शनिवार, 19 दिसंबर 2015

भाजपाइयों की सिर्फ पिदाई, पिदाई, पिदाई...

मौजूदा भाजपा सरकार को दो साल पूरे हो गए, मगर औंकार सिंह लखावत को छोड़ कर अजमेर के किसी भी भाजपा नेता को कोई इनाम नहीं मिल पाया है। कई बार अफवाह फैली कि इस बार राजनीतिक रेवडिय़ां बांटी जाएंगी, और इसी के साथ जयपुर की दौड़ें भी होती रहीं, मगर किसी को कुछ नहीं मिला। कभी बजट तो कभी विधानसभा उपचुनाव, कभी पंचायत चुनाव तो कभी स्थानीय निकाय के चुनाव। कोई न कोई बहाना। पिछली बार नियुक्तियां इस कारण रुकीं क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव थे। कयास ये था कि अगर वहां भाजपा जीती तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अधिक मजबूत होंगे और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर गाज गिरेगी। सब सांस थामे हुए थे। वसुुंधरा विरोधी उम्मीद पाले हुए थे, मगर हुआ उलटा। सो ये माना गया कि वसु मैडम को जीवनदान मिल गया है। इसी के साथ राजस्थान में राजनीतिक नियुक्तियां होने के सुगबुगाहट शुरू हो गई।
हालांकि स्थानीय भाजपा नेता कई पदों के लिए मशक्कत कर रहे हैं, पर सर्वाधिक प्रतिष्ठापूर्ण दौड़ है अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद की। इसके लिए यूं तो मोटे तौर पर ये माना जा रहा है कि न तो कोई सिंधी बनेगा, क्योंकि यहां से विधायक प्रो वासुदेव देवनानी मंत्री हैं और न ही अनुसूचित जाति का कोई नेता, क्योंकि इस वर्ग से विधायक श्रीमती अनिता भदेल मंत्री हैं। इसी प्रकार अन्य पिछडा वर्ग के भी किसी नेता के अध्यक्ष बनने की संभावना समाप्त है, क्योंकि इस वर्ग के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत व डिप्टी मेयर संपत सांखला हैं। षहर भाजपा अध्यक्ष भी ओबीसी से हैं। ऐसे में ब्राह्मण या वणिक वर्ग से ही किसी के बनने की संभावना रहती हैं। फिलहाल नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेष जैन, षहर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष षिवषंकर हेडा के साथ सुभाश काबरा का नाम भी जुड गया है। वे काफी गंभीर प्रयास कर रहे हैं। धन बल में भी कम नहीं पडेंगे। इसी प्रकार देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो बी पी सारस्वत भी गंभीर दावेदार हैं, मगर उनके दुबारा अध्यक्ष बनने के बाद संभावना कुछ कम हुई है। हालांकि राजनीति में कुछ कहा नहीं जा सकता। इसी प्रकार पूर्व डिप्टी मेयर सोमरत्न आर्य भी कोषिष में जुटे हैं।
बहरहाल, स्थिति ये है कि कोई भी दावेदार ये कहने की स्थिति में नहीं है कि उसका नंबर आ जाएगा। हालांकि कहा ये जाता है कि सरकार के दो साल पूरे होने के उपलक्ष में आयोजित समारोह के बाद नियुक्ति हो सकती है, मगर अब तक तो ऐसा हुआ नहीं। केवल एडीए ही क्यों, किसी और स्थान पर भी राजनीतिक नियुक्ति को तरस रहे हैं भाजपा के नेता। यानि कि पिदाई, पिदाई और पिदाई। पिछले दिनों दो साल पूरे होने के उपलक्ष में जयपुर में आयोजित समारोह में भीड जुटाने की कवायद भी हो गई। जो दावेदार हैं, उन्होंने अपनी अपनी परफोरमेंस भी दे दी हे, मगर उसके अनुसार ईनाम कब मिलेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

क्या फिर अध्यक्ष बनने से सारस्वत खुश हैं?

अजमेर देहात जिला भाजपा अध्यक्ष पद पर तीसरी बार काबिज होने पर जाहिर तौर पर बी पी सारस्वत को बधाइयां मिल रही हैं, वे स्वीकार भी कर रहे हैं, मगर सवाल ये है कि क्या सारस्वत वाकई इससे खुश हैं? ये सवाल इसलिए मौजूं है क्योंकि सारस्वत ने पार्टी की बहुत और बेहतर सेवा की है और अब वे ईनाम के हकदार हैं, मगर फिर से उनको पार्टी की ही सेवा का मौका दिया गया है। ऐसे में यह सवाल भी बनता है कि क्या भाजपा के मौजूदा षासनकाल के बाकी बचे हुए तीन साल भी वे किसी सरकारी लाभ के पद से वंचित रहेंगे?
असल में वे आरंभ से राजनीति में एक जनप्रतिनिधि के तौर पर काम करना चाहते थे। कोई बीस साल पहले उन्होंने ब्यावर से विधानसभा चुनाव की टिकट चाही थी। पार्टी की सेवा करते रहे और हर चुनाव में ब्यावर से टिकट मांगी। पिछली बार अजमेर उत्तर से टिकट के मजबूत दावेदार रहे। माना जाता है कि अगर पार्टी किसी गैर सिंधी को टिकट देने का मानस बनाती तो उनका नाम टॉप पर होता। यहां बता दें कि एक फेसबुक सर्वे में उन्हें सर्वाधिक वोट मिले थे। विधानसभा चुनाव में आए अच्छे परिणाम में भी उनकी भूमिका को सराहा गया। माना जाता है कि उन पर मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे भी मेहरबान हैं, इस वजह से एडीए के चेयरमैन के रूप में उनकी दावेदारी सबसे प्रबल है। मगर एक बार फिर से संगठन की जिम्मेदारी लेने पर यह सवाल उठ रहा है कि क्या ऐसा खुद उनको मंजूर है? क्या वे इससे खुश हैं? वैसे लगता तो नहीं कि वे इस पद से खुष होंगे। इसमें कोई दोराय नहीं कि जब से उन्होंने देहात जिला की काम संभाला है, पार्टी और मजबूत हुई है। उनकी देखरेख में सदस्यता अभियान भी षानदार सफलता हासिल कर चुका है। मगर यह एक सामान्य सी बात है कि हर कोई राजनीति में सेवा के बाद मेवा चाहता है। अब तीन साल बाकी रह गए हैं। क्या अब भी पार्टी उनकी और घिसाई करेगी या कभी ईनाम भी देने पर विचार करेगी?
-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

स्मार्ट सिटी : कौन जवाबदेह है सब्जबाग के लिए?

अमेरिकी दौरे के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के श्रीमुख से जब अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाने की घोषणा हुई थी तो यहां के हर नागरिक तक खुशी की लहर दौड़ गई थी। एक ओर जहां कुछ भाजपा नेताओं ने इसका श्रेय लेने की कोशिश की तो वहीं अखबारों ने भी जश्न का माहौल बना दिया। हालांकि उस वक्त भी बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा था, जो यह मानता था कि भले ही स्मार्ट सिटी के लिए खूब बजट आ जाए, मगर जैसा यहां के राजनेताओं और अफसरों का हाल है, कुछ खास बदलाव आने वाला नहीं है। तब उनकी राय को नकारात्मक दृष्टिकोण में शामिल किया जाता था। ऐसे बुद्धिजीवी तब चुप हो गए, जब संभागीय आयुक्त धर्मेन्द्र भटनागर ने ताबड़तोड़ बैठकें लेना शुरू कर दिया। फेसबुक पेज बना। स्मार्ट सिटी के लिए सुझाव देने वाले पसंदीदा समाजसेवकों को सम्मानित तक किया गया। तब कहीं ये शक नहीं था कि स्मार्ट सिटी एक छलावा है।
इसके बाद जब केन्द्र सरकार ने एक सौ शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की घोषणा की और उसमें भी अजमेर का नाम था तो तनिक संदेह हुआ कि जब अमेरिका के सहयोग से अजमेर पहले ही स्मार्ट सिटी बनाया जाना तय हो चुका है तो उसे एक सौ शहरों में कैसे शामिल कर लिया गया। तब शंकाएं उठी थीं, मगर स्मार्ट सिटी के लिए हो रही कवायद में दब गईं। शक तब और पुख्ता हुआ, जब नगर निगम ने नए सिरे से स्मार्ट सिटी के लिए सुझाव मांगना शुरू किया। जाहिर तौर पर इस पर मीडिया चिल्लाया कि पहले जो सुझाव लिए थे, उनका क्या हुआ? बेवजह क्यों स्मार्ट सिटी संबंधी बैठकों पर लाखों रुपए बर्बाद किए गए? जब गाइड लाइन ही नहीं थी तो क्यों पानी को दही की तरह मथने की कवायद की गई? आखिरकार नगर निगम आयुक्त गुइटे साहब ने हाल ही साफ ही कर दिया है कि अजमेर अभी तो पहले बीस शहरों की सूची में शामिल होने की दौड़ में है। उनका ऐसा कहना था कि हर नागरिक को यह पक्का हो गया कि प्रधानमंत्री ने अमेरिकी दौरे के वक्त जो घोषणा की थी, वह छलावा मात्र थी। हालांकि अब भी अधिकृत रूप से कोई ये कहने का तैयार नहीं है कि आखिर उस घोषणा का क्या हुआ, इस कारण पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर शहर की दो विधानसभा सीटों से विधायक बन कर राज्य मंत्री बने प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल की चुप्पी साफ संकेत दे रहे हैं कि दाल में काला ही नहीं, बल्कि पूरी दाल ही काली है। केन्द्र सरकार में जलदाय महकमे के राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट भी मौन हैं, जबकि वे भी कई बार अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाने संबंधी बयान दे चुके हैं।
असल में उनकी जिम्मेदारी यहां का प्रतिनिधित्व करने के कारण तो है ही, इस कारण और अधिक है क्योंकि उन्होंने हाल ही हुए नगर निगम चुनाव के दौरान वोट बटोरने के लिए स्मार्ट सिटी के सपने को जम कर बेचा था। ऐसे में आज उनकी चुप्पी स्वाभाविक रूप से खलने वाली है। चंद दिन से मीडिया व सोशल मीडिया पर अजमेर को छले जाने के समाचार छाये हुए हैं, मगर दोनों मंत्रियों को एक बार भी इस जिम्मेदारी का अहसास नहीं हुआ कि वे कुछ तो स्पष्ट करें। यह बेहद अफसोसनाक है। कल आप इसी बिना पर वोट मांग रहे थे, लिए भी, और आज चुप्पी साधे बैठे हैं। सच जो भी हो, आम जनता को यह पूछने का हक है कि वे पहले हुई घोषणा का खुलासा करें कि वह कहां जा कर अटक गई अथवा निरस्त हो गई? या अभी निरस्त नहीं हुई है?
अफसोसनाक बात ये है कि नगर निगम में बराबर की टक्कर वाली विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भी इस मामले में चुप्पी साध रखी है। उसे तो अब तक आसमान सिर पर उठा लेना चाहिए था। तभी तो इस शहर को टायर्ड और रिटायर्ड लोगों का शहर कहा जाता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

स्मार्ट सिटी अजमेर: आखिर हम कब तक सोते रहेंगे

एक साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी अमेरिका दौरे पर थे, तब राष्ट्रपति ओबामा बराक ओबामा के श्रीमुख से ऐलान करवाया गया कि अजमेर सहित भारत के तीन नगरों को स्मार्ट सिटी बनाने में अमेरिका मदद करेगा, तो अजमेर वासियों की बाछें खिल गई थीं। हर कोई यह सोच रहा था कि यकायक अजमेर का भाग्य कैसे जाग गया। जिस नगर का कभी कोई धणी धोरी नहीं रहा, उसे स्मार्ट सिटी के चुना गया तो स्वाभाविक रूप से सब खुष थे। भाजपा नेताओं ने तो इसको जम कर भुनाया कि मोदी जी ने अजमेर का कायाकल्प करवाने की पहल की है। जाने कितने समारोहों में अजमेर के मंत्रियों ने भाजपा राज के सुषासन की दुहाई दी। कदाचित उसी बहाने नगर निगम के चुनाव में वोट भी हासिल किए। और तो और संभागीय आयुक्त धर्मेन्द्र भटनागर ने भी लगातार बैठकें कर ऐसा जताया कि जैसे अजमेर स्मार्ट सिटी बस होने ही जा रहा है। जयपुर व दिल्ली में भी बैठकें हुईं। अमेरिकी प्रतिनिधियों की मौजूदगी में तीर्थराज में गहन चर्चा की गई। यहां तक कि स्मार्ट सिटी के सपने को साकार करने में बौद्धिक मदद करने वाले चुनिंदा समाजसेवियों तक को सम्मानित तक कर दिया गया। बैठकों में चाय पानी पर लाखों रूपये खर्च किए गए। मगर सब ढाक के तीन पात निकले। यानि कि वह सब कोरी चोंचलेबाजी कि अतिरिक्त कुछ नहीं था।
आज हालत ये है कि अजमेर देष के उन एक सौ नगरों में है, जिनको स्मार्ट सिटी बनाया जाना है। उसमें भी हालत ये है कि यहां का इंफ्रास्टक्चर ही ऐसा नहीं है कि हम उन एक सौ में बीस अग्रणी नगरों में गिने जाएं। पहले संभागीय आयुक्त भटनागर ने नगर के बुद्धिजीवियों और सामाजिक संस्थाओं से सुझाव लिए और अब नगर निगम नए सिरे से सुझाव मांग रहा है। कैसी विडंबना है।
असल में हुआ ये लगता है कि ऐलान के बाद अजमेर के नेता वाहवाही तो लूट रहे थे, मगर स्मार्ट सिटी के नाते होना क्या है, इसकी किसी ने सुध नहीं ली। किसी ने इतनी जहमत नहीं उठाई कि इस मामले में केन्द्र सरकार से संपर्क बना कर रखा जाए। केन्द्रीय जलदाय राज्य मंत्री प्रो सांवरलाल जाट भी कहते ये रहे कि अजमेर जल्द ही स्मार्ट होने जा रहा है, कभी खुलासा नहीं किया कि इसके तहत आखिर होगा क्या। आज भी हालत ये है कि कोई भी आधिकारिक रूप से यह कहने की स्थिति में नहीं है कि स्मार्ट सिटी के तहत अजमेर में क्या बदलाव होंगे। नेता व प्रषासनिक अधिकारी यह कह कर पल्लू झाड रहे हैं कि अभी केन्द्र सरकार की ओर से गाइड लाइन नहीं आई है।
आज हालत ये है कि एक बार फिर हम जीरो पर खडे हैं। नगर निगम नए सिरे से स्मार्ट सिटी के लिए सुझाव मांग रहा है। यह कैसा मजाक है आम जनता के साथ। वस्तुत: यह सब हम नागरिकों सोये होने का परिणाम है। पहले स्लम फ्री सिटी की योजना आई, उस पर कुछ काम नहीं हुआ, मगर हम सोते रहे। सीवरेज योजना कछुआ चाल से चल रही है और अब तक उस पर अमल नहीं हो पा रहा और हम सो रहे हैं। एक बार दरगाह विकास के नाम पर एक बडी योजना बनी, उसे भी आसमान निगल गया और हम व हमारे प्रतिनिधि मुंह पर पट्टी बांधे बैठे रहे। इतना सब होने के बाद भी अगर हम सोते रहे तो भले ही एक दिन अजमेर स्मार्ट सिटी की सूची में गिन लिया जाएगा, मगर ऐसा स्मार्ट होगा, जैसा नहीं हुए बराबर।
तेजवानी गिरधर
7742067000, 8094767000

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

जिला कलेक्टर को है सिर्फ स्वच्छ भारत मिशन की चिंता

पिछले कुछ दिन से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिला कलेक्टर आरुषि मलिक को केवल स्वच्छ भारत मिशन की ही चिंता है। वे लगातार केवल इसी पर मोनिटरिंग कर रही हैं। जैसे अर्जुन की नजर केवल मछली की आंख पर थी, वैसे ही उनकी नजर भी केवल इसी योजना पर है। सूत्रों का मानना है वे अजमेर जिले को इस योजना के तहत अव्वल लाना चाहती हैं। अगर ऐसा करने में वे सफल हो गईं तो स्वाभाविक रूप से उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत किया जाएगा, जो कि उनकी सीआर के काम आएगा। यानि कि वे ठीक उसी प्रकार काम कर रही हैं, जैसे किसी जमाने में जिला कलेक्टर अदिति मेहता ने किया था। उन्होंने अपनी पूरी ताकत अजमेर जिले को संपूर्ण साक्षर जिला बनाने में लगा दी थी। वे कामयाब भी हुईं। मगर दोनों कलेक्टरों में फर्क ये है कि अदिति मेहता ने साक्षरता के अतिरिक्त अन्य योजनाओं पर भी पूरा ध्यान दिया। यहां तक कि अजमेर को अतिक्रमण से मुक्त करने का भी सफलतम अभियान चलाया। आरुषि मलिक केवल स्वच्छ भारत अभियान पर ही ध्यान दे रही हैं। उनका सारा फोकस उसी पर है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले एक साल से स्मार्ट सिटी के लिए हो रही कवायद के दौरान उन्होंने खास रुचि नहीं दिखाई। केवल संभागीय आयुक्त धर्मेन्द्र भटनागर ही मॉनिटरिंग करते रहे। मीडिया ने इसे रेखांकित भी किया, मगर उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा। हालत ये है कि वे अजमेर के दोनों मंत्रियों को भी अपेक्षित तवज्जो नहीं देतीं। उनका यह रवैया भी मीडिया में उजागर हो चुका है। वस्तुत: आरुषि मलिक जानती हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्कांक्षी योजना स्वच्छ भारत मिशन योजना को सफल बनाने पर ही उनके नंबर दिल्ली में बढ़ेंगे। अगर एक बार दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित हो गईं तो उसके बाद दिल्ली जा कर केन्द्रीय मंत्रालयों में काम करने का मौका मिलेगा।
दूसरी ओर प्रशासन की अधिकतर बैठकें अतिरिक्त जिला कलेक्टर किशोर कुमार ले रहे हैं। वे ओवरलोड हैं। डट कर काम करने की आदत के कारण पूर्व कलेक्टर मंजू राजपाल के कार्यकाल में भी उनको ढ़ेर सारे काम दे रखे थे। वे इसी में खुश हैं।

