मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

किसे मिलेगा अजमेर उत्तर का कांग्रेस टिकट?

लंबी कशमकश के बाद जैसे ही नरेन शहाणी भगत को नगर सुधार न्यास का सदर बनाया गया है, एक नई बहस शुरू हो गई है। कुछ लोगों का मानना है कि आगामी चुनाव में भगत को ही अजमेर उत्तर की टिकट मिलेगी तो कुछ का कहना है कि अब गैर सिंधी का दावा मजबूत हो जाएगा।
असल में नगर सुधार न्यास का अध्यक्ष बनने के लिए अनेक दावेदार कोशिश कर रहे थे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के करीबी पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का नाम टॉप पर था, मगर बीस सूत्रीय कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति में उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद उनकी संभावना कम हो गई थी। हालांकि इसके बाद भी आखिरी समय तक उनका नाम चलता रहा। इसी प्रकार महेंद्र सिंह रलावता, डॉ. लाल थदानी, दीपक हासानी, ललित भाटी, डॉ. राजकुमार जयपाल आदि ने भी कम कोशिश नहीं की। रलावता को चूंकि शहर कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया, इस कारण उनका नाम कटा हुआ माना जा रहा था। दीपक हासानी का नाम इस कारण कटा, चूंकि वे गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत करीबी हैं और वैभव नाम जमीन घोटाले में घसीटा गया, इस कारण गहलोत हासानी को अध्यक्ष बना कर नई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहते थे। इसी प्रकार डॉ. राजकुमार जयपाल के नाम पर संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट राजी नहीं थे। पूर्व उप मंत्री ललित भाटी को नरेगा की राष्ट्रीय सलाहकार समिति में लेने के कारण वे भी शांत हो गए। कुल मिला कर बात यहां पर आ कर अटक गई कि सिंधी को अध्यक्ष बनाया जाए या वैश्य को। वैश्य समाज का कहना था कि यदि अध्यक्ष सिंधी को बनाते हैं तो टिकट हमें दिया जाए और वैश्य को अध्यक्ष बनाया जाता है तो हम टिकट की दावेदारी छोडऩे को राजी हैं। इसी जद्दोजहद के बीच किशनगढ़ के जाने-माने नेता रहे स्वर्गीय श्री किस्तूर चंद चौधरी के पुत्र पूर्व विधायक डॉ. के. सी.चौधरी का नाम उभरा, मगर अजमेर के वैश्य नेताओं ने उनका विरोध कर किसी स्थानीय वैश्य को बनाने का दबाव बना दिया। ऐसे में वैश्य महासभा के नेता कालीचरण खंडेलवाल का भी उभरा और उनका नाम ही फाइनल माना जा रहा था, मगर ऊपर उनकी शिकायत ये हुई कि वे संघ से जुड़े रहे हैं। ऐसे में भगत की किस्मत चेत गई।
भगत के अध्यक्ष बनने के साथ यह चर्चा आम हो गई है कि विधानसभा चुनाव में गैर सिंधी के रूप में डॉ. बाहेती को अजमेर उत्तर का टिकट देने के कारण सिंधियों में उपजी नाराजगी को दूर करने की कोशिश की गई है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि अब वैश्य समाज को खुश करने के लिए क्या कांग्रेस अजमेर उत्तर का टिकट किसी वैश्य को देगी। कम से कम वैश्य समाज का तो यही दावा है। दूसरी ओर सिंधी समुदाय का मानना है कि भले ही भगत को पार्टी की सेवा का इनाम मिला हो, मगर इससे सिंधियों का दावा कमजोर नहीं हुआ है। कांग्रेस फिर से किसी वैश्य को टिकट दे कर हारने की रिस्क नहीं लेगी। उनका मानना है कि अब भगत दो साल में अपना ग्राउंड तैयार कर लेंगे और वे पहले से ज्यादा सशक्त दावेदार हो जाएंगे। सिंधी समुदाय में भी कुछ दावेदार ऐसे हैं जो यह कह कर आगे आने की कोशिश कर रहे हैं कि भगत को तो इनाम मिल गया, मगर अब उनको चांस दिया जाना चाहिए।
अपने कप्तान चपेट में आने पर चेती पुलिस

अजमेर की पुलिस अपने कप्तान राजेश मीणा के एक प्राइवेट बस की चपेट में आ कर चोटिल होने पर चेती है। अब उसने रात 11 बजे तक शहर में भारी वाहनों के प्रवेश पर रोक को सख्ती से अमल में लाना शुरू कर दिया है। ज्ञातव्य है कि गत दिनों मीणा रात साढ़े आठ बजे जब अपने निवास की ओर कार से जा रहे थे, तो सामने से आ रही एक प्राइवेट बस ने उन्हें टक्कर मार दी, जिससे कार बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गई और उन्हें इलाज के लिए जयपुर रेफर करना पड़ा।
उल्लेखनीय है कि रात दस बजे तक भारी वाहनों के प्रवेश पर रोक पहले से लगी हुई है, मगर पुलिस वाले ही अपनी जेबें गरम करने के लिए ढ़ीलाई बरत रहे थे। चूंकि भारी वाहन सुविधा शुल्क दे कर सुविधा हासिल कर रहे थे, इस कारण उनके तो शिकायत करने की कोई भी संभावना थी नहीं और आम लोगों को कोई मतलब नहीं था, इस कारण पुलिस वाले मौज कर रहे थे। नतीजतन प्रमुख मार्गों पर हर वक्त दुर्घटना की आशंका बनी रहती थी और यातायात प्रभावित होता था। मगर अब जब कि खुद पुलिस के ही कप्तान एक भारी वाहन की चपेट में आ गए तो पुलिस की पोल खुल गई। उसने कागजों पर बने नियमों पर अमल करना शुरू कर दिया है। यानि कि उसे आम जनता से कोई मतलब नहीं है। जब खुद के एसपी चपेट में आए तब जा कर ड्यूटी का होश आया है। पहले रात दस बजे तक रोक थी, जिसे बढ़ा कर ग्यारह कर दिया गया है। पुलिस अब इतनी सख्त हो गई है कि वह ग्यारह बजे बाद भी भारी वाहनों को रोक रही है। ऐसे में व्यापारियों को परेशानी हो रही है। उन्हें शहर के बाहर ही भारी वाहन खाली करवा कर छोटे वाहनों में सामान लाना पड़ रहा है।

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

नए न्यास अध्यक्ष भगत के सामने हैं कई चुनौतियां

तकरीबन दस साल तक लंबी राजनीतिक कवायद के बाद और अनेक दुश्मनों से संघर्ष करने के बाद हालांकि कांग्रेस नेता नरेन शहाणी भगत को न्यास अध्यक्ष का पद मिलने की अपार खुशी है, मगर सच्चाई ये है कि अब उनका रास्ता और भी कठिन हो गया है। चाहे राजनीतिक रूप से, चाहे न्यास अध्यक्ष के रूप में कामकाज की दृष्टि से, उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना है।
सब जानते हैं कि यह पद भाजपा शासनकाल में धर्मेश जैन के इस्तीफे के बाद से खाली पड़ा था। जिला कलेक्टर ही पदेन रूप से इस पद का कार्यभार संभाले हुए थे। किसी भी जिला कलेक्टर ने इस दौरान रूटीन के कामों से हट कर विकास के नए आयाम छूने में रुचि भी नहीं दिखाई। असल में न्यास के पदेन अध्यक्ष जिला कलैक्टर को तो न्यास की ओर झांकने की ही फुरसत नहीं है। वे वीआईपी विजिट, जरूरी बैठकों आदि में व्यस्त रहते हैं। कभी उर्स मेले में तो कभी पुष्कर मेले की व्यवस्था में खो जाते हैं। न्यास से जुड़ी अनेक योजनाएं जस की तस पड़ी हैं।
विकास को तरस रहा है अजमेर

