रविवार, 26 फ़रवरी 2017

मनन चतुर्वेदी की अनूठी पेंटिंग : कहीं स्टंट बन कर न रह जाए

राजस्थान बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष मनन चतुर्वेदी बहुत सक्रिय हैं, इसमें कोई दो राय नहीं। कदाचित इस प्रकार के अन्य आयोगों के अध्यक्षों की तुलना में अधिक। यह बहुत अच्छी बात है कि वे इस प्रकार के पद पर रह कर केवल उसका लाभ लेने की बजाय दिल लगा कर काम कर रही हैं। बेशक उसका लाभ होता ही होगा।
गत दिवस उन्होंने अजमेर में बच्चों को नशे की लत से छुटकारा दिलाने के लिए जागरूकता अभियान के तहत लगातार 24 घंटे की पेंटिंग बनाई। यह एक नया प्रयोग था, लिहाजा लोगों में कौतुहल भी खूब रहा। कुछ सरकारी तामझाम तो था ही, कुछ जागरूक लोगों की भागीदारी भी रही। इनमें छपास के रोगी व आधुनिक फेसबुकिये भी मौजूद थे। बड़ी तारीफ हुई। मीडिया कवरेज भी जम कर मिला। कार्यक्रम सफल रहा। मगर असल सवाल ये कि क्या वाकई ऐसे स्टंट जनता में वास्तव में जागरूकता पैदा करते हैं?
वस्तुत: कोई भी संदेश देना और उसका अनूठा प्रयोग करना अच्छी बात है, मगर धरातल पर वह कितना कारगर होता है, वह ज्यादा जरूरी है। चाहे दहेज के खिलाफ नुक्कड़ नाटक हों या फिर भ्रूण हत्या रोकने केलिए लघु नटिकाओं का प्रदर्शन, सच्चाई ये है कि इनसे संदेश तो जाता है, मगर न तो दहेज रुका, न ही भ्रूण हत्या। कानून भी कई बार बेबस सा नजर आता है, क्योंकि उसका इंप्लीमेंटेंशन ठीक से नहीं होता। बच्चों में नशे की आदत वाला मसला भी ऐसा ही है। पुलिस ने कई बार कार्यवाही की, मगर नतीजा ढ़ाक के तीन पात ही रहा है। यदि गहराई से जांच करेंगे तो पाएंगे कि जिन दुकानदारों को बच्चों को नशे का सामान बेचने के आरोप में पकड़ा गया, वे फिर से यही धंधा कर रहे हैं। पुलिस को भी सब पता है। या तो वह व्यवस्था का हिस्सा बनी हुई या फिर शिकायत मिलने पर फौरी कार्यवाही कर इतिश्री कर रही है। अर्थात समस्या का समाधान करने के तरीके में ही कहीं गड़बड़ है। बेशक समस्या है कि नशे का कारोबार करने वालों पर कैसे काबू पाया जाए, मगर उससे भी कहीं ज्यादा ये जानना जरूरी है कि बच्चे नशे की ओर क्यों आकर्षित हो रहे हैं? अगर हमारा ध्यान उस पर नहीं है तो समझिये कि नब्ज हमारी पकड़ में है ही नहीं, ऐसे में इलाज की उम्मीद बेमानी है।
मनन चतुर्वेदी को साधुवाद कि उन्होंने एक अनूठा प्रयोग किया। मकसद तो तारीफ ए काबिल है। मगर प्रत्यक्षत: नजर यही आया कि इस अभियान का कथित रूप से हिस्सा बने लोग औपचारिता भर निभा रहे थे। किसी को चर्चित चेहरा बनी मनन के दीदार का शौक था तो किसी को उनकी पेंटिंग देखने का। या तो छपास पीडि़त थे, या फिर फेसबुकिये, जिन्हें मनन के साथ फोटो खिंचवाने का शौक था। स्टाइलिश मनन भी बड़े मजे से सैल्फियां खिंचवा रही थीं। वे सोशल एक्टिविस्ट हैं, ये तो सर्वविदित ही है, एक अच्छी पेंटर भी हैं, ये भी स्थापित हो गया। साथ ही स्टंटबाज भी। खुदा करे, उनका अभियान कामयाब हो, कहीं स्टंट भर बन कर न रह जाए।
-तेजवानी गिरधर

पाथ वे के लिए आनासागर को पाटना क्या अवैध नहीं?

यह इस मुर्दा शहर अजमेर की विडंबना ही कही जाएगी, जिसमें एक ओर तो आनासागर के डूब क्षेत्र में हो रहे अतिक्रमण और निर्माण को अवैध माना जा रहा है व उसे हटाने के लिए हाईकोर्ट को निर्देश देने पड़ रहे हैं, तो दूसरी ओर आनासागर को खूबसूरत बनाने के नाम पर पाथ वे के लिए प्रशासन खुद ही उसे पाट रहा है।
ज्ञातव्य है कि सबको पता है कि आनासागर के डूब क्षेत्र के एक बड़े हिस्से में सिंचाई विभाग तथा यूआईटी स्तर पर कराए गए सर्वे में 130 आवास ऐसे हैं, जो पूर्णतया डूब क्षेत्र में बने हैं। सरक्यूलर रोड स्थित सभी वाणिज्यिक मॉल, आवासन मंडल के वैशाली नगर सेक्टर तीन तथा इसके नीचे बने आवास, गैस एजेंसी का गोदाम, माहेश्वरी पब्लिक स्कूल के सामने स्थित मंदिर व आवास, आदर्श विद्या मंदिर, विश्राम स्थली, महावीर कॉलोनी का अधिकांश हिस्सा झील के डूब क्षेत्र में ही आता है। झील की वर्तमान दुर्दशा के लिए केवल आम आदमी ही जिम्मेदार नहीं, बल्कि सरकारी एजेंसियां भी इसमें पूरी तरह शामिल हैं। झील के भराव क्षेत्र में शुमार होने के बावजूद आवासन मंडल ने वैशाली नगर सेक्टर तीन तथा इसके नीचे आवासों का निर्माण करा डाला, जिन्हें पानी की मार से बचाने के लिए रिंग डेम का निर्माण तक हुआ। इसके अलावा एडीए की अनदेखी के कारण इसके फुल टैंक लेवल के दायरे में आम लोगों ने आवास ही नहीं बड़े वाणिज्यिक मॉल भी खड़े कर दिए। इन्हें हटाने के बजाय इनका नियमन किया जाता रहा है।
सर्वविदित है कि राजस्थान हाईकोर्ट की दो जनहित याचिकाओं में झीलों, तालाबों और अन्य जलस्रोतों का मूल स्वरूप बनाए रखने के अलावा इनके कैचमेंट एरिया में होने वाले अतिक्रमण को हटाने और बहाव क्षेत्र को कब्जा मुक्त कराने को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय दिए थे। इसी तरह अजमेर की आनासागर झील समेत छह जल स्रोतों को दुर्दशा मुक्त करने के लिए कॉमन कॉज सोसायटी की जनहित याचिका में भी हाईकोर्ट ने 2009 में जिला प्रशासन को विभिन्न दिशा-निर्देश जारी किए थे। इसके अनुसार कैचमेंट एरिया में होने वाले अवैध निर्माणों को रोकने के लिए आवश्यक उपाय किए जाने को कहा गया। ऐसे में यह बेहद विचारणीय है कि क्या खूबसूरती के नाम पर पाथ वे बनाने के लिए आनासागर को पाटा जाना अवैध नहीं? मगर अफसोस कि इस मुर्दा शहर का कोई धणी धोरी नहीं। आनासागर की खूबसूरती के नाम पर जो काम हो रहा है, सब उसकी तारीफ कर रहे हैं, इससे क्या हाईकोर्ट के निर्देशों की अवहेलना नहीं हो रही, इसकी किसी को सुध नहीं। जो प्रभावशाली लोग हैं, वे चुप हैं और जो नैपथ्य में चले गए, उनकी कोई सुनने वाला नहीं। ऐसे में स्वाभाविक रूप से प्रशासन को खुली छूट मिली हुई है।
एक बारगी मान भी लिया जाए कि पर्यटन के लिहाज से ये अच्छा काम है, मगर कोई तो मास्टर प्लान होना चाहिए। बेशक ऐतिहासिक आनासागर अजमेर का गौरव है। अगर आज तक इसे ठीक से डवलप किया जाता तो यह अकेला पर्यटकों को आकर्षित में सक्षम होता, मगर अफसोस कि आज तक किसी जनप्रतिनिधि या प्रशासन ने इस दिशा में ठोस प्रयास नहीं किया। हां, बातें बहुत होती रहीं और उसी के अनुरूप छिपपुट प्रयोग भी हुए, मगर आनसागर की हालत जस की तस रही।
सच तो ये है कि लंबे समय तक यह गंदगी और बदबू की समस्या से ग्रसित रहा, इस कारण सारा ध्यान केवल इसी पर था कि कैसे इससे निजात पाई जाए। इस पर बड़ी मुश्किल से काबू पाया जा पाया है। इसके अतिरिक्त डूब क्षेत्र में सैकड़ों मकान व अन्य व्यावसायिक भवन बन जाने के बाद लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद भी अब तक ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि इसका स्वरूप क्या होगा? इसे कितना भरा होना चाहिए, इसको लेकर भी खूब माथापच्ची हुई, क्योंकि बारिश के मौसम में अचानक ज्यादा वर्षा होने पर चैनल गेट खोलने पर निचली बस्तियों में पानी भरने की खतरा बना रहता है। हर बारिश में प्रशासन की इसी पर नजर रहती है।
अभी पाथ वे का काम हो रहा है, मगर वह फाइनल भी होगा या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसा इसलिए कि उनके पहले प्रशासन ने लगातार हो रही आत्महत्याओं के चलते सुरक्षा के मद्देनजर रामप्रसाद घाट और पुरानी चौपाटी पर लोहे की जाली लगवाई गई, वह अब आनासागर का खूबसूरत नजारा पाने के लिए पाथ वे बनाने के लिए तोड़ी जा रही है। अफसोस होता है कि दो साल पहले इस जाली पर लाखों रुपए खर्च किए गए, अब तोडऩे व फिर नए सिरे निर्माण पर लाखों रुपए लगाए जा रहे हैं। यानि कि ठेकेदारों के वारे-न्यारे हैं। इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले समय में प्रशासन में बैठे अफसर इसे कायम रखेंगे? ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इसके लिए कोई मास्टर प्लान क्यों नहीं बना दिया जाता?
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

