विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से हारने के बाद भी महेन्द्र सिंह रलावता ने हिम्मत नहीं हारी है। सच तो ये है कि वे पहले से भी कहीं अधिक सक्रिय हैं। उनका दफ्तर जिस तरह से काम कर रहा है, इतना तो उनके शहर कांग्रेस अध्यक्ष पद पर रहते भी नहीं था। जन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए सरकार से लगातार संपर्क में रहते हैं। सरकार भी उन्हें एक विधायक सा दर्जा दे कर उनकी सिफारिशों पर अमल कर रही है। वे जमीन पर भी पूरी तरह से सक्रिय हैं। बीते चुनाव में जातीय लिहाज से जो-जो गलतियों हुईं, उन्हें दुरुस्त कर रहे हैं। ओवरऑल उनका जो ताजा परफोरमेंस है, वह यही संकेत देता है कि वे आगामी चुनाव की तैयारी के लिए तानाबाना बुन रहे हैं। आगामी चुनाव में उन्हें फिर टिकट मिलेगा ही, यह कहना अभी संभव नहीं है, मगर वर्तमान की सक्रियता का लाभ उन्हें आगामी नगर निगम चुनाव में तो मिलेगा ही। जाहिर तौर जब वे अपनी पसंद के नेताओं को पार्षद का टिकट दिलवाएंगे तो निगम की राजनीति में उनका दखल बना रहेगा। हो सकता है कि अपनी पसंद के किसी नेता को निगम का मेयर बनवाने में कामयाब हो जाएं।
बुधवार, 22 जनवरी 2020
अनिता भदेल कर रही हैं बहिन को तैयार
चौराहे पर चर्चा है कि अजमेर नगर निगम के आगामी चुनाव में मेयर का पद अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित होने के बाद अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल अपनी छोटी बहिन के इस पद पर चुनाव लडऩे की संभावनाओं पर विचार कर रही हैं। हालांकि यह अफवाह फिलहाल प्रीमैच्योर है, मगर चर्चाओं में है जरूर। हो सकता है कि वे फिलहाल केवल पार्षद का चुनाव लड़वाने पर ही विचार कर रही हैं और मेयर के चुनाव की संभावना बाद में तलाशें। हालांकि इस पद के लिए भाजपा की अनेक महिला नेत्रियां दावेदार हैं, जिनमें सबसे प्रमुख हैं जिला प्रमुख श्रीमती वंदना नोगिया। वो इस वजह से कि एक ओर जहां कोली समुदाय से श्रीमती भदेल हैं, वहीं शहर भाजपा अध्यक्ष पद पर भी कोली नेता डॉ. प्रियशील हाड़ा की नियुक्ति कर दी गई है। ऐसे में मेयर पद के लिए भी किसी कोली महिला को चुनाव लड़ाना नामुमकिन सा है, मगर राजनीति में हर किस्म की संभावनाएं मौजूद रहती हैं। एक प्रबल संभावना तो ये भी है कि स्वयं श्रीमती भदेल भी ऐन वक्त पर दावेदारी ठोक सकती हैं और वे सक्षम भी हैं, हालांकि वे यह चुनाव लडऩे से वे साफ इंकार कर चुकी हैं। बेशक मेयर पद का प्रत्याशी तय करते समय जातीय समीकरण का पूरा ख्याल रखा जाएगा, मगर इतना भी तय है कि पार्टी जिस को भी प्रत्याशी बनाएगी, उसके प्रति अडिग रही तो सारे समीकरण ताक पर भी रख सकती है। अब तक का अनुभव तो यही बताता है।
क्या धर्मेन्द्र गहलोत को अभयदान मिल चुका है?
