शुक्रवार, 30 मार्च 2012

दरगाह कमेटी सदस्य तिरमिजी ने की कमेटी को भंग करने की मांग

दरगाह ख्वाजा साहब की व्यवस्थाएं संभालने वाली दरगाह कमेट के सदस्य मोहम्मद सुहेल एम. तिरमिजी ने केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय के सचिव सुरजीत मित्रा को पत्र लिख कर अध्यक्ष सोहेल अहमद खान व एम. इलियास कादरी पर गंभीर आरोप लगाते हुए दरगाह कमेटी को भंग करने की मांग की है। दरगाह कमेटी के इतिहास में यह पहला मौका है, जब कमेटी के सदस्य ने ही कमेटी को भंग करने की मांग की है। यह पत्र सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी के तहत उजागर हुआ है, जिस पर तिरमिजी कोई भी प्रतिक्रिया देने को तैयार नहीं हैं।
पत्र के प्रमुख अंश इस प्रकार हैं:-
सेवा में,
श्री सुरजीत मित्रा आई.ए.एस.
सचिव,
मिनिस्ट्री ऑफ माइनॉरटी अफेयर्स,
तारीख 06.03.2012
विषय-वर्तमान दरगाह समिति को भंग किया जाए।
श्रीमान महोदय,
मैं आपका धन्यवाद करता हूं कि आपने एक बहुत कुशल प्रशासक और दरगाह समिति का कार्यवाहक नाजिम दिया है, जिसका नाम मोहम्मद अफजल है। माननीय मिनिस्ट्री ऑफ माइनॉरिटी अफेयर्स ने भी मेरे जैसे ईमानदार और समर्पित सदस्य का मार्गदर्शन किया है। अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए 538 रुपए से अधिक खर्च किया है, लेकिन मैने अभी तक खर्च के इस पैसे को चार्ज नहीं किया है, क्योंकि मैं यह जानता हूं कि यदि मैं यात्रा आदि पर किए गए खर्च को लेता हूं तो यह दानकर्ता की मेहनत की कमाई से दरगाह समिति को दिए गए दान की राशी में से दी जाएगी, जबकि यह लिख कर मैं यह स्पष्ट करता हूं कि दरगाह समिति के किसी भी कर्मचारी या सदस्य के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन हमारी नाक के नीचे हो रहे भ्रष्टाचार की अनुमति देना अपराधी को बढ़ावा देने के समान है।
श्री गुलाम किबरिया नामक खादिम ने दरगाह समिति को एक लुभावना प्रस्ताव दिया था कि तीर्थयात्रियों को ठंडे पानी की आपूर्ति की जाएगी। यह परियोजना कभी भी नहीं चली और किबरिया झूठे वादे करते रहे। ठंडे पानी की आपूर्ति के प्रस्ताव का अनुसरण करने के लिए दरगाह समिति द्वारा एक कमरा भी मुहैया कराया गया था। उन्होंने हुजरा नंबर 65 (नया नंबर) पर एक उप किरायेदार के रूप में कब्जा कर लिया। दरगाह समिति ने प्रभावशाली खादिम अंजुमन के सचिव श्री सैयद सरवर चिश्ती को दिनांक 25.03.2010 को एक नोटिस जारी किया।
इस के बाद नाजिम यानी श्री अब्दुल मजीद को नियुक्त किया गया, जो आलसी और अक्षम निकला। उनकी निष्ठा जाहिर तौर पर संदिग्ध थी क्योंकि उन्होंने अपने द्वारा लिए गए फैसलों के बारे कभी भी दरगाह समिति से परामर्श नहीं लिया और न ही उन्हें कभी सूचित किया। ऐसे दो स्पष्ट उदाहरण हैं, जैसे एक किरायेदार यानी मुन्नी बेगम का 14.04.2011 को नियमितीकरण और खादिम अंजुमन के अध्यक्ष और सचिव के पक्ष में दो हुजरों श्री किबरिया और श्री सरवर का नियमितीकरण। ऐसा स्थानीय सदस्य श्री मोहम्मद इलियास कादरी के इशारे पर किया गया है, जिसने दरगाह समिति के अध्यक्ष को राजी करने के लिए नोटशीट पर एक नोट लिखने को कहा, जिसमें दोनों हुजरों के नियमितीकरण इस तथ्य की अनदेखी की गई कि दरगाह समिति की एक महत्वाकांक्षी परियोजना गुलाब जल परियोजना के रूप में है, जिसमें दो साल की कड़ी मेहनत की जा चुकी है और इस गुलाब से बने जल को इस परियोजना को छोड़ दिया गया और खादिम अंजुमन तथा उपर्युक्त दोनों खादिमों के नेतृत्व में इसे अस्वीकृत कर दिया गया।
पत्र में मजार शरीफ पर चढऩे वाले गुलाब के फूलों से रोजगार के अवसर उत्पन्न करने और संभावित उपयोगिताके लिए दरगाह समिति ने यह प्रस्ताव रखा। प्रो सोहेल अहमद खान, दरगाह समिति के अध्यक्ष की पहल पर, हाउस ने परिवर्तन विकास संस्थान (शीर्षांकित परियोजना की निष्पादित एजेंसी) के प्रतिनिधि डॉ. शहिद और जनाब सिब्ते नबी के साथ विचार�विमर्श किया और परियोजनाओं की सामग्री और ब्रीफिंग के आधार पर जो समाधान निकला, वह इस प्रकार है-
समाधान यह है कि मजार शरीफ परियोजना पर गुलाब के फूलों से रोजगार के अवसर उत्पन्न करना और संभावित उपयोगिता की पेशकश, जिसे पहले हुई बैठक में अनुमोदित किया गया है, इसे शीघ्र लागू किया जाए। इस प्रयोजन के लिए समिति ने निम्नलिखित व्यवस्था को मंजूरी दे दी है- परियोजना के लिए सराय चिश्ती चमन में शेड की स्थापना/निर्माण स्थापित प्रक्रियाओं के अनुसार किया जाए और जिसकी लागत 5 लाख रूपए से अधिक नहीं होनी चाहिए। कार्यान्वयन एजेंसी को दरगाह एपार्टमेंट्स, सिविल लाइंस, अजमेर में दो वर्ष की अवधि के लिए मुफ्त कार्यालय एवं निवास उपलब्ध करवाया जाएगा। भारत सरकार के वैज्ञानिक और अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों को 30 दिन (दो वर्ष की अवधि के दौरान) के लिए मुफ्त आवास प्रदान किया जाएगा। लेकिन उर्स के दौरान ऐसा कोई आवास प्रदान नहीं किया जाएगा। परियोजना के सुचारू कार्यान्वयन के लिए एक परियोजना के प्रभारी (क्लर्क के ओहदे से अधिक नहीं) की स्वीकृति दी जाएगी। परियोजना के प्रशिक्षार्थियों को चाय और जलपान उपलब्ध कराने के लिए प्रति माह रुपए 1500 आवर्ती खर्च दिया जाएगा।
दरगाह समिति के अध्यक्ष श्री सोहेल अहमद खान ने दिनांक 02.07.2011 को नोटशीट पर लिखा था कि यह दोनों खादिम दरगाह समिति के शुभचिंतक थे। इससे यह बात पता चलती है कि पिछले नाजिम श्री अब्दुल माजिद ने पिछली तारीख में हस्ताक्षर किए थे, जबकि पहले ही उन्होंने उप सचिव को चार्ज दे दिया था जो इस तरह के दबाव में नहीं आते हैं और दरगाह समिति की जानकारी के लिए कोई मासिक किराया तय नहीं किया गया। यही कारण है कि दो तीन सदस्य और प्रभावशाली खादिम लॉबी से श्री अहमद रज़ा को हटाना चाहते थे, क्योंकि वह इन भ्रष्ट सदस्यों की मदद नहीं करते थे और दरगाह समिति के प्रस्ताव पर जोर देते थे। मेरे पत्र दिनांक 31.10.2011 के पेज नंबर 000407 में मैने यह चेताया था कि अधिनियम या उपनियम के अनुसार दरगाह समिति के अध्यक्ष ऐसे फैसले अकेले लेने के लिए अधिकृत नहीं हैं। अध्यक्ष द्वारा दरगाह समिति को विश्वास में लिए बिना अकेले कार्य करने को संदेह की नजरों से देखा जा सकता है। मौजूदा व्यवहार और कानून के तहत निर्धारित प्रक्रिया को तोडऩे पर यह भ्रष्टाचार की शिकायत का मामला बनता है।
मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी खादिम या किरायेदार के खिलाफ नहीं हूं, फिर भी, मुझे कुछ सदस्यों के द्वारा दरगाह समिति के परामर्श के बिना छल और मनमाने ढंग से लिए गए निर्णयों के लिए कड़ी आपत्ति है। जब श्री किबरिया अंजुमन के अध्यक्ष थे और श्री सरवर खादिम अंजुमन के सचिव थे, अन्य खादिम और किरायेदार जिनके खिलाफ अदालत में सिविल मामले लंबित हैं, उनके सामने दरगाह समिति के रुख को कैसे ठीक ठहराया जा सकता है। इस मनमाने निर्णय की निंदा की जानी चाहिए। संविधान और दरगाह समिति अधिनियम 1995 के अनुसार समिति के निर्णय मान्य होते हैं किसी एक व्यक्ति के निर्णय नहीं। इस्लामी कानून का भी यह कहना है कि एक निर्णय लेने से पहले उस विषय पर चर्चा होनी चाहिए, मशवरा करना चाहिए। एक अध्यक्ष, किसी एक सदस्य, जिसकी निष्ठा संदिग्ध है, के साथ मिलकर ऐसा निर्णय कैसे ले सकता है? मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर दो खादिमों के साथ तरफदारी की जाती है, तो इसी तरह का व्यवहार बाकी सभी खादिमों के साथ भी किया जाना चाहिए।
इसी तरह की स्थिति तब पैदा हुई जब अध्यक्ष श्री सोहेल अहमद खान ने मनमाने ढंग से दरगाह ख्वाजा हिसामुद्दीन चिश्ती (आरए) (सांभर शरीफ) और ख्वाजा चिश्ती फखरुद्दीन(आरए) (शालवद शरीफ) के रखवाले (केयर टेकर) को एक लाख रूपए वार्षिक अनुदान देने की घोषणा की। यह निर्णय भी बजट के प्रावधानों को देखे बिना और समिति के सदस्यों से परामर्श के बिना मन माने ढंग से लिया गया था। जबकि ख्वाजा गरीब नवाज अजमेर के लिए कानून बना है, किसी अन्य दरगाह के लिए नहीं। इसके अलावा, श्री मोहम्मद यूसुफ शालवद शरीफ के ख्वाजा फखरूद्दीन चिश्ती का एक रखवाला यानी मुतवली है। यूसुफ गर्दबाद दरगाह समिति के एक सदस्य श्री मोहम्मद इलियास कादरी के असली मामा हैं। चेक नंबर 508748 दिनांक 12.07.2011 मिनट्स की पुष्टि से काफी पहले भुनाया गया है। यह दरगाह समिति के सामान्य व्यवहार के रूप में भेजा गया है और कानून के प्रावधानों के खिलाफ है।
मुझे यह कहा गया है कि मुन्नीबेगम से संबंधित बिस्मिल्लाह रेस्त्रां की संपत्ति को उप किराए पर देने को नियमित करने के लिए एक सदस्य द्वारा 65-75 हजार रुपये लिए गए हैं। इसकी जांच करने की आवश्यकता है।
इस घटना में सभी अन्य उप किरायेदारों को समान व्यवहार किया जाना चाहिए। मनमाने ढंग से इस तरह का निर्णय कैसे लिया जा सकता है? यह दोनों निर्णय तब लिए गए थे, जब श्री अब्दुल मजीद नाजिम थे। वह इतना आलसी था कि उसने अपने कार्यकाल 27 या 29 जुलाई, 2011 को समाप्त होने तक दिनांक 04.06.2011 की बैठक के मिनट भी तैयार नहीं किए और न ही सदस्यों को भेजे। हमें 04.06.2011 की बैठक के मिनट्स वर्तमान कुशल उप सचिव के कार्यभार संभालने के बाद मिले हैं। दरगाह समिति के दिनांक 13.06.2010 और 26.03.2011 के प्रस्ताव के अनुसार सराय चमन चिश्ती में मॉल विकसित किया जाना है। इस प्रकार, यदि एक विशेष दुकान के मालिक को दो फुट तक की ऊंचाई चौड़ाई और ऊंचाई के लिए पूछना होगा। दरगाह समिति की अनुमति के बिना किसी भी सदस्य द्वारा इस तरह की अनुमति कैसे दी जा सकती है। दरगाह समिति की बैठक में इस तरह की कोई चर्चा नहीं की गई थी। एक विवादी जिसके खिलाफ दरगाह समिति द्वारा पहले से ही मुकदमा दायर किया गया है और दरगाह समिति का एक भ्रष्ट सदस्य 29.10.2011 को दरगाह समिति के अध्यक्ष के पास इसे कोर्ट के बाहर किराया आदि बढ़ा कर निपटाने के लिए गए। वह किरायेदार यानी विवादी गोदाम नंबर 24 का श्री मनीष टिकयानी है। दरगाह समिति के प्रस्ताव के बिना ऐसा कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए और न ही लिया जा सकता है। यदि की बैठक में इस पर चर्चा की जाती तो कोई आसमान नहीं टूट जाता। मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि दरगाह समिति के अध्यक्ष को दरगाह समिति की बैठक को बुलाने में क्या शर्म आ रही है। केवल एक महीने का नोटिस दिए जाने की आवश्यकता होती है।