जिला कलेक्टर गौरव गोयल को अजमेर रोकना होगा

यह सही है कि कोई भी बड़ा अधिकारी एक पद पर हद से हद दो साल और खींचतान कर तीन साल तक ही रहता है। आरएएस अधिकारी तो फिर भी एक ही शहर में भिन्न भिन्न पदों पर रह लेते हैं, मगर आईएएस ज्यादा दिन तक एक ही शहर में नहीं रहते। अजमेर के संदर्भ में बात करें तो जिला कलेक्टर गौरव गोयल भी कुछ समय बाद अन्यत्र स्थानांतरित हो जाएंगे। ऐसे में स्मार्ट सिटी अजमेर का क्या होगा, उसका भगवान ही मालिक है। बेशक अगला जो भी कलेक्टर होगा, वह भी काम ही करेगा, मगर काम काम में फर्क होता है। आपको याद होगा कि अजमेर में अब तक जो भी कलेक्टर रहे हैं, उनमें सर्वाधिक लोकप्रियता श्रीमती अदिति मेहता ने हासिल की। उनके बाद कई कलेक्टर आए, मगर गौरव गोयल ने अदिति मेहता की याद ताजा कर दी है। और उसकी एक मात्र वजह है उनकी ऊर्जा, स्वतंत्र कार्यशैली व सकारात्मक सोच। बड़ी मुद्दत बाद ऐसा कलेक्टर मिला है और वह भी अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाने के दौरान।
प्रशासनिक हलकों में चर्चा है कि मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की नजर गौरव गोयल पर है। वे उन्हें किसी और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के लिए जयपुर ले जाना चाहती हैं। बताया तो ये भी जाता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी गोयल की कार्यशैली पसंद है। वे भी उन्हें दिल्ली ले जाना चाहते हैं। अगर ऐसा होता है तो स्मार्ट सिटी का जो सपना हम देख रहे हैं, वह वैसा ही पूरा नहीं हो पाएगा, जैसा गोयल के यहां रहने पर होगा। ये तो हो नहीं सकता कि अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाने तक गोयल यहां रहें, मगर एक बार उनकी देखरेख में ढांचागत कार्ययोजना पर गाइड लाइन तैयार हो जाए, बाद में भले ही अन्य अधिकारी उस पर अमल करें। असल बात तो ये है कि अजमेर का स्मार्ट सिटी की सूची मेें लाने का पूरा श्रेय ही गोयल को दिया जाना चाहिए। राजनीतिक लाभ के लिए भले ही भाजपा के जनप्रतिनिधि इस उपलब्धि को अपने खाते में गिनवाएं, मगर सच ये है कि गोयल से पहले जिन अधिकारियों ने इस प्रोजेक्ट पर काम किया, उन्हें ख्याल ही नहीं था कि इसका प्रजेंटेंशन कैसे तैयार किया जाना चाहिए। यही वजह रही कि उनकी सारी कवायद बेकार रही। जब गोयल ने इस पर काम किया, तब जा कर अजमेर सूची में शामिल हो पाया। आज भी स्थिति ये है कि स्मार्ट सिटी की आरंभिक गति का ताना बाना वे ही बुन रहे हैं। वे अजमेर के भौगोलिक व सामाजिक ढांचे को समझ चुके हैं और उनका सारा ध्यान यहां कि जरूरतों पर है। सबसे बड़ी बात ये है कि वे त्वरित निर्णय करते हैं और किसी के दबाव में नहीं आते। कदाचित उनकी इस कार्यशैली से स्थानीय जनप्रतिनिधि नाइत्तफाकी रखते हों, मगर उसकी बदौलत हमारा सपना साकार हो पाएगा। अब जब कि इस प्रकार की चर्चाएं हैं कि मुख्यमंत्री वसुंधरा किसी भी दिन उन्हें जयपुर ले जा सकती हैं तो जनप्रतिनिधियों को चाहिए कि वे पूरी नजर रखें और गोयल को कुछ और समय के लिए अजमेर में रखने का दबाव बनाएं। हो सकता है कि गौयल की सख्त व स्वतंत्र कार्यशैली निजी तौर पर उनको रास न आती हो, मगर अजमेर हित इसी में है कि गौयल अभी अजमेर में ही रहें।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

... तो आपकी पुलिस क्या कर रही थी?

जैसा कि शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी ने एक बयान जारी कर कहा है कि कांग्रेस ने लाठी के दम पर अजमेर बंद कराया, जिससे लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा, तो सवाल ये भी उठता है कि सरकार तो आपकी है, पुलिस भी आपकी, वह क्या कर रही थी? अगर कांग्रेसी लाठी के दम पर बंद करवाने में कामयाब हो गए तो जिम्मेदारी सीधे-सीधे पुलिस पर आयद होती है। उसने क्यों नहीं रोका? जनता अगर परेशान हुई तो कानून-व्यवस्था क्या कर रही थी? चूंकि पुलिस सरकार के नियंत्रण में है, इस कारण यह उसे देखना है कि उनका तंत्र विफल कैसे हो गया। अफसोसनाक बात ये है कि पुलिस के साथ भाजपा के कार्यकर्ता भी दुकानदारों के सहयोग के लिए तैनात थे, फिर भी अजमेर बंद हो गया। ऐसे में पूरा मीडिया कांग्रेस की सफलता से ज्यादा भाजपा की असफलता का गीत गा रहा है।
ये तो गनीमत है कि देवनानी जी बंद हुआ, ये मानते हैं, भले ही डंडे के जोर पर, शहर भाजपा अध्यक्ष अरविंद पारीक तो यही मानते हैं कि बंद विफल रहा है। बकौल देवनानी आम जनता और व्यापारियों को जिस तरह धमकाया गया, वह पूरा शहर जानता है, ऐसे बंद को जनता का समर्थन नहीं माना जा सकता, तो जनता ये भी जानती है कि बंद असफल होने का भाजपा का दावा कितना सही है। अगर देवनानी का दावा सही है तो इसका मतलब ये कि पुलिस और भाजपा की विफलता को भी वे स्वीकार कर रहे हैं।

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

अजमेर बंद ने दिए साफ साफ इशारे

मैं क्लॉक टावर हूूं। मैने आजादी से लेकर अब तक अजमेर के हर उतार चढ़ाव को देखा है। बीते दिन यहां एक ऐसा वाकया हुआ कि अपने मन की बात कहने को जी कर कर गया।
जो संगठन मृतप्राय: माना जा रहा हो, जिसके अध्यक्ष को नियुक्ति के एक साल बाद भी कार्यकारिणी गठित नहीं पाने के कारण कमजोर माना जा रहा हो, जिस संगठन की गुटबाजी के चर्चे हों, अगर उसके आह्वान पर अगर शहर ऐतिहासिक बंद हो जाता हो, तो समझा जाना चाहिए कि उसका आकलन गलत किया जा रहा है। शायद ऐसे ही अनुमान के कारण शहर जिला भाजपा ने शहर जिला कांग्रेस के अजमेर बंद के आह्वान को चुनौती देने की हिमाकत कर ली और मुंह की खायी। कांग्रेस कार्यकर्ता के लिए तो यह घटना संजीवनी के समान है, जो हनुमान जी की भांति अपनी शक्ति विस्मृत कर बैठा था।
ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों शहर कांग्रेस के अध्यक्ष विजय जैन इस कारण मीडिया के निशाने पर थे कि वे एक साल बाद भी अपनी टीम घोषित नहीं करवा पाए हैं। माना ये जा रहा था कि वे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को एक जाजम पर लाने में नाकामयाब हैं, इस कारण कार्यकारिणी नहीं बन पा रही।  संयोग से चंद दिन बाद ही अजमेर बंद जैसा बड़ा चुनौती भरा प्रसंग आ गया। मीडिया वाले भी यही मान रहे थे कि शायद बंद सफल नहीं हो पाएगा, क्यों कि वे सीधे सादे हैं। मगर हुआ उलटा। अपेक्षाकृत कम बहिर्मुखी व्यक्तिव वाले विजय जैन के नेतृत्व में एक चमत्कारिक घटना घटित हो गई। लगातार तीन बार दोनों विधानसभा चुनाव हारने और वर्तमान में सत्तारूढ़ दल के दो-दो राज्यमंत्रियों के होते हुए भी बंद सफल हो गया। वो भी भाजपा के बंद को विफल करने के ऐलान के बाद।
इस वारदात ने साबित कर दिया है कि भाजपा के इस गढ़ में कांग्रेस का वजूद बरकरार है, बस फर्क उसके संगठनात्मक प्रयास में है। वैसे कांग्रेस खत्म नहीं हुई है, इसका सबूत निगम चुनाव में अजमेर दक्षिण में साफ दिखाई दिया था। पिछला विधानसभा चुनाव हारे हेमंत भाटी ने अपने इलाके में हार का जो बदला लिया, उससे यह आभास हो गया था कि जमीन पर आज भी कांग्रेस जिंदा है। अजमेर उत्तर में चूंकि कमान ठीक से नहीं संभाली गई, इस कारण भाजपा बाजी मार गई।
बहरहाल, अजमेर बंद राजनीति का वह मोड़ है, जहां आ कर भाजपा को यह अहसास हो गया होगा कि जिस मोदी लहर पर सवार हो कर पिछली बार कांग्रेस को पटखनी दी थी, उसकी रफ्तार थम चुकी है। वसुंधरा के जिस चमकदार चेहरे की लोग दुहाई देते थे, वह अब फीका पडऩे लगा। दो मंत्रियों की गुटबाजी से बुरी तरह से त्रस्त भाजपा के कर्ताधर्ता समझें तो उनके लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। दूसरी ओर कांग्रेस को स्पष्ट संदेश है कि वह चाहे तो आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को टक्कर दे सकती है। बस शर्त सिर्फ इतनी है कि निजी स्वार्थ साइड में रख कर पहले सत्ता पर काबिज होने का लक्ष्य हासिल करने का जज्बा पैदा करना होगा। अब देखना ये है कि इस घटना से दोनों दल क्या सबक लेते हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

