मंगलवार, 18 मार्च 2014

बहुत दिलचस्प है अजमेर संसदीय क्षेत्र का चुनावी मिजाज

-तेजवानी गिरधर- अरावली पर्वत शृंखला के दामन में पल रहे अजमेर संसदीय क्षेत्र मेवाड़ और मारवाड़ की संस्कृतियों को मिलाजुला रूप है। नजर को और विहंगम करें तो इसकी तस्वीर में अनेक संस्कृतियों के रंग नजर आते हैं। और यही वजह है कि न तो इसकी कोई विशेष राजनीतिक संस्कृति हैं और न ही विशिष्ट राजनीतिक पहचान बन पाई। राजनीतिक लिहाज से यदि ये कहा जाए कि ये तीन लोक से मथुरा न्यारी है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 
सन् 1952 से शुरू हुआ अजमेर का संसदीय सफर काफी रोचक रहा है। राजस्थान में शामिल होने से पहले अजमेर एक अलग राज्य था। सन् 1952 में हुए प्रथम लोकसभा चुनाव में अजमेर राज्य में दो संसदीय क्षेत्र थे-अजमेर उत्तर व अजमेर दक्षिण। राजस्थान में विलय के बाद 1957 में यहां सिर्फ एक संसदीय क्षेत्र हो गया।
चुनावी मिजाज की बात करें तो कभी यह राष्ट्रीय लहर में बह कर मुख्य धारा में एकाकार हो गया तो कभी स्थानीयतावाद में सिमट कर बौना बना रहा। और यही वजह है कि लंबे अरसे तक यहां कभी सशक्त राजनीतिक नेतृत्व उभर कर नहीं आया। जब कभी नेतृत्व की बात होती तो घूम-फिर कर बालकृष्ण कौल, पं. ज्वाला प्रसाद शर्मा या मुकुट बिहारी लाल भार्गव जैसे ईन, बीन और तीन नामों पर आ कर ठहर जाती। नतीजतन आजादी के बाद राजस्थान की राजधानी बनने का दावा रखने वाला अजमेर राजनीतिक उपेक्षा का शिकार रहा। हां, अलबत्ता सचिन पायलट के यहां से जीत कर केन्द्र में राज्य मंत्री बनने पर जरूर इसका कद बना है। एक बार फिर सचिन के यहां से चुनाव लडऩे के कारण इसका शुमार देश की उन सीटों में हो गया है, जिस पर पूरे देश की नजर रहेगी।
दो दलों का ही रहा वर्चस्व
जहां तक राजनीतिक विधारधारा का सवाल है तो यहां प्राय: दो राजनीतिक दलों का ही वर्चस्व रहा है। आजादी के बाद सन् 1952 से 1977 तक इस इलाके में कांग्रेस का ही बोलबाला रहा। लेकिन इसके बाद कांग्रेस के खिलाफ चली देशव्यापी आंधी ने इस गढ़ को ढ़हा दिया और जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा ने बदलाव का परचम फहरा दिया। सन् 1980 में जैसे ही देश की राजनीति ने फिर करवट ली तो कांग्रेस के आचार्य भगवानदेव ने कब्जा कर लिया। सन् 1984 में पेराटूपर की तरह उतने विष्णु मोदी ने भी कांग्रेस की प्रतिष्ठा को बनाए रखा, लेकिन 1989 में कांग्रेस के देशव्यापी बिखराव के साथ यह सीट भाजपा की झोली में चली गई। रावत वोटों के दम पर प्रो. रासासिंह रावत ने इस पर कब्जा कर लिया और पांच बार जीते। केवल एक बार 1998 में डॉ. प्रभा ठाकुर ने उन्हें हराया। पिछले चुनाव में करीब सवा लाख गुर्जर वोटों और सेलिब्रिटी सचिन के दम पर कांग्रेस ने बाजी मार ली।
जातिवाद के दम पर पांच बार कब्जा रहा भाजपा का
असल में राजनीति का प्रमुख कारण जातिवाद यहां 1984 तक अपना खास असर नहीं डाल पाया था। अत्यल्प जातीय आधार के बावजूद यहां से मुकुट बिहारी लाल भार्गव तीन बार, विश्वेश्वर नाथ भार्गव दो बार व श्रीकरण शारदा एक बार जीत चुके हैं। आचार्य भगवान देव की जीत में सिंधी समुदाय और विष्णु मोदी की विजय में वणिक वर्ग की भूमिका जरूर गिनी जा सकती है। लेकिन सन् 1989 में डेढ़ लाख रावत वोटों को आधार बना कर रासासिंह को उतारा तो यहां का मिजाज ही बदल गया। कांग्रेस ने भी बदल-बदल कर जातीय कार्ड खेले मगर वे कामयाब नहीं हो पाए। रावत के सामने सन् 1989 में सवा लाख गुर्जरों के दम उतरे बाबा गोविंद सिंह गुर्जर 1 लाख 8 हजार 89 वोटों से, सन् 1991 में डेढ़ लाख जाटों के दम पर उतरे जगदीप धनखड़ 25 हजार 343 वोटों से और सन् 1996 में एक लाख सिंधी मतदाताओं के मद्देनजर उतरे किशन मोटवानी 38 हजार 132 वोटों से पराजित हो गए। इसके बाद एक अप्रत्याशित परिणाम आया। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में सोनिया गांधी के राजनीति में सक्रिय होने के साथ चली हल्की लहर पर सवार हो कर सियासी शतरंज की नौसिखिया खिलाड़ी प्रभा ठाकुर ने रासासिंह को लगातार चौथी बार लोकसभा में जाने रोक दिया था। हालांकि इस जीत का अंतर सिर्फ 5 हजार 772 मतों का रहा, लेकिन 1999 में आए बदलाव के साथ रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को 87 हजार 674 मतों से पछाड़ कर बदला चुका दिया। इसके बाद 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के बाहरी प्रत्याशी हाजी हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों के भारी अंतर से कुचल दिया। सन् 2009 के चुनाव में तस्वीर जातीय लिहाज से बदल गई। जहां रावत बहुल मगरा क्षेत्र की ब्यावर सीट राजसमंद में चली गई तो दौसा संसदीय क्षेत्र की अनुसूचित जाति बहुल दूदू सीट यहां जोड़ दी गई है। कुछ गांवों की घट-बढ़ के साथ पुष्कर, नसीराबाद, किशनगढ़, अजमेर उत्तर, अजमेर दक्षिण, मसूदा व केकड़ी यथावत रहे, जबकि भिनाय सीट समाप्त हो गई। परिसीमन के साथ ही यहां का जातीय समीकरण बदल गया। रावत वोटों के कम होने के कारण समझें या फिर सचिन जैसे दिग्गज की वजह से, रासासिंह रावत का टिकट पिछली बार काट दिया गया और श्रीमती किरण माहेश्वरी को पटखनी दे कर सचिन जीते तो यहां कांग्रेस का कब्जा हो गया। हालांकि संसदीय क्षेत्र की आठों विधानसभा सीटों पर अब भाजपा का वर्चस्व है, बावजूद इसके इस बार कांग्रेस ने फिर सचिन पर ही भरोसा किया है।
रावत जीत-हार दोनों में अव्वल
मौजूदा सांसद रासासिंह रावत संसदीय इतिहास में ऐसे प्रत्याशी रहे हैं, जिन्होंने सर्वाधिक मतांतर से जीत दर्ज की है तो एक बार हारे भी तो सबसे कम मतांतर से। रावत ने सन् 2004 में कांग्रेस की हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों से हराया, जो कि एक रिकार्ड है। इसी प्रकार सन् 1998 में वे मात्र 5 हजार 772 मतों से ही हार गए, वह भी एक रिकार्ड है। सर्वाधिक मत हासिल करने का रिकार्ड भी रावत के खाते दर्ज है। सन् 1999 में उन्होंने 3 लाख 43 हजार 130 मत हासिल किए। सर्वाधिक बार जीतने का श्रेय भी रावत के पास है। वे यहां से कुल पांच बार जीते, जिनमें से एक बार हैट्रिक बनाई। यूं हैट्रिक मुकुट बिहारी लाल भार्गव ने भी बनाई थी। सर्वाधिक छह बार चुनाव लडऩे का रिकार्ड रावत के साथ निर्दलीय कन्हैयालाल आजाद के खाते में दर्ज है। चुनाव लडऩा आजाद का शगल था। वे डंके की चोट वोट मांगते थे और आनाकानी करने वालों को अपशब्द तक कहने से नहीं चूकते थे।
सबसे कम कार्यकाल प्रभा का
सबसे कम कार्यकाल प्रभा ठाकुर का रहा। वे फरवरी, 1998 के मध्यावधि चुनाव में जीतीं और डेढ़ साल बाद सितंबर, 1999 में फिर चुनाव हो गए। उनका कार्यकाल केवल 16 माह ही रहा, क्योंकि जून में लोकसभा भंग हो गई। 
सर्वाधिक प्रत्याशी 1991 में
अजमेर के संसदीय इतिहास में 1991 के चुनाव में सर्वाधिक 33 प्रत्याशियों ने अपना भाग्य आजमाया। सबसे कम 3 प्रत्याशी सन् 1952 के पहले चुनाव में अजमेर दक्षिण सीट पर उतरे थे।
मौजूदा राजनीतिक हालात
