सोमवार, 21 मई 2012

शहंशाहों के शहंशाह ख्वाजा गरीब नवाज


दुनिया में कितने ही राजा, महाराजा, बादशाहों के दरबार लगे और उजड़ गए, मगर ख्वाजा साहब का दरबार आज भी शान-ओ-शोकत के साथ जगमगा रहा है। उनकी दरगाह में मत्था टेकने वालों की तादात दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। गरीब नवाज के दर पर न कोई अमीर है न गरीब। न यहां जात-पात है, न मजहब की दीवारें। हर आम-ओ-खास यहां आता है और अपनी झोली भर कर जाता है।
हिंदुस्तान के अनेक शहंशाहों ने बार-बार यहां आ कर हाजिरी दी है।
बादशाह अकबर शहजादा सलीम के जन्म के बाद सन्1570 में यहां आए थे। अपने शासनकाल में 25 साल के दरम्यान उन्होंने लगभग हर साल यहां आ कर हाजिरी दी। बादशाह जहांगीर अजमेर में सन् 1613 से 1616 तक यहां रहे और उन्होंने यहां नौ बार हाजिरी दी। गरीब नवाज की चौखट पर 11 सितंबर 1911 को  विक्टोरिया मेरी क्वीन ने भी हाजिरी दी। इसी प्रकार देश के अनेक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों ने यहां जियारत कर साबित कर दिया है कि ख्वाजा गरीब नवाज शहंशहों के शहंशाह हैं।
इस महान सूफी संत की दरगाह पर हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य की छाया तक नहीं पड़ी है। ख्वाजा साहब के दरगार में मुस्लिम शासकों ने सजदा किया तो हिंदू राजाओं ने भी सिर झुकाया है।
हैदराबाद रियासत के महाराजा किशनप्रसाद पुत्र की मुराद लेकर यहां आए और आम आदमी की सुबकते रहे। ख्वाजा साहब की रहमत से उन्हें औलाद हुई और उसके बाद पूरे परिवार के साथ यहां आए। उन्होंने चांदी के चंवर भेंट किए, सोने-चांदी के तारों से बनी चादर पेश की और बेटे का नाम रखा ख्वाजा प्रसाद।
जयपुर के मानसिंह कच्छावा तो ख्वाजा साहब की नगरी में आते ही घोड़े से उतर जाते थे। वे पैदल चल कर यहां आ कर जियारत करते, गरीबों को लंगर बंटवाते और तब जा कर खुद भोजन करते थे। राजा नवल किशोर ख्वाजा साहब के मुरीद थे और यहां अनेक बार आए। मजार शरीफ का दालान वे खुद साफ करते थे। एक ही वस्त्र पहनते और फकीरों की सेवा करते। रात में फर्श पर बिना कुछ बिछाए सोते थे। उन्होंने ही भारत में कुरआन का पहला मुद्रित संस्करण छपवाया। जयपुर के राजा बिहारीमल से लेकर जयसिंह तक कई राजाओं ने यहां मत्था टेका, चांदी के कटहरे का विस्तार करवाया। मजार के गुंबद पर कलश चढ़ाया और खर्चे के लिए जागीरें भेंट कीं। महादजी सिंधिया जब अजमेर में शिवालय बनवा रहे थे तो रोजाना दरगाह में हाजिरी देते थे। अमृतसर गुरुद्वारा का एक जत्था यहां जियारत करने आया तो यहां बिजली का झाड़ दरगाह में पेश किया। इस झाड़ को सिख श्रद्धालु हाथीभाटा से नंगे पांव लेकर आए। जोधपुर के महाराज मालदेव, मानसिंह व अजीत सिंह, कोटा के राजा भीम सिंह, मेवाड़ के महाराणा पृथ्वीराज आदि का जियारत का सिलसिला इतिहास की धरोहर है। बादशाह जहांगीर के समय राजस्थानी के विख्यात कवि दुरसा आढ़ा भी ख्वाजा साहब के दर पर आए। जहांगीर ने उनके एक दोहे पर एक लाख पसाव का नकद पुरस्कार दिया, जो   उन्होंने दरगाह के खादिमों और फकीरों में बांट दिया।
