रविवार, 29 अप्रैल 2012

पायलट की फटकार के बाद भी नहीं सुधर रहे कांग्रेसी

जिले के सांसद एवं केन्द्रीय सूचना एवं प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री सचिन पायलट लाख नसीहत दें और फटकारें, मगर ऐसा लगता है कि अजमेर के कांग्रेसियों ने नहीं सुधरने की कसम सी खा रखी है। अजमेर के कांग्रेसियों की हरकतों से तल्ख हुए पायलट की फटकार सुन कर कांग्रेसी नेताओं को एक बार फिर रुसवाई का सामना करना पड़ा। इस बार पायलट के गुस्से का शिकार हुए नगर निगम के चुनिन्दा पार्षद।
मामला है शुक्रवार की रात माखुपुरा स्थित गेल इंडिया के गेस्ट हाउस का है, जहां पायलट के विश्राम का इन्तजाम था। यहां कुछ कांग्रेसी पार्षद वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एवं पार्षद मोहनलाल शर्मा के नेतृत्व में पायलट से मिलने पहुंचे। पार्षर्दों का शिष्टमंडल जेल में बंद आदतन अपराधी धर्मेंद्र चैधरी के मामले में पुलिस की लचर भूमिका की शिकायत और आरोपी चौधरी के विरुद्ध पासा के तहत कार्यवाही करवाने की मांग का ज्ञापन देने आया था। मोहनलाल शर्मा जिला पुलिस प्रशासन की लचर भूमिका पर अपने चिर परिचित अंदाज में चिल्ला-चिल्ला कर लम्बा भाषण देते हुए सत्ता पक्ष के कार्यकर्ताओं की अनदेखी पर शिकायती अंदाज में पायलट की ओर मुखातिब थे। पायलट को मोहनलाल शर्मा की भाषा शैली पसंद नहीं आई और उन्होंने तैश में आकर शर्मा फटकारते हुए संयमित भाषा में अपनी बात कहने की हिदायत दी। पायलट के इस व्यवहार से वहां सन्नाटा छा गया और सारे नेता बगलें झांकने लगे। बात मोहनलाल ने ही संभाली और कहा कि उनकी आदत ही तेज बोलने की है, या तो उनकी बात सुनी जाये या भविष्य में कांग्रेसियों को नहीं मिलने के लिये कह दिया जाए। पायलट ने मोहनलाल की नाराजगी को भांपते हुए एस.पी. से बात करने का आश्वासन देकर माहौल शांत किया। पार्षदों के शिष्ठमंडल में नौरत गुर्जर के अलावा कई पार्षद मोजूद थे।
दरअसल यह कोई पहला मामला नहीं है कि कांग्रेसी पायलट की नाराजगी का शिकार हुए हों। इससे पहले वैशाली नगर में दीप दर्शन सोसायटी के मकान तोडऩे के सरकारी आदेश के खिलाफ मेयर कमल बाकोलिया, नगर निगम में कांग्रेस के मेयर के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले कांग्रेस के ही पार्षद विजय नागौरा, मेयर द्वारा कांग्रेसियों को नजरअंदाज करने की बात पर अमोलक छाबड़ा और अभी हाल ही में अतिक्रमण तोडऩे पर यू.आई.टी. के विरुद्ध शहर कांग्रेस के पदाधिकारियों की जांच समिति गठित कर देने के मामले पर शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता पायलट की फटकार सुन चुके हैं। इसके अलावा पायलट कई मर्तबा सार्वजनिक मंचों से कांग्रेसियों को अनुशासन में रहने का सीख दे चुके हैं, मगर कांग्रेसी हैं कि सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे। इसका ताजा उदाहरण ये है कि कोटड़ा में प्राइवेट बस स्टैंंड के शुभारंभ के मौके पर एक ओर जहां पायलट मंच पर सभी कांग्रेसियों को एकजुट होने की नसीहत दे रहे थे तो दूसरी शहर कांग्रेस अध्यक्ष रलावता सहित कुछ अन्य प्रमुख नेता कार्यक्रम से इस कारण नदारद थे, क्यों कि उन्हें नजरअंदाज किया गया था। कार्यक्रम के लिए बांटे गए निमंत्रण कार्ड में प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के नाम की बजाय विशिष्ट अतिथि के रूप में पुलिस अधीक्षक राजेश मीणा का नाम देख कर सभी को आश्चर्य हुआ था। खैर, अजमेर कांग्रेसियों की आपस में लडऩे की रीत बड़ी पुरानी है। इसी कारण कांग्रेस के कई बड़े नेता अजमेर आने से भी कतराते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

जारी है आनासागर में डूबने का सिलसिला, कब चेतेगा प्रशासन?

 रामप्रसाद घाट
अजमेर की ऐतिहासिक झील में हाल ही एक और जिंदगी मौत में तब्दील हो गई। इस पर लील गया रामप्रसाद घाट शीर्षक से शहर के जागरूक नागरिक जनाब ऐतेजाद अहमद खान ने फेसबुक पर लिखा है कि जब से यह घाट बना है, अगर आप इसके आंकड़े निकलवा कर देखंगे तो पाएंगे, हर महीने कम से कम 2-3 लोगों की यह बलि लेता है, और ज्यादातर लोग बाहर के होते हैं और परदेस मैं अपनों को खो देते हैं। उनका कहना है कि इस सिलसिले में वे पूर्व सचिव अश्फाक हुसैन को भी कह चुके हैं कि हरिद्वार की तर्ज पर यहां भी चैन और सुरक्षा का इन्तजाम होना चहिये। चेतावनी का बोर्ड होना चहिये। पर अफसर बात सुन कर उस पर अमल कर दे तो भारत अमेरिका और कनाडा नहीं हो जाये।
उनकी बात वाकई सही है। एक और जागरूक नागरिक सोमश्वर शर्मा जी ने इसी पर प्रतिक्रिया करते हुए लिखा है आपदा प्रबंधन इचार्ज पूर्व पार्षद श्री अशोक मलिक इस ओर ध्यान दें। साथ ही अजमेरनामा से भी अपेक्षा की है कि इस बारे में कुछ किया जाए। यद्यपि अजमेरनामा के नाम से चल रहे ब्लाग पर पूर्व में इस बारे में लिखा जा चुका है, मगर इन महानुभावों से प्रेरणा ले कर एक बार और इस मसले पर चर्चा कर लेते हैं।
हालांकि पहले बारादरी से गिर कर डूबने के वाकये होते थे, मगर वे अमूमन आत्महत्या के हुआ करते थे। डूबने की घटनाएं रामप्रसाद घाट बनने के बाद बढ़ गई हैं। यह सही है कि रामप्रसाद घाट यूआईटी की एक उपलब्धि है और इससे जायरीन को नहाने में काफी सुविधा होती है, लेकिन वहां सुरक्षा के इंतजाम आज तक दुरुस्त नहीं किए गए हैं। दरअसल घाट बनाए जाने के दौरान ही सुरक्षा के इंतजाम साथ-साथ किए जाने चाहिए थे।
इस बारे में पहले पूर्व नगर निगम महापौर धर्मेन्द्र गहलोत स्वीकार कर चुके हैं कि सरकार की ओर से सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। भ्रमण के लिए मोटर बोट जरूर हैं, जिनका जरूरत पडऩे पर उपयोग किया जाता है। कितने अफसोस की बात है कि जिला प्रशासन ने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। इसकी एक मात्र वजह ये है कि आनासागर किसी एक विभाग के अधीन नहीं आता। हक जताने के लिए जरूर नगर परिषद, सिंचाई विभाग और मत्स्य पालन विभाग आगे आते हैं, लेकिन जब कोई दुर्घटना हो जाती है तो सभी दूर हट जाते हैं। ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि जिला प्रशासन पहल कर जिम्मेदारी तय करे। या तो अलग से कोई सेल स्थापित करे या फिर इन्हीं तीनों विभागों में से किसी एक पर जिम्मेदारी डाले। वैसे तो आनासागर के चारों ओर खतरा ही खतरा है, लेकिन ज्यादातर घटनाएं रामप्रसाद घाट पर हो रही हैं। दरअसल घाट बनाने वक्त प्रशासन ने यह सोचा ही नहीं कि यदि कोई फिसला तो उसे बचाने के लिए क्या इंतजाम होने चाहिए। जब-जब भी कोई मौत होती है तो सुरक्षा के इंतजाम की चर्चा होती जरूर है, लेकिन कोई कदम नहीं उठाया जाता। प्रशासन को इस पर गंभीरता से विचार कर तुरंत इंतजाम करने चाहिए। घाट व बारहदरी पर स्थाई रूप से तैराकों की तैनाती करने की सख्त जरूरत है, ताकि यदि कोई आत्महत्या की कोशिश करे या फिर कोई फिसल कर डूबने लगे तो वे उसे तुरंत बचाने की कोशिश कर सकें। बचाव के लिए हर वक्त बोट की भी व्यवस्था होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त लाइफ सेविंग ट्यूब व जैकेट भी रखे जाने चाहिए। घाट के आसपास दलदल, काई और गंदगी की नियमित सफाई के इंतजाम भी किए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त रात्रि गश्त और पर्याप्त रोशनी की भी व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रशासन को चाहिए कि वह स्थिति की गंभीरता को समझे और शीघ्र ही सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करे। हालांकि अजमेर के जैसे हालात हैं, जैसा सुस्त प्रशासन है, जैसे सोये हुए लोग हैं और जैसे लापरवाह नेता हैं, पहले की तरह कुछ दिन चर्चा होगी और नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात का होने वाला है।
-तेजवानी गिरधर
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रलावता ने हटाया विशेषण, मगर उनके भाई अब भी राजा


शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता वाकई ईमानदार हैं। मीडिया द्वारा विवाद किए जाने पर और बाद में फागुन महोत्सव में बाकायदा राजा साहब पर एक रोचक झलकी दिखाए जाने पर उसे गंभीरता से लिया। हाल ही जब उनके परिवार में एक शादी हुई तो उन्होंने निमंत्रण पर अपने नाम के आगे से राजा शब्द हटा लिया।
दरअसल पिछले दिनों जब एक पारिवारिक शादी कार्ड में अपने नाम के आगे राजा शब्द का विशेषण लगाया तो बड़ी चर्चा हुई। होनी ही थी। लोकतांत्रिक देश में अगर अब भी कोई अपने आपको राजा कहलाता है तो अटपटा लगेगा ही। यूं अगर कोई अपने नाम के आगे राजा शब्द लगाता है, तो कौन ध्यान देता है, मगर चूंकि वे उस पार्टी के शहर अध्यक्ष हैं, जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में राजा, महाराजा, राजकुमार, कुंवर शब्द से परहेज रखने का फरमान जारी किया था, इस कारण उन्हें लगा कि सार्वजनिक जीवन की जिम्मेदारी का पालन करते हुए राजा शब्द हटा लेना चाहिए। हालांकि शब्द हटाए जाने से वे कोई राजा नहीं रह जाएंगे, ऐसा है नहीं। वे अब भी राजा हैं। उन्हें उनके परिचित प्यार से राजा शब्द से ही संबोधित करते हैं। यूं राजा के नाम से पूर्व विधायक डा. राजकुमार जयपाल को भी संबोधित किया जाता रहा है, मगर ऐसा उनका नाम राजकुमार होने के कारण है।
बहरहाल, मुद्दा ये नहीं है। असल रोचक बात ये है कि ताजा शादी कार्ड में जहां राजा साहब के नाम के आगे से राजा शब्द गायब है, वहीं ठीक नीचे उनके भाई गजेन्द्र सिंह रलावता के नाम के आगे राजा शब्द लगा हुआ है। जिसने भी कार्ड देखा, मुस्कराए बिना नहीं रह सका। रलावता भले ही अपने नाम के आगे से राजा शब्द हटा लें, मगर जब उनके भाई राजा हैं तो स्वाभाविक रूप से वे भी राजा ही हैं। गजेन्द्र बन्ना तो फिर भी सरकारी महकमे में हैं, अगर वे राजा हैं तो सक्रिय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले महेन्द्र बन्ना के राजा शब्द पर ऐतराज नहीं करना चाहिए था। आप भी सोचेंगे कि इतना बड़ा मुद्दा तो है नहीं कि ये आइटम बनाया जाए, मगर आप जानते हैं कि राजाओं के तो छोटे-मोटे किस्से भी सुर्खियां पाते हैं। रलावता भी राजा हैं, इस कारण इतनी चर्चा है, वरना अपुन ठहरे छोटे आदमी, हमारी तो कोई चर्चा नहीं करता।
लगे हाथ मसले का एक पहलु भी आपकी नजर पेश है। राजस्थान क्षत्रिय महासभा के महासचिव व राजपूत स्टूडेंट यूथ ऑर्गेनाइजेशन के प्रदेशाध्यक्ष कुंवर दशरथ सिंह सकराय का तर्क है कि राजपूत समाज में ठाकुर, कुंवर, कुंवरानी, बाईसा जैसे शब्दों से उद्बोधन करना सांस्कृतिक परम्परा है, जिसका पट्टा राजूपत समाज को किसी राजनीतिक या सरकार से लेने की आवश्यकता नहीं है। ये हमारी सांस्कृतिक विरासत है। ठीक उसी प्रकार जैसे मुस्लिम समाज में नवाब, बेगम, शहजादी, शहजादा शब्दों का प्रचलन आम बोलचाल में संस्कृति का स्वरूप लिए हुए हैं। बात में दम तो है भाई। सकराय जी के इस तर्क के बाद तो ये आइटम ही बेमानी हो जाता है।
तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

दरगाह विकास योजना पर सफेद झूठ बोल गए रघु शर्मा?

अजमेर फोरम की ओर से इंडोर स्टेडियम में आयोजित नगर चौपाल में राज्य सरकार के मुख्य सचेतक डॉ. रघु शर्मा आगामी आठ सौवें उर्स के मद्देनजर दरगाह विकास के लिए तकरीबन तीन सौ करोड़ रुपए की प्रस्तावित और फिलहाल ठंडे बस्ते में पड़ी योजना पर सफेद झूठ बोल गए। उनका कहना था कि इस प्रकार की कोई योजना थी ही नहीं और मीडिया इस प्रकार का भ्रम नहीं फैलाना चाहिए। इतना ही नहीं, उन्होंने यह सवाल ही खड़ा कर दिया कि अगर ऐसी कोई योजना थी तो उसके कागज दिखाइये, वे हवाई बात में यकीन नहीं रखते। दुर्भाग्य से मौके पर उनको कोई ठोस जवाब नहीं दे पाया, हालांकि वहां शहर के सभी प्रमुख राजनीतिज्ञ व पत्रकार मौजूद थे। अलबत्ता न्यास के पूर्व सदर धर्मेश जैन जरूर अड़े और बताया कि दरगाह विकास योजना जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन के तहत बनाई गई थी और उसका बाकायदा पीडीकोर ने सर्वे भी किया था। विवाद बढ़ता देख इस चर्चा को बीच में ही छोड़ दिया गया, मगर इससे अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं, जिन पर चर्चा करना प्रासंगिक होगा।
अव्वल तो यदि इस प्रकार की कोई योजना नहीं थी तो उस पर बाकायदा जयपुर में मुख्य सचिव की अध्यक्षता में प्रशासनिक बैठक क्यों हुई? उसके बाद प्रदेश के गृह व स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल ने बाकायदा इसी योजना पर चर्चा के लिए अजमेर में प्रशासन, जनप्रतिनिधियों व दरगाह से जुड़े अंजुमन पदाधिकारियों की बैठक क्यों ली? यदि ऐसी कोई योजना नहीं थी तो उसके तहत दरगाह के चारों ओर गलियारा बनाने व मकान अधिग्रहित करने के मसले पर भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व अंजुमन के तत्कालीन सदर सैयद गुलाम किबरिया के बीच नौंकझोंक क्यों हुई? बैठक से पूर्व प्रशासनिक तैयारी नहीं होने पर धारीवाल ने नाराजगी क्यों जाहिर की और संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा से यह क्यों कहा कि जल्द से जल्द मास्टर प्लान बना कर भेजें, वरना केन्द्र सरकार से योजना के तहत धन राशि नहीं ली जा सकेगी? कैसी विडंबना है कि सरकार का एक जिम्मेदार मंत्री तो केवल इसी योजना पर विचार करने के लिए अजमेर आता है और मुख्य सचेतक कहता है कि इस प्रकार की कोई योजना थी ही नहीं? सवाल ये भी है कि अगर योजना थी ही नहीं तो अजमेर फोरम सहित अन्य पक्षों ने लगातार योजना राशि समय पर मंजूर करने पर जोर क्यों डाला? यदि योजना थी ही नहीं तो इस सिलसिले में राज्य सरकार ने निर्देश क्यों दिए गए कि समयाभाव की वजह से पहले चरण में अस्सी करोड़ के प्रस्ताव बना कर भेजे जाएं? प्रशासन ने क्या हवा में ही प्रस्ताव बना कर भेज दिए? यह सही है कि योजना का प्रारूप बनाते वक्त पीडीकोर ने स्थानीय जिला प्रशासन से कोई राय मशविरा नहीं किया था, इसका खुलासा अजमेर फोरम की एक बैठक में संभागीय आयुक्त शर्मा ने किया था और यही कहा था कि अभी राशि मंजूर हो कर नहीं आई है।
इन सारे सवालों से एक ही जवाब आता है कि योजना प्रस्तावित तो थी, उसका सर्वे पीडीकोर ने किया भी था और उसका प्रारूप एक बड़े पुलिंदे के रूप में मौजूद भी है, मगर उसकी वित्तीय स्वीकृति के लिए उचित कागजात समय पर केन्द्र सरकार को नहीं भेजे जा सके। इसके लिए बेशक राज्य सरकार जिम्मेदार है कि उसने कोई रुचि ली ही नहीं। और इसकी एक मात्र वजह ये है कि अजमेर में एक भी नेता ऐसा नहीं है जो सरकार पर दबाव बना कर अजमेर का विकास करवा सके। इसका इजहार खुद रघु शर्मा ने चौपाल में किया था, यह कह कर कि मजबूत राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में अजमेर पिछड़ा है। अजमेर के लोग तो यही सोच रहे थे कि अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट, मुख्य सचेतक रघु शर्मा व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ इस योजना के लिए ठीक से पैरवी करेंगे, मगर रघु शर्मा के कथन से तो यही लगता है कि किसी ने रुचि ली ही नहीं। जहां तक रघु शर्मा का सवाल है तो जब उन्हें पता ही नहीं है कि इस प्रकार की योजना थी तो वे रुचि किसमें लेते। रघु शर्मा के दावे पर गौर करें तो यही लगता है कि उन्हें वाकई पता ही नहीं है कि इस प्रकार की योजना पर काम हो रहा था। अगर ऐसा है तो यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है कि अजमेर जिले के एक विधायक और बाद में बने मुख्य सचेतक को अपने विधानसभा क्षेत्र केकड़ी में बनाए जाने वाले हास्पीटल की तो बहुत चिंता है, मगर अजमेर जिला मुख्यालय पर अमल में लाई जाने वाली विकास योजना से कोई सरोकार ही नहीं है। जब वे मुख्य सचेतक बने तो अजमेर जिले की जनता में एक आशा जगी थी कि वे जिले के लिए कुछ करेंगे, क्योंकि वे प्रदेश में खासी धाक रखते हैं, मगर उनके इस रवैये से तो यही लगता है कि उन्हें ज्यादा फिक्र केवल अपने विधानसभा क्षेत्र की है ताकि अगली बार फिर विधायक बन सकें। कम से कम उनकी तो रुचि नहीं है कि अजमेर जिले के कद्दावर नेता बनें। और ही वजह रही कि चौपाल में उठाए गए कई मसलों पर वे बोले के उनके नहीं, बल्कि सचिन पायलट के नेतृत्व में एक जुट हों। कदाचित उन्हें इस बात का भय है कि यदि जिले की नेतागिरी की तो सचिन नाराज न हो जाएं। ऐसे में बार अध्यक्ष राजेश टंडन की उस टिप्पणी पर उनका भिनकना स्वाभाविक है कि रुठ कर कोप भवन में बैठने की फितरत का इस्तेमाल अजमेर के विकास के लिए भी कीजिए। शर्मा ने तो साफ कह ही दिया कि वे रुठेंगे तो अपने केकड़ी में बनने वाले हास्पीटल के ड्रीम प्रोजेक्त के लिए। उसमें कोई रोड़ा डालेगा तो उसे भुगतना होगा, चाहे वह कोई अधिकारी हो या मंत्री।
आखिर में एक बार शर्मा की बात मान भी ली जाए कि दरगाह विकास की कोई योजना थी ही नहीं थी और यह केवल जुबानी जमा खर्च था, तो भी सरकार की कार्यशैली पर तो सवाल उठता ही है कि वह फोकट ही अजमेर वासियों को सब्जबाग दिखा रही थी।
इस न्यूज आइटम के साथ दी गई फोटो उस बैठक ही है, जिसकी सदारत अजमेर में स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल ने की थी।

