गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

अजमेर की सोनम उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर से सपा प्रत्याशी?

यह जानकर शायद आपको सुखद आश्चर्य होगा कि अजमेर की सोनम किन्नर आगामी उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में सीट संख्या 188, सुल्तानपुर से समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लडऩे जा रही हैं। यह जानकारी उन्होंने स्वयं अपने फेसबुक अकाउंट पर साझा की है। अगर आपकी स्मृति जरा शिथिल पड़ गई हो तो बता दें कि ये वही सोनम किन्नर हैं, जो कभी अजमेर में कांग्रेस के धरने-प्रदर्शनों में छायी रहती थीं। महज एक आम कार्यकर्ता के रूप में। बेबाक बयानी के लिए चर्चित और बिंदास व्यक्तित्व की सोनम की खासियत ये रही है कि वे दिल्ल में बड़े से बड़े कांग्रेसी नेता के दफ्तर में बेधड़क घुस जाया करती थीं। यहां तक कि उन्होंने कांग्रेस आलाकमान तक भी पहुंच बना ली थी। इसी के दम पर वे अजमेर नगर निगम की मनोनीति पार्षद भी बनीं, मगर बाद में इस्तीफा दे दिया। इतना ही नहीं कांगे्रस पार्टी भी छोड़ दी, यह कह कर कि पार्टी की निष्ठा से सेवा करने के बाद भी उनकी उपेक्षा हो रही है। आपको याद होगा कि अपुन ने पिछले एक आइटम में लिखा था कि सोनम को कांग्रेस ने उनके कद के मुताबिक मनोनीत पार्षद के पद से नवाजा है, यदि वे इसके बाद भी असंतुष्ट हैं तो इसका मतलब ये है कि उन्हें किसी और बड़े पद की उम्मीद रही होगी। इस पर सोनम ने ऐतराज जाहिर किया कि आपने ऐसा कैसे लिख दिया? कद का सवाल कहां से उठ गया? कद का आकलन आपने कैसे कर लिया? कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता से कितने भी ऊंचे पद पर पहुंच सकता है। अपुन ने तो उनका कद एक पार्षद जितना की आंका, मगर खुद उनका जो अपने बारे में आकलन था, वह वाकई सही साबित हो गया।
बहरहाल, अजमेर के बाद वे अपने किन्हीं संपर्क सूत्रों के जरिए लखनऊ में भी रहीं। उन्हें मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलने का भी सौभाग्य हासिल हो गया। अपनी वाकपटुता के दम पर उन्होंने पर अखिलेश को प्रभावित भी किया और बताया जाता है कि उन्हें उचित मौके पर कोई ढंग का पद देने का आश्वासन दिया गया था।
आपको याद होगा कि इसी कॉलम में जब हमने अखिलेश से नजदीकी की खबर छापी तो सभी चौंके थे। यहां तक कि खुद सोनम ने भी यही कहा था कि आपको क्या पता? आपको कैसे पता लग गया कि मेरी अखिलेश यादव से क्या बात हुई है? कदाचित वे इस समयपूर्व रहस्योद्घाटन से असहज हो गई थीं, मगर अजमेरनामा का बात आखिर सही निकली। वे समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति की सदस्य बन गई। हालांकि इसकी उन्होंने स्वयं अथवा पार्टी की ओर से कोई विधिवत घोषणा नहीं की है, मगर उर्स मेले के दौरान जायरीन के इस्तकबाल में उनकी पार्टी की ओर से शहरभर में लगाए गए होर्डिंग्स में उनकी फोटो के नीचे उनका पद साफ तौर पर लिखा हुआ था। एक राष्ट्रीय पार्टी, जिसकी कि उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में सरकार हो, उसकी कार्यसमिति का सदस्य होना वाकई उल्लेखनीय उपलब्धि थी। इसके बाद पिछले दिनों विधानसभा चुनावों के दौरान उन्हें लाइव टीवी शो में आम आदमी पार्टी की पैरवी करते देखा गया तो समझ में आया कि उन्होंने समाजवादी पार्टी से नाता तोड़ लिया है।
बहरहाल, पिछले कुछ समय से वे लगातार मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के संपर्क में रही हैं, जिसका इजहार उनके फेसबुक अकाउंट पर साझा की गई फोटोज से होता रहा है। एक राष्ट्रीय पार्टी, जिसकी कि उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में सरकार हो, उसकी कार्यसमिति का सदस्य होना वाकई उल्लेखनीय है। और अब विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी होना भी कोई सामान्य बात नहीं है। कम से कम सोनम के लिए तो यह गौरव की बात है। बिंदास व्यक्तित्व की धनी व अति महत्वाकांक्षी सोनम छोटे-मोटे पड़ाव पर ठहरने वाली थी भी नहीं।
-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, 12 दिसंबर 2016

अजमेर का एक भी नेता भाजपा प्रदेश पदाधिकारियों में शामिल नहीं

प्रदेश भाजपा की ताजा घोषित कार्यकारिणी में अजमेर के एक भी नेता को कोई पद नहीं दिया गया है। हालांकि पूर्व में महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल उपाध्यक्ष थीं, मगर उन्हें एक व्यक्ति एक पद के फार्मूले के तहत हटा दिया गया है। अब एक भी पदाधिकारी नहीं रहा। संगठन के लिहाज से यह वाकई गंभीर है। मगर समझा जाता है कि इसकी वजह ये है कि सरकार में अजमेर के नेतृत्व को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जा चुका है। जिले के सात विधायकों में से दो राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल व एक संसदीय सचिव सुरेश रावत पहले से थे, शत्रुघ्न गौतम को भी संसदीय सचिव बना दिया गया। उनके अतिरिक्त राजस्थान धरोहर संरक्षण प्राधिकारण के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत व राजस्थान किसान आयोग का अध्यक्ष प्रो. सांवरलाल जाट हैं। संभवत: पहली बार सरकारी स्तर पर अजमेर को इतना राजनीतिक महत्व मिला है। शायद इसी कारण प्रदेश संगठन में किसी को एडजस्ट करने की जरूरत नहीं समझी गई।