ऐसी चर्चा है कि अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत को गुप्त रूप से अभयदान मिल चुका है। बेशक राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद जिस प्रकार के हालात पैदा हुए, उससे लगने लगा था कि गहलोत शहीद कर दिए जाएंगे। इस आशंका को इसलिए भी बल मिला क्योंकि कांग्रेस का राज आते ही निगम आयुक्त चिन्मयी गोपाल से उनका तल्ख टकराव शुरू हो गया। बताया यही गया कि सरकार की मंशा के अनुरूप ही चिन्मयी ने अपना तीखा रुख अख्तियार किया, मगर इसके पीछे अधिकारियों की अपनी राजनीति भी रही। बात ये भी सही है कि सत्ता परिवर्तन के बाद गहलोत ने बाकी का कार्यकाल शांति से बिताने का मानस बनाया था, मगर हालात की कुछ ऐसे बने कि उन्हें अपने चिरपरिचित अंदाज में आना पड़ा। उनकी विरोधी लॉबी ने चिन्मयी का सहारा लेकर हमले करना जारी रखा। गहलोत तनिक गुस्सैल तो हैं ही, इस कारण भिड़ गए, मगर शुभचिंतकों ने यही राय दी कि टकराव से नुकसान ही होगा। राजनीतिक हलकों से ताजा जानकारी यही आ रही है कि भले ही उनकी नाइत्तफाकी चिन्मयी से जारी है, कभी बढ़ती भी दिखाई देती है, मगर उन्होंने इतना तो मैनेज कर लिया है कि वे अपना बाकी का कार्यकाल पूरा कर ही लेंगे। यह सही है कि उनकी छवि धाकड़ नेता की है, मगर मेयर पद के दूसरे कार्यकाल में उन्होंने बड़ी चतुराई से सबको मैनेज किया है।
मंगलवार, 7 जनवरी 2020
अजमेर के वजूद में रेलवे का अहम किरदार
माना जाता है कि अजमेर का वजूद दरगाह, पुष्कर और कुछ राज्य स्तरीय दफ्तरों के साथ रेलवे की वजह से है। इनके सिवाय अजमेर कुछ भी नहीं। उसमें भी यहां की अर्थव्यवस्था का एक केन्द्र यदि रेलवे को कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। रेलवे में काम कर रहे तकरीबन दस हजार कर्मचारियों का करीब सत्तर करोड़ रुपए का सालाना वेतन यहां की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है। जाहिर तौर पर बाजार पर इसका असर दिखाई देता है। इतना ही नहीं रेलवे के कबाड़ ने भी यहां की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित किया है। कई लोगों ने रेलवे के कबाड़ को खरीदने के धंधे को अपनाया और आज वे करोड़पति हैं। वही पैसा अन्य व्यवसायों में खर्च होने के कारण यहां की आर्थिक प्रगति का हिस्सा बना है। देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुुंबई को जोडऩे वाली यहां की रेलवे लाइन जाहिर तौर पर यहां के व्यापार की रीढ़ की हड्डी है।
सब जानते हैं कि अजमेर में रेलवे का सफर काफी पुराना है। आजादी से पहले राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहे अजमेर में अंग्रेजों ने रेलवे के विकास पर विशेष ध्यान दिया। अजमेर में रेलवे का इतिहास कितना पुराना है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अजमेर सबसे पहले आगरा से रेल मार्ग से सन् 1875 में जोड़ा गया और सन् 1876 में ही बॉम्बे बड़ौदा एंड सेंट्रल इंडियन रेलवे कंपनी ने यहां मीटरगेज सिस्टम के लोकोमोटिव वर्कशॉप की स्थापना कर दी थी। इसको वर्कशॉप पश्चिम रेलवे का प्रमुख व उत्तर पश्चिम रेलवे का सबसे बड़ा कारखाना होने का गौरव हासिल है। भारतीय रेलवे के करीब एक सौ साठ साल के इतिहास में सन् 1885 को स्वर्णाक्षरों में लिखा गया, जब यहां देश का पहला लोकोमोटिव (इंजन) बनाया गया। अब यह नई दिल्ली में नेशनल रेल म्यूजियम