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

आखिर कब होगी एडीए में पूर्णकालिक अध्यक्ष की नियुक्ति

राज्य सरकार ने एक आदेष जारी कर अजमेर विद्युत वितरण निगम के अध्यक्ष हेमंत गेरा को अजमेर विकास प्राधिकरण का अतिरिक्त कार्यभार सौंप दिया है। वे जल्द ही कार्यभार संभालेंगे। वस्तुतः पहले यह तय हुआ था कि संभागीय आयुक्त धर्मेन्द्र भटनागर की सेवा पूर्ण होने पर जिला कलेक्टर आरूशि मलिक को यह पद अतिरिक्त रूप से सौंपा जाएगा। ज्ञातव्य है कि भटनागर के पास ही प्राधिकरण के अध्यक्ष पद का जिम्मा था। असल में गत 30 सितम्बर को धर्मेन्द्र भटनागर की संभागीय आयुक्त पद से सेवानिवृत्ति के बाद कलेक्टर को ही कार्यवाहक संभागीय आयुक्त बनाया गया। चूंकि संभागीय आयुक्त के पास ही प्राधिकरण के अध्यक्ष का पद था, इसलिए स्वाभाविक रूप से कलेक्टर ही अध्यक्ष का पद लेने जा रही थीं कि इस बीच सरकार ने गेरा के नाम के आदेष जारी कर दिए। बताया ये जा रहा है कि आरूशि की जगह गेरा की नियुक्ति करवाने में षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी का हाथ है, क्योंकि उनकी आरूशि के साथ ट्यूनिंग ठीक नहीं है।
बहरहाल, कार्यवाहक अध्यक्ष कोई भी रहे, मगर बडा सवाल ये है कि आखिर एडीए के अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर पूर्णकालिक अध्यक्ष की नियुक्ति कब की जाएगी। यह सवाल इस कारण ज्यादा अहम है क्योंकि अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाया जाना है। वह काम कोई स्थाई अध्यक्ष ही ठीक से अंजाम दे सकता है। इसी संदर्भ में यह बताना प्रासंगिक होगा कि भटनागर ने बिना स्पश्ट गाइडलाइन के ही र्स्माट सिटी की कवायद षुरू कर दी थी, जिस पर लाखों रूपए बर्बाद हो गए। उन्होंने तो बाकायदा चंद समाजसेवियों को स्मार्ट सिटी के लिए राय देने के नाम पर सम्मानित तक किया। उनकी उस स्मार्ट सिटी का क्या हुआ, पता नहीं। अब अजमेर को देष के उन एक सौ षहरों में षामिल किया गया है, जिनको स्मार्ट सिटी बनाया जाना है। उसके लिए नए सिरे से कवायद की जा रही है। नगर निगम फिर नए सुझाव मांग रहा है। चूंकि अजमेर विकास प्राधिकरण के पास अजमेर के विकास का जिम्मा है, अतः यह लाजिमी है कि उसका अध्यक्ष कोई पूर्णकालिक हो।  वो भी अगर जनप्रतिनिधि हो तो बेहतर, क्योंकि उसे अजमेर की जनता की अपेक्षाएं बेहतर पता होंगी। आए दिन सुना ये जाता है कि जल्द ही किसी भाजपा नेता को अध्यक्ष बनाया जाएगा, मगर हर बार वह अफवाह ही रह जाती है। इन दिनों फिर से चर्चा थी कि इस पद पर नियुक्ति होगी, मगर जैसे ही भटनागर सेवा से मुक्त हुए तो गेरा को यह जिम्मा दे दिया गया।
यहां आपको बता दें कि अजमेर विकास प्राधिकरण के पहले अध्यक्ष पद का दायित्व तत्कालीन कलेक्टर वैभव गालरिया को सौंपा गया था। प्राधिकरण बनने के बाद से अटकलें लगाई जा रही थी कि अध्यक्ष पद पर किसकी नियुक्ति होगी। विधानसभा चुनाव निकट होने की वजह से इस पद पर राजनीतिक नियुक्ति होने की उम्मीद न के बराबर थी। प्रशासनिक हल्कों में अध्यक्ष का पद संभागीय आयुक्त अथवा वरिष्ठ भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी को देने की उम्मीद थी, लेकिन सरकार ने कलेक्टर को कार्यभार सौंपकर सबको अचंभित कर दिया था।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

तब सामान्य वर्ग के नेता पीछे क्यों हट गए

अजमेर नगर निगम चुनाव में मेयर के सामान्य पद पर ओबीसी के धर्मेन्द्र गहलोत को चुने जाने के बाद एक ओर जहां पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह षेखावत के प्रति हमदर्दी रखते हुए सामान्य वर्ग लामबंद हो रहा है, वहीं भाजपा के अंदरखाने गहलोत को चुने जाने को जायज बताया जा रहा है। कुछ पार्टी नेताओं का कहना है कि आज जो सामान्य वर्ग के हितों पर कुठाराघात का हल्ला मचाया जा रहा है, वह पूरी तरह से नाजायज है। पार्टी ने तो सामान्य वर्ग के नेताओं को ही प्राथमिकता देने के लिए पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष धर्मेष जैन, देहात जिला भाजपा अध्यक्ष व पूर्व षहर जिला भाजपा अध्यक्ष षिवषंकर हेडा जैसे दिग्गज नेताओं को चुनाव मैदान में उतारने का निर्णय किया था। स्वाभाविक रूप से गहलोत को छोड कर उनमें से ही मेयर बनाया जाता। मगर जहां जैन ने आरंभ में ही मना कर दिया, वहीं हेडा ने आखिरी वक्त में इंकार कर दिया। हेडा को चुनाव लडवाने के लिए तो बाकायदा सीट खाली की गई और नीरज जैन को वार्ड दो में प्रदीप हीरानंदानी का टिकट काट कर लडाने का निर्णय किया गया। जब खुद सामान्य वर्ग के नेता ही चुनाव लडने को तैयार नहीं हुए तो आज किस आधार पर सामान्य वर्ग गुस्सा खा रहा है। उन्हें षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी को दोष देेने की बजाय सामान्य वर्ग के नेताओं को पकडना चाहिए, जो पीछे हट गए। उनके कपडे फाडने चाहिए जो सामान्य वर्ग के होते हुए भी सामान्य वर्ग के हितों की रक्षा नहीं कर पाए। पार्टी ने तो पहले सामान्य को ही मौका दिया था। अगर हेडा चुनाव लडते तो वे और केवल वे ही मेयर पद के दावेदार होते। मगर कदाचित हार के डर से वे पीछे हट गए। ऐसे में पार्टी के पास जो भी सर्वाधिक अनुभवी, योग्य और दमदार नेता था, उसे मेयर बना दिया गया। ऐसा तो हो नहीं सकता था कि सामान्य के नाम पर किसी भी सामान्य को मेयर बना दिया जाता। जाहिर तौर पर मेयर पद संभाल सकने वाले को ही मेयर बनाना था और उसके लिए गहलोत ही सर्वाधिक उपयुक्त थे। पार्टी के पार्षदों का बहुमत भी उनके साथ ही था।
कुछ का कहना है कि आज जो सुरेन्द्र सिंह पार्टी से बगावत कर कांग्रेस के सहयोग से मेयर बनना चाहते थे, उनका हक ही नहीं बनता था। वे और उनकी आका महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल तो अपने दक्षिण इलाके में पार्टी को जितवा ही नहीं पाए। ऐसे में उनका दावा तो वैसे ही कमजोर था। जाहिर तौर पर जब देवनानी अपने इलाके में ज्यादा सीटें लाए और पार्टी की साख बचाई, तो उनका ही हक बनता था कि मेयर के लिए व्यक्ति तय करें। उन्हें जो सर्वाधिक उपयुक्त लगा, उसे बनवा दिया।
डिप्टी मेयर पद पर भी ओबीसी के संपत सांखला को बनाए जाने के पीछे तर्क दिया जा रहा है। उनका कहना है कि डिप्टी मेयर पद के लिए कोई लॉटरी थोडे ही निकाली गई थी, जो सामान्य वर्ग इतना उबल रहा है। उन्हें तो अजमेर की दोनों सीटों में संतुलन बनाने के लिए बनाया गया, ताकि पार्टी एकजुट रहे। ऐसा राजनीति में किया ही जाता है। संभव है ऐसे ही संतुलन की खातिर सामान्य वर्ग के किसी नेता को एडीए का चेयरमेन बनाने पर विचार किया जाए। यदि ऐसा हुआ तो सामान्य वर्ग की मुहिम का क्या होगा।
बहरहाल, सामान्य वर्ग इस वक्त बेहद आहत है। सुरेन्द्र सिंह की अगुवाई में वह लामबंद भी हो रहा है। पुष्कर से तो बाकायदा संघर्ष का आगाज कर दिया गया है। अब देखना ये है कि सामान्य वर्ग कितने समय तक अपनी आग को बचाए रख पाता है। कहीं वह सामान्य वर्ग के किसी नेता को एडीए का चेयरमेन बनाए जाने पर बिखर तो नहीं जाएगा। विचारणीय यह भी है कि सुरेन्द्र सिंह क्या तीन साल तक आग को बचाए रखने में कामयाब होंगे, ताकि अजमेर उत्तर की सीट पर दोनों दलों की ओर से सिंधी को ही टिकट दिए जाने पर सामान्य वर्ग के दम पर चुनाव जीत सकें।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, 22 अगस्त 2015

एक ही सवाल, लाला बन्ना अब क्या करेंगे?

-तेजवानी गिरधर-
अजमेर नगर निगम के मेयर पद के चुनाव में भाजपा से बगावत करने के बाद हार जाने से सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना का लंबा राजनीतिक जीवन दाव पर लग गया है। उन्हें भाजपा से बाहर निकाला दिया गया है। अब हर एक अजमेर वासी की जुबान पर ये सवाल है कि उनका अगला कदम क्या होगा। क्या वे कांग्रेस ज्वाइन करेंगे या फिर भाजपा में लौटने की जुगत बैठाएंगे अथवा सामान्य वर्ग के हितों के लिए कोई लंबी मुहिम चलाएंगे।
जहां तक सामान्य तबके के लोगों का सवाल है, वे उनके भाजपा से बगावत को इस लिहाज से उचित मानते हैं कि आखिर उन्होंने हिम्मत तो दिखाई, सामान्य तबके के हितों की रक्षा करने की। उनके कदम को कितना समर्थन था, इसका अंदाजा मेयर के चुनाव के वक्त नगर निगम भवन के बाहर उठ रहे ज्वार से लगाया जा सकता है। असल में ये गुस्सा अजमेर की एक सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने व दूसरी अघोषित रूप से सिंधियों के लिए आरक्षित होने के बाद भी मेयर के सामान्य सीट पर ओबीसी को बैठाने को लेकर था। इसमें वे लोग भी षामिल थे, जो भाजपा मानसिकता के होने के बाद भी लंबे अरसे से षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी के खिलाफ हैं। एक बात और। अगर लाला बन्ना की जगह कोई और होता तो कदाचित इतना जनसमर्थन नजर नहीं आता। कारण की उनकी खुद की अच्छी खासी फेन फॉलोइंग है।
जाहिर तौर पर उनके हार जाने का सबको दुख है। और गुस्सा भी कि सत्ता का गलत उपयोग किया गया। सारा ठीकरा खुद पर फूटता देख निर्वाचन अधिकारी हरफूल सिंह यादव को बाकायदा बयान जारी कर सफाई देनी पडी कि उन्होंने कोई पक्षपात नहीं किया, मगर उस पर कोई यकीन करने को तैयार नहीं है। वजह ये है कि घोषणा से पहले ही टीवी व सोषल मीडिया पर आ गया कि लाला बन्ना विजयी हो गए।
रहा सवाल कि क्या लाला बन्ना से सही किया। कुछ तो ऐसे हैं जो कि लाला बन्ना के इस कदम को पार्टी से बगावत ही नहीं मानते। वे कहते हैं कि अगर पार्टी सामान्य सीट पर किसी सामान्य को ही उतारती और तब भी वे चुनाव मैदान में उतरते तो वह बगावत कहलाई जा सकती थी। उन्होंने सामान्य जन के हित की खातिर खुद का राजनीतिक कैरियर दाव पर लगा दिया; ऐसे नेता को दगाबाज या बागी कहना गलत है। अगर ऐसा ही होता रहा तो फिर आगे कभी कोई सामान्य वर्ग के लिए आगे आने को तैयार नहीं होगा। यहां उल्लेखनीय है कि खुद बन्ना ने भी यही कहा था कि वे केवल सामान्य जन के हितों के कुठाराघात होने के कारण निर्दलीय रूप से मैदान में उतरे हैं। यदि पार्टी किसी सामान्य को टिकट देती तो वे उसका समर्थन करते।
बेषक ताजा हालात तो ये ही हैं कि हर किसी की लाला के प्रति हमदर्दी है और सभी षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी को ही दोषी मान रहे हैं। मगर ऐसे भी हैं, जो पूरे मामले को अलग नजरिये से देखते हैं। उनका कहना है कि सामान्य सीट का मतलब ये नहीं होता कि उस पर केवल सामान्य ही खडा हो सकता है। सामान्य का मतलब होता है कि अनारक्षित अथवा ओपन फोर ऑल। ऐसे में अगर धर्मेन्द्र गहलोत को इस सीट पर उतारा गया तो उसमें गलत क्या है। यह उनका कानूनी अधिकार भी तो है। दूसरा ये कि लोकतंत्र में सही और गलत का पैमाना केवल संख्या बल ही होता है और वह धर्मेन्द्र गहलोत के साथ था। ऐसे में उनके निर्वाचन को सामान्य वर्ग के अहित के रूप में कैसे देखा जा सकता है। एक तर्क ये भी है कि लाला बन्ना को मेयर सीट का दावा करना ही नहीं चाहिए था क्योंकि वे अपने दक्षिण इलाके से पर्याप्त पार्षद नहीं जितवा पाए। ऐसे में मेयर बनने की जिद पकड़ कर, पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के निर्णय को अस्वीकार करते हुए पूरे शहर की जनता को पूरे दिन परेशान कर और अंत में अपनी ही पार्टी की किरकिरी करवा कर कौनसी नैतिकता का परिचय दिया था? जब अजमेर में पार्टी की इज्जत देवनानी ने बचाई तो उन्हें ही अधिकार था कि उनकी पसंद के पार्षद को टिकट दिया जाए। उसमें भी यह अहम है कि उन्होंने उसी को टिकट दिलवाया जो इसका पात्र था, जिसने पार्टी को जितवाने में अहम भूमिका निभाई। उनके योगदान को भुला कर ऐसे किसी भी सामान्य को टिकट देना क्या उचित होता जो केवल खुद की सीट जीत पाया हो। पार्टी हाईकमान को बेहतर पता है कि उसे क्या करना है। फिर जब पार्टी ने एक प्रत्याषी तय कर दिया तो उसे स्वीकार न करना बगावत ही तो कहलाएगी। ऐसे में बन्ना ने जो किया वह भले ही सामान्य वर्ग के हित की लडाई करार दी जाए, मगर इससे पार्टी की जो किरकिरी हुई है, उसकी भरपाई करना कठिन है।
बहरहाल, सभी के अपने अपने तर्क हैं, मगर असल नुकसान तो बन्ना हो ही हुआ है। उनका वर्षों से बनाया गया राजनीतिक कैरियर चौपट हो गया। भाजपा अब उन्हें वापस लेगी नहीं, लेना भी चाहेगी तो देवनानी आडे आएंगे। उधर यदि वे कांग्रेस में षामिल होते हैं तो कांग्रेस उन्हें क्या देने वाली है। अभी कांग्रेस के पास कुछ देने को है भी नहीं। आगे भी उन्हें अजमेर उत्तर से टिकट नहीं दिया जा सकेगा, क्योंकि दो बार गैर सिंधी के रूप में डॉ श्रीगोपाल बाहेती को टिकट दे कर हार का मुंह देख चुकी पार्टी अब ये दुस्साहस नहीं करेगी। ऐसे में बन्ना के लिए एक मात्र चारा ये बचा है कि वे तीन साल इंतजार करें और सामान्य वर्ग के हितों की लडाई को जारी रखते हुए निर्दलीय के रूप में चुनाव लडें और कांग्रेस व भाजपा के सिंधी प्रत्याषियों को हरा कर जीतें। हालांकि यह प्रयोग पहले सतीष बंसल कर चुके हैं, मगर तब सामान्य वर्ग उतना संगठित नहीं हो पाया था। अब सामान्य वर्ग का मिजाज उफान पर है, लाला बन्ना की लोकप्रियता भी है और उनका बलिदान भी सबके सामने है, जिसे कि आगामी चुनाव में भुनाया जा सकता है।
कुछ लोगों का मानना है कि लाला बन्ना के लिए चूंकि कांग्रेस में कुछ नहीं रखा है, इस कारण वापस मुख्य धारा में आने की कोषिष करेंगे, जिसमें उनके आका दिग्गज भाजपा नेता ओम प्रकाष माथुर कर सकते हैं।
चंद सवाल कुछ और छूट गए हैं। आखिर क्या वजह रही कि भारी जनसमर्थन के बाद भी लाला बन्ना ने अजमेर बंद का संभावित कदम पीछे लिया, कहीं उन्हें सत्ता की ओर से कोई धमकी तो नहीं मिली। क्या वजह रही कि ओबीसी का मेयर बनने पर जनता का गुस्सा सातवें आसमान पर था, वह डिप्टी मेयर भी ओबीसी का बनने पर काफूर हो गया।