मेरे द्वारा प्राप्त किए गए दो पत्रों की तरफ भी मैं आपका ध्यान खींचना चाहता हूं, जिसमें यह बताया गया है कि दरगाह समिति का एक सदस्य अपने युवा दोस्तों के साथ ख्वाजा अतिथि गृह के प्रवेश द्वार पर बैठ जाता है। इस से परिवार के साथ आने वाले तीर्थयात्रियों विशेष रूप से युवा महिलाओं के साथ आने तीर्थयात्रियों को परेशानी होती है। इन दोनों में से एक पत्र 02.02.2011 को नई दिल्ली से भेजा गया है। इस पत्र के साथ संलग्नक पर इस पत्र की कापी को संलग्न किया गया है।
दरगाह समिति के स्थानीय सदस्य को वर्ष 2009 में भी एक उपद्रवी माना गया था। नाजिम श्री अहमद रजा ने दरगाह समिति के अध्यक्ष श्री एच.एच. नवाब मोहम्मद अब्दुल अली को दिनांक 07.02.2009 को एक पत्र लिखा और उप- अध्यक्ष प्रो. इब्राहिम ई-मेल के जरिये मुझे भेजा को उसकी गतिविधियों के बारे में बताया और इस सदस्य के द्वारा प्रशासित खतरों के बारे में अवगत कराया गया था। स्थानीय सदस्य श्री मोहम्मद इलियास कादरी यह कह कर कि वह केंद्रीय सरकार में एक बहुत प्रभावशाली व्यक्ति है। वह लोगों से कमीशन के रूप में पैसे लेता था। एक मोहम्मद शरीफ नाम के व्यक्ति को इस स्थानीय सदस्य ने झूठा वादा करके ठगा कि वह उसे हज कोटे के तहत भेज देगा क्योंकि वह माननीय मंत्री श्री ए.आर. अनतुले के बहुत करीब है। इस व्यक्ति को बाद में यह पता लगा कि उसे जो ड्राफ्ट दिया था उसे शेख मोहम्मद अजीजी और दूसरों के लिए इस्तेमाल किया गया है। वह व्यक्ति जो ठगा गया था, उसने केन्द्रीय हज समिति के कार्यालय से व्यक्तिगत रूप से पूछताछ की और यह पाया कि उसके कवर नंबर 1187-1 को कवर नंबर 889-5 में इस्तेमाल किया गया था।
पिछले अभ्यास के अनुसार दरगाह समिति की बैठक के दौरान एक सदस्य को 3 दिनों के लिए निशुल्क बोर्डिंग और लॉजिंग दिया जा सकता है। इसके बाद, इस समिति ने दुर्भाग्य से एक प्रस्ताव पास किया जिसमें, सदस्य 3 दिनों के बजाए एक साल में 12 दिन तक निशुल्क बोर्डिंग और लॉजिंग पाने का लेकिन बाकी सभी सदस्यों ने मुझे असहमति दिखाने से रोका और यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया था। मैने अपने पत्र में लिखा है कि इस प्रस्ताव की समीक्षा की जानी चाहिए। अध्यक्ष श्री सोहेल अहमद खान ने ख्वाजा गेस्ट हाउस को अपना दूसरा घर बना रखा है। इस प्रकार, अगर इसे माफ कर दिया जाता है तो यह ख्वाजा साहेब के तीर्थयात्रियों की मेहनत के पैसे से दिए गए दान को एक सदस्य के लिए उपहार की तरह देने के समान होगा। मुझे यह भी बताया गया है कि अध्यक्ष श्री सोहेल अहमद खान लोकप्रिय बनने के लिए समिति के परामर्श के बिना लोकलुभावन घोषणाएं करते हैं। हाल ही में उन्होंने बजट के प्रावधानों पर विचार किए बिना ख्वाजा मॉडल स्कूल के शिक्षकों के वेतन में वृद्धि की घोषणा की है। मैंने नाजिम से नियमित रूप से मांग की है कि अध्यक्ष से बकाया राशि वसूली जाए। मैं यह देखकर चौंक गया और हैरान रह गया कि दिनांक 01.02.2012 को दरगाह समिति की तीन घंटे की बैठक के बाद अध्यक्ष श्री सोहेल अहमद खान एक टाइप किए हुए प्रस्ताव को लाए, जिसमें अध्यक्ष और उप अध्यक्ष की अजमेर के लिए यात्रा के दौरान बोर्डिंग और लॉजिंग की बकाया राशि को माफ करने को लिखा हुआ था। मैने पहेली बार एक बकाया राशि को माफ करने के लिए पूर्वव्यापी प्रभाव का प्रस्ताव देखा है। इसके लिए कानून में प्रावधान कहां है? बजट में प्रावधान कहां है? दुर्भाग्य से कुछ सदस्यों ने प्रस्ताव के मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए। जब मुझे इस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा था तब मैने इस पर विस्तार से असहमति नोट लिख दिया था कि दानकर्ताओं के मेहनत से कमाए गए पैसे को इस तरह से बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए।
एक खादिम यानी श्री सैयद वहीद अंगा राशाह ने किराए पर लिए गए दरगाह समिति के परिसर में कुछ परिवर्तन किए थे। 02.09.2011 को दरगाह समिति के एक सदस्य यानी श्री मोहम्मद इलियास कादरी ने दरगाह समिति के कार्यालय के नाजिम के नोटिस देने के लिए निर्देश दिए। ऐसा लगता है कि यह श्री सैयद वहीद अंगारा शाह के द्वारा केवल 18.09.2011 को खादिम अंजुमन के चुनाव को देखते हुए किया गया और इसलिए यह नोटिस 17.09.2011 को जारी किया गया। इस नोटिस के बाद किरायेदार श्री सैयद वहीद अंगारा शाह ने जवाब दिया कि खादिम अंजुमन का चुनाव 18.09.2011 को होना है और उसे जवाब इसके बाद देना होगा। खादिम के चुनाव में श्री वहीद अंगाराशाह ने सचिव के पद के लिए चुनाव जीता। जिन्हें पहले श्री मोहम्मद इलियास कादरी और श्री सोहेल अहमद खान ने फायदा पहुंचाया था, यानी श्री सैयद कबरिया और श्री सरवर वह चुनाव हार गए, इसलिए 09.11.2011 को श्री मोहम्मद इलियास कादरी के खिलाफ कारवाई करने से मना कर दिया। यहां पर इस सवाल पर विचार करने की आवश्यकता है कि यदि स्थानीय सदस्य दबाव सहन नहीं कर सकते तो उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए।
मुझे यह बताया गया है कि दरगाह समिति पहले से ही 3.5 लाख रूपए से अधिक खर्च चुके हैं यानी बजट से 50000 रूपए अधिक और अभी भी कम से कम 4 महिने बाकी हैं। कृपया विस्तार से बताएं कि 3.5 लाख रूपए से अधिक का खर्च कैसे हुआ। वह कौन से मेहमान थे जिन्होंने दानकर्ताओं की इतनी बड़ी राशि खर्च कर दी। मुझे यह पता लगा है कि लगभग दो महीने पहले एक नवनियुक्त मंत्री सुश्री नसीम अख्तर ने दरगाह शरीफ का दौरा किया था। एक सदस्य निजाम गेट पर गया और उसने उन्हे फूल और मिठाई देकर सम्मानित किया। उसके द्वारा इस खर्च के पैसे भी दरगाह समिति से नहीं लिए गए। पूर्व नाजिम की विदाई पार्टी पर हुए खर्च के बारे में उल्लेख किया था। इस विदाई पार्टी के बिल का भुगतान पीए इस तरह के एक भारी बिल पर हस्ताक्षर कैसे कर सकते हैं (अगर उन्होंने किया है तो)। पैरा एफ में मैने इस बात का उल्लेख किया है कि खादिम अंजुमन के नव निर्वाचित सदस्य के रात के खाने का खर्च दरगाह समिति कैसे सह कर सकते हैं। मुझे यह बताया गया है कि यह खर्च लगभग 15000 रूपये से ऊपर था। मुझे ऐसा लगता है कि यह राशि भी तव्ज्जो मेहमान में से बेइमानी से निकाली गई है। इस प्रकार, व्यक्तिगत लाभ के लिए दानकर्ताओं के पैसे खर्च किया जा रहा है।
वास्तव में अगली बैठक में दरगाह समिति को इस पर चर्चा करनी चाहिए और अनुचित रूप से भारी खर्च में कटौती करना होगी।
मैं अध्यक्ष श्री सोहेल अहमद खान और श्री मोहम्मद इलियास कादरी से 15 सवालों का लिखित जवाब लेने के लिए आपसे अनुरोध करता हूं-
बिस्मिल्लाह रेस्त्रां की मुन्नी बेगम नामक किरायेदार को दरगाह समिति के परामर्श के बिना क्या पारदर्शिता बनाए रखना आवश्यक नहीं था? क्या इन आरोपों से बचने के लिए दरगाह समिति के हालांकि दरगाह समिति ने उप-किराए पर देने के लिए नोटिस जारी किया था? किसी भी अनुबंध के बिना श्री सरवर चिश्ती के नाम पर हुजरा को नियमित करने की क्या कोई भी अनुबंध किए बिना श्री किबरिया को ठंडे पानी के मशीन का कमरा सौंपने की क्या दरगाह समिति के अध्यक्ष श्री सोहेल अहमद खान को दो हुजरों को नियमित करने के लिए दरगाह समिति पर उनके द्वारा किए गए उपकार का उदाहरण दें। दरगाह समिति के अध्यक्ष श्री सोहेल अहमद खान इन दोनों खादिमों को दरगाह समिति के शुभचिंतक कहते समय यह तथ्य भूल गए कि दरगाह समिति की एक महत्वाकांक्षी परियोजना यानी गुलाब जल परियोजना इस लिए बंद कर दी गई थी क्योंकि इन खादिमों ने इस परियोजना में भाग लेने से मना किया। अध्यक्ष और खादिम अंजुमन के सचिव को विशेष उपचार देने का क्या कारण है। क्या श्री सोहेल अहमद खान को दरगाह समिति के सदस्यों के परामर्श के बिना दान और लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा करने का अधिकार है। इन योजनाओं की हाल ही में घोषणा की गई है (क) ख्वाजा फखरूद्दीन चिश्ती (शालवद शरीफ) और ख्वाजा हिसामुद्दीन चिश्ती (शांभर शरीफ) के रखवाले (केयर टेकर) दोनों को एक एक लाख रूपये वार्षिक अनुदान (ख) ख्वाजा मॉडल स्कूल के शिक्षकों के वेतन में वृद्धि (ग) ख्वाजा अतिथि गृह और स्कूल में भोजन सस्ते दर पर बेचना (घ) एक पार्टी की व्यवस्था। अध्यक्ष का अजमेर के ख्वाजा अतिथि गृह में 100 से अधिक दिनों (बैठक के 3 दिन और एक साल में 12 दिन के अलावा) तक रहने का क्या कारण है। दरगाह समिति को अध्यक्ष 61000 से अधिक अध्यक्ष इसके बराबर भोजन के बिल का भुगतान कब करेंगे।
निष्कर्ष मेरा यह सुझाव है कि वर्तमान दरगाह समिति को खत्म अर्थात भंग कर देना चाहिए और 55 वर्ष की आयु से नीचे के प्रख्यात समर्पित नागरिकों की एक नई समिति बनाने के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहिए क्योंकि सेवानिवृत्ति के बाद एक व्यक्ति को ख्वाजा गेस्ट हाउस को अपना दूसरा घर बनाने के अलावा और कोई काम नहीं होता। इसके अलावा, मैं यह नहीं चाहता हूं कि दरगाह समिति के सभी सदस्यों के खिलाफ एफआईआर दाखिल की जाए क्योंकि उनमें से कुछ की सत्य निष्ठा संदिग्ध है। वैकल्पिक तौर पर कृपया इन दोनों सदस्यों से एक निर्धारित समय सीमा में लिखित स्पष्टीकरण लिया जाए और माननीय मंत्री की सुविधा के अनुसार माननीय मंत्री के साथ दरगाह समिति के इन 8 सदस्यों की एक बैठक की व्यवस्था 2012 तक है।
धन्यवाद,
सादर
मोहम्मद सुहेल. एम. तिरमिजी, वकील
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

किस्मत ने बचाए विद्युत निगम के एक करोड रुपए!