नए न्यास अध्यक्ष भगत के लिए निजी तौर पर भले ही नया पद हासिल करने की बेहद खुशी हो, मगर इसी के साथ उन पर महती जिम्मेदारी भी आ गई है। भगत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती ये है कि एक तो उनके पास कांग्रेस शासनकाल की दृष्टि से मात्र दो साल ही बचे हैं। उसमें भी यदि आगामी चुनाव से पहले की कवायद और आचार संहिता को दृष्टिगत रखा जाए तो केवल डेढ़ साल ही धरातल पर काम करने का मौका मिलेगा। चूंकि लंबे समय से विकास ठप्प पड़ा है और लोगों के ढ़ेरों काम बाकी हैं, इस कारण जनता की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं। विकास तो दूर रोजमर्रा के कामों की हालत भी ये है कि जरूरतमंद लोग चक्कर लगा रहे हैं और किसी को कोई चिंता नहीं। नियमन और नक्शों के सैंकड़ों काम अटके पड़े हैं। पिछले सात साल से लोग न्यास के चक्कर लगा रहे हैं, मगर नियमन के मामले नहीं निपटाए जा रहे। इसका परिणाम ये है कि अपना मकान बनाने का सपना मात्र पूरा होता नहीं दिखाई देता। स्पष्ट है कि विकास अवरुद्ध हुआ है। पत्रकार कॉलोनी के लिए अरसे लंबित आवेदन उसका ज्वलंत उदाहरण हैं। वर्षों से लम्बित मुआवजा भुगतान, भूमि के बदले भूमि, रूपांतरण, नियमन आदि के हजारों मामल निपटाने के साथ विकास कार्य करवाना और वह भी कम समय में, निश्चित ही चुनौतीपूर्ण है।
भगत के लिए एक बड़ी चुनौती होगी, विकास के लिए पैसा जुटाने की। न्यास की संपत्तियों की ठीक रखरखाव के साथ भू-माफियाओं के चंगुल से न्यास की भूमि को मुक्त करवाना बेहद कठिन काम है। उसके लिए उन्हें दृढ़ इच्छा शक्ति दिखानी होगी, क्योंकि जैसे ही कोई काम शुरू किया जाता है तो अनके राजनीतिक-गैरराजनीतिक दबाव झेलने होते हैं। अब देखना ये है कि वे जनता की अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरते हैं। जहां तक लोगों की प्रतिक्रिया का सवाल है जैसे ही भगत के नाम की घोषणा हुई, यह एक आम प्रतिक्रिया थी कि देर से ही सही मगर एक साफ-सुथरे व्यक्ति को शहर के विकास का जिम्मा सौंपा गया है। ऐसे में उम्मीद तो यही की जानी चाहिए कि उनकी नियुक्ति शहर के विकास का नया द्वार खोलेगी।
टांग खिंचाई का क्या करेंगे भगत?

भगत के लिए दूसरी बड़ी मुश्किल है, अपने ही साथी कांग्रेसी नेताओं से तालमेल बैठाने की। जाहिर तौर पर जब इस पद के दावेदार सभी प्रमुख नेता थे और उन्हें यह पद नहीं मिला तो वे कितने खिंचे-खिंचे से होंगे। पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को कितनी तकलीफ हुई, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे भगत के शपथ ग्रहण समारोह तक में नहीं थे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से नजदीकी के कारण अजमेर के मिनी सीएम के रूप में जाने जाते हैं। वे भी प्रमुख दावेदार माने जा रहे थे, मगर धुर विरोधी भगत को कुर्सी मिल गई तो तकलीफ होनी ही थी। उन्होंने खूब शिकायत की कि भगत ने उन्हें हरवाने में अहम भूमिका निभाई, मगर गहलोत ने फिर भी भगत को ही इनाम दिया। ऐसे में बाहेती से भगत सहयोग की उम्मीद तो दूर, उलटा फिश प्लेंटे गायब करवाने की आशंका ही ज्यादा नजर आती है। न्यास पहले ही घोटालों का अड्डा बना हुआ है। लोग फर्जी सीडी की वजह से निपेट धर्मेश जैन को अभी भूले नहीं हैं। एक तो बेदाग बने रहने की जरूरत है, दूसरा गिनाने लायक काम करने हैं। एक अखबार ने तो उनके सामने पूर्व अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत की लकीर खींच रखी है। हालांकि अन्य सभी नेता शपथ ग्रहण समारोह में आए, मगर सच्चाई ये है कि उन्हें भी तकलीफ तो है ही। इन सभी से तालमेल बैठा कर चलना आसान काम नहीं है। कुल मिला कर चुनौती बड़ी है। उससे भी बड़ी बात ये है कि उनका असल राजनीतिक कैरियर ही अब शुरू हुआ है। वे विधायक बनने का सपना पाले हुए हैं। अगर ठीक से काम किया तो ही टिकट की उम्मीद कर सकते हैं। जीतने का ग्राउंड भी तैयार कर सकते हैं। परफोरमेंस ठीक नहीं रहा तो राजनीतिक कैरियर पर फुल स्टॉप की खतरा है। इस बात को उन्हें भी अहसास है, इस कारण सावधान तो हैं, मगर देखते हैं कामयाब कितना हो पाते हैं।
बड़ी मुश्किल से हासिल किया है ये पद

सब जानते हैं कि नगर सुधार न्यास का अध्यक्ष बनने की लाइन में कांग्रेस के कई नेता थे। सबसे पहले स्थान पर नाम था मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के करीबी पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का, मगर बीस सूत्रीय कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति में उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद उनकी संभावना कुछ क्षीण हो गई थी। हालांकि इसके बाद भी आखिरी समय तक उनका नाम चलता रहा। इसी प्रकार महेंद्र सिंह रलावता, डॉ. लाल थदानी, दीपक हासानी, ललित भाटी, डॉ. राजकुमार जयपाल आदि भी लाइन में थे। रलावता को चूंकि शहर कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया, इस कारण उनका नाम कटा हुआ माना जा रहा था। दीपक हासानी का नाम अलग वजह से कटा। चूंकि वे गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत करीबी हैं और उनका नाम जमीन घोटाले में घसीटा गया, इस कारण साफ हो गया कि गहलोत अब कोई रिस्क नहीं लेंगे। रहा सवाल डॉ. राजकुमार जयपाल का तो जाहिर तौर पर उनके लिए संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट राजी नहीं थे, क्योंकि शहर कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर डॉ. जयपाल गुट ने काफी परेशान किया था। रलावता की ताजपोशी के बाद उनका नाम भी यूआईटी के दावेदारों की सूची से कट गया था। ललित भाटी को राष्ट्रीय स्तर पर नरेगा संबंधी कमेटी लेने के बाद उनका नाम भी सूची से कट गया। आखिरी दौर में हालांकि पूर्व विधायक डॉ. के. सी.चौधरी का नाम उभरा, मगर स्थानीय वैश्य नेताओं ने उनका विरोध कर किसी स्थानीय वैश्य को बनाने का दबाव बना दिया। ऐसे में वैश्य महासभा के नेता कालीचरण खंडेलवाल का भी उभरा और उनका नाम ही फाइनल माना जा रहा था, मगर उनकी भी कारसेवा हो गई। आखिरकार भगत का नंबर आ गया। समझा जाता है कि विधानसभा चुनाव में गैर सिंधी के रूप में डॉ. बाहेती को अजमेर उत्तर का टिकट देने के कारण सिंधियों में उपजी नाराजगी को दूर करने को भी कांग्रेस हाईकमान ने ध्यान में रखा है।
कौन हैं नरेन शहाणी भगत?