चलते रस्ते यादव के लिए हो गई मुश्किल

कांग्रेस की ओर से आहूत अजमेर बंद का सड़क पर उतर कर विरोध करने के ऐलान के बाद भी बंद के ऐतिहासिक सफल होने से पूरी शहर भाजपा की तो सिट्टी पिट्टी गुम है ही, शहर अध्यक्ष अरविंद यादव के लिए भी मुश्किल हो गई है। अखबारों की सुर्खियां कांग्रेस की सफलता के गुण कम गा रही हैं, भाजपा का बाजार खुलवाने का गुमान ठंडा पडऩे को ज्यादा उभार रही हैं। वास्तविकता क्या है, क्या बंद को विफल करवाने का दंभ भरने वाले सेनापति यादव खुद मार्केट में आए या नहीं, वे ही जानें, मगर खबरनवीस तो यही रिपोर्ट कर रहे हैं कि वे मैदान में उतरे ही नहीं। उन्हें मोबाइल पर संपर्क करने का भी प्रयास किया गया, लेकिन वे आए ही नहीं। भाजपा पार्षद एवं महामंत्री रमेश सोनी, जयकिशन पारवानी सहित कुछ ही नेता दिखे। इस बात की खासी चर्चा रही कि जब विरोध ही करना था तो खुलकर क्यों नहीं सामने आए। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यादव को जवाब देना भारी पड़ जाएगा। विशेष रूप से इसलिए कि क्यों फटे में टांग फंसाई, जिससे भाजपा की किरकिरी हो गई। अकेले यादव ही क्यों, शहर के दोनों राज्य मंत्रियों पर भी जवाबदेही आएगी वे कहां थे, जबकि भाजपा का प्रतिष्ठा दाव पर लगा दी गई थी।
ज्ञातव्य है कि अजमेर शहर भाजपा इकाई के नवीनीकरण की कवायद पाइप लाइन में है। शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी अपनी शरण में आ चुके यादव को रिपीट करने का दबाव बनाए हुए हैं, जबकि महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल की रुचि आनंद सिंह राजावत में है। अब देखना ये है कि ताजा घटनाक्रम के बाद ऊंट किस करवट बैठता है। 

आनासागर को लेकर कोई मास्टर प्लान भी है या नहीं?

अजमेर। ऐतिहासिक आनासागर अजमेर का गौरव है। अगर आज तक इसे ठीक से डवलप किया जाता तो यह अकेला पर्यटकों को आकर्षित में सक्षम होता, मगर अफसोस कि आज तक किसी जनप्रतिनिधि या प्रशासन ने इस दिशा में ठोस प्रयास नहीं किया। हां, बातें बहुत होती रहीं और उसी के अनुरूप छिपपुट प्रयोग भी हुए, मगर आनसागर की हालत जस की तस रही।
सच तो ये है कि लंबे समय तक यह गंदगी और बदबू की समस्या से ग्रसित रहा, इस कारण सारा ध्यान केवल इसी पर था कि कैसे इससे निजात पाई जाए। इस पर बड़ी मुश्किल से काबू पाया जा पाया है। इसके अतिरिक्त डूब क्षेत्र में सैकड़ों मकान व अन्य व्यावसायिक भवन बन जाने के बाद लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद भी अब तक ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि इसका स्वरूप क्या होगा? राजनीतिक कारणों की वजह से लगता नहीं कि डूब क्षेत्र में बने निर्माणों को हटाया जा सकेगा, हालांकि जनहित याचिकाओं के आधार पर हाईकोर्ट सख्त निर्देश जारी कर चुका है। इसे कितना भरा होना चाहिए, इसको लेकर भी खूब माथापच्ची हुई, क्योंकि बारिश के मौसम में अचानक ज्यादा वर्षा होने पर चैनल गेट खोलने पर निचली बस्तियों में पानी भरने की खतरा बना रहता है। हर बारिश में प्रशासन की इसी पर नजर रहती है।
हालांकि अब मौजूदा जिला कलेक्टर गौरव गोयल के प्रयासों से आनासागर का उद्धार करने का काम हो रहा है, मगर वह फाइनल भी होगा या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसा इसलिए कि उनके पहले प्रशासन ने लगातार हो रही आत्महत्याओं के चलते सुरक्षा के मद्देनजर रामप्रसाद घाट और पुरानी चौपाटी पर लोहे की जाली लगवाई गई, वह अब आनासागर का खूबसूरत नजारा पाने के लिए पाथ वे बनाने के लिए तोड़ी जा रही है। अफसोस होता है कि दो साल पहले इस जाली पर लाखों रुपए खर्च किए गए, अब तोडऩे व फिर नए सिरे निर्माण पर लाखों रुपए लगाए जा रहे हैं। यानि कि ठेकेदारों के वारे-न्यारे हैं। इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले समय में प्रशासन में बैठे अफसर इसे कायम रखेंगे? ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इसके लिए कोई मास्टर प्लान क्यों नहीं बना दिया जाता?

