु शर्मा के केकड़ी से चुने जाने के बाद अजमेर लोकसभा क्षेत्र खाली हो गया है। उपचुनाव में हारे रामस्वरूप लांबा नसीराबाद से विधायक चुने जा चुके हैं। चूंकि लोकसभा के आम चुनाव में मात्र पांच माह शेष हैं, इस कारण यहां उपचुनाव नहीं होंगे। आम चुनाव के साथ ही अजमेर में चुनाव होने हैं। फिलवक्त दावेदारी के लिहाज से यह क्षेत्र खाली हो गया है। दोनों दल नए सिरे से विचार कर रहे हैं कि किस पर दाव खेला जाए। हालांकि देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी.पी. सारस्वत को पूरी उम्मीद है कि इस बार उन्हें मौका मिल सकता है। देखने वाली बात ये है कि क्या भाजपा भी रघु शर्मा के एक बार यहां से जीतने के बाद ब्राह्मण पर दाव खेलने पर विचार करती है या नहीं। यूं इस क्षेत्र में जाटों के तकरीबन ढ़ाई लाख वोट हैं, इस कारण दावा तो किसी जाट का ही बनता है, मगर भाजपा के कुछ जमा दो प्रबल दावेदार हैं। किशनगढ़ के भाजपा विधायक भागीरथ चौधरी व पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गैना। अगर इन पर दाव खेलना भाजपा को रिस्की लगा तो हो सकता है कि नागौर से सी. आर. चौधरी को आयातित किया जा सकता है। उधर वैश्य ये मानते हैं कि इस सीट पर उनका दावा बनता है। इस लिहाज से पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा व पूर्व यूआईटी चेयरमैन धर्मेश जैन दावेदारी करने के मूड में हैं।