रविवार, 10 सितंबर 2017

आखिकार गौरी लंकेश पत्रकार थी

इन दिनों पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या को लेकर सोशल मीडिया पर जम कर बवाल हो रहा है। खासकर इसलिए कि जैसे ही यह तथ्य सामने आया कि वह वामपंथी विचारधारा की थी, इसी कारण दक्षिपंथियों ने उसकी हत्या कर दी तो अब दक्षिणपंथी लगे हैं यह साबित करने में कि उसकी हत्या नक्सलपंथियों ने की। बेशक, यह कोर्ट को ही तय करना है कि आखिर उसकी हत्या किसने की, मगर जिस प्रकार दक्षिणपंथी पत्रकार मामले को ट्विस्ट दे रहे हैं, तर्क के निम्नतम स्तर पर जा रहे हैं, उससे लगता है कि वे अपने मौलिक पत्रकार धर्म को छोड़ कर विचारधारा मात्र को पोषित करने में लगे हुए हैं। यह ठीक है कि वे हत्या पर दुख भी जता रहे हैं, मगर उनकी भाषा में हमदर्दी तनिक मात्र भी नजर नहीं आती। कुछ तो इंसानियत की सारी मर्यादाएं तोड़ कर इस हत्याकांड पर खुशी तक जता रहे हैं।
गौरी लंकेश आखिरकार पत्रकार थीं। उनकी कलम के बारे में कहा जा रहा है कि वह संयमित नहीं थी, तो इसका मतलब ये नहीं है कि कानून तोड़ कर कुछ लोग उसकी हत्या कर दें। किसी को अधिकार नहीं की कलम के विरोध स्वरूप गोली मार दे, यदि आपको किसी की लेखनी से नाराजगी है तो अदालत और कानून है। अगर इस प्रकार विचारधारा विशेष के लोग सजा देने का अधिकार अपने हाथ में ले लेंगे तो फिर कानून की जरूरत ही क्या है? तो फिर इस लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा? तो फिर असहिष्णुता का सवाल उठाया जाता है, वह पूरी तरह से जायज है।
चलो, इस मसले को अब जबकि पूरा राजनीतिक रंग मिल चुका है, तो इससे हट कर भी विचार कर लें। फेसबुक पर एक पत्रकार ने अपना दर्द बयान करते हुए लिखा है कि अगर किसी पत्रकार पर हमला होता है तो पत्रकार संघ इसके विरोध में मात्र ज्ञापन देने एवं आलोचना की खबर प्रकाशित करने के अलावा कुछ भी नहीं करते हैं। अति महत्वाकांक्षा के इस दौर में खबर एवं विज्ञापन के लालच में हम स्वयं ही एक दूसरे के विरोधी बन जाते हैं। प्रशासन के वो ही अधिकारी जो अन्य मामलों में पत्रकारों से सहयोग की अपील करते हुए देखे जाते हैं, वो ही ऐसे मामलों में पत्रकारों से कभी सहयोग नहीं करते। जनता भी कभी पत्रकार के फेवर में देखी नहीं गई। जब फोटो या नाम छपवाना हो तो पत्रकारजी होते हैं, वरना वो कभी भी पत्रकार के दु:ख दर्द में साथी नहीं होती। उनकी बात में दम है।
एक पत्रकार साथी ने तो और खुल कर लिखा है कि किस प्रकार पत्रकार की सेवाएं तो पूरी ली जाती हैं, मगर जब उस पर विपत्ति आती है तो उसकी सेवाओं को पूरी तरह से नकार दिया जाता है:-
लड़ाई हो तो पत्रकारों को बुलाओ
सड़क नहीं बनी पत्रकारों को बुलाओ
पानी नहीं आ रहा पत्रकारों को बुलाओ
नेतागिरी में हाईलाइट होना है तो पत्रकारों को बुलाओ
नेतागिरी चमकानी हो तो पत्रकरों को बुलाओ
पुलिस नहीं सुन रही तो पत्रकारों को बुलाओ
प्रशासन के अधिकारी नहीं सुन रहे पत्रकारों को बुलाओ
जनता की हर छोटी मोटी समस्या के लिए पत्रकार हमेशा हाजिर हो जाते हैं और अपने कर्तव्यों का निर्वहन बखूबी करते हैं, पर जब पत्रकारों पर हमला होता है, उनकी हत्या की जाती है, तब आमजन क्यों नहीं पत्रकारों का साथ देने आगे आते हैं? जरा सोचिए, पत्रकार भी आपके समाज का हिस्सा है, फिर पत्रकारों पर हमले का विरोध सिर्फ पत्रकार ही करते हैं, बाकी क्यों नहीं करते?
कुल जमा बात ये है कि किसी पत्रकार की हत्या को जायज ठहराने अथवा किसी और पर आरोप मढऩे से भी अधिक महत्वपूर्ण ये है कि गौरी लंकेश आखिरकार पत्रकार थी। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अगर छीनी जाती रहेगी तो इस देश में लोकतंत्र को बचाना मुश्किल हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

इतनी पोल है जिला परिषद में?