मूल रूप से होटल व ब्रेड व्यवसायी श्नरेन शहाणी भगत यूं तो अरसे से समाजसेवक के रूप में जाने जाते हैं। श्री भगत का जन्म 5 अप्रैल 1961 को प्रसिद्ध समाजसेवी श्री नत्थूलाल शहाणी के घर हुआ। स्नातक तक शिक्षा अर्जित करने के दौरान ही उन्होंने अपने पैतृक व्यवसाय की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया। लक्ष्मी बैकर्स प्राइवेट लिमिटेड व लक्ष्मी होटल के प्रोपराइटर शहाणी अपने पिता की ही तरह सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़ कर रुचि लेने लगे। वे वर्तमान में संत कंवरराम मंडल और संत कंवरराम एज्यूकेशनल सोसायटी के अध्यक्ष हैं, जिसके तहत सीनियर सेकंडरी स्कूल व धर्मशाला का संचालन किया जाता है। इसके अतिरिक्त अजमेर सिंधी सेंट्रल पंचायत के अध्यक्ष, प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य, कांग्रेस के जिला लघु उद्योग प्रकोष्ठ के अध्यक्ष, सिंधी काउंसिल ऑफ इंडिया के उपाध्यक्ष, पूज्य पारब्रह्म मंदिर के ट्रस्टी, संत कंवरराम हाउसिंग सोसायटी के सलाहकार, अजमेर बेकरी एसोसिएशन के अध्यक्ष, आदर्श विद्या समिति व प्रेम प्रकाश मंडल के कार्यकारिणी सदस्य और क्लॉक टावर व्यापार संघ के अध्यक्ष हैं। साथ ही श्रीनगर रोड रहवासी संघ के सलाहकार, लायंस क्लब मेन के ट्रस्टी व अजमेर जिला लघु उद्योग संघ के निदेशक हैं। सन् 2003 के चुनाव में उन्हें कांग्रेस अजमेर पश्चिम से अपना प्रत्याशी बनाया, लेकिन दुर्भाग्य से तत्कालीन विधायक श्री नानकराम जगतराय के बागी प्रत्याशी के रूप में मैदान में होने के कारण वे पराजित हो गए। उसके बाद भी वे लगातार सक्रिय बने रहे हैं।

रविवार, 11 दिसंबर 2011

आर्य कर रहे हैं पुष्कर से लडऩे की तैयारी


चौपाल पर चर्चा है कि भाजपा नेता और अजमेर नगर निगम के पूर्व उप महापौर सोमरत्न आर्य आगामी विधानसभा चुनाव में पुष्कर से भाग्य आजमाने की तैयारी कर रहे हैं। असल में वे जानते हैं कि अजमेर शहर में उनके लिए राजनीतिक कैरियर की कोई संभावना नहीं है। संगठन में कई साल से हैं और उसमें कुछ खास मजा नहीं है। वैसे भी संगठन में अध्यक्ष बनने की उनकी कोशिशें बेकार चली गईं और पूर्व सांसद रासासिंह रावत को मौका मिल गया। रहा सवाल चुनावी राजनीति से जुडऩे का तो अजमेर दक्षिण की सीट रिजर्व है और अजमेर उत्तर की सीट अघोषित रूप से सिंधियों के लिए आरक्षित। रहा सवाल नगर निगम का तो वहां चुनाव इस कारण नहीं लड़ा कि उसमें हद से हद पार्षद बन जाते अथवा चांस मिलता तो फिर से उप महापौर बन पाते। महापौर का पद तो रिजर्व था। अगले चुनाव में किसी के लिए रिजर्व होगा या फिर सामान्य, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे में आर्य ने सोचा कि इससे तो बेहतर है कि कहीं और भाग्य आजमाया जाए। सुना है कि उन्होंने पुष्कर के चक्कर लगाने शुरू कर दिए हैं। उन्हें अनुमान हो चला है कि पिछली बार भाजपा प्रत्याशी रहे भंवर सिंह पलाड़ा रावतों की भाजपा से बगावत के कारण हारने के बाद वहां रुचि नहीं लेंगे। चर्चा है कि वे अब केकड़ी में ध्यान दे रहे हैं। ऐसे में फिलहाल पुष्कर में कोई दमदार दावेदार है नहीं, यानि कि फिलहाल मैदान साफा है, सो आर्य को यहीं जमीन तलाशना ठीक लग रहा है। इसी सिलसिले में आए दिन किसी न किसी बहाने पुष्कर का चक्कर काट आते हैं। देखते हैं कि चुनाव नजदीक आने पर उन्हें किस अन्य दावेदार से मुकाबला करना होगा।

सिनोदिया हत्याकांड : अब जगी उम्मीद

किशनगढ़ के कांगे्रस विधायक नाथूराम सिनोदिया के पुत्र भंवर सिनोदिया की हत्या के मामले की जांच और कोर्ट की प्रक्रिया में आई तेजी से अब जा कर उम्मीद जगी है कि हत्याकांड के आरोपियों को सजा मिल जाएगी। इससे पूर्व तो हालत ये थी चर्चाओं में इस कांड को लगभग दफन सा माना जा रहा था।
दरअसल सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक के बेटे की हत्या अर्थात हाई प्रोफाइल केस होने के बावजूद मीडिया ने कुछ दिन की सक्रियता के बाद चुप्पी सी साध ली थी। सीधी सी बात है कि मीडिया को इसमें कुछ चटपटा मसाला मिलने की उम्मीद नहीं थी, इस कारण इस पर ज्यादा गौर नहीं किया। और यही वजह रही कि जांच एजेंसियों पर कोई दबाव नहीं रहा और वे भी सुस्त ही बैठी रहीं। यदि सक्रिय थीं भी तो दैनिक प्रगति से मीडिया को दूर रख रही थी। इसके विपरीत चूंकि पूर्व जल संसाधन मंत्री महिपाल मदेरणा के मामले में सीधे सरकार तक आंच आ रही थी और मामला महिला से जुड़ा होने के कारण चटपटा था, इस कारण मीडिया खुद ही रोज उसे गर्माए हुए है। स्वाभाविक सी बात है कि किसी की टोपी उछालनी हो तो मीडिया क्रीज से एक कदम आगे बढ़ कर खेलता है। जाहिर तौर पर ऐसे में जांच एजेंसियों पर भारी दबाव बन गया और वे भी मामले की तह तक जाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं।
बहरहाल, सिनोदिया हत्याकांड के मामले में पुलिस की ढिलाई और मीडिया की बेरुखी से जवान बेटे की हत्या के कारण सदमे में रहे कांग्रेस विधायक नाथूराम सिनोदिया अफसोस तो हुआ ही होगा। जाहिर तौर पर उन्होंने सरकार पर भी दबाव बनाया होगा। कदाचित उसी वजह से अब जांच में तेजी आई है और कोर्ट भी दैनिक प्रगति पर काम कर रहा है। मीडिया भी अब प्रतिदिन की प्रगति रिपोर्ट प्रकाशित कर रहा है। ऐसे में अब उम्मीद की जा सकती है कि मामले का पूरा पर्दाफाश होगा और दोषियों को सजा मिलेगी।

