रविवार, 24 मार्च 2019

सारस्वत की उम्मीद पर फिरा पानी, भाजपा ने जाट कार्ड खेला

आसन्न लोकसभा चुनाव में अजमेर संसदीय सीट पर भाजपा टिकट के प्रति सर्वाधिक आशान्वित देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत की उम्मीदों पर पानी फिर गया। उनकी बजाय किशनगढ़ के पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी पर दाव खेला जा रहा है। इसी सीट के लिए जितने भी दावेदार थे, उनमें सारस्वत को सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा था। देहात अध्यक्ष के नाते उनकी पूरे देहात जिले में पकड़ है। देहात में भाजपा संगठन को मजबूत करने में उनकी अहम भूमिका भी रही है। हालांकि वे पिछले लोकसभा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी रामस्वरूप लांबा को जितवा नहीं पाए, मगर इसमें कोई दोराय नहीं कि उन्होंने लांबा के लिए डट कर काम किया। मगर अंतत: भाजपा हाईकमान ने इस मान्यता को खारिज कर दिया कि रघु शर्मा की तरह यहां ब्राह्मण प्रत्याशी कामयाब हो सकता है। सारस्वत के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि वे पिछले 25 साल से विधानसभा या लोकसभा का टिकट मांगते रहे हैं, मगर उन्हें एक बार भी चांस नहीं मिल पाया।
यूं उम्मीद पर चोट तो दीपक भाकर के साथ भी हुई है। सारस्वत टिकट के लिए गंभीर प्रयासरत तो थे, मगर उन्होंने इसका प्रचार नहीं किया, जबकि भाकर ने शोशेबाजी में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उन्होंने अपने पोस्टर-बैनर चारों ओर इस प्रकार शाया कर दिए थे, मानो उनका टिकट पक्का हो गया है। अधिसंख्य पोस्टर उस किस्म के थे, जैसे अधिकृत प्रत्याशी के हुआ करते हैं। जयपुर-दिल्ली में उनकी पकड़ जरूर थी, मगर उनका सबसे बड़ा माइनस पॉइंट ये था कि वे जनता में सुपरिचित चेहरा नहीं थे। अपने आप को प्रोजेक्ट करने के लिए इसीलिए मशक्कत की, ताकि टिकट मिल जाने के बाद कोई ये न कहे कि दीपक भाकर कौन है? मगर हाईकमान ने सुपरिचित व अनुभवी के रूप में चौधरी पर हाथ रख दिया।
भाजपा ने जातीय समीकरण का पूरा ख्याल रखते हुए तकरीबन ढ़ाई लाख जाट मतदाताओं के दम पर चौधरी पर हाथ रख दिया है। हालांकि बीच में ऐसा माना जा रहा था कि अगर सारस्वत को टिकट देना संभव नहीं हुआ तो केन्द्रीय मंत्री सी. आर. चौधरी को यहां से उतारा जा सकता है, मगर ऐसा लगता है कि स्थानीयतावाद को ख्याल रखते हुए ही भागीरथ को मौका मिला है। भागीरथ को स्थानीय होने का तो लाभ मिलेगा ही, इसके अतिरिक्त  वे जाट वोट बैंक का बड़ा हिस्सा भी झटक सकते हैं।
ज्ञातव्य है कि भागीरथ चौधरी पिछले विधानसभा चुनाव में किशनगढ़ सीट के सशक्त दावेदार थे, मगर उन्हें मौका नहीं दिया गया। बावजूद इसके उन्होंने बगावत नहीं की और भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में जम कर काम किया। यही उनका प्लस पॉंइट बन गया। कदाचित ये भी हो सकता है कि दूरदृष्टि रखते हुए उन्हें लोकसभा चुनाव के लिए सुरक्षित रखा गया हो। उनके पक्ष में एक बात ये जाती है कि हालांकि वे जाट जाति से हैं, मगर वैश्य समुदाय से भी उनका मेलजोल है। ऐसे में पिछले उपचुनाव की तरह एंटी जाट फैक्टर काम करेगा, इसको लेकर मतभिन्नता है। 
-तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, 14 मार्च 2019

क्या प्रियंका गांधी अजमेर से चुनाव लड़ेंगी?