अजमेर में है जिला स्तरीय नेताओं का अभाव

आगामी लोकसभा चुनाव में दोनों दलों को रहेगी सशक्त प्रत्याशी की तलाश
अजमेर। हालांकि इस वक्त अजमेर जिले से दो राज्य मंत्री, दो संसदीय सचिव, एक प्राधिकरण के अध्यक्ष और एक आयोग के अध्यक्ष होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिला राजनेताओं से संपन्न है, मगर सच्चाई ये है कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस व भाजपा, दोनों के पास जिला स्तरीय नेताओं का अभाव होने वाला है। इस सोच के पीछे दृष्टिकोण ये है कि अगले चुनाव से पहले कांग्रेस सांसद रहे सचिन पायलट किसी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगे और संभव है भाजपा सांसद रहे प्रो. सांवरलाल जाट चुनाव ही न लड़ें। प्रो. जाट को भी पिछले चुनाव में प्रोजेक्ट किया गया था, उससे पहले के चुनाव में तो हालत ये थी कि दोनों दलों के पास स्थानीय दमदार दावेदार नहीं थे, इस कारण सचिन पायलट व किरण माहेश्वरी को बाहर से ला कर चुनाव लड़ाया गया।
अगर सचिन विधानसभा चुनाव लड़े तो कांग्रेस के पास लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी तलाशना कठिन होगा। ज्ञातव्य है कि पूर्व में पूर्व भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत के सामने कांग्रेस भूतपूर्व राजस्व मंत्री किशन मोटवानी, पुडुचेरी के उपराज्यपाल बाबा गोविंद सिंह गुर्जर, जगदीप धनखड़ व हाजी हबीबुर्रहमान को लड़ाया गया था, जो कि हार गए। इनमें से मोटवानी व बाबा का निधन हो चुका है, जबकि धनखड़ ने राजनीति छोड़ दी है और हाजी हबीबुर्रहमान भाजपा में जा चुके हैं। कांग्रेस के पास स्थानीय प्रत्याशी का अभाव पूर्व में भी था, तभी तो धनखड़ व हाजी हबीबुर्रहमान को लाना पड़ा। हां, एक बार जरूर राज्यसभा सदस्य रहीं डॉ. प्रभा ठाकुर पर दाव खेला गया, जिसमें एक बार उन्होंने प्रो. रावत को हराया और एक बार हार गईं। कांग्रेस का सचिन को बाहर से ला कर चुनाव लड़ाने का प्रयोग तो एक बार सफल रहा, मगर दूसरी बार मोदी लहर में वे टिक नहीं पाए। अब जब कि सचिन को कांग्रेस मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने का मानस रखती है, तो स्वाभाविक रूप से वे विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे। बताया जा रहा है कि वे अजमेर की पुष्कर, नसीराबाद व मसूदा विधानसभा सीटों में से किसी एक सीट से चुनाव लडऩे का मानस बना रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस के लिए फिर लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी तलाशना कठिन होगा। यदि जातीय समीकरण की बात करें तो कांग्रेस के पास सचिन के अतिरिक्त कोई दमदार गुर्जर नेता जिले में नहीं है। चूंकि यह सीट अब जाट बहुल हो गई है, उस लिहाज से सोचा जाए तो कहने को पूर्व जिला प्रमुख रामस्वरूप चौधरी व पूर्व विधायक नाथूराम सिनोदिया हैं, मगर वे दमदार नहीं माने जाते।
उधर समझा जाता है कि प्रो. जाट की रुचि अपने बेटे रामस्वरूप लांबा को नसीराबाद विधानसभा सीट से चुनाव लड़वाने की इच्छा है तो भाजपा के पास फिर सशक्त जाट नेता का अभाव हो जाएगा। यूं पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गेना को दावेदार माना जा सकता है, मगर वे पिछला विधानसभा उपचुनाव हार चुकी हैं। हां, अजमेर डेयरी अध्यक्ष व प्रमुख जाट नेता रामचंद्र चौधरी जरूर भाजपा के खेमे में हैं, मगर अभी उन्होंने भाजपा ज्वाइन नहीं की है। वे एक दमदार नेता हैं, क्योंकि डेयरी नेटवर्क के कारण उनकी पूरे जिले पर पकड़ है। शायद ही ऐसा कोई गांव-ढ़ाणी हो, जहां उनकी पहचान न हो। यदि संघ सहमति दे दे तो वे भाजपा के एक अच्छे प्रत्याशी हो सकते हैं। वैसे समझा ये भी जाता है कि कांग्रेस उन्हें फिर अपनी ओर खींचने की कोशिश कर सकती है। हालांकि अभी उनका सचिन से छत्तीस का आंकड़ा है, मगर राजनीति में कुछ भी संभव है। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने पिछले दिनों छिटके जाट नेताओं की वापसी की मुहिम चलाई थी।
यूं पूर्व जिला प्रमुख व मौजूदा मसूदा विधायक श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा प्रयास कर सकते हैं, मगर राजपूत का प्रयोग कितना कारगर होगा, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
यदि जाट-गुर्जर से हट कर बात करें तो कांग्रेस के पास बनियों में पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती हैं, जिनका नाम पूर्व में भी उभरा था। भाजपा के पास पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा हैं, हालांकि नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन भी अपने आप को इस योग्य मानते रहे हैं।
कुल मिला कर आगामी लोकसभा चुनाव के संभावित प्रत्याशियों को लेकर दोनों ही दलों में खुसरफुसर शुरू हो चुकी है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

भाजपा ने भी किया अजमेर बंद में सहयोग

शहर जिला कांग्रेस की ओर से आयोजित बंद की सफलता के लिए कांग्रेस को भाजपा का धन्यवाद ज्ञापित करना चाहिए। असल में उसके सहयोग से ही बंद ऐतिहासिक रूप से सफल रहा। अगर शहर जिला भाजपा बंद का विरोध नहीं करती तो कदाचित बंद इतना सफल नहीं होता। है न कबीर की उलटबांसी की तरह।
असल में बंद को लेकर कांग्रेस के नेताओं में तनिक आशंका थी। लगातार तीन विधानसभा चुनाव हार चुकी कांग्रेस फिर से जीवित हो रही है। यह पहला मौका था, जो बंद जैसा बड़ा टास्क में लिया गया। वो भी तब जब शहर अध्यक्ष विजय जैन महेन्द्र सिंह रलावता वाली कार्यकारिणी से काम चला रहे हैं। यह इसलिए भी कठिन था चूंकि जनहित का होते हुए भी आम आदमी के ठीक से पल्ले नहीं पड़ रहा था। भाजपा ने भी मुद्दे को नकारने का अभियान चला रखा था कि यह फालतू है। ऐसे में बंद पूरी तरह से सफल हो पाएगा या नहीं, थोड़ी सी धुकधुकी थी। इस कारण जैन ने सभी नेताओं का सहयोग लेकर एडी चोटी का जोर लगा दिया था। उधर भाजपा अपने गढ़ में अति उत्साही थी। मोदी लहर पर सवार हो कर पिछली बार कांग्रेस को बुरी तरह से परास्त कर चुकी भाजपा ने कांग्रेस को बेहद कमजोर आंक कर हड़काने का मानस बनाया। उसे लगा कि अगर ये ऐलान किया जाएगा कि उसके कार्यकर्ता बंद के विरोध में सड़क पर उतरेंगे तो कांगेस कार्यकर्ता घबरा जाएंगे। आम दुकानदार भी सोचेगा कि भाजपा उनके साथ है, लिहाजा दुकान खोल लेगा। मगर हुआ इसका उलटा। एक तो कांग्रेस कार्यकर्ता चुनौती को स्वीकार कर जोश में आ गया और दूसरा दुकानदार यह सोच कर कि अब टकराव होना निश्चित है, सो उसने दुबकने में ही भलाई समझी। पुलिस का अतिरिक्त जाप्ता तैनात होने से दहशत और ज्यादा हो गई। और नतीजतन बंद अपेक्षा से बहुत अधिक और ऐतिहासिक रूप से सफल हो गया। भला ऐसे में कांग्रेस का फर्ज बनता है कि नहीं कि वह भाजपा को धन्यवाद ज्ञापित करे।
वस्तुत: यह भाजपा की नादानी ही कही जाएगी कि उसने बंद का विरोध सड़क पर उतर कर करने की ठानी। इतनी भी अक्ल नहीं लगाई कि ऐसी घोषणा से टकराव की आशंका उत्पन्न होगी और दुकानदार और अधिक भयभीत हो जाएंगे। ये कोई चुनाव तो हैं नहीं कि आप अजमेर को अपना गढ़ मान कर जीत की उम्मीद लगाएं। सोचने वाली बात है कि बंद जैसे आयोजनों में तोडफ़ोड़ की आशंका में अधिसंख्य व्यापारी वैसे ही बंद करने में ही भलाई समझते हैं। चाहे बंद कोई भी करवाए। भले ही कोई व्यापारी भाजपा समर्थक हो, और भाजपा को चंदा देता रहा हो, मगर बंद जैसे मामले में वह यह उम्मीद करके बेखौफ दुकान नहीं खोल सकता कि भाजपा वाले उसे बचा लेंगे। कोई कितना भी मोदी समर्थक हो, अपनी दुकान में नुकसान की कीमत पर मोदी मोदी नहीं कर सकता।
बहरहाल, इस ऐतिहासिक बंद ने अजमेर की राजनीति में तनिक बदलाव कर दिया है। एक तो केन्द्र व राज्य में मोदी लहर के सहारे सत्ता पर काबिज भाजपा का दंभ टूट गया है। वो भी आ बैल मुझे मार की तर्ज पर। न वह विरोध का राग छेड़ती और न ही पासा उलटा पड़ता। आज हालत ये है कि अखबार इन सुर्खियों से भरे पड़े हैं कि भाजपा बंद को रुकवाने में नाकामयाब हो गई। कांग्रेस बंद को सफल करवा पाई, उसकी तुलना में कहीं अधिक यह हाईलाइट हो रहा है कि भाजपा विफल हो गई। अफसोसनाक बात ये कि भाजपा यह दावा कर रही है कि बंद विफल हो गया, जबकि जनता ने खुद देखा कि बंद कितना सफल रहा, उसे भाजपा की राय जानने की जरूरत क्या है। अब भले ही आप से कह कर बचने की कोशिश करें कि डंडे के जोर पर बंद करवाया गया, मगर यह खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे वाली कहावत ही चरितार्थ करेगी। कुल मिला कर भाजपा का यह समझ में आ गया होगा कि मोदी लहर धीमी पड़ चुकी है और उसके जनाधार में कमी आई है।
उधर स्वाभाविक रूप से कांग्रेस बल्ले बल्ले कर रही है। उसकी सोच से कहीं अधिक सफलता जो हाथ लग गई। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस टास्क को पूरा करने में सभी कांग्रेसी एकजुट हो गए थे, मगर जैन के खाते में ऐतिहासिक बंद करवाने का श्रेय दर्ज हो गया है।
अब भाजपाई आत्ममंथन कर रहे होंगे कि उड़ता तीर अपनी ओर बुलाने का सुझाव किसने तो दिया और उसका समर्थन किस किस ने किया, जो ये दिन देखना पड़ा। चुपचाप बैठे रहते, कौन सी देग लुट रही थी। बैठे ठाले भद्द पिटवा ली।
-तेजवानी गिरधर
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भाजपा की वजह से ही लखावत के घर के बाहर तैनात हुई पुलिस

राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण एवं प्रौन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत के सुपुत्र एवं जाने माने वकील उमरदान लखावत ने फेसबुक अकाउंट पर एक विचारणीय बिंदु पर चर्चा की है। अपनी बात लिखने से पहले उनकी बात हूबहू देखिए:-
आदरणीय पुलिस जी, अजमेर की राजनैतिक संस्कृति ऐसी नहीं रही है कि विरोधी दल शहर बंद कराए तो दूसरे दल के नेताओं के घर सुरक्षा के लिए पुलिस लगानी पड़े। आज सुबह जब उठे तो घर के बाहर चार पुलिस के सिपाही जी खड़े थे पूछा क्या हुआ तो बोले आज अजमेर बंद है, लखावत जी के घर पर हमें भेजा है पूछा क्यों तो बोले सुरक्षा के लिए, दूसरे नेताओं के भी ऐसा ही किया है। मैंने कहा भाई अजमेर शहर की संस्कृति में ऐसा नहीं होता है, आप जाओ। एक एसआई से बात कराई तो वो बोले ठीक है सर वापस बुला लेता हूं। अभी कोर्ट से वापसी पर वे पुलिस जी गली के बाहर अजमेर की राजनैतिक संस्कृति की सुरक्षा में खड़े है अब पुलिस जी कौन समझाए?
अब अपनी बात। असल में उमरदान लखावत ने बिलकुल सही लिखा है। वाकई अजमेर की राजनीतिक संस्कृति ऐसी नहीं है। यहां नेता भले ही अपनी अपनी पार्टी के प्रति निष्ठावान हैं, मगर आपस में उनके संबंध सौहार्द्रपूर्ण हैं। किसी के मन में व्यक्तिगत दुर्भावना नहीं। ये अच्छी बात है। बंद करवाने निकले नेता व कार्यकर्ता भी लखावत जी का सम्मान करते हैं। मगर पुलिस की तो अपनी ड्यूटी है। लखावत जी आज राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त नेता हैं। खुदानखास्ता बंद के दौरान कोई असामाजिक तत्त्व भीड़ का फायदा उठा कर गलत हरकत कर देता तो पुलिस के लेने के देने पड़ जाते। ऐसे में उनकी तो ड्यूटी थी कि वे लखावत जी के घर के बाहर सुरक्षा व्यवस्था चौकस रखते।
सामान्यत: भी यदि सुरक्षा के लिए व्यवस्था की जाती तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होती। मगर ऐसा लगता है कि पुलिस को इस कारण ज्यादा ध्यान रखना पड़ा चूंकि भाजपा की ओर से टकराव के संकेत दिए गए थे। जबरन बंद करने का विरोध करने के लिए खुद भी मैदान में डटने का ऐलान करने से स्वाभाविक रूप से पुलिस भी चौकन्नी हो गई। उसे मजबूरन संवेदनशील स्थानों पर पुलिस कर्मी लगाने पड़े। छिटपुट घटनाएं हुई भीं, जिनको पुलिस ने ही निपटाया। काश भाजपा ने टकराव की रणनीति नहीं अपनाई होती, तो न तो लखावत जी के घर के बाहर पुलिस तैनात होती और न ही उमरदान लखावत को इस प्रकार की बात कहनी पड़ती। यह तो भाजपा को ही समझना होगा कि अजमेर की राजनीतिक संस्कृति को कायम रखना चाहिए अथवा नहीं।
-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

क्या गैर सिंधीवाद ने खो दिया एक दमदार दावेदार?

अजमेर नगर निगम की साधारण सभा के दौरान मेयर धर्मेन्द्र गहलोत के पूर्व नगर परिषद सभापति व भाजपा से निष्कासित मौजूदा पार्षद सुरेन्द्र सिंह शेखावत को अपने हाथों से रोटी खिलाने की फोटो वायरल हुई तो एक बार फिर राजनीतिक अफवाहों की अबाबीलें उडऩे लगीं। मौलिक सवाल सिर्फ एक ये कि आखिर किस समझौते के तहत गहलोत व शेखावत एक हो गए?
कुछ ऐसे ही सवाल ये कि क्या समझौते से पहले गहलोत ने अपने आका शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी से सहमति ली थी? क्या देवनानी ने सुलह से पहले गहलोत के जरिए शेखावत ये वचन तो नहीं ले लिया कि वे आगामी विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर की सीट का रुख नहीं करेंगे? अव्वल तो वे अभी भाजपा में लौटे नहीं हैं, मगर वापसी हुई भी तो क्या अजमेर उत्तर से चुनाव लडऩे की जिद नहीं करेंगे? और अगर इतना बड़ा करार हुआ है तो क्या यह गैर सिंधीवाद की मुहिम को एक तगड़ा झटका नहीं कहलाएगा?
ज्ञातव्य है कि गैर सिंधीवाद की मुहिम के तहत पिछली बार भाजपा टिकट के करीब पहुंच गए थे, वो तो ऐन वक्त पर देवनानी ने संघ की तुरप का पत्ता खेल कर टिकट हथिया ली, वरना कांग्रेस की तरह भाजपा में भी पहली बार गैर सिंधी को टिकट देने का प्रयोग हो गया होता। कहने की जरूरत नहीं है कि शेखावत गैर सिंधीवाद के एक आइकन के रूप में स्थापित हो गए थे। विशेष रूप से मेयर चुनाव में हारने के बाद देवनानी के विरोधी हों या गैर सिंधीवाद की मुहिम को हवा देने के वाले, शेखावत के इर्द गिर्द जमा हो गए थे। उन्हें शेखावत से बड़ी उम्मीदें थीं। माना यही जा रहा था कि अगर कांग्रेस व भाजपा, दोनों ने सिंधी प्रत्याशी ही उतारे तो वे गैर सिंधीवाद के नाम पर निर्दलीय रूप से चुनाव मैदान में उतर जाएंगे। मगर अब जब कि पिछले दिनों मसाणिया भैरवधाम में चंपालाल जी महाराज के सामने शेखावत व गहलोत ने राजनीतिक दुश्मनी समाप्त कर ली तो उस संभावना पर धुंधलका छा गया है। हालांकि अभी ये पता नहीं है कि शेखावत की भाजपा में वापसी कब होगी, होगी भी या नहीं, मगर बदले हालात यही संकेत दे रहे हैं कि शेखावत देवनानी के खिलाफ दावेदारी नहीं करेंगे। निश्चित ही देवनानी ने गहलोत को शेखावत से दोस्ती करने से पहले दावेदारी न करने का वचन देने को कहा होगा। हालांकि राजनीति में सब कुछ संभव है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि गैर सिंधीवाद ने एक तगड़ा दावेदार खो दिया है। ऐसे ही एक उभरते दावेदार पार्षद ज्ञानचंद सारस्वत भी थे, मगर वे पिछले निगम चुनाव में देवनानी से सुलह कर भाजपा में लौट गए थे। हां, इन दोनों का स्थान अब अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिवशंकर हेडा लेते दिखाई दे रहे हैं। वे अंडरग्राउंड तैयारी कर रहे बताए। देखते हैं क्या होता है?
-तेजवानी गिरधर
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तीन साल बाद ये हैं अजमेर जिले के राजनीतिक हालात