गुरु नानकदेव सन् 1509 में ख्वाजा के दर आए। मजार शरीफ के दर्शन किए, दालान में कुछ देर बैठ कर ध्यान किया और पुष्कर चले गए।
अंग्रेजों की खिलाफत का आंदोलन चलाते हुए महात्मा गांधी सन् 1920 में अजमर आए। उनके साथ लखनऊ के फिरंगी महल के मौलाना अब्दुल बारी भी आए थे। मजार शरीफ पर मत्था टेकने के बाद गांधीजी ने दरगाह परिसर में ही अकबरी मस्जिद में आमसभा को संबोधित किया था। उनके भाषण एक अंश था- हम सब भारतीय हैं, हमें अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराना है, लेकिन शांति से, अहिंसा से। आप संकल्प करें... दरगाह की पवित्र भूमि पर आजादी के लिए प्रतिज्ञा करें... ख्वाजा साहब का आशीर्वाद लें। इसके बाद वे खादिम मोहल्ले में भी गए। इसके बाद 1934 में गांधीजी दरगाह आए। वे हटूंडी स्थित गांधी आश्रम भी गए और अस्वस्थ अर्जुनलाल सेठी से मिलने उनके घर भी गए।
स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी दरगाह की जियारत की और यहां दालान में सभा को संबोधित किया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू व उनकी पत्नी विजय लक्ष्मी पंडित और संत विनोबा भावे भी यहां आए थे।
देश की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भी कई बार दरगाह आईं। एक बार वे संजय गांधी को पुत्र-रत्न (वरुण)होने पर संजय, मेनका व वरुण के साथ आईं और इतनी ध्यान मग्न हो गईं कि चांदी का जलता हुआ दीपक हाथ में लिए हुए काफी देर तक आस्ताना शरीफ में खड़ी रहीं। वह दीपक उन्होंने यहीं नजर कर दिया। कांग्रेस का चुनाव चिह्न पंजा भी यहीं की देन है। उन दिनों पार्टी का चुनाव बदलना जाना था। जैसे ही उनके खादिम यूसुफ महाराज ने आर्शीवाद केलिए हाथ उठाया, वे उत्साह से बोलीं कि मुझे चुनाव चिह्न मिल गया। इसी चुनाव चिह्न पर जीतीं तो फिर जियारत को आईं और एक स्वर्णिम पंजा भेंट किया। जियारत के बाद वे मुख्य द्वार पर दुपट्टा बिछा कर माथ टेकती थीं। उनके साथ राजीव गांधी व संजय भी आए, मगर बाद में राजीव गांधी अकेले भी आए। इसी प्रकार सोनिया गांधी भी दरगाह जियारत कर चुकी हैं। देश के अन्य प्रधानमंत्री, राज्यपाल व मुख्यमंत्री आदि भी यहां आते रहते हैं। पाकिस्तान व बांग्लादेश के प्रधानमंत्री भी यहां आ कर दुआ मांग चुके हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

अद्भुत है हजरत ख्वाजा साहब की जीवन झांकी


हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती का दुनिया के अध्यात्मिक सिंह पुरुषों में बहुत ऊंचा स्थान है। खासतौर पर सूफी सिलसिले में तो सर्वाधिक ऊंचाई पर हैं। उनके प्रति हर मजहब व जाति के लोगों में कितनी श्रद्धा है, इसका अंदाजा यहां हर साल जुटने वाले उर्स मेले से लगाया जा सकता है। यूं इस मुकद्दस मुकाम पर मत्था टेकने वालों का सैलाब सालभर उमड़ता रहता है।
