सोमवार, 24 जनवरी 2011

डॉ. जयपाल से बाजी मार गए डॉ. सुरेश गर्ग

दीप दर्शन सोसायटी के नाम से नगर सुधार न्यास द्वारा पंचशील क्षेत्र में अवैध तरीके से आवंटित 63 बीघा जमीन के मामले को प्रत्क्षत: प्रेस कॉन्फ्रेंस करके पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल ने उछाला था, मगर सारी क्रेडिट ले गए शहर कांग्रेस के उपाध्यक्ष डॉ. सुरेश गर्ग। उल्लेखनीय है कि इस जमीन का आवंटन और लीज राज्य सरकार के आदेश पर रद्द कर दिया गया है और सोसायटी द्वारा जमा करवाई गई राशि को लौटाने के लिए प्रस्ताव बना कर भेजने को कहा है।
असल में इस मामले की शिकायत लिखित में डॉ. गर्ग ने पहले ही कर दी थी कि जमीन गलत तरीके से आवंटित की गई है, मगर उसको प्रेस में उजागर नहीं किया, इस कारण किसी को पता ही नहीं लगा। बाद में जब डॉ. राजकुमार जयपाल ने न्यास सचिव अश्फाक हुसैन को निशाना बनाते हुए दीप दर्शन सोसायटी का मामला उछाला तब जा कर मामला सबके सामने आया। हालांकि जयपाल ने यह तथ्य राज्य सरकार को भी भेज दिया था, मगर वह अभी प्रोसेस में आया ही नहीं कि इससे पहले ही डॉ. गर्ग के पत्र पर कार्यवाही हो गई। नतीजतन सारी क्रेडिट डॉ. गर्ग ही ले गए और उनकी बल्ले-बल्ले हो गई। हालांकि डॉ. जयपाल के पास अब भी कहने को ये तो है कि भले ही डॉ. गर्ग ने पत्र पहले ही लिख दिया, लेकिन उस पर कार्यवाही नहीं हो रही थी। जब उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके मामले को उजागर किया तो पत्र का वजन बढ़ गया और सरकार को मामले की गंभीरता समझ में आई और इसी कारण दबाव में आ कर निर्णय करना ही पड़ा। बहरहाल, इस मामले में भले ही डॉ. गर्ग ने बाजी मारी हो, मगर डॉ. जयपाल का असल मकसद तो पूरा हो ही गया। ऐसे में अब न्यास अधिकारी डॉ. गर्ग व डॉ. जयपाल, दोनों से ही घबरी खाएंगे और उनसे पंगा मोल लेने से पहले दस बार सोचेंगे कि जमीनों के मामलों में इतने जानकार लोगों से संभल कर रहना होगा।
रहा सवाल दीप दर्शन सोसायटी के अधिकृत प्रतिनिधि कमल शर्मा का, तो उनकी प्रतिक्रिया में भी दम है। उनका कहना है कि उनका पक्ष सुने बिना ही सरकार ने एक झटके में कार्यवाही कर दी, जो कि अनुचित है। वैसे भी उन्होंने कोई न्यास की जमीन पर अतिक्रमण थोड़े ही किया था। बाकायदा न्यास अधिकारियों की सहमति से ही नियमानुसार आबंटन करवाया था। आज यदि उसे नियम विरुद्ध कर उस आवंटन को रद्द किया जा रहा है तो कम से कम आवंटी का पक्ष तो सुना ही जाना चाहिए था। देखना ये है कि अब जब वे अपना पक्ष रखने को राज्य सरकार के समक्ष पेश होते हैं तो मामला कौन सी करवट बैठता है।
धर्मस्थलों का सर्वे कोरी खानापूर्ति ही तो है
बैठे-बैठे क्या करें, करना है कुछ काम। शुरू करो अंताक्षरी लेकर हरि का नाम। लगभग उसी तर्ज पर नगर निगम शहर में सडक़ों व सार्वजनिक स्थलों पर बने धर्मस्थलों को सर्वे कर रहा है। कहा यही जा रहा है कि सर्वे के साथ नए धर्मस्थल न बनें, इसकी जिम्मेदारी जमादार व सफाई निरीक्षकों को दी जा रही है और लापरवाही बरतने पर उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी, मगर होना जाना क्या है, सबको पता है।