अजमेर विद्युत वितरण निगम के मदार स्थित मुख्य गोदाम में गत 15 फरवरी की देर आग लगी थी, जिससे एक करोड का भारी नुकसान हुआ। कई उपकरण और तकनीकी सामान जलकर राख हो गए। आला इंजीनियरों की टीम और विजिलेंस विंग के एडीशनल एसपी भले ही इस कांड की गुत्थी नहीं सुलझा पाए हों, मगर यह बात तय है कि निगम के इस नुकसान की भरपाई संबंधित बीमा कंपनी कर ही देगी। निगम के अफसरों ने बीमा कंपनी के सामने क्लेम कर दिया है। खास बात यह है कि जिस गोदाम में हर वक्त 22 से 25 करोड का सामान पड़ा रहता है। उस गोदाम में आज के चार महीने पहले तक कोई नुकसान नहीं हुआ। चार महीने पहले ही निगम ने अपने क्षेत्र के तमाम गोदामों का बीमा करवाया था। यह सबक निगम के अफसरों ने चार महीने पहले ही तब लिया, जब वहां चोरों ने धावा बोल कर डिस्कॉम को नुकसान पहुंचाया। सचेत हुए निगम ने गोदाम में 24 सीसी कैमरे भी लगाए। सुरक्षा इंतजामों को मजबूती देने की कोशिश की, मगर अज्ञात व्यक्ति ने आग लगाकर सुरक्षा के सभी इंतजामों को बौना जरूर साबित कर दिया। गनीमत रही कि निगम ने गोदामों का बीमा करवाया, नहीं तो करीब 5 अरब के नुकसान में चल रहे निगम का गरीबी में आटा गीला हो जाता। यह निगम की किस्तम का ही खेल रहा कि कम से कम उसने बीमा करवाया, जो चार महीने बाद ही काम आ गया।
एमडी पीएस जाट ने तीन आला अफसरों की टीम जांच के लिए तैनात की, मगर अब तक नतीजा जीरो है, जांच की फाइल में जरूर बयानों के दस्तावेजों कागजी वजन बढ़ रहा है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का मन भी इस भारी नुकसान पर पसीज गया।
मुख्यमंत्री कार्यालय की विजिलेंस विंग के कर्ताधर्ता सीनियर आईपीएस सौरभ श्रीवास्तव ने भी बिजली थाना पुलिस में एडिषनल एसपी का कार्यभार देख रहे दौलताराम कीलका को जांच करने के आदेष दिए। कीलका की माने जो जांच में यह तथ्य साफ झलक रहा है कि आग किसी ने लगाई है, क्योंकि घटना स्थल पर ऐसा कोई सुराग नहीं मिला की आग स्वत: लगी हो।
बिजली कंपनियों ने के नए सीएमडी कुंजीलाल मीणा को तो उक्त घटना की पूरी खबर तक नहीं है। गत दिनों अजमेर आगमन पर पत्रकारों से जब वे वार्ता कर रहे थे, तब इस मसले पर अनजान नजर आए। खैर, घटना को डेढ महीना बीतने को आया है। जांच आज नहीं तो कल मुख्यमंत्री और एमडी को पेश हो ही जाएगी। तय है जिसमें खुलासे के नाम पर केवल कयास होंगे, ठोस जानकारी नहीं। मगर निगम को क्लेम की राशि मिल जाएगी, जो निगम का भाग्य है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

मंगलवार, 27 मार्च 2012

ये डा. माथुर व डॉ. निर्वाण की मनमानी नहीं तो क्या है?


जवाहरलाल नेहरू अस्पताल के अधीक्षक डॉ. बृजेश माथुर व मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. पी एस निर्वाण पूरी तरह से मनमानी पर उतारु हैं। जिन जनप्रतिधियों के फंड से राशि ले कर अस्पताल में अनके विकास कार्य हुए हैं, वे उन्हें ही दरकिनार करना चाह रहे हैं। यहां तक कि उन्हें सरकार तक का कोई ख्याल नहीं। वे आपस में ही कुलड़ी में गुड़ फोडऩा चाहते थे, मगर विवाद होने पर अस्पताल में पौने दो करोड़ रुपए से मरीजों की सुविधा के लिए लगाई गई नई सीटी स्कैन मशीन का शुभारंभ ऐन वक्त पर टालना पड़ गया।
हुआ असल में यूं कि डॉ. माथुर व डॉ. निर्वाण ने आपस में ही तय कर लिया कि मशीन का उद्घाटन डॉ. निर्वाण की कर देंगे। जैसे ही इसकी भनक लगी, ऊपर शिकायत हो गई। भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी ने जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा पर कड़ा ऐतराज किया। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि सरकार का अपने अधिकारियों पर ही नियंत्रण नहीं है। मामला बढऩे पर तय हुआ कि चिकित्सा राज्य मंत्री डॉ. राजकुमार शर्मा व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ से उद्घाटन करवाया जाएगा, मगर वह भी ऐन वक्त पर नहीं हो पाया। बाद में डॉ. माथुर ने खिसियाते हुए कहा कि इंजीनियर के नहीं पहुंचने के कारण सीटी स्कैन मशीन का शुभारंभ स्थगित कर दिया गया।
यहां उल्लेखनीय है कि लंबे समय से सीटी स्कैन नहीं लगने से सिर पर चोट लगने वाले मरीजों को निजी सेंटरों पर ज्यादा राशि में सीटी स्कैन करानी पड़ रही थी। इस पर अजमेर फोरम ने पहल की और शिक्षा राज्य मंत्री नसीम अख्तर, विधायक वासुदेव देवनानी, अनिता भदेल, कांग्रेस अध्यक्ष महेंद्रसिंह रलावता और भाजपा अध्यक्ष प्रो. रासा सिंह रावत शहर के लिए एक जाजम पर आ गए। जनप्रतिनिधियों ने मेडिकल कॉलेज प्राचार्य और सत्यम सेंटर के प्रतिनिधि से और नसीम अख्तर ने चिकित्सा मंत्री दुर्रु मियां से बात की थी। इस पर चिकित्सा मंत्री ने मेडिकल कॉलेज प्राचार्य को निर्देश भी दिए थे, मगर वे टालते रहे। वे चाहते तो यह मशीन बिना पैसे खर्च किए सत्यम सेंटर से हुए पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के करार के तहत मशीन लगवाते। इसके साथ ही अस्पताल को अतिआधुनिक एमआरआई मशीन भी बिना पैसे खर्च किए मिल सकती थी। यह 2009 में ही हो जाता, मगर मामला उलझा दिया। यहां तक उन्होंने जनप्रतिनिधियों और संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा के प्रयासों को नकारते हुए अस्पताल के फंड से ही मशीन लगाने का निर्णय कर लिया। उसमें भी तुर्रा ये कि वे अपने स्तर पर ही उसका उद्घाटन निपटाना चाहते थे, जो कि जनप्रतिनिधियों के ऐतराज के कारण अटक गया।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बहुत कुछ मिला, मगर जो जरूरी था वह नहीं मिला


इसमें कोई दोराय नहीं कि राजस्थान विधानसभा में पेश बजट में अजमेर के लिए बहुत कुछ गिनाने लायक प्रस्तावित किया गया है। उसकी फेहरिश्त दिखाने को काफी लंबी है, मगर जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, वह नहीं मिला। उसका जिक्र तक नहीं है।
असल में अजमेर शहर को इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरत थी एलिवेटेड रोड और फ्लाई ओवर ब्रिज की। यातायात के भारी दबाव की वजह से लोग बेहद परेशान हैं। इसके लिए प्रशासन ने तात्कालिक उपाय करते हुए वन वे भी किय, मगर जब वह और अधिक तकलीफदेह हो गया तो आंदोलन हुआ और अंतत: वन वे खत्म करना पड़ा। यह जनता से सीधा जुड़ा मसला है। इसको लेकर आंदोलन भी चला। दैनिक नवज्योति ने तो बाकायदा जनमत संग्रह की तरह मुहिम भी चलाई। मगर अफसोस इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे जनप्रतिनिधि इस मसले को ठीक से सरकार के सामने रख नहीं पाए।
इसके अतिरिक्त चंबल से पानी की मांग पर भी सरकार ने गौर नहीं किया। यह तो गनीमत है कि पिछली बारिश के कारण बीसलपुर में पर्याप्त पानी आ गया, इस कारण जल संकट भारी नहीं पड़ा, वरना 48 व 72 घंटे के अंतराल से पानी मिलने की परेशानी को जनता ने कैसे भुगता है, यह वही जानती है। जल संकट से स्थाई निजात दिलाने के लिए ही पूर्व उप मंत्री ललित भाटी व पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती बार-बार चंबल के पानी का मुद्दा उठाते रहे। डॉ. बाहेती ने तो पोस्टकार्ड अभियान भी चलाया, मगर सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।
बजट प्रस्ताव में हवाई अड्डे का कोई जिक्र नहीं है। माना कि इस पर केन्द्र व राज्य के बीच एमओयू पर हस्ताक्षर हो चुके हैं, मगर प्रगति नौ चले अढ़ाई कोस वाली ही है। इसी प्रकार ब्यावर को जिला बनाने की मांग कोई बीस साल पुरानी है। तकनीकी व आर्थिक दृष्टि से वह कितनी जायज है और कितनी नाजायज है, यह बहस का मुद्दा तो हो सकता है, मगर कांग्रेस व भाजपा दोनों ने ही वोटों की खातिर इस पर समय-समय पर अपना दमदार रुख रखा है। इसके बावजूद मौजूदा सरकार इसे पूरी तरह से डकार गई और अब भी केवल सर्वे की ही बात की जा रही है।
दरगाह विकास के नाम पर केन्द्र की मदद से तीन सौ करोड़ रुपए की योजना का खाका तैयार हुआ था, मगर सरकार की ढि़लाई का परिणाम ये है कि वह लटक गई। अब ऊंट के मुंह में जीरा देते हुए जो घोषणा की गई है, वह समयाभाव के कारण लीपापोती मे ही निपट जाएगी। असल में यह योजना ऐसी थी, जिससे न केवल दरगाह का विकास होता और जायरीन को सुविधा होती, शहरवासियों को भी लाभ होता, शहर का कायाकल्प हो जाता, मगर इसे गंभीरता से नहीं लिया गया।
इसी प्रकार संभाग का सबसे बड़ा अस्पताल जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय अत्याधुनिक चिकित्सा सेवाओं व चिकित्सा विशेषज्ञों के लिए तरस रहा है, इस पर कोई ठोस प्रस्ताव नहीं रखा गया है। यदि ठीक से गौर किया जाए तो ये सारे ही मुद्दे आम जन को सीधे प्रभावित करते हैं, मगर इस पर सरकार ने तो गौर नहीं किया है।
वस्तुत: जो भी घोषणाएं की गई हैं, वे प्रशासनिक व्यवस्था से सबंधित अधिक हैं। उनसे जनता को लाभ तो होगा, मगर उनसे भी अधिक राहत देने वाले मुद्दों को पूरी तरह से नकार दिया गया है। कदाचित इसकी वजह ये भी है कि अजमेर शहर की दोनों सीटों पर भाजपा का कब्जा है, उसी का प्रतिफल जनता को भुगतना पड़ा है।
राज्य उपभोक्ता मंच की सर्किट बैंच का ही मुद्दा लीजिए। यह सीधे तौर पर वकीलों की मांग थी। राज्य के सभी संभाग में राज्य उपभोक्ता आयोग की सर्किट बैंच स्थापित करने के लिए खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग ने पहले ही घोषणा कर दी थी। इस घोषणा के तहत जोधपुर, उदयपुर, कोटा व बीकानेर में सर्किट बैंच शुरू भी हो गई। अजमेर में भी सर्किट बैंच लगनी थी लेकिन वित्त विभाग से मंजूरी नहीं मिलने की वजह से काम अटका रहा। वकीलों ने सर्किट बैंच स्थापित नहीं होने पर राज्य सरकार के खिलाफ भारी रोष जाहिर करते हुए कई दिन तक हड़ताल भी की। इस मांग को पूरा करके सरकार ने कोई खास उपहार नहीं दिया है। इसी प्रकार किशनगढ़ कस्बे के उप परिवहन कार्यालय को जिला परिवहन कार्यालय में क्रमोन्नत करने से किशनगढ़ और आसपास के क्षेत्रों के लोगों को रजिस्ट्रेशन और परमिट के लिए अजमेर नहीं आना पड़ेगा, मगर इससे आम जन को बहुत बड़ी राहत मिल गई, यह कहना ठीक नहीं होगा। इसी प्रकार नसीराबाद में बीएड कॉलेज खुलने और जर्जर अवस्था वाले औषधालयों की मरम्मत व फर्नीचर सुविधा भी कोई उल्लेखनीय राहत देने वाले नहीं हैं। अन्य जितनी भी घोषणाएं हैं, वे पूरे राज्य में लागू हो रही हैं। वे अच्छी तो हैं, मगर कुल मिला कर देखा जाए तो अजमेर पर कुछ खास नजरें इनायत नहीं हुई हैं।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