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

जलवा तो खूब दिखाया कामना पेसवानी ने, मगर मात्र 161 पर सिमटी

वार्ड 21 में कांग्रेस की बागी व निर्दलीय प्रत्याशी कामना पेसवानी ने चुनाव प्रचार के दौरान जिस प्रकार का जलवा दिखाया था, उससे लग रहा था कि वे कांग्रेस या भाजपा में से किसी को तो नुकसान पहुंचाएंगी ही, मगर वोट पडे तो वे केवल 161 ही हासिल कर पाईं।
जब उन्हें टिकट नहीं मिला मैदान में ऐसे उतरीं कि मानों जीत ही जाएंगी। हालांकि उनके जीतने की संभावना तो नहीं थी, मगर वे किसी न किसी को नुकसान जरूर पहुंचाएंगी, ऐसा जरूर आभास उन्होंने दिया। समझा जाता है कि जो वोट उन्होंने हासिल किए हैं, वे सिंधी होने के नाते सिंधियों के होंगे, या फिर उन कांग्रेसियों के जो कि कांग्रेस की रष्मि हिंगोरानी से निजी रूप खफा थे। अर्थात दोनों पार्टियों के कुछ कुछ वोट झटकने की संभावना थी।
अपन ने पहले भी लिखा था कि कामना पेसवानी के बारे में आकलन करना कठिन है कि वे कितने वोट झटकेंगी। वजह ये कि निर्दलीय प्रत्याशी को आसानी से वोट नहीं मिलते। अगर मिलते भी हैं तो खुद के व्यवहार और बलबूते पर। यूं सामाजिक कार्यकर्ता के नाते जमीन पर पकड़ तो है, मगर वह वोटों में कितनी तब्दील होती है, कुछ कहा नहीं जा सकता।
जहां तक भाजपा प्रत्याषी मोहन लालवानी का सवाल है, उनको देवनानी खेमे के कुछ कार्यकर्ताओं से था, मगर बताया जाता है कि वे वार्ड में टिके ही नहीं और वार्ड 18 में जा कर पार्टी का काम करने लगे, इस कारण वे नुकसान नहीं पहुंचा पाए। ज्ञातव्य है कि उनको 1700 वोट मिले, जबकि कांग्रेस की रष्मि हिंगोरानी कडी टक्कर देते हुए 1539 पर आ कर अटक गईं। बात अगर रष्मि हिंगोरानी की करें, तो उनके लिए यह हार दुखद रही। मीडिया उन्हें कांग्रेस की ओर से मेयर पद की दावेदार गिन रहा था, न जाने किस एंगल से। ज्ञातव्य है कि उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में टिकट मांगा था। ताजा हार से उनका दावा अगली बार के लिए कमजोर हो जाएगा।

अजमेर का मेयर कौन होगा?

अजमेर नगर निगम में हालांकि 60 में से 31 सीटों पर जीत से भाजपा का बोर्ड बनना तय है, मगर अब एक ही सवाल हर अजमेर वासी के जुबान पर है कि अजमेर का मेयर कौन होगा। जहां तक आंकडों का सवाल है शिक्षा राज्य मंत्री वासुदेव देवनानी खेमे के दावेदार धर्मेन्द्र गहलोत ही भारी पड रहे हैं। इसकी वजह ये है कि अजमेर उत्तर में भाजपा को 28 में से 19 सीटें मिली हैं, जो कि देवनानी के खाते में गिनी जा रही हैं। दूसरी ओर महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल की पसंद सुरेन्द्र सिंह शेखावत कमजोर इस कारण पड गए क्योंकि दक्षिण विधानसभा क्षेत्र के 32 वार्डों में से भाजपा को मात्र 12 वार्डों में ही जीत मिली है। अगर दक्षिण में सीटें ज्यादा आतीं तो अनिता षेखावत के लिए अड जातीं, मगर अब वह तो संभव नहीं, इस कारण गहलोत का विरोध इस आधार पर किया जा रहा है कि वे ओबीसी से हैं, जबकि मेयर की सीट सामान्य है। भाजपा के लिए खतरा ये है कि अगर उसने षेखावत को राजी किए बगैर गहलोत का नाम फाइनल कर दिया तो एक बडा खेल हो सकता है। वो ये कि दक्षिण के 12 भाजपा पार्षदों के अतिरिक्त कांग्रेस के सहयोग से षेखावत पर दाव खेल दिया जाए। अजमेर की कई ताकतें इस समीकरण पर माथापच्ची कर रही हैं। कदाचित कांग्रेस इस पर विचार कर भी ले क्योंकि उसका मेयर तो वैसे भी नहीं बन रहा और भाजपा में फूट पडती है तो उसका लाभ क्यों न उठा लिया जाए। वैसे गहलोत को आसानी से मेयर बनाने के लिए निर्दलीय रूप से चुने गए बागियों के अतिरिक्त कांग्रेसियों से भी संपर्क साधा जा रहा है।
भाजपा के बडे नेता पार्टी में फूट की आषंका से भलीभांति वाकिफ हैं, इस कारण सारा जोर एकराय बनाने पर लगाया जा रहा है।
पुष्कर स्थित पुष्कर बाघ पैलेस में हो रही मषक्कत का एक रास्ता ये भी निकाला जा सकता है कि दोनों प्रमुख दावेदारों में किसी एक को मेयर बनाया जाए तो दूसरे को अन्य बडा राजनीतिक लाभ वाला पद देने का वायदा किया जाए। एक रास्ता ये है कि दोनों को ही दरकिनार कर जे.के. शर्मा, ज्ञान सारस्वत, भागीरथ जोशी, नीरज जैन आदि में से किसी एक का नाम तय किया जाए।

जनता चाहती है कि ज्ञान सारस्वत बनें मेयर

हालांकि भाजपा में मेयर को लेकर मूल रूप से पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत व पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह षेखावत का नाम ही टॉप पर है और सारी खींचतान इन दोनों को लेकर हो रही है, मगर आम जनता में मेयर की पहली पसंद वार्ड तीन से जीते भाजपा पार्षद ज्ञान सारस्वत ही नजर आ रहे हैं। ये पक्का है कि मेयर किसे बनाना है, यह भाजपा हाईकमान को तय करना है, मगर सोषल मीडिया पर लगातार इसी बात पर जोर दिया जा रहा है कि ज्ञान को मेयर बनाना चाहिए। उसके पीछे उनका सामान्य वर्ग से होना भी बताया जा रहा है। ज्ञातव्य है कि इस बार मेयर का पद सामान्य है।
ज्ञान सारस्वत की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि वे 3481 वोट ले कर जीते हैं, जबकि कांग्रेस के प्रत्याषी राजेष लखवानी मात्र 436 वोट ही हासिल कर पाए हैं। यानि कि ज्ञान रिकार्ड वोटों के अंतर से जीते हैं। उनकी लोकप्रियता एक सच्चे समाजसेवी और ईमानदार राजनीतिक नेता के रूप में है। लोग उनको कितना चाहते हैं, उसकी बानगी आप इस पोस्ट में देख सकते हैं, जो वाट्स ऐप व फेसबुक पर चल रही हैः-
चुनाव के आंकड़े देखें,अजमेर के बड़े  नामी नेताओं का जीत का वोट प्रतिशत नगण्य या कुछ अधिक है। एक शख्स है बड़े ही साधारण और आम परिवार से ताल्लुक रखने वाले श्री ज्ञान जी भाईसाहब , उनकी जीत ने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हर बार की तरह। ज्ञान जी का काम करने का तरीका बहुत Creative है, निष्ठा पूर्ण उन्होंने अपने वार्ड में कई नए काम कराए, ईमानदारी इनका सबसे बड़ा गुण हैं।  उनकी जीत देख वीर कुमार जी की याद आ गई। मित्रों अजमेर को भी ऐसा ही मेयर चाहिए जो जनता से जुड़ा हुआ हो , उनकी बात सुनता हो। ऐसा में नहीं ज्ञान जी के वार्ड का हर व्यक्ति कह रहा है। अजमेर को ऐसा मेयर नहीं चाहिए जो सिर्फ अपनी संपत्ति बनाए और सत्ता लोलूप हो। मित्रों इस आवाज को इतना उठाओ की भाजपा के शीर्ष तक पहुंच जाए। मित्रों जो भी नेतागण  मेयर पद की दावेदारी कर रहे हैं उन्हें हम पहले परख चुके हैं, उन्होंने कुछ खास प्रयास अजमेर के लिये नहीं किये । मित्रों अजमेर को भ्रष्टाचार से मुक्त करना है। आज अजमेर की सबसे प्रमुख परेशानी निगम का भ्रष्टाचार हैं और हमें एक ईमानदार मेयर चाहिए, जिसके प्रबल दावेदार ज्ञान जी हैं। आपकी आवाज़ इस शहर को एक ईमानदार मेयर दे सकती हैं। आम नागरिक

बेटी को जितवा ही दिया भारती श्रीवास्तव ने

जिद पर अडी भाजपा पार्षद भारती श्रीवास्तव ने आखिर सारे दाव पेच खेल कर अपनी बेटी रूचि श्रीवास्तव को जितवा कर दिखा ही दिया।
ज्ञातव्य है कि षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी की पहली पसंद भारती श्रीवास्तव का टिकट ऐन वक्त पर पूर्व सांसद रासासिंह रावत की जिद के कारण काट कर सलोनी जैन को दे दिया गया। इस पर भारती ने बागी हो कर निर्दलीय के रूप में नामांकन पत्र भरा, मगर वह तकनीकी खामी की वजह ये रद्द हो गया। कदाचित इस बात का भान भारती को था, इस कारण उन्होंने ये चतुराई की कि अपनी बेटी रुचि का भी निर्दलीय का नामांकन पत्र भरवा दिया। उसके बाद भारती ने बेटी को जितवाने के लिए पूरा जोर लगा दिया। वस्तुतः भाभी जी के नाम से प्रसिद्ध भारती ने इलाके में काम भी खूब काम करवाया था। इस कारण उनकी जमीन पर अच्छी पकड़ थी। भारती ने कुल 2019 वोट हासिल कर जता दिया कि वाकई वे इलाके में लोकप्रिय हैं, जबकि सलोनी मात्र 883 वोट ही हासिल कर पाई। कांग्रेस की रितु गोयल 691 वोटों पर ही सिमट गई।
अपन ने पहले ही बता दिया था कि सलोनी की पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक थी, मगर जमीन पर पकड़ कुछ कमजोर थी। हालांकि उसके लिए पूरा जैन समाज लामबंद हो गया, मगर जितवा नहीं पाया। रहा सवाल रितु गोयल का तो उन्हें तो टिकट ही भारी विवाद के बीच मिला। पहले निर्मला खंडेलवाल का टिकट फाइनल था, ऐन वक्त पर रितु को दिया गया, जिससे निर्मला खेमा बुरी तरह से नाराज हो गया। उसने तो आसमान सिर पर उठा लिया। यहां तक की प्रदेष कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट का पुतला तक फूंका। बाद में बडी मुष्किल से उन्हें मनाया तो गया, मगर आखिर तक उनका रवैया नहीं सुधरा। इसका नुकसान रितु को उठाना ही पडा। कदाचित निर्मला खेमे ने रूचि श्रीवास्तव का साथ दिया। कुल मिला कर भारती अपनी जिद पूरी करने में कामयाब हो गई।

कांग्रेस थोडी भी अतिरिक्त सावधानी बरतती तो बन सकता था उसका बोर्ड

अजमेर नगर निगम के चुनाव में अगर थोडी भी अतिरिक्त सावधानी कांग्रेस बरतती तो वह अपना बोर्ड बनाने में कामयाब हो सकती थी। ज्ञातव्य है कि ऐसे माहौल में जबकि भाजपा कांग्रेस मुक्त अजमेर की बातें कर रही थी यानि कि कांग्रेस के लिए कुछ भी अनुकूल नहीं था, उसके बावजूद वह 60 में से 22 वार्डों में जीत हासिल करने में कामयाब हो गई। यह अपने आप में काफी चौंकाने वाले परिणाम हैं। न केवल सट्टा बाजार, अपितु पूरा मीडिया भी यही मान कर चल रहा था कि भाजपा 35 या 40 से भी ज्यादा सीटें हासिल करेगी। कहीं भी इसके संकेत नहीं थे कि कांग्रेस की परफोरमेंस इतनी अच्छी हो जाएगी। ऐसे नकारात्मक माहौल में कांग्रेस ने जो कर दिखाया, वह वाकई उल्लेखनीय है।
इस बार प्रदेष कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने थोडी सी तो सावधानी बरती, वो ये कि सभी नेताओं को राजी करके टिकट बांटे, इस कारण सिर फुटव्वल नहीं हुई, मगर अजमेर उत्तर में जिन नेताओं ने अपनी जिम्मेदारी पर टिकट दिलवाए, वे जीत नहीं दिलवा पाए। टिकट वितरण में कुछ लापरवाही यूं मानी जा सकती है कि या तो उपयुक्त दावेदार नहीं थे, या फिर वे परफोरमेंस नहीं दे पाए। वैसे भी अजमेर उत्तर में भाजपा की स्थिति कुछ बेहतर ही थी, इस कारण कांग्रेस को यहां दिक्कत आई। एक वजह ये भी रही कि टिकट वितरण के बाद किसी ने अपने अपने प्रत्याषी पर ठीक से ध्यान नहीं दिया। उधर दक्षिण में हेमंत भाटी ने अपनी पसंद के तकरीबन 25 टिकट लिए, जिनमें से उन्हें 20 पर जीत की पूरी उम्मीद थी और 17 में जीत दिलवा दी। कुल मिला कर इस परिणाम से हताषा में पडी कांग्रेस की जान में जान आई है।

हेमंत भाटी ने किया कांग्रेस का इकबाल उंचा

अजमेर दक्षिण से कांग्रेस प्रत्याषी हेमंत भाटी ने अजमेर नगर निगम चुनाव में अपने इलाके में अच्छा परफोरमेंस दे कर षहर में कांग्रेस का इकबाल उंचा किया है। उनकी ही बदौलत आज कांग्रेस भाजपा के मुकाबले खडे होने में कामयाब हो पाई है। कांग्रेस को मिली 22 सीटों में से अधिसंख्य उनके दक्षिण इलाके की हैं और उनमें उन्होंने कडी मेहनत की थी।
असल में विधानसभा चुनाव में हारने के बाद से वे विरक्त होने की बजाय और अधिक सक्रिय हो गए थे। निगम चुनाव से काफी पहले ही उन्होंने वार्डवार काम करना षुरू कर दिया था। यहां तक कि वहां से चुनाव लडाने के लिए प्रत्याषियों को चिन्हित भी कर दिया था। पूरी रणनीति तैयार थी। प्रदेष कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट उनकी ताकत को समझते थे, इस कारण उनकी पसंद से ही टिकट वितरण किया गया। टिकट बंटने के बाद उन्होंने पूरी तैयारी के साथ चुनाव लडवाया। कांग्रेस व भाजपा में संभवतः वे इकलोते ऐसे नेता हैं, जिन्होंने धरातल पर अपने प्रत्याषियों के साथ तन मन धन से जुड कर काम किया। उसका परिणाम भी आया। आज कांग्रेस भाजपा के मुकाबले खडी हो गई है। एक काम उन्होंने और किया है। उन्होंने महिला व बाल अधिकार राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल से अपनी हार का बदला भी ले लिया है। यह इस बात का भी इषारा है कि अगर पिछली बार मोदी लहर नहीं होती तो उनकी हार नहीं होती।

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

चुनाव में षिक्षकों ने क्या गुल खिलाया

अजमेर नगर निगम चुनाव के दौरान हालांकि इस विषय पर कोई खास चर्चा नहीं रही, मगर बताया जाता है कि स्कूलों में षिक्षकों का कार्यसमय बढाए जाने से षिक्षक वर्ग षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी से खासा नाराज रहा। हालांकि संगठित रूप से उसका विरोध कहीं चर्चा में नहीं रहा, मगर बताया जाता है कि षिक्षकों ने अंडरग्राउंड विषेष रूप से अजमेर उत्तर में भाजपा को नुकसान पहुंचाया है। वे अपने मकसद में कितने कामयाब रहे, इसका आकलन करना कठिन है, मगर यदि वाकई ऐसा हुआ है तो यह साइलेंट फीचर परिणामों को प्रभावित कर सकता है।

