गुरुवार, 31 जुलाई 2014

कांग्रेस आईटी सोशल मीडिया सेल ने मचा रखी है धूम

राज्य और केन्द्र में केन्द्र में बुरी तरह से पराजित कांग्रेस के कुछ नए चेहरों ने सोशल मीडिया पर धूम मचा रखी है। शहर कांग्रेस आईटी सोशल मीडिया सेल के अनुपम शर्मा व नील शर्मा फेसबुक, ट्विटर, वाट्सएप इत्यादि सोशल मीडिया पर छाये हुए हैं। वे केन्द्र की मोदी सरकार और राज्य की वसुंधरा सरकार की एक भी त्रुटि को नहीं बख्शते। रोज कुछ नई पोस्ट ला कर हमले बोल रहे हैं। दिलचस्प बात ये है कि उनकी पोस्ट ऐसी होती हैं जैसे कोई प्रोफेशनल बना रहा हो।
कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्य कांग्रेस संगठन व अन्य अग्रिम संगठन जितने सक्रिय नहीं, उससे कहीं अधिक वे सक्रिय हैं। कांग्रेस संगठन कभी सोता तो कभी जागता रहता है, मगर एक समय वह भी याद आता है, जबकि ब्लैकमेल कांड के कारण बदनाम होने के बाद युवक कांग्रेस निष्क्रिय हो गया था, जबकि कांग्रेस सेवादल अत्यधिक सक्रिय था। शैलेन्द्र अग्रवाल के नेतृत्व में सेवादल आए दिन धरना-प्रदर्शन करता और शहर कांग्रेस के पदाधिकारी उसमें आमंत्रितों के रूप में भाग लिया करते थे। अब उसी तरह की जिम्मेदारी आईटी सेल ने संभाल रखी है।
सेल के पदाधिकारियों व वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रताप यादव, शैलेष गुप्ता आदि ने वाट्स एप पर ग्रुप बना रखे हैं और दिनभर उन पर भाजपा की बखिया उधेड़ी जाती है। उनकी सक्रियता को देख कर लगता है कि अगर यही सक्रियता चुनाव से पहले होती तो कदाचित कांग्रेस की इतनी दुर्गति नहीं होती। मजे की बात ये है कि चुनाव के दौरान भाजपा का आईटी सेल बेहद सक्रिय था और लगातार कांग्रेस पर हमले करता था, मगर सत्ता में आने के बाद वह शांत हो कर बैठा है।

शनिवार, 26 जुलाई 2014

नसीराबाद सीट के मामले में कांग्रेस हतोत्साहित नहीं

बेशक विधानसभा चुनाव में नसीराबाद सहित अजमेर जिले की सभी  सीटों पर हारने और अजमेर संसदीय क्षेत्र में मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के बुरी तरह से पराजित होने के बाद कांग्रेस हतोत्साहित है और उसे सदमे से बाहर निकलने में वक्त लगता दिखता है, मगर नसीराबाद में आगामी सितम्बर-अक्टूबर में होने जा रहे विधानसभा उप चुनाव को लेकर कांग्रेस हताशा में नहीं है। और यही वजह है कि जैसे ही जिला निर्वाचन कार्यालय ने चुनावी तैयारियों के लिए प्रशिक्षण कलैंडर जारी किया है, कांग्रेसियों में इसको लेकर तनिक उत्साह नजर आ रहा है। हालांकि यह नहीं माना जाता कि विधानसभा व लोकसभा चुनाव में चली मोदी लहर के धीमी हुई है, साथ ही केन्द्र व राज्य में पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकारें हैं, इस कारण भाजपा का मनोबल अपेक्षाकृत मजबूत ही है, मगर कांग्रेसी कम से कम इस सीट को लेकर हार मान कर नहीं बैठे हैं। उन्हें लगता है कि यदि ठीक से चुनाव लड़ा जाए तो जीता भी जा सकता है।
दरअसल कांग्रेसी इस चुनाव को लेकर थोड़े से आश्वस्त इस वजह से हैं कि लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन विधानसभा चुनाव से बेहतर रहा। वो ये कि वह सिर्फ 10 हजार 999 मतों से ही पिछड़ी, जबकि विधानसभा चुनाव में सांवर लाल जाट 28 हजार 900 मतों से जीते थे। अपने ही विधानसभा क्षेत्र में जाट का पिछडऩा तनिक सोचने को विवश करता है, मगर इसकी वजह ये आंकी जाती है कि लोकसभा चुनाव में खुद सचिन पायलट के होने के कारण गुर्जर मत एकजुट हो गए थे। जो भी हो, मगर अंतर कम होना कांग्रेस की हताशा को कम तो करता है। एक और फैक्टर भी कांग्रेसी अपने पक्ष में गिन कर चल रहे हैं कि महंगाई का हल्ला मचा कर जिस प्रकार भाजपा केन्द्र व राज्य में सत्ता में आई और उसके बाद महंगाई और बढ़ गई है, इस कारण आम जनता में अंदर ही अंदर प्रतिक्रिया पनप रही है। राज्य में भाजपा सरकार का अब तक कोई खास परफोरमेंस भी नहीं रहा है, इस कारण कांग्रेसी मानते हैं कि आम जन का भाजपा से मोह भंग हुआ होगा।
बहरहाल, चुनाव के लिए प्रशासनिक तैयारियों का आगाज होते ही दोनों राजनीतिक दलों में भी हलचल तेज हो गई है। भाजपा में तो अटकलें तभी शुरू हो गई थीं, जब यहां से जीते प्रो. जाट ने लोकसभा चुनाव भी जीत लिया। सब जानते हैं कि वे लोकसभा का चुनाव लडऩा नहीं चाहते थे। उन्होंने अपने बेटे रामस्वरूप लांबा के लिए टिकट का प्रयास किया था। ऐसे में अब माना जा रहा है कि वे अपने बेटे के लिए ही नसीराबाद से टिकट मांगेगे।  हालांकि सांसद बनने के बाद भी जाट राज्य मंत्रिमंडल में केबिनेट मंत्री बने हुए हैं, इससे एक संदेह होता है कि कहीं वे दुबारा विधायक बनने की संभावना तो नहीं तलाश रहे, लेकिन उनके फिर से इस विधानसभा क्षेत्र से उप चुनाव लडऩे की संभावना कम ही है। ज्ञातव्य है कि राज्य में मंत्री होते हुए भी लोकसभा चुनाव लडऩे को तैयार होने के पीछे यही गणित मानी जा रही थी कि वसुंधरा उन्हें केन्द्र में मंत्री बनवाएंगी, मगर ऐसा अब तो संभव हो नहीं पाया है।
भाजपा में टिकट को लेकर तगड़ी खींचतान हो सकती है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वंशवाद के खिलाफ अपना मन्तव्य जाहिर कर चुके हैं, इस कारण जाट के पुत्र को टिकट मिलने में संदेह जताया जा रहा है। ऐसे में चूंकि यह सीट गुर्जर, रावत व जाट बाहुल्य है, इस वजह से इन समाजों से जुड़े नेता प्रयास कर सकते हैं। उनमें प्रमुख नाम पूर्व में तीन बार स्वर्गीय गोविंद सिंह गुर्जर से हार चुके मदन सिंह रावत, जिला परिषद सदस्य ओमप्रकाश भडाणा, राजेंद्र सिंह रावत, केसरपुरा के पूर्व सरपंच शक्ति सिंह रावत के हैं। उनके अतिरिक्त पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, भाजपा देहात जिला अध्यक्ष बी पी सारस्वत व अनिरुद्ध खंडेलवाल भी हाथ मारने की फिराक में हैं। जिले से बाहर के नेता भी नजरें गड़ाए हुए हैं, जिनमें पूर्व मंत्री दिगंबर सिंह, आरपीएससी के पूर्व सदस्य ब्रह्मदेव गुर्जर, गुर्जर नेता अतर सिंह भडाणा आदि शामिल हैं।
बात अगर कांग्रेस की करें तो यहीं से विधायक रहे और हाल के चुनाव में हारे महेंद्र सिंह गुर्जर, श्रीनगर प्रधान रामनारायण गुर्जर, सुनील गुर्जर, पूर्व संसदीय सचिव ब्रह्मदेव कुमावत, पार्षद नौरत गुर्जर, पूर्व मनोनीत पार्षद सुनील चौधरी लाइन में हैं। वैसे आपको बता दें कि कुछ नेताओं की ओर से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे नसीराबाद सीट से चुनाव लड़ें। ऐसा इसलिए कि वे अजमेर जिले की इस सीट से अच्छी तरह से वाकिफ हैं और यहां उनके सजातीय गुर्जर वोटों की बहुलता है। प्रदेश कांग्रेस के नेता सचिन पर विधानसभा चुनाव के लिए दबाव इस वजह से बना रहे हैं कि एक विधायक के रूप में विधानसभा में उनकी मौजूदगी से 21 सदस्यीय विधायक दल को संबल मिलेगा। विधायक रहते हुए वे कांग्रेस पक्ष दमदार तरीके से रख सकते हैं। साथ ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के नाते जर्जर हो चुकी कांग्रेस को मजबूत करने में भी सुविधा रहेगी।
आइये, लगे हाथ इस सीट का मिजाज भी जानते चलें:-
अजमेर जिले की नसीराबाद विधानसभा सीट पर स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर का लगातार छह बार कब्जा रहा और उनके निधन के बाद उनके ही भतीजे व श्रीनगर पंचायत समिति के पूर्व प्रधान महेन्द्र सिंह गुर्जर काबिज हुए। दरअसल यहां पूर्व में लगातार गुर्जर व रावतों के बीच मुकाबला होता था। बाबा के सामने लगातार तीन बार रावत समाज के मदन सिंह रावत खड़े किए गए, मगर जीत उनकी किस्मत में थी ही नहीं। परिसीमन के तहत पुष्कर व भिनाय विधानसभा क्षेत्र के कुछ हिस्सों को शामिल किए जाने के कारण यहां का जातीय समीकरण बदल गया। तकरीबन 25 हजार जाट मतदाताओं के मद्देनजर पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को उतारा गया, मगर महज 71 वोटों से हार गए। यानि की कांटे की टक्कर रही।
नसीराबाद यों तो एससी बहुल इलाका है, लेकिन किसी एक जाति की बात करें तो गुर्जर सबसे ज्यादा हैं। राजनीतिक पंडितों के मुताबिक नसीराबाद में एससी के करीब 45 हजार, गुर्जर करीब 30 हजार, जाट करीब 25 हजार, मुसलमान करीब 15 हजार, वैश्य करीब 15 हजार, रावत करीब 17 हजार हैं। इनके अलावा ब्राह्मण, यादव मतदाता भी हैं। परंपरागत मतों के हिसाब से जोड़ कर देखें तो गुर्जर, एससी, मुसलमान कांग्रेस का वोट बैंक 90 हजार से अधिक हो जाता है। क्षेत्र में प्रत्याशी के जातिगत मतों और परंपरागत मतों को जोड़कर देखें तो भाजपा का वोट बैंक भी करीब 90 हजार के लगभग हो जाता है। शेष मतों को लेकर दोनों दलों में कांटे का मुकाबला होता है। वैसे भी हार जीत का अंतर इस सीट पर काफी कम रहता आया है। दरअसल इस सीट पर कांग्रेस का पूरा जोर एससी और गुर्जर मतों पर रहता आया है। गुर्जरों का मतदान प्रतिशत 70 से 90 प्रतिशत तक कराया जाता है। पहली बार जब प्रो. जाट यहां से लड़े तो वे अपने सजातीय वोटों का प्रतिशत 70 से ऊपर नहीं ले जा पाए, उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। कुल मिला कर लंबे अरसे तक यह कांग्रेस का गढ़ रहा, मगर दिसम्बर में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस विरोधी लहर के चलते सारे जातीय समीकरण धराशायी हो गए और प्रो. जाट रिकार्ड 28 हजार 900 मतों से विजयी हुए। सांवर लाल को 84 हजार 953 मत मिले, जबकि महेन्द्र सिंह गुर्जर को 56 हजार 53 मत। इसके बाद हाल ही हुए लोकसभा चुनाव में मतांतर आश्चर्यजनक रूप से कम हो गया। हालांकि पूरे संसदीय क्षेत्र में जाट को 1 लाख 71 हजार 983 की लीड मिली, लेकिन नसीराबाद में लीड घट कर 10 हजार 999 मतों पर सिमट गई। प्रचंड मोदी लहर के बाद भी लीड कम होना रेखांकित करने लायक तथ्य है। यानि कि यदि आगामी उपचुनाव में लहर की तीव्रता बरकरार न रही तो कांग्रेस व भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला संभव है। सचिन जैसे दिग्गज गुर्जर नेता के लिए यह मुकाबला जीत में तब्दील करना आसान हो सकता है। इसकी एक वजह ये भी है कि भाजपा के पास अब प्रो. जाट जैसा कोई दिग्गज नेता नहीं है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