राजनीति की एक खासियत है। वो है संभावना। अनंत संभावना। कुछ भी हो सकता है। अजमेर सीट के लिए पिछले दिनों से चल रहे नामों को ओवरलेप करके कुछ नए नाम सामने आए, एक कांग्रेस टिकट के लिए पूर्व पर्यटन मंत्री बीना काक के रिश्तेदार व भीलवाड़ा के उद्योगपति रिजी झुंझुंनू वाला और दूसरे भाजपा टिकट के लिए कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के पुत्र या पुत्री। संभावनाओं की इलास्टिसिटी देखिए। अब अचानक कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का नाम भी आ गया है। यह कोरी गप्प नहीं है। बाकायदा दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में इस नाम की चर्चा है।
समझा जाता है कि उत्तरप्रदेश में श्रीमती सोनिया गांधी व राहुल गांधी ही पर्याप्त हैं। वैसे भी वहां सीमित संभावनाएं हैं, इसलिए प्रियंका गांधी का प्रयोग राजस्थान में करने पर विचार हो रहा है, ताकि उनके प्रभाव का फायदा यहां की सीटों पर भी मिल सके। बताया जा रहा है कि जयपुर व टोंक-सवाईमाधोपुर के अतिरिक्त अजमेर पर भी विचार हुआ है। अजमेर इसलिए कि तीर्थराज पुष्कर व दरगाह ख्वाजा साहब की यह पावन भूमि सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए दुनियाभर में मशहूर है। इसके अतिरिक्त उपचुनाव में डॉ. रघु शर्मा ने यहां जीत दर्ज करवा कर कांग्रेस में जान फूंकी और यह मिथक तोड़ दिया कि मोदी लहर अब भी विद्यमान है और ये कि अजमेर भाजपा का गढ़ है। इससे पूर्व भी मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट यहां से जीत चुके हैं, यह बात अलग है कि अगले ही चुनाव में मोदी लहर के कारण वे हार गए। अगर प्रियंका यहां से लड़ कर जीतती हैं तो इसका पूरे देश में अच्छा संदेश जाएगा। आज जब कि वोटों का धु्रवीकरण धर्म के नाम पर करने की तमाम कोशिशें हो रही हैं, प्रियंका का अजमेर से लडऩा धर्मनिरपेक्षता का मजबूत संदेश साबित होगा। इसका लाभ राजस्थान में तो होगा ही, निकटवर्ती राज्यों पर भी असर पड़ सकता है।

स्थानीयवाद का मुद्दा कितना दमदार?