-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 21 अप्रैल 2012

ये राठौड़ फैन क्लब नहीं, लाला बन्ना फैन क्लब है

पूर्व मंत्री व मौजूदा भाजपा विधायक राजेन्द्र सिंह राठौड़ के लिए यह सुखद है कि भाजपा के साथ-साथ उनके अपने समर्थक भी उनकी गिरफ्तारी का विरोध कर रहे हैं। अजमेर में भी उनके समर्थन में रातोंरात गठित फैन क्लब मैदान में उतर आया है। राठौड़ फैन क्लब राजस्थान की अजमेर इकाई की ओर से उनके 58वें जन्मदिवस पर 101 यूनिट रक्तदान किया गया। जाहिर तौर पर इस अवसर पर क्लब के सदस्यों ने राजेन्द्र सिंह राठौड़ की गिरफ्तारी को अनुचित बताते हुए इसका विरोध किया। साथ ही संकल्प लिया कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा जाएगा।
श्रीनगर रोड स्थित होटल दाता इन में हुए रक्तदान शिविर में रक्तदान करने वाले युवाओं में जबरदस्त उत्साह देखा गया। ऐसे में यह जिज्ञासा स्वाभाविक सी है कि यकायक राठौड़ के इतने सारे पक्के समर्थक कहां से आ गए, जबकि उनका न तो यह विधानसभा क्षेत्र है और न ही कर्मक्षेत्र। जानकार बताते हैं कि असल में इनमें से अधिसंख्य समर्थक मूलत: क्लब के संरक्षक व नगर परिषद के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना के हैं, जो कि उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर चलते हैं। राठौड़ से उनका कोई सीधा वास्ता नहीं है, वे तो सीधे-सीधे लाला बन्ना से जुड़े हुए हैं। शिविर के दौरान मौजूद युवाओं में अधिसंख्य वे ही थे, जो कि आमतौर पर लाला बन्ना के साथ नजर आया करते हैं। राठौड़ साहब को लाला बन्ना का शुक्र अदा करना चाहिए कि उन्होंने अपने निजी समर्थकों को एकत्रित कर राठौड़ का समर्थक दर्शा दिया।
राठौड़ के समर्थन में आयोजित रक्तदान शिविर से एक बारगी फिर स्थापित हो गया है कि लाला बन्ना भले ही वर्तमान में किसी बहुत महत्वपूर्ण पद पर न हों, मगर उनके अपने स्वयं के दोस्त और समर्थकों की एक लंबी फौज है। माना कि वे भाजपा के प्लेटफार्म पर खड़े हैं, मगर उनका असली वजूद अपना खुद का है, जो कि उन्होंने छात्र जीवन से लेकर अब तक अर्जित किया है। बेशक ताजा शिविर राठौड़ के समर्थन में आयोजित किया गया, मगर राजनीतिक के जानकारों का मानना है कि इससे यह संदेश जरूर गया है कि लाल बन्ना सक्रिय राजनीति में हाथ जरूर आजमाएंगे। पिछली बार तो उनका अजमेर उत्तर से टिकट पक्का ही हो गया था। प्रो. वासुदेव देवनानी का टिकट कट ही गया था, मगर नागपुर का देवरा ढोक कर आने पर लाला बन्ना का पक्का टिकट धरा रह गया। ताजा शिविर को आगामी विधानसभा चुनाव से जोड़ कर देखना प्री मैच्योर डिलीवरी के रूप में ही देखा जाएगा, मगर इससे यह संदेश जरूर जाता है कि वे फिर दावेदारी करेंगे। जानकार तो यहां तक बताते हैं कि उनकी तैयारी पूरी है। भले ही अभी इतना दूर की सोचना लोगों को नहीं पचे, मगर चुनावी राजनीति का जोड़-बाकी करने वाले लाला बन्ना फैक्टर भी भी काउंट करके चल रहे हैं।
चलते-चलते एक बात और। इस शिविर से एक जिज्ञासा यह भी होती है कि आखिर क्या वजह है कि सशक्त विपक्षी दल भाजपा के होते हुए आखिर क्यों राठौड़ के प्रशंसकों को अलग से मुहिम चलानी पड़ रही है। जरूर जयपुर में कोई गड़बड़ है। बताते हैं कि पार्टी का एक धड़ा राठौड़ के मुद्दे को पार्टी का नंबर वन मुद्दा बनाने से असहमत है। इसी के चलते अलग बैनर पर मुहिम चलाई जा रही है।
-तेजवानी गिरधर
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...लो फिर बर्फ से निकल आए एडवोकेट राजेश टंडन

अपने हरफनमौला व्यक्तित्व की बदोलत सुपरिचित वरिष्ठ कांग्रेसी नेता राजेश टंडन ने तीसरी बार अजमेर जिला बार एसोसिएशन का अध्यक्ष बन कर साबित कर दिया है कि अगर आदमी की जड़ जिंदा हो तो मौका पा कर वह फिर से हरा-भरा हो जाता है।
असल में टंडन पिछले काफी दिन से बर्फ में लगे हुए थे। कहलाते जरूर जाने-माने कांग्रेसी थे, मगर कांग्रेस में उनकी वखत कम सी हो गई थी। कम इसलिए कि उन्हें इस बार कांगे्रस सरकार के रहते ही कोई ढंग का पद नहीं मिल पाया। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस बार जिस तरह से अपने पिटारे का मुंह संकड़ा कर रखा है, उसके चलते कई नेता अपने घर तक ही कैद हो कर रह गए हैं। नरेन शहाणी भगत को भी तब जा कर न्यास अध्यक्ष पद मिला, जब कि लगभग हताश हो चुके थे। जहां तक संगठन का सवाल है, इन दिनों जिस तरह की कांग्रेस अजमेर में पैदा हुई है, उसमें टंडन सहित कई दिग्गज हाशिये पर चुपचाप बैठे हैं। उनका कोई जोर नहीं चल रहा। संपर्क उनके जरूर जयपुर-दिल्ली तक हैं, मगर सचिन पायलट के कारण कोई भी बड़ा नेता अजमेर का नाम आते ही तुरंत हाथ खींच लेता है। टंडन ठहरे उखाड़-पछाड़ वाले नेता, सो उन्हें यह स्थिति बेहद दुखी किए हुए थी। कांग्रेस से उम्मीद खत्म सी हो गई थी और अगली सरकार किसकी होगी, कुछ पता नहीं, सो आखिर उन्हें यही बेहतर लगा कि अपने पेशे की जमात में ही फिर से अपना कद कायम करें। इसी चक्कर में बार अध्यक्ष के चुनाव में उतर गए। उतर तो गए, मगर इस बार राह आसान नहीं थी। आसान की छोडि़ए, यूं कहिये कि प्रतिष्ठा दाव पर ही लग गई थी। एक तरफ पुराने दुश्मन और दूसरी ओर संघ के नेता भी आ डटे, फिश प्लेटें गायब करने को। जोर तो बहुत आया, मगर अपने पुराने रसूखात और मिजाज के दम पर नैया पार लगा ही ली।
कुल मिला कर अब जनाब फिर शहर की मुख्य धारा में आ गए हैं और वह भी दमदार तरीके से। दिलचस्प बात ये रही कि बार अध्यक्ष बनते ही सीधे जिला व सत्र न्यायाधीश से भिड़ंत की नौबत आ गई। इसे कहते हैं सिर मुंडाते ही ओल गिरना। खैर, इसे भी उन्होंने बड़ी दिलेरी और चतुराई से निभा लिया। कुल जमा बात ये है कि उन्होंने एक कविता की इन पंक्तियों को साकार कर दिया है कि जड़ अगर जिंदा रही तो फिर हरा हो जाऊंगा। उम्मीद है कि उनकी यह पारी कामयाब रहेगी। वैसे भी शहर के गिने-चुने बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों में उनकी गिनती होती है, सो उम्मीदें कुछ ज्यादा ही हैं।
आइये, जरा उनके व्यक्तिगत जीवन में भी झांक कर देख लें-
उनका जन्म 3 अक्टूबर 1951 को स्वर्गीय श्री प्रेम नारायण टंडन के घर हुआ। उन्होंने बी.ए. व एल.एल.बी. तक शिक्षा अर्जित की। वे 1968 से लगातार कांग्रेस जुड़े हुए हैं। वे 1972 में श्रमजीवी कॉलेज छात्र संघ व 1974 में लॉ एसोसिएशन, राजकीय महाविद्यालय के अध्यक्ष, 1977 से 1986 तक जिला युवक कांग्रेस के अध्यक्ष व 1987 से 1995 तक जिला कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता रहे। 1978 में भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी को जेल भेजे जाने पर किए गए जेल भरो आंदोलन में भाग ले चुके हैं। वे 1998 से 2003 कई सरकारी समितियों के सदस्य रहे हैं। इसके अतिरिक्त सन् 1997 से लगातार अजमेर उत्तर से प्रदेश कांग्रेस कमेटी के निर्वाचित सदस्य रहे। वे 1997 से 2007 तक प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव भी रहे हैं। उन्होंने 8 नवंबर 1975 से वकालत करते हुए विशेष उपलब्धियां हासिल की हैं। उन्होंने पांच साल तक प्रदेश के खनन विभाग के लिए विधि सलाहकार के रूप में काम किया है और पर्यावरण संबंधी मसलों पर विशेष जानकारी रखते हैं। वे अजमेर संभागीय आयुक्त व गुंडा एंड आम्र्स एक्ट के लिए सरकारी वकील रहे हैं। उन्होंने एससी एसटी कोर्ट और टाडा कोर्ट में सीबीआई के विशेष लोक अभियोजक के रूप में भी काम किया है। राजस्व मंडल व आबकारी महकमे में भी बतौर सरकारी वकील और नगर परिषद में विधि सलाहकार के रूप में काम किया है। वे एक लंबे अरसे से नोटेरी पब्लिक भी हैं।
वे पंडित जवाहर लाल नेहरू की ओर से स्थापित फ्रेंड्स सोवियत यूनियन के जिला अध्यक्ष, इंडो-चाइना सोसायटी की राजस्थान इकाई के महासचिव, राजस्थान स्टेट रेसलिंग एसोसिएशन के उपाध्यक्ष, अजमेर जिला रेसलिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष, कला घर सोसायटी के सचिव और दूरभाष सलाहकार समिति के सदस्य रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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त्रिपाठी के बदोलत अजमेर सूचना केन्द्र राज्य में पुन: प्रथम