क्या इस बार चुप रही आरएसएस

अजमेर नगर निगम चुनाव में आरएसएस के भाजपा के समर्थन में खुल कर काम न करने की जानकारी आ रही है। हालांकि पूर्व में यह माना जा रहा था हर बार की तरह इस बार भी आरएसएस पूरे जोष खरोष से मतदान करवाएगी, लेकिन मतदान के वक्त ऐसा कहीं नजर नहीं आया। बताया जाता है कि इस बार आरएसएस मुख्यालय ने कोई साफ निर्देष नहीं दिए। उसने अपने कार्यकर्ताओं से केवल इतना भर कहा कि अपने हिसाब देख लें। बताया जाता है कि ऐसा स्थानीय स्तर पर टिकट वितरण में हुई गडबडी के कारण किया गया। वार्ड चार में आरएसएस के जिम्मेदार पदाधिकारी ने अपने दायित्व से मुक्ति पा कर बागी के रूप में चुनाव लड लिया। हालांकि बताया ये जा रहा है कि संघ ने ही उनको अनुमति नहीं दी और यही कहा कि संघ खुद तय करता है कि किस कार्यकर्ता को राजनीतिक क्षेत्र में भेजना है। स्वयंसेवक अपने स्तर पर तय नहीं कर सकता कि वह राजनीति में जाएगा। बताते हैं कि संघ के कार्यकर्ता भाजपा के राजनेताओं की मनमानी की वजह से नाराज हैं। उन्हें लगा कि चुनाव के वक्त तो उनका उपयोग किया जाता है, मगर टिकट वितरण के दौरान कोई पूछ नहीं होती। समझा जाता है कि कई वार्डों में संघ की तटस्थता से भाजपा को नुकसान हो सकता है।

सोमवार, 17 अगस्त 2015

आखिर सारी मशक्कत मेयर पद को लेकर होगी

हालांकि सट्टा बाजार और माहौल में आम राय यही है कि अजमेर नगर निगम में बोर्ड तो भाजपा का ही बनेगा, मगर बाद में सारी मशक्कत मेयर पद को ले कर होनी है। इसकी एक मात्र वजह ये है कि भाजपा में दो धुर विरोधी खेमे के प्रबल दावेदार तो हैं ही, विकल्प के रूप में भी पांच दावेदार और मौजूद हैं।
राजनीतिक पंडित इसी बात पर माथापच्ची कर रहे हैं कि भाजपा को ज्यादा सीटें उत्तर में मिलेंगी या फिर दक्षिण में। कोई कहता है कि चूंकि दक्षिण में 32 व उत्तर में 28 वार्ड हैं, इस कारण दक्षिण में भाजपा ज्यादा सीटें जीतेगी। इस पक्ष में तर्क ये दिया जा रहा है कि उत्तर के 28 में से तीन वार्ड मुस्लिम बहुल हैं, जहां से भाजपा की जीत असंभव है। बाकी बचे 25 में भाजपा हद से हद 18 सीटें जीत सकती है। दक्षिण में 32 में से भाजपा 20 से ज्यादा सीटें हथिया सकती है। दूसरी ओर कुछ का कहना है कि दक्षिण में कांग्रेस नेता हेमंत भाटी के प्रभाव वाले इलाकों में भाजपा का जीतना मुष्किल है, इस कारण वहां भाजपा 18 तक सिमट सकती है। जो भी हो, भाजपा दोनों इलाकों में यदि 16-16 और उससे अधिक सीटें हासिल करती है तो बोर्ड तो भाजपा का बन ही जाएगा।
हालांकि भाजपा के मेयर पद के सभी दावेदार थोड़ी-थोड़ी परेशानी में हैं, मगर ऐसा लगता नहीं कि वे हार ही जाएंगे। अब तक की सूचनाओं के अनुसार शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी की पहली पसंद पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत होंगे, जबकि महिला व बाल विकास राज्य मंत्री पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत को आगे लाएंगी। इन दोनों में से जिसके पास भी विजयी पार्षदों की संख्या ज्यादा होगी, वही प्रथम दावेदार कहलाएगा।
भाजपा में आम धारणा यही है कि सारी जोड बाकी के बाद देवनानी गहलोत को ही मेयर बनवाएंगे, मगर मगर इस बार ओबीसी व सामान्य का मुद्दा गरमाने की आशंका है। सुनियोजित रूप से उसके लिए माहौल बनाया जा रहा है। हालांकि संघ के आदेश की मुखालफत करना स्थानीय भाजपा नेताओं के बूते की बात है नहीं, मगर फिर भी सामान्य पार्षद लामबंद हो सकते हैं। यदि गहलोत को लेकर ज्यादा दिक्कत हुई तो देवनानी के पास नीरज जैन, जे. के. शर्मा, भागीरथ जोषी जैसे विकल्प हैं। उधर श्रीमती भदेल के पास शेखावत के रूप में एक ही मजबूत पत्ता है। अगर वे उन्हें मेयर न बनवा पाईं तो संपत सांखला का डिप्टी मेयर पद पक्का ही समझो।
समझा जाता है कि इस बार निर्दलीय भी छह-सात जीत सकते हैं, यानि कि उनकी भी घेराबंदी होगी। कयास ये लगाए जा रहे हैं कि यदि खींचतान ज्यादा हुई तो देवनानी व श्रीमती भदेल कांग्रेस के पार्षदों का भी सहयोग लेने पर विचार कर सकते हैं। यानि कि कांग्रेस खेमे में सेंध मारी जा सकती है। हो सकता है कि कुछ स्वार्थी कांग्रेसी इस टूट-फूट में आसानी से शामिल हो जाएं। वजह ये है कि अगर कांग्रेस का बोर्ड बनने की कोई सूरत नहीं होती तो वे चाहेंगे कि अपनी पसंद के भाजपाई दावेदार को भीतर से समर्थन दें ताकि बाद में उसके मेयर बनने पर निजी अथवा अपने वार्ड के लिए लाभ हासिल किया जा सके। बताया जा रहा है कि भाजपा के प्रमुख दावेदारों ने इस लिहाज से कांग्रेसियों को चिन्हित करना भी शुरू कर दिया है। कुछ नेता ऐसे हैं जो गैर सिंधीवाद के नाम पर देवनानी को कमजोर करने के लिए शेखावत के लिए घेराबंदी करना चाहेंगे, तो कुछ नेता भावी रणनीति के तहत श्रीमती भदेल को कमजोर करने के लिए देवनानी के पसंद के उम्मीदवार का साथ देना चाहते हैं। कुल मिला कर होता क्या है, इसके लिए आगामी 20 व 21 तक का इंतजार करना होगा। वैसे आप को बता दें कि ब्यावर का सट्टा बाजार कांग्रेस की 32 सीटें मान रहा है। उसका गणित क्या है, पता नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, 16 अगस्त 2015

तंवर पर गहलोत का ठप्पा होने से कटा टिकट

पूर्व मनोनीत पार्षद महेन्द्र तंवर पर पूर्व मुख्यमंत्री अषोक गहलोत का ठप्पा होने के कारण मिलता हुआ टिकट कट गया। उन्हें इस बात का दुख है कि भले ही वे गहलोत के समर्थक रहे हैं, मगर पिछले काफी समय से प्रदेष कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के कार्यक्रमों में षिरकत करते रहे, फिर भी उनका टिकट काट दिया गया। यदि उनकी निष्ठा पायलट के प्रति नहीं होती तो वे क्यों उनके कार्यक्रमों में जाते। बहरहाल, टिकट कटने से दुखी तंवर भाजपा में चले गए। अब सवाल ये उठता है कि भाजपा में रहते हुए उनकी गहलोत के प्रति आस्था का क्या होगा। वैसे बताते हैं कि उनकी नाराजगी का फायदा उठाते हुए भाजपा ने उन्हें अपनी ओर खींच लिया है। साथ ही ये भी चर्चा है कि उन्हें मनोनीत काउंसलर बनाने का वादा किया गया है। अब देखने वाली बात ये है कि क्या वाकई ऐसा हो पता है।

पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत को घेरने की कोशिश

आसन्न नगर निगम चुनाव में वार्ड 56 से खड़े भाजपा प्रत्याशी व पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत को घेरने की कोशिश की जा रही है। बताया जाता है कि वैश्य व सामान्य वर्ग में आने वाली जातियों को उनके खिलाफ लामबंद करने की मुहिम चल रही है। इसमें कुछ मीडिया कर्मी भी शामिल हैं। बाकायदा माहौल बनाया जा रहा है कि गहलोत न जीत पाएं और जीत भी जाएं तो मेयर चुनाव के वक्त सामान्य बनाम ओबीसी का मुद्दा गरमाया जाए।
असल में ऐसा इस कारण हो रहा है कि गहलोत भाजपा की ओर से मेयर पद के सबसे प्रबल दावेदार हैं। संघ का भी उनको समर्थन प्राप्त है। माना जाता है कि अगर भाजपा का बोर्ड बनता है और अजमेर दक्षिण की तुलना में अजमेर उत्तर में भाजपा पार्षदों की संख्या अधिक रहती है, जिसकी की संभावना है भी, शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी के लिए उनके खास सिपहसालार गहलोत ही पहली प्राथमिकता होंगे। खुद गहलोत भी पार्षदों की घेराबंदी में माहिर हैं। यहां तक कि जरूरत पडऩे पर कांग्रेस के पार्षदों को भी प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे में सामान्य वर्ग, विशेष रूप से वैश्य सतर्क हो गया है। उसकी तकलीफ ये है कि भाजपा ने केन्द्र में राज्य मंत्री, अजमेर शहर के दोनों राज्य मंत्री और राजस्थान पुरा धरोहर प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष गैर वैश्य वर्ग से हैं, जबकि वैश्य वर्ग सदैव भाजपा का साथ देता रहा है। उन्हें लगता है कि उनकी उपेक्षा की जा रही है।
बताया जा रहा है कि वैश्य समाज के लोग गहलोत को वार्ड में घेरने के लिए गुप्त बैठकें कर रहे हैं। हालांकि वैश्य वर्ग का रुझान भाजपा की ओर रहता आया है, मगर यदि गहलोत के खिलाफ मुहिम चलाने वालों को कुछ कामयाबी हासिल हुई तो वे गहलोत के वोटों में सेंध मार सकते हैं। हालांकि अभी ये कहना बेहद मुश्किल है कि यह मुहिम किस स्तर तक चली है, कितनी असरकारक है और मुहिम को कितनी कामयाबी हासिल होगी, मगर इतना पक्का है कि एक तबका गहलोत के खिलाफ जुट गया है। जाहिर तौर पर गहलोत भी इस स्थिति से वाकिफ होंगे। उन्होंने भी अपनी पूरी ताकत झौंक रखी है। वे एकाएक कमजोर तो नहीं पडऩे वाले, मगर मुहिम के प्रति आभास होने पर उन्हें और अधिक मेहनत करनी होगी। हालांकि मतदान होने में अभी वक्त बाकी है। यदि ऐन वक्त पर संघ का डंडा चला तो मुहिम के कर्णधार दुबक भी जाएंगे।
यहां ज्ञातव्य है कि वार्ड 56 में वैश्य व सामान्य जातियों का काफी वोट हैं, इसका अनुमान वार्ड में आने वाले इलाकों से हो जाता है। जरा नजर डालिये:-
रीजनल कॉलेज तिराहे से आनासागर सक्र्यूलर रोड पर चलते हुए वृंदावन गार्डन, गोविंदम पैलेस होते हुए बधिर विद्यालय तक दांईं ओर के सभी मकान। बधिर विद्यालय से आगे चलते हुए राजस्थान पत्रिका कार्यालय तक दांई तरफ के सम्पूर्ण मकान। राजस्थान पत्रिका कार्यालय से राजस्थान फूड प्लाजा व चौपाटी से सर्किट हाउस, बजरंगगढ़, सुभाष उद्यान को छोड़ते हुए बारादरी के सहारे चलते हुए रामप्रसाद घाट तक। रामप्रसाद घाट से लवकुश उद्यान तक दांई तरफ के समस्त भाग, लवकुश गार्डन से पुष्कर रोड पर आगे चलते हुए अरिहंत कॉलोनी, महावीर कॉलोनी आदि। अद्वैत आश्रम, रामनगर रोड तक दांईं तरफ के समस्त मकान। रामनगर रोड पर आगे चलते हुए पंचोली चौराहा होते हुए बाड़ी नदी तक दांईं तरफ के समस्त मकान। बाड़ी नदी के सहारे आगे चलते हुए मोती विहार कॉलोनी को सम्मिलित करते हुए पुष्कर रोड तक दांईं तरफ के सभी मकान। पुष्कर रोड पर आगे चलते हुए रीजनल कॉलेज तिराहे तक दांई तरफ के समस्त मकानात।
जहां तक कांग्रेस प्रत्याशी अमित कुमार पंचोली का सवाल है, उनका प्रभाव रामनगर और पंचोली चौराहा इलाके में अधिक है। गहलोत को अन्य क्षेत्रों से ही उम्मीद है। मगर यदि वहां उनके खिलाफ रची साजिश थोड़ी भी कामयाब होती है तो यह उनके लिए कुछ परेशानी पैदा कर सकती है।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

त्रिपाठी की बगावत का फायदा सुदर्शन जैन को

आसन्न नगर निगम चुनाव में वार्ड 53 में भाजपा के योगेश शर्मा के लिए बागी के. के. त्रिपाठी मुसीबत बने हुए हैं। वे भाजपा संगठन में पदाधिकारी रहे हैं और टिकट न मिलने से नाराज हो कर मैदान में आ डटे हैं। हालांकि उन्हें मनाने के लिए उच्च स्तर पर खूब प्रयास हुए, मगर पार्टी को सफलता हासिल नहीं हुई। हालांकि अब भी उन्हें रिटायर होने के लिए प्रलोभन दिए जा रहे बताए, मगर वे टस से मस नहीं हो रहे। जाहिर तौर पर इससे भाजपा मानसिकता के वोटों का बंटवारा होगा और उसका फायदा कांग्रेस प्रत्याशी सुदर्शन जैन को मिलेगा।

भाजपा की सतर्कता रुचि श्रीवास्तव के सेंध मारने के संकेत

अजमेर नगर निगम के वार्ड 12 में चुनावी घमासान बढ़ गया है। जैसे ही भाजपा पार्षद भारती श्रीवास्तव की पुत्री रुचि श्रीवास्वत का प्रभाव बढ़ता दिखा, धमकियों के दौर शुरू हो गए हैं। रुचि का कहना है कि पुलिस, प्रशासन का इस्तेमाल करते हुए धमकाया जा रहा है कि अगर उनको वोट दिया तो वार्ड का विकास ठप्प कर दिया जाएगा। झूठे मुकदमे दर्ज करवाने व लाइट आदि कटवाने का आदि की धमकियां मतदाताओं को दी जा रही है। रुचि ने वार्ड वासियों ने अपील की है कि वे बेखौफ हो कर मतदान करें।  वे स्थानीय कॉन्वेंट स्कूल से पढऩे के बाद एमबीए की हुई अजमेर की सबसे कम उम्र की प्रत्याशी हैं और वार्ड वासियों व उनकी माता भारती श्रीवास्तव के स्वाभिमान की रक्षा के लिए चुनाव मैदान में उतरी हैं।
दूसरी ओर भाजपा की उम्मीदवार सलोनी जैन के चुनाव अभिकर्ता हेमेन्द्र जैन ने वाट्स एप पर जारी संदेश में शिकायत की है कि वे ऊसरी गेट पर कुछ भाजपा कार्यकर्ताओं से चर्चा कर रहे थे, उसी समय भारती श्रीवास्तव अपने साथियों के साथ आईं और धमकी भरे शब्दों में कहने लगीं कि आप इस क्षेत्र में क्यों आए हो। इस पर हमारा हमने उन्हें चिल्लाते हुए कहा की आप कौन होती हो हमें बताने वाली कि हम कहां जाएं, कहां नहीं। हमारी इच्छा होगी जहां घूमेंगे और जिससे चाहेंगे भाजपा उम्मीदवार की चुनावी चर्चा करेंगे। इसी दौरान भाजपा के चालीस पचास समर्थक आ गए, इस पर वे भील बस्ती से दूसरी गली में चली गईं। अपने आप को सभ्य व संस्कारवान कहने वाली भारती श्रीवास्तव को क्या आप सभ्य कहेंगे, जो सरे आम गुंडागर्दी की बात करती है।
दोनों पक्षों के आरोपों में कितनी सच्चाई है, ये तो प्रत्यक्षदर्शी ही जानें, मगर इस वाकये यह तो साफ है कि भाजपा राज में भी यदि भारती बेखौफ  हो कर चुनौती दे रही हैं और उनका लहजा धमकी भरा है, तो इसका मतलब उनका दिल खुला हुआ है, हौसला बुलंद है, जो कि बिना जनसमर्थन के नहीं आ सकता। और दूसरा ये कि भाजपा राज में ही भाजपा अभिकर्ता को शिकायती लहजे में बात कहनी पड़े तो यह भाजपा खेमे में रुचि के सेंध मारने आशंका जताता है।
एक अहम बात और। ये तो आगामी बीस तारीख को ही पता लगेगा कि रुचि की परफोरमेंस कैसी रहती है, मगर भाजपा खेमा उनके प्रति कितना अधिक सतर्क है, यह शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी के ताजा बयान से लगता है। उन्होंने सलोनी जैन के समर्थन में लाल कोठी क्षेत्र में जनसम्पर्क करते हुए कहा कि वे भाजपा से बागी होकर खड़े निर्दलीय प्रत्याशी से सावधान रहें। जो पार्टी के नहीं हो सके, वो क्षेत्रवासियों का क्या ध्यान रख सकेंगे। देवनानी ने कहा कि संगठन के साथ विश्वासघात करने वालों का कभी भी साथ नहीं देना चाहिए। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान संभवत: यह पहला मौका था कि उन्हें बागियों के प्रति इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करना पड़ा। हालांकि दिखने में यह बयान सामान्य सा लगता है और भाजपा के प्रचारक के रूप में जरूरी भी, मगर यह रुचि के बढ़ते प्रभाव के प्रति भाजपा का सतर्कता का द्योतक है। इसी से जुड़ी एक बात और कि देवनानी ने बागियों के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल जरूर इस कारण किया होगा ताकि कहीं उन पर भारती के प्रति नर्म रुख अपनाने का आरोप न लगे। ज्ञातव्य है कि भारती श्रीवास्तव टिकट वितरण से पहले देवनानी के काफी करीब मानी जाती थीं। दिलचस्प बात ये कि टिकट न मिलने के बाद भारती की पुत्री के बागी बन कर आने पर देवनानी को उनसे सावधान रहने को कहना पड़ रहा है।
वैसे अपना मानना है कि अगर रुचि जीती तो मेयर बनाने केलिए निश्चित रूप से देवनानी खेमे में ही जाएंगी। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस वार्ड में भारती अथवा उनकी पुत्री का ही दावा था, मगर पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत के दबाव में सलोनी को टिकट दिया गया। यही वजह रही कि भारती ने टिकट न मिलने पर रावत के प्रति ही गुस्से का इजहार किया।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