आसन्न लोकसभा चुनाव में अजमेर संसदीय क्षेत्र तीन लोक से मथुरा न्यारी की कहावत को चरितार्थ कर रहा है। न्यारी इस लिहाज से कि संभवत: अजमेर ही ऐसी सीट है, जहां कि ये पंक्तियां लिखे जाने तक नित नाम दावेदारों के नाम सामने आ रहे हैं। सिलसिला कहीं तो थमे। दोनों पार्टियों में सीमित स्थानीय दावेदार थे। वे चर्चा की शुरुआत में उभर गए थे, मगर बाहरी दावेदारों की संख्या प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। गिरिजा व्यास, सी. आर. चौधरी सरीखे नाम परिचित तो हैं, मगर अजमेर से उनका कोई वास्ता नहीं रहा। और तो और ऐसे ऐसे नाम, जो कि किसी ने नहीं सुने तक नहीं। मसलन पूर्व पर्यटन मंत्री बीना काक के रिश्तेदार व भीलवाड़ा के कपड़ा व्यवसायी रिजू झुंझुनूवाला, किरोड़ी सिंह बैंसला के पुत्र या पुत्री। प्रसंगवश बता दें कि जब पहली बार विधानसभा चुनाव में प्रो. वासुदेव देवनानी यहां आये तो उनका नाम भी पहली बार ही जानकारी में आया। इसी प्रकार भिन्न लोकसभा चुनावों में कांग्रेस जब विष्णु मोदी व हाजी हबीबुर्रहमान टिकट लेकर आए तो उनको भी कोई नहीं जानता था।
खैर, मुद्दे पर आते हैं। बाहरियों की चर्चा इतना होने का मतलब ये कत्तई नहीं कि स्थानीय दावेदार दमदार नहीं हैं या योग्य नहीं हैं, मगर जरूर कोई न कोई लोचा है, इसी कारण बाहरी दावेदार इस सीट को ललचाई नजर से देख रहे हैं। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि कहीं न कहीं हाईकमानों तक स्थानीयों की तुलना में बाहरी दावेदारों की ज्यादा पकड़ है, जो कि अपने रसूखात के दम पर टिकट लाने का माद्दा रखते हैं। ऐसे में स्थानीय दावेदारों की पेशानी पर चिंता की रेखाएं उभरना स्वाभाविक है। अगर वे किसी न किसी रूप में स्थानीयवाद की आवाज उठावा रहे हैं तो वह गलत नहीं कही जा सकती।
स्थानीयवाद का मुद्दा इस कारण जायज है चूंकि वर्षों से अजमेर की धरती पर पला-बढ़ा नेता ही यहां की समस्याओं व जरूरतों को बेहतर समझ सकता है। स्थानीय व्यक्ति ही जीतने के बाद स्थानीय जनता से जुड़ा रहेगा, जबकि बाहरी जीतने के बाद भी अजमेर वासियों को सीमित समय ही देगा। मगर क्या किसी का स्थानीय होना मात्र पर्याप्त है? क्या उसका प्रभावशाली होना जरूरी नहीं है? इसी सिलसिले में जेहन में एक बड़ा सवाल ये उठता है कि स्थानीय तो प्रो. रासासिंह रावत भी हैं। पांच बार जीत हासिल कर रिकार्ड बनाया, मगर उनके रिकार्ड में एक भी उपलब्धि दर्ज नहीं है। वजह सिर्फ ये कि दिल्ली के नक्कारखाने में उनकी आवाज तूती सी होती थी। वे सहज सुलभ थे, मगर ऐसी सहजता से हासिल क्या? ऐसे स्थानीय को ड्राइंग रूम में सजा कर रखें या सहलाएं। स्थानीय तो स्वर्गीय प्रो. सांवरलाल जाट भी थे, मगर दुर्भाग्य से अधूरे कार्यकाल में लौटा दिए गए, जिसमें वे अजमेर को कुछ नहीं दे पाए। इसके विपरीत मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट बाहर से आ कर जीते और उन्होंने एक ही कार्यकाल में इतने काम किए, जितने एकाधिक कार्यकाल वाले सांसद नहीं कर पाए। वो तो अजमेर का दुर्भाग्य था कि अजमेर को अपने इतिहास में पहली बार मिले केन्द्रीय मंत्री को भरपूर काम करवाने के बाद भी मोदी लहर में हार का सामना करना पड़ गया।
बहरहाल, अपनी समझदानी में तो यही समझ आता है कि पार्टियां स्थानीय को तो ख्याल में रखती ही होंगी, मगर उनकी चिंता केन्द्र में सरकार बनाने के लिए उचित आंकड़ा हासिल करने की होती है। और अगर एक पार्टी बाहरी पर हाथ रखती है तो दूसरी को भी उसकी टक्कर के लिए बाहरी की आयातित करना पड़ता है। जैसा कि पूर्व में सचिन के मुकाबले किरण माहेश्वरी को लाना पड़ा।
ऐसा नहीं कि अपुन बाहरी की पैरवी कर रहे हैं, मगर इस सच को भी दरकिनार नहीं करना चाहते कि स्थानीय जब तक वजनदार न हो, उसका कोई भी फायदा नहीं है। यह ठीक है कि स्थानीय सांसद स्थानीय विषयों को बेहतर समझता है और उनको लोकसभा में उठा सकता है, जैसा कि प्रो. रावत ने भी भरपूर किया, मगर नतीजा ढ़ाक के तीन पात। वैसे भी लोकसभा सदस्य से आम आदमी को कोई खास काम नहीं पड़ता। काम पड़ता है तो पार्षद व विधायक से। वह जरूर स्थानीय ही होना चाहिए।
लब्बोलुआब, सांसद भले ही स्थानीय हो या बाहरी, मगर दमदार होना चाहिए जो कि कोई बड़ी परियोजनाएं अजमेर में ला कर विकास के नए आयाम छुए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, 12 मार्च 2019