सूचना व जनसंपर्क विभाग के सहायक निदेशक प्यारे मोहन त्रिपाठी की कार्यशैली की बदोलत सूचना एवं जन सम्पर्क कार्यालय तथा सूचना केन्द्र अजमेर प्रचार-प्रसार एवं अन्य गतिविधियों के आयोजन के लिए हाल ही समाप्त हुए वित्तीय वर्ष में पुन: प्रथम स्थान पर रहा है। यह कार्यालय गत वर्षो में भी लक्ष्य से अधिक उपलब्धियां अर्जित कर लगातार प्रथम रहा था। सहायक निदेशक प्यारे मोहन त्रिपाठी ने बताया कि इस कार्यालय द्वारा अपे्रल 2011 से मार्च 2012 तक राज्य में सर्वाधिक 3989 प्रेसनोट जारी किये जो लक्ष्य से कहीं अधिक है । इसके अतिरिक्त 96 फीचर, 24 सफलता की कहानियां भी जारी की गई । इस वर्ष में राज्य सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं व उपलब्धियों का लगभग 14 हजार साहित्य निशुल्क वितरित किया गया। उर्स मेला व अजमेर जिला दिग्दर्शन पुस्तिका का प्रकाशन किया गया। सूचना केन्द्र में 23 विभिन्न विकास प्रदर्शनी आयोजित की गई और 72 सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन विभिन्न स्तर से किया गया। 50 साहित्यक शैक्षिक विकासात्मक गोष्ठियां भी आयोजित की गईं। इस अवधि में राज्य के अन्य संभागीय मुख्यालय जिनमें सूचना एवं जन सम्पर्क कार्यालय बीकानेर द्वारा 2773, जयपुर द्वारा 840, जोधपुर में 2061, कोटा 1414, उदयपुर ने 2220 तथा भरतपुर ने 1862 पे्रसनोट जारी किये। जिला कलक्टर श्रीमती मंजू राजपाल ने सूचना एवं जन सम्पर्क कार्यालय अजमेर के अग्रणी रहने पर प्रशंसा व्यक्त करते हुए विश्वास जताया कि नये वर्ष में भी इसी गति के साथ कार्य करके यह कार्यालय अपना स्थान बरकरार रखेगा। यहां विशेष उल्लेखनीय है कि पत्रकारिता से अपना कैरियर शुरू कर वर्तमान में सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के सहायक निदेशक पद तक पहुंचे त्रिपाठी ने श्रेष्ठ जनसंपर्क अधिकारी के रूप में पूरे प्रदेश में नाम कमाया है। वे अपने मधुर व्यवहार व सहयोगी प्रवृत्ति के कारण लोकप्रिय हैं और योग्यता के दम पर हर सरकार में प्रभावशाली अधिकारी के रूप में जाने जाते रहे हैं। उनका जन्म 1 जनवरी, 1956 को हुआ। उन्होंने बी.कॉम., एम. कॉम.(वित्तीय प्रबंध) और एम.ए. हिंदी की डिग्रियां हासिल की हैं। उन्होंने सरकारी सेवा सहायक जनसंपर्क अधिकारी के रूप में शुरू की और चूरू, बीकानेर, भीलवाड़ा व अजमेर में जनसंपर्क अधिकारी के रूप में काम किया। इसी प्रकार राजस्थान आवासन मंडल, जयपुर के जनसंपर्क अधिकारी भी रहे। अक्टूबर 1996 से अक्टूबर 1997 तक महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर के उप कुल सचिव भी रहे। वे इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर और कोटा खुला विश्वविद्यालय, कोटा के काउंसलर भी रहे हैं। वे उपराष्ट्रपति स्व. श्री भैरोंसिंह शेखावत के हाथों 15 सितंबर, 2003 को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित हो चुके हैं। इसी प्रकार 15 अगस्त, 1996 को उन्हें राज्य स्तर पर सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त 30 मई, 1999 को यूनेस्को फेडरेशन अवार्ड और 2000 में प्रतिष्ठित माणक अवार्ड भी हासिल कर चुके हैं। वे चार बार जिला स्तर पर भी सम्मानित हुए हंै और दो बार पुष्कर व उर्स मेले में राज्य स्तर पर राज्यस्तरीय प्रदर्शनी पुरस्कार हासिल कर चुके हैं। वे अनेक बार दूरदर्शन और आकाशवाणी में परिचर्चाओं में भाग ले चुके हैं और उनके एक हजार से भी ज्यादा लेख-फीचर देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