रविवार, 25 मार्च 2012

चलो अजमेर को मिल गया एक और खैरख्वाह


भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय मंत्री तथा नवनिर्वाचित राज्यसभा सांसद भूपेन्द्र यादव को लेकर प्रदेश भाजपा में भले ही बाहरी होने का विवाद हुआ हो, मगर अजमेर का तो सौभाग्य ही है कि उसे एक और खैरख्वाह मिल गया है। ज्ञातव्य है कि राज्यसभा में अजमेर से ही कांग्रेस की डॉ. प्रभा ठाकुर मौजूद हैं। उधर केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री के रूप में लोकसभा सदस्य सचिन पायलट तो अजमेर के हितों के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर ही रहे हैं। इसके अतिरिक्त अजमेर से लोकसभा चुनाव लड़ चुकीं श्रीमती किरण माहेश्वरी भी भाजपा की राष्ट्रीय महामंत्री हैं और राजसमंद से विधायक होने के बाद भी अजमेर के प्रति अपना लगाव रखती हैं।
उल्लेखनीय है कि भाजपा विधायकों की बैठक में जब यादव के नाम का पर्चा तैयार किया जा रहा था तो वहां हाईकमान का आदेश सिर माथे बताते हुए यह सवाल तो उठा था कि आखिर यादव हैं कौन? पता तो लगे कि आखिर वे कहां से हैं? प्रदेश के बड़े नेता इस सवाल एक बार तो सकपका गए थे, मगर यह सफाई दे कर मामला शांत किया गया कि वे अजमेर में भाजपा से जुड़े रहे हैं। खुद यादव ने भी यह जानकारी दी कि वे अपने बाल्य काल तथा छात्र जीवन से ही अजमेर शहर से जुडे रहे हैं। अजमेर में लम्बे अरसे तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में कार्य किया तथा अजमेर के राजकीय महाविद्यालय छात्रसंघ के उपाध्यक्ष भी रहे, उनका पार्टी से वैचारिक जुड़ाव भी अजमेर से ही हुआ। इसलिए उन्हें बाहरी न माना जाए।
अब जब कि यादव राज्यसभा के लिए निर्विरोध चुन लिए गए हैं, आगामी 31 मार्च को अजमेर आ रहे हैं। इस मौके पर शहर जिला भा.ज.पा. की ओर से स्थानीय लक्ष्मी नैन समारोह स्थल पर उनका अभिनंदन किया जाएगा। स्वाभाविक सी बात है कि अजमेर से अपने लगाव को दर्शाने के लिए उन्हें एक बार तो अजमेर आना ही था। अब देखना ये है कि अजमेर के भाजपाई यहां विकास के लिए उनको कितना प्रतिबद्ध करवा पाते हैं।
आपको जानकारी होगी कि नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष व एक बार कुछ समय के लिए राज्यसभा सदस्य रहे औंकार सिंह लखावत का नाम भी दावेदारों में था। अगर वे पुन: चुने जाते तो बात ही कुछ और होती, क्योंकि अजमेर के विकास के प्रति उनकी रुचि किसी से छिपी हुई नहीं है। पिछली बार भी उन्होंने राष्ट्रीय पटल पर अजमेर की उपस्थिति दर्शाई थी। बहरहाल, अब जब कि यादव को मौका मिला है तो देखना ये होगा कि अजमेर से जुड़ाव के सबूत देकर भले ही उन्होंने अपना रास्ता आसान कर लिया हो, अर्थात राज्यसभा सदस्य बनने के लिए अजमेर को सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल किया हो, मगर अजमेर के लिए उतनी ही शिद्दत से कुछ करते भी हैं या नहीं।
-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 23 मार्च 2012

मेयर के चैंबर में सोनम किन्नर ने आखिर क्या कर दिया?


नगर निगम मेयर के चैंबर में एक दिलचस्प वाकया हुआ। कांग्रेस के मनोनीत पार्षद सोनम किन्नर ने इतना उधम मचाया कि वहां मौजूद कर्मचारियों ने दातों तले अंगुली दबा ली और चैंबर छोड़ कर बाहर निकल गए। सवाल ये उठता है कि आखिर सोनम ऐसा क्या कर दिया कि कर्मचारी इतने अचंभे में पड़ गए?
असल में यह वाकया मेयर व चंद लोगों के सामने हुआ, इस कारण सुर्खियां नहीं बन पाया। न तो वहां प्रेस फोटोग्राफर थे और न ही पत्रकार। इस कारण किसी को पता ही नहीं लगा। अलबत्ता दैनिक नवज्योति के पत्रकार के सूत्र मुस्तैद थे, इस कारण उनको पता लग गया और खबर छाप दी। यह भी गनीमत रही कि सोनम ने भी फोन करके मीडिया को नहीं बुलाया, वरना वे हैं मीडिया फ्रेंडली, सब जानते हैं। हालांकि पूरा वाकया खबर में शक्ल में नवज्योति में आ गया है, मगर कुछ पंक्तियों की ऐन वक्त पर की गई एडिटिंग से साफ झलक रहा है कि कुछ न कुछ छिपाया गया है। शायद छापने लायक नहीं रहा होगा। और अगर ऐसा था तो वहां फोटोग्राफर होते भी तो वे क्या कर लेते? अगर फोटो खींच भी लेते तो वह नैतिकता के नाते नहीं छपती।
आप ही सोचिये कि कोई भी कितना भी उधम मचाए, देखने वाला दातों तले अंगुली थोड़े ही दबा कर बाहर भाग लेगा। हंगामा होने पर घबरा सकता है, मगर आश्चर्य में पड़ कर शर्माते हुए बाहर थोड़े ही चला जाएगा। जरूर उन्होंने ऐसा कुछ देखा होगा, जो जिंदगी में कभी नहीं देखा हो। धन्य हैं वे कर्मचारी और खुद मेयर साहब, जिन्होंने ऐसे मंजर का दर्शन किया, जिससे अन्य वंचित रह गए। वैसे अपन संतुष्ट हैं। शहर के प्रथम नागरिक ने देख लिया, माने हमने भी देख लिखा। बताते हैं कि अधिशाषी अभियंता अरविंद यादव के साथ भी उतने से ज्यादा हुआ, जितना की नवज्योति में छपा है। उसमें तो लिखा है कि बदसलूकी हुई, उसका खुलासा नहीं किया है। जिस बदसलूकी को देख कर वहां मौजूद लोगों ने दांतों तले अंगुली दबा ली, भला उसका बयान खुद यादव भी कैसे कर सकते हैं? समझा जा सकता है कि सोनम ने गुस्से में आ कर आखिरी हथियार काम में लिया होगा।
वैसे एक बात है, सोनम ने जो कुछ किया, वह चंद लोगों ने ही देखा मगर किया सही। बार-बार शिकायत करने पर भी यदि कोई सुनवाई नहीं होगी तो गुस्सा आना वाजिब ही है। और सोनम के तो नाक पर गुस्सा रहता है, यह जग जाहिर है। इसी के चलते पिछले दिनों नाइंसाफी होने पर गुस्से में आ कर पार्षद पद से इस्तीफा दे दिया, मगर सरकार में भी हिम्मत कहां कि वह मंजूर कर ले। असल में सोनम को नाइंसाफी बिलकुल बर्दाश्त नहीं। समाजसेवा का जज्बा कूट कूट कर भरा है। गलती से राजनीति में हैं, मगर राजनीतिज्ञों की तरह घुमा-फिरा कर बात करना उन्हें आता ही नहीं। सीधी-सीधी दो टूक बात करते हैं। मौका-बेमौका से क्या मतलब? जो कहते हैं, चौड़े धाड़े कहते हैं। इसी कारण उनसे हर कोई घबराता है कि कब इज्जत उतार कर हथेली पर न रख दें।
आपको याद होगा पिछली भाजपा सरकार का दौर, जब आए दिन होने वाले कांग्रेस के विरोध प्रदर्शनों में शहर अध्यक्ष जसराज जयपाल तो पीछे रह जाते थे और पूरी कमान सोनम के हाथ में आ जाती थी। अधिकारी थर-थर कांपा करते थे। उनकी इसी मेहनत का प्रतिफल है कि उन्हें कांग्रेस राज में पार्षद बनाया गया। वैसे उनकी पहुंच सीधी दिल्ली दरबार तक है, जहां शहर का बड़े से बड़ा नेता भी अंदर जाने के लिए लाइन लगाता है, वहां सोनम धड़धड़ाते हुए अंदर घुस जाते हैं। असल में ऐसे ही बिंदास नेताओं की जरूरत है अजमेर को, जो नाइंसाफी कत्तई बर्दाश्त नहीं करें। जिस शहर में चार-चार पांच-पांच दिन पानी न मिलने पर लोगों का खून पानी की तरह ठंडा रहता हो, उस शहर में सोनम जैसे बिंदास नेताओं की ही जरूरत है। धन्य हो सोनम किन्नर।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