ख्वाजा साहब का जन्म हिजरी वर्ष 530 यानि 1135 ईस्वी में असफहान में हुआ। आपके वालिद का नाम ख्वाजा गयासुद्दीन और वालिदा का नाम बीबी माहेनूर था। उनकी वालिदा अब्दुल्ला हम्बली के बेटे दाऊद की बेटी थीं। बचपन से ही ख्वाजा साहब में रूहानी गुण मौजूद थे। महज नौ साल की उम्र में ही वे पूरी कुरान एक सांस में सुना देते थे। इतनी कम उम्र में वे हदीस (रसूल वाणी) और फिका (इस्लामिक न्याय शास्त्र) पढऩे लग गए थे। जब ख्वाजा साहब सिर्फ 15 साल के थे, तभी उनके  वालिद का बगदाद में इंतकाल हो गया। वालिद के इंतकाल के बाद जब घर की संपत्ति का बंटवारा हुआ तो उनके हिस्से में एक चक्की और एक बगीचा आया। हजरत इब्राहिम कंदोजी से मुलाकात ने उनके जीवन में एक नया मोड़ लेकर आया। ख्वाजा साहब ने उन्हें अंगूरों का एक गुच्छा भेंट किया तो वे दरवेश बहुत खुश हुए और उन्होंने खल की टिकिया चबा कर ख्वाजा साहब को दी। जैसे ही वह टिकिया ख्वाजा साहब ने उसे लिया, उनका इस संसार से मोह भंग हो गया। उन्होंने चक्की और बगीचा बेच दिया। इसके बाद वे खुरसान चले गए। समरकंट व घुटसारा पहुंच कर उन्होंने किताबी ज्ञान हासिल किया। बीस साल तक वे पढ़ाई करते रहे। इसके बाद ईरान से अरब और वहां से हारुन पहुंचे। वहां लौटते हुए वे बगदाद भी ठहरे। उन्होंने सीरिया, किमरान, हमदान, तेहरान, खुरासान, मेमना, हेरात व मुल्तान का सफर किया और लाहौर भी गए।
जियारत हरमैन शरीफेन- 582 ईस्वी में आपने अपने पीरो मुरशद के साथ मक्के मोअज्जमा में हाजिरी दी। एक रात आखिरी पहर में हजरत ख्वाजा उस्माने हारुनी ने आपको बारगाहे इलाही में पेश किया और खाना-ए-काबा का पर्दा औढ़ा कर अर्ज की कि या अल्लाह, मोइनुद्दीन को कुबूल फरमा लो। दुआ फौरन कुबूल हुई और आवाज आई- मोइनुद्दीन मकबूले बारगाह। इसके बाद आपने मदीने तैयबा में हाजिरी दी और नबी-ए-कबीस की बारगाह में सलाम पेश किया। वहां से जवाब आया- वअयलकुलम अस्सलाम या कुतबल मशईख यानि ऐ फरजंद मोइनुद्दीन, हमने तुम्हें हिंद की विलादत अता की।
खिलाफत- ख्वाजा साहब ने हारून के हजरत ख्वाजा उस्मान से दीक्षा ली। उन्होंने ही ख्वाजा साहब को अपना सज्जादानशीन मुकर्रर किया और पैगंबर साहब के पवित्र अवशेष उन्हें सुपुर्द कर दिए।
सफरे हिंदुस्तान- पैगंबर मोहम्मद साहब का आदेश पा कर आप हिजरी 587 यानि 1191 ईस्वी में अजमेर आए। कुछ अरसा यहां रहने के बाद आप गजनी के लिए रवाना हो गए। वहां कुछ समय रहने के बाद वापस अजमेर आ गए। अजमेर से वे एक बार बगदाद भी गए। रास्ते में वे बाल्ख में ठहरे, जहां सुप्रसिद्ध दार्शनिक मौलाना जियाउद्दीन उनके शिष्य बने। वापस लौटते हुए वे गजनी, लाहौर व दिल्ली से खुरसान पहुंचे। वहां से 610 हिजरी यानि 1213 ईस्वी में अजमेर आए।
निकाह- अस्सी साल की उम्र में आपने दो निकाह किए। उनकी पहली बीवी का नाम जौजा-ए-मोहतरमा हजरत बीवी अमतुल्लाह और दूसरी का नाम हजरत बीवी हसमतुल्लाह था।
औलाद अमजाद- हजरत ख्वाजा फखरुद्दीन चिश्ती आपके फरजंदे अकबर हुए, जिनकी दरगाह अजमेर शरीफ से साठ किलोमीटर दूर सरवाड़ शरीफ में है। मंझले साहबजादे ख्वाजा हिसामुद्दीन चिश्ती थे। उनके मुतल्लिक मशहूर है कि मर्दाने गैब में शामिल हो कर अबदाल के मर्तबे पर फाइज हुए। हजरत ख्वाजा जियाउद्दीन अबू सईद चिश्ती आपके सबसे छोटे फरजंद थे। आपका मजारे मुबारक दरगाह शरीफ के शाही घाट पर जियरतगाह खासो आम है। ख्वाजा साहब की इकलौती बेटी थी हजरत बीबी हाफिज जमाल। आप पैदाइशी कुराम हाफिज थीं। कमसनी में ही आपने हिफज कर लिया। आप का मनसून हजरत शेख रजीउद्दीन से हुआ। साहबजादी साहेबा का मजार शरीफ हजरते ख्वाजा गरीब नवाज के पांयती आस्ताना-ए-मुकारक के करीब है। ख्वाजा-ए-बुजुर्ग के पोते व हजरत ख्वाजा फखरुद्दीन के फरजंद थे हजरत ख्वाजा हिसामुद्दीन जिगर सोख्ता। उनकी मजार अजमेर से तकरीबन नब्बे किलोमीटर दूर सांभर में है।