अजमेर जिला परिषद का सरकारी तंत्र कैसा काम कर रहा है, इसकी पोल तब खुली, जब एक फर्जी पत्र के आधार पर झारखंड के जिला कोडरमा के गांव चंदवारा के विनोद प्रसाद गुप्ता द्वारा राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के नाम पर गांवों में तकरीबन दो हजार परिवारों के घरों के बाहर एल्यूमिनियम की प्लेटें लगा कर हर एक से तीस-तीस रुपए वसूल लेने का मामला उजागर हुआ।
दैनिक भास्कर ने इस चौंकाने वाले मामले के हर पहलु पर प्रकाश डाला है, जिससे साफ जाहिर होता है कि गारेखधंधा करने वाले ने बड़ी चतुराई से फर्जी पत्र जिला परिषद से जारी करवा लिया। अगर वह अपने स्तर पर ही ऐसा फर्जी पत्र बना कर लोगों को चूना लगाता तो समझ आ सकता था कि इसमें जिला परिषद का कोई दोष नहीं है, मगर उसने जिस तरह उस पत्र को बाकायदा स्वच्छता मिशन शाखा के रजिस्टर से ही डिस्पैच  करवाया, वह साफ दर्शाता है कि इसमें जिला परिषद के ही किसी कर्मचारी की मिलीभगत है। अगर मिलीभगत नहीं है तो भी इतना तो तय है कि गोरखधंधा करने वाले ने परिषद में चल रही लापरवाही का फायदा उठाया है। आम तौर ये देखा गया है कि कोई पत्र एक सीट से दूसरी सीट तक पहुंचाने में कर्मचारी मुस्तैदी नहीं दिखाते, तो संबंधित व्यक्ति ही इस काम को अंजाम दे देता है। यह एक ढर्रा सा बन गया है। ऐसा प्रतीत होता कि आरोपी ने इसी पोल का फायदा उठाया है।
हालांकि अभी यह पता नहीं है कि उस फर्जी पत्र पर तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी निकया गोहाएन के हैं या नहीं, मगर संदेह तो होता ही है कि उस शातिर ने कहीं गुडफेथ का लाभ उठा कर तो हस्ताक्षर नहीं करवा लिए। जांच का एक बिंदु ये भी होगा कि कहीं मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने आरोपी को लाभ पहुंचाने के लिए नियमों से परे जा कर इस प्रकार के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। कदाचित उनके हस्ताक्षर देख कर ही डिस्पैच करने वाले बाबू ने गुडफेथ में यकीन कर लिया हो कि पत्र मुख्य कार्यकारी अधिकारी की ओर से ही जारी हुआ है। इसका अर्थ ये है कि कारगुजारी करने वाले को पता था कि जिला परिषद में कितनी पोल है, तभी तो उसने उसका फायदा उठाते हुए बाकायदा पत्र डिस्पैच करवाया।
हालांकि अभी ये पता नहीं है कि एल्यूमिनियम प्लेट की लागत कितनी है और फर्जीवाड़ा करने वाले को कितना मुनाफा हो रहा था, मगर जिस प्रकार का श्रमसाध्य काम उसने हाथ में लिया, उससे इतना तो अनुमान होता ही है कि पत्र जारी करवाने के बाद वह बेखौफ हो कर यह काम अंजाम दे रहा था। इस से संदेह होता है कि कहीं पत्र पर हस्ताक्षर असली तो नहीं। हालांकि जांच होगी तो निश्चित रूप से तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी मुकर ही जाने वाले हैं। वैसे जिला कलेक्टर गौरव गोयल का कहना है कि विकास अधिकारियों को भेजे पत्र पर मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं सदस्य सचिव जिला स्वच्छता मिशन जिला परिषद के दस्तखत सही है या नहीं इसकी भी जांच करवाई जाएगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000