इंतजाम-बदइंतजाम में झूलता बीत जाता है उर्स मेला

उर्स मेला शुरू होने के साथ एक-दो दिन से सोशल मीडिया पर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व सचिव एडवोकेट राजेश टंडन का एक संदेश ब्लिंकिंग कर रहा है। वो ये कि वे दरगाह मेला क्षेत्र का दौरा करेंगे और प्रशासन को आगाह करेंगे कि कहां-कहां बदइंजामी है। अगर एक दिन में खामियां दुरुस्त नहीं की गईं तो वे कलेक्ट्रेट पर धरना आरंभ कर देंगे। इससे पहले उन्होंने बाकायदा विश्राम स्थली का दौरा करके बदइंजामात के फोटो भी शाया किए थे।
टंडन की एक खासियत है। वे आम तौर पर चुप रहते हैं और मौके पर चौका ठोक देते हैं। उनकी फितरत है कि जो मुद्दा सार्वजनिक व सर्वविदित तो होता है, मगर कोई सुध नहीं लेता, उसे ही पकड़ लेते हैं। यानि कि लीक से हट कर कुछ करने की उनकी पुरानी आदत है। इतना ही नहीं, कई बार एक ही तीर से कई निशाने भी मार देते हैं।
खैर, मुद्दा ये नहीं कि टंडन क्या करते हैं, बल्कि मुद्दा ये है कि उन्होंने जो मुद्दा उठाया है, उसमें कितना दम है। यह सही है कि हर बार उर्स में एक ढर्ऱे की तरह प्रशासन इंतजामात करता है। उसे ज्यादा फिक्र ये होती है कि अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मेले में कोई बड़ी गड़बड़ न हो जाए। बावजूद इसके बदइंतजामियां बिखरी पड़ी होती हैं। हर बार इक्का-दुक्का व्यक्ति या संस्था इस ओर ध्यान आकर्षित करती है, मगर होता-जाता कुछ नहीं। आम तौर पर अवाम की ओर से कोई खास हल्ला नहीं होता। मूलत: मेला क्षेत्र से बाहर के लोगों को तो कोई वास्ता ही नहीं होता। सच तो ये है कि आधे-अधूरे इंतजामात पर भी कुछ लोगों को शिकायत होती है कि सरकार तुष्टिकरण की नीति के तहत जायरीन का ज्यादा ख्याल रख रही है, जबकि उनके मेलों व पर्वों पर ध्यान ही नहीं दिया जाता। आपको बता दें कि कमोबेश इसी स्थिति के चलते पुष्कर रोड स्थित विश्राम स्थली बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से हटा दी गई, मगर इक्का-दुक्का को छोड़ कर कोई चूं तक नहीं बोला।
मेला क्षेत्र के लाभार्थी व्यापारी जरूर शुरू में थोड़ा-बहुत खुसर-फुसर करते हैं, वह भी अस्थाई अतिक्रमण हटाओ अभियान के दौरान होने वाली जद्दोजहद में खो जाती है। और मेला आरंभ होने के बाद तो उनको अपने धंधे से ही फुर्सत नहीं मिलती। जायरीन को जियारत करवाने की अहम भूमिका निभाने वाले खादिमों की स्थिति तो उससे भी अधिक विकट होती है। उनको तो कब दिन उगा और कब रात हो गई, पता ही नहीं लगता। ऐसे में जायरीन को होने वाली दिक्कत की भला कौन फिक्र करे।
बात अगर मीडिया की करें तो वह जरूर नैतिक जिम्मेदारी पूरी करते हुए अपनी भूमिका अदा करता है। कई बार तो स्थानीय अखबारों ने बदइंतामियों पर पेज के पेज छाप दिए। उनका कुछ असर भी होता है, मगर थोड़ी-बहुत लीपापोती की जाती है। सच ये है कि जैसे आदर्श इंतजाम होने चाहिए, वे आज तक नजर नहीं आए।
मुद्दा ये है कि मेले के लिए किए जाने वाले इंतजामात से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं जायरीन। मगर वे तो आते हैं और चले जाते हैं। तकलीफ भी हो तो उसे सह कर जियारत के पहले मकसद से वास्ता रखते हैं। उनका कोई सांगठनिक स्वरूप भी नहीं होता। ऐसे में अगर टंडन को ये शिकायत है कि  प्रशासनिक शिथिलता के चलते राज्य की कांग्रेस सरकार की छवि पर बुरा असर पड़ता है तो वह वाजिब ही है। अब देखते हैं कि प्रशासन चेतता है या फिर जैसे-तैसे मेला संपन्न होने और उसके बाद शुक्राने के नाते ख्वाजा साहब के मजारे मुबारक पर चादर चढ़ा कर इतिश्री कर लेता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, 8 मार्च 2019