अनेक ऐतिहासिक धरोहरें समेटे है अजमेर का आंचल

विश्व धरोहर दिवस, 18 अप्रैल पर विशेष
-तेजवानी गिरधर-
अरावली पर्वत की उपत्यकाओं में बसी इस ऐतिहासिक नगरी की धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से विशिष्ट पहचान है। जगतपिता ब्रह्मा की यज्ञ स्थली तीर्थराज पुष्कर और महान सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती को अपने आंचल में समेटे इस नगरी को पूरे विश्व में सांप्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल के रूप में जाना जाता है। विश्व धरोहर दिवस, 18 अप्रैल के मौके पर पेश है राजनीति व प्रशानिक हलचल से हट कर अजमेर की कुछ खास धरोहरों के बारे में फौरी जानकारी:-
तारागढ़
समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई पर पहाड़ी पर करीब अस्सी एकड़ जमीन पर बना यह किला राजा अजयराज चौहान द्वितीय द्वारा 1033 ईस्वी बनवाया गया। बीठली पहाड़ी पर बना होने के कारण इसे गढ़ बीठली के नाम से भी जाना जाता है। बीठली को कोकिला पहाड़ी भी कहा जाता है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि शाहजहां के काल में अजमेर के समीप राजगढ़ के वि_ल गौड़ में इसमें कुछ पविर्तन करवाए और इसका नाम गढ़ वि_ली रख दिया। यह भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग माना जाता है। इसे पहले अजयमेरू दुर्ग कहा जाता था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने इस पर अधिकार जमा लिया था और उन्होंने इसका नाम अपनी पत्नी तारा के नाम पर कर दिया। यह अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का साक्षी है। सन् 1033 से 1818 तक इस दुर्ग ने सौ से अधिक युद्ध देखे। चौहानों के बाद अफगानों, मुगलों, राजपूतों, मराठों और अंग्रेजों के बीच इस दुर्ग को अपने-अपने अधिकार में रखने के लिए कई छोटे-बड़े युद्ध हुए। उन्होंने अपने-अपने समय में इसमें कई सुरक्षा परिवर्तन किया। औरंगजेब व दारा शिकोह के बीच दौराई में हुए युद्ध के दौरान 1659 में यह काफी क्षतिग्रस्त हुआ। सन् 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों ने इसमें काफी फेरबदल किया, जिसके परिणामस्वरूप अब टूटी-फूटी बुर्जों, मीरां साहब की दरगाह आदि के अलावा यहां कुछ भी बाकी नहीं बचा है।
अढ़ाई दिन का झौंपड़ा
दरगाह के सिर्फ एक किलोमीटर फासले पर स्थित अढ़ाई दिन का झौंपड़ा मूलत: एक संस्कृत विद्यालय, सरस्वती कंठाभरण था। अजमेर के पूर्ववर्ती राजा अरणोराज के उत्तराधिकारी विग्रहराज तृतीय ने इसका निर्माण करवाया था। सन् 1192 में मोहम्मद गौरी ने इसे गिराकर कर मात्र ढ़ाई दिन में बनवा दिया। बाद में कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे मस्जिद का रूप दे दिया। मराठा काल में यहां पंजाबशाह बाबा का ढ़ाई दिन का उर्स भी लगता था। कदाचित इन दोनों कारणो से इसे अढ़ाई दिन का झौंपड़ा कहा जाता है। दरगाह शरीफ से कुछ ही दूरी पर स्थित यह इमारत हिंदू-मुस्लिम स्थापत्य कला का नायाब नमूना है। सात मेहराबों से युक्त सत्तर स्तम्भों पर खड़े इस झौंपड़े की बारीक कारीगरी बेजोड़ है। छत पर भी बेहतरीन कारीगरी है। यहां बनी दीर्घाओं में खंडित मूर्तियां और मंदिर के अवशेष रखे हैं।
अकबर का किला
अजमेर शहर के केन्द्र में नया बाजार के पास स्थित इस किले का निर्माण अकबर ने 1571 से 1574 ईस्वी में राजपूतों से होने वाले युद्धों का संचालन करने और ख्वाजा साहब के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए करवाया था। अकबर ने यहां से समस्त दक्षिणी पूर्वी व पश्चिमी राजस्थान को अपने अधिकार में कर लिया था। जहांगीर ने भी 1613 से 1616 के दौरान यहीं से कई सैन्य अभियानों का संचालन किया। इसे राजपूताना संग्रहालय और मैगजीन के नाम से भी जाना जाता है। इसमें चार बड़े बुर्ज और 54 फीट व 52 फीट चौड़े दरवाजे हैं। यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल भारतीय राजनीति में अहम स्थान रखता है, क्योंकि यहीं पर सम्राट जहांगीर ने दस जनवरी 1916 ईस्वी को इंग्लेंड के राजा जॉर्ज पंचम के दूत सर टामस रो को ईस्ट इंडिया कंपनी को हिंदुस्तान में व्यापार करने की अनुमति दी थी। टामस रो यहां कई दिन जहांगीर के साथ रहा। ब्रिटिश काल में 1818 से 1863 तक इसका उपयोग शस्त्रागार के रूप में हुआ, इसी कारण इसका नाम मैगजीन पड़ गया। वर्तमान में यह संग्रहालय है। पूर्वजों की सांस्कृतिक धरोहर का सहज ज्ञान जनसाधारण को कराने और संपदा की सुरक्षा करने की दृष्टि से भारतीय पुरातत्व के महानिदेशक श्री मार्शल ने 1902 में लार्ड कर्जन के अजमेर आगमन के समय एक ऐसे संग्रहालय की स्थापना का सुझाव रखा था, जहां जनसाधारण को अपने अतीत की झांकी मिल सके। अजमेर के गौरवमय अतीत को ध्यान में रखते हुये लार्ड कर्जन ने संग्रहालय की स्थापना करके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन एजेन्ट श्री कालविन के अनुरोध पर कई राज्यों के राजाओं ने बहुमूल्य कलाकृतियां उपलब्ध करा संग्रहालय की स्थापना में अपना अपूर्व योग दिया। संग्रहालय की स्थापना 19 अक्टूबर, 1908 को एक शानदार समारोह के साथ हुई। संग्रहालय का उद्घाटन ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन एजेन्ट श्री कालविन ने किया और उस समारोह में विभिन्न राज्यों के राजाओं के अतिरिक्त अनेकों विदेशी भी सम्मिलित हुये। पुरातत्व के मूर्धन्य विद्वान पं. गौरी शंकर हीराचन्द ओझा को संग्रहालय के अधीक्षक पद का भार सौंपा गया और ओझा जी ने अपनी निष्ठा का परिचय ऐसी बहुमूल्य कलाकृतियां एकत्रित कर दिया कि जिसके परिणामस्वरूप अजमेर का संग्रहालय दुर्लभ सामग्री उपलब्ध कराने की दृष्टि से देशभर में धाक जमाये हुए है। इसमें अनेक प्राचीन शिलालेख, राजपूत व मुगल शैली के चित्र, जैन मूर्तियां, सिक्के, दस्तावेज और प्राचीन युद्ध सामग्री मौजूद हैं। सन् 1892 में इसके दक्षिणी पूर्वी बुर्ज में नगरपालिका का दफ्तर खोला गया। संग्रहालय के वर्तमान अधीक्षक आजम हुसैन इस धरोहर के साथ अन्य धरोहरों को सहजने पर पूरा ध्यान दे रहे हैं।
दरगाह ख्वाजा साहब
अजमेर में रेलवे से दो किलोमीटर दूर अंतर्राष्टीय ख्याति प्राप्त सांप्रदायिक सौहार्द्र की प्रतीक सूफी संत ख्वाजा मोहनुद्दीन हसन चिश्ती (1143-1233 ईस्वी)की दरगाह है। गरीब नवाज के नाम से प्रसिद्ध ख्वाजा साहब की मजार को मांडू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने सन् 1464 में पक्का करवाया था। मजार शरीफ के ऊपर आकर्षक गुम्बद है, जिसे शाहजहां ने बनवाया। उस पर खूबसूरत नक्काशी का काम सुलतान महमूद बिन नसीरुद्दीन ने करवाया। गुम्बद पर सुनहरी कलश है। मजार शरीफ के चारों ओर कटहरे बने हुए हैं। एक कटहरा बादशाह जहांगीर ने 1616 में लगवाया था। चांदी का एक कटहरा आमेर नरेश सवाई जयसिंह ने 1730 में भेंट किया किया था। इसमें 42 हजार 961 तोला चांदी काम में आई। नूकरई कटहरा शहजादी जहांआरा बेगम द्वारा चढ़ाया गया। मजार के दरवाजे पर बादशाह अकबर द्वारा भेंट किए गए किवाड़ों की जोड़ी लगी हुई है।
दरगाह परिसर में ही अनेक ऐतिहासिक इमारतें हैं, जिनमें निजाम गेट, नक्कारखाना आस्ताना ए उस्मानिया, नक्कारखाना शाहजहांनी, बेगमी दालान, बुलंद दरवाजा खिलजी, जन्नती दरवाजा, मजार हजरत बीवी हाफेजा जमाल, मस्जिद संदल वाली, कुरआन मस्जिद, स्जिद सुलतान खिलजी, औलिया मस्जिद, शाहजहांनी जामा मस्जिद, सहन चिराग, लंगरखाना, प्याले की छतरी, अकबरी मस्जिद, हौज, मजार निजाम सिक्का, अरकाट का दालान, मालवा वालों का दालान, महफिलखाना, झालरा, मजार हजरत ख्वाजा जियाउद्दीन, बाबा फरीद का चिल्ला आदि शामिल हैं। ख्वाजा साहब 1191 ईस्वी में अजमेर आए और आनासागर के पास एक छोटी सी पहाड़ी पर सबसे पहले जिस स्थान पर ठहरे, उसे चिल्ले के नाम से जाना जाता है।
बड़े पीर की दरगाह
दरगाह के पास पहाड़ी पर स्थित यह दरगाह बगदाद के प्रसिद्ध सूफी संत अब्दुल कादर गिलानी पीरां पीर की परंपरा के संत सूंडे शाह के नाम से है। वे यहां पीरां पीर की दरगाह से एक ईंट लेकर आए थे और हर साल उनका उर्स मनाया करते थे। उन्होंने अपने शागिर्दों से कहा कि जब उनकी मृत्यु हो जाए तो ईंट के साथ ही उन्हें दफना दिया जाए। मराठा काल के दौरान 1770 में उनकी मौत हुई। अनेक साल बाद शेख मादू ने उनकी मजार पर दरगाह का निर्माण करवा दिया। बाद में टोंक के प्रथम नवाब पिंडारी अमीर खां के सेनापति जमशेद खां, असगर अली मुतवली व हाकिम इर्शाद अली ने भी यहां निर्माण करवाए।
मेयो कॉलेज
लॉर्ड मेयो के वायसराय काल में बने इस कॉलेज की गिनती देश के चंद प्रमुख शिक्षण केन्द्रों में की जाती है। इसे राजा-महाराजाओं के बच्चों की शिक्षा के लिए सन् 1875 में शुरू किया गया। पूर्व में इसे भारत का प्रथम श्रेणी कॉलेज कहा जाता था। आजादी के बाद इसे सार्वजनिक स्कूल का रूप दिया गया। यहां देशभर के अनेक प्रतिष्ठित व्यावसायिक घरानों व वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों आदि के बच्चे अध्ययनरत हैं। अनेक विदेशी छात्र भी यहां पढ़ाई कर रहे हैं। संगमरमर पत्थर से निर्मित भव्य भवन में एक संग्रहालय भी दर्शनीय है।
दरगाह मीरां सैयद हुसैन खिंग सवार
इतिहास में हुई सियासी उठापटक के गवाह रहे तारागढ़ की ऐतिहासिक महत्ता तो है ही, यहां स्थित दरगाह मीरां सैयद हुसैन खिंग सवार की वजह से आज इसका आध्यात्मिक महत्व भी काफी है।
क्लॉक टावर
इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के शासन की रजत जयंती के मौके पर रेलवे स्टेशन के सामने विक्टोरिया क्लॉक टावर निर्माण करवाया गया। विक्टोरिया के नाम से ही विक्टोरिया अस्पताल 1895 में बनवाया गया, जिसे आज हम जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के नाम से जानते हैं।
चामुंडा माता का मंदिर
यह भारत के 151 शक्तिपीठ में से एक है। फायसागर रोड पर चश्मे की गाल पहाड़ी के पश्चिमी ढ़लान पर यह मंदिर बना हुआ है। चामुंडा माता सम्राट पृथ्वीराज चाहौन की आराध्य देवी थी। यहां नवरात्रि के दौरान बली चढ़ाई जाती है। सावन शुक्ला अष्ठमी को यहां मेला भरता है।
आनासागर
इस कृत्रिम झील का निर्माण सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पितामह राजा अरणोराज उर्फ अन्नाजी ने 1135-5० में करवाया था। मुगल शासक शासक कलाप्रेमी शाहजहां ने 1637 में झील के किनारे संगमरमर की 4 बारहदरियां एवं एक खामखां का दरवाजा बनवा कर इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा दिए। शासक जहांगीर ने इसके किनारे एक आलीशान बाग बनवाया, जिसे कभी दौलन बाग और आज सुभाष उद्यान के नाम से जाना जाता है।
सोनीजी की नसियां
आगरा गेट के पास सोनीजी की नसियां के नाम से विख्यात इस भव्य भवन का निर्माण 1865 में सेठ मूलचंद नेमीचंद सोनी ने करवाया और सन् 1885 में इसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित करवाई। यह दो मंजिला इमारत सुंदर रंगों से पुती हुई है। पिछवाड़े में स्वर्णनगरी हॉल है, जिसकी दीवारें व छत कांच की चित्रकारी के काम से परिपूर्ण है। इसके आंगन में 26 मीटर ऊंचा मानस्तम्भ भी शोभायमान है। पीछे की ओर दो मंजिला भवन में जैन कल्याणक, तेरह द्वीप, सुमेरू पर्वत, भगवान की जन्म स्थली आयोध्या नगरी आदि की सुंदर रचना बेहद लुभावनी है। यह संपूर्ण रचना स्वर्णरचित वर्क से ढ़की है। इसे स्वर्ण नगरी भी कहा जाता है। इसे लाल मंदिर, सोने का मंदिर व कांच का मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
