मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

अनेक ऐतिहासिक धरोहरें समेटे है अजमेर का आंचल

विश्व धरोहर दिवस, 18 अप्रैल पर विशेष
-तेजवानी गिरधर-
अरावली पर्वत की उपत्यकाओं में बसी इस ऐतिहासिक नगरी की धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से विशिष्ट पहचान है। जगतपिता ब्रह्मा की यज्ञ स्थली तीर्थराज पुष्कर और महान सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती को अपने आंचल में समेटे इस नगरी को पूरे विश्व में सांप्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल के रूप में जाना जाता है। विश्व धरोहर दिवस, 18 अप्रैल के मौके पर पेश है राजनीति व प्रशानिक हलचल से हट कर अजमेर की कुछ खास धरोहरों के बारे में फौरी जानकारी:-
तारागढ़
समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई पर पहाड़ी पर करीब अस्सी एकड़ जमीन पर बना यह किला राजा अजयराज चौहान द्वितीय द्वारा 1033 ईस्वी बनवाया गया। बीठली पहाड़ी पर बना होने के कारण इसे गढ़ बीठली के नाम से भी जाना जाता है। बीठली को कोकिला पहाड़ी भी कहा जाता है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि शाहजहां के काल में अजमेर के समीप राजगढ़ के वि_ल गौड़ में इसमें कुछ पविर्तन करवाए और इसका नाम गढ़ वि_ली रख दिया। यह भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग माना जाता है। इसे पहले अजयमेरू दुर्ग कहा जाता था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने इस पर अधिकार जमा लिया था और उन्होंने इसका नाम अपनी पत्नी तारा के नाम पर कर दिया। यह अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का साक्षी है। सन् 1033 से 1818 तक इस दुर्ग ने सौ से अधिक युद्ध देखे। चौहानों के बाद अफगानों, मुगलों, राजपूतों, मराठों और अंग्रेजों के बीच इस दुर्ग को अपने-अपने अधिकार में रखने के लिए कई छोटे-बड़े युद्ध हुए। उन्होंने अपने-अपने समय में इसमें कई सुरक्षा परिवर्तन किया। औरंगजेब व दारा शिकोह के बीच दौराई में हुए युद्ध के दौरान 1659 में यह काफी क्षतिग्रस्त हुआ। सन् 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों ने इसमें काफी फेरबदल किया, जिसके परिणामस्वरूप अब टूटी-फूटी बुर्जों, मीरां साहब की दरगाह आदि के अलावा यहां कुछ भी बाकी नहीं बचा है।
अढ़ाई दिन का झौंपड़ा
दरगाह के सिर्फ एक किलोमीटर फासले पर स्थित अढ़ाई दिन का झौंपड़ा मूलत: एक संस्कृत विद्यालय, सरस्वती कंठाभरण था। अजमेर के पूर्ववर्ती राजा अरणोराज के उत्तराधिकारी विग्रहराज तृतीय ने इसका निर्माण करवाया था। सन् 1192 में मोहम्मद गौरी ने इसे गिराकर कर मात्र ढ़ाई दिन में बनवा दिया। बाद में कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे मस्जिद का रूप दे दिया। मराठा काल में यहां पंजाबशाह बाबा का ढ़ाई दिन का उर्स भी लगता था। कदाचित इन दोनों कारणो से इसे अढ़ाई दिन का झौंपड़ा कहा जाता है। दरगाह शरीफ से कुछ ही दूरी पर स्थित यह इमारत हिंदू-मुस्लिम स्थापत्य कला का नायाब नमूना है। सात मेहराबों से युक्त सत्तर स्तम्भों पर खड़े इस झौंपड़े की बारीक कारीगरी बेजोड़ है। छत पर भी बेहतरीन कारीगरी है। यहां बनी दीर्घाओं में खंडित मूर्तियां और मंदिर के अवशेष रखे हैं।