टिकट लेने में इसलिए दिक्कत आ रही है सारस्वत को

इसमें कोई दोराय नहीं कि जाट बहुल अजमेर संसदीय सीट होने के बावजूद सांगठनिक दृष्टिकोण से भाजपा टिकट का सबसे मजबूत दावा देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत का है।
पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा व श्रीमती सरिता गैना, पूर्व विधायक भागरीथ चौधरी, शहर भाजपा अध्यक्ष शिवशंकर हेड़ा, अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत, पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति युवा नेता भंवर सिंह पलाड़ा, आईटी स्पेशलिस्ट आशीष चतुर्वेदी, पूर्व प्रधान रामेश्वर प्रसाद कड़वा, डॉ. दीपक भाकर, विकास चौधरी, ओम प्रकाश भडाणा व सुभाष काबरा आदि की तुलना में संगठन पर सर्वाधिक पकड़ सारस्वत की है। देहात जिला अध्यक्ष पद पर होने के नाते ही नहीं, अपितु संगठन में ठेठ कार्यकर्ता तक काम करने के अनुभव के लिहाज से भी वे ही सर्वाधिक उपयुक्त दावेदार हो सकते हैं। आज देहात में जो संगठन है, उसको गठित करने में उनकी ही भूमिका है। यदि ये कहा जाए कि इसी योग्यता के चलते वे विधानसभा चुनाव में टिकट लेने से वंचित हो गए, तो कोई बहुत ज्यादा अतिशयोक्ति नहीं होगी। बेशक उनके अध्यक्ष रहते पिछले लोकसभा उपचुनाव में देहात की सभी छहों सीटों पर भाजपा पराजित हुई, जिसकी वजह ये मानी जाती है, खुद भाजपाई भी मानते हैं कि भाजपा उम्मीदवार रामस्वरूप लांबा कॉम्पीटेंट केंडिडेट नहीं थे, मगर उसके बाद विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन बेहतर हुआ, जिसका श्रेय स्वाभाविक रूप से सारस्वत को दिया जाता है। न केवल आम भाजपा कार्यकर्ता उनको सर्वाधिक दमदार दावेदार मानता है, अपितु वे स्वयं भी इस अहसास में जी रहे हैं कि टिकट उनको ही मिलेगा। समझा जाता है कि उन्हें इस बार भी पिछले आम चुनाव की तरह मोदी लहर चलने की उम्मीद होगी। बावजूद इसके यदि नागौर के सांसद सी. आर. चौधरी का नाम टॉप पर चल रहा है तो जरूर उसका कोई कारण होगा।
यह ठीक है कि चौधरी को नागौर से आयातित किया जाता है तो यह अजमेर के स्थानीय भाजपा दावेदारों व कार्यकर्ताओं का अपमान करार दिया जाना वाजिब है, मगर पार्टी के साथ दिक्कत ये है कि उसके पास इस जाट बहुल सीट के लिए मौजूदा जाट दावेदारों में से सर्वाधिक मजबूत सिर्फ चौधरी ही हैं। उन जैसे अनुभवी नेता को अगर पार्टी संसद में ले जाना चाहती है तो उसे इस तथ्य को भी नजर अंदाज करना पड़ सकता है कि वे अपने गृह जिले नागौर में पकड़ खो चुके हैं। विधानसभा चुनाव में वहां की दस में आठ सीटों पर भाजपा की हार इस बात का प्रमाण है। जानकारी के अनुसार जैसे ही उनका नाम ऊपर आया है, सारस्वत सहित अन्य दावेदारों ने भीतर ही भीतर उनका विरोध शुरू कर दिया है। यह बात दीगर है कि इसके बाद भी यदि चौधरी को टिकट दिया जाता है तो ये ही सारस्वत पूरे देहात में उनके लिए मुस्तैदी से काम करेंगे।
खैर, फिर से बात करते हैं सारस्वत की दावेदारी की। चूंकि पिछले उपचुनाव में डॉ. रघु शर्मा के जीतने से यह तथ्य स्थापित हुआ कि यह सीट ब्राह्मणों के लिए उपयुक्त है, इसी आधार पर सारस्वत दावा ठोक रहे हैं। हालांकि उस चुनाव व इस चुनाव के समीकरणों में अंतर है। यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि जिस प्रकार शर्मा का भाजपा मानसिकता के ब्राह्मणों भी ने साथ दिया था, ठीक उसी प्रकार कांग्रेस मानसिकता के ब्राह्मण भी सारस्वत का साथ देंगे। वो भी तब जब कि ब्राह्मण नेता के तौर पर डॉ. शर्मा स्थापित हो चुके हैं। वे वर्तमान में राज्य सरकार में केबीनेट मंत्री हैं। इतना ही नहीं, वे राजस्थान में कांग्रेस के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष भी हैं। जाहिर तौर पर सत्ता की वजह से उनके इर्दगिर्द ब्राह्मण लॉबी लामबंद हो चुकी है। भले ही उन्होंने अपने चुनाव में भाजपा मानसिकता के वोट झटक लिए हों, मगर ब्राह्मण होने के नाते सारस्वत को कोई एडवांटेज देने वाले नहीं हैं। अगर सारस्वत ये दावा करते होंगे कि वे सभी ब्राह्मणों वोट हासिल कर सकते हैं तो यह रघु शर्मा के रहते कमजोर ही है। और एक मात्र यही वजह उनके टिकट के दावे को कमजोर किए हुए है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, 6 मार्च 2019

