बुधवार, 22 दिसंबर 2010

...यानि कि मंत्रीजी खुद मानते हैं आईएएस की दादागिरी

खुद पंचायतराज मंत्री भरतसिंह ने यह स्वीकार कर लिया है कि संभाग स्तर पर जिन जिला परिषदों में आईएएस अधिकारियों को मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया गया है, वहां सबसे ज्यादा परेशानियां बढ़ी हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि आईएएस अधिकारी जनप्रतिनिधियों के कब्जे में नहीं आते और वही करते हैं, जो उनको जंचती है। इस सिलसिले में अजमेर का उदाहरण सबसे ज्वलंत है, जहां सीईओ शिल्पा जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा से टकराव ले रही हैं।
मंत्रीजी ने सोमवार को पत्रकारों के सामने जो स्वीकारोक्ति की उससे स्पष्ट है कि सरकार ने बिना सोचे-समझे जिला परिषदों में आईएएस को सीईओ बनाने का निर्णय किया। एक ओर उसने पंचायतीराज संस्थाओं को मजबूत करने के मकसद से उनके अधीन पांच महकमे किए ओर साथ ही जनप्रतिनिधि निरंकुश न हो जाएं, इसके लिए संभाग मुख्यालयों की जिला परिषदों में आईएएस अधिकारी बैठा दिए। उसे पता था कि आईएएस अधिकारियों का मिजाज कैसा होता है कि वे किसी के कब्जे में नहीं आते। इसके अलावा उनका कुछ बिगाड़ भी नहीं सकते। हद से हद तबादला कर सकते हैं। अव्वल तो जब आईएएस को तंत्र पर नियंत्रण रखने के लिए ही लगाया गया है तो यह उम्मीद ही कैसे की जा सकती है कि वे टकराव के हालात पैदा नहीं करेंगे। असल में देखा जाए तो ऐसा करके खुद सरकार ने ही टकराव के हालात पैदा किए। क्या ऐसा माना जा सकता है कि उसे अनुमान ही नहीं था कि ऐसा करने से जिला प्रमुखों व सीईओ में टकराव होगा? वस्तुत: उसने एक प्रयोग किया और वह फेल हो गया। जनप्रतिनिधियों व आईएएस में टकराव हुआ और अब सरकार परेशान है कि आखिर इसका तोड़ क्या निकाला जाए। अब दोनों पक्षों में तालमेल की कवायद की जा रही है। दोनों के बीच अधिकारों के बंटवारे पर विचार किया जा रहा है। समझ में ही नहीं आता कि आखिर तालमेल कैसे किया जाएगा, जब कि सरकार के दो मंत्रियों मास्टर भंवरलाल व भरतसिंह के बीच ही तालमेल नहीं है। भरतसिंह कहते हैं जिला प्रमख के नेतृत्व में बनी स्थाई समिति को असीमित अधिकार हैं और उसके निर्णयों को अमल में लाना अधिकारियों की जिम्मेदारी है, जब कि भंवरलाल ने पिछले दिनों साफ तौर पर शिल्पा को शह देते हुए कहा कि वे किसी के दबाव में न आएं और वही करें, जो कि नियमानुसार सही हो। कैसी विडंबना है कि मंत्री खुद ही जनप्रतिनिधियों व अधिकारियों को आपस में भिड़ा रहे हैं।
असल में यह स्थिति इसलिए आई है क्यों कि मौजूदा गहलोत सरकार में ब्यूरोक्रेसी हावी है। उसी ने गहलोत को जिला परिषदों में आईएएस की तैनाती करवाई है। खुद गहलोत भी ब्यूरोक्रेसी को कितना पसंद करते हैं, इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि उन्होंने किसी न किसी बहाने विभिन्न बोर्डों, अकादमियों व न्यासों में जनप्रतिनिधियों की नियुक्ति को अब तक टाला है और अधिकारियों के सहारे ही सरकार चला रहे हैं। ब्यूरोक्रेसी के हावी रहने के दौर में जिला परिषदों के मौजूदा विवाद से ऐसा प्रतीत होता है कि बोर्डों में यदि नियुक्तियां की गईं तो वहां भी टकराव के हालात बनेंगे।
यह सर्वविदित धारणा रही है कि भाजपा नेताओं को अधिकारियों को हैंडल करना नहीं आता और कांग्रेसी वर्षों तक राज किए हुए हैं, इस कारण अधिकारियों को खींच कर रखने में माहिर हैं। इस सिलसिले में पूर्व मंत्री परसराम मदेरणा का नाम लिया जाता था, जो किसी सरकारी बैठक की अध्यक्षता करने से एक दिन पहले रात को पूरी स्टडी करते थे और बैठक में आईएएस अधिकारियों की ऐसी क्लास ले डालते थे कि वह थर थर कांपता था। मगर ऐसा लगता है कि अब धारणा टूटने लगी है। कांग्रेसी नेता अधिकारियों के आगे बेबस होने लगे हैं। ऐसे में यदि यह कहा जाए कि पिछली बार कर्मचारियों ने कांग्रेस का भट्टा बैठा दिया और इस बार अधिकारी निपटाने में लगे हुए हैं, कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।