अजमेर। जिले की आठ में से सात विधानसभा सीटों पर काबिज भारतीय जनता पार्टी दो राज्यमंत्रियों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल, दो संसदीय सचिवों सुरेश रावत व शत्रुघ्न गौतम के अतिरिक्त राज्य किसान आयोग के अध्यक्ष प्रो. सांवरलाल जाट व राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत की सशक्त टीम के साथ बहुत ही मजबूत स्थिति में है। किसी भी जनप्रनिधि पर कोई गंभीर आरोप नहीं है। मगर एक ही किंतु नजर आता है कि चूंकि इस बार मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के नेतृत्व में काबिज सरकार का परफोरमेंस कुछ खास उल्लेखनीय नहीं रहा है, इस कारण संभव है जनता पलटी मार दे। हालांकि चुनाव अभी दो साल दूर हैं, इस दौरान हालात बदल भी सकते हैं, मगर फिलहाल माहौल भाजपा के पूरी तरह से पक्ष में नहीं माना जा रहा।
बात अगर कांग्रेस की करें तो पिछले विधानसभा चुनाव में जिले की आठों विधानसभा सीटों पर पस्त हो चुकी पार्टी में थोड़ी जान तब आई, जब नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में रामनारायण गुर्जर विजयी रहे। जाहिर तौर पर इसमें प्रदेश कांग्रेस के मौजूदा अध्यक्ष व अजमेर के पूर्व सांसद रहे सचिन पायलट की भी भूमिका रही, जिन्होंने कांग्रेस में फिर से जान फूंकने की कोशिश की है। हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का धड़ा भी सक्रिय है, जिससे आपसी टकराव की आशंका है, मगर इस प्रतिस्पद्र्धा का अंत बड़े नेताओं के बीच सीटों के बंटवारे के साथ समाप्त होने की संभावना है। यूं कांग्रेसी यही मान कर चल रहे हैं कि इस बार सत्ता उनकी ही होगी।
आइये, जरा जिले की आठों विधानसभा सीटों की ताजा स्थिति पर नजर डालें कि ग्राउंड पर कैसी स्थिति व कैसे समीकरण हैं:-
अजमेर उत्तर
बात अगर अजमेर उत्तर की करें तो शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी की हालिया मंत्रीमंडल विस्तार में रवानगी की खूब चर्चा थी, मगर संघ के वीटो से वे न केवल खम ठोक कर खड़े हैं, अपितु एक और विभाग मिलने से ज्यादा मजबूत हुए हैं। ऐसे में कोई कारण लगता नहीं कि आगामी विधानसभा चुनाव में उनका टिकट काट दिया जाए। दुर्भाग्य से भाजपा का एक बड़ा धड़ा उनके खिलाफ है और चुनाव आने तक पंद्रह साल की एंटी इन्कंबेंसी उनके कांधे पर होगी, मगर उन्होंने अभी से अपनी टीम को वार्ड व बूथ स्तर पर मजबूत करना शुरू कर दिया है। भाजपा में हालांकि किसी गैर सिंधी को टिकट देने का दबाव रहेगा, मगर लगता नहीं कि भाजपा अपने सिंधी वोट बैंक के बिखरने का खतरा मोल लेने का दुस्साहस करेगी। अगर किसी सूरत में उनका टिकट कटने की स्थिति बनती है तो कंवल प्रकाश किशनानी सबसे प्रबल दावेदार होंगे, मगर उन्हें संघ के वरदहस्त की जरूरत होगी, जिसके लिए वे सतत प्रयत्नशील हैं। यूं संघ की जैसी फितरत है, वह किसी अपरिचित चेहरा भी उतार सकता है।
उधर कांग्रेस में ऐसी आम धारणा है कि लगातार दो बार गैर सिंधी को टिकट देने के कारण हुई हार से सबक लेते हुए इस बार पार्टी गैर सिंधी को टिकट देने का प्रयोग नहीं करेगी, मगर उसके पास कोई सशक्त दावेदार नजर नहीं आता। तत्कालीन नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष नरेन शाहणी भगत एक मजबूत दावेदार हो सकते थे, मगर चूंकि वे एसीडी के एक केस में उलझे हुए हैं, इस कारण उससे मुक्ति के बिना वे चुनाव का सपना भी नहीं देख सकते। इसके अतिरिक्त जिस तरह से पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने पायलट पर आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ी थी, उससे उनकी संभावना धूमिल सी है। अगर वे केस से बाहर हो जाते हैं तो शायद गहलोत खेमे की ओर से प्रबल दावेदारी कर सकते हैं। सिंधी दावेदारों में पूर्व पार्षद श्रीमती रश्मि हिंगोरानी, सुनिल मोतियानी, पूर्व राज्यकर्मी हरीश हिंगोरानी के नाम चल रहे हैं। राजस्थान सिंधी अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. लाल थदानी भी दावेदारी कर सकते हैं। यूं प्रदेश कांग्रेस के सचिव सुरेश पारवानी के नाम पर भी कयास लगाए जा रहे हैं कि उन्हें इसी मकसद से अजमेर का सहप्रभारी बनाया गया है।
इस सीट को लेकर एक रोचक स्थिति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। तत्कालीन नगर परिषद के सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत मेयर चुनाव के दौरान पार्टी से बाहर हो गए थे। इस विवाद का पटाक्षेप हाल ही हुआ है। उन्होंने राजगढ़ स्थित मसाणिया भैरवधाम के मुख्य उपासक चंपालाल जी महाराज के समक्ष मेयर धर्मेन्द्र गहलोत के साथ सभी गिले शिकवे भुला कर सुलह कर ली है। अब संभावना यही है कि वे फिर मुख्य धारा में आने की कोशिश करेंगे। वैसे उन पर गैर सिंधी के रूप में चुनाव मैदान में उतरने का भारी दबाव रहेगा, जिसके लिए उन्होंने ग्राउंड भी बना रखा है।
अजमेर दक्षिण
अजमेर दक्षिण की बात करें तो हाल के मंत्रीमंडल विस्तार में राज्य मंत्री का पद बरकरार रखने में कामयाब हुईं श्रीमती अनिता भदेल का टिकट पक्का ही माना जा सकता है, मगर चूंकि नगर निगम चुनाव में उनके नेतृत्व में पार्टी का प्रदर्शन काफी कमजोर रहा और कोली मतदाताओं में जनाधार कम हुआ, उसे देखते हुए तनिक संभावना भी है कि पार्टी इस बार किसी और यथा रेगर या वाल्मिकी कार्ड खेलने पर विचार कर सकती है। इस सिलसिले में मौजूदा जिला प्रमुख वंदना नोगिया व पूर्व कांग्रेस विधायक बाबूलाल सिंगारियां का नाम सामने आता है। यूं कोली नेता के रूप में पार्टी के पास मेयर का चुनाव हार चुके डॉ. प्रियशील हाड़ा का नाम भी है।
दूसरी ओर कांग्रेस में आम धारणा है कि पायलट का वरदहस्त होने के कारण इस बार भी प्रमुख उद्योगपति हेमंत भाटी को ही टिकट दिया जाएगा, मगर उनके बड़े भाई पूर्व उपमंत्री ललित भाटी, पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल व पूर्व मेयर कमल बाकोलिया भी टिकट के लिए पूरी ताकत झोंक देंगे।
पुष्कर
अजमेर से मात्र 13 किलोमीटर दूर तीर्थराज पुष्कर की सीट पर मौजूदा संसदीय सचिव सुरेश रावत के ही रिपीट होने का अनुमान है। वे न केवल पूरी तरह से सक्रिय हैं, अपितु मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के भी कृपा पात्र हैं। रावत वोट बैंक की वजह से भी उन्हें दोहराना भाजपा की मजबूरी होगी। उधर हारने के बाद भी क्षेत्र में लगातार सक्रिय पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ इसी उम्मीद में हैं कि इस बार भी उन्हें ही कांग्रेस का टिकट मिलेगा, मगर एक बार यहां से विधायक रह चुके डॉ. श्रीगोपाल बाहेती अपने आका अशोक गहलोत के दम पर टिकट लाने का माद्दा रखते हैं। हालांकि ऐसा तभी होगा, जब मसूदा से किसी मुस्लिम को टिकट दिया जाएगा।
नसीराबाद
नसीराबाद विधानसभा सीट पर इस बार राज्य किसान आयोग के अध्यक्ष प्रो. सांवरलाल जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार होंगे। यहां की पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो यह सर्वविदित है कि प्रो. जाट ने मोदी लहर में इस सीट पर वर्षों बाद कब्जा कर लिया था, मगर लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें अजमेर संसदीय सीट से चुनाव लड़ाया, इस कारण यहां उपचुनाव हुए। उसमें कांग्रेस के रामनारायण गुर्जर ने पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गेना को पराजित कर दिया। वे अब भी क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रहती हैं, मगर प्रो. जाट का दबदबा इतना अधिक है कि दुबारा टिकट पाने का उनका सपना साकार होना कठिन है। वैसे भी केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाए जाने के कारण जाट के हजारों समर्थक नाराज हैं, इस कारण टिकट के निर्धारण में जाट की ही भूमिका अहम रहेगी। हालांकि राज्य किसान आयोग का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद जाट शांत हैं, मगर वे उत्तराधिकारी के रूप में प्रो. जाट के पुत्र को ही टिकट देने पर पूरी तरह से संतुष्ट होंगे।
कांग्रेस की बात करें तो इस सीट पर पुडुचेरी के उपराज्यपाल स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर व उनके परिवार का ही वर्चस्व रहा है। मौजूदा विधायक रामनारायण गुर्जर संजीदा और सशक्त हैं, इस कारण लगता यही है कि फिर टिकट उन्हें ही मिलेगा, मगर उनके ही रिश्तेदार पूर्व विधायक महेन्द्र गुर्जर टिकट हासिल करने की भरपूर कोशिश करेंगे। वैसे उनके बारे में एक अफवाह ये है कि वे कांग्रेस में तवज्जो नहीं मिलने पर भाजपा का दामन भी थाम सकते हैं। एक विशेष स्थिति ये भी बन सकती है कि अगर सचिन पायलट पर मुख्यमंत्री का दावेदार होने के नाते विधानसभा का चुनाव लडऩे  का दबाव रहा तो संभव है, इस सीट का चयन करें।
केकड़ी
केकड़ी में मौजूदा विधायक व संसदीय सचिव शत्रुघ्न गौतम का पाया काफी मजबूत है। युवा और सदवै सक्रिय रहने के कारण उन्होंने क्षेत्र में अच्छी पकड़ बना ली है। संसदीय सचिव बनने के बाद तो वे और मजबूत हुए हैं। राजपूतों की ओर से कदाचित दावेदारी की भी जाए, मगर उनकी फूट किसी भी दावेदार को सशक्त रूप से आगे नहीं बढऩे देगी। कांग्रेस की ओर से इस बार फिर रघु शर्मा दावेदारी करेंगे, ऐसा समझा जाता है। असल में पिछले विधायक काल में उन्होंने क्षेत्र में भरपूर काम करवाए, केकड़ी को जिला बनवाने की भी खूब कोशिश की, इस कारण जिले की एक मात्र इसी सीट पर कांग्रेस की जीत सुनिश्चित मानी जाती थी, मगर मोदी लहर व मीडिया मिसमैनेजमेंट के कारण रघु शर्मा हार गए। वे राज्य स्तरीय नेता हैं और प्रदेश के बड़े पत्रकारों से उनके ताल्लुकात हैं, मगर स्थानीय स्तर पर मीडिया को तवज्जो नहीं देने के कारण उनके खिलाफ माहौल बन गया था।
किशनगढ़
यूं तो किशनगढ़ के मौजूदा विधायक भागीरथ चौधरी का ही भाजपा टिकट पर प्रथम दावा रहेगा, चूंकि भाजपा इस सीट पर जातीय समीकरण के तहत किसी जाट को ही मैदान में उतारती है, मगर किशनगढ़ का शहरी वोटर ये चाहता है कि कोई गैर जाट सामने आए। इसी सिलसिले में किशनगढ़ नगर परिषद की सभापति गुणमाला पाटनी के पति महेन्द्र पाटनी दावा कर सकते हैं। उनके अतिरिक्त मार्बल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश टाक, सुरेश दगड़ा आदि भी दावा ठोक सकते हैं। हालांकि इनमें से वही भारी पड़ेगा, जिस पर आर के मार्बल का हाथ होगा।
उधर कांग्रेस में पूर्व विधायक नाथूराम विधायक के अतिरिक्त कोई अन्य जाट नेता उभरता नहीं दिखाई देता। गैर जाट के रूप में कांग्रेस राजू गुप्ता पर दाव खेल सकती है। पिछली बार अगर मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की चलती तो वे ही टिकट लेकर आते। अगर इस सीट पर किसी जाट को ही उतारने की मजबूरी नहीं रही तो गुप्ता बाजी मार सकते हैं। बाकी दावेदारी करने को तो रतन यादव, सुशील अजमेरा, बाबा रामदेव गुर्जर, अब्दुल सत्तार आदि भी कर सकते हैं।
मसूदा
पिछली बार जिन हालात में युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा की पत्नी जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा टिकट लेकर आई और जीत कर भी दिखाया, उसे देखते हुए लगता नहीं कि मसूदा में कोई और प्रबल दावेदार भाजपा में उभर कर आएगा। क्षेत्र में लगातार संपर्क और जनसेवा के कार्य निरंतर करवाते रहने के कारण उनकी पकड़ इलाके में मजबूत भी है। कांग्रेस में इस बार पूर्व विधायक हाजी कयूम खान टिकट लाने के लिए एडी चोटी का जोर लगाए हुए हैं। उनकी जयपुर-दिल्ली तक अच्छी पकड़ है। अगर पुष्कर से पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ को टिकट नहीं मिल पाया तो जिले में एक मुस्लिम के नाते हाजी कयूम टिकट लाने में कामयाब हो सकते हैं।
ब्यावर
ब्यावर विधायक शंकर सिंह रावत स्वाभाविक रूप से भाजपा टिकट के पहले दावेदार होंगे, मगर मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से खास ट्यूनिंग न होने के कारण माना जा रहा है कि कोई और रावत नेता उभर कर आएगा। शंकर सिंह रावत ने हालांकि ब्यावर को जिला बनवाने के लिए खूब संघर्ष किया, मगर सरकार पर पूरी तरह से दबाव बनाने में कामयाब नहीं हो पाए। फिलहाल संघ पृष्ठभूमि व एबीवीपी से लंबे समय तक जुड़े रहे महेन्द्र सिंह रावत, संघ व भाजपा में सैनिक प्रकोष्ठ के सुपरिचित चेहरे पूर्व सैनिक देवी सिंह रावत, जवाजा क्षेत्र की जानी पहचानी महिला नेता संतोष रावत, किशोर सिंह संगरवा आदि के नामों की चर्चा है। यदि भाजपा ने किसी गैर रावत को टिकट देने का मानस बनाया तो देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत ही एक मात्र प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं। वे वसुंधरा राजे के करीबी भी हैं और पिछले पच्चीस साल से यहां से टिकट की मांग करते रहे हैं।
कांग्रेस में रावत चेहरे के रूप में मेजर फतेह सिंह रावत के पोते व हरिसिंह रावत के पुत्र सुदर्शन रावत प्रबल दावेदार हैं। गैर रावतों में चंद्रकांता मिश्रा व उनके पति ओम प्रकाश मिश्रा के अतिरिक्त देहात जिला कांग्रेस के अध्यक्ष रहे आनंद मोहन शर्मा के पुत्र दिनेश शर्मा, जो कि युवक कांग्रेस में रहने के दौरान काफी चर्चित रहे, दावा कर सकते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