सागर शर्मा को कांग्रेस का टिकट देने की मांग से खलबली

निवर्तमान अजमेर सांसद व मौजूदा चिकित्सा मंत्री डॉ. रघु शर्मा के पुत्र सागर शर्मा को अजमेर संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस का टिकट दिए जाने की मांग से एक बारगी खलबली मच गई है। अब जब कि टिकट घोषित होने में चंद दिन ही शेष हैं, युवक कांग्रेस व एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं की ओर से यकायक की गई इस मांग ने सभी को चौंकाया भी है।
ज्ञातव्य है कि पिछले लोकसभा उपचुनाव में डॉ. शर्मा ने जीत दर्ज कर कांग्रेस में जान फूंकी थी। उसके बाद विधानसभा चुनाव में उन्होंने केकड़ी से चुनाव लड़ा और अब वे चिकित्सा मंत्री हैं। स्वाभाविक सी बात है कि अब फिर से उनके लोकसभा चुनाव लडऩे की बात करना बेमानी ही है। बावजूद इसके पिछले दिनों कुछ समाचार पत्रों में इस आशय के समाचार आए कि पार्टी हाईकमान ने विकल्प के रूप में अपने पेनल में उनका भी नाम रखा है।  इस बीच अचानक उनके पुत्र सागर शर्मा के टिकट की मांग उठ गई है। ऐसे में ये कयास लगाया जाना वाजिब है कि उनके समक्ष पुत्र को चुनाव लड़वाने का प्रस्ताव आया होगा।
जहां तक सागर शर्मा के व्यक्तित्व का सवाल है, उनकी भाषा-शैली व बॉडी लैंग्वेज में पिता की झलक साफ नजर आती है। इस वजह से खासकर युवा वर्ग में लोकप्रिय होने लगे हैं। अपने पिता के लोकसभा उपचुनाव व विधानसभा चुनाव में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई थी। इस कारण उनको न केवल केकड़ी क्षेत्र के बारे में पूरी जानकारी है, अपितु राजनीतिक समझ विकसित हुई है।
इधर डॉ. शर्मा पर चिकित्सा महकमे जैसे महत्वपूर्ण विभाग का दायित्व आया तो वे अत्यंत व्यस्त हो गए हैं। उन पर पूरे राज्य का भार है। ऐसे में चाह कर भी केकड़ी पर उतना ध्यान दिया जाना संभव नहीं, जितना एक अदद विधायक दे सकता है। इसे देखते हुए सागर शर्मा ने उनकी ओर से केकड़ी में अधिकाधिक समय देना शुरू कर दिया, ताकि आमजन की अपेक्षाएं पूरी की जा सकें। वे लगातार दौरे करते रहे हैं। आज जब यकायक उनको टिकट दिए जाने की मांग उठी है तो ऐसा प्रतीत है कि उन्होंने अपना राजनीतिक केरियर बनाने के लिए ही लगातार सक्रियता बनाए रखी।
जहां तक जातीय समीकरण का सवाल है, अजमेर संसदीय क्षेत्र में तकरीबन सवा दो लाख ब्राह्मण मतदाता हैं। इस वोट बैंक के लामबंद होने के कारण की डॉ. शर्मा की जीत सुनिश्चित हुई थी। अगर सागर शर्मा को टिकट दिया जाता है तो न केवल ब्राह्मण वोट बैंक का लाभ होगा, अपितु पिता के चिकित्सा मंत्री होने का भी फायदा होगा। अगर पार्टी ने सागर शर्मा को टिकट दिया तो स्वाभाविक रूप से यह डॉ. शर्मा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल हो जाएगा और वे पूरी ताकत से जीत दिलवाने की कोशिश करेंगे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, 3 मार्च 2019