अकबर का किला
अजमेर शहर के केन्द्र में नया बाजार के पास स्थित इस किले का निर्माण अकबर ने 1571 से 1574 ईस्वी में राजपूतों से होने वाले युद्धों का संचालन करने और ख्वाजा साहब के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए करवाया था। अकबर ने यहां से समस्त दक्षिणी पूर्वी व पश्चिमी राजस्थान को अपने अधिकार में कर लिया था। जहांगीर ने भी 1613 से 1616 के दौरान यहीं से कई सैन्य अभियानों का संचालन किया। इसे राजपूताना संग्रहालय और मैगजीन के नाम से भी जाना जाता है। इसमें चार बड़े बुर्ज और 54 फीट व 52 फीट चौड़े दरवाजे हैं। यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल भारतीय राजनीति में अहम स्थान रखता है, क्योंकि यहीं पर सम्राट जहांगीर ने दस जनवरी 1916 ईस्वी को इंग्लेंड के राजा जॉर्ज पंचम के दूत सर टामस रो को ईस्ट इंडिया कंपनी को हिंदुस्तान में व्यापार करने की अनुमति दी थी। टामस रो यहां कई दिन जहांगीर के साथ रहा। ब्रिटिश काल में 1818 से 1863 तक इसका उपयोग शस्त्रागार के रूप में हुआ, इसी कारण इसका नाम मैगजीन पड़ गया। वर्तमान में यह संग्रहालय है। पूर्वजों की सांस्कृतिक धरोहर का सहज ज्ञान जनसाधारण को कराने और संपदा की सुरक्षा करने की दृष्टि से भारतीय पुरातत्व के महानिदेशक श्री मार्शल ने 1902 में लार्ड कर्जन के अजमेर आगमन के समय एक ऐसे संग्रहालय की स्थापना का सुझाव रखा था, जहां जनसाधारण को अपने अतीत की झांकी मिल सके। अजमेर के गौरवमय अतीत को ध्यान में रखते हुये लार्ड कर्जन ने संग्रहालय की स्थापना करके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन एजेन्ट श्री कालविन के अनुरोध पर कई राज्यों के राजाओं ने बहुमूल्य कलाकृतियां उपलब्ध करा संग्रहालय की स्थापना में अपना अपूर्व योग दिया। संग्रहालय की स्थापना 19 अक्टूबर, 1908 को एक शानदार समारोह के साथ हुई। संग्रहालय का उद्घाटन ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन एजेन्ट श्री कालविन ने किया और उस समारोह में विभिन्न राज्यों के राजाओं के अतिरिक्त अनेकों विदेशी भी सम्मिलित हुये। पुरातत्व के मूर्धन्य विद्वान पं. गौरी शंकर हीराचन्द ओझा को संग्रहालय के अधीक्षक पद का भार सौंपा गया और ओझा जी ने अपनी निष्ठा का परिचय ऐसी बहुमूल्य कलाकृतियां एकत्रित कर दिया कि जिसके परिणामस्वरूप अजमेर का संग्रहालय दुर्लभ सामग्री उपलब्ध कराने की दृष्टि से देशभर में धाक जमाये हुए है। इसमें अनेक प्राचीन शिलालेख, राजपूत व मुगल शैली के चित्र, जैन मूर्तियां, सिक्के, दस्तावेज और प्राचीन युद्ध सामग्री मौजूद हैं। सन् 1892 में इसके दक्षिणी पूर्वी बुर्ज में नगरपालिका का दफ्तर खोला गया। संग्रहालय के वर्तमान अधीक्षक आजम हुसैन इस धरोहर के साथ अन्य धरोहरों को सहजने पर पूरा ध्यान दे रहे हैं।
दरगाह ख्वाजा साहब