सवाल ये उठता है कि सडक़ों पर यातायात में बाधक बने धर्म स्थलों का जब निर्माण हो रहा था, तब निगम का तंत्र क्या कर रहा था? क्या तब किसी को जिम्मेदारी सौंपी हुई नहीं थी कि वे अवैध निर्माण की सूचना तुरंत उच्चाधिकारियों को दें? क्या पहली बार जमादारों व सफाई निरीक्षकों पर जिम्मेदारी आयद की जा रही है? अब इस पर ध्यान दे रहे हैं कि सडक़ों पर धर्म स्थल न बनें, तो क्या पूर्व में इसकी छूट दे रखी थी, जो जगह-जगह कुकुरमुत्ते की तरह धर्म स्थल उग आए हैं? जाहिर सी बात है कि अवैध निर्माण के लिए कभी छूट नहीं दी हुई थी, मगर इस ओर ध्यान दिया ही नहीं गया। धर्म स्थल तो फिर भी आस्था के केन्द्र हैं, इस कारण आस्था की वजह से या फिर पंगा लेने से बचने के कारण उसको नोटिस नहीं लिया जाता था, मगर निगम के कर्मचारियों को अवैध दुकानें और कॉम्पलैक्स तक बनते हुए कभी नजर नहीं आए। आए भी तो उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। यदि रिपोर्ट हुई और शिकायत भी आई, तब भी अधिकारियों ने आंखें मूंद लीं।
रहा सवाल केन्द्र सरकार द्वारा सार्वजनिक स्थलों पर धर्म स्थल बनाए जाने के बारे में सन् 2008 में जारी कड़े निर्देश का तो उस पर ही अमल हो जाता तो स्थिति नहीं बिगड़ती। अब जा कर जो कवायद की जा रही है, उसका हश्र क्या होना है, कौन नहीं जानता? सर्वे तो आठ माह पहले भी हुआ था और यातायात में बाधक बने तकरीबन एक सौ धर्मस्थल चिह्नित किए गए थे, मगर उस पर कार्यवाही आज तक कुछ नहीं हुई। शहर में अनेक ऐसे धर्म स्थल हैं, जो यातायात व्यवस्था को चौपट कर रहे हैं, मगर शासन-प्रशासन में हिम्मत नहीं है कि उन्हें छेड़ सके। और जब इच्छा शक्ति ही नहीं है तो ऐसे बीसियों सर्वे करवा लो, मगर परिणाम तो ढ़ाक के तीन पात ही होना है। यानि कि यह सब केन्द्र व राज्य सरकार के निर्देशों की खानापूर्ति के तहत किया जा रहा है। असल में अंग्रेजों से हमने कुछ और सीखा हो, न सीखा हो, मगर खानापूर्ति करना जरूर सीख लिया। खानापूर्ति के तो हम माहिर हैं। जब-जब भी कोई हादसा होता है, हम खानापूर्ति शुरू कर देते हैं। जोधपुर और पाली में जहरीली शराब से हुई मौतों के बाद अजमेर में भी जो कार्यवाही की गई, वह खानापूर्ति नहीं तो क्या है? जोधपुर व पाली के हादसों के पहले भी अजमेर में कच्ची शराब की भट्टियां थीं, मगर जैसे ही ऊपर से डंडा पड़ा तो लगे उन्हें तोड़ कर खानापूर्ति करने।
असल में हम न केवल खानापूर्ति में माहिर हैं, अपितु लकीर के भी पक्के फकीर हैं। सार्वजनिक स्थलों पर बने धर्म स्थलों का तो सर्वे कर रहे हैं, मगर सरकारी परिसरों में बने धर्म स्थलों को फिर छोड़ दिए जा रहे हैं, चूंकि अभी उसके बारे में स्पष्ट निर्देश नहीं हैं। सवाल ये उठता है कि भले ही सरकारी परिसरों में बने धर्मस्थल यातायात में बाधक नहीं हैं, मगर हैं तो सार्वजनिक स्थल पर और अवैध ही। उनकी सुध कौन लेगा? उसकी सुध भी तभी लेंगे, जब कोई जनहित याचिका दायर करेगा और कोर्ट डंडा मारेगा। जब तक इस तरह की मानसिकता रहेगी, यूं ही सर्वे होते रहेंगे और यूं ही धार्मिक आस्था के ठीये आबाद होते रहेंगे।

कांटे की टक्कर है बजाड़ व भडाणा के बीच