अब भी मौजूद हैं स्व. किशन मोटवानी के नामलेवा

यूं तो पूर्व केबीनेट मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी को लगभग भुला सा दिया गया है, मगर दो सामान्य कांग्रेस कार्यकर्ताओं का जज्बा देखिए कि उनकी पहल पर मोटवानी की जयंती पर श्रद्धांजलि कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें मोटवानी के भाई चंद्रभान मोटवानी सहित अनेक कांग्रेसजन ने भाग लिया।
आपको याद होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में दौरान एक दावेदार ऐसे भी थे, जो प्रतिदिन किसी न किसी संस्था प्रमुख, समाज प्रमुख अथवा व्यापारी से भेंट अग्रिम समर्थन मांगते हुए फेसबुक पर दिखाई देते थे। नाम है लक्ष्मण तोलानी। वे कांग्रेस सेवादल के पुराने कार्यकर्ता हैं। उन्होंने पिछली बार भी जयंती कार्यक्रम किया था। एक और कार्यकर्ता हैं सोना धनवानी, जो लोकसभा उपचुनाव व विधानसभा चुनाव के दौरान यकायक उभरे और अतिरिक्त सक्रियता के चलते खासा चर्चित रहे। इन दोनों ने अपने स्तर पर कांग्रेसजन से संपर्क साधा और कार्यक्रम में आमंत्रित किया। कांग्रेस विचारधारा के ही वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता रमेश टिलवानी ने प्रयास कर मोटवानी के भाई चंद्रभान मोटवानी की कार्यक्रम में उपस्थिति दर्ज करवाई। खारीकुई क्षेत्र के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता अशोक दूलानी ने भी सक्रियता दिखाई, जो कि मोटवानी से जुड़े हुए थे।
इस मौके पर प्रमुख रूप से चर्चा यही रही कि जिस शख्स ने अजमेर की जीवनदायिनी बीसलपुर पेयजल परियोजना की शुरुआत करवाई, आज उनको उस स्तर पर याद नहीं किया जाता, जितना अपेक्षित है। यहां तक कि उनके नाम को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किए गए हैं। सच तो ये है कि मोटवानी के कार्यकाल में भरपूर उपकृत हुए लोग आज शहर में मौजूद हैं, मगर वे भी गाहेबगाहे मोटवानी को याद नहीं करते। यहां तक कि मोटवानी से लाभ हासिल करने वालों की औलादें अब भाजपा का रुख कर चुकी हैं। हां, यह सही है कि जब भी मोटवानी के नाम का जिक्र आता है तो हर कोई यह कहता है कि उनके मुकाबले का दूसरा नेता फिर नहीं हुआ, विशेष रूप से सिंधी समाज में। मगर चर्चा भर हो कर रह जाती है। पिछले कांग्रेस राज के दौरान नगर सुधार न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत के कार्यकाल में जरूर मोटवानी के नाम पर किसी मार्ग या चौराहे का नामकरण अथवा किसी आवासीय योजना को उनके नाम पर करने पर तनिक गंभीर चिंतन हुआ, मगर उस पर आगे कार्यवाही हो नहीं पाई।
असल में किसी भी नेता को मृत्योपरांत लंबे समय तक तभी याद किया जाता है, जबकि उसके परिवारजन अथवा निजी तौर गहरे जुड़े समर्थक प्रयास करते हैं। ऐसा मोटवानी के साथ नहीं हो पाया। एक कहावत है न कि काजी जी की बकरी मरी तो पूरा गांव आया, और काजी जी मरे तो कोई नहीं आया। स्वाभाविक है, आए तो अपना चेहरा किसे दिखाए, जिसे दिखाना होता है, वह तो अब देखने को मौजूद नहीं है। बहरहाल, जबकि मोटवानी को लगभग भुला दिया गया है, उनकी मृत्यु के अनेक साल बाद कुछ सामान्य कार्यकर्ताओं का जज्बा वाकई सराहनीय है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000