परिसीमन से पहले जिले के अजमेर पूर्व, अजमेर पश्चिम, किशनगढ़, भिनाय, ब्यावर, मसूदा व केकड़ी पर भाजपा का कब्जा था और कांग्रेस के पास केवल पुष्कर व नसीराबाद थे, जबकि परिसीमन के बाद भाजपा अजमेर उत्तर, अजमेर दक्षिण व ब्यावर पर कब्जा बरकरार रखने में कामयाब रही। शेष में से नसीराबाद व पुष्कर पर तो कांग्रेस ने कब्जा बनाए ही रखा, किशनगढ़ व केकड़ी में तख्ता पलट दिया। मसूदा में कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही, लेकिन यहां से जीते विधायक बागी कांग्रेसी ब्रह्मदेव कुमावत ने कांग्रेस को समर्थन दे कर कांग्रेस का आंकड़ा पांच कर दिया है। भाजपा की एक विधानसभा सीट ब्यावर छिन पर राजसमंद में शामिल हो गई है, जबकि कांग्रेस की दौसा संसदीय क्षेत्र की दूदू सीट अजमेर में शामिल हो गई। इस प्रकार यहां कांग्रेस के पास पांच अपने और एक निर्दलीय को मिला कर छह विधायक थे, जबकि भाजपा के दो ही विधायक रह गए। हाल ही संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में चली कांग्रेस विरोधी लहर में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। यही वजह है कि इस बार कांग्रेस की राह कठिन है। 
विधानसभा क्षेत्रों में दलीय स्थिति
अजमेर उत्तर - प्रो. वासुदेव देवनानी, भाजपा
अजमेर दक्षिण - अनिता भदेल, भाजपा
नसीराबाद - प्रो. सांवरलाल जाट, भाजपा
पुष्कर - सुरेश रावत, भाजपा
किशनगढ़ - भागीरथ चौधरी, भाजपा
मसूदा - श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा, भाजपा
केकड़ी - शत्रुघ्न गौतम, भाजपा
दूदू - प्रेमंचद, भाजपा

अब भी टांग ऊंची किए हुए हैं राजेश टंडन

अजमेर बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष व वरिष्ठ कांग्रेस नेता राजेश टंडन ने दावा किया था कि अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट, जो कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी हैं, इस बार अजमेर से चुनाव नहीं लड़ेंगे। उनका कहना है कि उनका दावा कभी बेबुनियाद नहीं होता। दावे को पुष्ट करने के लिए उन्होंने ये भी बताया कि इससे पहले भी उन्होंने कहा था कि भवानी सिंह देथा अजमेर के जिला कलेक्टर होंगे और वैसा ही हुआ। फेसबुक के जरिए किए गए उनके इस दावे को सच इसलिए माना जा रहा था कि एक तो सचिन विरोधियों ने यह अफवाह फैला रखी थी कि अजमेर संसदीय क्षेत्र की सभी आठों विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा हो चुका है, सो सचिन की हिम्मत नहीं हो रही, दूसरा मीडिया में कभी लाल चंद कटारिया का तो कभी अजहरुद्दीन का नाम उछल रहा था। और सबसे बड़ा आधार ये था कि चूंकि सचिन पर प्रदेश कांग्रेस का भार है, इस कारण संभव है वे खुद चुनाव न लड़ें। मगर नामांकन दाखिल होने की प्रक्रिया शुरू होने से एक दिन पहले साफ हो गया कि सचिन अजमेर से ही चुनाव लड़ेंगे। और इसी के साथ टंडन के दावे की हवा निकल गई।
टंडन अजमेर के राजनीतिक पंडित माने जाते हैं। ऐसे में भला वे हार कैसे मान लेते, सो उन्होंने सचिन का नाम घोषित होते ही फेसबुक पर यह पोस्ट डाली कि सचिन पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की राजनीति का शिकार हुए हैं। वे अजमेर से चुनाव नहीं लडऩा चाहते थे और उनका नाम टोंक-सवाईमाधोपुर के लिए फाइनल हो चुका था, मगर गहलोत ने उनका नाम कटवा दिया। ऐसे में सचिन को नहीं चाहते हुए भी अजमेर से चुनाव लडऩा पड़ेगा। ऐसा तर्क देने के पीछे उनका मकसद ये था कि उनका दावा तो सच था, मगर गहलोत की वजह से गलत साबित हो गया। यानि कि चित होने के बाद भी उनकी टांग ऊंची रहनी चाहिए।
उनका दावा था कि गहलोत ने अपने बेटे वैभव गहलोत को टोंक-सवाईमाधोपुर से टिकट दिलवाने के लिए सचिन का वहां से टिकट कटवाया, मगर उनका ये दावा भी गलत हो गया क्योंकि वहां से क्रिकेटर अजहरुद्दीन को टिकट दिया गया है।