में अजमेर का नाम रोशन कर रहा है। इसी वर्कशॉप से पहले व दूसरे विश्व युद्ध में कलपुर्जे व युद्ध सामग्री अफ्रीका व ऐशियाई देशों में भेजी गई। यह वर्कशॉप बाद में वक्त की रफ्तार के साथ बदला और 1979 में यहां पहला डीजल इंजन रखरखाव के लिए अजमेर आया। भाप के आखिरी इंजन सन् 1985 में दुरुस्त कर भेजा गया। इसी प्रकार मई 1997 में पहला ब्रॉडगेज वैगन यहां दुरुस्त कर भेजा गया और अप्रैल 2000 में पहली मीटरगेज ड्यूमेटिक ट्रैक मशीन व जून 2001 में ब्रॉडगेज यूनिमेट ट्रेक मशीन की मरम्मत की गई।
केरिज व लोको कारखाने के ढ़लाईखाने भारतीय रेल की शान रहे हैं। उसे लोकोमोटिव सेंट्रल वर्कशॉप ऑफ दी राजपूताना-मालवा रेलवे, अजमेर कहा जाता था। केरिज कारखाने में स्टील ढ़ालने का विशाल ढ़लाईखाना भिलाई के इस्पात कारखाने के समकक्ष माना जाता था। केरिज का ढ़लाईखाना तो वर्षों पहले बंद हो गया, लोको का बे्रक ब्लॉक्स बनाने वाला ढ़लाई कारखाना भी सिमटता चला गया। हालांकि यहां स्थापित रेलवे मंडल कार्यालय जोन मुख्यालय बनने की सर्वाधिक पात्रता रखता था, परंतु राजनीतिक कारणों से इसे वह दर्जा हासिल नहीं हो पाया और जोन मुख्यालय जयपुर में स्थपित हो गया।
सब जानते हैं कि अजमेर में रेलवे का सफर काफी पुराना है। आजादी से पहले राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहे अजमेर में अंग्रेजों ने रेलवे के विकास पर विशेष ध्यान दिया। अजमेर में रेलवे का इतिहास कितना पुराना है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अजमेर सबसे पहले आगरा से रेल मार्ग से सन् 1875 में जोड़ा गया और सन् 1876 में ही बॉम्बे बड़ौदा एंड सेंट्रल इंडियन रेलवे कंपनी ने यहां मीटरगेज सिस्टम के लोकोमोटिव वर्कशॉप की स्थापना कर दी थी। इसको वर्कशॉप पश्चिम रेलवे का प्रमुख व उत्तर पश्चिम रेलवे का सबसे बड़ा कारखाना होने का गौरव हासिल है। भारतीय रेलवे के करीब एक सौ साठ साल के इतिहास में सन् 1885 को स्वर्णाक्षरों में लिखा गया, जब यहां देश का पहला लोकोमोटिव (इंजन) बनाया गया। अब यह नई दिल्ली में नेशनल रेल म्यूजियम में अजमेर का नाम रोशन कर रहा है। इसी वर्कशॉप से पहले व दूसरे विश्व युद्ध में कलपुर्जे व युद्ध सामग्री अफ्रीका व ऐशियाई देशों में भेजी गई। यह वर्कशॉप बाद में वक्त की रफ्तार के साथ बदला और 1979 में यहां पहला डीजल इंजन रखरखाव के लिए अजमेर आया। भाप के आखिरी इंजन सन् 1985 में दुरुस्त कर भेजा गया। इसी प्रकार मई 1997 में पहला ब्रॉडगेज वैगन यहां दुरुस्त कर भेजा गया और अप्रैल 2000 में पहली मीटरगेज ड्यूमेटिक ट्रैक मशीन व जून 2001 में ब्रॉडगेज यूनिमेट ट्रेक मशीन की मरम्मत की गई।
केरिज व लोको कारखाने के ढ़लाईखाने भारतीय रेल की शान रहे हैं। उसे लोकोमोटिव सेंट्रल वर्कशॉप ऑफ दी राजपूताना-मालवा रेलवे, अजमेर कहा जाता था। केरिज कारखाने में स्टील ढ़ालने का विशाल ढ़लाईखाना भिलाई के इस्पात कारखाने के समकक्ष माना जाता था। केरिज का ढ़लाईखाना तो वर्षों पहले बंद हो गया, लोको का बे्रक ब्लॉक्स बनाने वाला ढ़लाई कारखाना भी सिमटता चला गया। हालांकि यहां स्थापित रेलवे मंडल कार्यालय जोन मुख्यालय बनने की सर्वाधिक पात्रता रखता था, परंतु राजनीतिक कारणों से इसे वह दर्जा हासिल नहीं हो पाया और जोन मुख्यालय जयपुर में स्थपित हो गया।
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