भाजपा के पास है केवल स्मार्ट सिटी का पुराना झुनझुना

नगर निगम चुनाव के लिए आगामी 17 अगस्त को मतदान होगा। वोट देने के प्रति लोगों में उत्साह भी भरपूर नजर आ रहा है। मगर अफसोस कि मतदाता को यह तक पता नहीं कि दोनों दलों के पास अजमेर के लिए ठोस एजेंडा क्या है? भाजपा जहां पहले से घोषित स्मार्ट सिटी का पुराना झुनझुना पकड़ा रही है, वहीं कांग्रेस के पास केन्द्र व राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा कोसने का अलावा कोई ठोस ब्लू प्रिंट नहीं है। ऐसे में मतदाता को ये पता ही नहीं कि वह शहर के कैसे विकास के लिए वोट डालने जा रहा है?
जहां तक स्मार्ट सिटी का सवाल है, उसकी तो काफी पहले ही घोषणा हो चुकी है। उसका प्रारूप क्या होगा, ये अभी तक ठीक से पता भी नहीं है, फिर भी भाजपा नेता उसी स्मार्ट सिटी की बांसुरी बजा कर मतदाता को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि हकीकत ये है कि स्मार्ट सिटी बनाने में नगर निगम की अपनी ओर से कोई भूमिका नहीं है। जो भी होना है वह स्मार्ट सिटी के मानकों के अनुरूप और अमेरिकी मदद से होना है। फंडिग से भी उसका कोई लेना देना नहीं है। यानि कि ऐसा सपना बेचा जा रहा है, जो खुद भाजपा नेताओं तक ने नहीं देखा है। कितनी अफसोसनाक बात है कि केन्द्र व राज्य में भाजपा की ही सरकार होने के बावजूद भाजपा के पास शहर के लिए अपनी कोई सोच नहीं है। न तो शहर को अतिक्रमण से मुक्त करने की कोई ठोस योजना है और न ही बेहद पीड़ादायक यातायात को सुगम बनाने का एजेंडा। ढ़ांचागत विकास का तो कोई विजन ही नहीं है। राज्य के दोनों मंत्रियों तक के मुंह से ये नहीं निकल रहा कि यदि जनता भाजपा का बोर्ड बनवा देगी तो वे अजमेर के लिए कौन सी योजना लाएंगे, क्या करवाएंगे या फिर राज्य व केन्द्र से क्या अतिरिक्त दिलवाएंगे?
इसी प्रकार कांग्रेस नेता भी ये नहीं बता पा रहे कि आखिर उनका बोर्ड बना तो करेंगे क्या? कितनी खेदपूर्ण बात है कि दोनों पार्टियों ने अपनी बैठकें कर शहर के विकास का कोई घोषणा पत्र जारी नहीं किया है। हालांकि अलग अलग वार्डों में चुनाव लड़ रहे सभी प्रत्याशियों ने विकास करवाने का वादा तो किया है, मगर यह एक व्यापक शब्द है, किसी ने भी यह नहीं बताया कि वह विकास के नाम पर शहर में क्या-क्या करेगा? हो सकता है, प्रत्याशियों ने अलग-अलग मतदाता समूहों के बीच उनकी समस्याओं के समाधान का वादा किया हो, मगर किसी ने भी लिपिबद्ध घोषणा पत्र जारी नहीं किया। जो कुछ भी वादा किया वह मौखिक है, जो अखबारों में कुछ छपा और कुछ नहीं छपा। लिखित घोषणा पत्र जारी करने की किसी भी प्रत्याशी या पार्टी को सुध नहीं रही। पार्टियां बाकायादा लिखित घोषणा पत्र जारी करती तो एक तो वे उसे पूरा करने को प्रतिबद्ध होतीं और मतदाता को भी पता होता कि वह किस घोषणा पत्र को पसंद करके वोट डाल रहा है। अब जब लिखित वादा किया ही नहीं तो उसे पूरा करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। कल कोई गला तो नहीं पकड़ पाएगा कि यह वादा क्यों नहीं पूरा किया? समझा जाता है कि इसी डर से लिखित घोषणाएं नहीं कीं कि उन्हें पूरा नहीं करवा पाने पर वे असफल करार दे दिए जाएंगे। वादा किया तो उसे पूरा करने का दायित्व भी आएगा, इस कारण वादा करो ही नहीं। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
यानि कि स्थानीय स्तर के इस चुनाव में मतदाता के मस्तिष्क में यह नहीं है कि वह कैसे शहर के लिए मतदान करने जा रहा है। वह केवल राजनीतिक विचारधारा के आधार पर वोट डालने को मजबूर है। धरातल की सच्चाई ये भी है कि वह अकेले राजनीतिक आधार पर ही नहीं, अपितु जातिगत आधार पर भी वोट डालेगा। शहर का विकास जाए भाड़ में।
मगर यह स्थिति पूरे उत्तर भारत में सर्वप्रथम घोषित पूर्ण साक्षर अजमेर के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। माना जाता है कि यहां का मतदाता काफी समझदार और पढ़ा-लिखा है, मगर वह समझदारी तभी तो काम में आती जब उसके पास मौजूद विकल्पों में बेहतर-कमतर तय करने का पैमाना होता। अब उसके पास कोई चारा नहीं है। महज दो ही विकल्प हैं, पार्टी और जाति। सूचीबद्ध विकास भविष्य के अंधेरे में छिपा है।
लिपिबद्ध घोषणा पत्र की बात छोड़ भी दें, किसी भी प्रत्याशी ने मीडिया के सामने आने की जरूरत तक नहीं समझी। बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करने पर ध्यान ही नहीं दिया। यह सुस्पष्ट है कि मीडिया एक सशक्त माध्यम है। उसके जरिए अधिकाधिक लोगों तक संदेश जाता है। मीडिया के सामने कही गई बात की अकाउंटेबिलिटी होती है। यदि वह बात पूरी नहीं होती तो कल मीडिया उसे याद दिलवा सकती है। समझा जाता है कि केवल घबराहट की वजह से प्रत्याशी मीडिया का सामना करने को तैयार नहीं हुए। दोनों प्रमुख प्रत्याशियों को धुकधुकी है कि न जाने कैसे सवालों की फायरिंग होगी और वे उसका जवाब दे भी पाएंगे या नहीं।
कुल मिला कर दोनों पार्टियों ने मीडिया से दूरी रखते हुए बिना घोषणा पत्र के वोट मांगे हैं। जनता तो किसी न किसी हिसाब से वोट डालेगी ही। अब यह भविष्य ही तय करेगा कि कौन जीतता है और जीतने वाला कैसे सुंदर अजमेर का सपना संजोये हुए है।
तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, 12 अगस्त 2015

रुचि श्रीवास्तव बनीं भाजपा की सलोनी के लिए मुसीबत

अजमेर नगर निगम के वार्ड 12 में बड़ा रोचक मुकाबला है। एक ओर भाजपा प्रत्याशी सलोनी जैन के लिए भाजपा पार्षद भारती श्रीवास्तव की पुत्री रुचि श्रीवास्तव मुसीबत बनी हुई हैं। दूसरी ओर कांग्रेस की अधिकृत प्रत्याशी रितु गोयल के लिए भी पेरशानी है, क्योंकि जिन निर्मला खंडेलवाल का टिकट ऐन वक्त पर काट कर रितु को देने का मसला गरमाया हुआ है, वे अभी पूरी तरह से राजी हुई हैं या नहीं कुछ पता नहीं।
आपको याद होगा कि भारती श्रीवास्तव का टिकट ऐन वक्त पर कटा  ही, उनका बागी हो कर निर्दलीय के रूप में भरा गया नामांकन पत्र भी तकनीकी खामी की वजह ये रद्द हो गया। ये उनकी चतुराई ही समझी जाएगी कि उन्होंने अपनी बेटी रुचि का भी निर्दलीय का नामांकन पत्र भरवा दिया और आज वे मैदान में है। दोनों मां-बेटी वार्ड में अत्यधिक सक्रिय हैं। असल में भाभी जी के नाम से प्रसिद्ध भारती ने अपने सुनहरे भविष्य के लिए, या कहें कि मेयर बनने के ख्वाब में खूब काम करवाया। इस कारण उनकी जमीन पर अच्छी पकड़ है, क्योंकि वे लोगों के सुख-दु:ख में बढ़-चढ़ कर भाग लेती रहीं। दुर्भाग्य से टिकट कटा, मगर काफी लोग आज भी उनके साथ हैं। साधनों की भी कोई कमी नहीं है। जाहिर तौर पर वे भाजपा प्रत्याशी सलोनी जैन के वोटों में सेंध मारेंगी। जहां प्रत्याशी के रूप में सलोनी का सवाल है, उनको पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत के कहने पर टिकट दिया गया और पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक है, मगर जमीन पर पकड़ कुछ कमजोर है। अलबत्ता समाज के वोट जरूर मददगार हैं।
उधर टिकट कटने से नाराज निर्मला खंडेलवाल ने पहले तो शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता व प्रदेश सचिव कुलदीप सिंह राजावत के खिलाफ झंडा बुलंद करते हुए प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के पुतले जलवाए। बाद में पायलट की पहल पर सुलह के लिए भेजे गए पूर्व विधायक रमेश खंडेलवाल की मध्यस्थता से ठंडी तो पड़ीं, मगर अब भी उनका रुख टेढ़ा ही है। वे पार्टी के लिए कितना काम करेंगी, कुछ पता नहीं। ऐसे में रितु गोयल के लिए कुछ परेशानी हो सकती है। वैसे प्रत्याशी के रूप में रितु गोयल मजबूत हैं। खुद उनके परिवार व समाज के ही काफी वोट हैं। यहां तक कि भाजपा के एक जाने-पहचाने चेहरे के रिश्तेदार तक उनका साथ दे रहे हैं।
अब देखने वाली बात ये है कि इस वार्ड के रोचक मुकाबले में कौन बाजी मार ले जाता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

अपनों ने ही घेरा लाला बन्ना को

जिसकी आशंका थी, वही हुआ। अजमेर नगर निगम में मेयर पद के प्रबल दावेदार पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना भाजपा की स्थानीय गुटबाजी के शिकार होते दिखाई दे रहे हैं।
ज्ञातव्य है कि पहले ही आशंका थी कि भाजपा में मेयर पद को लेकर जबरदस्त खींचतान होगी। कोशिश ये रहेगी कि मेयर पद के शीर्ष दावेदारों को उनके ही वार्ड में घेरा जाए। हुआ भी वही। वार्ड 43 से मेयर पद के दावेदार सुरेंद्र सिंह शेखावत बागियों में उलझ कर रह गए। रणजीत सिंह चौहान उनके सामने अंगद के पांव की तरह आ डटे हैं। हालांकि शेखावत ने भाजपा के परंपरागत माने जाने वाले माली समाज के निर्दलीय उम्मीदवारों को बैठाने की भरपूर कोशिश की, मगर उनको सफलता नहीं मिली। मिलती भी कैसे, सोची समझी राजनीति के तहत उन्हें खड़ा किया गया था। नाम वापसी के अंतिम दिन दो माली उम्मीदवारों बृजमोहन चौहान व मुकेश चौहान ने नाम वापस तो लिए, मगर रणजीत सिंह के समर्थन में। जाहिर सी बात है कि ऐसा माली समाज के मतों को एकजुट कर शेखावत  को घेरने के लिए किया गया। यूं यह वार्ड भाजपा के लिए बेहद मुफीद है, उस लिहाज से लाला बन्ना ने इसे ठीक ही चुना, मगर अब जो दिक्कत पेश आई है, उससे निपटना मुश्किल हो रहा है। जो पेच आ कर फंसा है, उसे देखते हुए यदि ये कहा जाए कि कहीं न कहीं रणनीतिक भूल हुई है। कुछ कहते हैं कि जब लाला बन्ना को पता था कि वे दूसरे गुट के निशाने पर हैं तो उन्हें चुनाव लडऩा ही नहीं चाहिए था। बताया जाता है कि निर्दलीय रणजीत सिंह को रिटायर करवाने के लिए उच्च स्तरीय प्रयास हो रहे हैं। जितने मुंह उतनी बातें। कोई कह रहा है, रिटायर होने के लिए बीस लाख रुपए की ऑफर है तो कोई हांक रहा है कि मुंह मांगी कीमत लगाई गई है। सच क्या है, कुछ पता नहीं, मगर इतना जरूर है कि भाजपा मानसिकता के माली वोट कट गए तो लाला बन्ना को परेशानी होगी। हालांकि वे काफी लोकप्रिय हैं और उनकी भी अपनी जबरदस्त फेन फॉलोइंग है, सो पूरी ताकत के साथ लड़ रहे हैं, आसानी से हाथ खड़े करने वाले नहीं, मगर कहते हैं न कि जो जितना बड़ा खिलाड़ी, उसे उतनी ही बड़ी चुनौती का सामना करना होता है। उनके साथ अजमेर दक्षिण की विधायक व महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल की प्रतिष्ठा भी कसौटी पर है। कहने की जरूरत नहीं कि लाला बन्ना उन्हीं के खेमे से हैं। देखने वाली बात ये है कि वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल कितना कर पाती हैं।
मोटे तौर माना जा रहा है कि लाला बन्ना व कांग्रेस प्रत्याशी व नगर परिषद के प्रतिपक्ष नेता रहे अमोलक छाबड़ा के बीच कांटे की टक्कर है। मगर कयास लगाने वाले तो यहां तक सोच रहे हैं कि यदि वाकई माली वोटों का पूरा धु्रवीकरण हो गया तो कहीं त्रिकोणीय मुकाबले में रणजीत सिंह ही न बाजी मार जाएं।
ऐसा नहीं है कि भाजपा में ऐसा पहली बार हो रहा है। इसी प्रकार नगर परिषद के भूतपूर्व सभापति स्वर्गीय वीर कुमार को एक बार पार्टी के ही दूसरे धड़े ने केवल इसी कारण निपटाया था, क्योंकि वे दमदार तरीके से उभर कर आ रहे थे और सभापति पद के प्रबल दावेदार थे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