खुलफा-ए-इकराम- ख्वाजा साहब के बहुत से खलीफा हुए, जिन्होंने अनेक इलाकों में गुलशन चिश्त के फूल महकाए, लेकिन खिलाफत हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी को मिली। आपका अस्ताना दिल्ली-महरोली में कुतुबमीनार के करीब है। आपके दूसरे खलीफा हुए सुल्तानुल तारकीन हजरत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी, जिनकी दरगाह नागौर में है।
विसाल- हजरत ख्वाजा गरीब नवाज का विसाल 97 साल की उम्र में हिजरी 633 रजबुल मुर्जब 6 को हुआ। वावक्त विसाल आपकी पेशानी पर लिखा था- हाजा हबीबुल्लाह माता फी कुतुबुल्लाह यानि अल्लाह का हबीब अल्लाह की मोहब्बत में जांबाहक हुआ।
-तेजवानी गिरधर
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केवल इतनी ही है सुल्तान-उल-हिंद की दौलत


दुनियाभर के गरीब और अमीर को नवाजने वाले, दुनियाभर के दौलतमंदों की झोलियां भरने वाले ख्वाजा गरीब नवाज की दौलत के बारे में जान कर आप चकित रह जाएंगे। जैन दर्शन का एक सिद्धांत है अपरिग्रह, वह ख्वाजा साहब के जीवन दर्शन में इतना कूट-कूट कर भरा है कि आप उसकी दूसरी मिसाल नहीं ढूंढ़ नहीं पाएंगे। वे भारत आते वक्त जो सामान लाए थे, वही सामान उनके पास आखिर तक रहा। उसमें तनिक भी वृद्धि नहीं हुई।
बुजुर्गवार बताते हैं कि उनके व्यक्तिगत सामान में दो जोड़ी कपड़े, एक लाठी, एक तीर-कमान, एक नमकदानी, एक कंछी और एक दातून थी। हर वक्त वे इतना ही सामान अपने पास रखते थे। उन्होंने कभी तीसरी जोड़ी अपने पास नहीं रखी। यदि कपड़े फटने लगते तो उसी पर पैबंद लगा कर साफ करके उसे पहन लेते थे। यह काम भी वे खुद ही किया करते थे।  पैबंद लग-लग कर उनके कपड़े इतने वजनी हो गए थे कि आखिरी वक्त में उनके कपड़ों का वजन साढ़े बारह किलो हो गया था।
केवल सामान के मामले में ही नहीं अपितु खाने-पीने के मामले में भी बेहद सीमित जरूरत रखते थे। पूरे दिन में वे दो बार कुरान पाठ कर लिया करते थे। इस दौरान इबादत में वे इतने व्यस्त हो जाते थे कि उन्हें खाने-पीने की ही खबर नहीं रहती थी। वे लगातार चार-पांच दिन रोजा रख लिया करते थे। यदि रोटी सूख जाती तो उसे फैंकते नहीं थे, बल्कि उसे ही भिगो कर खा लेते थे।
-तेजवानी गिरधर
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अनके नामों से जाना जाता है ख्वाजा गरीब नवाज को


दुनिया के मशहूर चिश्ती संतों में ख्वाजा गरीब नवाज का नाम से सबसे ऊंचा है। अनेक नामों से उनकी इबादत कर अकीदतमंद सुकून पाते हैं।