हबीब को हटाना मात्र कोई उपाय नहीं

प्रश्रपत्र लीक होने, प्रश्र पत्रों में गड़बडिय़ां पाए जाने आदि जैसी गंभीर घटनाओं के चलते रद्द हुई परीक्षाओं की वजह से प्रदेश का युवा वर्ग तो परेशान ही है, सरकार भी भारी दबाव में है। हर ओर से आरपीएससी चेयरमैन हबीब खान गौरान को हटाए जाने की मांग उठ रही है। मामले ने राजनीतिक रूप भी ले लिया है। मगर सवाल ये है कि क्या केवल गौरान को हटाए जाने मात्र से समस्या का हल हो जाएगा? क्या केवल मुखिया को अपदस्त कर देने से ही आयोग की व्यवस्था सुधर जाएगी और प्रश्न पत्र लीक नहीं होंगे?
वस्तुत: जब भी इस प्रकार के संगीन मामले सामने आते हैं, वे राजनीति के शिकंजे में आ जाते हैं। मामले की जांच का मुद्दा तो उठता ही है, मगर सारा ध्यान संस्था के मुखिया को हटाने पर केन्द्रित हो जाता है। अगर यह मांग मान ली जाती है तो मामला ठंडा हो जाता है और उसके बाद जांचों का क्या होता है, उनका हश्र क्या होता है, सब जानते हैं। यानि कि गुस्सा संस्था प्रधान को हटाने तक ही सीमित रहता है और बाद में वही घोड़े और वही मैदान। आरपीएससी के मामले में ऐसा ही होता नजर आता है। जो विधायक व नेता पहले चुप बैठे थे, वे मुखर हो कर गोरान को हटाए जाने की मांग कर रहे हैं। आरपीएससी में हुई धांधली तो गरमायी हुई है ही, अब गौरान के और प्रकरणों को भी उभारा जा रहा है। विधायकों ने थानों से बंधी व हत्या जैसे मामलों में गौराण पर भी सवाल उठाना शुरू कर दिया है।
 आपको याद होगा कि अजमेर के तत्कालीन एसपी राजेश मीणा के बंधी वसूली के प्रकरण के दौरान भी गोरान का नाम आया था। उनका जिक्र संबंधित एफआईआर में था। इस रूप में कि राजेश मीणा और एएसपी लोकेश मीणा के लिए थानों से बंधी जुटाने वाले रामदेव ठठेरा 2 जनवरी 2013 को कपड़े की थैली लेकर लोकेश मीणा के निवास से गौरान के बंगले में गया था। वह 40-50 मिनट तक बंगले में रहा और इसके बाद खाली हाथ लोकेश मीणा के निवास पर लौट आया। लेकिन आरोप पत्र में उनका नाम नहीं था। इस बारे में एसीबी ने उनको क्लीन चिट दे दी, मगर ये खुलासा नहीं किया कि ठठेरा उनके निवास पर क्यों गया था। उसने ये भी साफ नहीं किया कि अगर गौरान का बंधी मामले से कोई लेना देना नहीं था तो फिर उनका नाम एफआईआर में क्यों दर्ज किया गया। उस वक्त न तो सत्तारूढ़ कांग्रेस ने और न ही विपक्ष में बैठे भाजपा विधायकों ने इस मामले को उठाया। अब जबकि आरपीएससी अपने ही अंदरुनी मामले में फंस गई तो गौरान के उस प्रकरण को भी उठाया जा रहा है। खींवसर विधायक हनुमान बेनीवाल ने आरोप लगाया कि जनवरी 2013 में बंधी मामले में गौराण की भूमिका की जांच क्यों नहीं हुई, जबकि एफआईआर में उनका नाम है। विधायकों ने उनके कुछ और मामले भी विधानसभा में उठाए हैं। यानि कि अब मामला पूरी तरह से गौरान को हटाए जाने पर केन्द्रित हो गया है।
इसमें काई दो राय नहीं कि वर्तमान में आयोग के जो हालात हैं, उससे उसकी पूरी कार्यप्रणाली ही संदेह के घेरे में आ गई है। और उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत महसूस की जा रही है। मगर सवाल ये है कि आज जो नेता गौरान अथवा आयोग की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगा रहे हैं वे आयोग में अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर किए जाने नहीं किए जाने का सवाल क्यों नहीं उठाते। सच तो ये है कि गौरान हो या पूर्ववर्ती अध्यक्ष, सभी की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर ही की जाती रही है। राजनीतिक आधार पर ही नहीं, बल्कि जातीय तुष्टिकरण तक के लिए। नागौर के मौजूदा भाजपा सांसद सी आर चौधरी को भाजपा सरकार ने जाटों को खुश करने के लिए अध्यक्ष बनाया तो कांग्रेस ने मुस्लिमों की नाराजगी को कम करने के लिए गौरान की नियुक्ति करवा दी। चेयरमैन से लेकर सदस्य तक राजनीतिक दलों के वफादार हैं तो  जाहिर है कि यहां प्राथमिकता प्रतिभा नहीं बल्कि सियासी प्रतिबद्धता है। अगर हालत यह हैं तो आरपीएसी में गड़बडिय़ां और पेपर बिकना और लीक होना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। ऐसे में भला कैसे उम्मीद की जा सकती है कि आयोग के कामकाज में निष्पक्षता या पारदर्शिता और परीक्षा कार्य में गोपनीयता बनी रहेगी। यानि कि अगर हमें आयोग के कामकाज में सुधार लाना है तो आयोग में नियुक्ति की प्रक्रिया में परिवर्तन लाना होगा। यदि आरपीएससी के मूल ढांचे में अच्छी नीयत से मूलभूत बदलाव, पेशेवर लोगों की नियुक्ति और सबसे जरूरी यहां के राजनीतिक पर्यावरण का शुद्धिकरण नहीं होगा तो पेपर बिकना रुकेंगे नहीं। प्रतिभावान निराश होते रहेंगे और प्रतिभा दरकिनार होती रहेगी।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 23 जुलाई 2014