अजमेर में रेलवे से दो किलोमीटर दूर अंतर्राष्टीय ख्याति प्राप्त सांप्रदायिक सौहार्द्र की प्रतीक सूफी संत ख्वाजा मोहनुद्दीन हसन चिश्ती (1143-1233 ईस्वी)की दरगाह है। गरीब नवाज के नाम से प्रसिद्ध ख्वाजा साहब की मजार को मांडू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने सन् 1464 में पक्का करवाया था। मजार शरीफ के ऊपर आकर्षक गुम्बद है, जिसे शाहजहां ने बनवाया। उस पर खूबसूरत नक्काशी का काम सुलतान महमूद बिन नसीरुद्दीन ने करवाया। गुम्बद पर सुनहरी कलश है। मजार शरीफ के चारों ओर कटहरे बने हुए हैं। एक कटहरा बादशाह जहांगीर ने 1616 में लगवाया था। चांदी का एक कटहरा आमेर नरेश सवाई जयसिंह ने 1730 में भेंट किया किया था। इसमें 42 हजार 961 तोला चांदी काम में आई। नूकरई कटहरा शहजादी जहांआरा बेगम द्वारा चढ़ाया गया। मजार के दरवाजे पर बादशाह अकबर द्वारा भेंट किए गए किवाड़ों की जोड़ी लगी हुई है।
दरगाह परिसर में ही अनेक ऐतिहासिक इमारतें हैं, जिनमें निजाम गेट, नक्कारखाना आस्ताना ए उस्मानिया, नक्कारखाना शाहजहांनी, बेगमी दालान, बुलंद दरवाजा खिलजी, जन्नती दरवाजा, मजार हजरत बीवी हाफेजा जमाल, मस्जिद संदल वाली, कुरआन मस्जिद, स्जिद सुलतान खिलजी, औलिया मस्जिद, शाहजहांनी जामा मस्जिद, सहन चिराग, लंगरखाना, प्याले की छतरी, अकबरी मस्जिद, हौज, मजार निजाम सिक्का, अरकाट का दालान, मालवा वालों का दालान, महफिलखाना, झालरा, मजार हजरत ख्वाजा जियाउद्दीन, बाबा फरीद का चिल्ला आदि शामिल हैं। ख्वाजा साहब 1191 ईस्वी में अजमेर आए और आनासागर के पास एक छोटी सी पहाड़ी पर सबसे पहले जिस स्थान पर ठहरे, उसे चिल्ले के नाम से जाना जाता है।
बड़े पीर की दरगाह
दरगाह के पास पहाड़ी पर स्थित यह दरगाह बगदाद के प्रसिद्ध सूफी संत अब्दुल कादर गिलानी पीरां पीर की परंपरा के संत सूंडे शाह के नाम से है। वे यहां पीरां पीर की दरगाह से एक ईंट लेकर आए थे और हर साल उनका उर्स मनाया करते थे। उन्होंने अपने शागिर्दों से कहा कि जब उनकी मृत्यु हो जाए तो ईंट के साथ ही उन्हें दफना दिया जाए। मराठा काल के दौरान 1770 में उनकी मौत हुई। अनेक साल बाद शेख मादू ने उनकी मजार पर दरगाह का निर्माण करवा दिया। बाद में टोंक के प्रथम नवाब पिंडारी अमीर खां के सेनापति जमशेद खां, असगर अली मुतवली व हाकिम इर्शाद अली ने भी यहां निर्माण करवाए।
मेयो कॉलेज
लॉर्ड मेयो के वायसराय काल में बने इस कॉलेज की गिनती देश के चंद प्रमुख शिक्षण केन्द्रों में की जाती है। इसे राजा-महाराजाओं के बच्चों की शिक्षा के लिए सन् 1875 में शुरू किया गया। पूर्व में इसे भारत का प्रथम श्रेणी कॉलेज कहा जाता था। आजादी के बाद इसे सार्वजनिक स्कूल का रूप दिया गया। यहां देशभर के अनेक प्रतिष्ठित व्यावसायिक घरानों व वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों आदि के बच्चे अध्ययनरत हैं। अनेक विदेशी छात्र भी यहां पढ़ाई कर रहे हैं। संगमरमर पत्थर से निर्मित भव्य भवन में एक संग्रहालय भी दर्शनीय है।
दरगाह मीरां सैयद हुसैन खिंग सवार
इतिहास में हुई सियासी उठापटक के गवाह रहे तारागढ़ की ऐतिहासिक महत्ता तो है ही, यहां स्थित दरगाह मीरां सैयद हुसैन खिंग सवार की वजह से आज इसका आध्यात्मिक महत्व भी काफी है।
क्लॉक टावर
इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के शासन की रजत जयंती के मौके पर रेलवे स्टेशन के सामने विक्टोरिया क्लॉक टावर निर्माण करवाया गया। विक्टोरिया के नाम से ही विक्टोरिया अस्पताल 1895 में बनवाया गया, जिसे आज हम जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के नाम से जानते हैं।
