आम कहावत है कि अजमेर रिटायर्ड और टायर्ड लोगों का शहर है। यह थके हुए लोगों की बस्ती है। फितरत से सहनशील यहां के बंदों इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि पानी एक दिन में मिलता है या पांच दिन में। न तो इस बात परवाह है कि सरकारी अमला ठीक से काम कर रहा है या नहीं और न ही इसकी फिक्र कि उनकी रोजमर्रा की मुसीबतों की कोई सुध ले रहा है या नहीं। यदाकदा भावनाओं में उबाल आता भी है, मगर जल्द ही ठंडा पड़ जाता है। जिद की हद तो कभी छू भी नहीं पाता। आम बोलचाल में तो यहां तक कह दिया जाता है कि ये मुर्दा शहर है या यहां के लोग मुर्दा हैं। कुछ लोग तो इस बेरवाह फितरत का नाता इलायची बाई की गद्दी से जोड़ देते हैं। मगर पहली बार इस तरह के कहावती जुमलों को अनेकानेक सियासी जंगों का गवाह रहे इस शहर ने नकार दिया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रही अन्ना की देशव्यापी आंधी के साथ अजमेर वासी भी पूरे जोश और जुनून के साथ जुटे हुए नजर आ रहे हैं।
पहले योग गुरू बाबा रामदेव के काले धन के खिलाफ छेड़ी गई जंग और अब अन्ना हजारे की हुंकार ने यहां के लोगों का जज्बा उभार दिया है। यह सही है कि भले ही आंदोलन किसी एक संगठन के बैनर तले नहीं आ पाया, या फिर किसी एक व्यक्ति विशेष की रहनुमाई कहीं नजर नहीं आती, मगर शायद ही ऐसा कोई वर्ग हो, जिसे इसने प्रभावित नहीं किया हो। जोश से लबरेज युवा पीढ़ी हो या कथित रूप से थके हुए बुजुर्ग, घर के कामकाज में व्यस्त ग्रहणियां हों या लोकपाल बिल से पूरी तरह से अनभिज्ञ स्कूली बच्चे, यहां तक कि अमूमन व्यवसाय में रमे रहने वाला व्यापारी वर्ग भी जाग गया है। हर कोई अपनी-अपनी ताकत के साथ अन्ना के आंदोलन में अपनी आहूति दे रहा है। इतना ही नहीं, जिस सरकारी तंत्र पर अंकुश की खातिर ये बिल लाया जाना है, वह भी भ्रष्टाचार से त्रस्त हो कर इस यज्ञ में शामिल हो गया है। सबसे ज्यादा उबाल युवा तबके में नजर आ रहा है। चारों से ओर फैले भ्रष्टाचार और रोजगार की आपाधापी से भविष्य के प्रति आशंकित युवा पीढ़ी का जोश तो देखते ही बनता है। कोई उन्हें मोटीवेट करे न करे, युवक-युवतियां खुद-ब-खुद तिरंगे झंडे हाथों में लिए सड़कों पर उतर आए हैं। इस पूरे मंजर को चंद लफ्जों में पिरोने की कोशिश करें तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अब अजमेर जाग गया है।
यूं तो समय-समय पर कई तबके किसी न किसी मुद्दे पर आंदोलन करते रहे हैं, मगर यह पहला ऐसा मौका है, जबकि अनेक सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों से जुड़े लोग खुल कर अन्ना का साथ दे रहे हैं। कदाचित कांग्रेस बनाम अन्ना का रूप अख्तियार कर चुके इस आंदोलन की वजह से कांग्रेसी भले ही खुल कर सामने नहीं आ रहे, मगर भ्रष्टाचार से मुक्ति की आवाज तो वे भी दे ही रहे हैं। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा तो बाकायदा संगठन के स्तर पर खुल कर अपना समर्थन दे रहा है। हर किसी को ऐसा लगता है मानो इस आंदोलन को समर्थन देना उनका नैतिक दायित्व है। अभी चूक गए तो बाद में पछताएंगे कि ऐसे राष्ट्रवादी आंदोलन में उनकी तो कोई भागीदारी ही नहीं थी। कल जब आंदोलन कामयाब हो जाएगा तो वे भी गर्व से कह सकेंगे कि वे महज गवाह ही नहीं, बल्कि भागीदार थे। और यही वजह है कि चौराहों से शुरू हुआ जज्बा बाजारों से होता हुआ गली-मोहल्लों तक पसर गया है। सोया हुआ शहर कहलाने वाला अजमेर अब जागा हुआ नजर आ रहा है।
मगर इस जोश और जुनून की आंधी के बीच एक सवाल भी उभर आया है। और वो ये कि यह जागृति महज शमशानिया वैराग्य तो साबित नहीं हो जाएगी। कि राष्ट्रीय मुद्दे के साथ स्थानीय मुद्दों के लिए भी यह जज्बा कायम रहेगा या नहीं? यह अकेला एक ही सवाल नहीं है। इस सवाल के नीचे प्याज के छिलकों की माफिक परत दर परत छिपे अनेक सवाल चीख-चीख कर पुकार रहे हैं कि आखिर उनका कभी जवाब भी सामने आ पाएगा। चंद सवालों की बानगी देखिए, जो नौकरी में मस्त प्रशासन और इच्छाशक्ति के अभाव से अभिशप्त राजनेताओं की लापरवाही के बीच जवाब मांग रहे हैं-
सवाल ये कि सुरसा के मुंह की तरह विकराल हो चुकी ट्रेफिक समस्या से बेहद त्रस्त हो चुके लोग इसके स्थाई समाधान के लिए भी ऐसा ही जज्बा दिखाएंगे? पार्किंग स्थलों के अभाव में रोजाना चालान भुगतते लोग कभी एकजुट हो कर कोई दबाव बनाएंगे या नहीं? क्या एलीवेटेड रोड की मांग महज सियापा ही साबित हो जाएगी? ट्रांसपोर्ट नगर शहर से बाहर बसाने की जिद पर अड़ेंगे या नहीं? हवाई अड्डे का वर्षों पुराना सपना साकार करने के लिए मुट्ठियां तानेंगे या नहीं? नियमन और नक्शों की खातिर जूतियां घिसने वाले हजारों लोगों में मौजूदा जागृति कायम रह पाएगी या नहीं? नकारा हो चुके नगर निगम प्रशासन और आपस में झगड़ कर वक्त बर्बाद करते काउंसलर्स को उनका दायित्य बोध कराने का भी ख्याल रहेगा या नहीं? बढ़ता अतिक्रमण रोकने और सड़कों पर खुलेआम सैर करते जानवरों को पकडऩे की मुहिम को राजनीति की भेंट चढ़ते वक्त आंखें तो नहीं मूंद लेंगे? सुपर स्पेशियलिटी सेवाओं से वंचित वर्षों पुराने जेएलएन हॉस्पीटल का जीर्णोद्धार कराने को एकजुट होंगे या नहीं? तीर्थराज पुष्कर और दरगाह ख्वाजा साहब के कारण अंतर्राष्ट्रीय पहचान रखने वाले इस शहर में टूरिज्म डवलपमेंट की खातिर आवाज उठाएंगे या नहीं? एक के बाद दूसरा सरकारी महकमा छिनने पर नेता बगलें तो नहीं झांकेंगे? मजह पानी की कमी से औद्योगिक विकास को तरसते शहर को इकॉनोमिक जोन बनाने की खातिर जागेंगे या नहीं? ऐसे ही अनेकानेक सवाल हमारे जेहन में दफन हैं। उम्मीद है इस बार जागा अजमेर अब फिर नहीं सोयेगा और अपने ऐतिहासिक गौरव को फिर हासिल होगा।