मंगलवार, 25 जून 2019

शहर के गुमनाम हिस्से में खिल रही है किरण

जयपुर रोड पर अजमेर शहर की सीमा पर एक गांव है बंदिया। आप में से कम ही लोगों ने उसका नाम सुना होगा। देखना तो दूर की बात है। इस छोटे से गांव में उभरती उम्र की एक युवती दिल में कुछ कर गुजरने का जज्बा लिए महक रही है। नाम है किरण। किरण रावत। दिलचस्प बात ये है कि उनकी मां विमला रावत ने उनका नाम किरण बेदी के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर रखा है। वे चाहती हैं कि वह एक दिन किरण बेदी जैसी शख्सियत बने। छरहरे बदन की किरण एक सामान्य सी युवती नजर आती है, मगर जैसे ही वह बोलना शुरू करती है तो यह अहसास करा देती है कि उसके भीतर एक अनोखी ऊर्जा है। गर परिस्थितियों ने साथ दिया तो वह एक दिन राष्ट्रीय क्षितिज पर उभर कर आ सकती है, इतना पोटेंशियल है उसमें।
किरण अपनी मां की प्रेरणा से गांव के गरीब बच्चों को पढ़ा कर न केवल साक्षर कर रही हैं, अपितु उनमें सभ्यता व संस्कृति के गुण भी विकसित करने में जुटी हुई हैं। यहां तक कि नहा-धुला कर तरीके से जीना भी सिखा रही हैं। उनके पास सीमित संसाधन है, मगर सोशल मीडिया के जरिए खासी लोकप्रियता हासिल कर चुकी हैं। चंद साल में ही उन्होंने इतनी साख बना ली है कि विभिन्न संस्थाएं व लोग उनकी सहायता कर संतुष्ट हैं। उन्होंने बाकायदा एनजीओ रजिस्टर्ड करवा रखा है, मगर फिलवक्त सरकारी सहायता से दूर हैं।
पिछले दिनों सर्व सिन्धी समाज महासभा की ओर से उनके निवास स्थान पर आयोजित एक कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि भाग लेने का मौका मिला। इसमें उनको महासभा के अजमेर इकाई के अध्यक्ष सोना धनवानी की ओर से भूतपूर्व केबीनेट मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी की स्मृति में चार पंखे भेंट किए गए। सोना धनवानी अब तक और भी कई संस्थाओं को पंखे भेंट कर चुके हैं। यह सिलसिला अभी जारी है। सोना धनवान का शुक्रिया कि उन्होंने किरण जैसी प्रतिभा से मुलाकात करवाई, जिनका जज्बा व माद्दा देख कर लगता है कि उसकी रोशनी आने वाले समय में देश भर में फैलेगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, 19 जून 2019