देवनानी व भदेल के टकराव से उबरने में जुटी भाजपा



फिर से रिंग मास्टर की भूमिका में आने लगे हैं लखावत
अजमेर। शहर के दोनों भाजपा विधायकों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल के बीच आए दिन होते टकराव से भट्टे बैठी शहर भाजपा को दोनों से उबारने की कोशिशें लगातार जारी हैं। पहले दोनों की पसंद के दावेदारों को दरकिनार कर बीच का रास्ता अख्तियार कर प्रो. रासासिंह रावत को अध्यक्ष बनाया दिया गया। इसके बाद शहर भाजपा युवा मोर्चा के मामले में भी दोनों विधायकों की सिफारिश को एक तरफ रख कर देवेन्द्र सिंह शेखावत को अध्यक्ष बना दिया गया और अब शहर भाजपा महिला मोर्चा अध्यक्ष पद भी उनकी राय को ठेंगा दिखा कर जयंती तिवारी को दिया गया है।
असल में भाजपा का आम कार्यकर्ता इन दोनों विधायकों की आपसी रंजिश से बेहद त्रस्त रहा है। दोनों के टकराव के चलते पार्टी अपने लगभग जीते हुए प्रत्याशी डॉ. प्रियशील हाड़ा को मेयर नहीं बनवा सकी। हालांकि अपने-अपने पार्षद प्रत्याशियों के लिए काम करने से बोर्ड में भाजपा का बहुमत तो बन गया, मगर मेयर का चुनाव भाजपा हार गई। दोनों के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई के चलते लोकसभा चुनाव में भी श्रीमती किरण माहेश्वरी को हार का मुंह देखना पड़ा था। तब पार्टी साफ तौर पर देवनानी बनाम एंटी देवनानी गुट में बंटी हुई थी। इसका परिणाम ये हुआ कि संगठन पूरी तरह से सक्रिय नहीं हुआ और जहां दस हजार वोटों की बढ़त की उम्मीद थी, वह मात्र 2 हजार 948 पर सिमट गई। दक्षिण में तो हालत बेहद खराब हुई। वहां विधानसभा चुनाव में हासिल की गई 19 हजार 306 मतों की बढ़त तो सिमटी ही, उलटा 2 हजार 157 मतों से मात खानी पड़ी। कुल मिला कर पार्टी हाईकमान को यह समझ में आ गया है कि इन दोनों की खींचतान के कारण नुकसान हो रहा है। ऐसे में जब शहर अध्यक्ष का नाम तय करने का मौका आया तो काफी जद्दोजहद के बाद गुटबाजी का समाप्त करने के लिए रावत को फाइनल कर दिया गया। हालांकि अब भी पार्टी देवनानी व भदेल के गुटों में बंटी हुई है और इन दोनों से पूरी तरह से उबर नहीं पाई है, लेकिन धीरे-धीरे इन दोनों के वर्चस्व से संगठन को मुक्त करने की कोशिशें जारी हैं। उसी सिलसिले में शहर भाजपा युवा मोर्चा के मामले में देवनानी गुट के नितेष आत्रे व भदेल गुट के गौरव टांक को हाशिये पर रख कर देवेन्द्र सिंह शेखावत को अध्यक्ष बना दिया गया। अजमेर भाजपा के भीष्म पितामह औंकार सिंह लखावत के दखल से हुई नियुक्ति पर देवनानी गुट ने जितना उबाल खाया, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। शेखावत का विरोध करने के लिए पार्टी अनुशासन को तार-तार कर दिया गया। आज भी मोर्चा दो गुटों में ही बंटा हुआ है। इस तरह की गुटबाजी से खता खायी भाजपा ने एक बार फिर महिला मोर्चा के मामले में तीसरे विकल्प का रास्ता अख्तियार कर लिया। देवनानी गुट की पार्षद भारती श्रीवास्तव और भदेल गुट की हेमलता शर्मा को दरकिनार कर जयंती तिवारी के नाम पर ठप्पा लगा दिया गया है। हालांकि प्रत्क्षत: गुट देवनानी व भदेल के ही कहलाते हैं, मगर वस्तुस्थिति ये है कि अब एक तरफ देवनानी हैं तो दूसरी ओर भदेल व अन्य सभी। अर्थात भाजपा का एक बड़ा धड़ा देवनानी के खिलाफ है, मगर इसके बावजूद पार्टी के कुछ समझदार नेता भदेल को भी ज्यादा भाव नहीं देना चाहते, इस कारण जहां देवनानी की राय को दरकिनार करते हैं, वहीं भदेल को भी सब्र रखने की सीख देते हैं। इसकी वजह ये है कि देवनानी किसी भी सूरत में भदेल की ओर से सुझाये गए नाम पर सहमति देने को राजी नहीं होते। वे ज्यादा हंगामा न कर सकें, इस कारण दोनों की ओर से सुझाए गए नामों की बजाय तीसरा विकल्प तलाशा जाता है। ताजा प्रकरणों से यह भी पूरी तरह से साफ होने लगा है कि जो लखावत प्रदेश के बड़े नेता होने के बाद भी एक समय में शहर में टांग नहीं अड़ा पा रहे थे, अब वे सीधा दखल करने लगे हैं। यानि कि वे फिर से रिंग मास्टर की भूमिका में आने लगे हैं।

शनिवार, 26 नवंबर 2011

आखिर नसीब जाग गया नसीम का


पुष्कर की कांग्रेस विधायक श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ का नसीब आखिर जाग गया। असल में उन्होंने कोशिश तो सरकार का गठन होने के वक्त भी की थी, मगर उस वक्त उनका नंबर नहीं आया। अब जब कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को मंत्रीमंडल का विस्तार करना पड़ गया, इस कारण मुस्लिम, महिला और अजमेर कोटे में उनका नंबर आ गया।
श्रीमती इंसाफ वाकई किस्मत की धनी हैं। सब जानते हैं कि विधानसभा चुनाव के टिकट बंटते वक्त उनका दूर-दूर तक नाम नहीं था। उनका दावा भी कुछ खास मजबूत नहीं था। जैसे ही पुष्कर से भाजपा ने भंवर सिंह पलाड़ा को टिकट दिया तो यही माना गया था कि कांग्रेस के लिए यह सीट जीतना कठिन हो जाएगा। जैसे ही पलाड़ा का नाम आया, पुष्कर के तत्कालीन विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती घबरा गए और अपने आका अशोक गहलोत से कह कर सीट बदलवाई व अजमेर पश्चिम में आ गए। बाहेती के मैदान छोडऩे के बाद तो कांग्रेस के सामने संकट खड़ा हो गया। कांग्रेस ने मसूदा के पूर्व विधायक हाजी कयूम खान से पुष्कर से चुनाव लडऩे का आग्रह किया, मगर उनकी भी हिम्मत नहीं हुई। उन्हें मसूदा से टिकट नहीं मिल रहा था, इसके बावजूद उन्होंने पुष्कर से चुनाव लडऩे से साफ इंकार कर दिया। कांग्रेस के पास कोई चारा नहीं रहा। आखिरकार यूं ही टिकट की लाइन में लगी नसीम अख्तर को बुलवा कर उन्हें टिकट थमा दिया गया। नसीम अख्तर ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें टिकट मिल पाएगा, सो तुरंत टिकट लेने को राजी हो गई। उन्हें काफी कमजोर माना जा रहा था, मगर पलाड़ा के सामने समस्या ये आ गई कि भाजपा के बागी श्रवण सिंह रावत भी मैदान में आ डटे। उन्होंने परंपरागत रूप से भाजपा के साथ रहने वाले रावतों के 27 हजार 612 वोट झटक लिए। नतीजतन नसीम अख्तर ने पलाड़ा को 6 हजार 534 मतों से हरा दिया। यानि कि टिकट मिलने और जीतने, दोनों ही मामलों में नसीब ने नसीम का साथ दिया।
हालांकि मंत्रीमंडल के गठन के वक्त उनका नंबर पहली बार जीत कर आने और निर्दलियों व अन्य को मौका दिए जाने के कारण नहीं मिल पाया। अब जब कि पुनर्गठन हुआ है तो मुस्लिम महिला होने के साथ-साथ अन्य पहलु भी उनके पक्ष में बन गए। सर्वविदित है कि अजमेर जिले से एक भी विधायक को मंत्री बनने का मौका नहीं मिल पाया था। सर्वाधिक दमदार दावेदार केकड़ी विधायक रघु शर्मा के पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सी. पी. जोशी खेमे का होने के कारण नंबर नहीं आ पाया था। अजमेर जिले को मसूदा के बागी कांग्रेसी ब्रह्मदेव कुमावत के जीत कर आने और सरकार बनाने में मदद करने के कारण संसदीय सचिव बनाए जाने पर ही संतोष करना पड़ा था। ऐसे में अजमेर से कम से कम एक मंत्री की जरूरत महसूस की जा रही थी। और यह जरूरत श्रीमती अख्तर से पूरी कर ली गई। श्रीमती इंसाफ के पक्ष में एक बात और गई कि वे अजमेर में रहती हैं, पुष्कर दूर भी नहीं है। साथ ही अजमेर शहर की दोनों सीटों पर भाजपा का कब्जा है, इस कारण उन्हें एक साथ तीन विधानसभा क्षेत्रों की नेतागिरी करने का मौका हुआ है। उन्होंने मौके का फायदा भी उठाया और पुष्कर से कहीं ज्यादा जिला मुख्यालय अजमेर में सक्रिय बनी हुई हैं। उनकी सक्रियता दिखाई भी देती है। केन्द्र व राज्य सरकार का कोई भी वीआईपी आए, उसकी अगवानी वे ही करती है। प्रशासन भी उन्हें ववज्जो देता है। उन्हें राज्य मंत्री बनाए जाते वक्त एक पहलु ये भी देखा गया है कि उनकी अजमेर के मुस्लिमों के अतिरिक्त अन्य पर भी पकड़ है।
सोने पे सुहागा ये है कि उन्हें शिक्षा विभाग सौंपा गया है, जिस पर पहले से उनके पति शिक्षक नेता हाजी इंसाफ अली की जबरदस्त पकड़ है। पत्नी के केवल विधायक होने पर भी उनका शिक्षा विभाग में खासा दखल रहा है। अब राज्य मंत्री बनने पर उनकी चवन्नी रुपए में चलनी ही है। वे वैसे भी काफी चतुर व सक्रिय हैं। उनके स्थापित होने से एक ओर जहां आगामी चुनाव में भी टिकट पक्की मानी जा रही है, वहीं अन्य दावेदार मुस्लिम नेताओं के चेहरों पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं। संकट सिर्फ एक है। वो ये कि शिक्षा विभाग तबादलों के कारण बहुधा विवादों में रहता है। उसमें साफ-सुथरा बना रहना काफी मुश्किल है।
बहरहाल, यह तथ्य एक बार फिर स्थापित हो गया है कि राजनीति वाकई सितारों का ही खेल है। भाग्य में न हो तो वर्षों तक जूतियां घिसने वाले भी विधायक और मंत्री नहीं बन पाते और सितारे बुलंद हों तो व्यक्ति फर्श से अर्श तक पहुंच जाता है। अजमेर के दोनों विधायक श्रीमती अनिता भदेल व प्रो. वासुदेव देवनानी भी इसकी मिसाल हैं।