मेयर के लिए कई की लार टपकेगी, मगर पार्षद का चुनाव लडऩा होगा

मेयर के लिए सीधे चुनाव की बात और थी, तब कम से कम एक स्तरीय चुनाव लडऩे का ग्रेस तो था, मगर अब चूंकि चुने हुए पार्षदों में से मेयर चुना जाएगा, इस कारण मेयर बनने के इच्छुक बड़े नेताओं को बड़ी दिक्कत होगी। हालांकि मेयर पद के लिए लार तो टपकेगी, मगर उसके लिए पार्षद स्तर का चुनाव लडऩा होगा। अगर मेयर का पद किसी वर्ग के लिए आरक्षित होता तो बात अलग थी, उसमें दावेदार सीमित होते, मगर अब चूंकि अजमेर मेयर का पद सामान्य हो गया है, इस कारण एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति उत्पन्न हो गई है।
जहां तक भाजपा का सवाल है, उसमें पहले तो वे दावेदार होंगे, जो कि विधानसभा चुनाव में गंभीर दावेदार थे। इनमें मुख्य रूप से शहर जिला भाजपा के प्रचार मंत्री व स्वामी समूह के सीएमडी कंवल प्रकाश किशनानी, पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत, पूर्व शहर जिला भाजपा अध्यक्ष शिवशंकर हेड़ा, नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन, नगर निगम के पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत आदि का नाम गिना जा सकता है। देखने वाल बात ये होगी कि क्या शहर स्तर के ये नेता पहले पार्षद का चुनाव लडऩे के लिए खुद को तैयार कर पाते हैं या नहीं। हां, अगर पार्टी ने आश्वासन दे कर खड़ा करवाया तो बात अलग है। कुछ इसी प्रकार की झिझक शहर जिला भाजपा के पूर्व अध्यक्ष पूर्णा शंकर दशोरा के लिए होगी। इन नेताओं के अतिरिक्त तुलसी सोनी, भागीरथ जोशी, सोमरत्न आर्य, नीरज जैन, अरविंद यादव, संपत सांखला, कमला गोखरू, सुभाष खंडेलवाल की भी गिनती दावेदारों में की जा सकती है। हां, इतना जरूर है कि विधानसभा व लोकसभा चुनाव में तगड़ी जीत के कारण इस बार भाजपाइयों के हौसले बुलंद रहेंगे। और इसी वजह से पार्षद के टिकट को लेकर जबरदस्त हंगामा होने वाला है। पिछली बार से पिछली बार, जब चूंकि वरिष्ठ भाजपा नेता औंकार सिंह कुछ कमजोर भूमिका में थे, इस कारण उनके धुर विरोधी प्रो. वासुदेव देवनानी नगर परिषद सभापति पद सामान्य के लिए होने के बाद भी ओबीसी के धर्मेन्द्र गहलोत को चुनवाने में कामयाब हो गए थे, मगर इस बार लखावत काफी प्रभावशाली हैं, इस कारण शहर के दो विधायकों देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल के अतिरिक्त उनकी भी चलेगी। चूंकि लखावत व अनिता की एक ही लॉबी है, इस कारण उनका पलड़ा भारी भी रह सकता है। वैसे यह इस पर भी निर्भर करता है कि अनिता व देवनानी में से कौन मंत्री बनता है। भाजपा में एक बात और होगी, वो यह कि टिकट न मिलने पर उसके बागी भी मैदान में आ सकते हैं। सब को पता है कि जीतने के बाद पार्टियां बोर्ड बनाने की गरज से बागियों को ले ही लेती हैं।
रहा सवाल कांग्रेस का तो बेशक दावेदार वहां भी होंगे, मगर कौन कितना दमदार होगा, यह तब की शहर कांग्रेस कार्यकारिणी पर निर्भर करेगा। हालांकि अभी महेन्द्र सिंह रलावता शहर अध्यक्ष हैं और तब कौन होगा, कुछ पता नहीं, मगर इतना तय है कि यहां के टिकटों में सीधा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट का दखल होगा। कम से कम अजमेर में तो वे अपना नेटवर्क बनाए ही रखेंगे। वैसे मोटे तौर पर मेयर पद के दावेदारों में  शहर अध्यक्ष महेंद्र सिंह रलावता, पूर्व उप मंत्री ललित भाटी, पूर्व विधायक डॉ. श्री गोपाल बाहेती, विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी रहे हेमंत भाटी, पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल, मौजूदा मेयर कमल बाकोलिया, शहर कांग्रेस उपाध्यक्ष कैलाश झालीवाल, वरिष्ठ महिला नेत्री श्रीमती प्रमिला कौशिक, वरिष्ठ नेता प्रताप यादव, अशोक जैन, हेमंत शर्मा, गुलाम मुस्तफा आदि के नाम गिने जा रहे हैं, मगर चूंकि यह पद सामान्य के लिए है, इस कारण अनुसूचित जाति के दावेदारों का पलड़ा भारी रहेगा।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

