गुरुवार, 7 जुलाई 2011

बगैर तैयारी के हुई 800वें उर्स की तैयारी बैठक रही बेनतीजा



आम सहमति बनाने में आएगा प्रशासन को पसीना
महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के आगामी 800वें सालाना उर्स में जायरीन की आवक ज्यादा होने की संभावना के मद्देनजर प्रदेश के गृह मंत्री शांति धारीवाल की मौजूदगी में हुई अहम बैठक बेनतीजा ही रही। असल में जिस आयोजन पर तकरीबन तीन सौ करोड़ रुपए खर्च किए जाने का अंदाजा हो, ऐसी महत्वपूर्ण बैठक के लिए न तो कोई पुख्ता एजेंडा तैयार किया गया था और न ही संभागियों को उसकी तैयारी करके आने को कहा गया। जिला प्रशासन से भी पहले कोई एक्सरसाइज नहीं करवाई गई। बस मोटे तौर पर इतना भर तय हो पाया कि अब संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा जल्द से जल्द मास्टर प्लान बनाएंगे। दूसरा लाभ अगर माना जाए तो वो यह कि आला अफसरों को ये समझ गया कि दरगाह से जुड़े मसले कितने पेचीदा हैं।
आगामी 800वें उर्स को सरकार कितनी गंभीरता से ले रही है, इसका अनुमान जयपुर में मुख्य सचिव की मौजूदगी में हुई पहली बैठक से ही हो गया था। चूंकि इसके लिए केन्द्र सरकार से पर्याप्त आर्थिक सहयोग मिलना है, इस कारण राज्य सरकार की भी मंशा है कि उसका पूरा उपयोग किया जाए, मगर कमजोर इच्छाशक्ति के चलते महत्वपूर्ण बैठक को ऐसे निपटा दिया गया, जैसे रूटीन की बैठक हो।
दरअसल मास्टर प्लान के लिए जो प्रस्ताव मोटे तौर पर रखे गए हैं, वे कोई नए नहीं हैं। उन पर पहले भी कई बार विचार हो चुका है। हर साल होने वाले उर्स मेले से पूर्व और विशेष रूप से 786वें उर्स मेले के दौरान भी लगभग इन्हीं प्रस्तावों पर चर्चा हो चुकी है, मगर उन पर अमल करने की इच्छा शक्ति न सरकार ने दिखाई और न ही प्रशासन में इतनी हिम्मत की वह बर्र के छत्ते में हाथ डाले। प्रशासन का भी यही रवैया रहा है कि जैसे-तैसे मेला निपटा लिया जाए। मेला शांति से संपन्न होने पर वह शुक्र अदा करने के लिए मजार शरीफ पर चादर पेश कर खुद भी चादर ओढ़ कर सो जाता है। इस रवैये का खामियाजा उठा रहा है बेचारा जायरीन, जो धक्के खा-खा कर जियारत करता है और मन ही मन में भुनभुनाता हुआ लौट जाता है।
असल में उर्स मेले में जायरीन की सुविधा जितना अहम मसला है, उतना ही जरूरी है सुरक्षा व्यवस्था। विशेष रूप से दरगाह परिसर में एक बार हो चुके बम विस्फोट और कई बार भगदड़ के हालात उत्पन्न होने के कारण यह खतरा बना ही रहता है कि कोई हादसा न हो जाए। मेला तो फिर भी बड़ी बात है, मोहर्रम के दौरान होने वाले मिनी उर्स व हर माह महाना छठी के दिन ही भारी भीड़ की वजह से हालात बेकाबू हो जाते हैं। ऐसे में जायरीन की सुविधा और सुरक्षा के व्यापक इंताजमात की सख्त जरूरत रहती है। सरकारी स्तर पर कुछ जरूरी प्रस्ताव रखे जाते रहे हैं, मगर दरगाह से जुड़ी खादिमों की संस्था अंजुमन, दरगाह के अंदरुनी इंताजामात देखने वाली दरगाह कमेटी और पुलिस व प्रशासन में तालमेल नहीं हो पाता। दुर्भाग्य से ये कभी एकराय नहीं