बादशाही बिल्डिंग
नया बाजार स्थित यह भवन मूलत: किसी हिंदू का था, जिसका विस्तार अकबर के जमाने में उनके मातहतों के आवास बना दिया गया। मराठा काल में यहां पर कचहरी थी।
आंतेड़ माता का मंदिर व छतरियां
आनासागर झील के उत्तर में वैशालीनगर इलाके में पहाड़ी पर आंतेड़ माता का मंदिर है। मंदिर की गाल के पास ही दिगम्बर जैन संतों की समाधियां व थड़े हैं। ये आठवीं शताब्दी में अजमेर जैन धर्म की प्रभावना के प्रमाण हैं। छतरियों पर आश्विन सुदि चतुर्थी को मेला भरता है।
अब्दुल्ला खां का मकबरा
रेलवे स्टेशन रोड पर अब्दुल्ला खां का मकबरा बना हुआ है। इसका निर्माण 1710 में कराया गया। मकबरे पर उच्च कोटि का सफेद पत्थर लगा हुआ है। वह मुगल बादशाह फर्रुखसियार के हाकिम हुसैन अली खां का पिता था। सामने ही रोड की दूसरी ओर उसकी पत्नी की मजार बनी हुई है।
तीर्थराज पुष्कर
अजमेर से 13 किलोमीटर दूर नाग पहाड़ की तलहटी में और समुद्र तल से 530 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पुष्कर राज में चार सौ से भी अधिक छोटे-बड़े देवालय हैं। यहां ब्रह्माजी का एक मात्र मंदिर है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह छोटा सा कस्बा करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केन्द्र है। शास्त्रों के अनुसार जगतपिता ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना के लिए यहां यज्ञ किया था। इसलिए इसे तीर्थगुरू भी कहा जाता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक यहां धार्मिक एवं पशु मेला लगता है, जिसमें देशभर के विभिन्न प्रांतों के पशुपालक तो जमा होते ही हैं, विदेश पर्यटक भी मेले का लुफ्त उठाने आ जाते हैं। अद्र्ध चंद्राकार आकृति में बनी पवित्र व पौराणिक झील पुष्कर का प्रमुख आकर्षण है। झील की उत्पत्ति के बारे में किंवदंती है कि ब्रह्माजी के हाथ से पुष्प गिरने से यहां जल प्रस्फुटित हुआ, उसी से यह झील बनी। मान्यता है कि झील में डुबकी लगाने से पापों का नाश होता है। सरोवर के किनारे चारों ओर 52 घाट बने हुए हैं। इनमें गऊ घाट, वराह व ब्रह्मा घाट ही सर्वाधिक पवित्र माने जाते हैं। संध्या के समय गऊ घाट पर तीर्थ गुरु पुष्कर की आरती की जाती है। झील में दीपदान भी किया जाता है। अधिकतर घाट राजा-महाराजाओं ने बनाए हैं।
श्रीरंगनाथ वेणी गोपाल मंदिर
इसे शेखावाटी मूल के हैदाराबाद निवासी सेठ पूरणमल ने 1844 ईस्वी में बनवाया था। मंदिर का गोपुरम, विग्रह, ध्वज आदि द्रविड़ शैली में निर्मित हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों व भवनों पर राजपूत शैली एवं शेखावाटी शैली में चित्रकला अंकित है। मंदिर में बंसी बजाते भगवान वेणी गोपाल की नयनाभिराम काले पत्थर की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। यहां वर्ष पर्यन्त विभिन्न उत्सव जैसे- ब्रह्मोत्सव, श्रावण झूलोत्सव आदि मनाए जाते हैं। यहां भगवान की सवारी के प्राचीन कलात्मक वाहनों का समृद्ध संग्रह मौजूद है।
श्री रमा बैकुण्ठ मंदिर
वैष्णव संप्रदाय की रामानुजाचार्य शाखा के इस मंदिर का निर्माण डीडवाना के सेठ मंगनीराम रामकुमार बांगड़ ने 1925 ईस्वी में करवाया था। इसे नया रंगजी का मंदिर कहा जाता है। दक्षिण भारतीय वास्तु शैली में बने इस मंदिर में गोपुरम, विग्रह विमान गरुड़ आदि दर्शनीय हैं। श्रावण मास में यहां झूला महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सजी झांकियों को देखने के लिए दूर-दूर से तीर्थ यात्री आते हैं।
बूढ़ा पुष्कर
पुराणों में उल्लेखित तीन पुष्करों ज्येष्ठ, मध्यम व कनिष्ठ में कनिष्ठ पुष्कर ही बूढ़ा पुष्कर है। इसका जीर्णोद्धार सन् दो हजार आठ में राज्य की वसुंधरा राजे सरकार के कार्यकाल में राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण न्यास के अध्यक्ष श्री औंकारसिंह लखावत ने करवाया।
सावित्री मंदिर
पुष्कर में रत्नागिरी पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर में बारे तथ्य यह बताया जाता है कि ब्रह्माजी द्वारा गायत्री को पत्नी बना कर यज्ञ करने से रुष्ठ सावित्री ने वहां मौजूद देवी-देवताओं को श्राप देने के बाद इस पहाड़ी पर आ कर बैठ गई, ताकि उन्हें यज्ञ के गाजे-बाजे की आवाज नहीं सुनाई दे। बताते हैं कि वे यहीं समा गईं। मौजूदा मंदिर का निर्माण मारवाड़ के राजा अजीत सिंह के पुरोहित ने 1687-1728 ईस्वी में करवाया था। मंदिर का विस्तार डीडवाना के बांगड़ घराने ने करवाया। सावित्री माता बंगालियों के लिए सुहाग की देवी मानी जाती है। ऐसा इस वजह से कि ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री का अंशवतार सत्यवान सावित्री को माना जाता है।
वराह मंदिर
वराह मंदिर विष्णु के वराह अवतार की कथा से जुड़ा हुआ है। इसमें उन्होंने वराह का रूप धारण कर पृथ्वी को अपने सींग पर उठा लिया था। हालांकि यह मंदिर सन् 1123-1150 में चौहान राजा अरणोराज उर्फ अन्नाजी ने बनवाया था। इसका जीर्णोद्धार महाराणा प्रताप के भाई सागर ने अकबर के शासनकाल में करवाया था। यह वही स्थान है जहां मुगलों व राठौड़ों के बीच युद्ध हुआ था। पहले मंदिर की ऊंचाई डेढ़ सौ फीट थी, जो अब मात्र बीस फीट रह गई है। जल झूलनी एकादशी पर यहां से लक्ष्मी-नारायण की सवारी निकाली जाती है।
भट गणेश मंदिर
बूढ़ा पुष्कर की ओर पुष्कर बाईपास पर चुंगी चौकी के निकट करीब ग्यारह सौ साल पुराना भट गणेश मंदिर है। यहां हर बुधवार को श्रद्धालु जुटते हैं। विशेष रूप से मारु जाति के बंजारा समाज की इसकी विशेष मान्यता है और वे विवाह का पहला निमंत्रण यहीं पर देते हैं। नवविवाहित जोड़े भी यहीं पर सबसे पहले आ कर मत्था टेकते हैं।
कल्याणी माता का मंदिर, अरांई
जिले के अरांई गांव में 1630 ईस्वी में बना कल्याणी माता का मंदिर है। यहां बारहवीं शताब्दी में जैन धर्म की लोकप्रियता के अवशेष मौजूद हैं।
ख्वाजा फकरुद्दीन की दरगाह सरवाड़
ख्वाजा गरीब नवाज के बड़े पुत्र ख्वाजा फकरुद्दीन चिश्ती की दरगाह जिले के सरवाड़ कस्बे में स्थित है। वहां हर साल उर्स मनाया जाता है, जिसमें अन्य जायरीन के अतिरिक्त विशेष रूप से अजमेर के खादिम जरूर शिरकत करते हैं।
वराह मंदिर, बघेरा
अजमेर से लगभग 80 किलोमीटर दूर बघेरा गांव में वराह तालाब पर स्थित वराह मंदिर पुरातात्वि और स्थापत्य की दृष्टि से काफी महत्पपूर्ण है। कहते हैं कि मंदिर में स्थित मूर्ति भीतर से पोली है और कोई वस्तु टकराने पर मूर्ति गूंजती है। मुस्लिम आक्रमणकारियों के हमले के दौरान इसे तालाब में छिपा दिया गया। आक्रमणकारियों ने मंदिर तोड़ दिया। बाद में मूर्ति को वापस बाहर निकाल कर नए मंदिर में उसकी प्रतिष्ठा की गई। हाल के कुछ वर्षों में यहां खुदाई में निकली प्राचीन जैन मूर्तियों से इस गांव का पुरातात्विक महत्व और बढ़ा है। जैन तीर्थङ्करों के अतिरिक्त यहां से विष्णु, शिव, गणेश आदि देवताओं की प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं, जिनमें से कुछ राजकीय संग्रहालय अजमेर में प्रदर्शित हैं। बघेरा का पुराना नाम व्याघ्ररक है।
निम्बार्क तीर्थ, सलेमाबाद
रूपनगढ़ के पास किशनगढ़ से लगभग 19 किलोमीटर दूर सलेमाबाद गांव में निम्बार्काचार्य संप्रदाय की पीठ ऐतिहासिक और आध्यात्मिक दृष्टि बहुत महत्वपूर्ण है। यहां भगवान सर्वेश्वर की मूर्ति पूजनीय है। वस्तुत: वैष्णव चतुर्सम्प्रदाय में श्री निम्बार्क सम्प्रदाय का अपना विशिष्ट स्थान है। माना जाता है कि न केवल वैष्णव सम्प्रदाय अपितु शैव सम्प्रदाय प्रवर्तक जगद्गुरु आदि श्री शंकराचार्य से भी यह पूर्ववर्ती है। इस सम्प्रदाय के आद्याचार्य श्री भगवन्निम्बार्काचार्य हैं। आपकी सम्प्रदाय परंपरा चौबीस अवतारों में श्री हंसावतार से शुरू होती है।
जवान सिंह की छतरी
जिले की किशनगढ़ पंचायत समिति के अंतर्गत शहर से करीब 42 किलोमीटर की दूरी पर खुण्डियास गांव के आगे स्थित करकेड़ी गांव में तत्कालीन किशनगढ़ महाराजा जवान सिंह की छतरी एवं किला है। करीब 10 फीट ऊंचे एक वर्गाकार प्लेटफार्म पर संगमरमर के पत्थरों से बनी छतरी में भीतर महाराजा जवान सिंह का चित्र है। इसमें एक ओर इनकी पत्नी एवं दूसरी ओर पौत्र की समाधि है। पूर्व में गांव किशनगढ़ रियासत में था, बाद में रूपनगढ़ के अंतर्गत शामिल किया गया। विक्रम संवत 1813-1824 में वीर सिंह रलावता व करकेड़ी के शासक बने। किशनगढ़ के महाराजा बहादुर सिंह ने करकेड़ी के किले को मजबूत करवाया। बाद में जवान सिंह यहां के शासक रहे। किशनगढ़ महाराजा मदनसिंह जी ने अपने चाचा महाराजा जवान सिंह जी के पुत्र यज्ञनारायण सिंह को गोद ले लिया। उन्होंने ही करकेड़ी में पिता महाराजा जवान सिंह की स्मृति में छतरियां बनवाईं।
रानीजी का कुंड, सरवाड़
सरवाड़ में तहसील दफ्तर के पास बना खूबसूरत रानीजी का कुंड पांच सौ साल पहले गौड़ राजपूतों के शासनकाल में किसी रानी ने बनवाया था। इसकी शिल्पकला बेहतरीन है। यह काफी गहरा है और सीढिय़ों के नीचे नहाने के लिए चौकियां बनी हुई हैं। यहां बरामदे में खूबसूरत झरोखे, मेहराबदार छज्जे व तोरणद्वार हैं। कुंड के पास ही दो छतरियां बनी हुई हैं, जिनमें से एक ऋषि दत्तात्रेय की बताई जाती है।
श्रीनगर का किला
इस गांव की स्थापना ईस्वी 1560 में मालपुरा से आए पंवार शार्दुलसिंह ने की। उसने यहां एक किला बनवाया। उसके वंशजों ने यहां 140 साल तक राज किया। दुर्ग बनने के 25 साल बाद वह किशनगढ़ रियासत में शामिल कर दिया गया। कर्नल डिक्सन ने यहां सिंचाई के लिए एक जलाशय बनवाया था।
काफी पुराने हैं ईसाइयों के चर्च
अजमेर में ईसाई धर्मावलम्बियों की उपस्थिति का इतिहास काफी पुराना है। सन् 1860 के आसपास ईसाई समुदाय की आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति अंग्रेज सेना के पुरोहित किया करते थे। बाद में आगरा के मिशनरी पुरोहित आया करते थे। सन् 1982 में फ्रांस के कुछ मिशनरी अजमेर आए। केसरगंज स्थित चर्च मदर मेरी को समर्पित है। इसका निर्माण कार्य 1896 में शुरू हुआ और यह 28 दिसम्बर 1898 को इसका उद्घाटन हुआ। प्राचीन धरोहर होने के नाते भारतीय पुरातत्त्व विभाग इसकी देखरेख करता है। मेयो लिंक रोड भट्टा स्थित चर्च की स्थापना 1913 में हुई। यह चर्च भी मदर मेरी के प्रति समर्पित है। मदार स्थित चर्च की स्थापना सन् 2006 में हुई। यह मदर मेरी की पवित्र माला होली रोसरी के प्रति समर्पित है। नसीराबाद रोड पर परबतपुरा गांव में स्थित चर्च की स्थापना सन् 1905 में हुई। यह संत जोसफ के प्रति समर्पित है। भवानीखेड़ा गांव में स्थित चर्च की स्थापना 1905 में हुई। यह संत मार्टिन को समर्पित है।
खोड़ा गणेशजी का मंदिर
अजमेर से किशनढ़ के बीच एक मार्ग खोड़ा गांव की ओर जाता है। यह मंदिर वहीं पर स्थित है और इसकी बहुत मान्यता है। अजमेर व किशनगढ़ सहित आसपास के लोग यहां अपनी मनौती पूरी होने पर सवा मनी आदि चढ़ाते हैं। कई श्रद्धालु नया वाहन खरीदने पर सबसे पहले यहां आ कर गणेश जी को धोक दिलवाते हैं।
गुरुद्वारे
अजमेर में सबसे पुराना गुरुद्वारा हाथीभाटा में 1890 में बनाया गया। गंज स्थित गुुरुद्वारा 1960 में बना। इसी प्रकार रामगंज, अलवरगेट, धोलाभाटा, शास्त्रीनगर, पहाडग़ंज, आशागंज व एचएमटी में गुरुद्वारे हैं।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