जलदाय मंत्री सांवरलाल जाट को उलझा दिया वसुंधरा ने

जलदाय मंत्री रहते प्रो. सांवरलाल जाट को लोकसभा का चुनाव लड़ाते वक्त ही भले ही यह माना गया कि हर कीमत पर मिशन पच्चीस हासिल करने के लिए मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने ये कदम उठाया है, मगर तभी ये आशंका थी और सवाल था कि जाट का क्या होगा? हार जाने पर मंत्री बनाए रखा जाता या नहीं ये सवाल तो अब बेमानी हो गया है क्योंकि वे जीत गए, मगर जीतने के बाद क्या उन्हें केन्द्र में भी मंत्री बनवा पाएंगी या फिर एक अदद सांसद रहने को मजबूर कर देंगी, यह सवाल अब भी कायम है। इतना ही नहीं, अब तो हालत ये है कि अकेले उन्हीं को निशाने पर ले कर सरकार के अस्तित्व पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। इसकी वजह से अजमेर के साथ जो अन्याय हुआ है, वो तो सबके सामने है ही। न वे ठीक से मंत्री पद की भूमिका निभा पा रहे हैं और न ही सांसद के नाते केन्द्र में कुछ कर पा रहे हैं।
बेशक विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने अपनी व्यवस्था दे कर कांग्रेस की आपत्ति को नकार दिया है, मगर कानूनविदों व जनता में यह विषय चर्चा का विषय बना हुआ है। ज्ञातव्य है कि कांग्रेस ने विधानसभा में यह तर्क दे कर हंगामा किया था कि सरकार अस्तित्व में ही नहीं है। ऐसे सदन की कार्यवाही कैसे चल सकती है क्योंकि 8 दिसंबर को चुनाव के नतीजे आने के बाद 13 दिसंबर को मुख्यमंत्री ने और 20 दिसंबर को सभी मंत्रियों के साथ सांवर लाल जाट ने मंत्री पद की शपथ ली। नियमों के अनुसार तब तक उन्होंने सदन में विधायक की शपथ नहीं ली थी, ऐसे में वे विधायक नहीं थे। यानी वे गैर विधायक मंत्री बने थे। संविधान की धारा 164 (4) के तहत बिना विधायक कोई भी व्यक्ति मंत्री रह सकता है, लेकिन 6 माह तक के लिए है। जाट मंत्री बनने के समय विधायक नहीं थे, लेकिन 21 जनवरी को उन्होंने शपथ ले ली। यानी 6 माह के अंदर विधायक बन गए। वे लगातार मंत्री रह सकते थे, लेकिन उन्होंने 29 मई को ही विधायक पद से इस्तीफा दे दिया। ऐसे में अब भी वे गैर विधायक मंत्री हैं। जबकि उनके गैर विधायक मंत्री बनने के छह महीने 20 जून को ही पूरे हो गए। ऐसे में उनके मंत्री पद की संवैधानिक स्थितियां 20 जून को ही समाप्त हो गईं। इसका अर्थ यह है कि इस समय राज्य मंत्रिमंडल में केवल 11 मंत्री हैं। जबकि संविधान की 164-(1 ए) के तहत 12 मंत्रियों से कम मंत्री नहीं हो सकते। चूंकि जाट 20 जून से मंत्री नहीं हैं, ऐसे में यह स्थिति संविधान का उल्लंघन है। इस पर अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने उनके तर्क को नकार दिया।
अब चूंकि विधानसभा अध्यक्ष व्यवस्था दे चुके हैं कि सरकार अस्तित्व में है, इस कारण मामला तकनीकी रूप से समाप्त हो गया है, बावजूद इसके कांग्र्रेस इस मुद्दे को लगातार गरमाये हुए है। न्यूज चैनल्स पर भी इसको लेकर बहस जारी है कि क्या सरकार वैधानिक संकट में है? इन बहसों से भले ही सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा हो, मगर उसकी किरकिरी तो हो ही रही है। ये सवाल उठाए जाने लगे हैं कि वसुंधरा ने जाट को क्यों अटका रखा हैïï? या तो उन्हें हटा कर किसी और को मंत्री बना दिया जाए ताकि संवैधानिक सवाल उठे ही नहीं, या फिर मंत्री बनाए रखना है तो सांसद पद से इस्तीफा दिलवाएं। दोनों में से कुछ तो करें, मगर अज्ञात कारणों से इस पर निर्णय नहीं कर पा रही हैं।
एक संभावना ये है कि केन्द्र में राज्य मंत्री बनाए जाने की मांग पूरी होने तक वे उन्हें यहां मंत्री बनाए रखना चाहती हैं। या फिर महज इसी कारण मामला अटका हुआ है कि किसी वजह से मंत्रीमंडल विस्तार हो नहीं पा रहा और इसी वजह से जाट लटके हुए हैं। जो कुछ भी हो मगर कांग्रेस को तो बैठे ठाले मुद्दा मिला हुआ है ही। रहा सवाल जाट का तो उनकी स्थिति भी त्रिशंकु जैसी है। उन्हें ये पता ही नहीं कि उनकी क्षमता का उपयोग राज्य में किया जाएगा या फिर केवल सांसद बने रह कर जनता की सेवा करनी होगी। या फिर केन्द्र में मंत्री बनने का कोई चांस है। जाहिर तौर पर उनकी इस असमंजस का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। वे न तो एक मंत्री के रूप में ठीक से काम कर पा रहे हैं और न ही एक सांसद के नाते स्थानीय मुद्दे केन्द्र में उठा पा रहे हैं।
निजी तौर पर जाट के लिए तब यह घाटे का सौदा होगा, यदि उन्हें वसुंधरा केन्द्र में मंत्री नहीं बनवा पातीं हैं। वे भले चंगे केबीनेट मंत्री पद का रुतबा लिए हुए थे, मगर पार्टी की खातिर या किसी अज्ञात चाल के कारण एक अदद सांसद ही बन कर रह गए। आज तक इस बात का खुलासा नहीं हुआ है कि वसुंधरा ने आखिर क्या मंत्र मार कर या आश्वासन दे कर जाट को लोकसभा का चुनाव लडऩे के लिए राजी किया, जबकि खुद उनकी इच्छा नहीं थी।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 19 जुलाई 2014

स्थाई न्यूरो सर्जन की व्यवस्था आठों भाजपा विधायकों के लिए चुनौती

कथित नाकामियों की वजह से सत्ताच्युत हुई कांग्रेस के पास तो कोई समाधान नहीं था, सुराज और अच्छे दिन के वादे करके सत्ता में आई भाजपा भी अजमेर में न्यूरो सर्जरी सुविधा के मामले में हाथ खड़े किए हुए है। बीमारी की वजह से लंबे समय से छुट्टी पर चल रहे जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के न्यूरो सर्जरी विभाग के अध्यक्ष डॉ. बी. एस. दत्ता की गैर मौजूदगी में आखिर अस्पताल प्रशासन को न्यूरो सर्जरी वार्ड को ताले ही लगाने पड़ गए। भाजपा विदेश से आयातित हाईटैक चुनाव प्रचार के दम पर सत्ता पर तो काबिज हो गई, मगर सुपर स्पेशलिस्ट सेवाओं के मामले में अजमेर संभाग का सबसे बड़ा अस्पताल बीमार पड़ा है, इससे शर्मनाक बात कोई हो नहीं सकती।
हालत ये है कि डॉ. दत्ता की अनुपस्थिति में गंभीर मरीजों को भर्ती नहीं किया जा रहा है और यहां आने वाले अधिकतर रोगियों को जयपुर रैफर किया जा रहा है। इसमें कोई दोराय नहीं कि डॉ. दत्ता ने नौकरी को कभी नौकरी की तरह नहीं करके सदैव उसे सेवा के ही रूप में लिया, जिसकी वजह से बीमार होते हुए भी मरीजों के ऑपरेशन किए। मगर अब जब कि वे छुट्टी पर चले गए हैं तो नए मरीजों को भर्ती करना संभव नहीं रहा। ये तो चलो डॉ. दत्ता अब बीमार चल रहे हैं, मगर जिन दिनों तंदरुस्त थे, तब उनकी बदमिजाजी से प्रशासन से टकराव होता था। बेशक वे मरीजों के लिए भगवान की तरह ही हैं, मगर उनके काम को जो तरीका था, उसकी वजह से एक बार तत्कालीन तेजतर्रार जिला कलेक्टर राजेश यादव तक से भिड़ंत हो गई। दो इलैक्ट्रॉनिक मीडिया रिपोर्टस के मामले में सीधा तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का दखल था, मगर यहां से रुखसत करने की चेतावनी दे कर भी जिला कलेक्टर डॉ. दत्ता का बाल भी बांका नहीं कर पाए। स्पष्ट है कि सरकार के पास अजमेर न्यूरो सर्जन के रूप में डॉ. दत्ता का विकल्प तब भी नहीं था। माना कि सरकार की अपनी मजबूरियां हैं कि अच्छे न्यूरो सर्जन उसके पास नहीं हैं, मगर इसका अर्थ ये तो नहीं कि न्यूरो सर्जरी की सेवाओं के लिए भारी राशि से खोला न्यूरो सर्जरी विभाग बंद होने के कगार पर आ जाना चाहिए। और मरीज दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाने चाहिए। यदि सरकार को वाकई मरीजों की चिंता है तो उसे चाहे अधिक पैकेज पर ही सही, न्यूरो सर्जन की व्यवस्था करनी ही चाहिए। सबसे बड़े संभागीय अस्पताल में न्यूरो सर्जन का अभाव जिले के सभी आठों भाजपा विधायकों सहित संभाग के सभी विधायकों के लिए एक चुनौती है। जनता की सेवा के नाम पर जीत कर आए ये विधायक देखते हैं कि जनसेवा के लिए सरकार पर दबाव बना कर समस्या का समाधान करवा पाते हैं या नहीं। हालांकि मेडिकल कॉलेज प्राचार्य डॉ. अशोक चौधरी ने अर्जेंट टेम्प्रेरी बेस पर एक सहायक प्रोफेसर को नियुक्त करने के निर्देश दिए हैं और उम्मीद है कि जल्द नियुक्ति भी हो जाए, मगर विधायकों को चाहिए वे सरकार पर दबाव बना कर स्थाई नियुक्ति के लिए प्रयास करें।