बुधवार, 21 मार्च 2012

पार्षदों ने वाकई सही कहा कि या फिर अतिक्रमण दस्ता बंद कर दो


दरगाह इलाके की लंगरखाना गली में अवैध निर्माण हटाने गए निगम के दल के साथ पुलिस के असहयोग के मामले में सभी पार्षदों ने एकजुट हो कर वाकई सही कहा कि जब निगम प्रभावशाली लोगों के अतिक्रमण या अवैध निर्माण नहीं हटा सकती तो ऐसे अतिक्रमण दस्ते को समाप्त कर देना चाहिए। इस प्रकरण में पार्षदों की एकजुटता भी एक नायाब उदाहरण बन कर सामने आया है, जो कि तारीफ-ए-काबिल है।
वाकई यह सही है कि जब भी अतिक्रमण हटाए जाते हैं तो केवल गरीब और कमजोर ही चपेट में आता है और ताकतवर के सामने प्रशासन व पुलिस जप्ता कम होने अथवा माहौल बिगडऩे का बहाना बना कर हथियार डाल देते हैं। लंगर खाना गली में भी यही हुआ कि कथित अतक्रमी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए माहौल को सांप्रदायिक करने की कोशिश की और मौके पर मौजूद दरगाह थाने के सीआई हनुवंत सिंह भाटी ढ़ीले पड़ गए। नतीजा ये हुआ कि नगर निगम के सीईओ सी आर मीणा भी मौके की नजाकत तो देखते हुए पीछे हट गए।
इस मामले में पार्षदों यह कहना बिलकुल ठीक है कि सीआई हनुवंत सिंह भाटी ने अतिक्रमी का साथ देकर पुलिस की गरिमा गिराई है। पुलिस की इस कार्रवाई से अतिक्रमियों के हौसले बुलंद होंगे। अब जब कि एसपी मामले की जांच करवा रहे हैं तो उन्हें जांच का बिंदु यह भी रखना चाहिए कि क्या वाकई उनकी फौज के अफसर हालात बिगडऩे के डर से पीछे हटे या फिर उन पर किसी क्षेत्रीय व्यक्ति का दबाव था। असल में यह आम राय है कि दरगाह इलाके की पुलिस को खुश रखा जाता है, इसी कारण वह नरमी बरतती है।
पार्षद विजय नागौरा का यह तर्क सही है कि जिस प्रकार अपराधी की कोई जात नहीं होती है, उसी प्रकार अतिक्रमी की भी कोई जात नहीं होती है। निगम जब बड़े लोगों के अतिक्रमण अथवा अवैध निर्माण नहीं हटा सकता है तो अतिक्रमण दस्ते की आवश्यकता ही क्या है? दस्ता गरीब लोगों के निर्माण तोड़कर इतिश्री कर लेता है।
पार्षदों का यह कथन भी स्वागत योग्य है कि भविष्य में सीईओ मीणा जब भी अतिक्रमण हटाने जाएं, पार्षद उनके साथ चलने को तैयार हैं। इस सिलसिले में पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत का भी जिक्र आया, जो कि अतिक्रमण तोडू दस्ते के साथ चलते थे। उससे अतिक्रमियों के हौसले पस्त होते थे। हालांकि गहलोत से गलती सिर्फ ये हो जाती थी कि वे खुद की विरोध करने वाले अतिक्रमी पर हाथ छोड़ देते थे। बहरहाल, यदि दस्ते के साथ मेयर व पार्षद हों तो इससे एक तो अतिक्रमी दबाव में रहेगा और दूसरा दस्ते के कर्मचारी बेखौफ हो कर कार्यवाही को अंजाम दे पाएंगे।
अगर निगम मेयर कमल बाकोलिया वाकई गंभीर हैं तो उनका यह आदेश भी सराहनीय है कि पार्षद अपने अपने वार्डों के अतिक्रमणों की सूची बनाएं और फिर सीईओ मीणा अभियान की शक्ल में अतिक्रमण हटाने को निकलें।
ताजा प्रकरण में एक अफसोसनाक पहलु ये रहा कि पार्षद जब मेयर को शिकायत करने गए तो उनके साथ दरगाह इलाके के पार्षद शाकिर चिश्ती, बाबर चिश्ती, शाहिदा शामिल नहीं थे। उनके न आ पाने की जो भी वजह रही हो, मगर इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। उनको भी विश्वास में लेकर कार्यवाही की जानी चाहिए।
जब पार्षद मीणा से मुलाकात कर रहे थे, तब मीणा ने वाकई एक बहुत काम की बात कही। वो यह कि अगर उन पर भी सरकार का वरदहस्त हो और प्रशासन का साथ हो वे भी पूर्व कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता बन कर दिखा सकते हैं। स्पष्ट है कि कोई भी अधिकारी तभी कारगर हो पाता है, जबकि राजनीतिक दखलंदाजी न हो उसे कार्यवाही करने की पूरी छूट दी जाए। अब जब कि सारे पार्षद व मेयर मीणा साहब के साथ हैं तो उन्हें अदिति मेहता बन कर दिखा ही देना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, 20 मार्च 2012

सीईओ मीणा का क्रंदन प्रशासनिक लाचारी की इंतहा है


अफसोस कि उनको यह कहना पड़ गया कि ऐसी नौकरी से तो मौत अच्छी है
दरगाह बाजार की लंगरखाना गली में दरगाह कमेटी की शिकायत पर कथित अतिक्रमण तोडऩे पहुंचे नगर निगम के सीईओ सी आर मीणा को जब माहौल खराब होने की धमकी दी गई तो उनके मुंह से यकायक निकल गया कि ज्यादा से ज्यादा मार दोगे, इससे अधिक क्या होगा? ऐसी नौकरी से तो मौत अच्छी है। यह कथन प्रशासनिक लाचारी की इंतहा है। असल में यह कथन नहीं क्रंदन है। मुद्दा ये नहीं है कि बताया गया अतिक्रमण जायज है या नाजायज, मुद्दा ये है कि एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी इतना लाचार कैसे हो गया? अकेले दरगाह इलाके में ही प्रशासन पंगु क्यों हो जाता है? और सांप्रदायिक माहौल खराब होने के डर से कब तक अतिक्रमणों को यूं ही छोड़ा जाता रहेगा?
ताजा प्रकरण में यह बिलकुल स्पष्ट है कि प्रशासन व पुलिस के बीच तालमेल का पूर्णत: अभाव है। इस मामले में भले ही प्रत्यक्षत: दरगाह सीआई हनुवंत सिंह भाटी का असहयोग उभर कर आया हो, मगर यह प्रमाणित करता है कि प्रशासन व पुलिस के दोनों आला अफसर जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल व एसपी राजेश मीणा में भी कोई तालमेल नहीं है, वरना प्रशासन व पुलिस की संयुक्त किरकिरी की नौबत नहीं आती। जिला कलेक्टर जानती थीं कि अतिक्रमण हटाए जाने के दौरान परेशानी आ सकती है, इसी कारण उन्होंने एक दिन पहले अवैध निर्माण हटाये जाने के दौरान कानून एवं शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिए भगवतसिंह राठौड़ को कार्यपालक मजिस्ट्रेट नियुक्त किया था, मगर वे भी पुलिस के असहयोग के कारण नकारा साबित हो गए। उधर मीणा की हालत देखिए कि पुलिस का असहयोग होने बाबत मीडिया द्वारा सवाल पूछे जाने पर यह कह कर कि पुलिस ने असहयोग भी तो नहीं किया, सच्चाई को छिपाने की कोशिश की। ऐसे में यदि वे यह कहते हैं कि ऐसी नौकरी से मौत अच्छी, तो कहीं भी गलत नहीं है। एक ओर अतिक्रमण न हटाने पर उन्हें शहरभर का उलाहना सुनना पड़ता है, दूसरी ओर पुलिस अपेक्षित सहयोग नहीं करती, तो भला वे क्या खाक नौकरी करेंगे।
आइये, जरा मामले के अंदर झांकें। कथित अतिक्रमी जमील चिश्ती के सामने प्रशासन व पुलिस का बौनापन देखिए कि उसने शर्त रख दी कि जांच के लिए दुकान के अंदर चार व्यक्ति ही अंदर जाएंगे। इतना ही नहीं शटर भी मात्र एक फीट ही खोला। मीणा, राठौड़, भाटी और निगम के अधिशासी अभियंता को घुटने के बल के अंदर पहुंचना पड़ा। चिश्ती को आशंका थी कि शटर खोलते ही सभी अधिकारी और कर्मचारी अंदर घुस कर तोड़ फोड़ कर देंगे। चिश्ती ने दरगाह थाने के सीआई हनुमंत सिंह से पूछा कि मीणा चार जनों के भीतर जाने की बात कह रहे हैं, आप जिम्मेदारी लेते हैं क्या? सीआई ने जिम्मेदारी लेने से साफ इनकार कर दिया। और इसी के साथ पुलिस के मात्र तमाशबीन होने की पोल खुल गई। इस सिलसिले में एक वाक्या चर्चा का विषय बन गया है, वो यह कि करीब तीन चार माह पहले पार्षद योगेश शर्मा को एक अतिक्रमी से झगड़ा हुआ। कुछ पार्षद अतिक्रमी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के लिए दरगाह थाने गए तो सीआई भाटी ने पार्षदों से कहा था कि निगम में दम है तो दरगाह बाजार में अतिक्रमण तोड़ कर दिखाए। उनके इस कथन में ताजा घटना को मिला कर देखें और अंदाजा लगाएं कि माजरा आखिर है क्या?
हालांकि जब भी कहीं अतिक्रमण हटाए जाते हैं तो इस प्रकार के टकराव की नौबत आती ही है, उसमें कुछ नया नहीं है, मगर मामले को सांप्रदायिक रूप देना बेहद अफसोसनाक है। इस पर प्रशासन को गंभीरता से विचार करना होगा। इस प्रकार मुंह की खा कर लौटने से अतिक्रमियों को हौसले और बुलंद होंगे। अतिक्रमी अतिक्रमी ही है, वह हिंदू या मुसलमान नहीं है। यदि वाकई अतिक्रमण किया है तो टूटना ही चाहिए। वह अल्पसंख्यक है, इस नाते उसे नजरअंदाज करना क्या उचित है? कैसी विडंबना है कि मौके पर ऐसा जताया जा रहा था कि मानो प्रशासन द्वारा अल्पसंख्यकों पर अत्याचार किया जा रहा है, दूसरी ओर आम हिंदू को ये शिकायत रहती है कि प्रशासन मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपनाता है। वाह रे लाचार प्रशासन। इधर कुआं, उधर खाई। ऐसे में याद आते हैं वे दिन जब तत्कालीन जिला कलैक्टर अदिति मेहता पत्थरबाजी के चलते भी डटी रहीं और अतिक्रमण को हटा कर ही दम लिया। श्रीमती मंजू राजपाल आईं तो उनके जज्बे को देख यही अनुमान लगाया गया था कि वे अदिति मेहता की याद ताजा करवा देंगी, मगर वे ऐसे संवेदनशील मौकों पर कार्यपालक मजिस्ट्रेट नियुक्त करके इतिश्री कर लेती हैं।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

रविवार, 18 मार्च 2012

आजम हुसैन भी मान गए कि 23 मार्च अजमेर का स्थापना दिवस नहीं


लीजिए आखिर राजकीय संग्रहालय के अधीक्षक जनाब सैयद आजम हुसैन ने मान ही लिया कि आगामी 23 मार्च को मनाया जा रहा अजमेर का स्थापना दिवस एक शुरुआत मात्र है। अजमेर की स्थापना के बारे में अगर कहीं लिखित प्रमाण मिलेंगे तो उन पर अमल करते हुए इस तिथि में फेरबदल कर दिया जाएगा। इसका सीधा सा अर्थ ये है कि अजमेर की स्थापना का दिवस अब तक ज्ञात नहीं है और यूं ही अनुमान के आधार पर यह तिथि तय की गई है। चूंकि हिंदू मान्यता के अनुसार किसी भी शुभ कार्य को नव संवत्सर को आरंभ किया जाता है, इस कारण इस वर्ष नव संवत्सर की प्रतिपदा, 23 मार्च को समारोह मनाने की परंपरा आरंभ की जा रही है।
अपन ने पहले इस कॉलम में लिख दिया था कि अजमेर की स्थापना दिवस का कुछ अता-पता नहीं है। अब तक एक भी स्थापित इतिहासकार ने इस बारे में स्पष्ट कुछ नहीं कहा है। अजमेर के इतिहास के बारे में कर्नल टाड की सर्वाधिक मान्य और हरविलास शारदा की सर्वाधिक विश्वसनीय पुस्तक में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है। स्थापना दिवस मनाने के इच्छुक भाजपा नेता सोमरत्न आर्य व पूर्व मंत्री ललित भाटी ने भी खूब माथापच्ची की थी, मगर उन्हें स्थापना दिवस का कहीं प्रमाण नहीं मिला। अजमेर के अन्य सभी मौजूदा इतिहासकार भी प्रमाण के अभाव में यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि अजमेर की स्थापना कब हुई। सोमवार को दैनिक नवज्योति के अंक में भी इस बात का खुलासा कर दिया गया है। इसी में जनाब सैयद आजम हुसैन ने स्वीकार कर लिया कि यह तो एक शुरुआत मात्र है। उनकी इस स्वीकारोक्ति से इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि पर्यटन विकास समिति के मनोनीत सदस्य महेन्द्र विक्रम सिंह व इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज (इंटेक) के अजमेर चैप्टर के स्थापना दिवस मनाने के आग्रह के पीछे उनका ही हाथ था। संग्रहालय के अधीक्षक होने के नाते उनके पास जरूर अधिकृत जानकारियां हो सकती हैं, वरना महेन्द्र विक्रम सिंह व इंटेक को क्या पता? यदि यह कहा जाए की इस पूरे प्रकरण के मूल में आजम हुसैन ही हैं और अजमेर का स्थापना दिवस मनाने की शुरुआत का श्रेय उन्हीं खाते में जाता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस लिहाज से वे बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने अजमेर का स्थापना दिवस मनाने की शुरुआत तो करवाई, भले ही अभी तिथि के पुख्ता प्रमाण मौजूद नहीं हैं।
सवाल उठता कि क्या इस मामले में जिला कलैक्टर श्रीमती मंजू राजपाल को अंधेरे में रख कर उनसे अजमेर का स्थापना दिवस घोषित कर लिया गया? क्या उन्हें यह जानकारी दी गई कि पुख्ता प्रमाण तो नहीं हैं, मगर फिलहाल शुरुआत तो की जाए, बाद में प्रमाण मिलने पर फेरबदल कर लिया जाएगा? क्या प्रस्ताव इस रूप में पेश किया जाता तो जिला कलेक्टर उसे सिरे से ही खारिज कर देतीं? लगता है कहीं न कहीं गडबड़ है। बेहतर तो ये होता कि जिला कलेक्टर इससे पहले बाकायदा अजमेर के इतिहासकारों की बैठक आधिकारिक तौर पर बुलातीं और उसमें तय किया जाता, तब कम से कम इतिहासकारों का सम्मान भी रह जाता और विवाद भी नहीं होता। अब जब कि दिवस घोषित कर दिया गया है, यह कसर बाकी रह ही गई कि इतिहासकार इस तिथि को मानने को तैयार नहीं हैं।
हालांकि जिला कलेक्टर की घोषणा के वक्त ही शहर के बुद्धिजीवियों में चर्चा हो गई थी कि आखिर उन्होंने किस आधार पर यह मान लिया कि अजमेर की स्थापना नव संवत्सर की प्रतिपदा को हुई थी। अपुन ने इसी कॉलम में सवाल उठाये थे कि क्या जिला कलैक्टर ने संस्था और सिंह के प्रस्ताव पर इतिहासकारों की राय ली है? यदि नहीं तो उन्होंने अकेले यह तय कैसे कर दिया? क्या ऐतिहासिक तिथि के बारे में महज एक संस्था के प्रस्ताव को इस प्रकार मान लेना जायज है? संस्था के प्रस्ताव आने के बाद संबंधित पक्षों के विचार आमंत्रित क्यों नहीं किए गए, ताकि सर्वसम्मति से फैसला किया जाता?
इसमें सर्वाधिक अफसोसनाक बात ये रही कि स्थापना दिवस की घोषणा कर दिए जाने के बाद एक भी इतिहासकार खुल कर सामने नहीं आया। गनीमत है कि दैनिक नवज्योति ने इस पर फोकस किया, तब जा कर इतिहासकारों ने अपनी राय खुल कर जाहिर की।
-तेजवानी गिरधर
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गांधी जी की तरह चर्चा में हैं सचिन पायलट के तीन