पेश है अजमेर की नामर्दी की सबसे ज्वलंत उदाहरण

दरगाह विकास योजना की भ्रूण हत्या का जिम्मेदार कौन?
ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के 800 वें उर्स के लिए बनाई गई तकरीबन 300 करोड़ रुपए की योजना की भूण हत्या हो गई है। और वह भी तब जब कि दरगाह से जुड़े पक्षों, मीडिया और अजमेर फोरम ने इसके लिए दबाव बनाए रखा, मगर हमारे जनप्रतिनिधियों की लापरवाही अथवा अप्रभावी भूमिका और प्रशासन की बेरुखी के चलते सारे सब्जबाग धरे रह गए। यह बेचारे अजमेर की नामर्दी का सबसे ज्वलंत उदाहरण है, जिसकी वजह से ही इस ऐतिहासिक शहर को टायर्ड और रिटायर्ड लोगों को शहर कहा जाता है। अजमेर की ऐसी उपेक्षा पर यदि कभी कभी अलग राज्य की आवाज आती है तो वह बिलकुल सही है। इस पर यहां की जनता, सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों और यहां के मतदाताओं के वोटों पर राजनीति का आनंद लेने वालों को सोचना ही होगा।
असल में आगामी आठ सौ वें उर्स के मद्देनजर पीडीकोर ने करीब सवा साल पहले 300 करोड़ रुपए की कार्य योजना तैयार की थी। राज्य सरकार और प्रशासन को इसे अंतिम रूप देने में ही कोई पांच माह का समय लग गया। इसके बाद योजना में थोड़ा बहुत फेरबदल करके केन्द्र सरकार को भेज दिया, मगर यह बैठकों दर बैठकों के बीच झूलती रही। बीच में यह बात भी आई कि चूंकि समय पर्याप्त नहीं है, इस कारण इसे चरणों में पूरा किया जाएगा। पहला चरण अस्सी करोड़ का होगा, जो कि उर्स से पहले पूरा किया जाएगा और बाकी के चरण में बाद में पूरे किए जाएंगे। मगर अफसोस कि सब कुछ जबानी जमा खर्च ही रहा। और अब आखिरकार इसे दफन ही कर दिया गया है व जायरीन की सुविधा के लिए न्यास और पर्यटन विभाग को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने को कह दिया गया है।
हालांकि योजना को ठंडे बस्ते में डालने के लिए हमारे देश व राज्य की शासन व्यवस्था के तौर-तरीके ही जिम्मेदार हैं, मगर उससे भी बड़ा सच यह है कि यह हमारी नाकामी का ही प्रतिफल है। विशेष रूप से अजमेर के कथित नए मसीहा केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ। यहां तक कि बाद में मुख्य सचेतक बने बड़बोले नेता डॉ. चंद्रभान भी हथेली नहीं लगा पाए। अगर उन्होंने गंभीर प्रयास किए होते तो इस योजना का ऐसा हश्र नहीं होता। पायलट अपने खाते में चाहे जितनी उपलब्धियां दर्ज करवा चुके हों, नसीम अख्तर अजमेर के विकास के लिए चाहे जितनी शिद्दत जाहिर करती हों और रघु शर्मा नए रहनुमा बन कर बड़ी बड़ी बातें करते हों, मगर उनके खाते में यह नाकामी तो दर्ज हो ही चुकी है। ऐसे प्रभावशाली नेताओं के रहते भी अगर अजमेर पर सरकार गौर नहीं कर रही तो इसका सीधा सा अर्थ है कि या तो उनकी ऊपर सुनने वाला कोई नहीं है या फिर उन्होंने इसे पूरी गंभीरता से नहीं लिया। रहा सवाल विपक्षी दल भाजपा का तो ऐसा प्रतीत होता है कि चूंकि योजना संप्रदाय विशेष के आस्ताने से संबंधित थी, इस कारण उसने कोई जोर ही नहीं लगाया। महज इसलिए कि उनके हल्ला मचाने पर भी न तो उनको श्रेय मिलता और न ही वोटों का कोई फायदा होता।
असल में यह योजना जब चर्चा में आई और उस पर पहली बैठक प्रदेश के गृह मंत्री शांति धारीवाल ने अजमेर में ली, तभी पूत के पग पालने में नजर आ गए थे। धारीवाल की मौजूदगी में हुई अहम बैठक ही बेनतीजा रही थी। जिस योजना पर तकरीबन तीन सौ करोड़ रुपए खर्च किए जाने का विचार हो, ऐसी महत्वपूर्ण बैठक के लिए न तो कोई पुख्ता एजेंडा तैयार किया गया था और न ही संभागियों को उसकी तैयारी करके आने को कहा गया। जिला प्रशासन से भी पहले कोई एक्सरसाइज नहीं करवाई गई। रही सही कसर खादिम प्रतिनिधियों व विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के बीच हुई नौंकझोंक ने पूरी कर दी। धारीवाल को भी लगा कि यहां विवाद है और उसके लिए संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा को जिम्मेदारी दी कि वे सभी पक्षों की आम सहमति बना कर सरकार को रिपोर्ट करें। उनके रिपोर्ट भेजने से लेकर राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के बीच संवाद ही इतना लंबा हो गया कि यह फुटबाल ही बन गई। दरअसल मास्टर प्लान के लिए जो प्रस्ताव मोटे तौर पर रखे गए हैं, वे कोई नए नहीं हैं। उन पर पहले भी कई बार विचार हो चुका है। हर साल होने वाले उर्स मेले से पूर्व और विशेष रूप से 786वें उर्स मेले के दौरान भी लगभग इन्हीं प्रस्तावों पर चर्चा हो चुकी है, मगर उन पर अमल करने की इच्छा शक्ति न सरकार ने दिखाई और न ही प्रशासन में इतनी हिम्मत की वह बर्र के छत्ते में हाथ डाले। प्रशासन का भी यही रवैया रहा है कि जैसे-तैसे मेला निपटा लिया जाए। मेला शांति से संपन्न होने पर वह शुक्र अदा करने के लिए मजार शरीफ पर चादर पेश कर खुद भी चादर ओढ़ कर सो जाता है। ताजा मामले में भी ऐसा ही हुआ।
यहां उल्लेखनीय है कि इस परियोजना के अन्तर्गत विभिन्न मार्गों के विकास, नालियों के निर्माण, सीवरेज, विद्युत सप्लाई उपकरण, सुरक्षा, पार्किंग, शौचालय, कोरिडोर, दरगाह शरीफ के प्रवेश द्वारों की चौड़ाई बढाना, अग्नि शमन, विश्राम स्थलियों का विकास, ईदगाह के विकास के साथ-साथ अजमेर शहर की कई बड़ी सड़कों के निर्माण एवं विकास का प्रावधान रखा गया है। ऐसी बड़ी योजना यदि पूरी तरह से लागू हो जाए और उस पर पूरी ईमानदारी के साथ काम हो तो शहर की काया ही पलट जाए। मगर अब यह एक सपना मात्र ही रह गया है। इस योजना को लेकर अजमेर फोरम ने भी खूब माथापच्ची की, मगर सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 15 अप्रैल 2012

स्वर्गीय खेमचंद की याद में क्यों हो गया विवाद?

राजस्थान राजस्व मंडल की अध्यक्ष मीनाक्षी हूजा के पिताश्री व अजमेर पूर्व कलैक्टर स्वर्गीय श्री खेमचंद की याद में नगर सुधार न्यास के सहयोग से आयोजित मुशायरा जश्न ए आलम को लेकर दबी जुबान में सही, हल्का का विवाद हो गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि स्वर्गीय श्री खेमचंद जी या यूं कहिए की मीनाक्षी हूजा की बदोलत अजमेर वासियों को एक ऐसे मुशायरे का आनंद हासिल हुआ, जैसा कि अमूमन नहीं होता है। मुशायरे में ओरीजनल व ठेठ शायरों को सुनने का मौका मिला। मगर विवाद इसके आयोजन के तरीके को लेकर हो रहा है।
सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर एक जागरूक नागरिक ऐतेजाद अहमद खान ने टिप्पणी की है कि सरकारी खर्चे पर अपनों को याद करने का यह कौन सा नया फार्मूला है। कोई सही मैं शायर हो, कोई स्वतंत्रता सेनानी हो, तो सरकारी खर्चा समझ भी आता है, पर यह कौन सी नई बात। ऐसे तो शायरी हमें भी पसंद है, पर कोई हम पसंद करने से शायर थोड़े ही हो गए। शहर के बड़े-बड़े खड्डे तो ठीक नहीं हो रहे और मुशायरा करा रहे हैं।
स्पष्ट है कि विवाद इस पर नहीं है कि मीनाक्षी हूजा के पिताजी की याद में मुशायरा आयोजित क्यों हुआ, विवाद इस बात पर है कि उसमें नगर सुधार न्यास की मदद कैसे ले ली गई? माना कि स्वर्गीय श्री खेमचंद अजमेर के पूर्व कलेक्टर थे, मगर अब तक ऐसे कितने मरहूम कलेक्टरों की याद में ऐसे आयोजन हुए हैं? जैसा कि मुशायरे में खुद शायर व पूर्व दरगाह नाजिम के डी खान ने खेमचंद की जीवनी की जानकारी देते हुए बताया कि उर्दू के हिमायती खेमचंद ने मुशायरे को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में प्रयास किए, से यह कहीं स्पष्ट नहीं होता कि स्वर्गीय श्री खेमचंद भी कोई जाने-माने शायर थे, जिनकी जयंती पर न्यास की मदद से मुशायरा आयोजित किया जाता। उनके कथन से यही इंगित होता है कि उन्होंने कलेक्टर पद पर रहते हुए अच्छे मुशायरों का आयोजन किया होगा। अच्छी बात है। मगर इससे इस बात का तुक नहीं बैठता कि न्यास ऐसे आयोजन का भागीदार बने। भले ही इसे प्रमाणित करना कुछ कठिन हो, मगर बात तो सीधी सी है कि मीनाक्षी हूजा के पद के प्रभाव में न्यास से इस आयोजन में भागीदारी निभाई। स्वाभाविक है कि आयोजन पर इस प्रकार विवाद होने पर मीनाक्षी जी को बुरा लगे कि एक तो अच्छा कार्यक्रम करवाया और वह भी लोगों को पचा नहीं, कम से कम मरहूम शख्सियत को लेकर तो सवाल उठाना घोर असंवेदनहीनता है, मगर विवाद उठने की वजह भी साफ है।
एक दिलचस्प बात ये भी है कि जिस शख्सियत की याद में आयोजन हुआ, उनका मीनाक्षी हूजा से क्या संबंध है, इस बारे में अखबारों में आखिर में जा कर खुलासा हुआ। इस सिलसिले में सूचना केन्द्र की ओर से जारी प्रेस नोट में तो खुलासा करने से शायद जानबूझ कर बचा गया। न्यास सचिव पुष्पा सत्यानी के हवाले से जो खबर दी गई, उसमें कहा गया कि अजमेर के पूर्व कलेक्टर स्वर्गीय खेमचंद की 101 वीं जयंती पर नगर सुधार न्यास एवं उनके वंशज की ओर से 14 अप्रेल को रात्रि 8 बजे जवाहर रंगमंच पर पंडित आनंद मोहन जुत्शी गुलजार, देहलवी की सदारत में मुशायरा जश्न ए आलम आयोजित किया जायेगा। उसमें आयोजनकर्ता पी.सी. माथुर परिवार को बताया गया है, वो इसलिए ताकि कोई यह न कह सके कि मीनाक्षी हूजा के पिता की याद में आयोजन हो रहा है। यह लगे कि अजमेर के कलेक्टर रहे शख्सियत की याद में आयोजन रखा गया है। बेशक पिता-पुत्री का अलग-अलग व्यक्तित्व है, मगर आयोजन का तानाबाना बुनने में मीनाक्षी हूजा का कितना योगदान रहा है, यह इसी से स्पष्ट हो जाता है कि के डी खान ने जो कशीदे पढ़े, उसमें उन्होंने मुशायरे से नौजवानों को जोड़ऩे के मीनाक्षी हूजा के प्रयास को सराहनीय बताया गया है। आयोजन से मीनाक्षी हूजा सीधे रूप में जुड़ी हुई रहीं, इसका सबसे पुख्ता प्रमाण ये है कि आयोजन के बारे में जो प्रेस कांफ्रेंस न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत ने की, उसमें स्वयं मीनाक्षी हूजा भी मौजूद रहीं।
एक दिलचस्प बात और। सरकारी प्रेस नोट में बताया गया कि राजस्व मंडल की अध्यक्ष श्रीमती मीनाक्षी हूजा व नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत विशिष्ठ अतिथि के रूप में भाग लेंगे। कैसी विडंबना है कि जो आयोजन पक्ष है, वहीं अतिथि पक्ष भी हो गया। खैर, रामायण में ठीक ही कहा गया है-समरथ को नहीं दोष गुसाईं। और यदि किसी समर्थ की ओर से आयोजन किया जाता है तो उसमें शिक्षा राज्य मंत्री नसीम अख्तर, कलेक्टर मंजू राजपाल, आईजी अनिल पालीवाल, एडीएम हनीफ मोहम्मद, भाजपा नेता पूर्णाशंकर दशोरा सरीखे गणमान्य लोगों का शिरकत करना लाजिमी ही है।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 14 अप्रैल 2012