गोरान निर्दोष थे तो एफआईआर में जिक्र ही काहे को किया

इसे एसीबी की बेवकूफी या अतिरिक्त चतुराई ही कहा जाएगा कि जब पुलिस थानों से मंथली लेने के मामले में गिरफ्तार अजमेर के पूर्व एसपी राजेश मीणा के प्रकरण से राजस्थान लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष हबीब खान गोरान का कोई लेना-देना ही नहीं था तो उनका जिक्र एफआईआर में किया ही क्यों? यही वजह है कि आज जब कि आयोग विभिन्न कारणों से विवादों में आ गया है और गौरान पर हमले हो रहे हैं तो इस प्रकरण को विधानसभा में भी उठाया जा रहा है। 
असल में एफआईआर में ठठेरा के गोरान के घर भी जाने के जिक्र की वजह से ही निलंबित एसपी मीणा की ओर से पेश जमानत याचिका में यह सवाल उठाने उठाने का मौका मिल गया कि उनको भी नामजद क्यों नहीं किया गया। एसीबी की कार्यवाही कितनी गोपनीयता कितनी लचर थी, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि जैसे ही मीण को गिरफ्तार किया गया तो यह बात भी उजागर हुई कि दलाल ठठेरा आयोग के किसी बड़े अधिकारी के घर भी गया था, तभी उसका नाम उजागर करने के लिए आयोग के समक्ष प्रदर्शन किया गया।
बेशक, इस पूरे प्रकरण में सचमुच क्या हुआ, इसके लिए एसीबी पर ही यकीन करना होगा क्योंकि जांच एजेंसी वही है, मगर एसीबी के कार्यवाहक महानिदेशक अजीत सिंह का मात्र इतनी सफाई देना ही पर्याप्त नहीं कि गोरान की इस मामले में संलिप्तता नहीं पाई गई और उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। कैसी विडंबना है कि पहले खुद ही गोरान का नाम एफआईआर में शामिल किया और फिर खुद की खंडन कर दिया कि उनके बारे में कोई सबूत नहीं मिला है। वो भी तब जब निलंबित एसपी मीणा ने अपनी जमानत अर्जी में सवाल उठाया था। वरना यह पता ही नहीं लगता कि एसीबी ने कहां चूक की है।
जब अजीत सिंह ने यह कहा था कि गोरान बिलकुल निर्दोष हैं तो उन्हें यह भी बताना होगा कि आखिर किस तरह? आयोग अध्यक्ष का पद संवैधानिक है और आयोग की बड़ी गरिमा है, उसके बारे में यदि कोई संशय पैदा होता है तो उस पर सफाई होना बेहद जरूरी है। सिंह को यह बताना ही चाहिए कि ठठेरा ने गोरान के घर पर जाने का क्या कारण बताया है? फरार आरपीएस लोकेश सोनवाल के घर से निकलते समय जो बैग लेकर वह गोरान के घर गया और बाहर निकला तो बैग उसके हाथ में नहीं था, उस बैग में क्या था? सिंह को ये भी बताना चाहिए कि क्या उन्होंने इस बारे में गोरान से भी कोई पूछताछ की थी? यदि पूछताछ की थी तो उन्होंने ठठेरा के आने की क्या वजह बताई? अगर वे ऐसा नहीं करते तो आयोग अध्यक्ष गोरान व्यर्थ ही संदेह से देखे जाते रहेंगे।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 13 जुलाई 2014

लखावत के प्रयास रंग लाए, सवा सौ साल पुराना विवादित ब्रिज हटाया

राजस्थान धरोहर एवं प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष ओंकार सिंह लखावत के प्रयासों ने अपना रंग दिखाया और आखिरकार रेलवे के इंजीनियरों को सहमत करके बूढ़ा पुष्कर सरोवर के बीच रेलवे का करीब सवा सौ साल पुराना विवादास्पद ब्रिज को जेसीबी मशीन की सहायता से ध्वस्त कर दिया गया। अपने आप में यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। और यह भी तभी संभव हो पाया, जब केन्द्र व राज्य में एक ही पार्टी भाजपा की सरकार है, साथ ही लखावत ने प्राधिकरण अध्यक्ष के नाते पूरी ताकत लगा दी।
असल में बूढ़ा पुष्कर के कायाकल्प में अंग्रेजों के जमाने में बना यह ब्रिज आड़े आ रहा था। सरोवर के तट पर स्थित पंपिंग स्टेशन से सरोवर के बीच में ब्रिज बना हुआ था। रेलवे लंबे समय तक बूढ़ा पुष्कर से लाखों गैलन पानी लेता था। सरोवर का भूमिगत जलस्तर खत्म होने के बाद से रेलवे का ब्रिज अनुपयोगी हो गया था। मगर सब जानते हैं कि एक बार कब्जा होने के बाद उसे कोई नहीं छोडऩा नहीं चाहता, चाहे सरकारी महकमा हो। इस मामले में भी असल में कोई अफसर न तो पहल करना चाहता था और न ही पंगा मोल लेना चाहता था। उसकी बला से तो ब्रिज सौ दो सौ साल वहीं पड़ा रहे। अगर लखावत रुचि न लें तो ये ऐसा ही पड़ा रहता।
ज्ञातव्य है कि प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के साथ ही फिर से बूढ़ा पुष्कर के विकास की कवायद तेज हो गई है। हालांकि इसका जीर्णोद्धार तो लखावत ने पिछली भाजपा सरकार के दौरान ही प्राधिकरण के अध्यक्ष रहते करवाया था, मगर सरकार पलटने के साथ ही यह रुक गया। असल में प्राधिकरण ही ठंडे बस्ते में चला गया था। अब लखावत ने फिर काबिज होने पर बूढ़ा पुष्कर के समग्र विकास के लिए विस्तृत मास्टर प्लान तैयार करवाने की ठानी है और इसी के अनुरूप ही समयबद्ध विकास कराया जाएगा।
लखावत ने इस सिलसिले में मौके पर ही बूढ़ा पुष्कर विकास एवं समारोह समिति की बैठक ली। सामाजिक कार्यकर्ताओं, संत-महात्माओं एवं विभिन्न विभागों के प्रतिनिधियों ने बूढ़ा पुष्कर के विकास के संबंध में आवश्यक सुझाव प्रस्ताव रखे। लखावत ने संबंधित विभागों सामाजिक संस्थाओं को अलग-अलग दायित्व सौंपा। वन विभाग समेत घाट निर्माता समाजों के प्रतिनिधियों को घाटों के किनारे पौधरोपण करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। नेशनल हाईवे के इंजीनियरों को हाईवे निर्माण के दौरान बूढ़ा पुष्कर सरोवर में बरसाती पानी की आवक के लिए पुलिया निर्माण करने तथा अवरोधक हटाने के निर्देश दिए। नगर पालिका के ईओ प्रहलाद स्वरूप भार्गव को तीर्थ यात्रियों की सुविधार्थ सुलभ कॉम्पलेक्स बनाने, स्थायी सफाई कर्मचारी नियुक्त करने के निर्देश दिए। बूढ़ा पुष्कर, गया कुंड, मध्य पुष्कर सरोवर का सीमाज्ञान कराने के निर्देश दिए। ज्ञातव्य है कि इन तीनों तीर्थ स्थलों को हाल ही में नगर पालिका बोर्ड ने पालिका सीमा में शामिल करने का प्रस्ताव पारित किया है। बैठक में घाटों की सुरक्षा के लिए दीवार भव्य प्रवेश द्वार बनाने की जिम्मेदारी एडीए को सौंपी गई। नंद किशोर पाराशर ने बूढ़ा पुष्कर में 108 फीट ऊंची भगवान शिव की प्रतिमा का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा, जिसे लखावत ने मंजूरी देते हुए माहेश्वरी सेवा सदन के अध्यक्ष श्याम सुंदर बिड़ला के संयोजन में एक कमेटी गठित की।
बैठक में विधायक त्रय सुरेश सिंह रावत, अनिता भदेल व भागीरथ चौधरी, नगर पालिकाध्यक्ष मंजू कुर्डिया, कपालेश्वर मंदिर के महंत सेवानंद गिरी, रामसखा आश्रम के महंत रामशरण दास महाराज, उपखंड अधिकारी राष्ट्रदीप यादव, तहसीलदार गजराज सिंह सोलंकी, भाजपा नेता कंवल प्रकाश किशनानी, पार्षद संपत सांखला, पूर्व पालिकाध्यक्ष सूरज नारायण शर्मा, नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत के अतिरिक्त एडीए, नेशनल हाईवे, सार्वजनिक निर्माण, वन, जलदाय, पर्यटन सहित विभिन्न विभागों के अधिकारी इंजीनियर उपस्थित थे।
-तेजवानी गिरधर