रिजू झुनझुनवाला पेश कर रहे हैं अनूठा उदाहरण

आम तौर पर जब भी कोई बाहर का प्रत्याशी अजमेर से चुनाव लड़ता है और हार जाता है, तो उसके बाद पलट कर अजमेर की ओर नहीं झांकता।  जहां कांग्रेस में विष्णु मोदी, जगदीप धनखड़, हाजी हबीबुर्रहमान आदि इसके उदाहरण हैं तो वहीं भाजपा में किरण माहेश्वरी का नाम लिया जा सकता है। सैद्धांतिक रूप से यह बिलकुल गलत है। अगर हारने के बाद उन्हें अजमेर को छोड़ ही देना था तो काहे को चुनाव के वक्त ये वादे किए कि चाहे हार जाएं, मगर अजमेर के हितों के लिए काम करते रहेंगे। ठीक है, वे हार गए, मगर उन्हें भी तो अजमेर की जनता ने वोट दिए थे, क्या उनका अजमेर के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता? मगर ये ही हमारी राजनीति है कि आप सवाल उठाते रहिये, वे सुन कर अनसुना करते रहेंगे। आप उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। विष्णु मोदी का उदाहरण तो और भी दिलचस्प है। उन्होंने जीतने के बाद भी अजमेर का रुख नहीं किया। मगर मजे की बात देखिए कि वे दुबारा अजमेर आए और पार्टी बदल कर मसूदा से जीत गए। आप करते रहिए सिद्धांतों की बात, न केवल वे बेपरवाह रहते हैं, अपितु दुबारा जीत भी जाते हैं, अर्थात उन्हें जीतने का गुर पता है।
खैर, यह पूरी बात कर रहा हूं अगली बात का प्लेटफार्म बनाने के लिए। आपको ख्याल होगा कि हाल ही हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से भीलवाड़ा के रिजू झुनझुनवाला को भेजा गया। उन्होंने अपने भाषणों में, फ्लैक्स में सिर्फ अजमेर के विकास की बात कही। दुर्भाग्य से हार गए। लोगों ने सोचा कि वे भी अन्य प्रत्याशियों की तरह पलट कर अजमेर की ओर रुख नहीं करेंगे। मगर उन्होंने इस धारणा तो तोड़ दिया। वे बुरी तरह से हारे। चार लाख से भी ज्यादा वोटों से। समझा जा सकता है कि उन पर क्या बीती होगी? मगर इतने बेआबरू हो कर अजमेर के कूचे से निकाले जाने के बाद भी उन्होंने अजमेर को अपनाने की ठान ली। उनके संरक्षत्व में बाकायदा एक समिति बनाई, जिसका नाम है पूर्वांचल जन चेतना समिति। यह समिति गठन के बाद से लगातार सामाजिक सरोकार से जुड़े कामों में जुट गई है। समिति के कार्यकर्ता पुष्कर सरोवर के कुंडों में टैंकरों से पानी भरने, वर्षा के लिए पुष्कर में हवन करने सहित अन्य छोटे-मोटे कामों को अंजाम दे रही  है। समिति की ओर से कहा गया है कि वह अजमेर के सामाजिक सरोकार, सांस्कृतिक विकास और मूलभूत सुविधाओं व समस्याओं के निवारण के लिए काम करती रहेगी। चूंकि रिजू एक बड़े उद्योगपति हैं, इस कारण उनके पास वक्त की कमी है, फिर भी उनकी ओर से उनके खास सिपहसाला रजनीश वर्मा पूरी देखरेख कर रहे हैं। आपको याद होगा कि रिजू के चुनाव से पहले जाजम जमाने में भी उनकी ही भूमिका रही है। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि समिति केवल सेवा कार्य अंजाम देने के लिए बनाई गई है, उसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, मगर समझा जा सकता है कि इसी गैर  राजनीतिक समिति के जरिए रिजू लंबी दूर की राजनीति की खातिर अजमेर में सक्रिय बने रहना चाहते होंगे। इसमें कोई भी बुराई नहीं है। कम से कम वे यह तो नजीर पेश कर ही रहे हैं कि उन्होंने अजमेर को अपना लिया है और बुरी तरह से हारने के बाद भी यहां से जुड़े रहना चाहते हैं।
अपनी समझदानी तो यही कहती है कि वे राजनीतिक केरियर बनाने के लिए सक्रिय बने रहना चाहते हैं। चूंकि वे कांग्रेस के हारे हुए प्रत्याशी हैं, इस कारण इस संसदीय क्षेत्र में भविष्य में कांग्रेस में होने वाली गतिविधियों व फैसलों में उनकी भी राय अहमियत रखेगी। वे ये भी जान चुके होंगे कि अजमेर में वैक्यूम है और सक्रिय बने रहे तो आने वाले चुनाव में भी प्रबलतम दावेदारों में शुमार रहेंगे। इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सामाजिक व राजनीतिक सक्रियता बनाए रख कर वे कांग्रेस की ओर से राज्यसभा में जाने का प्लेटफार्म तैयार कर रहे हों।
खैर, जो कुछ भी हो। हारने के बाद भी सक्रिय रह कर सामाजिक हितों के कार्य करने के उनके जज्बे को सलाम, साधुवाद।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, 17 जून 2019

देवनानी व अनिता के प्रभाव को कम करने की कोशिश?