भाजपा की नैया दोनों मंत्रियों के हाथ, कांग्रेस में कई क्षत्रप

अजमेर नगर निगम के अगस्त माह में होने वाले चुनाव में एक ओर जहां भाजपा की नैया पार लगाने की जिम्मेदारी दोनों स्थानीय राज्य मंत्रियों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल पर है तो कांग्रेस में यह जिम्मा क्षत्रपों में बंटा हुआ है। हालांकि सांगठनिक तौर पर पार्टियों की कमान अरविंद यादव व महेन्द्र सिंह रलावता के हाथ में है, मगर सीधे तौर पर वार्डवार जिम्मेदारी उन पर नहीं है। अलबत्ता रलावता पर दायित्व ज्यादा है क्योंकि टिकट वितरण उनकी ही देखरेख में तय हुए हैं।
असल में भाजपा के लगभग सारे टिकट दोनों मंत्रियों की रजामंदी से ही तय हुए हैं, इस कारण अब प्रतिष्ठा भी उनकी ही परखी जानी है। यही वजह है कि वे एक-दूसरे के इलाके वार्ड में झांकने की बजाय अपने-अपने इलाके के प्रत्याशियों के लिए ही काम कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि पार्टी दोनों मंत्रियों में बंटी हुई सी है, इस कारण कहीं-कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि वे या उनके समर्थक एक-दूसरे को नुकसान पहुंचा सकते हैं, मगर मोटे तौर पर दोनों में होड़ इस बात की है कि कौन कितने ज्यादा पार्षद बनवा पाता है। असल में ये होड़ अपना-अपना दबदबा दिखाने से कहीं ज्यादा इस वजह से है कि दोनों की कोशिश ये रहेगी कि अपना विश्वासपात्र ही मेयर बने। और वह जाहिर तौर पर पार्षदों की तादाद से तय होगा। यद्यपि भाजपा में यह तय सा माना जा रहा है कि अगर उसका बोर्ड बना तो मेयर पद सामान्य होने के बावजूद अन्य पिछड़ा वर्ग के पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत को ही जिम्मेदारी मिलेगी। इसकी अनेक वजुआत हैं। एक तो समझा जाता है कि भाजपा के अधिक पार्षद अजमेर उत्तर से बनेंगे, ऐसे में मेयर देवनानी की पसंद का ही होगा। दूसरा ये कि संघ और देवनानी की पहली पसंद भी वे ही हैं। सब जानते हैं कि संघ निवेदन नहीं करता, आदेश जारी करता है और किसी में हिम्मत नहीं कि उसकी अवहेलना कर सके। एक और विशेष बात ये है कि अगर कहीं कुछ दिक्कत हुई तो गहलोत कांग्रेसी पार्षदों को भी मैनेज कर सकते हैं। यूं गहलोत के अतिरिक्त मौजूदा पार्षद नीरज जैन, जे. के. शर्मा, पूर्व नगर परिषद सभापति सोमरत्न आर्य और पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत आदि के नाम प्रमुख हैं। ज्ञातव्य है कि सुरेन्द्र सिंह शेखावत पर महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल का हाथ है। इसी प्रकार जे. के. शर्मा राज्य सभा सदस्य भूपेन्द्र यादव के आशीर्वाद से आगे बढ़ सकते हैं। ऐसा लगता है कि अगर गहलोत के ओबीसी होने का विवाद बढ़ा तो देवनानी अपने ही गुट के शर्मा अथवा जैन पर हाथ रख सकते हैं। रही आर्य की बात तो वे बिल्ली के भाग्य छींका टूटने की तर्ज पर चल रहे हैं। जानकारी के अनुसार भाजपा खेमा इस बात से आश्वस्त सा है कि बोर्ड उनका ही बनेगा, मेयर का फैसला भले जो कुछ हो।
दूसरी ओर कांग्रेस में इस बार सिर फुटव्वल ज्यादा नहीं है। रलावता के अतिरिक्त अन्य क्षत्रपों पूर्व उप मंत्री ललित भाटी, हेमंत भाटी, पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल, डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को संतुष्ट करने की कोशिश की गई है, इस कारण वे अपनी-अपनी पसंद के प्रत्याशियों को जिताने पर ही ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। केवल संगठन की बात करें तो उस पर सीधे तौर पर कोई विशेष जिम्मेदारी नहीं है। संगठन के कार्यकर्ता वार्ड वार और पसंद के प्रत्याशी के अनुसार बंट गए हैं। हालांकि कांग्रेस अपना बोर्ड बनने के प्रति बहुत अधिक आश्वस्त तो नहीं है, मगर उसे उम्मीद है कि केन्द्र व राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा का प्रदर्शन उल्लेखनीय न होने और जनता की नजर में खरा न उतरने का उसे फायदा मिलेगा। बात अगर मेयर की करें तो वहां अभी किसी की भी दावेदारी सामने आती नजर नहीं आ रही।
हालांकि भाजपा नेता भी यह जानते हैं अब मोदी या वसुंधरा लहर जैसी कोई स्थिति नहीं, मगर उनका विश्वास है कि केन्द्र व राज्य में सत्ता होने का उसे लाभ मिलेगा ही। जहां तक माहौल का सवाल है, वह भाजपा अपने पक्ष में बनाने में कामयाब होती दिख रही है। इसकी झलक चौराहों पर होती चर्चाओं और मीडिया रिपोर्टों में नजर आती है।
सट्टा बाजार की बात करें तो फिलवक्त भाजपा की स्थिति मजबूत है। सटोरिये भाजपा के खाते में 30-35 व कांग्रेस के खाते में 20-25 सीटें मान रहे हैं।
इस चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इस पर भाजपा हाईकमान ने पूरी निगरानी रख रखी है। उसका सोचना है कि अगर यहां कांग्रेस हारी तो इससे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट का आत्मबल कमजोर होगा, क्योंकि वे यहां के पूर्व सांसद हैं। जहां तक पायलट का सवाल है, उन्होंने अजमेर पर विशेष ध्यान तो दिया है, मगर उनकी ज्यादा कोशिश अपनी पसंद के प्रत्याशी खड़े करने की बजाय स्थानीय क्षत्रपों को संतुष्ठ करने की रही है। कदाचित उनका यह प्रयोग सफल भी हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, 9 अगस्त 2015

कामना पेसवानी किसे नुकसान पहुंचाएंगी, पता नहीं..

वार्ड 21 में निर्दलीय प्रत्याशी कामना पेसवानी कांग्रेस या भाजपा को नुकसान पहुंचाएंगी, ये कहना बहुत मुश्किल है। असल में वे हैं तो कांग्रेसी, मगर टिकट नहीं मिलने के कारण चुनाव मैदान में हैं। उनकी पहचान एक  बिंदास सामाजिक कार्यकर्ता की है। इस सिंधी बहुल वार्ड में वे जाहिर तौर पर सिंधी वोटों में ही ज्यादा सेंध मार सकती हैं। लगता तो यही है कि वे अपने प्रभाव से जिन सिंधियों के वोट हासिल करेंगी, वे भाजपा के खाते से ही निकलेंगे, चूंकि सिंधी अमूमन भाजपा मानसिकता के हैं। यदि कांग्रेस पृष्ठभूमि की वजह से अन्य जातियों के कांग्रेसी वोट भी हासिल किए तो उसका नुकसान कांग्रेस की रश्मि हिंगोरानी को होगा। कदाचित वे रश्मि से नाराज मतदाताओं के भी वोट हासिल कर लें, क्योंकि रश्मिा मौजूदा पार्षद हैं और एंटी इंकंबेसी तो होती ही है। कुल मिला कर निर्दलीय कामना पेसवानी के बारे में आकलन करना कठिन है कि वे कितने वोट झटकेंगी। वजह ये कि निर्दलीय प्रत्याशी को आसानी से वोट नहीं मिलते। अगर मिलते भी हैं तो खुद के व्यवहार और बलबूते पर। यूं सामाजिक कार्यकर्ता के नाते जमीन पर पकड़ तो है, मगर वह वोटों में कितनी तब्दील होती है, कुछ कहा नहीं जा सकता। हां, इतना पक्का है कि उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी तो समीकरणों को तो प्रभावित कर ही सकती हैं।
रहा सवाल भाजपा के मोहन लालवानी का तो बताया जाता है कि उनकी छवि तो अच्छी है, मगर फील्ड पर उतनी पकड़ नहीं। चुनाव प्रचार में साधन कितने झौंक पाएंगे, इस पर भी असमंजस है। असल में यहां डॉ. धर्मू लौंगानी को टिकट की ऑफर थी, मगर उन्होंने अरुचि दिखाई, इस पर उनकी ही सलाह पर उनको टिकट दे दिया गया। अगर खुद डॉ. धर्मू लौंगानी मैदान में होते तो उनकी जीत पक्की थी, क्योंकि डाक्टर होने के नाते उनकी सेवाएं लोगों के जेहन में हैं। उनकी तुलना में मोहन लालवानी कमजोर हैं। यहां देखने वाली बात ये होगी कि शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी समर्थक उनका कितना साथ देते हैं। अगर साथ नहीं देते तो वे किसे तरजीह देंगे, रश्मि को या फिर कामना को, कुछ पता नहीं।
उधर पार्षद रश्मि हिंगोरानी की छवि अच्छी व सीधी सादी महिला की है, मगर उनकी निर्भरता सिंधियों की बजाय, अन्य जातियों के वोटों पर ज्यादा है। साधन संपन्नता की कोई कमी नहीं है। रिपोर्ट कार्ड भी अच्छा ही है। ज्ञातव्य है कि वे विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से टिकट की दावेदार थीं और इस चुनाव में खुद को मेयर पद के दावेदार के रूप में प्रोजेक्ट कर रही हैं।
पार्टी के लिहाज से देखें तो यह वार्ड भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का है, क्योंकि उसे तकलीफ ये है कि भाजपा मानसिकता के सिंधियों के बाद भी इस इलाके से एक बार कांग्रेस जीत गई। इस कारण इस बार वह किसी भी सूरत में जीत दर्ज करवाना चाहती है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

संदीप तंवर ने दिया बीपीएल पार्टी को धोखा

बीपीएल पार्टी के वार्ड 52 के प्रत्याशी संदीप तंवर ने अपनी पार्टी को धोखा देते हुए भाजपा के भागीरथ जोशी को अपना समर्थन दे दिया है। ज्ञातव्य है कि वे ऐसे पहले उम्मीदवार हैं, जिन्होंने कोई बीस दिन पहले ही ऐलान कर दिया था कि वे बीपीएल पार्टी के प्रत्याशी हैं, हालांकि तब तक पार्टी की ओर से कोई अधिकृत घोषणा नहीं हुई थी। उन्होंने सोशल मीडिया के जरिए बाकायदा अपने समर्थकों से अपेक्षा की थी कि वे उनका साथ देंगे। हालांकि ये पता नहीं लग पाया कि आखिर उन्होंने पाला कैसे बदला, मगर उनके इस कदम से बीपीएल पार्टी को तगड़ा झटका लगा है। पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें कोस रहे हैं। वाट्स ऐप पर तो उनके बारे में अपशब्दों का इस्तेमाल भी किया जा रहा है कि वे धोखेबाज हैं। धोखा इसलिए कहा जा रहा है कि उन्होंने ऐन मौके पर अपना नाम वापस ले लिया। यदि वे पहले ही चुनाव न लडऩे का निर्णय कर लेते तो कम से कम पार्टी को किसी और को प्रत्याशी बनाने का मौका मिल जाता।
बहरहाल, उनके जोशी के समर्थन में मैदान में हटने से जोशी को फायदा मिलना ही है। मगर यह बीपीएल पार्टी की एक रणनीति भूल ही मानी जाएगी कि इतने कच्चे खिलाड़ी पर हाथ क्यों धर दिया। इस वाकये से यह तो समझ में आता ही है कि शायद पार्टियां इसीलिए नाम तय होने के बाद भी आखिर में ही सिंबल देती हैं, ताकि दावेदार को किसी प्रकार का नाप-तौल करने का मौका न मिले।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 8 अगस्त 2015

वार्ड दो में कांग्रेस व भाजपा में सीधी टक्कर

नगर निगम चुनाव में वार्ड दो में एक ओर जहां शैलेश गुप्ता व मधुरिमा मिश्रा के चुनाव मैदान से हटने का फायदा कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी मनोज बैरवा को राहत मिली है, वहीं रेलिश बंसल के नाम वापस लेने से भाजपा के प्रत्याशी प्रदीप हीरानंदानी को फायदा मिला है। ऐसे में कांग्रेस व भाजपा के बीच सीधी टक्कर है।
असल में शैलेष गुप्ता कांग्रेस के काफी दमदार दावेदार माने जा रहे थे और उनका तर्क था कि जब वार्ड सामान्य हो गया है तो उन्हें मौका मिलना ही चाहिए, मगर कांग्रेस ने जीत का समीकरण मनोज बैरवा के पक्ष में माना।   वे निवर्तमान पार्षद कमल बैरवा के छोटे भाई हैं। कमल बैरवा की स्वजातीय व अन्य पर अच्छी पकड़ है। हालांकि गुप्ता काफी गुस्से में हैं, मगर अब उनके मैदान में हट जाने से बैरवा ने राहत महसूस की है। इसी प्रकार मधुरिमा मिश्रा भी क्षेत्र में अच्छी पकड़ रखती हैं, उनका हटना भी बैरवा को राहत दे रहा है। उधर भाजपा के प्रदीप हीरानंदानी को शहर भाजपा उपाध्यक्ष सतीश बंसल के पुत्र रेलिश बंसल के मैदान से हटने का सीधा फायदा होगा। ज्ञातव्य है कि बंसल शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी के करीबी है। जाहिर तौर पर उनके कहने पर ही बंसल ने नाम वापस लिया है। बहरहाल, वार्ड भाजपा मानसिकता के भी काफी वोट हैं और संघ ने पूरी पकड़ बना रखी है, जिसके चलते प्रदीप अपने आप को मजबूत स्थिति में पाते हैं। मगर दिलचस्प बात ये है कि इस वार्ड में दोनों ही चेहरे राजनीति के लिहाज से नए हैं।
-तेजवानी गिरधर
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डॉ. बाहेती के कहने से बैठे रहीम, शैलेन्द्र को मिलेगा फायदा

नगर निगम चुनाव में वार्ड एक से खड़े हुए निर्दलीय रहीम खान के कांग्रेस प्रत्याशी शैलेन्द्र अग्रवाल के समर्थन में बैठने से उन्हें सीधा फायदा होगा। समझा जाता है कि रहीम खान पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती के कहने से माने हैं। असल में रहीम खान के बड़े भाई युवा कांग्रेस नेता मनवर खान कायमखानी हैं, जिन्होंने टिकट की दावेदारी की थी। उनका दावा था कि एक तो वे इस इलाके में पिछले तकरीबन 25 साल से सक्रिय हैं और दूसरा ये कि इस वार्ड के कुल लगभग आठ हजार मतदाताओं में से एक हजार दो सौ अल्पसंख्यक मतदाता हैं। मनजी भाई के नाम से सुपरिचित मनवर खान का व्यवसाय वार्ड के अंतर्गत आने वाले रीजनल कॉलेज के सामने मुख्य मार्ग पर तकरीबन 27 साल से है और उनका इलाके के सभी लोगों से सीधा व्यक्तिगत संपर्क है। जाहिर तौर पर वार्ड के मुस्लिम वोटों पर उनकी गहरी पकड़ है। वे पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती के करीबी है। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि टिकट मिलेगा, मगर ऐसा हो नहीं पाया। इस पर उन्होंने अपने भाई को निर्दलीय मैदान में उतार दिया। स्वाभाविक है कि डॉ. बाहेती के कहने से ही रहीम खां बैठे हैं। असल में डॉ. बाहेती का अग्रवाल पर वरदहस्त है, उसी के चलते उन्होंने अपने शागिर्द मनवर खान को उनके भाई रहीम खां को बैठाने के लिए मना लिया है। बहरहाल, रहीम खां के बैठने से अग्रवाल को फायदा होना ही है। इसी से भाजपा प्रत्याशी मित्तल तनिक चिंतित हैं।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 5 अगस्त 2015

मेयर पद की दावेदार भारती श्रीवास्तव का टिकट कटा, निर्दलीय उतरी मैदान में

अजमेर नगर निगम चुनाव में मेयर पद की कथित दावेदार श्रीमती भारती श्रीवास्वत का टिकट पक्का था, जिसमें कोई शक-शुबहा का सवाल ही नहीं उठता था, मगर उनका टिकट कट गया। असल में उनके टिकट पर पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत ग्रहण बन कर आए। वे अपने चहेते विनीत जैन की पत्नी श्रीमती सलोनी जैन को टिकट दिलवाना चाहते थे। उन्होंने अजमेर में हुई कोर कमेटी की बैठक में उनका नाम भी रखा, मगर उनकी नहीं चली। इस पर उन्होंने जयपुर में प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी को दुहाई दी कि आखिरकार वे पांच बार सांसद रहे हैं, क्या उनकी पसंद से एक भी टिकट नहीं मिलेगा, इस पर परनामी ने उनकी बात मान ली। और इस प्रकार भारती का टिकट कट गया। जाहिर तौर पर इससे भारती को तगड़ा झटका लगा। उन्होंने अपने समर्थकों के दबाव में निर्दलीय के रूप में नामांकन पत्र भर दिया। समझा जा सकता है कि जो नेता मेयर बनने की सपने देख रहा हो, उसका टिकट कटेगा तो उस पर क्या गुजरेगी। राजनीतिक हलकों में चर्चा थी कि मेयर को लेकर अगर झगड़ा बढ़ा तो ऐन वक्त पर शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी भारती का नाम आगे कर देंगे। कानाफूसी है कि खुद भारती के मुंह से भी मेयर पद की दावेदार होने की बात निकली बताई जाती है। खैर, अब जब कि वे निर्दलीय मैदान में आ गई हैं तो निश्चित रूप से अधिकृत प्रत्याशी श्रीमती सलोनी जैन के लिए बड़ी परेशानी होने वाली है। इसकी वजह ये है कि एक तो उनकी वार्ड पर अच्छी पकड़ हैं और साधन संपन्नता की दृष्टि से कम नहीं पडऩे वाली हैं। 