पहले भी विवादित चर्चा में आ गए थे गौरान

अब जब कि आरएएस प्री 2013 परीक्षा में पेपर लीक और परीक्षा निरस्त करने संबंधी मामलों को लेकर खफा एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने आयोग अध्यक्ष हबीब खान गौरान से नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने और उनके कार्यकाल की उच्च स्तरीय जांच की मांग की है, तो यकायक वह प्रकरण भी चर्चा में आ गया है, जबकि उनके नाम को मंथली मामले में गिरफ्तार अजमेर के तत्कालीन एसपी राजेश मीणा ने उजागर किया था। बात ये सामने आई कि दलाल रामदेव ठठेरा उनके पास थैला लेकर गया था। यह सवाल तब उठा था कि मीणा की गिरफ्तारी को दस दिन बीत जाने के बाद भी एसीबी ने यह तथ्य क्यों उजागर नहीं किया कि ठठेरा थैला लेकर आखिर राजस्थान लोक सेवा आयोग के किस उच्चाधिकारी के घर पर कुछ वक्त रुका था? उसने वहां क्या किया? क्या वहां आयोग से जुड़े किसी मसले की दलाली की गई? या फिर वह यूं ही मिलने चला गया, क्योंकि वह उनका पूर्व परिचित था? जाहिर सी बात है कि हर किसी को यह जानने की जिज्ञासा थी कि आखिर वह उच्चाधिकारी कौन है और दलाल ने उसके घर पर जा कर क्या किया? इस बारे में मीडिया ने खबरों के फॉलो अप में उसका जिक्र तो कई बार किया है, मगर अपनी ओर से नाम उजागर करने से बचा, क्योंकि बिना सबूत के संवैधानिक पद पर बैठे उच्चाधिकारी का नाम घसीटना दिक्कत कर सकता था। यहां तक कि मीडिया ने इशारा तक नहीं किया, जबकि ऐसे मामलों में अमूमन वह इशारा तो कर ही देता है, भले ही नाम उजागर न करे।
अपुन ने तभी इस कॉलम में लिख दिया था कि इस मामले की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को अच्छी तरह से पता है कि आखिर वह अधिकारी कौन है? ऐसा हो ही नहीं सकता कि रिपोर्टिंग और फॉलो अप के दौरान जिन्होंने पुलिस व एसीबी में अपने संपर्क सूत्रों के जरिए सूक्ष्म से सूक्ष्म पोस्टमार्टम किया हो, उन्हें ये पता न लगा हो कि वह अधिकारी कौन है? मगर मजबूरी ये रही कि अगर एसीबी ने अपनी कार्यवाही में उसका कहीं जिक्र नहीं किया अथवा कार्यवाही में उसे शामिल नहीं किया तो नाम उजागर करना कानूनी पेचीदगी में उलझा सकता है। वैसे भी यह पत्रकारिता के एथिक्स के खिलाफ है कि बिना किसी पुख्ता जानकारी के किसी जिम्मेदार अधिकारी का नाम किसी कांड में घसीटा जाए।
इशारा तो अपुन को भी था, मगर ऑन द रिकार्ड सूचना न होने के कारण नाम का खुलासा नहीं किया, अलबत्ता यह जरूर बता दिया था कि कांग्रेस सरकार एकाएक उस उच्चाधिकारी को फंसाने के मूड में नहीं है। चाहे उसके खिलाफ कुछ सबूत हों या नहीं। इसकी वजह ये है उसकी नियुक्ति ही विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बिगड़े जातीय समीकरण के तहत की थी। इसके अतिरिक्त यदि उस पर हाथ डाला जाता तो आयोग की कार्यप्रणाली को ले कर भी बवाल खड़ा हो जाता।
खैर, एसीबी व सरकार ने जरूर गोरान का नाम अपनी ओर से उजागर नहीं किया, मगर मीणा ने अपनी जमानत अर्जी में इसका हवाला दे कर उस रहस्य से पर्दा उठा दिया था। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि एसीबी की प्राथमिकी में जिक्र है कि उन्हें ट्रेप करने वाले दिन ठठेरा गोरान के बंगले पर भी थैला लेकर गया था। मीणा ने इस पर ऐतराज जताया है कि गोरान को नामजद क्यों नहीं किया गया। हालांकि सवाल ये भी रहा कि क्या मीणा को इस तरह किसी और के खिलाफ कार्यवाही न करने पर सवाल उठाने का अधिकार है या नहीं, या कोर्ट उस पर प्रसंज्ञान लेगा या नहीं। वैसे भी एसीबी जब अपनी कार्यवाही को एसपी के खिलाफ अंजाम दे रही थी तो इसी बीच किसी काम से ठठेरा के गोरान के बंगले पर जाने से ही तो यह आरोप नहीं बन जाता कि वे उन्हें भी रिश्वत की राशि देने गया था। हां, इतना जरूर है कि चूंकि गोरान भी आपीएस रहे हैं, इस कारण उसके ठठेरा के संबंध होना स्वाभाविक लगता है।
खैर, जहां तक कानूनी पृष्ठभूमि का सवाल है ये तो एसीबी ही अच्छी तरह से बता सकती है कि गोरान के खिलाफ मामला बनता था या नहीं, मगर ठठेरा के गोरान के घर पर भी जाने से वे भी संदेह के घेरे में तो आ ही गए थे।
आपको याद होगा कि तब एसीबी के कार्यवाहक पुलिस महानिदेशक अजीत सिंह ने गोरान को यह कह कर क्लीन चिट दे दी कि उनके खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिला है। बात बिलकुल ठीक थी। जब साक्ष्य मिला ही नहीं तो कार्यवाही होती भी क्या, मगर ठठेरा का गोरान के घर जाने का खुलासा ही अपने आप में कई सवाल खड़े कर गया था।
अव्वल तो जब गोरान के घर पर ठठेरा के जाने को यदि सामान्य मुलाकात ही माना गया है, तो एसीबी को जरूरत ही क्या पड़ी कि उसने प्राथमिकी में इसका जिक्र किया। जब गोरान व ठठेरा के बीच कुछ गलत हुआ ही नहीं तो उसका जिक्र करना ही नहीं चाहिए था। चलो, एससीबी की इस बात को मान लेते हैं कि उनको गोरान के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिला है, मगर क्या इतना कहने भर से बात समाप्त हो जाती है। बेहतर ये होता कि वे इस बारे में ठठेरा ने क्या स्पष्टीकरण दिया, इसका खुलासा करते, ताकि उनकी बात पर यकीन होता। फरार आरपीएस लोकेश सोनवाल के घर निकलते समय वह बैग लेकर गोरान के घर गया और बाहर निकला तो बैग उसके हाथ में नहीं था, तो सवाल ये उठता है कि उस बैग में क्या था? क्या उसने आगरा गेट सब्जीमंडी से सब्जी खरीद कर गोरान के घर पहुंचाई थी? इसके अतिरिक्त अजीत सिंह ने यह भी नहीं बताया कि क्या उन्होंने इस बारे में गोरान से भी कोई पूछताछ की थी? यदि पूछताछ की थी तो उन्होंने ठठेरा के आने की क्या वजह बताई? अजीत सिंह की यह बात यकीन करने लायक थी कि मंथली प्रकरण में गोरान की कोई लिप्तता नहीं पाई गई है, मगर एसपी मीणा को मंथली देने जाते समय बीच में उसका गोरान के घर थैला लेकर जाने ने संदेह तो पैदा किया ही था।
खैर, अब जब कि फिर गोरान निशाने पर लिए जा रहे हैं तो उनका पुराना प्रकरण चर्चा में आता है तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 7 जुलाई 2014