रविवार, 13 नवंबर 2011

भाजपा की सरकार आई तो मुख्यमंत्री वसुंधरा ही होंगी


पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने अजमेर में अपनी आमसभा में पूरी तरह से साफ कर दिया कि आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्ता में आई तो पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ही मुख्यमंत्री होंगी।
असल में ऐसा उन्होंने ऐसा जानबूझ कर किया या संयोगवश हो गया, इसका पता नहीं, मगर उन्होंने साफ संकेत दे दिया कि राजस्थान की जनता उन्हें ही मुख्यमंत्री के रूप में देखती है, इस कारण भाजपा भी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करेगी। हुआ यूं कि वे अपने संबोधन के दौरान श्रीमती राजे को मुख्यमंत्री कह बैठे। तुरंत उन्हें लगा कि वे गलत बोल गए हैं, और उनकी जुबान फिसल गई है, उन्होंने बात को संभाला। पहले तो अपने संबोधन को दुरुस्त किया और फिर तुरंत बोले के आप भले ही मुख्यमंत्री नहीं हैं, मगर राजस्थान की जनता आज भी आपको मुख्यमंत्री के रूप में ही देखती हैं। इसका साफ-साफ अर्थ निकाला गया कि कम से कम आडवाणी की ओर से उनके नाम पर मुहर लगी ही हुई है। हालांकि वहां बैठे प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी अथवा वसुंधरा विरोधियों के सीने पर सांप लौट गए होंगे, मगर वे कर भी क्या सकते थे।
कुल मिला कर इस सभा से यह साफ हो गया कि भाजपा एक ओर जहां आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने जा रही है, वहीं आगामी विधानसभा चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। सभा के बाद वसुंधरा लॉबी के विधानसभा चुनाव के दावेदारों में इसकी खुशी साफ देखी जा सकती थी। वे बढ़-चढ़ कर उनके इर्द-गिर्द मंडराते हुए नजर आए।

आडवाणी की सभा तो सफल हो गई, मगर इम्पैक्ट जीरो


पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की अजमेर में हुई आमसभा कहने को तो कामयाब हो गई क्योंकि एडी से चोटी का जोर लगाने के कारण ठीक-ठाक भीड़ तो जमा कर ली गई, मगर उसके असर को लेकर संशय ही है। मीडिया में मिले कवरेज के जरिए अलबत्ता कुछ असर पड़ा भी हो, मगर सभा में मौजूद श्रोताओं की राय यही रही कि आडवाणी का भाषण नीरस और उबाऊ रहा। यही वजह रही कि भाषण शुरू होने के दो-तीन मिनट बाद ही लोगों ने उठना शुरू कर दिया। जो लोग पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के भाषण के वक्त बंधे हुए और जोश में थे, वे बिखरने लगे।
असल में आडवाणी की सभा को लेकर स्थानीय भाजपा नेता शुरू से ही चिंतित थे। उन्हें पूर्व के अनुभवों और गुटबाजी के कारण चिंता थी कि भीड़ कैसे जुटाई जाए। इस कारण प्रदेश हाईकमान ने स्थानीय नेताओं पर पूरा दबाव बना रखा था कि वे आपसी मतभेद भुला कर इस सभा को ऐतिहासिक बनाने की कोशिश करें। हालांकि लाख कोशिशों के बाद भी अपेक्षित लक्ष्य दस हजार की तादाद को तो पूरा नहीं किया जा सका, मगर फिर भी सभा में भीड़भाड़ ठीक-ठाक थी। हालांकि देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा जिसे प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने जा रही हो, उसके लिहाज से तो भीड़ काफी कम थी, मगर उसे शर्मनाक भी नहीं कहा जा सकता। कुल मिला कर सभा कामयाब ही कही जाएगी। मगर उसमें भी किंतु ये है कि अधिसंख्य श्रोता गांवों से लाए हुए ही थे। शहर के लोग तो फिर भी ज्यादा तादात में नहीं लाए जा सके। इसके पीछे यहां की गुटबाजी को कारण माना जा रहा है। एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति साफ देखी जा सकती थी।
एक सच ये भी है कि आडवाणी एक बहुत अच्छे वक्ता भी नहीं हैं, जैसे कि अटल बिहारी वाजपेयी। वाजपेयी की सभा के लिए भीड़ जुटाने की जरूरत नहीं होती थी। लोग खुद-ब-खुद चले आते थे, उनके लच्छेदार भाषण को सुनने को। यहां तक कि कांग्रेसी विचारधारा वाले भी उनको सुनना पसंद करते थे। आडवाणी के साथ ऐसा नहीं है, इस कारण भीड़ जुटाने की नौबत आती है। ऐसा नहीं है कि आडवाणी के प्रति उत्साह में पहली बार कमी देखी गई है। इससे पूर्व में भी अजमेर में हुई सभाओं का यही हाल रहा है। अलबत्ता रामरथ यात्रा का माहौल जरूर और था, जिसमें लोगों की धार्मिक भावनाओं को उभारने के कारण वह यात्रा ऐतिहासिक बन पड़ी थी।
बहरहाल, सभा कामयाब होने के बावजूद आडवाणी श्रोताओं के मन में ऐसा कुछ नहीं डाल पाए, जिसे कि याद करते हुए श्रोता अपने घर लौटे हों। उनका भाषण बुद्धिमत्तापूर्ण जरूर था, बहुत ठंडा, नीरस सा। वे ऐसे बोल रहे थे, मानो किसी संगोष्ठी में बोल रहे हैं और चंद बुद्धिजीवी उसे सुन रहे हैं। बातें जरूर दमदार थीं, मगर उनकी अभिव्यक्ति असरकारक नहीं थी। इसके पीछे एक तर्क उनकी उम्र का भी दिया जा रहा है, मगर पूर्व में भी उनके भाषणों में कोई आकर्षण नहीं देखा गया है। कदाचित इसकी वजह यह भी रही हो कि वे अपने कद और जिम्मेदारी के कारण राष्ट्रीय मुद्दों पर ही बोले, जिनमें कि आम तौर पर लोगों की उतनी रुचि नहीं होती, जितनी कि प्रदेश और शहर के मुद्दों के प्रति होती है। वैसे भी भ्रष्टाचार व महंगाई ऐसी मुद्दे हो गए हैं कि जिनके बारे में सुनते-सुनते लोगों के कान पकने लगे हैं।
असल में भीड़ का अपना अलग मिजाज होता है। उसे जोशीले भाषण ही प्रभावित करते हैं। इस मामले में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे पूरी तरह से खरी उतरीं। उनके पूरे भाषण के दौरान सभी श्रोता उनकी ओर आकर्षित थे। श्रोताओं, जिन्हें भाजपा कार्यकर्ता अथवा भाजपा मानसिकता वाले श्रोता कहा जा सकता है, में उत्साह साफ देखा जा सकता था। इससे यह साबित तो हो गया है कि भाजपा कार्यकर्ताओं में उनके प्रति भारी क्रेज है। यानि कि वसुंधरा राजे के लिहाज से यह सभा जरूर कामायाब रही। वे एक बार फिर अजमेर के लोगों के मन में अपनी छाप छोड़ कर जाने में कामयाब हो गईं, जिसका कि लाभ उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव में मिलने की पूरी संभावना है।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