रमेश सेनानी का टिकट कटा, फिर जुड़ा

पूर्व पार्षद व वरिष्ठ कांग्रेसी नेता रमेश सेनानी का पक्का टिकट नामांकन भरने के दिन सुबह-सुबह कट गया तो वे भौंचक्के रह गए। वार्ड 57 में उनकी जगह किन्हीं हरीश सिंधी के नाम टिकट दे दिया गया। इस पर सेनानी ने अपने आका पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल को इसकी जानकारी दी और पूछा कि ये क्या हो गया? इस पर डॉ. जयपाल ने उनसे तसल्ली रखने और अपना नामांकन पत्र कांग्रेस से ही भरने को कहा। डा. जयपाल ने तुरंत प्रदेश हाईकमान से संपर्क साधा और कहा बताया कि ऐन वक्त पर ये कैसे कर दिया गया, जबकि इस वार्ड में सिंगल नेम पैनल था। हाईकमान को उनकी बात माननी पड़ी और तुरत फुरत में सेनानी के नाम सिंबल बनाया गया। तब जा कर सेनानी की सांस में सांस आई। मगर यह पता नहीं लग पाया कि हरीश सिंधी किस संपर्क सूत्र के माध्यम से सूची में नाम शामिल करवाने में कामयाब हो गए थे। 

राजू साहू उर्फ राजकुमार साहू को ही मिला टिकट

अजमेर नगर निगम चुनाव में आखिरी दौर में वार्ड आठ में राजू साहू उर्फ राजकुमार साहू को ही टिकट मिला। ज्ञातव्य है कि अपुन ने पहले ही लिख दिया था कि वार्ड आठ में भाजपा की नजर आखिरी दौर में राजू साहू पर पड़ गई है। हालांकि पूर्व में ऐसा माना जा रहा था कि रमेश सोनी के अतिरिक्त विमल पारलेखा, कमल बाफणा, अनिल नरवाल, गगन साहू, विजय साहू व लाल जी दावेदार हैं, मगर अचानक राजू साहू का नाम भी उभर आया। हुआ भी वही, जिसका अनुमान था।
इस मामले में अजमेर के सांसद व केंद्रीय राज्यमंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को झटका लगा। असल में वे वार्ड आठ से विमल पारलेचा के पुत्र को टिकट दिलाना चाहते थे, लेकिन देवनानी इसके लिए वे तैयार नहीं थे। दोनों की नाइत्तफाकी पहले से ही चल रही है। इस कारण देवनानी ने पैनल में एकमात्र नाम राजकुमार साहू का लिखा। हालांकि जाट ने पूरा जोर लगा दिया, मगर देवनानी की जिद के आगे प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी झुक गए। आखिरकार साहू टिकट लेने में कामयाब हो गए। 

शिवशंकर हेड़ा ने ऐन वक्त पर मना किया परचा भरने से

अजमेर नगर निगम के आसन्न चुनाव में शहर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष शिवशंकर हेड़ा ने ऐन वक्त पर वार्ड 55 के लिए नामांकन पत्र भरने से इंकार कर दिया, नतीजतन इस वार्ड से घोषित अधिकृत उम्मीदवार मौजूदा पार्षद नीरज जैन का वार्ड बदलने से बच गया, अन्यथा उन्हें वार्ड 2 में शिफ्ट करना तय हो गया था। परिणामस्वरूप वार्ड 2 से घोषित अधिकृत उम्मीदवार प्रदीप हीरानंदानी का टिकट कटने बच गया।
हुआ असल में ये कि अचानक हाईकमान से संदेश आया कि हेड़ा को वार्ड 55 चुनाव लड़ाया जाए। ऐसे में शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी के लिए संकट ये पैदा हो गया कि वे अपने चहेते नीरज जैन को कहां से लड़ाएं। ऐसे में तय ये किया गया कि वार्ड 2 के प्रत्याशी प्रदीप का टिकट काट दिया। वो गनीमत रही कि हेड़ा ने ऐन वक्त पर परचा भरने से मना ही कर दिया।

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

ज्ञान सारस्वत भाजपा के बैनर तले वार्ड तीन से ही चुनाव लड़ेंगे

मौजूद निर्दलीय पार्षद ज्ञान सारस्वत आसन्न अजमेर नगर निगम चुनाव में वार्ड से भाजपा के बैनर तले चुनाव लड़ेंगे। हालांकि यह खबर लिखने तक भाजपा की ओर से कोई आधिकारिक सूची जारी नहीं की गई थी, मगर जिस तरह खुद ज्ञान सारस्वत ने सोशल मीडिया पर अपने प्रचार का पोस्टर जारी किया तो यह तय माना गया कि उन्हें पक्के तौर पर इसी वार्ड से चुनाव लडऩे की हरी झंडी दे दी गई है। पहले ये चर्चा रही कि देवनानी वार्ड तीन से उनके खासमखास सीताराम को टिकट देना चाहते हैं और सारस्वत से वार्ड चार से चुनाव लडऩे को कहा गया है, लेकिन सारस्वत अड़ गए कि लड़ेंगे तो वार्ड तीन से। चाहे निर्दलीय ही क्यों न लडऩा पड़ जाए।
ज्ञातव्य है कि पिछली बार शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी से नाइत्तफाकी के चलते वे भाजपा के अधिकृत उम्मीदवार तुलसी सोनी के खिलाफ निर्दलीय मैदान में उतर गए और रिकार्ड वोट लेकर जीते भी। इसके बाद पिछले विधानसभा चुनाव में हालांकि उन पर उनके समर्थकों का दबाव था कि देवनानी को निपटाने के लिए वे फिर निर्दलीय चुनाव लड़ें, मगर संघ ने दबाव बना कर उन्हें शांत करवा दिया। जाहिर तौर पर तभी तय हो गया था कि इसके बाद होने वाले निगम चुनाव में उन्हें भाजपा में शामिल कर टिकट दे दिया जाएगा। मगर देवनानी से छत्तीस का आंकड़ा होने की वजह से मामला अधर में ही माना गया। एक सुलह बैठक में जब यह तय हो कि उन्हें भाजपा का टिकट दिया जाएगा तो सारस्वत के कुछ समर्थक नाराज हो गए, क्योंकि वे उनके साथ देवनानी के विरोध की वजह से ही थे। मगर सारस्वत ने उन्हें समझाया कि उनका राजनीति कैरियर तभी बन पाएगा, जबकि मुख्य धारा में जुड़ जाएं। उधर भाजपा की भी मजबूरी थी कि उन्हें टिकट से नवाजें, क्योंकि उनके निर्दलीय खड़े होने पर न केवल वार्ड तीन, बल्कि आसपास के दो-तीन वार्ड और खराब हो सकते हैं। इसक वजह ये रही कि सारस्वत ने इलाके में जम कर सेवा की और जनता का दिल जीत लिया है। बहरहाल, अब जब कि सारस्वत भाजपा से ही चुनाव लडऩे जा रहे हैं, उम्मीद यही की जा रही है कि वे आसानी से जीत जाएंगे। हालांकि आगे की रणनीति पर फिलहाल चुप हैं, मगर जीत जाने के बाद स्थिति अनुकूल होने पर मेयर पद के लिए भी ताल ठोक सकते हैं।
तेजवानी गिरधर
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रविवार, 2 अगस्त 2015

वार्ड आठ में भाजपा की नजर राजू साहू पर

ताजा जानकारी के अनुसार आसन्न अजमेर नगर निगम चुनाव में वार्ड आठ में भाजपा की नजर आखिरी दौर में राजू साहू पर पड़ गई है। हालांकि पूर्व में ऐसा माना जा रहा था कि रमेश सोनी के अतिरिक्त विमल पारलेखा, कमल बाफणा, अनिल नरवाल, गगन साहू, विजय साहू व लाल जी दावेदार हैं, मगर अचानक राजू साहू का नाम भी उभर आया है। यहां भाजपा के कर्मठ कार्यकर्ता गगन साहू स्वयं चुनाव लडऩे के प्रति असमंजस के चलते विजय साहू का समर्थन करते नजर आ रहे थे, मगर अब पता लगा है कि वे पार्टी नेताओं की सलाह पर राजू साहू का साथ देने को तैयार हो गए हैं। यानि कि अब विजय साहू भी उनका ही साथ देंगे।
यहां ज्ञातव्य है कि अनिल नरवाल पहले अपनी पत्नी श्रीमती वंदना नरवाल को महिला के लिए आरक्षित वार्ड सात से चुनाव लड़ाने को इच्छुक नहीं थे और खुद के लिए वार्ड आठ से टिकट मांग रहे थे, मगर उनकी पत्नी का नाम वार्ड सात से लगभग फाइनल होने के बाद उनका यहां दावा समाप्त हो गया है। विमल पारलेचा को टिकट इस कारण नहीं मिलने की संभावना है, क्योंकि उनका शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी से छत्तीस का आंकड़ा है। अब देखने वाली बात ये होगी कि वे टिकट नहीं मिलने पर क्या करते हैं। यूं रमेश सोनी व कमल बाफना की दावेदारी भी बरकरार है।
आपको बता दें कि इस वार्ड में मुसलमानों के तकरीबन 1800 वोट हैं, जो कि कांग्रेस प्रत्याशी के लिए मुफीद हैं। कांग्रेस की ओर से इमरान सिद्दीकी का नाम प्रमुखता से उभर कर आया है। यूं यहां से संजय टाक, दिलीप व पप्पू भाई भी दावेदारी कर रहे हैं। बताया जाता है कि पप्पू भाई को अगर टिकट नहीं मिला तो वे निर्दलीय खड़े हो सकते हैं। ऐसे में कांग्रेस प्रत्याशी को दिक्कत हो सकती है।
-तेजवानी गिरधर
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अनिल नरवाल की पत्नी ही लड़ेंगी वार्ड सात से

ऐसा प्रतीत होता है कि आगामी अजमेर नगर निगम चुनाव में वार्ड सात के बारे में मेरा आकलन सही हो रहा है। रविवार की रात जिस प्रकार अनिल नरवाल के नाम से बना एक पोस्टर वाट्स ऐप पर चला, उससे प्रतीत होता है कि उनकी पत्नी का भाजपा से टिकट पक्का हो गया है। हालांकि भाजपा ने अभी तक एक भी सीट के प्रत्याशी की आधिकारिक घोषणा नहीं की है, मगर पोस्टर में साफ दर्शाया गया है कि अनिल नरवाल की पत्नी श्रीमती वंदना नरवाल वार्ड सात की भाजपा प्रत्याशी हैं।
ज्ञातव्य है कि मैने इसी कॉलम में लिखा था कि यहां भाजपा की आस अनिल नरवाल पर टिकी है। साफ संकेत दिए थे कि यहां भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार अनिल नरवाल को उनकी पत्नी को चुनाव लड़ाने का ऑफर है। दूसरी ओर पता चला था कि वे अपनी पत्नी को चुनाव मैदान में उतारने की बजाय खुद वार्ड आठ से टिकट लेना चाहते हैं। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि वे भाजपा नेताओं की राय मानने को तैयार हो गए हैं।
मैने लिखा था कि असल में यह वार्ड भाजपा के लिए आसान वार्ड नहीं है। इस वार्ड में तकरीबन 2800 मुस्लिम वोट हैं। यहां पार्टी तभी कामयाब हो सकती है, जबकि कांग्रेस मानसिकता वाले हरिजन वोटों में सेंध मारे। इसके लिए मात्र अनिल नरवाल ही सक्षम हैं। इसी कारण पार्टी चाहती है कि नरवाल की पत्नी के यहां से लड़ें, जिससे चुनाव जीतना आसान हो जाए, कई भाजपाई वार्ड वासी भी यही चाहते हैं, चूंकि वे ही नैया पार लगा सकते हैं। अगर नरवाल की पत्नी ही चुनाव लड़ती हैं तो कांग्रेस को नई रणनीति बनानी होगी। ज्ञातव्य है कि कांग्रेस में यहां आरिफ हुसैन, पप्पू कुरैशी व मुनीर तंबोली के परिवारों में किसी महिला के चुनाव लडऩे की संभावना बताई जा रही है।
-तेजवानी गिरधर
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शाहनी की राजनीति पर लगा बैरियर समाप्त

एसीबी की अजमेर यूनिट की ओर से जमीन के बदले जमीन मामले में तत्कालीन नगर सुधार न्यास के पूर्व सदर नरेन शाहनी भगत को क्लीन चिट दिए जाने की जानकारी के साथ ही उनके राजनीतिक जीवन पर लगा बेरियर हट गया है। हालांकि जिस तरह से वे कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट पर आरोप लगा कर पार्टी से बाहर गए थे, उससे उनके यकायक वापस लौटने की राह आसान नहीं है, मगर संभव है अपने आका पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मदद से फिर प्रवेश पा सकते हैं।
असल में पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उन पर राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा का दबाव था कि वे मामले से बचने के लिए कांग्रेस का साथ छोड़ दें। उन्होंने साथ तो छोड़ा, मगर ऐन चुनाव के वक्त सचिन पर आरोप लगाने की वजह से वे उनसे सदा के लिए दूर हो गए। असल में भाजपा यही चाहती थी कि तत्कालीन कांग्रेस प्रत्याशी सचिन पायलट के लिए मुश्किल पैदा हो।  रहा सवाल उनके भाजपा में शामिल होने का तो या तो वे खुद ही भाजपा में नहीं जाना चाहते थे या फिर भाजपा आरोपी नेता को पार्टी में लेना नहीं चाहती थी। बहरहाल, मामला लंबित होने के कारण उन्होंने भी राजनीति से पूरी तरह किनारा कर लियाद्ध अब जबकि वे आरोप से मुक्त होने की स्थिति में हैं तो उनके राजनीतिक कैरियर पर लगा बेरियर हट गया है। अब वे स्वतंत्र हैं कि भाजपा में जाएं या कांग्रेस में लौट आएं। संभव है भाजपा उन पर पार्टी में शामिल होने पर दबाव भी बनाए। हालांकि इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर ऐन नगर निगम चुनाव से पहले उनको क्लीन चिट मिलना यह संदेह तो पैदा करता ही है कि कहीं भाजपा उनका लाभ लेने के मूड में तो नहीं है। यूं उनको पार्टी में लाने से भाजपा को बहुत बड़ा फायदा नहीं है, क्योंकि भाजपा में पहले से कई सिंधी नेता मौजूद हैं। रहा सवाल उनको लाभ का तो आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा में तो उन्हें टिकट मिलना मुश्किल ही है, क्योंकि यहां की सीट का फैसला संघ करता है। एक तो वैसे ही लगातार तीन बार जीत कर प्रो. वासुदेव देवनानी ने धरती पकड़ रखी है, दूसरा यह सीट संघ के खाते में है, इस कारण यहां गैर संघी को टिकट मिलना मुश्किल ही होता है। हां, अगर कांग्रेस में जरूर सिंधी के नाते उन्हें फिर लाभ मिल सकता है, क्योंकि कांग्रेस में सिंधी कम हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी मुसलमान की जितनी तवज्जो कांग्रेस में नहीं होती, उतनी भाजपा में होती है।
खैर, वैसे अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि आगामी माह में होने जा रही उनके बेटे की शादी होने तक वे राजनीति से दूर ही रहेंगे। उसी के बाद तय करेंगे कि करना क्या है। चूंकि वे अच्छे समाजसेवी और मिलनसार  हैं, इस कारण खोयी प्रतिष्ठा हासिल करने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। बस अफसोस इस बात है कि जिस आरोप में उन्हें क्लीन चिट मिली है, उसने उनके जीवन में एक ऐसा मोड़ ला दिया था, जहां से उनका राजनीतिक कैरियर चौपट होने जा रहा था।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

नरेश सारवान वार्ड 17 से कांग्रेस के प्रबल दावेदार

अजमेर नगर निगम के आगामी 17 अगस्त को होने जा रहे चुनाव में वार्ड 17 से कांग्रेस की ओर से नरेश सारवान की प्रबल दावेदारी है। एनएसयूआई जीसीए के पूर्व अध्यक्ष और यूथ कांग्रेस राजस्थान के सचिव सारवान के पक्ष में सबसे बड़ा पहलु ये है कि वे स्थानीय हैं और लंबे अरसे से यहां सक्रिय हैं।  इसके अतिरिक्त उनके वाल्मिकी समाज के तकरीबन नौ सौ वोट हैं, जो कांग्रेस मानसिकता के माने जाते हैं। सारवान पर कांग्रेस नेता हेमंत भाटी का वरदहस्त बताया जाता है। जानकारी ये भी है कि यहां पूर्व पार्षद सुनील केन, जिन्हें कि चुनाव प्रबंधन का पूरा ज्ञान है, ने भी खम ठोक रखा है, मगर उनके साथ दिक्कत ये आ सकती है कि वे स्थानीय नहीं है। ज्ञातव्य है कि सुनील केन की पत्नी श्रीमती नीता केन इस वक्त वार्ड 15 से पार्षद हैं, मगर उनका वार्ड अब 19 हो गया है। नया वार्ड 19 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, मगर वे वार्ड 17 से दावेदारी कर रहे हैं। देखने वाली बात ये है कि टिकट लेने के मामले में सारवान और केन में से कौन बाजी मार ले जाता है।