चामुंडा माता का मंदिर
यह भारत के 151 शक्तिपीठ में से एक है। फायसागर रोड पर चश्मे की गाल पहाड़ी के पश्चिमी ढ़लान पर यह मंदिर बना हुआ है। चामुंडा माता सम्राट पृथ्वीराज चाहौन की आराध्य देवी थी। यहां नवरात्रि के दौरान बली चढ़ाई जाती है। सावन शुक्ला अष्ठमी को यहां मेला भरता है।
आनासागर
इस कृत्रिम झील का निर्माण सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पितामह राजा अरणोराज उर्फ अन्नाजी ने 1135-5० में करवाया था। मुगल शासक शासक कलाप्रेमी शाहजहां ने 1637 में झील के किनारे संगमरमर की 4 बारहदरियां एवं एक खामखां का दरवाजा बनवा कर इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा दिए। शासक जहांगीर ने इसके किनारे एक आलीशान बाग बनवाया, जिसे कभी दौलन बाग और आज सुभाष उद्यान के नाम से जाना जाता है।
सोनीजी की नसियां
आगरा गेट के पास सोनीजी की नसियां के नाम से विख्यात इस भव्य भवन का निर्माण 1865 में सेठ मूलचंद नेमीचंद सोनी ने करवाया और सन् 1885 में इसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित करवाई। यह दो मंजिला इमारत सुंदर रंगों से पुती हुई है। पिछवाड़े में स्वर्णनगरी हॉल है, जिसकी दीवारें व छत कांच की चित्रकारी के काम से परिपूर्ण है। इसके आंगन में 26 मीटर ऊंचा मानस्तम्भ भी शोभायमान है। पीछे की ओर दो मंजिला भवन में जैन कल्याणक, तेरह द्वीप, सुमेरू पर्वत, भगवान की जन्म स्थली आयोध्या नगरी आदि की सुंदर रचना बेहद लुभावनी है। यह संपूर्ण रचना स्वर्णरचित वर्क से ढ़की है। इसे स्वर्ण नगरी भी कहा जाता है। इसे लाल मंदिर, सोने का मंदिर व कांच का मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
बादशाही बिल्डिंग
नया बाजार स्थित यह भवन मूलत: किसी हिंदू का था, जिसका विस्तार अकबर के जमाने में उनके मातहतों के आवास बना दिया गया। मराठा काल में यहां पर कचहरी थी।
आंतेड़ माता का मंदिर व छतरियां
आनासागर झील के उत्तर में वैशालीनगर इलाके में पहाड़ी पर आंतेड़ माता का मंदिर है। मंदिर की गाल के पास ही दिगम्बर जैन संतों की समाधियां व थड़े हैं। ये आठवीं शताब्दी में अजमेर जैन धर्म की प्रभावना के प्रमाण हैं। छतरियों पर आश्विन सुदि चतुर्थी को मेला भरता है।
अब्दुल्ला खां का मकबरा
रेलवे स्टेशन रोड पर अब्दुल्ला खां का मकबरा बना हुआ है। इसका निर्माण 1710 में कराया गया। मकबरे पर उच्च कोटि का सफेद पत्थर लगा हुआ है। वह मुगल बादशाह फर्रुखसियार के हाकिम हुसैन अली खां का पिता था। सामने ही रोड की दूसरी ओर उसकी पत्नी की मजार बनी हुई है।
तीर्थराज पुष्कर
अजमेर से 13 किलोमीटर दूर नाग पहाड़ की तलहटी में और समुद्र तल से 530 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पुष्कर राज में चार सौ से भी अधिक छोटे-बड़े देवालय हैं। यहां ब्रह्माजी का एक मात्र मंदिर है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह छोटा सा कस्बा करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केन्द्र है। शास्त्रों के अनुसार जगतपिता ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना के लिए यहां यज्ञ किया था। इसलिए इसे तीर्थगुरू भी कहा