भाजपा सरकार ने क्यों नहीं बनाई पुष्कर में विश्राम स्थली?

अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी ने एक बयान जारी कर सरकार से मांग की है कि दरगाह के विकास हेतु करोड़ों रुपयों की योजना की भांति हिन्दुओं के पवित्र तीर्थ स्थल पुष्कर के भी समुचित विकास हेतु विशेष बजट आवंटित किया जाए। साथ ही पुष्कर मेले के दौरान ठंड के मौसम में आने वाले श्रद्धालुओं, पर्यटकों एवं पशुपालकों के ठहरने हेतु उर्स मेले की भांति यहां भी विश्राम स्थलियों का निर्माण कराया जाए। कुछ इसी किस्म की मांग अजमेर भाजपा के भीष्म पितामह औंकारसिंह लखावत ने भी मेला नजदीक देख पुष्कर में जा कर की थी।
कानाफूसी है कि पुष्कर के लिए भी विशेष बजट की अब कैसे याद आई है? जब भाजपाई खुद सरकार में थे, तब क्या कर रहे थे? जाहिर है जब कांग्रेस सरकार ने आठ सौवें उर्स मेले के लिहाज से तीन करोड़ रुपए की योजना बनाई तो उनको पुष्कर मेले की याद आ गई। और मजे की बात देखिए, उर्स मेले के लिए योजना को बने हुए कोई तीन माह से भी ज्यादा हो गए हैं और वे अब जा कर मांग कर रहे हैं, जब पुष्कर मेला 3 नवंबर से शुरू होने ही जा रहा है। जाहिर है एक-दो दिन में तो उनकी मांग पूरी होगी नहीं, मगर मांग करने में जाता क्या है? कम से कम हिंदुओं के मन ये बात तो आएगी कि उन्होंने उनके हित की बात की थी। सवाल ये है कि उन्हें पुष्कर मेले के दौरान ठंड के मौसम में आने वाले श्रद्धालुओं, पर्यटकों एवं पशुपालकों की चिंता अब हो रही है, ऐसी ठंड तो हर मेले में होती है। उनकी सरकार के दौरान भी पांच मेले गुजरे, मगर तब उन्हें ख्याल नहीं आया।
बहरहाल, देर आयद दुरुस्त आयद। उनकी मांग है तो वाजिब। उर्स मेले की तरह की पुष्कर मेला भी महत्वपूर्ण है। विशेष रूप से जब दोनों महान तीर्थ स्थल पास-पास हैं तो सरकार को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जिससे धार्मिक भेदभाव झलकता हो। उर्स के जायरीन के लिए विश्राम स्थली है तो पुष्कर के तीर्थ यात्रियों के लिए भी विश्राम स्थली होनी ही चाहिए।
यूं सच्चाई ये है कि पुष्कर मेले के लिए भी विशेष पैकेज आते रहे हैं। ठीक इस प्रकार उर्स मेले के लिए भी। चाहे किसी की भी सरकार रही हो। भाजपा शासनकाल में तो पूर्व भाजपा सांसद औंकार सिंह लखावत के प्रयासों से बूढ़ा पुष्कर का कायाकल्प तक किया गया, मगर ये घटिया राजनीति ही है कि अब कांग्रेस सरकार उस ओर ध्यान ही नहीं दे रही। ध्यान क्या, कांग्रेस सरकार ने तो वो महकमा ही बंद कर दिया।
चलते-चलते इसी सिलसिले में एक बात और गौर करने लायक है। भले ही राज्य सरकार ने उर्स मेले के लिए तीन सौ करोड़ की योजना को मंजूर कर दिया है, मगर ये पंक्तियां लिखे जाने तक हालत ये है कि प्रशासन को फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है। इसको लेकर अजमेर फोरम व दरगाह कमेटी के सदस्य इलियास कादरी ने सरकार पर दबाव बना रखा है।
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रविवार, 30 अक्तूबर 2011