एडीए अध्यक्ष के लिए वैश्य समाज का दावा हुआ कमजोर

जिला परिषद में जिला प्रमुख पद के लिए हुए चुनाव में वैश्य समाज की श्रीमती सीमा माहेश्वरी के जीतने के साथ ही अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद पर वैश्य समाज की दावेदारी कमजोर हो गई है। ज्ञातव्य है कि विधानसभा चुनाव में श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के मसूदा से निर्वाचित होने के बाद उन्होंने जिला प्रमुख पद से इस्तीफा दे दिया था और इसी कारण उप चुनाव की नौबत आई।
जहां तक जातीय समीकरण का सवाल है, जिले में इस वक्त एक भी विधायक वैश्य समाज से नहीं है। ऐसे में अब वैश्य समाज का दबाव था कि उनके किसी नेता को प्राधिकरण का अध्यक्ष पद दिया जाए। मगर अब जब कि जिला प्रमुख पद पर वैश्य समाज की सीमा माहेश्वरी काबिज हो गई हैं, वैश्य समाज उतने दमदार तरीके से दावा नहीं कर पाएगा। ज्ञातव्य है कि नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन चाहते हैं कि उन्हें फिर मौका दिया जाए, ताकि वे अपने अधूरे काम पूरे कर सकें, साथ ही नए कार्य भी हाथ में लें। जाहिर तौर पर उनका तर्क ये है कि पिछली बार जिस विवाद की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, वह विवाद था ही नहीं। भाजपा की छोडिय़े, कांग्रेस सरकार में ही उन्हें क्लीन चिट दी गई। यानि कि वे पूरी तरह से पाक साफ साबित हो चुके हैं। उनके तर्क में दम भी है, मगर अब उनका दावा कुछ कमजोर हो गया है। विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर की टिकट के लिए एडी चोटी का जोर लगाने वाले शिवशंकर हेडा के भी ऊपर अच्छे रसूखात हैं और वैश्य तुष्टिकरण के नाते उनका नंबर आना संभावित है, मगर चुनाव के दौरान उनसे जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं पर देवनानी विरोधी काम करने का आरोप है।
बात अगर राजपूत समाज की करें तो यूं तो नगर परिषद के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत का दावा काफी मजबूत माना जाता है, मगर मसूदा से श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के विधायक होने के कारण राजपूत समाज का कोटा भी पूरा हो गया है। शेखावत का तर्क ये हो सकता है कि विधानसभा चुनाव में वे अजमेर उत्तर से टिकट के प्रबल दावेदार थे, मगर हाईकमान के आश्वासन के बाद उन्होंने सब्र किया, अत: उन्हें अब उचित इनाम मिलना ही चाहिए। बताया जाता है कि मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से उनके करीबी रिश्ते भी हैं। मगर उनके साथ एक दिक्कत ये भी है कि उन्हें उन्हें वरिष्ठ भाजपा नेता ओम प्रकाश माथुर लॉबी का माना जाता है, जिनकी वसुंधरा राजे से नाइत्तफाकी जगजाहिर है। हालांकि तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि माथुर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबी हैं, इस कारण ऊपर की सिफारिश भी रंग ला सकती है।
जिला प्रमुख चुनाव के बाद बदले समीकरण में नगर निगम के पहले मेयर धर्मेन्द्र गहलोत को भी प्रबल दावेदार माना जाता है। उन पर अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी का वरदहस्त है। वे काफी ऊर्जावान भी हैं। इसी क्षमता के कारण उनका नाम नए शहर भाजपा अध्यक्ष पद के लिए चर्चा में है, मगर उनकी रुचि एडीए चेयरमेन बनने में बताई जा रही है। उनके साथ दिक्कत ये है कि देवनानी विरोधी पूरी लॉबी उनके भी खिलाफ खड़ी है। पूर्व शहर भाजपा अध्यक्ष पूर्णाशंकर दशोरा का भी नाम चर्चा में है, मगर उनकी निर्विवाद छवि और निर्गुट शैली की वजह से फिर से शहर भाजपा अध्यक्ष बनाने पर विचार हो रहा बताया।
यूं तो शत्रुघ्न गौतम के केकड़ी से विधायक होने के कारण देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत का दावा कुछ कमजोर माना जा सकता है, मगर जिला प्रमुख चुनाव में अहम भूमिका निभाने व वसुंधरा के करीबी होने के कारण उन्हें गंभीर माना जा सकता है। वैसे उनके किसी विश्वविद्याय का कुलपति बनाए जाने के भी आसार हैं। रहा सवाल सिंधी समाज का तो अजमेर उत्तर से प्रो. वासुदेव देवनानी विधायक हैं, इस कारण इस समाज से भी किसी को अध्यक्ष बनाए जाने की संभावना कुछ कम है। ज्ञातव्य है कि श्रीमती वसुंधरा राजे की चार माह की सुराज संकल्प यात्रा में पूरे समय साथ रह कर गांव-गांव में केबल नेटवर्क के जरिए प्रचार प्रसार करने वाले शहर भाजपा के प्रचार मंत्री व स्वामी समूह के एमडी कंवलप्रकाश किशनानी को भी दावेदार माना जा रहा है, मगर स्थानीय गुटबाजी कुछ बाधक बन सकती है। अनुसूचित जाति से इस कारण नहीं बनाया जाएगा क्योंकि अजमेर दक्षिण से श्रीमती अनिता भदेल विधायक हैं। साथ ही अजमेर नगर निगम में मेयर का पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है और उस पर कांग्रेस के कमल बाकोलिया काबिज हैं। जिले में रावतों का दबदबा है और उसके दो विधायक  पुष्कर से सुरेश सिंह रावत और ब्यावर से शंकर सिंह रावत हैं, इस कारण उनका नंबर भी आता नजर नहीं आता।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 6 जुलाई 2014