अखिलेश यादव से कोई बड़ा आश्वासन ले आई हैं सोनम

शहर कांग्रेस की फायर ब्रांड नेता सोनम किन्नर की पिछले दिनों से कांग्रेस से चल रही बेरुखी आखिर परवान चढ़ गई। पहले उन्होंने मनोनीत पार्षद पद से इस्तीफा दिया और पार्टी से ही इस्तीफा दे दिया है। दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष डॉ. चंद्रभान को भेजे इस्तीफे में जो कारण बताया है, वह गले नहीं उतरता। उन्होंने पार्टी की निष्ठा से सेवा करने के बाद भी उपेक्षा होने का आरोप लगाया है, जबकि वस्तुस्थिति ये है कि उन्हें कांग्रेस ने ही उनके कद के मुताबिक मनोनीत पार्षद के पद से नवाजा है। यदि वे इसके बाद भी असंतुष्ट हैं तो इसका मतलब ये है कि उन्हें किसी और बड़े पद की उम्मीद रही होगी। हां, अलबत्ता शहर कांग्रेस कार्यकारिणी में वरिष्ठजन की उपेक्षा का उनका आरोप जरूर सही है।
खैर, असल बात ये बताई जा रही है कि वे कांग्रेस को छोडऩे के लिए उचित मौके की तलाश कर रही थीं। पार्षद पद से इस्तीफा देने के बाद भी जब उनकी कोई पूछ नहीं हुई और किसी ने राजी करने की कोशिश नहीं की तो वे दूसरा रास्ता चुनने की फिराक में थीं। जानकारी के अनुसार इस सिलसिले में अपने किन्हीं संपर्क सूत्रों के जरिए वे पिछले कुछ दिन लखनऊ में भी रहीं। समाजवादी पार्टी के उत्तरप्रदेश में सत्तारूढ़ होने पर उन्हें लगा कि वहां कोई बड़ा पर हासिल हो सकता है। बताया जाता है कि उन्हें मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलने का भी सौभाग्य हासिल हो गया। अपनी वाकपटुता के दम पर उन्होंने पर अखिलेश को प्रभावित भी किया और बताया जाता है कि उन्हें उचित मौके पर कोई ढंग का पद देने का आश्वासन दिया गया है। जैसे ही उन्हें कुछ यकीन हुआ, उन्होंने कांग्रेस को छोडऩे की मन बना लिया और जयपुर में समाजवादी पार्टी के एक कार्यक्रम में शामिल कांग्रेस से टा टा बाय बाय कर ली। जन्मजात किन्नर होने के एडवांटेज के साथ अपने बिंदास व्यक्तित्व की वजह से अति महत्वाकांक्षी सोनम छोटे-मोटे पड़ाव पर ठहरने वाली थी भी नहीं।
-तेजवानी गिरधर
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सरबजीत व खलील पर हो रही है फोकट की राजनीति

खलील चिश्ती के साथ बर्नी व दलजीत कौर
हत्या के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर छूटे पाक वैज्ञानिक डॉ. खलील चिश्ती और पाकिस्तान की जेल में बंद भारतीय सरबजीत को लेकर फोकट की राजनीति हो रही है। खलील की रिहाई के लिए कथित रूप से प्रयासरत पीयूसीएल ने तो खलील की जमानत पर रिहाई को अपनी आधी जीत ही करार दे दिया है, मानों उसके कहने पर ही उन्हें रिहा किया गया हो, जबकि सच्चाई ये कि निर्णय कोर्ट का है और उस पर किसी का जोर नहीं चलता। हालत ये है कि कोर्ट ने उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए अलग से अर्जी दायर करने को कहा है। यानि कि पीयूसीएल जैसे संगठनों के प्रयासों का कोई मतलब ही नहीं है।
कुछ इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव अधिकार कमेटी के सदस्य और पाकिस्तान के पूर्व मानव अधिकार मंत्री अंसार अहमद बरनी भी ऐसी ही राजनीति करने अजमेर आ गए। उन्होंने खलील चिश्ती से मुलाकात की। साथ ही पाकिस्तान की जेल में सजा काट रहे भारतीय कैदी सरबजीत की बहन दलजीत कौर और बेटी स्वप्नदीप से भी बातचीत कर उन्हें दिलासा दिया, मानो उनके कहने पर सरबजीत को रिहा कर ही दिया जाएगा। उनके अब तक के प्रयासों का क्या हुआ, कुछ पता नहीं। अगर यह मान भी लिया जाए कि दोनों के देशों के शासनाध्यक्ष नीतिगत निर्णय करते हुए कैदियों की रिहाई कर सकते हैं, मगर वे कितने संवेदनशील हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि न तो अब तक भाई सरबजीत के लिए एडी-चोटी का जोर लगा रही दलजीत कौर को सफलता मिली है और न ही खलील चिश्ती के मामले में शासन के स्तर पर कोई निर्णय हुआ है। हालत ये है कि केंद्र व राज्य के निवेदन के बावजूद राजस्थान के राज्यपाल शिवराज पाटिल ने डॉक्टर खलील चिश्ती की दया याचिका पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। जाहिर सी बात है कि मामला कहीं न कहीं उलझा हुआ है, वरना केवल हस्ताक्षर ही करने होते तो उसमें देर क्या लगती है। और सबसे बड़ी बात ये है कि दया याचिका पर निर्णय उन्हें करना है, किस आधार पर करना है, ये वे ही जानते हैं, इसमें किसी संगठन या व्यक्ति की अपील को तो कोई मतलब ही नहीं है। बावजूद इसके लिए राजनीति की जा रही है।
एनजीओ की छोडिय़े, पत्रकार तक अपनी लेखनी का हाथ आजमा रहे हैं। भड़ास 4 मीडिया में एक पत्रकार आशीष महर्षि ने जो शब्द चित्र खड़ा किया है, उसका नमूना देखिए-खुदा के वास्ते अब बहुत हुआ। हमें अपने वतन लौट जाने दीजिए। कुछ इसी अंदाज में बीस सालों से हिंदुस्तान की एक कालकोठरी में अपने अंतिम दिन गुजार कर बाहर आए पाकिस्तानी वैज्ञानिक डॉक्टर खलील चिश्ती ने हिंदुस्तान के सियासतदानों से मार्मिक अपील की। लेकिन डॉक्टर खलील को सजा मिलेगी और मिलेगी, क्योंकि वह उस मुल्क से आते हैं, जिसे पाकिस्तान कहा जाता है। बीस साल बाद भले ही डॉक्टर खलील चिश्ती खुली हवा में सांस ले रहे हों लेकिन उन्हें अभी भी सरकार की दया की दरकार है। खलील चिश्ती ने अपनी आजादी के लिए न्यायपालिका से लेकर राजस्थान के राज्यपाल और देश के प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक से खुद के लिए दया मांग चुके हैं। न्यायपालिका का दिल पसीजा लेकिन थोड़ा सा। सुप्रीम कोर्ट ने मानवता के आधार पर बीस सालों से जेल में सड़ रहे डॉ. खलील को जमानत दे दी। लेकिन अजमेर ना छोडऩे की सशर्त के साथ। लेकिन आज तक राजस्थान के राज्यपाल का दिल नहीं पसीजा। फिल्मकार महेश भट्ट सरकार से सवाल पूछते हुए कहते हैं कि क्या भारत एक जीवित खलील चिश्ती को भेजेगा या उनके पार्थिव शरीर को, जब भी उनका इंतकाल हो? भट्ट कहते हैं कि भारत गौतम, महावरी, सूफी-संतों, गांधी का देश है। इसलिए डॉ. खलील चिश्ती को क्षमा करने में संकोच नहीं करना चाहिए। खलील साहब की कहानी को यदि फाइलों में पढ़ेंगे तो इस बात का अंदाजा लग जाएगा कि हिंदुस्तान में एक पाकिस्तानी होने का क्या मतलब है। आपसी लड़ाई में खलील चिश्ती के हाथों मर्डर हो जाता है। बरसों या कहें कि पूरे 19 साल तक केस चलता और फिर जाकर अजमेर कोर्ट ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
इस पर किन्हीं प्रशांत ने टिप्पणी की है, वह भी देख लीजिए-बिल्कुल संत चिश्ती को ससम्मान रिहा किया जाना चाहिये। बेचारे ने किया ही क्या था। एक आदमी को मारा था। धोखे से मर्डर हो गया था, मारना थोड़े ही चाहते थे। अल्लाह मियां को उस व्यक्ति पर रहम आ गया और अपने पास बुला लिया। और भट्ट साहब, बहुत सारे कैदी पूरे देश में बन्द हैं. बेचारे, हत्या, लूट, बलात्कार, चोरी-डकैती इत्यादि के आरोपों में, कोशिश कीजिये वे भी छूट जायें। अब हेडली कहता है तो कहता रहे कि वह एक और भट्ट साहब को जानता है। बताइये संतो-पीरों के देश में कितने सारे लोगों को बन्द कर रखा है। सरबजीत के बारे में लिखने पर टीआरपी टाइप की चीज नहीं मिलती।
उससे भी ज्यादा दिलचस्प टिप्पणी की है, किन्हीं एबीसीडीईएफ अर्थात गुमनाम ने-
Please check facts before you write such sweeping statements and put the country's integrity at stake. Dr Chishty has not been in jail for 20 years. He was arrested in 1992. Very soon he was out on bail.
His passport was impounded --- as it was a murder case (this has nothing to do with being a pakistani). While the trial went on for 19 years he was living with his brother's family. He was convicted in March 2011, and then arrested and sent to jail.
Here step in India's pro-pakistan NGOs and Mahesh Bhatt. Project the case with false facts -- 20 saal se jail mein band --- (bullshit).
You write that his family is happy -- there is just one question -- where was his daughter and wife before the NGOs who wanted to get the award for upholders of human rights raised the issue. Kindly check out how many times they visited him, how many times they came to India/Ajmer? You will not be happy with the answers...
है न दमदार दलीलें। कुल मिला कर ये सब शब्दों की जुगाली मात्र लगता है। और ये विषय रुचिकर इस कारण है, क्योंकि भारत-पाकिस्तान से जुड़ा है, जो कि एक दूसरे के दुश्मन हैं। अजी इसी दुश्मनी के नाम पर कई कविगण वर्षों से अपनी वीररस की लेखनी के जरिए बच्चों का पेट पाल रहे हैं। ऐसे में अगर एनजीओ, महेश भट्ट और पत्रकार बंधु सदाशयता से कुछ कर रहे हैं तो उन्हें भी करने दीजिए।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com