क्या शहर जिला भाजपा अध्यक्ष शिव शंकर हेडा ने लगातार चौथी बार विधायक बने प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल का प्रभाव पार्टी के भीतर कम करने की कोशिश की है, ये सवाल इन दिनों राजनीतिक गलियारे में चर्चा का विषय बना हुआ है।
असल में उन्होंने हाल ही अजमेर नगर निगम के वार्डों के परिसीमन पर निगरानी एवं आपत्तियां दर्ज करने व सुझाव देने के लिए शहर प्रभारी आनंद सिंह राजावत को बनाया है, जबकि अजमेर उत्तर के लिए सोमरत्न आर्य व अजमेर दक्षिण के लिए डॉ. प्रियशील हाडा को सह प्रभारी बनाया है। चलते-चलते यह बताना प्रासंगिक रहेगा कि राजावत को शहर अध्यक्ष बनने से रोकने में देवनानी की अहम भूमिका रही है। अनिता भदेल की बेरुखी के चलते ही डॉ. सोमरत्न आर्य मेयर का और सोमरत्न आर्य वार्ड वार्ड पार्षद का चुनाव हार गए। इन्हीं चर्चाओं के आधार पर राजनीति के जानकारों की धारणा है कि तीनों प्रभारी-सह प्रभारियों की देवनानी व भदेल से नाइत्तफाकी है। वार्डों के परिसीमन जैसे महत्वपूर्ण कार्य में देवनानी व भदेल को दरकिनार कर अपनी पसंद के प्रभारी बनाने को इस अर्थ में लिया जा रहा है कि हेडा ने अपने पद का प्रभाव इस्तेमाल करते हुए दोनों विधायकों की अहमियत को प्रभावित करने की कोशिश की है।
हालांकि इसमें कोई दोराय नहीं कि सभी प्रभारी पार्टी का हित की सर्वोपरि रखेंगे, मगर इस आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वे इस पर भी नजर रखेंगे कि नए बन रहे वार्डों में दोनों विधायकों के वे चहेते कौन हैं, जो कि संभावित दावेदार हो सकते हैं। यह भी सही है कि परिसीमन के दौरान इस बात का ख्याल रखा जाएगा कि वह इस प्रकार का हो, ताकि ज्यादा से ज्यादा वार्डों में भाजपा जीत जाए। पार्टी के भावी प्रत्याशी जीत कर आएं, इसकी जिम्मेदारी भी संगठन की ही रहेगी। इन सब के होते हुए एक बड़ा पेच अब भी है, जिसका अनुमान लगाना अभी मुश्किल है, कि प्रत्याशियों के चयन में शहर अध्यक्ष की कितनी चलेगी, क्या केवल विधायकों की पसंद को ही तरजीह दी जाएगी या उनकी फिर आंशिक चलेगी। अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि इक्का-दुक्का को छोड़ कर सभी प्रत्याशी इन दोनों विधायकों ने ही तय किए थे। पार्टी अध्यक्ष की तो चली ही नहीं। यहां तक कि जब हेडा पूर्व में अध्यक्ष थे, तब भी प्रत्याशी विधायकों की पसंद के ही बनाए गए। हेडा की पसंद के एक भी नेता को प्रत्याशी नहीं बनने दिया गया। हालत ये हो गई कि हेडा के वजूद को जिंदा रखने के लिए उनके समर्थकों ने एक गैर राजनीतिक संगठन बना कर गतिविधियां कीं।
खैर, ताजा स्थिति ये है कि हेडा पहले से कुछ अधिक प्रखर नजर आने लगे हैं। कुछ और अधिक परिपक्व व अनुभवी भी। आखिर अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष यूं ही नहीं बन गए। इसका परिणाम ये है कि गैर देवनानी, गैर भदेल गुट लामबंद होता दिखाई दे रहा है। यह बात दोनों विधायक भलीभांति जानते होंगे। इसी के मद्देनजर बताया जाता है कि हेड़ा को मात देने के लिए दोनों ने हाथ मिला लिया है। बताया तो यहां तक जाता है कि दोनों इस कोशिश में रहेंगे कि किसी भी प्रकार निगम चुनाव पहले हेडा की जगह कोई और अध्यक्ष बन जाए। देखते हैं, आगे आगे होता है क्या?

-तेजवानी गिरधर
7742067000