कांग्रेसियों को विरोध करना नहीं आता और भाजपाइयों को सत्ता चलाना

अजमेर जिला परिषद के बोर्ड पर भाजपा काबिज है, बावजूद इसके यदि उसकी साधारण सभा में भाजपाई प्रशासनिक शिथिलता पर उग्र होंगे और विपक्ष में बैठे कांग्रेसी मस्ती में चुप बैठे रहेंगे तो यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर वे अपनी नई भूमिका में आ क्यों नहीं रहे हैं। यह सवाल दैनिक भास्कर के चीफ सिटी रिपोर्टर सुरेश कासलीवाल ने अपनी रिपोर्ट में उठाया है। नई भूमिका के अनुरूप राजनेताओं के रवैये में परिवर्तन न आने पर मीडिया का इस प्रकार चौंकना वाजिब है।
असल में अपुन को लगता ये है कि दोनों ही दलों के नेता अपनी-अपनी आदत से मजबूर हैं। वर्षों तक एक ही प्रकार की भूमिका निभाने के कारण वे उसके इतने आदी हो गए हैं कि नई भूमिका मिलने पर भी उसके अनुरूप आचरण करना उन्हें आता ही नहीं है। जहां तक भाजपाइयों का सवाल है, वर्षों से वे केवल विरोध ही करते रहें हैं, इस कारण उन्हें इसमें महारत हासिल हो गई है। यही महारत पर उन पर हावी भी हो गई है। वह भी इतनी कि छूटती ही नहीं। जहां भी समस्या देखते हैं, तुरंत विरोध करने पर आमादा हो जाते हैं। विरोध करते-करते सत्ता में आने के बाद भी उन्हें ये अहसास नहीं हो पा रहा कि अब वे सत्ता में हैं और उनका विरोध अपनी ही सत्ता के खिलाफ काउंट होगा।
एक अर्थ में उनका विरोध करना जरूर वाजिब है। वो ये कि यदि कहीं कोई समस्या है तो सुधार के लिए विरोध करना ही चाहिए। वे विरोध न करते हुए भला चुप कैसे बैठ सकते हैं? आखिर वे जनप्रतिनिधि बने ही क्यों हैं?  मगर इसका ये भी मतलब निकलता है कि प्रशासन उनकी मंशा को समझ ही नहीं पा रहा। या फिर वह समझना ही नहीं चाहता। या फिर वह भी आदी हो गया है कि भाजपाई तो चिल्लाएंगे ही, चिल्लाते रहें। उन्हें जो करना है, करेंगे। प्रशासन जानता है कि कितना भी काम करेंगे, मगर भाजपाई तो आदत के मुताबिक विरोध करेंगे ही। वरना होना चह चाहिए कि सत्तारूढ़ दल के लोगों को तो चिल्लाने की जरूरत ही नहीं पडऩी चाहिए। कम से कम उनसे संबंधित काम तो बिना चिल्लाए ही होने चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। इस स्थिति से ऐसा लगता है कि सत्ता में आने के बाद भी भाजपाइयों ने अपनी आदत को सुरक्षित रखने के लिए प्रशासन को सामने रख लिया है। यानि कि सत्ता तो प्रशासन में निहित है और भाजपाई उसके विरोध में। यह मानसिकता इस वजह से भी है कि सरकार चाहे किसी दल की हो, नेताओं का पाला सीधे प्रशासन से पड़ता है। यानि कि उनके लिए प्रशासनिक अधिकारी ही सत्ता हैं। इस कारण उसको निशाने पर रखते हैं। उनकी कोफ्त की एक वजह ये भी हो सकती है कि कांग्रेस सरकार के रहते जिन मुद्दों पर उन्होंने प्रशासन को घेरा, उनका निराकरण उनके सत्ता में आने के बाद भी नहीं हो रहा तो वे जनता को क्या जवाब देंगे।
रहा सवाल प्रशासन को तो वह इतना असंवेदनशील भी नहीं हो सकता कि व्यर्थ ही भाजपाइयों के गुस्से का शिकार बनना चाहेगा। भाजपाइयों की घुड़की सुन कर भी अनसुना करने की एक वजह ये भी हो सकती है कि जो मांग की जा रही है, वह या तो नियमों अथवा संसाधनों की कमी के कारण पूरी नहीं की जा सकती, या फिर व्यावहारिक धरातल पर संभव नहीं है।
मसले के एक अनछुआ पहलू भी है, जरा उस पर गौर करें। वस्तुत: प्रशासन भी यह जानता है कि असल सत्ता तो उसमें ही निहित है, जो कि सच भी है। कायदे-कानूनों की बारीक जानकारी उनके पास ही होती है, इस कारण असल में सरकार तो वे ही चलाते हैं। वे इसके प्रति जवाबदेह भी होते हैं। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि कोई ऐसा काम जो कि नियमों के तहत असंभव है, उसके लिए चाहे सत्तारूढ़ दल के नेता कितना ही दबाव बनाएं, वह किसी भी सूरत में करने वाला नहीं है। कारण ये है कि राजनेता तो मौखिक आदेश दे कर बच जाते हैं और कागजी कार्यवाही पर प्रशासनिक तंत्र के ही हस्ताक्षर होते हैं। यदि बाद में कभी गड़बड़ का मामला उजागर होता है तो राजनेता तो बच जाते हैं, जबकि अफसर व बाबू फंस जाते हैं।
ऐसा एक प्रकरण मुझे खयाल में आता है। तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत व सार्वजनिक निर्माण मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी ने मुख्य सड़क से नारेली स्थित ज्ञानोदय तीर्थ के भीतर तक संपर्क सड़क बनाने को कह दिया। भला सार्वजनिक निर्माण विभाग के अधिकारियों की क्या बिसात कि उसकी अवहेलना करें। उन्होंने सड़क बनवा दी। तत्कालीन विधायक गोविंद सिंह गुर्जर यह मामला विधानसभा में उठाया। जांच हुई तो पता लगा कि नियमों के तहत सड़क गलत बनाई गई है। इस पर शेखावत जी व चतुर्वेदी जी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, जिन्होंने कि मौखिक आदेश दिया था, मगर बेचारे विभाग के अभियंता नियम विरुद्ध काम के लिए नोटिस झेलते रहे और वर्षों तक वेतन वृद्धि को रोके जाने का दंड भोगते रहे।
इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि वास्तविक जवाबदेह कौन है और सच में सत्ता किसमें निहित है।
बात अगर कांग्रेसी नेताओं की करें तो यही समझ में आता है कि वे सत्ता भोगते-भोगते इतना सुस्त व आरामतलब हो चुके हैं कि जब विरोध करने की जरूरत है तो उसे करने को तैयार ही नहीं हैं। जनता जाए भाड़ में। और फिर जब उसकी भूमिका भाजपाई ही अदा कर रहे हैं तो वे काहे को अपने शरीर को तकलीफ दें।
लब्बोलुआब, यह आम धारणा सही ही प्रतीत होती है कि कांग्रेसियों को केवल सत्ता चलाना आता है, विरोध करना नहीं, जब कि भाजपाइयों को केवल विरोध करना आता है, सत्ता चलाना नहीं। कांग्रेसियों को पता है कि अफसरों से कैसे काम करवाया जाता है, जबकि भाजपाइयों को केवल हल्ला मचा कर ही अफसरों से काम करवाने की आदत पड़ चुकी है।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 2 जुलाई 2014

यानि कि जिला परिषद में अब भी पलाड़ा का दबदबा

भाजपा की सीमा माहेश्वरी के अजमेर जिला प्रमुख निर्वाचित होने के साथ यह सुनिश्चित हो गया है कि जिला परिषद में पूर्व जिला प्रमुख व मौजूदा मसूदा विधायक श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा का ही दबदबा है।
दरअसल भाजपा में शुरुआती गुटबाजी के बाद हुई मशक्कत के परिणामस्वरूप यह एक दिन पहले ही तय हो गया था कि सीमा माहेश्वरी ही जिला प्रमुख निर्वाचित होंगी। ज्ञातव्य है कि जिला प्रमुख के चुनाव को लेकर भाजपा में तीन धड़े थे। जलदाय मंत्री सांवर लाल जाट सीमा माहेश्वरी को जिला प्रमुख बनाना चाहते थे, मगर अकेले उनके दम पर सीमा का जिला प्रमुख बनना संभव नहीं था। कारण कि भंवर सिंह पलाड़ा चाहते थे पूजा अजमेरा को जिला प्रमुख बनवाया जाए और रावतों के नेता किसी रावत को। ऐसे में जाट के इशारे पर सीमा माहेश्वरी के पति दिनेश तोतला पलाड़ा की शरण में चले गए। पलाड़ा की एक ही शर्त थी उनकी पत्नी श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के तीन साल के कार्यकाल के दौरान जिस प्रकार ईमानदारी के साथ काम हुआ, ठीक वैसा ही आगे भी होता रहे। कहने की जरूरत नहीं है कि पलाड़ा की देखरेख में ही जिला परिषद प्रशासन ने पूरी मेहनत से काम किया, जिसकी तारीफ पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने भी की। यहां तक कि अजमेर जिला परिषद को राष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मानित किया गया। खैर, तोतला ने जब पलाड़ा को विश्वास दिलाया कि वे उनके कहे अनुसार ही चलेंगे और जिला परिषद की गरिमा गिरने नहीं दी जाएगी। इस पर पलाड़ा ने सीमा माहेश्वरी को आशीर्वाद दे दिया। उधर रावतों को यह कह कर मनाया गया कि उप जिला प्रमुख रावत और दो विधायकों भी रावत होने के कारण जिला प्रमुख पद रावत को नहीं दिया जा सकता। इस पर रावत नेता मान गए। जब निचले स्तर पर सुलह हो गई तो भाजपा विधायक सुशील कंवर पलाड़ा, भागीरथ चौधरी, शंकर सिंह रावत, शत्रुघ्न गौतम व सुरेश रावत और देहात अध्यक्ष प्रो. भगवती प्रसाद सारस्वत ने भाजपा प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी से जयपुर में मुलाकात की व कार्यवाहक जिला प्रमुख सीमा माहेश्वरी को ही अगले जिला प्रमुख के रूप में पार्टी प्रत्याशी घोषित करने का आग्रह किया, जिसे परनामी ने मान लिया।
बहरहाल, कुल मिला कर कहानी ये है कि अगर पलाड़ा राजी नहीं होते तो सीमा किसी भी सूरत में जिला प्रमुख नहीं बन सकती थीं। इसका ये भी अर्थ निकलता है कि सुशील कंवर के विधायक बनने के बाद भी जिला परिषद में उनकी व उनके पति भंवर सिंह पलाड़ा की ही चलेगी।