ख्वाजा गरीब नवाज का मूल नाम मोइनुद्दीन हसन चिश्ती था। उन्हें यूं तो अनेक नामों से जाना चाहता है, मगर गरीब नवाज एक ऐसा नाम है, जिससे सभी आम-ओ-खास वाकिफ हैं। इस नाम के मायने हैं गरीबों पर रहम करने वाला। यूं तो अनेक नवाबों, राजाओं-महाराजाओं ने यहां झोली फैला कर बहुत कुछ हासिल किया है, मगर गरीबों पर उनका कुछ खास ही करम है। उनके दरबार में तकसीम होने वाले लंगर के लिए अमीर और गरीब एक ही लाइन में खड़े होते हैं, यही वजह है कि उन्हें गरीब नवाज के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीबों और आम लोगों के बीच ही बिताया। जो लोग आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से गरीब थे, जिन्हें इबादत करना नहीं आता था, जिन्हें भक्ति व सच्चाई का ज्ञान नहीं था, उन्हें उन्होंने सूफी मत का ज्ञान दिया। उन्होंने किसी भी राजा या सुल्तान का आश्रय नहीं लिया और न ही उनके दरबारों में गए। उन्होंने स्वयं भी गरीबों की तरह सादा जीवन बिताया। इन्हीं गुणों के कारण उन्हें गरीब नवाज कहा जाता है, जो कि उनका सबसे प्रिय नाम है।
ख्वाजा साहब को अता-ए-रसूल के नाम से भी जाना जाता है, जिसका मतलब होता है खुदा के पैगंबर मोहम्मद साहब का उपहार। अपने जीवन का अधिकांश समय अजमेर से ही सूफीवाद का प्रचार-प्रसार करने और यहीं पर इबादत करने की वजह से उन्हें ख्वाजा-ए-अजमेर के नाम से भी पुकारा जाता है। वे हिंदल वली के नाम से भी जाने जाते हैं, जिसका मतलब होता हिंदुस्तान के संत और रक्षक। इसी प्रकार उन्हें सुल्तान-उल-हिंद भी कहा जाता है, जिसका मतलब आध्यात्मिक संदर्भ में हिंदुस्तान की अध्यात्मिक शक्तियों  का राजा होता है। इसी संदर्भ में उन्हें नायाब-ए-रसूल हिंद भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त उन्हें ताजुल मुकर ए बिन बल मुश्हक कीन भी कहते हैं, जिसके मायने है नैसर्गिक तेज व ज्ञान का आलोक, जिसके चारों ओर हमेशा खुशी ही खुशी और आशीर्वाद व रहमत बरसती रहती है। उन्हें सैयद उल आबेदीन भी कहते हैं, अर्थात पवित्र तजुल आशिकीन प्रेमियों के सम्राट। उन्हें ताज बुरहन उल वासेलीन यानि एकता के प्रतीक, आफताब ए जहान यानि संसार को बेटा, पनाह एक बे कसन यानि बेसहारा को शरण में लेने वाले और दलील उल अरेफी यानि अलौकिक प्रकाश या नूर कहा जाता है।

-तेजवानी गिरधर
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सांप्रदायिक सौहार्द्र की रोशनी देते हैं ख्वाजा गरीब नवाज


हिंदुस्तान की सरजमी पर अजमेर ही एक ऐसा मुकद्दस मुकाम है, जहां महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में हर धर्म, मजहब, जाति और पंथ के लोग हजारों की तादात में आ कर अपनी अकीदत के फूल पेश करते हैं। कहने भर को भले ही वे इस्लाम के प्रचारक हैं, मगर उन्होंने इस्लाम के मानवतावादी और इंसानियत के पैगाम पर ज्यादा जोर दिया है, इसी कारण हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी बिना किसी भेदभाव के यहां आ कर सुकून पाते है। हकीकत तो यह है कि यहां जितने मुस्लिम नहीं आते, उससे कहीं ज्यादा हिंदू आ कर अपनी झोली भरते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द्र की ऐसी मिसाल दुनिया में कहीं भी नजर नहीं आती। उनकी दरगाह की वजह से अजमेर को सांप्रदायिक सौहाद्र्र की अनूठे मुकद्दस मुकाम  के रूप में गिना जाता है।
राज-पाठ, शासन-सत्ता और धर्मांतरण से विमुख गरीब नवाज के भारत आगमन का मकसद यहां की आध्यात्कि संस्कृति के साथ मिल-जुल कर एक ही ईश्वर की उपासना करना और अलौकिक ज्ञान अर्जित कर उसका प्रकाश बांटना था।