जिला परिषद सदस्य के लिए आगामी 28 जनवरी को होने जा रहे चुनाव में कांग्रेस के सौरभ बजाड़ व भाजपा के ओमप्रकाश भडाणा के बीच कांटे की टक्कर है। बजाड़ को जहां कांग्रेस के सत्ता में होने व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के वरदहस्त का फायदा मिलता दिखता है तो भडाणा को जिला परिषद पर काबिज भाजपा बोर्ड व गुर्जर आरक्षण आंदोलन में अग्रणी भूमिका अदा करने का लाभ मिलने की उम्मीद है।
जहां तक व्यक्तिगत छवि का सवाल है, दोनों ही प्रत्याशी युवा और बेदाग हैं। दोनों के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है। ऐसे में नकारात्मक वोटिंग की कोई आशंका नहीं है। रहा सवाल दोनों के एक ही जाति गुर्जर से होने का तो तकरीबन आठ हजार गुर्जर मतदाताओं वाले इस वार्ड में प्रत्क्षत: गुर्जर आंदोलन में उग्र नेता के रूप में उभरने के कारण यह माना जा रहा है कि उन्हें गुर्जर समाज का भरपूर समर्थन मिलेगा, मगर वस्तुत: धरातल पर ठीक ऐसा ही नहीं है। भले ही कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व में आंदोलन सफल हुआ और भडाणा बैंसला के ही शागिर्द हैं, मगर समझौता होने के बाद स्थितियों में बदलाव आया है। अब बजाड़ भी यह कहने की स्थिति में हैं कि सचिन पायलट की वजह से समझौते की राह निकली, इस कारण उनके हाथ मजबूत करने के लिए उन्हें समर्थन दिया जाना चाहिए। आंदोलन के दौरान भले ही गुर्जर जाति के लोग सरकार के खिलाफ थे, मगर समझौते के बाद उनके लिए सचिन की अहमियत भी उतनी ही है, जितनी कि बैंसला की। कदाचित सचिन का महत्व इस कारण ज्यादा है क्योंकि वे आज सत्ता की गाडी पर सवार हैं और निजी तौर लाभ देने की स्थिति में हैं। अगर पायलट इसे व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से जोड़ कर घेराबंदी करेंगे तो बेशक गुर्जरों के वोट बजाड़ के खाते में दर्ज करवा पाने में सफल हो सकते हैं। वैसे भी गुर्जर आमतौर पर पंरपरागत रूप से कांग्रेसी ही माने जाते हैं।
अन्य जातियों में दस हजार मुस्लिम व चीता-मेहरात और दो हजार एससी-एसटी का परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ होने का लाभ बजाड़ को मिलेगा तो सात हजार रावत, चार हजार जाट और डेढ़-डेढ़ हजार ब्राह्मण, महाजन व राजपूतों को परंपरागत रूप से भाजपा के साथ होने का फायदा भडाणा उठा सकते हैं। गैर गुर्जर जातियों में आंकड़ों के लिहाज से भडाणा आगे नजर आते हैं, ऐसे में गुर्जर जाति के वोट निर्णायक स्थिति में हैं। जो प्रत्याशी गुर्जरों के वोट ज्यादा ले जाएगा, वह जीत के करीब आ जाएगा।
स्थानीय राजनीति के हिसाब से देखें तो बजाड़ को जहां प्रधान रामनाराण गुर्जर के साथ होने का लाभ मिल रहा है तो भडाणा को जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा के समर्थन का बड़ा संबल है।
एक फैक्टर और काम कर सकता है। वो ये कि अगर भडाणा ने बैंसला के नाम पर गुर्जरों को लामबंद करने की कोशिश की तो संभव है वे गुर्जरों का भावनात्मक लाभ उठा लें, मगर आंदोलन के दौरान गैर गुर्जरों में जनजीवन ठप होने की जो शिकायत रही, वह उन्हें नुकसान दे सकती है।
कुल मिला कर हार-जीत के समीकरण काफी उलझे हुए हैं और पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि जीत की ओर कौन अग्रसर है। प्रचार के मामले में दोनों ने एडी-चोटी का जोर लगा रखा है। ऐसे में फिलहाल यही कहा जा सकता है कि दोनों के बीच कांटे की टक्कर है।