जाता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक यहां धार्मिक एवं पशु मेला लगता है, जिसमें देशभर के विभिन्न प्रांतों के पशुपालक तो जमा होते ही हैं, विदेश पर्यटक भी मेले का लुफ्त उठाने आ जाते हैं। अद्र्ध चंद्राकार आकृति में बनी पवित्र व पौराणिक झील पुष्कर का प्रमुख आकर्षण है। झील की उत्पत्ति के बारे में किंवदंती है कि ब्रह्माजी के हाथ से पुष्प गिरने से यहां जल प्रस्फुटित हुआ, उसी से यह झील बनी। मान्यता है कि झील में डुबकी लगाने से पापों का नाश होता है। सरोवर के किनारे चारों ओर 52 घाट बने हुए हैं। इनमें गऊ घाट, वराह व ब्रह्मा घाट ही सर्वाधिक पवित्र माने जाते हैं। संध्या के समय गऊ घाट पर तीर्थ गुरु पुष्कर की आरती की जाती है। झील में दीपदान भी किया जाता है। अधिकतर घाट राजा-महाराजाओं ने बनाए हैं।
श्रीरंगनाथ वेणी गोपाल मंदिर
इसे शेखावाटी मूल के हैदाराबाद निवासी सेठ पूरणमल ने 1844 ईस्वी में बनवाया था। मंदिर का गोपुरम, विग्रह, ध्वज आदि द्रविड़ शैली में निर्मित हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों व भवनों पर राजपूत शैली एवं शेखावाटी शैली में चित्रकला अंकित है। मंदिर में बंसी बजाते भगवान वेणी गोपाल की नयनाभिराम काले पत्थर की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। यहां वर्ष पर्यन्त विभिन्न उत्सव जैसे- ब्रह्मोत्सव, श्रावण झूलोत्सव आदि मनाए जाते हैं। यहां भगवान की सवारी के प्राचीन कलात्मक वाहनों का समृद्ध संग्रह मौजूद है।
श्री रमा बैकुण्ठ मंदिर
वैष्णव संप्रदाय की रामानुजाचार्य शाखा के इस मंदिर का निर्माण डीडवाना के सेठ मंगनीराम रामकुमार बांगड़ ने 1925 ईस्वी में करवाया था। इसे नया रंगजी का मंदिर कहा जाता है। दक्षिण भारतीय वास्तु शैली में बने इस मंदिर में गोपुरम, विग्रह विमान गरुड़ आदि दर्शनीय हैं। श्रावण मास में यहां झूला महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सजी झांकियों को देखने के लिए दूर-दूर से तीर्थ यात्री आते हैं।
बूढ़ा पुष्कर
पुराणों में उल्लेखित तीन पुष्करों ज्येष्ठ, मध्यम व कनिष्ठ में कनिष्ठ पुष्कर ही बूढ़ा पुष्कर है। इसका जीर्णोद्धार सन् दो हजार आठ में राज्य की वसुंधरा राजे सरकार के कार्यकाल में राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण न्यास के अध्यक्ष श्री औंकारसिंह लखावत ने करवाया।
सावित्री मंदिर
पुष्कर में रत्नागिरी पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर में बारे तथ्य यह बताया जाता है कि ब्रह्माजी द्वारा गायत्री को पत्नी बना कर यज्ञ करने से रुष्ठ सावित्री ने वहां मौजूद देवी-देवताओं को श्राप देने के बाद इस पहाड़ी पर आ कर बैठ गई, ताकि उन्हें यज्ञ के गाजे-बाजे की आवाज नहीं सुनाई दे। बताते हैं कि वे यहीं समा गईं। मौजूदा मंदिर का निर्माण मारवाड़ के राजा अजीत सिंह के पुरोहित ने 1687-1728 ईस्वी में करवाया था। मंदिर का विस्तार डीडवाना के बांगड़ घराने ने करवाया। सावित्री माता बंगालियों के लिए सुहाग की देवी मानी जाती है। ऐसा इस वजह से कि ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री का अंशवतार सत्यवान सावित्री को माना जाता है।
वराह मंदिर