ख्वाजा साहब के बारे में यह उक्ति बिलकुल निराधार है कि वे इस्लाम का प्रचार करने भारत आए थे। ऐसे मिथक उन कट्टरपंथी लोगों के हो सकते हैं जो कि इंसानी जिंदगी के हर पहलु को कट्टर धार्मिकता  से जोड़ते हैं। वे किसी भी धर्म से जुड़ी अन्य उदारवादी और मानवतावादी विचारधाराओं के अंतर को समझने में असमर्थ हैं। वे नहीं जानते कि दुनिया के सभी मूल धर्मों से उदित कुछ ऐसी विचारधाराएं भी हैं, जो कि मानव समाज में अपना अलग ही आध्यात्मिक महतव रखती हैं। वे विचारधाराएं भले ही अपने-अपने धर्मों से जुड़ी हुई हैं, मगर उनका एक मात्र मकसद मानव की सेवा करना है। जैसे मूल हिंदु धर्म से निकली रहस्यवादी विचारधाराएं, ईसाई धर्म से निकाल वैराग्यवाद और इस्लाम से निकली सूफी विचारधारा। इसी प्रकार अनेक मत और पंथ अपने धर्म के आडंबरों से मुक्त हुए और उन्होंने सारा जोर मानव की सेवा में ही लगा दिया। ख्वाजा साहब का मूल धर्म हालांकि इस्लाम ही था, लेकिन वे इस्लाम व कुरान के मानवतावादी पक्ष में ही ज्यादा विश्वास रखते थे। यदि सूफी दर्शन का गहराई से अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि एक सूफी दरवेश केवल इस्लामी शरीयत का पाबंद नहीं होता, बल्कि उसकी इबादत या तपस्या इन मजहबी औपचारिकताओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती है। इस्लाम धर्म के मुताबिक पांच वक्त की नजाम अदा करना, रमजान के महिने में तीन रोजे रख लेना, खैरात-जकात निकाल देना, हज को चले जाना तो सभी मुसलमान अपना मजहबी फर्ज समझ कर पूरा करते हैं, लेकिन एक सूफी संत के लिए अल्लाह ही इतनी सी इबादत करना नाकाफी है। वह केवल तीस रोजे से संतुष्ट नहीं होता, बल्कि पूरे 365 दिन भूखे रहना पसंद करता है। वह एक या दो हज नहीं बल्कि अपनी आध्यामिक शक्ति से सैकड़ों हज करने में विश्वास रखता है। एक सूफी शायर ने कहा है कि दिन बदस्त आवर कि हज्जे अकबरस्त यानि किसी दीन-दु:खी के दिन को रख लेना या उसे खुश कर देना एक बड़े हज के समान है।  इस नेक काम को हर सूफी संत बढ़-चढ़ कर अंजाम देता है। इसी कारण उसकी मान्यता यही रहती है कि उसे अल्लाह ने इस जमीन पर भेजा ही इसलिए है कि वह दीन-दु:खियों की ही सेवा करता रहे। सूफी मत की सबसे प्रबल अवधारणा ही यही है कि सभी धर्मों का प्रारंभ आत्मिक व आध्यात्मिक चिंतन से है। जब धर्म आत्मिक केन्द्र से हट जाते हैं तो उनमें केवल आडंबर और औपचारिकताएं शेष रह जाती हैं। वे धार्मिक उन्माद, कट्टरता और सांप्रदायिकता के रूप में ही प्रकट होती हैं। सूफी मत की मान्यता है कि एक आत्मविहीन धर्म पूरे सामाजिक संतुलन को बिगाड़ देता है। इसी असंतुलन की वजह से ही समाज में विद्वेष फैलता है और सांप्रदायिक दंगे भी इसी के देन हैं। सूफी मत के अनुसार किसी भी धर्म की पूर्ण परिभाषा और आत्मा उसके अध्यात्मिक रूप में ही निहित है, औपचारिकता में नहीं। यही वजह है कि दार्शनिक दृष्टि से गरीब नवाज के सूफी दर्शन और भारत के प्राचीन एकेश्वरवाद, एकात्म में पर्याप्त समानता है।

-तेजवानी गिरधर
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