कार्यकारिणी न बना पाने की वजह से जैन को असफल करार देना गलत

भले ही पूरा एक साल बीत जाने के बाद भी शहर कांग्रेस की कार्यकारिणी घोषित न हो पाई हो, और मीडिया में इसे शहर अध्यक्ष विजय जैन की असफलता के रूप में गिना जा रहा हो, मगर असल बात ये है कि अपनी पसंदीदा टीम के बिना पुरानी कार्यकारिणी के साथ भी उन्होंने एक साल सफलतापूर्वक दर्ज किया है। यूं पूर्व अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता के समय भी कांग्रेस का दफ्तर नियमित रूप से खुलता रहा, मगर जितनी गतिविधियां विजय जैन के कार्यकाल में खुद उनके दफ्तर से नियमित रूप से हुईं व उनमें अपेक्षाकृत अधिक उपस्थिति दिखाई दी, वैसा पूर्व में कभी नहीं हुआ था।
मीडिया का पोस्टमार्टम करने का तरीका अपना है, मगर असल में कार्यकारिणी बना पाना, न बना पाना पार्टी का अंदरूनी मामला है, उसका जनता से कोई लेना देना नहीं है। ये तो है नहीं कि चूंकि वे कार्यकारिणी घोषित नहीं करवा पाए, इस कारण किसी भी धरने-प्रदर्शन में अकेले ही खड़े नजर आते हैं। अगर नई कार्यकारिणी न बना पाने की वजह से संगठन की गतिविधि ठप हो गई होती तो जरूर कहा जा सकता था कि वे असफल रहे हैं, मगर सच्चाई ये है कि वे न केवल पूरी तरह से सक्रिय हैं, अपितु एक साल में अनेकानेक कार्यक्रम व धरना प्रदर्शन आदि को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है। वस्तु स्थिति ये है कि अब कार्यक्रमों में कार्यकर्ताओं की उपस्थिति पहले से कहीं अधिक रहती है। भले ही उसकी एक वजह ये हो कि कार्यकारिणी में शामिल होने के इच्छुक दावेदार बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। इसके अतिरिक्त पायलट की सक्रियता और अगली सरकार कांग्रेस की बनने की संभावना के कारण भी कार्यकर्ता सक्रिय हुआ है।
यदि ये मान भी लिया जाए कि कार्यकारिणी न बना पाना एक असफलता है, तो भी उसके लिए अकेले जैन को ही जिम्मेदार मानना गलत है। बकौल जैन इसकी वजह प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट की व्यस्तता है तो उसके साथ सीमा से अधिक दावेदार होने के कारण भी मामला उलझा है। अपने चहेंतो को पद दिलवाने के लिए अड़ जाने वाले भी बराबर के जिम्मेदार हैं। जैसा कि माना जा रहा है कि जैन पूर्व विधायकों व वरिष्ठ कांग्रेसजन को एक मंच नहीं ला पा रहे, तो यह तथ्य भी गलत है। सच तो ये है कि जो नेता रलावता के कार्यकाल में पूरी तरह से निष्क्रिय हो गए थे, वे भी अब सक्रिय हो गए हैं। इतना ही नहीं, एक मंच पर भी आ ही गए हैं, बस दिक्कत सिर्फ ये है कि सभी अपने पसंदीदा दावेदारों को एडजस्ट करने का दबाव बनाए हुए हैं। यानि कि विवाद जैन को अध्यक्ष मानने की स्वीकार्यता का नहीं है, बल्कि मसला है कि कार्यकारिणी में घुसने का।
बहरहाल, कार्यकारिणी को न बना पाने को अगर एक असफलता माना जाए तो साथ ही यह भी समझना होगा कि जो व्यक्ति बिना खुद की टीम के सफल कार्यक्रम दे सकता है, तो वह अपनी टीम के होने पर क्या कर सकता है।

एक वर्ष पूरा करने की खुशी पत्रकारों के साथ बांटी राठौड़ ने

अजमेर जिला देहात कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह राठौड़ ने अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी का एक सफल साल पूरा होने की खुशी अपनी मूल जमात पत्रकारों के साथ बांटी। ज्ञातव्य है कि राठौड़ ने अपने केरियर के रूप में पत्रकारिता को ही चुना और तकरीबन बीस साल काम किया है। वे एक बार सरपंच और सरपंच संघ के अध्यक्ष भी रहे। यकायक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की नजर उन पर पड़ी और उन्हें देहात जिला कांग्रेस का दायित्व सौंपा। तब राजनीति के जानकारों का मानना था कि बहुत से सीनियर लीडर्स को ओवरटेक कर के अध्यक्ष बने राठौड़ शायद कामयाब न हो पाएं, मगर उन्होंने बड़ी चतुराई से सभी को साथ लेकर संगठन को गति प्रदान की। जो संगठन पूर्व में मृतप्राय: था, उसे जीवित किया। सत्तारूढ़ भाजपा की विफलताओं को उजागर करने के लिए आंदोलन किए। हर ज्वलंत मुद्दे पर सक्रियता दिखाई और जिले के सभी 12 ब्लॉक में धरना-प्रदर्शन किए। जाहिर तौर पर इसमें उनकी पत्रकारिता वाली पृष्ठभूमि व उसकी वजह से पहले से बने संपर्कों ने भी काम किया और मीडिया ने उनका पूरा सहयोग किया। यह बात स्वयं राठौड़ ने भी पत्रकारों से अनौपचारिक रूप से बतियाते हुए स्वीकार की।
कुल मिला कर इस गेट टूगेदर में राठौड़ बहुत सहज मगर पूरे आत्मविश्वास के साथ नजर आए। उन्होंने कहीं से ये महसूस न होने दिया कि वे अब राजनेता हो गए हैं। पत्रकारों के साथ ठीक पहले जैसे ही हंसी मजाक करते रहे।
पत्रकारों का भी उनके प्रति कितना स्नेह है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अजयमेरू क्लब में हर शनिवार होने वाला सांस्कृतिक कार्यक्रम भी इसी गेट टूगेदर के साथ किया गया।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

क्या ब्रह्मा मंदिर की प्रतिष्ठा से खिलवाड़ कर रहे हैं जिला कलेक्टर?