वराह मंदिर विष्णु के वराह अवतार की कथा से जुड़ा हुआ है। इसमें उन्होंने वराह का रूप धारण कर पृथ्वी को अपने सींग पर उठा लिया था। हालांकि यह मंदिर सन् 1123-1150 में चौहान राजा अरणोराज उर्फ अन्नाजी ने बनवाया था। इसका जीर्णोद्धार महाराणा प्रताप के भाई सागर ने अकबर के शासनकाल में करवाया था। यह वही स्थान है जहां मुगलों व राठौड़ों के बीच युद्ध हुआ था। पहले मंदिर की ऊंचाई डेढ़ सौ फीट थी, जो अब मात्र बीस फीट रह गई है। जल झूलनी एकादशी पर यहां से लक्ष्मी-नारायण की सवारी निकाली जाती है।
भट गणेश मंदिर
बूढ़ा पुष्कर की ओर पुष्कर बाईपास पर चुंगी चौकी के निकट करीब ग्यारह सौ साल पुराना भट गणेश मंदिर है। यहां हर बुधवार को श्रद्धालु जुटते हैं। विशेष रूप से मारु जाति के बंजारा समाज की इसकी विशेष मान्यता है और वे विवाह का पहला निमंत्रण यहीं पर देते हैं। नवविवाहित जोड़े भी यहीं पर सबसे पहले आ कर मत्था टेकते हैं।
कल्याणी माता का मंदिर, अरांई
जिले के अरांई गांव में 1630 ईस्वी में बना कल्याणी माता का मंदिर है। यहां बारहवीं शताब्दी में जैन धर्म की लोकप्रियता के अवशेष मौजूद हैं।
ख्वाजा फकरुद्दीन की दरगाह सरवाड़
ख्वाजा गरीब नवाज के बड़े पुत्र ख्वाजा फकरुद्दीन चिश्ती की दरगाह जिले के सरवाड़ कस्बे में स्थित है। वहां हर साल उर्स मनाया जाता है, जिसमें अन्य जायरीन के अतिरिक्त विशेष रूप से अजमेर के खादिम जरूर शिरकत करते हैं।
वराह मंदिर, बघेरा
अजमेर से लगभग 80 किलोमीटर दूर बघेरा गांव में वराह तालाब पर स्थित वराह मंदिर पुरातात्वि और स्थापत्य की दृष्टि से काफी महत्पपूर्ण है। कहते हैं कि मंदिर में स्थित मूर्ति भीतर से पोली है और कोई वस्तु टकराने पर मूर्ति गूंजती है। मुस्लिम आक्रमणकारियों के हमले के दौरान इसे तालाब में छिपा दिया गया। आक्रमणकारियों ने मंदिर तोड़ दिया। बाद में मूर्ति को वापस बाहर निकाल कर नए मंदिर में उसकी प्रतिष्ठा की गई। हाल के कुछ वर्षों में यहां खुदाई में निकली प्राचीन जैन मूर्तियों से इस गांव का पुरातात्विक महत्व और बढ़ा है। जैन तीर्थङ्करों के अतिरिक्त यहां से विष्णु, शिव, गणेश आदि देवताओं की प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं, जिनमें से कुछ राजकीय संग्रहालय अजमेर में प्रदर्शित हैं। बघेरा का पुराना नाम व्याघ्ररक है।
निम्बार्क तीर्थ, सलेमाबाद
रूपनगढ़ के पास किशनगढ़ से लगभग 19 किलोमीटर दूर सलेमाबाद गांव में निम्बार्काचार्य संप्रदाय की पीठ ऐतिहासिक और आध्यात्मिक दृष्टि बहुत महत्वपूर्ण है। यहां भगवान सर्वेश्वर की मूर्ति पूजनीय है। वस्तुत: वैष्णव चतुर्सम्प्रदाय में श्री निम्बार्क सम्प्रदाय का अपना विशिष्ट स्थान है। माना जाता है कि न केवल वैष्णव सम्प्रदाय अपितु शैव सम्प्रदाय प्रवर्तक जगद्गुरु आदि श्री शंकराचार्य से भी यह पूर्ववर्ती है। इस सम्प्रदाय के आद्याचार्य श्री भगवन्निम्बार्काचार्य हैं। आपकी सम्प्रदाय परंपरा चौबीस अवतारों में श्री हंसावतार से शुरू होती है।
जवान सिंह की छतरी