बुधवार, 29 जुलाई 2015

नवीता जोन हैं वार्ड 50 से कांग्रेस की प्रबल दावेदार

आसन्न अजमेर नगर निगम चुनाव में सामान्य महिला के लिए आरक्षित वार्ड 50 से कांग्रेस की ओर से श्रीमती नवीता जोन की प्रबल दावेदारी उभर कर आ रही है। वे राजेश जोन की धर्मपत्नी हैं, जो कि कांग्रेस का जाना-पहचाना चेहरा हैं और उनकी धरातल पर अच्छी पकड़ है।
39 वर्षीया श्रीमती नवीता बीए पास हैं और कांग्रेस में वे पूर्व ब्लॉक उपाध्यक्ष रह चुकी हैं। वार्ड में क्रिश्चियन समुदाय के पर्याप्त वोट हैं, जिनका उन्हें पूरा समर्थन मिलने की उम्मीद है। इसके अतिरिक्त यहां कायस्थ समुदाय के भी काफी वोट हैं, जो परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ रहे हैं। यह वार्ड कांग्रेस के लिए अनुकूल बताया जाता है। ज्ञातव्य है कि वार्ड में पूरा जवाहर नगर, पूरा सिविल लाइन्स, राजस्व मंडल के आसपास और पुलिस लाइन के इलाके आते हैं। विस्तार से देखें तो वार्ड में कनक गार्डन के सामने होते हुए जवाहर रंगमंच के सामने होते हुए सावित्री स्कूल तिराहे तक बांयी तरफ के मकान, वहां से बांयी तरफ मुड़ कर पूरे सिविल लाइन क्षेत्र को शामिल करते हुए होटल खादिम, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के सामने होते हुए अम्बेडकर सर्किल तक बांयी तरफ के मकाना इसमें शामिल हैं। इसके अतिरिक्त वहां से बांयीं तरफ मुड़ कर सिंचाई विभाग, संभागीय आयुक्त कार्यालय होते हुए माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ऑफिस से पहले तिराहे तक बांयीं तरफ के सभी मकान भी हैं। इसके बाद सेंट्रल जेल को शामिल करके पुलिस लाइन चौराहे तक बांयी तरफ के मकान, वहां से चुंगी चौकी शास्त्री नगर की तरफ होते हुए लोहागल रोड पर महेन्द्र भाटी की दुकान तक बांयी तरफ के समस्त मकान भी इसी वार्ड में हैं।
-तेजवानी गिरधर
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रमेश सेनानी हो सकते हैं वार्ड 57 से कांग्रेस के दावेदार

पूर्व पार्षद रमेश सेनानी आसन्न नगर निगम चुनाव में वार्ड 57 से कांग्रेस के दावेदार हो सकते हैं। जानकारी के अनुसार उनको चुनाव लडऩे का मानस बनाने का इशारा तो मिल चुका है, मगर वे अभी जमीनी हालात का मुआयना कर रहे हैं।
सबको पता है कि सेनानी पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल खेमे से हैं और पूर्व केबीनेट मंत्री स्वर्गीय किशन मोटवानी के भी करीबी रहे हैं। उन्हें चुनाव लडऩे और लड़वाने का खासा अनुभव है। कम से कम रणनीतिक रूप से तो वे कमजोर नहीं पडऩे वाले। कभी विधानसभा सीट के भी दावेदार रहे हैं। वैसे ये वार्ड भाजपा के लिए सर्वाधिक मुफीद वार्डों में शुमार है और शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्र भी, मगर कदाचित उन्हें मौजूदा पार्षद दीपेन्द्र लालवानी के प्रति स्वाभाविक रूप से कायम एंटी इन्कंबेंसी का लाभ भी मिल जाए। इस बात की भी संभावना है कि अगर वे जीते और कांग्रेस का बोर्ड बनने की स्थिति आई तो वे मेयर पद के भी दावेदार हो सकते हैं। ज्ञातव्य है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से सिंधी को टिकट न दिलवा पाने की वजह से उसकी एवज में किसी सिंधी को मेयर बनवाने का मानस रखते हैं। उनकी सोच है कि जब तक किसी सिंधी को पावरफुल नहीं बनाया जाएगा, तब तक भाजपा के इस वोट बैंक में सेंध मारना कठिन ही होगा।
आपको बता दें कि 8 सितम्बर 1952 को जन्मे सेनानी बी.ए. पास हैं और कांग्रेस से वर्षों से जुड़े हुए हैं। पेश से वे प्रॉपर्टी डीलर हैं, इस कारण इलाके के चप्पे-चप्पे को अच्छी तरह से जानते हैं। एक जमाना था, जब वैशाली नगर में कांग्रेस का झंडा हाथ में थामने वाला कोई नहीं था, तब से वे इस इलाके में कांग्रेस का दिया जलाते रहे हैं। वे कांग्रेस संगठन में तो कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे ही हैं, 1995 में इस इलाके से पार्षद भी रह चुके हैं।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 26 जुलाई 2015

वार्ड सात में भाजपा की आस टिकी अनिल नरवाल पर

आगामी नगर निगम चुनाव में वार्ड सात सामान्य महिला के लिए सुरक्षित होने के कारण यहां भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार अनिल नरवाल को उनकी पत्नी को चुनाव लड़ाने का ऑफर है। दूसरी ओर पता चला है कि वे अपनी पत्नी को चुनाव मैदान में उतारने की बजाय खुद वार्ड आठ से टिकट लेना चाहते हैं।
असल में यह वार्ड भाजपा के लिए आसान वार्ड नहीं है। इस वार्ड में तकरीबन 2800 मुस्लिम वोट हैं। यहां पार्टी तभी कामयाब हो सकती है, जबकि कांग्रेस मानसिकता वाले हरिजन वोटों में सेंध मारे। इसके लिए मात्र अनिल नरवाल ही सक्षम हैं। इसी कारण पार्टी चाहती है कि नरवाल की पत्नी के यहां से लड़ें, जिससे चुनाव जीतना आसान हो जाए, कई भाजपाई वार्ड वासी भी यही चाहते हैं, चूंकि वे ही नैया पार लगा सकते हैं, लेकिन अगर नरवाल नहीं माने तो यह वार्ड कांग्रेस के लिए आसान हो सकता है। एक मात्र यही वजह है कि नरवाल की पत्नी के यहां से चुनाव न लडऩे की संभावना के चलते कांग्रेसियों में खींचतान बढ़ गई है। कांग्रेस में यहां आरिफ हुसैन, पप्पू कुरैशी व मुनीर तंबोली के परिवारों में किसी महिला के चुनाव लडऩे की संभावना बताई जा रही है।
-तेजवानी गिरधर
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भाजपा दावेदारों ने निकाला तोड़

नगर निगम चुनाव में भाजपा ने दावेदारों पर मानसिक दबाव बनाने के लिए जो तीन अन्य दावेदारों के नाम भी आवेदन के साथ देने का नियम बनाया है, उसका दावेदारों ने तोड़ निकाल लिया है। पता लगा है कि तेज तर्रार दावेदारों ने पार्टी को वे तीन नाम सुझाए हैं, जो असल में दावेदार हैं ही नहीं, या बहुत कमजोर दावेदार हैं, या फिर उनको टिकट मिलना कत्तई असंभव है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे वास्तविक दावेदारों पर अपनी मुहर तो नहीं लगाना चाहते। हालांकि पार्टी के बड़े नेताओं को तो पता होगा ही कि कौन-कौन दमदार दावेदार हैं, मगर वे क्यूं अपनी ओर से उन दमदार पर अपनी राय जाहिर करें।
एक और चालाकी भी की जा रही है। वो ये कि एक ही लॉबी के कुछ दावेदार पूल भी कर रहे हैं। एक-दूसरे के नाम अन्य तीन दावेदारों की सूची में दर्शा रहे हैं। ताकि गिनती की जाए तो उनके नाम ही प्रमुख दावेदारों की सूची में हों। हकीकत में सच बात ये है कि हर दावेदार को पता है कि वह कितने पानी में है, दिखावे के लिए खम ठोक कर ऐसे खड़ा होता है कि मानो उसका टिकट फायनल हो।
वैसे ये है सब बेमानी। पार्टी के नेताओं को पहले से पता होता है कि असल में कौन-कौन असल दावेदार है। उनके सामने तो दिक्कत ये होती है कि जो मजबूत हैं, उनमें से नाम किसका तय किया जाए। फोकट दावेदारी करने वालों के लिए तो कोई जगह होती ही नहीं। उससे भी बड़ा सच ये है कि दोनों विधानसभा क्षेत्रों के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल पहले से ही लगभग तय कर चुके हैं कि किसे-किसे टिकट देना चाहिए। आखिर इतने दिन से मॉनिटरिंग कर रहे हैं। जहां तय करने में दिक्कत है, वहां जरूर दो या तीन नाम दिमाग में रखे हैं। आखिरी वक्त में हेरफेर कर लेंगे। उससे भी कड़वा सच ये है कि प्रत्याशी तय करने की हो भले ही पूरी प्रक्रिया, मगर टिकट उन्हें ही मिलेगा, जिन पर देवनानी व भदेल हाथ रखेंगे। अब तक का इतिहास तो यही बताता है। पिछले अध्यक्ष प्रो. रासासिंह रावत की कितनी चलती थी, सबको पता है। वे केवल अपनी इज्जत बचाए हुए थे, बाकी तय सब कुछ देवनानी व भदेल ही किया करते थे। आपको याद होगा, शिवशंकर हेड़ा का अध्यक्षीय कार्यकाल। सारे टिकट दोनों विधायकों ने तय किए, हेड़ा शायद ही किसी अपनी पसंद के दावेदार को टिकट दिलवा पाए। कमोबेश वैसा ही इस बार होने की संभावना है। मौजूदा अध्यक्ष अरविंद यादव भले ही अभी खुश हो लें कि उनकी अध्यक्षता में पूरी प्रक्रिया हो रही है, मगर हिस्से में उनके चंद टिकट ही आने हैं। उन्हें भी पहले से पता है कि दोनों विधायक चाहते क्या हैं? तो उसी हिसाब से अपनी राय रखने वाले हैं। उनकी राय वहीं अहमियत रखेगी, जहां विवाद खड़ा हो जाएगा। या फिर देवनानी व भदेल के कुछ जिताऊ व पसंद के दावेदार एक दूसरे के विधानसभा क्षेत्र में लटक रहे होंगे। यानि कि समझौते में दो-तीन टिकट एक दूसरे की पसंद के देने होंगे। इस दरहकीकत को अगर आप समझ लें तो यह आसानी से समझ सकते हैं कि पार्टी ने दावेदारों से जो तीन अन्य दावेदारों नाम मांगे हैं, वे क्या मायने रखते हैं। ऐसे में यह बात कितनी हास्यास्पद हो जाएगी कि पार्टी तीन दावेदारों के नाम लिखने की औपचारिकता इसलिए करवा रही है ताकि टिकिट न मिलने पर कोई कार्यकर्ता यह नहीं कह सके कि मुझसे पूछे बिना अन्य को टिकिट दे दिया गया। इसी को राजनीति कहते हैं। नौटंकी पूरी करनी होती है, मगर टिकट उसे ही मिलता है, जिसके बारे में निर्णायक पहले से तय कर चुके होते हैं।
एक बात और मजेदार है। वो ये कि आवेदक से यह भी लिखवाया गया है कि अधिकृत प्रत्याशी का चुनाव में विरोध नहीं किया जाएगा। अब बताओ, उसके ऐसे लिखे हुए का क्या मतलब है? उसने कोई फस्र्ट क्लास मजिस्ट्रेट के सामने तो शपथ पत्र दिया नहीं है कि वह इस लिखे हुए की पालना करने को बाध्य हो? लिख कर देने के बाद भी अगर वह निर्दलीय चुनाव लड़ता है तो लड़ेगा। आप भले ही पार्टी से बाहर कर देना। वो तो आप बिना लिखवाए हुए भी करने के लिए अधिकृत हैं। मगर कहते हैं न कि दिखावे की दुनिया भी चल रही है, जबकि होता वही है जो हकीकत की दुनिया चाहती है।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 23 जुलाई 2015

मेयर के दावेदारों में एक और नाम शामिल

आगामी अगस्त माह में होने वाले अजमेर नगर निगम चुनाव के लिए एक ओर जहां कांग्रेस में मेयर की दावेदारी का अता-पता नहीं है, वहीं भाजपा में एक और दावेदार का नाम कानाफूसी की गिरफ्त में आ गया है। वो नाम है सीताराम शर्मा का।
सबको पता है कि वे शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी के खासमखास हैं। अति विश्वसनीय। चर्चा ये चल पड़ी है कि उन्हें वार्ड तीन से चुनाव लड़ाने का मानस बनाया गया है। हालांकि प्रारंभिक तौर पर कहीं ये चर्चा नहीं की जाएगी कि वे मेयर पद के दावेदार हैं, मगर वे तुरप का आखिरी पत्ता हो सकते हैं। असल में उनका नाम इस कारण चर्चा में आया है कि मौजूदा दावेदारों को लेकर कुछ संशय बना हुआ है। यद्यपि यह तय सा है कि अगर भाजपा का बोर्ड बनता है तो देवनानी के हनुमान पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत ही मेयर के पद के सबसे प्रबल दावेदार होंगे, चूंकि उन्हें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी वरदहस्त प्राप्त है। मगर एक किंतु ये ही है कि चूंकि वे ओबीसी से हैं, इस कारण सामान्य वर्ग के दावेदार व पार्षद विरोध भी कर सकते हैं। दूसरे प्रबल दावेदार पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत पर राज्यसभा सांसद भूपेन्द्र सिंह यादव व महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल का हाथ है, मगर संघ शायद तैयार न हो। तीसरे संभावित दावेदार नीरज जैन हैं, जिन पर जरूरत पडऩे पर ऐन वक्त पर देवनानी हाथ रख सकते हैं। रहा सवाल यादव के ही खास पार्षद जे. के. शर्मा का तो उनकी संभावना तब ही बनेगी, जबकि गहलोत व शेखावत को लेकर खींचतान मचेगी। उनको बाद में सभी साथ देने को तैयार भी हो सकते हैं। बात अगर सोमरत्न आर्य की करें तो वे भी खींचतान की स्थिति में जुगाड़ तंत्र का उपयोग कर मेयर पद हथिया सकते हैं।
चंद सवाल ये भी हैं। यह जानते हुए भी कि दोनों में से ही कोई एक मेयर बनेगा, क्या गहलोत व शेखावत दोनों चुनाव लड़ेंगे, क्योंकि ऐसे में एक तो मात्र पार्षद बन कर रहना होगा? कयास ये है कि अगर ऐसी स्थिति आई तो जो मात्र पार्षद रह जाएगा, वह इस्तीफा दे देगा। एक हवाई सवाल ये भी की काउंट करके चलना चाहिए कि क्या वाकई दोनों चुनाव लड़ेंगे भी?
अब बात करते हैं, सीताराम शर्मा की। ऐसी कयासबाजी लगाई जा रही है कि देवनानी ने उनको ब्लैक हॉर्स के रूप में रख रखा है। अगर गहलोत व जैन को लेकर कोई दिक्कत हुई तो वे ये पत्ता खेल जाएंगे। इसमें सुविधा ये भी है कि वे सर्वाधिक आज्ञाकारी हैं। इंच मात्र भी इधर से उधर नहीं होने वाले। जहां कहा जाएगा बैठ तो बैठ जाएंगे और जहां कहा जाएगा खड़ा हो तो खड़े हो जाएंगे। वैसे भी जो दावेदार न हो, उसे अगर मेयर बना दिया जाए तो वह इतना अभिभूत हो जाता है कि अपने आका का हर हुक्म सिर माथे रख कर चलता है। यूं गहलोत व जैन हैं तो देवनानी के ही मगर थोड़ा बहुत अपना खुद का भी वजूद रखते हैं। उनका अपना तंत्र भी है। हूबहू वही करेंगे, जो देवनानी चाहते हैं, इसमें तनिक संशय है। उसमें भी गहलोत में तो ये भी काबिलियत है कि अगर भाजपा में टोटा पड़ा तो वे कांग्रेसी पार्षद भी जुटा सकते हैं। यदि ऐसी स्थिति आई तो केवल देवनानी की हर आज्ञा मानना संभव नहीं होगा। सब कुछ एडजस्ट करके चलना होगा।
बात अब दूसरे समीकरण की। श्रीमती भदेल भी मौका तलाशेंगी कि उनकी पसंद का मेयर बने। उनके पास एक ही पत्ता है- सुरेन्द्र सिंह शेखावत। अगर उनको लेकर दिक्कत आई तो वे जे. के. शर्मा पर राजी हो जाएंगी। उनके पास एक चाल और भी बचेगी। उसे यूं समझते हैं। हालांकि निर्दलीय पार्षद ज्ञान सारस्वत समझौते के तहत देवनानी कोटे से टिकट लेंगे, मगर उनके ही पक्के हो कर रहेंगे, इस बारे में क्या कहा जा सकता है? अगर गहलोत व शेखावत के बनने में बाधा आई तो वे ज्ञान को समर्थन देकर खेल  अपने पक्ष में करने से नहीं चूकेंगी। हांलाकि अभी ये दूर की कौड़ी ही लगती है, मगर फैंकुओं को भला कौन रोक सकता है। वैसे भी राजनीति शतरंज का वो खेल है, जिसमें सब कुछ संभव है। इस कारण चतुर खिलाड़ी हर संभावना  को ध्यान में रख कर खेलता है। बहरहाल, अब देखते हैं कि चकरी घूम कर किस पर आ कर टिकती है।
-तेजवानी गिरधर
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