हुए, इस कारण आए दिन यहां अनेक परेशानियों से जायरीन को रूबरू होना पड़ता है। ये तो गनीमत है कि जायरीन का ख्वाजा साहब से रूहानी वास्ता है, इस कारण सब प्रकार की तकलीफें भोग कर भी जियारत करते हैं, वरना इंताजामात के हिसाब देखा जाए तो एक बार यहां आने वाला दुबारा आने से तौबा कर जाए। आम मानसिकता भी यही है कि जब तक कोई बड़ा हादसा न हो जाए, उन परेशानियों के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई जाती।
मेले के दौरान सबसे बड़ी समस्या रहती है भीड़भाड़ की। कई बार यहां भगदड़ भी मच चुकी है। एक बार तो छह जायरीन की मौत तक हो गई। इसका एक मात्र समाधान है वन वे। इसे एक बार अमल में भी लाया गया। और वह काफी कारगर भी रहा। मगर खादिमों के ऐतराज पर प्रशासन ने हाथ खींच लिए। खादिमों का मानना है कि जो भी जायरीन यहां आता है, वह केवल जियारत के लिए नहीं बल्कि यहां की अनेक रस्मों में भी शिरकत करना चाहता है। उसकी इच्छा होती है कि वह दरगाह के भीतर मौजूद मस्जिदों में नमाज अदा करे और कव्वाली का आनंद ले, लेकिन वन वे करने से वह ऐसा नहीं कर पाता और उसकी इच्छा अधूरी ही रह जाती है। बुधवार को आला अधिकारियों ने इस पर चर्चा भी की, मगर फिर विरोध का सामना करना पड़ा।
मेले के दौरान भीड़ की समस्या से निपटने के लिए दरगाह बाजार को चौड़ा करने, निजाम गेट तक एलीवेटेड ब्रिज बनाने और पार्किंग स्थल विकसित करने जैसे मसले तो ऐसे हैं, जिन पर फैसला करना बड़ी टेढ़ी खीर है। इन पर तो आला अफसरों के सामने ही खींचतान उभर कर आ गई।
मेले के दौरान जेब कतरों व असामाजिक तत्त्वों पर काबू पाने और सुरक्ष के लिए पुलिस की बड़े पैमाने पर मौजूदगी पर भी विवाद होते रहते हैं। जैसे ही दरगाह के भीतर पुलिस का बंदोबस्त बढ़ाया जाता है, रोका-रोकी और टोका-टाकी की जाती है तो खादिमों से टकराव हो जाता है। इसी वजह से कई बार पुलिस वाले पिट भी चुके हैं। बाद में समझौता कर मामला रफा-दफा कर लिया जाता है, मगर स्थाई हल आज तक नहीं निकाला गया।
एक ओर जायरीन की भीड़ और दूसरी ओर बेशुमार अतिक्रमण। समस्या तो विकट होनी ही है। जब भी दुकानों और खादिमों की गद्दियों व संदूकों को हटाने की बात आती है, नाजिम से टकराव हो जाता है। केन्द्र सरकार के इस प्रतिनिधि के पास कोई न्यायिक अधिकार नहीं हैं, इस कारण कोई ठोस कार्यवाही नहीं कर पाते। प्रशासन भी अंदर के मामले में चुप हो जाता है। इसके लिए दरगाह एक्ट में संशोधन की जरूरत बताई जाती है, मगर इससे खादिमों के हक मारे जाने की समस्या आ खड़ी हो जाती है। सुरक्षा के लिहाज से खादिमों को परिचय पत्र देने का मसला भी पेचीदा है। खादिमों का तर्क है कि जियारत करवाना पीढ़ी-दर-पीढ़ी का हक है। उसके लिए किसी से इजाजत की जरूरत नहीं है।
कुल मिला कर संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा को जो जिम्मा दिया गया है, वह बेहद चुनौतीपूर्ण है। देखते हैं कि वे सभी पक्षों की आम राय से कोई समाधान निकाल कर पुख्ता मास्टर प्लान बना पाते हैं या नहीं।