अजमेर में इन दिनों एक परचा चर्चा का विषय बना हुआ है। यह कांग्रेसियों व मीडिया कर्मियों को डाक से मिल रहा है। इसमें बिना किसी के नाम का उल्लेख किए नगर निगम मेयर कमल बाकोलिया, शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता व नगर सुधार न्यास के सदर नरेन शहाणी भगत को गांधी जी के तीन बंदरों की तरह अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट की कठपुतलियों की तरह दर्शाया गया है। इस सिलसिले में आपको बता दें कि तीनों नेताओं को सचिन पायलट का पिट्ठू करार दिए जाने की जनचर्चा तो पिछले काफी दिन से है, मगर किसी कुंठित कांग्रेसी नेता ने परचे के माध्यम से ऐसा कृत्य अब जाकर कृत्य किया गया है।
जाहिर सी बात है कि यह किसी भाजपाई की नहीं, बल्कि किसी कांगे्रसी की ही हरकत है। उसकी वजह ये है कि भले ही परचा जारी करने वाले ने अपनी भड़ास जम कर निकाली हो, मगर है उसके मन में कांग्रेस के प्रति सच्चा दर्द। तभी उसमें तीनों नेताओं की ओर से की जा रही कांग्रेस कार्यकर्ताओं की उपेक्षा को यह कह कर उभारा गया है कि कांग्रेस की मत सुनो, कांग्रेस की मत देखो व कांग्रेस की मत करो।
पर्चा लिखने वाला कोई जज्बाती आदमी ही दिखता है, इस कारण संभव है उसकी बातें अतिशयपूर्ण हो गई हैं, मगर उससे आम कांग्रेस कार्यकर्ता की भावना तो सामने आ ही रही है। और कुछ नहीं तो कांग्रेस के अंदर सुलग रही आग का इशारा तो कर ही रही है। मजे की बात है कि पीडि़त को किसी एक से नहीं, बल्कि तीनों प्रमुख नेताओं से शिकायत है। ये कांग्रेस के लिए वाकई सोचनीय है। अगर दोनों प्रमुख स्थानीय निकायों के प्रमुखों व कांग्रेस अध्यक्ष के बारे में यह धारणा बन रही है तो कांग्रेस हाईकमान के लिए तो चिंतनीय है ही, उससे भी अधिक चिंता का विषय है सचिन पायलट के लिए। इसकी वजह ये है कि तीनों के कारण कांग्रेस को जो नुकसान हो रहा है, उससे कहीं अधिक सचिन पायलट की छवि को हो रहा है। कहां तो उनकी अजमेर को हाईटेक और सर्वसुविधा संपन्न बनाने की मंशा और कहां उनके तीनों प्रमुख सिपहसालारों की पहचान। अभी फाल्गुन महोत्सव में तो सचिन और उनके इन तीनों के बारे में बाकायदा एक झलकी दिखाई गई थी। यह बात दीगर है कि उस झलकी में सचिन के कपड़े फाड़ कर कुछ ज्यादा ही फाड़ दी। वह कुछ लोगों को नागवार भी गुजरी। जिस तरह समारोह के तुरंत बाद यह वाकया पेश आया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि इसी झलकी को देख कर ही परचा जारी करने वाले को प्रेरणा मिली।
सचिन के लिए यह विषय गंभीर इस कारण है क्योंकि तीनों की हर विफलता सचिन के खाते में ही जा रही है, क्योंकि माना यही जाता है कि वे उनके इशारे पर ही काम करते हैं। पिछले दिनों जब चंदवरदायी नगए ए ब्लॉक एवं जवाहर की नाड़ी में मकान तोड़े जाने पर जब शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता के जांच कमेटी बनाने पर जो विवाद हुआ, उसे सचिन ने ही दखल दे कर शांत करवाया। सचिन की फटकार पर रलावता व बाकोलिया यकायत भगत के सुर में सुर मिलाने लगे। लब्बोलुआब शहर में संदेश यही गया कि तीनों ही उनके कहने में हैं।
सचिन के लिए यदि यह सुखद बात है कि उन्होंने स्थानीय कांग्रेस पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया है, तो साथ ही दुखद बात ये है जिनके माध्यम से वे कांग्रेस संगठन व शहर का विकास करवाना चाह रहे हैं, वे अपनी ढ़पली अपना राग अलाप रहे हैं। ऐसा नहीं कि सचिन को इस बात की जानकारी नहीं है, मगर वे कर भी कुछ नहीं पा रहे। स्थानीय जो दिग्गज कांग्रेसी थे, उन्होंने सचिन के साम्राज्य का नकार दिया। मजबूरी में उन्हें दूसरा विकल्प ही अपनाना पड़ा। और वे जैसे हैं, हैं। आज भले ही यह परचेबाजी हंसी-ठिठोली का सबब बन जाए, मगर आगे चल कर यह सचिन के लिए दिक्कत पेश करेगा।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, 15 मार्च 2012

क्या इसे डीएसओ गोयल का पलटवार माना जाए?


रसद विभाग की जिला स्तरीय सलाहकार समिति के सदस्य प्रमुख कांग्रेसी नेता महेश ओझा व शैलेन्द्र अग्रवाल ने जिला रसद अधिकारी हरि शंकर गोयल पर हमला करते हुए उनके स्थानांतरण की मांग की तो उन पर अजमेर डिस्ट्रिक्ट फेयर प्राइज शॉप कीपर्स एसोसिएशन ने पलट कर हमला बोल दिया कि वे अवैध वसूली करते हैं। उन्होंने बाकायदा मुख्यमंत्री को संबोधित एक ज्ञापन जिला कलेक्टर को भी दिया है। सवाल ये है कि क्या यह पलटवार गोयल के कहने पर किया गया है? ऐसा संदेह इस कारण होता है कि गोयल पर हाल ही ओझा व अग्रवाल ने हमला किया था। यदि राशन की दुकान वाले सलाहकार समिति के सदस्यों से पीडि़त थे तो वे अब तक क्यों नहीं बोले? गोयल की शिकायत होने पर ही उन्हें सलाहकार समिति के सदस्यों की करतूत याद कैसे आई? यह एक संयोग ही है कि एक ओर कांग्रेसी नेताओं ने अपनी ही सरकार की छत्रछाया में काम कर रहे जिला रसद अधिकारी की शिकायत की है तो कांग्रेस नेताओं पर पलटवार करने वाले राशन विक्रेता भी अधिसंख्य कांग्रेसी ही हैं।
हालांकि इसे साबित करना कत्तई नामुमकिन है कि गोयल के कहने पर ही राशन की दुकान वाले आगे आए हैं, मगर यदि यह सही है तो ओझा व अग्रवाल को समझ लेना चाहिए कि जितने वे तीसमार खां हैं, उससे कहीं अधिक गोयल चालाक हैं। वे कितने प्रभावशाली हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके खिलाफ सांसद प्रभा ठाकुर ने शिकायत की, फिर उनका बाल भी बांका नहीं हुआ। इतना ही नहीं सलाहकार समिति सदस्यों की शिकायत के बाद उन्हीं पर पलट कर हमला हो गया, जब कि वे यहां कांग्रेस में कोई छोटी मोटी हैसियत नहीं रखते।
राशन विक्रताओं की ओर से मुख्यमंत्री को भेजे गए पत्र में साफ लिखा गया है कि सलाहकार समिति सदस्यों को राशन विक्रेता, रसद विभाग, उपभोक्ता आदि के बीच आने वाली समस्याओं का समाधान करने के लिए नियुक्त किया गया है, मगर शैलेन्द्र अग्रवाल व नीता केन दायित्व निर्वहन करना तो दूर अपने जीवन निर्वाह का साधन बना रहे हैं। वे राशन विक्रेताओं से हर माह दो से तीन सौ रुपए मांग रहे हैं। जो दुकानदार ये राशि नहीं देते, उनके खिलाफ झूठी शिकायतें कर दुकान निरस्त करवाने की धमकी दे रहे हैं। जो दुकानदार सेवा शुल्क नहीं देते, उनका निरीक्षण माह में चार-पांच बार कर रहे हैं। वे यह भी धमकी देते हैं कि जिला रसद अधिकारी उनकी कोई मदद नहीं कर सकते। वे उनका भी अजमेर से पलायन करवा सकते हैं। ऐसे भ्रष्ट सदस्यों को तुरंत हटाया जाए। यदि उनकी अपील नहीं सुनी गई तो वे आंदोलन भी कर सकते हैं।
अपुन पहले ही कह चुके हैं कि ओझा व अग्रवाल चलते रस्ते पंगा मोल लेने वाले नेता नहीं हैं। मामला गंभीर होने पर ही उन्होंने अपनी सरकार की छत्रछाया में काम कर रहे डीएसओ की शिकायत की है। मगर यह तो नहले पर दहला हो गया। उन्होंने फिर भी ऐसी रिश्वत खाने की शिकायत नहीं की थी, मगर उन पर तो साफ तौर पर रिश्वत मांगने का आरोप लग गया है। और लो गोयल के साथ पंगा।
ज्ञातव्य है कि गोयल शुद्ध के लिए युद्ध अभियान के कारण जितने लोकप्रिय हुए हैं, उतने ही विवादित भी हुए हैं। गोयल की कार्यप्रणाली को लेकर श्रीमती भदेल ने हाल ही विधानसभा में यहां तक कह दिया था कि अजमेर में खाद्य मंत्री की नहीं बल्कि गोयल की चलती है। यानि कि वे मनमानी पर उतारू हैं। इसके बाद जिला स्तरीय सलाहकार समिति के सदस्य प्रमुख कांग्रेसी नेता महेश ओझा व शैलेन्द्र अग्रवाल ने भी आरोप लगाया कि गोयल समिति की उपेक्षा कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त राज्यसभा सदस्य प्रभा ठाकुर का वह पत्र भी उजागर हो गया जिसमें उन्होंने लिखा है कि राशन की दुकानों के आवंटन की प्रणाली में धांधली बाबत अनेक शिकायतें सामने आई हैं। राशन वितरण संबंधी अनियमितताओं के कारण अजमेर की जनता परेशान है। जिले में गैस एजेंसियों की मनमानी व रसाई गैस की सरेआम कालाबाजारी के कारण उपभोक्ताओं को समय पर रसोई गैस नहीं मिलने की शिकायतें लगातार आ रही हैं। अनुरोध है कि जिला रसद अधिकारी का तत्काल स्थानांतरण किया जाए और उन्हें जनहित संबंधी जिम्मेदारी नहीं दी जाए।

-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, 13 मार्च 2012

रैली को हरी झंडी शबा खान ने दिखाई या माथुर ने?