जिले की किशनगढ़ पंचायत समिति के अंतर्गत शहर से करीब 42 किलोमीटर की दूरी पर खुण्डियास गांव के आगे स्थित करकेड़ी गांव में तत्कालीन किशनगढ़ महाराजा जवान सिंह की छतरी एवं किला है। करीब 10 फीट ऊंचे एक वर्गाकार प्लेटफार्म पर संगमरमर के पत्थरों से बनी छतरी में भीतर महाराजा जवान सिंह का चित्र है। इसमें एक ओर इनकी पत्नी एवं दूसरी ओर पौत्र की समाधि है। पूर्व में गांव किशनगढ़ रियासत में था, बाद में रूपनगढ़ के अंतर्गत शामिल किया गया। विक्रम संवत 1813-1824 में वीर सिंह रलावता व करकेड़ी के शासक बने। किशनगढ़ के महाराजा बहादुर सिंह ने करकेड़ी के किले को मजबूत करवाया। बाद में जवान सिंह यहां के शासक रहे। किशनगढ़ महाराजा मदनसिंह जी ने अपने चाचा महाराजा जवान सिंह जी के पुत्र यज्ञनारायण सिंह को गोद ले लिया। उन्होंने ही करकेड़ी में पिता महाराजा जवान सिंह की स्मृति में छतरियां बनवाईं।
रानीजी का कुंड, सरवाड़
सरवाड़ में तहसील दफ्तर के पास बना खूबसूरत रानीजी का कुंड पांच सौ साल पहले गौड़ राजपूतों के शासनकाल में किसी रानी ने बनवाया था। इसकी शिल्पकला बेहतरीन है। यह काफी गहरा है और सीढिय़ों के नीचे नहाने के लिए चौकियां बनी हुई हैं। यहां बरामदे में खूबसूरत झरोखे, मेहराबदार छज्जे व तोरणद्वार हैं। कुंड के पास ही दो छतरियां बनी हुई हैं, जिनमें से एक ऋषि दत्तात्रेय की बताई जाती है।
श्रीनगर का किला
इस गांव की स्थापना ईस्वी 1560 में मालपुरा से आए पंवार शार्दुलसिंह ने की। उसने यहां एक किला बनवाया। उसके वंशजों ने यहां 140 साल तक राज किया। दुर्ग बनने के 25 साल बाद वह किशनगढ़ रियासत में शामिल कर दिया गया। कर्नल डिक्सन ने यहां सिंचाई के लिए एक जलाशय बनवाया था।
काफी पुराने हैं ईसाइयों के चर्च
अजमेर में ईसाई धर्मावलम्बियों की उपस्थिति का इतिहास काफी पुराना है। सन् 1860 के आसपास ईसाई समुदाय की आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति अंग्रेज सेना के पुरोहित किया करते थे। बाद में आगरा के मिशनरी पुरोहित आया करते थे। सन् 1982 में फ्रांस के कुछ मिशनरी अजमेर आए। केसरगंज स्थित चर्च मदर मेरी को समर्पित है। इसका निर्माण कार्य 1896 में शुरू हुआ और यह 28 दिसम्बर 1898 को इसका उद्घाटन हुआ। प्राचीन धरोहर होने के नाते भारतीय पुरातत्त्व विभाग इसकी देखरेख करता है। मेयो लिंक रोड भट्टा स्थित चर्च की स्थापना 1913 में हुई। यह चर्च भी मदर मेरी के प्रति समर्पित है। मदार स्थित चर्च की स्थापना सन् 2006 में हुई। यह मदर मेरी की पवित्र माला होली रोसरी के प्रति समर्पित है। नसीराबाद रोड पर परबतपुरा गांव में स्थित चर्च की स्थापना सन् 1905 में हुई। यह संत जोसफ के प्रति समर्पित है। भवानीखेड़ा गांव में स्थित चर्च की स्थापना 1905 में हुई। यह संत मार्टिन को समर्पित है।
खोड़ा गणेशजी का मंदिर
अजमेर से किशनढ़ के बीच एक मार्ग खोड़ा गांव की ओर जाता है। यह मंदिर वहीं पर स्थित है और इसकी बहुत मान्यता है। अजमेर व किशनगढ़ सहित आसपास के लोग यहां अपनी मनौती पूरी होने पर सवा मनी आदि चढ़ाते हैं। कई श्रद्धालु नया वाहन खरीदने पर सबसे पहले यहां आ कर गणेश जी को धोक दिलवाते हैं।
गुरुद्वारे
अजमेर में सबसे पुराना गुरुद्वारा हाथीभाटा में 1890 में बनाया गया। गंज स्थित गुुरुद्वारा 1960 में बना। इसी प्रकार रामगंज, अलवरगेट, धोलाभाटा, शास्त्रीनगर, पहाडग़ंज, आशागंज व एचएमटी में गुरुद्वारे हैं।

-तेजवानी गिरधर
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