न्यास अध्यक्ष पद पर नियुक्ति की उलटी गिनती शुरू

आखिरी दौर में व्यवसायी खंडेलवाल के साथ हो रही है डॉ. बाहेती व डॉ. लाल के नामों पर चर्चा
अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति होने के करीब बताई जा रही है। कहा जा रहा है कि काउंट डाउन शुरू हो गया है और चंद दिन के भीतर नियुक्ति हो जाएगी। जानकारी ये है कि आखिरी चरण में व्यवसायी कालीचरण खंडेलवाल के साथ पूर्व विधायक व पूर्व न्यास अध्यक्ष डॉ. बाहेती व डिप्टी सीएमएचओ डॉ. लाल थदानी के नामों पर भी चर्चा हो रही है। हालांकि इस पद के सबसे सशक्त दावेदार और सर्वाधिक भागदौड़ करने वाले नरेन शहाणी भगत को पूरी उम्मीद है कि उन्हें मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने वादे के मुताबिक निराश नहीं करेंगे।
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि डॉ. बाहेती का नाम उनके अशोक गहलोत के करीब होने के कारण पैनल में है। अगर गहलोत अपने मन की कर पाए तो वे जरूर उन्हें ही अध्यक्ष बनाएंगे, इसी कारण पैनल में उनके नाम को रखा गया है, मगर समझा जाता है कि उनके नाम पर केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट ने अडंगा लगा रखा है। उनसे पायटल की नाइत्तफाकी जगजाहिर है। वे अपनी पसंद का ही न्यास अध्यक्ष चाहते हैं। हालांकि उनकी पहली पसंद पूर्व विधायक डॉ. के. सी. चौधरी ही थे, मगर अजमेर के स्थानीय वणिक वर्ग ने उन्हें बाहरी बता कर यह दबाव बनाया कि स्थानीय को ही मौका दिया जाए। इसमें अव्वल खंडेलवाल रहे। उन्हें वैश्य महासभा का पूर्ण समर्थन हासिल है। चर्चा तो यहां तक है कि वे एक बड़ी राशि पार्टी फंड को देने को तैयार हैं। सच्चाई क्या है ये तो पता नहीं, मगर ये आम चर्चा है कि अब रेट चार से बढ़ कर सात करोड़ तक हो गई है। हालांकि सच्चाई ये भी है कि जैसे ही उनका नाम उभरा था, अनेक अन्य दावेदारों ने उनके खिलाफ पुलिंदे के पुलिंदे ऊपर पहुंचा दिए। बताते हैं कि उनको आरएसएस के करीब बता कर उनको इस पद से नवाजे जाने का विरोध किया गया है। इन शिकायतों को कितना गंभीरता से लिया जाता है, कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ये भाजपा नहीं, कांगे्रस है, जहां पार्टी कैडर का अतिक्रमण भाजपा की तुलना में आसानी से कर दिया जा सकता है। संभव है आगामी विधानसभा चुनाव में वैश्य महासभा को शांत करने के मकसद से उनके नाम पर मोहर लगा दी जाए। उनके नाम पर अशोक गहलोत व सचिन पायलट ने तो सहमति दी ही है, दिग्गज कांग्रेसी नेता मोतीलाल वोरा का भी उन पर वरदहस्त है। और अगर वोरा अड़ गए तो उन्हें अध्यक्ष बनने से कोई नहीं रोक पाएगा।
बहरहाल, जहां तक डॉ. लाल थदानी का सवाल है, यद्यपि वे शुरू से यही कहते रहे हैं और गहलोत से भी कह चुके हैं कि फिलहाल उनकी कोई रुचि नहीं है, क्योंकि वे सरकारी नौकरी में हैं, मगर इसके बावजूद उनका नाम पैनल में डाला गया है, जो कि रहस्यपूर्ण ही है। इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि वे सिंधी समाज के दिग्गज नेता स्वर्गीय किशन मोटवाणी के करीब रहे और उन्हीं की बदौलत राजस्थान सिंधी अकादमी के अध्यक्ष भी बने। वे काफी चतुर व तेज-तर्रार हैं। सामाजिक क्षेत्र में भी उन्होंने लंबे समय तक कार्य किया। मीडिया फ्रेंडली होने के कारण अक्सर अखबारों में छाये रहते हैं। भले ही वे न्यास अध्यक्ष बनने में कोई रुचि न रखते हों, मगर उनके लिए यह सुखद ही है कि उनकी गिनती सिंधी समाज के प्रमुख कांग्रेसी नेताओं में शुमार की जा रही है। वे लाख मना करें, मगर उनकी एक्टिविटी के कारण मीडिया को यकीन ही नहीं होता कि वे इस दौड़ में नहीं हैं। कदाचित वे भी यही चाहते हैं, ताकि बाद में नौकरी के लिए जरूरी सेवाकाल पूरा करके सक्रिय राजनीति में उतर सकें।
बात न्यास अध्यक्ष की हो तो नरेन शहाणी भगत का नाम आना लाजिमी है। जब से उन्हें विधानसभा के टिकट से वंचित किया गया है, बताते हैं कि गहलोत ने उन्हें आश्वस्त कर रखा है कि वे उन्हें जरूर कहीं समायोजित करेंगे। हालांकि उनका पूरा जोर न्यास अध्यक्ष पद के लिए है, मगर कोई अड़चन आई तो उन्हें सिंधी अकादमी का अध्यक्ष बनने के लिए राजी करने की कोशिश की जा सकती है। ये भी हो सकता है कि उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट देने का आश्वासन भी दे दिया जाए। हां, इतना पक्का है कि उन्हें कुछ न कुछ तो जरूर दिया जाएगा, क्योंकि वर्तमान में वे सर्वाधिक सक्रिय सामाजिक नेता हैं।

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

आडवाणी की सभा में भीड़ जुटना मुश्किल


आगामी 9 नवंबर को अजमेर के पटेल मैदान में होने जा रही पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की सभा में भीड़ जुटाना भाजपा की स्थानीय जिला इकाइयों के लिए टेड़ी खीर है। इसके अनेक कारण हैं, जिनको लेकर भाजपा नेताओं में चिंता साफ दिखाई दे रही है। यही वजह है कि प्रदेश हाईकमान ने स्थानीय नेताओं पर पूरा दबाव बना रखा है कि वे आपसी मतभेद भुला कर इस सभा को ऐतिहासिक बनाने की कोशिश करें।
आडवाणी की सभा को कामयाब करना पार्टी के लिए ज्यादा जरूरी इस कारण है क्योंकि वे अंतत्वोगत्वा प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में प्रस्तुत किए जाने हैं। आज भले ही विवाद से बचने के लिए उन्हें दावेदार कहने से बचा जा रहा है, लेकिन जिस प्रकार पूरी पार्टी ऊपर से नीचे तक जुटी हुई है, समझा जा सकता है कि पार्टी की मंशा क्या है।
असल में जिस दिन आडवाणी सभा करेंगे, उसके अगले ही दिन पुष्कर में कार्तिक स्नान है, जिसमें जिलेभर से हजारों लोग भाग लेने वाले हैं। जाहिर तौर पर वे उसकी तैयारी में जुटे हुए होंगे। ऐसे में उन्हें गांवों से लेकर आना बहुत मुश्किल है। एक बड़ी वजह ये भी है कि यदि केवल अजमेर में ही सभा होती तो पूरे जिले से भीड़ लाई जा सकती थी, लेकिन ऐसा है नहीं। जिले में आडवाणी की सभाएं तीन स्थानों पर हैं। दो तो एक ही दिन 9 नवंबर को अजमेर ब्यावर में हैं और एक अगले दिन 10 नवंबर को किशनगढ़ में। तीनों स्थानों पर सभाओं को कामयाब करने का दबाव है। जाहिर तौर पर तीनों स्थानों की सभाओं में तो लोग लाए नहीं जा सकते। तीनों स्थानों के आसपास के इलाकों से ही भीड़ लाई जाएगी।
अजमेर में अजमेर शहर, नसीराबाद पीसांगन से ही भीड़ को लाया जाना है। जहां तक अजमेर शहर का सवाल है, यहां कुल तीन सौ बूथों से प्रत्येक बूथ से पच्चीस श्रोता लाए जाने का लक्ष्य रखा गया है। अर्थात यदि कार्यकर्ता पूरी ताकत भी लगा दें तो शहर से साढ़े सात हजार से ज्यादा लोग नहीं लाए जा सकेंगे। इसी प्रकार आसपास के गांवों से भी लोग लाए जाएंगे। हालांकि पटेल मैदान काफी बड़ा है और उसे भरना कत्तई नामुमकिन है, इस कारण उसके एक भाग में ही सभा करने की योजना है। पार्टी नेताओं की कोशिश है कि वे तकरीबन दस हजार श्रोता तो ले ही आएं और उसी हिसाब से सभा स्थल रखा जाएगा। हालांकि दस हजार का लक्ष्य कोई बहुत बड़ा नहीं है, विशेष रूप से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के कद के हिसाब से, लेकिन पार्टी नेताओं को इस लक्ष्य को हासिल करना कठिन प्रतीत हो रहा है।
जहां तक आडवाणी की अजमेर में हुई अब तक की सभाओं का सवाल है, वे आम तौर पर केसरगंज में ही हुई हैं, जहां पांच हजार श्रोता होने पर ही चौक भरा-भरा दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त आता-जाता नागरिक भी भीड़ में शामिल हो जाता है। इसके विपरीत पटेल मैदान में एक तो दस हजार की भीड़ भी नाकाफी है और दूसरा ये कि वहां आता-जाता नागरिक कम ही रुकने वाला है। रहा सवाल आडवाणी के व्यक्तित्व का तो, वे कोई कुशल वक्ता नहीं माने जाते। उनमें भीड़ पर अटल बिहारी वाजपेयी की तरह सम्मोहन करने की कला नहीं है। वाजपेयी का तो भाषण सुनने के लिए ही लोग जुटते थे। यहां तक कि कांग्रेस के कार्यकर्ता भी चाहते थे कि उनका भाषण सुनें। आडवाणी के साथ ऐसी बात नहीं है। वे बातें तो बड़ी समझदारी की करते हैं, मगर उनमें वह लच्छा नहीं होता, जिसे सुन कर श्रोता बंधा रहे। यही वजह है कि एक बार जब उनकी सभा सुभाष उद्यान में हुई तो एक तो भीड़ तीन हजार को भी पार नहीं कर पाई और दूसरा उनका भाषण पूरा हुआ ही नहीं कि भीड़ उठ कर चल दी। उन्हें मजबूरी में अपना भाषण बंद करना पड़ा। राम मंदिर मुद्दे की बात और थी। तब लोगों की धार्मिक भावनाएं उभार दी गई थीं, जबकि आज ऐसी स्थिति नहीं है। आज का मुद्दा है तो ज्वलंत, मगर उसे पहले अन्ना एंड कंपनी भुना चुकी है। कुल मिला कर आडवाणी की सभा को कामयाब करना स्थानीय भाजपा नेताओं के लिए बहुत मुश्किल काम है।
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मजबूत तो हैं, मगर मजबूर भी कम नहीं संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा


एक ओर जहां अजमेर का यह सौभाग्य है कि मौजूदा संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा अजमेर के ही रहने वाले हैं और वे अजमेर के लिए कुछ करना चाहते हैं, मगर साथ ही दुर्भाग्य ये भी है कि वे कई बार मजबूत होने के बाद भी राजनीतिक कारणों से मजबूर साबित हुए हैं। मौजूदा जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल की भी अजमेर में कुछ कर दिखाने की मानसिकता है। यह एक आदर्श स्थिति है, मगर फिर भी संभागीय आयुक्त कमजोर साबित हो गए हैं। हालत ये है कि अब वे उनसे मिलने जाने वालों के सामने राजनीतिज्ञों व आम जनता का सहयोग न मिलने का रोना रोते दिखाई देते हैं। उन्हें बड़ा अफसोस है कि वे अपने पद का पूरा उपयोग करते हुए अजमेर का विकास करना चाहते हैं, मगर जैसा चाहते हैं, वैसा कर नहीं पाते।
असल में यह शहर वर्षों से अतिक्रमण और यातायात अव्यवस्था से बेहद पीडि़त है। पिछले पच्चीस साल के कालखंड में अकेले पूर्व कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता को ही यह श्रेय जाता है कि उन्होंने मजबूत इरादे के साथ अतिक्रमण हटा कर शहर का कायाकल्प कर दिया था। वे भी जब संभागीय आयुक्त बनीं तो उनके तेवर ढ़ीले पड़ गए। और जो भी कलेक्टर आए वे मात्र नौकरी करके चले गए। उन्होंने कभी शहर की हालत सुधारने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। इसकी एक मात्र वजह ये है कि यहां राजनीतिक दखलंदाजी बहुत अधिक है, इस कारण प्रशासनिक अधिकारी कुछ करने की बजाय शांति से नौकरी करना पसंद करते हैं।
यह सही है कि जैसा वरदहस्त अदिति मेहता को तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत का मिला हुआ था, वैसा मौजूदा संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल पर नजर नहीं आता। बावजूद इसके उन्होंने मिल कर कुछ करना चाहा, मगर राजनीति आड़े गई।
आपको याद होगा कि कुछ अरसे पहले संभागीय आयुक्त शर्मा के विशेष प्रयासों से शहर को आवारा जानवरों से मुक्त करने का अभियान शुरू हुआ, मगर चूंकि राजनीति में असर रखने वालों ने केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट का दबाव डलवा दिया, इस कारण वह अभियान टांय टांय फिस्स हो गया। नगर निगम के मेयर कमल बाकोलिया तेज तर्रार सीईओ सी. आर. मीणा तक को मन मसोस कर रह जाना पड़ा। वे दोनों भी कोई कीर्तिमान स्थापित करने के चक्कर में थे, मगर पार्षदों की आए दिन की सिर फुटव्वल के कारण अब हिम्मत हार कर बैठे हैं।
अतिक्रमण के मामले को ही लें। यह अजमेर शहर का दुर्भाग्य ही है कि जब भी प्रशासन अजमेर शहर की बिगड़ती यातायात व्यवस्था को सुधारने के उपाय शुरू करता है, अतिक्रमण हटाता है, शहर वासियों के दम पर नेतागिरी करने वाले लोग राजनीति शुरू कर देते हैं। शहर के हित में प्रशासन को साथ देना तो दूर, उलटे उसमें रोड़े अटकाना शुरू कर देते हैं। यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए वन-वे करने के निर्णय उसी राजनीति की भेंट चढ़ गया। वे अड़े तो बहुत, मगर जब ऊपर डंडा पड़ा तो व्यापारियों से समझौता कर लिया।
एक प्रकरण देखिए। पिछले दिनों संभागीय आयुक्त शर्मा और जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल के प्रयासों से टे्रफिक मैनेजमेंट कमेटी की अनुशंसा पर यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए जवाहर रंगमंच के बाहर बनी गुमटियों को दस साल ही लीज समाप्त होने के बाद हटाया गया तो शहर के नेता यकायक जाग गए। जहां कुछ कांग्रेसी पार्षदों ने वोटों की राजनीति की खातिर गरीबों का रोजगार छीनने का मुद्दा बनाते हुए जेसीबी मशीन के आगे तांडव नृत्य कर बाधा डालने की कोशिश की, वहीं भाजपा दूसरे दिन जागी और कांग्रेसी पार्षदों पर घडिय़ाली आंसू बहाने का आरोप लगाते हुए प्रशासन को निरंकुश करार दे दिया। गुमटियां तोडऩे पर इस प्रकार उद्वेलित हो कर नेताओं ने यह साबित करने की कोशिश की कि प्रशासन तो जन-विरोधी है, जबकि वे स्वयं गरीबों के सच्चे हितैषी। विरोध करने वालों को इतनी भी शर्म नहीं आई कि अगर वे इस प्रकार करेंगे तो प्रशासनिक अधिकारी शहर के विकास में रुचि क्यों लेंगे। केवल नौकरी ही करेंगे न। बहरहाल, विरोध का परिणाम ये रहा कि प्रशासन को केवल गुमटी धारकों को अन्यत्र गुमटियां देनी पड़ीं, अपितु यातायात में बाधा बनी अन्य गुमटियों को हटाने का निर्णय भी लटक गया।
इसी प्रकार शहर की यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा की अध्यक्षता में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय तो हुए, पर उन पर कितना अमल हुआ, ये पूरा शहर जानता हैं। उनकी लाचारी इससे ज्यादा क्या होगी कि जिस कचहरी रोड और नेहरू अस्पताल के बाहर उन्होंने सख्ती दिखाते हुए ठेले और केबिने हटाई थीं, वहां फिर पहले जैसे हालात हो गए हैं और शर्मा चुप बैठे हैं।
शर्मा ने पशु पालन की डेयरियों को अजमेर से बाहर ले जाने की कार्यवाही शुरू करने का ऐलान किया, मगर आज भी स्थिति जस की तस है। बड़े-बड़े गोदाम शहर से बाहर निर्धारित स्थल पर स्थानांतरित करने की व्यवस्था करने का निर्णय किया गया, मगर आज तक कुछ नहीं हुआ। रोडवेज बस स्टैंड के सामने रोडवेज की बसों को खड़ा करके यात्रियों को बैठाने पर पांबदी लगाई गई, मगर उस पर सख्ती से अमल नहीं हो पा रहा। शहर के प्रमुख चौराहों को चौड़ा करने का निर्णय भी धरा रह गया। खाईलैंड में नगर निगम की खाली पड़ी जमीन पर बहुमंजिला पार्किंग स्थल बनाने की योजना खटाई में पड़ी हुई है।
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