अजमेर। चिकित्सा विभाग द्वारा कन्या भ्रूण हत्या की रोकथाम के लिए बीते मंगलवार को निकाली गई स्कूली बच्चों की रैली को लेकर एक विरोधाभास उत्पन्न हो गया है। एक ओर सूचना और जनसंपर्क महकमे की ओर से जारी प्रेस नोट में बताया गया है कि चिकित्सा विभाग के संयुक्त निदेशक डॉ. वी. के. माथुर ने राजकीय महात्मा गांधी स्कूल से लगभग 200 छात्र-छात्राओं की बेटी बचाओ अभियान रैली को हरी झंडी दिखा कर रवाना किया। दूसरी ओर विभाग की ओर से जारी विज्ञप्ति में लिखा है कि रैली को शहर महिला कांग्रेस अध्यक्ष शबा खान ने हरी झंडी दिखाई। दो अलग-अलग माध्यमों से जारी समाचारों के कारण अखबारों में भी अलग-अलग खबरें लगी हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि वास्तव में हरी झंडी दिखाई किसने?
दिलचस्प बात एक ओर है। वो ये कि सूचना व जनसंपर्क विभाग की ओर से जारी समाचार में शबा खान की मौजूदगी एक महिला समाज सेविका के रूप में दर्शाई गई है, जबकि चिकित्सा महकमे की ओर से जारी फोटो में शबा खान ही झंडी दिखा रही हैं। अर्थात महकमे ने अपनी ओर से तो अलग खबर जारी की और सूचना व जनसंपर्क विभाग को गलत सूचना दी। अव्वल तो यदि चिकित्सा महकमे को अपनी ओर से खबर जारी करनी थी तो उसे सूचना व जनसंपर्क विभाग को अलग खबर जारी करने को नहीं कहना था अथवा अपनी खबर भेज कर उसे सभी समाचार पत्रों को भेजने का आग्रह करना था। असल में व्यवस्था भी यही है। चिकित्सा महकमे के पास अपना अलग पीआरओ नहीं है और उसे जनसंपर्क विभाग के जरिए की अपनी सूचनाएं जारी करवानी चाहिए। मगर असावधानी बरते जाने के कारण सरकारी माध्यमों से जारी खबरों में विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो गई।
उससे अहम सवाल ये है कि जब यह रैली आयोजित ही चिकित्सा महकमे ने की गई थी तो उसमें एक राजनीतिक दल के पदाधिकारी से हरी झंडी क्यों दिखवाई गई? वे कोई जनप्रतिनिधि भी नहीं हैं। यानि कि महकमा शबा शान के प्रभाव में है अथवा मकहमे के अधिकारी कांग्रेस राज के कारण कांग्रेसियों की मिजाजपुर्सी करने में लगे हुए हैं। इस महकमे पर पूर्व में भी राजनीतिक प्रभाव में रहने के आरोप लग चुके हैं। अफसोस कि शबा शान को खुश करने के लिए डॉ. माथुर ने अपने पद की गरिमा का भी ख्याल नहीं रखा। इस मामले में सूचना व जनसंपर्क विभाग पूरी सावधानी बरतता है। अगर किसी सरकारी कार्यक्रम में राजनीतिक पदाधिकारी मौजूद होते हैं तो अव्वल तो उनका नाम देने से परहेज रखता है। अगर पदाधिकारी महत्वपूर्ण हो तो वह उनके राजनीतिक पद की बजाय केवल नाम का ही उल्लेख करता है ताकि सरकारी विभाग पर राजनीतिकरण करने का आरोप न लगे। खैर, ताजा विरोधाभास के बाद उम्मीद की जानी चाहिए चिकित्सा महकमा इस प्रकार राजनीति में सम्मिलित होने से बचेगा।
-तेजवानी गिरधर
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कलैक्टर ने कैसे घोषित कर दिया अजमेर का स्थापना दिवस?



आखिरकार जिला कलैक्टर श्रीमती मंजू राजपाल ने अजमेर का स्थापना दिवस घोषित कर दिया। जिला पर्यटन विकास समिति की बैठक में उन्होंने अजमेर का स्थापना दिवस समारोह नव संवत्सर की प्रतिपदा यानि 23 मार्च को सादगी पूर्वक मनाने के निर्देश दिये हैं।
जिला कलेक्टर की इस घोषणा से शहर के बुद्धिजीवियों में चर्चा है कि आखिर उन्होंने किस आधार पर यह मान लिया कि अजमेर की स्थापना नव संवत्सर की प्रतिपदा को हुई थी। असल बात तो ये है कि उन्होंने स्थापना दिवस की घोषणा नहीं ही है, अपितु यह मानते हुए कि स्थापना दिवस के बारे में आम जनता को पहले से जानकारी है और उन्होंने तो महज उसे मनाने के बारे में निर्देश दिए हैं। सवाल ये उठता है कि उन्होंने बिना पूरी तहकीकात किए यह घोषणा कर कैसे दी, जबकि अब तक एक भी स्थापित इतिहासकार ने इस बारे में स्पष्ट कुछ नहीं कहा है। यहां तक कि अजमेर के इतिहास के बारे में कर्नल टाड की सर्वाधिक मान्य और हरविलास शारदा की सर्वाधिक विश्वसनीय पुस्तक में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है। मौजूदा इतिहासकार शिव शर्मा का भी यही मानना रहा है कि स्थापना दिवस के बारे में कहीं कुछ भी अंकित नहीं है। उन्होंने अपनी पुस्तक में अजमेर की ऐतिहासिक तिथियां दी हैं, जिसमें लिखा है कि 640 ई. में अजयराज चौहान (प्रथम) ने अजयमेरू पर सैनिक चौकी स्थापित की एवं दुर्ग का निर्माण शुरू कराया, मगर स्थापना दिवस के बारे में कुछ नहीं कहा है। इसी प्रकार अजमेर के भूत, वर्तमान व भविष्य पर लिखित पुस्तक अजमेर एट ए ग्लांस में भी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी गई है। यहां तक कि सांस्कृतिक गतिविधियों में सर्वाधिक सक्रिय भाजपा नेता सोमरत्न आर्य, बुद्धिजीवी राजनीतिकों में अग्रणी पूर्व मंत्री ललित भाटी भी अरसे से स्थापना दिवस के बारे में जानकारी तलाश रहे थे। आर्य जब नगर निगम के उप महापौर थे, तब भी इसी कोशिश में थे कि स्थापना दिवस का पता लग जाए तो इसे मनाने की शुरुआत की जा सके। भाटी की भी यही मंशा रही। राजनीतिक क्षेत्र में स्थापित सरस्वती पुत्र पूर्व राज्यसभा सदस्य औंकार सिंह लखावत ने तो बेशक नगर सुधार न्यास के अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में सम्राट पृथ्वीराज चौहान स्मारक बनवाते समय स्थापना दिवस खोजने की कोशिश की होगी। लखावत जी को पता लग जाता तो वे चूकने वाले भी नहीं थे। इनमें से कोई भी आधिकारिक रूप से यह कहने की स्थिति नहीं रहा कि यह स्थापना दिवस है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जिला कलेक्टर ने मात्र पर्यटन विकास समिति के मनोनीत सदस्य महेन्द्र विक्रम सिंह के आग्रह पर इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज (इंटेक) के अजमेर चैप्टर के स्थापना दिवस मनाने के उस आग्रह को मान लिया है, जिसने कहा था कि अजमेर का स्थापना दिवस चैत्र नवरात्रि के प्रथम दिन 1112 को अजयराज चौहान ने की थी। संस्था ने बताया कि स्थापना दिवस इस साल आगामी 23 मार्च को है और प्रशासन से आग्रह किया कि इस अवसर को उत्सव के रूप में मनाया जाए। अर्थात अकेले महेन्द्र सिंह विक्रम सिंह ने ही अजमेर की स्थापना का दिवस तय कर दिया है और उस पर जिला कलैक्टर ने ठप्पा लगा दिया।
सवाल ये उठता है कि क्या जिला कलैक्टर ने संस्था और सिंह के प्रस्ताव पर इतिहासकारों की राय ली है? यदि नहीं तो उन्होंने अकेले यह तय कैसे कर दिया? क्या ऐतिहासिक तिथी के बारे में महज एक संस्था के प्रस्ताव को इस प्रकार मान लेना जायज है? संस्था के प्रस्ताव आने के बाद संबंधित पक्षों के विचार आमंत्रित क्यों नहीं किए गए, ताकि सर्वसम्मति से फैसला किया जाता? बहरहाल, अब जबकि सरकारी तौर पर अजमेर का स्थापना दिवस घोषित कर दिया गया है, यह इतिहासकारों की जिम्मेदारी है कि वे इस बारे में अपनी राय जाहिर करें।
-तेजवानी गिरधर
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डीएसओ से कांग्रेसी भी नाराज, यानि दाल में काला है ही


अजमेर के जिला रसद अधिकारी हरिशंकर गोयल की कार्यप्रणाली से भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल तो नाराज हैं ही, अब कांग्रेसी भी उनसे नाराज हो गए हैं। जाहिर सी बात है कि श्रीमती भदेल विपक्षी दल की हैं, इस कारण उन्होंने मौका लगते ही थोड़ा सा भी लिहाज नहीं रखा होगा, इस कारण उसे कदाचित राजनीतिक विरोध करार दिया जा सकता है, मगर अब यदि कांग्रेसी भी नाराज हैं, तो इसका यही मतलब है कि मामला गंभीर ही है। निश्चित रूप से कांग्रेसियों ने पहले तो खुद की सरकार होने के नाते गम खाया होगा, मगर जब पानी सिर से ऊपर से गुजरने लगा होगा तभी शिकायत की होगी।
यहां उल्लेखनीय है कि गोयल की कार्यप्रणाली को लेकर श्रीमती भदेल ने हाल ही विधानसभा में यहां तक कह दिया था कि अजमेर में खाद्य मंत्री की नहीं बल्कि गोयल की चलती है। स्पष्ट रूप से उनका कहना था कि कि वे मनमानी पर उतारू हैं। ये मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ है कि रसद विभाग की जिला स्तरीय सलाहकार समिति के सदस्य प्रमुख कांग्रेसी नेता महेश ओझा व शैलेन्द्र अग्रवाल ने आरोप लगाया है कि गोयल समिति की उपेक्षा कर रहे हैं। जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल को लिखे पत्र में उन्होंने आरोप लगाया कि गोयल उनके पत्रों का जवाब नहीं देकर उनकी उपेक्षा कर रहे हैं। नियमानुसार समिति की बैठक प्रति माह होनी चाहिए, लेकिन 5-6 माह बाद 1 फरवरी 2012 को बैठक आयोजित की गई, लेकिन अभी तक बैठक के कार्यवाही विवरण नहीं दिए गए हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि डीएसओ सरकार की योजना को विफल करने में लगे हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री को शिकायत भेज कर उनके खिलाफ कार्यवाही करने व स्थानांतरण करने की मांग की है। सब जानते हैं कि ओझा व अग्रवाल चलते रस्ते पंगा मोल लेने वाले नेता नहीं हैं। मामला गंभीर होने पर ही उन्होंने अपनी सरकार की छत्रछाया में काम कर रहे डीएसओ की शिकायत की है। संभव है गोयल ने उनका कोई निजी काम नहीं किया हो, मगर असल सवाल ये है कि अगर वे सलाहकार समिति की उपेक्षा कर रहे हैं तो सरकार की ओर से गठित ऐसी समिति के मायने ही नहीं रह जाते। गोयल की शिकायत राज्यसभा सदस्य प्रभा ठाकुर ने भी मुख्यमंत्री से कर रखी है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि राशन की दुकानों के आवंटन की प्रणाली में धांधली बाबत अनेक शिकायतें सामने आई हैं। राशन वितरण संबंधी अनियमितताओं के कारण अजमेर की जनता परेशान है। जिले में गैस एजेंसियों की मनमानी व रसाई गैस की सरेआम कालाबाजारी के कारण उपभोक्ताओं को समय पर रसोई गैस नहीं मिलने की शिकायतें लगातार आ रही हैं। अनुरोध है कि जिला रसद अधिकारी का तत्काल स्थानांतरण किया जाए और उन्हें जनहित संबंधी जिम्मेदारी नहीं दी जाए।
वैसे एक बात है। गोयल लगातार अवैध कार्यों के खिलाफ अभियान चलाए हुए हैं। विशेष रूप से शुद्ध के लिए युद्ध अभियान में तो उन्होंने जम कर धूम मचा रखी है। भ्रष्ट व्यापारियों में उनका जबरदस्त खौफ है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि गोयल बेहद ईमानदार और कड़क अफसर हैं। संभव है उसी के दौरान कोई ऐसा विवाद हुआ हो, जिसको लेकर कांग्रेसी नाराज हो गए हों। इसके विपरीत चर्चा ये भी है कि गोयल जितनी सख्ती दिखा रहे हैं, उसमें पर्दे के पीछे की बात और है। यानि की हाथी के दांत दिखाने के और व खाने के और हैं। पिछली दीपावली पर मिलावटी मावे को लेकर जब दबा कर छापे पड़े और मिठाई वाले बिक्री घटने से परेशान हो गए तो काफी जद्दोजहद के बाद समझौता हो गया था। यह एक कड़वा सच भी है कि व्यापारी ले दे कर मामला सुलटाने में विश्वास रखते हैं। पंगा नहीं लेते। चोरी या मिलावट भले ही करते हों मगर आमतौर पर व्यापारी हैं निरीह प्राणी, इस कारण गोयल के खिलाफ बोल नहीं पाते। पानी में रह कर भला मगरमच्छ से बैर कैसे लिया जा सकता है। मगर अब जब कि कांग्रेसियों ने भी गोयल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है तो उम्मीद की जा सकती है कि बात दूर तक जाएगी। वैसे जानकारी ये है कि गोयल के तार ऊपर तक जुड़े हुए हैं। खासकर के खाद्य मंत्री बाबूलाल नागर की उन पर विशेष कृपा रही। इस कारण वे कुछ ज्यादा की शेर हो गए। तभी तो कांग्रेसियों को नहीं गांठ रहे। कांग्रेस सांसद प्रभा ठाकुर तक की शिकायत का कोई असर नहीं हुआ।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
-tejwanig@gmail.com