तेजवानी गिरधर
तीर्थराज पुष्कर में स्थित विश्वविख्यात ब्रह्मा मंदिर इसके महंत सोमपुरी का एक सड़क दुर्घटना में निधन होने के बाद नए महंत की नियुक्ति को लेकर हो रही जद्दोजहद के कारण चर्चा में है। जाहिर तौर पर रोजाना फॉलोअप के रूप में खबरें मीडिया में छायी हुई हैं। उनमें कुछ नकारात्मक भी हैं। मीडिया की भूमिका महज इतनी सी है कि वह जो कुछ सच है, उसे सामने ला रहा है। मगर कुछ लोगों का मानना है कि नकारात्मक खबरों के कारण मंदिर की प्रतिष्ठा को आंच आ रही है, अत: मीडिया को संयम बरतना चाहिए। कुछ लोग इसके लिए जिला कलेक्टर गौरव गोयल को भी जिम्मेदार मान रहे हैं, जो कि किसी भी प्रेशर ग्रुप के दबाव में नहीं आ रहे। न तो वे किसी धार्मिक या सामाजिक शख्स के प्रभाव में आ रहे और न ही जनप्रतिनिधि को दखल देने दे रहे। नतीजतन नित नई परतें खुलतीं हैं। उससे ब्रह्मा मंदिर के प्रति आस्था रखने वाले आहत होते हैं। कुछ को तो इस बात की शिकायत है कि प्रशासन ऐसा प्रदर्शित करने में लगा हुआ है, मानो ब्रह्मा मंदिर में दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला हो गया हो, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। करोड़ों हिंदुओं की आस्था के इस केन्द्र के समस्त कमरों को खंगालने के उपरांत 10 -12 लाख रुपए ही मिले हैं। एक दबी दबी सी शिकायत ये भी है कि हिंदुओं का प्रमुख आस्था केन्द्र प्रशासन व पुलिस के कब्जे में क्यों है?  मगर आस्था अपनी जगह है और कानून अपनी जगह।
संभव है कि मंदिर की प्रतिष्ठा को लेकर चिंतित कुछ लोग मात्र आस्था की वजह से मुखरित हों, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोग इस कारण चिंतित हैं, क्योंकि जिला कलेक्टर के विनम्र मगर सख्त तरीके से कानून सम्मत काम करने के कारण मंदिर के मामले में रुचि ले रहे चंद लोगों पर सवाल उठने लगे हैं। मीडिया की तटस्थता से भी कुछ लोगों को तकलीफ है, जबकि यह अत्यंत ही गौरव की बात है कि अधिसंख्य पत्रकार तीर्थराज पुष्कर से धार्मिक या सामाजिक तौर पर जुड़े होने के बाद भी खबरों में पूरी निष्पक्षता बरत रहे हैं।
सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि महंत के निधन के बाद से लेकर अब तक जिला कलेक्टर जिस प्रकार मामले को हैंडल किया है, उसकी प्रशासनिक दृष्टिकोण से सराहना की जा रही है। सच तो ये है कि यही कार्य कुशलता राजनीति के उच्च स्तर पर बारीकी से आंकी जा रही है। अब तक एक भी ऐसा प्रकरण सामने नहीं आया है, जिससे लगता हो कि उन्होंने आस्था व प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ किया हो। किसी भी प्रमुख धार्मिक व्यक्ति अथवा राजनेता ने उनकी कार्यप्रणाली पर सार्वजनिक रूप से सवाल नहीं उठाया है। मगर चंद निहितार्थी इससे असहज हो रहे हैं। हां, इतना जरूर है कि जो प्रमुख व्यक्ति इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ कर देख रहे हैं और मानसिकता विशेष से जुड़े जो लोग मंदिर पर काबिज होने में असफल हो रहे हैं, वे अंदरखाने शिकायत दर्ज करवा रहे हैं। दूसरी ओर जिला कलेक्टर इतने चतुर है कि मामले के हर बिंदु से मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को अवगत कराते हुए अपना विश्वास बनाए हुए हैं। कदाचित प्रेशर ग्रुप कामयाब हो भी गया तो वे जयपुर, यहां तक कि दिल्ली में किसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के लिए बुला लिए जाएंगे। वैसे भी किसी आईएएस अधिकारी के लिए स्थान विशेष में रुचि नहीं होती, उसकी रुचि तो इसमें होती है कि किस प्रकार सत्ता के साथ तालमेल बैठा कर बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी पर काम करने का मौका हासिल करे।
खैर, बात मंदिर की प्रतिष्ठा की करें तो ये बात बेमानी लगती है कि मंहत विवाद के बाद वहां प्रतिदिन जो प्रशासनिक कवायद हो रही है और उसकी खबरें प्रकाशित होती हैं, उससे मंदिर बदनाम होता है।
आपको याद होगा कि कुछ इसी प्रकार की चिंता ब्लैकमेल कांड उजागर होने के बाद लगातार आ रही खबरों में उसमें संलिप्त कुछ खादिमों  का जिक्र आने पर दरगाह से जुड़े लोगों को ऐसा लगता था कि इससे दरगाह बदनाम हो रही है, मगर सच्चाई ये है कि ख्वाजा साहब के प्रति आस्था रखने वालों पर उसका कोई असर नहीं पड़ा, उलटे उसके बाद दरगाह आने वाले जायरीन की संख्या बढ़ी ही है। ठीक उसी प्रकार सृष्टि के रचियता व उनके एक मात्र मंदिर के प्रति आस्था रखने वालों पर कोई असर नहीं पडऩे वाला।  ऐसा लगता है कि जिन लोगों को ब्रह्मा मंदिर के बदनाम होने का खतरा है,  या तो उनकी आस्था कुछ कमजोर है या फिर वे नहीं चाहते कि दूध का दूध पानी का पानी हो।
आखिर में बड़ा सवाल। क्या ब्रह्मा मंदिर की प्रतिष्ठा का ख्याल रखते हुए वहां अब तक हुई आर्थिक गड़बड़ी को दफ्न कर दिया जाना चाहिए?
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

एसपी को हटाने की मांग सार्वजनिक रूप से क्यों करनी पड़ी सांखला को?

अजमेर नगर निगम के उपमहापौर सम्पत सांखला ने मुख्यमंत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे को पत्र लिखकर मांग की है कि चूंकि अजमेर शहर में कानून व्यवस्था कायम करने में वर्तमान पुलिस अधीक्षक पूरी तरह से फेल हैं, अत: किसी योग्य एवं ईमानदार पुलिस अधीक्षक को लगाया जाए। जाहिर तौर पर सत्तारूढ़ दल के जिम्मेदार पदाधिकारी का इस प्रकार बाकायदा बयान जारी कर मांग करना चौंकाने वाला है। जहां सांखला को उनकी इस हिम्मत के लिए कुछ लोग दाद दे रहे हैं, वहीं सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसी नौबत क्यों आई कि उन्हें पार्टी मंच के जरिए अथवा सीधे सरकार से संपर्क करने की बजाय सार्वजनिक रूप से मांग करनी पड़ी?
यह सही है कि विकास कुमार के यहां एसपी होने के दौरान कानून व्यवस्था में सुधार आया था और अपराधियों में खौफ कायम हुआ था, जबकि मौजूदा एसपी नितिनदीप के कार्यकाल में चेन स्नेचिंग, चोरी, नकबजनी की वारदातें तो बढ़ी ही हैं, खुलेआम गोलियां भी चल रही हैं, ऐसे में कानून व्यवस्था पर सवाल उठना ही चाहिए था। संपत सांखला ने वाकई जनभावना का ख्याल रखते हुए वाजिब मांग उठाई है। इसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं। उनकी मंशा पर तो कोई सवाल ही नहीं, मगर सवाल ये उठता है कि अजमेर शहर से ही दो राज्य मंत्रियों व जिले से दो संसदीय सचिवों के अतिरिक्त एक प्राधिकरण अध्यक्ष व एक आयोग अध्यक्ष की सरकार में भागीदारी होते हुए यह मसला उन्हें अकेले सार्वजनिक रूप से क्यों उठाना पड़ा? क्या इसका ये अर्थ निकाला जाना चाहिए कि उनसे कई गुना अधिक जिम्मेदार राजनेताओं को मौजूदा एसपी से कोई शिकायत नहीं, जो वे चुप हैं और एसपी को नहीं हटवा रहे? ऐसे में चौंकाता ये नहीं कि सांखला ने सत्तारूढ़ दल का नेता होते हुए सार्वजनिक रूप से मांग कैसे कर दी, बल्कि चौंकाता ये है कि उनके बड़े नेता क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं? कहने की जरूरत नहीं कि शहर की बहबूदी की जिम्मेदारी बड़े नेताओं की ज्यादा है।
बहरहाल, अगर सांखला की इस मांग पर कार्यवाही होती है तो स्वाभाविक रूप से वे वाहवाही के पात्र होंगे। ये बात दीगर है कि एसपी की पदोन्नति डीआईजी के पद पर हो चुकने के बाद उनका तबादला जल्द होना तय है।