सोमवार, 12 मार्च 2012

न्यास में ट्रस्टियों को शामिल करने की सुगबुगाहट शुरू


नगर सुधार न्यास में अध्यक्ष पद पर नरेन शहाणी भगत की नियुक्ति के काफी दिन बाद अब ट्रस्टियों के गठन की सुगबुगाहट फिर शुरू हो गई है। हालांकि भगत की नियुक्ति के साथ ही ट्रस्टी बनने के लिए दावेदारों ने जोड़तोड़ शुरू कर दी थी, लेकिन तब यह संदेश दिया गया कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ट्रस्टियों मे मनोनयन के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि इससे विवाद बढ़ेगा। ऐसे में दावेदार मायूस हो कर बैठ गए थे। मगर हाल ही पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद बिगड़े हाईकमान के मिजाज को देखते हुए कार्यकर्ताओं की सुध लिए जाने की जानकारी है। संगठन का भी दबाव है कि यदि कार्यकर्ताओं को इनाम दे कर खुश नहीं किया जाएगा तो वे चुनाव के वक्त ठीक से काम नहीं करेंगे। कार्यकर्ताओं को इसकी भनक लगते ही कवायद फिर शुरू हो गई है। भगत अपने कुछ भगतों को तो ट्रस्टी बनवाने की फिराक में हैं ही, जसराज जयपाल, डॉ. श्रीगोपाल बाहेती, ललित भाटी व महेन्द्र सिंह रलावता भी अपने चहेतों को न्यास में दाखिल करवाने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि गहलोत का जैसा मिजाज है, उसे देखते हुए पक्का नहीं कहा जा सकता कि कभी कार्यकर्ताओं के सबसे बड़े खैरख्वाह माने जाने वाले गहलोत इसमें रुचि लेंगे। उनके इस मिजाज के कारण आज आम कार्यकर्ता आपसी बातचीत में उन्हें गालियां देने से भी नहीं चूकते।
बहरहाल, अब जब कि फिर से सुगबुगाहट शुरू हुई है, न्यास में निगम के दो पार्षदों को भी ट्रस्टी के रूप में भेजे जाने की चर्चा शुरू हो गई है। जाहिर सी बात है कि भगत अपने सबसे ज्यादा चहेते विजय नागौरा को पहले से ही पार्षद होने के कारण ट्रस्टी बनवा नहीं सकते, सो उन्हें निगम की ओर से प्रविष्ठ करवाना चाहते हैं। वैसे भी उन्हें हर वक्त अपने साथ लिए घूमते हैं और न्यास दफ्तर में भी नागौरा काफी समय व्यतीत करते हैं। परेशानी ये है कि भगत अपनी ओर से तो नागौरा को मांग नहीं सकते, उनका प्रस्ताव तो निगम की ओर से ही आएगा और वहां मेयर कमल बाकोलिया कभी नहीं चाहेंगे कि उनका नाम भेजा जाए। संभव है उनकी रुचि नौरत गुर्जर, नरेश सत्यावना इत्यादि में हो। समझा जाता है कि इसको लेकर विवाद होगा ही, अत: अधिक संभावना इसी बात की है कि अंतिम फैसला अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट करेंगे। वे ही अपने तीनों शागिर्दों भगत, बाकोलिया व रलावता की राय ले कर नाम तय करेंगे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, 11 मार्च 2012

ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से होती है दवाइयों में लूट


दवाइयों की मनमानी कीमतें तय करने के खिलाफ एडवोकेट दिलीप शर्मा द्वारा शास्त्रीनगर निवासी टी सी जसवानी की ओर से हाल ही दायर एक जनहित याचिका पर हाईकोर्ट ने प्रदेश के मुख्य सचिव, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, ड्रग कंट्रोलर समेत राज्य की 60 दवा निर्माता कंपनियों को नोटिस जारी कर जवाब-तलब किया है।
इस सिलसिले में अजमेरनामा की तफ्तीश है कि दवाइयों के मूल्य पर नियंत्रण रखने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू है और उसकी पालना करने के लिए औषधि नियंत्रक संगठन बना हुआ है, लेकिन दवा निर्माता कंपनियों की मनमानी और औषधि नियंत्रक ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही के कारण अनेक दवाइयां बाजार में लागत मूल्य से कई गुना महंगे दामों में बिक रही हैं। जाहिर तौर पर इससे इस गोरखधंधे में ड्रग कंट्रोलर की मिलीभगत का संदेह होता है और साथ ही डॉक्टरों की कमीशनबाजी की भी पुष्टि होती है।
वस्तुत: सरकार ने बीमारों को उचित दर पर दवाइयां उपलब्ध होने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू कर रखा है। इसके तहत सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों पर अधिकतम विक्रय मूल्य सभी कर सहित एमआरपी इन्क्लूसिव ऑफ ऑल टैक्सेज छापना जरूरी है। इस एमआरपी में मटेरियल कॅास्ट, कन्वर्जन कॉस्ट, पैकिंग मटेरियल कॉस्ट व पैकिंग चार्जेज को मिला कर एक्स-फैक्ट्री कॉस्ट, एक्स फैक्ट्री कॉस्ट पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई, एक्साइज ड्यूटी, सेल्स टैक्स-वैल्यू एडेड टैक्स और अन्य लोकल टैक्स को शामिल किया जाता है। अर्थात जैसे किसी दवाई की लागत या एक्स फैक्ट्री कॉस्ट एक रुपया है तो उस पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई को मिला कर उसकी कीमत दो रुपए हो जाती है और उस पर सभी कर मिला कर एमआरपी कहलाती है। कोई भी रिटेलर उससे अधिक राशि नहीं वसूल सकता।
नियम ये भी है कि सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों की एमआरपी निर्धारित करने के लिए ड्रग कंट्रोलर से अनुमति लेनी होती है। उसकी स्वीकृति के बाद ही कोई दवाई बाजार में बेची जा सकती है। लेकिन जानकारी ये है कि इस नियम की पालना ठीक से नहीं हो रही। या तो दवा निर्माता कंपनियां ड्रग कंट्रोलर से अनुमति ले नहीं रहीं या फिर ले भी रही हैं तो ड्रग कंट्रोलर से स्वीकृत दर से अधिक दर से दवाइयां बेच रही हैं।
एक उदाहरण ही लीजिए। हिमाचल प्रदेश की अल्केम लेबोरेट्री लिमिटेड की गोली ए टू जेड एन एस की 15 गोलियों की स्ट्रिप की स्वीकृत दर 10 रुपए 52 पैसे मात्र है, जबकि बाजार में बिक रही स्ट्रिप पर अधिकतम खुदरा मूल्य 57 रुपए लिखा हुआ है। इसी से अंदाजा हो जाता है कि कितने बड़े पैमाने पर लूट मची हुई है। इसमें एक बारीक बात ये है कि स्वीकृत गोली का नाम तो ए टू जेड है, जबकि बाजार में बिक रही गोली का नाम ए टू जेड एन एस है। यह अंतर जानबूझ कर किया गया है। एन एस का मतलब होता है न्यूट्रिनेंटल सप्लीमेंट, जो दवाई के दायरे बाहर आ कर उसे एक फूड का रूप दे रही है। अर्थात दवाई बिक्री की स्वीकृति ड्रग कंट्रोलर से दवा उत्पाद के रूप में ली गई है, जबकि बाजार में उसका स्वरूप दवाई का नहीं, बल्कि खाद्य पदार्थ का है। इसका मतलब साफ है कि जब कभी बाजार में बिक रही दवाई को पकड़ा जाएगा तो निर्माता कंपनी यह कह कर आसानी से बच जाएगी कि यह तो खाद्य पदार्थ की श्रेणी में आती है, ड्रग कंट्रोल एक्ट के तहत उसे नहीं पकड़ा जा सकता। मगर सवाल ये उठता है कि जिस उत्पाद को सरकान ने दवाई मान कर स्वीकृत किया है तो उसे खाद्य पदार्थ के रूप में कैसे बेचा जा सकता है?
एक और उदाहरण देखिए, जिससे साफ हो जाता है कि एक ही केमिकल की दवाई की अलग-अलग कंपनी की दर में जमीन-आसमान का अंतर है। रिलैक्स फार्मास्यूटिकल्स प्रा. लि., हिमाचल प्रदेश द्वारा उत्पादित और मेनकाइंड फार्मा लि., नई दिल्ली द्वारा मार्केटेड गोली सफाकाइंड-500 की दस गोलियों का अधिकतम खुदरा मूल्य 189 रुपए मात्र है, जबकि ईस्ट अफ्रीकन ओवरसीज, देहरादून-उत्तराखंड द्वारा निर्मित व सिट्रोक्स जेनेटिका इंडिया प्रा. लि. द्वारा मार्केटेड एलसैफ-50 की दस गोलियों की स्ट्रिप का अधिकतम खुदरा मूल्य 700 रुपए है। इन दोनों ही गोलियों में सेफ्रोक्सिम एक्सेटाइल केमिकल 500 मिलीग्राम है। एक ही दवाई की कीमत में इतना अंतर जाहिर करता है कि दवा निर्माता कंपनियां किस प्रकार मनमानी दर से दवाइयां बेच रही हैं और ड्रग कंट्रोलर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। इससे यह भी साबित होता है कि बाजार में ज्यादा कीमत पर दवाइयां बेचने वाली कंपनियां डॉक्टरों व रिटेलरों को किस प्रकार आकर्षक कमीशन देती होंगी।
दरों में अंतर एक और गोरखधंधा देखिए। जयपुर की टोलिमा लेबोरेट्रीज का अजमेर के एक मेडिकल स्टोर को दिए गए बिल में 300 एमएल की टोल्युविट दवाई की 175 बोतलों की टे्रड रेट 18 रुपए के हिसाब से 3 हजार 150 रुपए और उस पर कर जोड़ कर उसे 3 हजार 621 रुपए की राशि अंकित की गई है, जबकि उसी बिल में दवाई की एमआरपी 70 रुपए दर्शा कर कुल राशि 12 हजार 250 दर्शायी गई है। अर्थात मात्र 18 रुपए की दवाई को रिटेलर को 70 रुपए में बेचने का अधिकार मिल गया है। तस्वीर का दूसरा रुख देखिए कि बीमार जिस दवाई के 70 रुपए अदा कर खुश हो रहा है कि वह महंगी दवाई पी कर जल्द तंदरुस्त हो जाएगा, उस दवाई को निर्माता कंपनी ने जब रिटेलर को ही 18 रुपए में बेचा है तो उस पर लागत कितनी आई होगी। यदि मोटे तौर पर एक सौ प्रतिशत एमएपीई ही मानें तो उसकी लागत बैठती होगी मात्र नौ रुपए। वह नौ रुपए लागत वाली दवाई कितनी असरदार होगी, इसकी सहज की कल्पना की जा सकती है। कुल मिला कर यह या तो ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से हो रहा है या फिर मिलीभगत से। सवाल ये उठता है कि ऐसी दवा निर्माता कंपनियों व ड्रग कंट्रोलर को कंट्रोल कौन करेगा?
तेजवानी गिरधर
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