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

अपेक्षित पद नहीं मिल पाया शत्रुघ्न गौतम को

केकड़ी के भाजपा विधायक शत्रुघ्न गौतम को अपेक्षित पद नहीं मिल पाया। वे सरकार के गठन के समय से ही मंत्री बनना चाहते थे। इसके पीछे तर्क ये था कि उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज रघु शर्मा को हराया। इसके अतिरिक्त ब्राह्मण लॉबी ने भी पूरी ताकत लगा दी। जैसे ही मंत्रीमंडल की विस्तार होने का मौका आया, उन्होंने एडी चोटी का जोर लगा दिया। अफवाह तो फैल भी गई कि उनको मंत्री बनाया जा रहा है। कानाफूसी है कि वे मंत्री बनने के करीब पहुंच भी चुके थे, मगर अजमेर जिले के दो मंत्रियों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल में से किसी एक को हटाया नहीं जा सका, इस कारण संतुष्ट करने के लिए उन्हें संसदीय सचिव बना दिया गया। स्वाभाविक है कि वे पूर्णत: खुश नहीं होंगे, मगर राज्य मंत्री स्तर की सुविधाएं पा कर संतोष करना ही होगा।
बहरहाल, अजमेर जिले के सात भाजपा विधायकों में से चार राज्य मंत्री स्तर के हो गए हैं। जिले के लिए यह सुकून की बात है, मगर अफसोस   कि एक भी केबीनेट मंत्री नहीं। जो थे, यानि कि जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट, उन्हें लोकसभा चुनाव लड़वा कर हटा दिया गया। कुछ समय केन्द्र में राज्य मंत्री रहे, मगर वहां से भी हटा दिया गया। अब राज्य में किसान आयोग के अध्यक्ष हैं, मगर वो रुतबा कहां, जो एक केबीनेट मंत्री का होता है।

श्रीचंद कृपलानी बाबत अफवाह सही निकली

जैसे ही राजस्थान मंत्रीमंडल के विस्तार की सुगबुगाहट शुरू हुई, सोशल मीडिया पर यह अफवाह फैली कि चित्तौड़ के विधायक श्रीचंद कृपलानी को मंत्री बनाया जा रहा है, मगर जानकार लोगों ने इसे सिरे से नकार दिया। कदाचित उनकी सोच यह रही कि अजमेर उत्तर के विधायक व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी पर संघ का वरदहस्त है, इस कारण उन्हें हटाया नहीं जा पाएगा और सिंधी कोटे से दूसरा मंत्री बन नहीं सकेगा। यह सोच गलत साबित हुई।
हालांकि इस मामले में एक किंतु ये है कि देवनानी सिंधी कोटे के तहत अजमेर उत्तर से लड़वाए जाते हैं, चूंकि यहां सिंधी वोटों का बाहुल्य है, जबकि कृपलानी के साथ ऐसा नहीं है। चित्तौड़ में उनका सिंधी जातीय जनाधार कुछ खास नहीं है और वे पार्टी सिंबल व अपने बलबूते ही जीतते हैं। ज्ञातव्य है कि वे इस बार भाजपा सरकार के गठन के वक्त भी मंत्री पद के सशक्त दावेदार थे, मगर सिंधी कोटे में देवनानी का ही नंबर आया। बाद में उनको राजी करने के लिए चितौड़ नगर सुधार न्यास का अध्यक्ष बनाया गया, मगर उन्होंने यह पद स्वीकार नहीं किया और मंत्री बनने के लिए दबाव बनाए रखा। आखिरकार वे कामयाब हो गए। कामयाब भी ऐसे कि सीधे केबीनेट मंत्री बने। वो भी स्वायत्त शासन विभाग के, जो कि एक महत्वपूर्ण महकमा है। कुल मिला कर सिंधी समुदाय में वे देवनानी से ज्यादा ताकतवर हो गए हैं।

बड़ी चर्चा थी देवनानी व भदेल के हटने की

राजस्थान मंत्रीमंडल के विस्तार से पहले यह चर्चा खूब थी कि शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी व महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल को हटाया जा रहा है। इस बात के पक्ष में दलील ये दी जा रही थी कि किशनगढ़ के विधायक भागीरथ चौधरी व केकड़ी के विधायक शत्रुघ्न गौतम को जयपुर बुलाया गया है और उनको मंत्री पद से नवाजा जा रहा है। जैसे ही इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर मंत्रीमंडल विस्तार की खबरें आने लगीं, हर एक की नजर इसी चर्चा पर भी थी। जैसे ही श्रीचंद कृपलानी को मंत्री बनाए जाने की खबर आई, हर एक की जुबान पर था कि प्रो. देवनानी की छुट्टी पक्की, क्योंकि सिंधी कोटे से एक ही मंत्री होने का अनुमान था, मगर जल्द ही अफवाह झूठी साबित हो गई।
असल में अजमेर के दोनों मंत्रियों के हटने की चर्चा पिछले काफी दिन से चल रही थी। कई बार प्रिंट मीडिया में भी छपा। इसके पीछे दलील ये दी जा रही थी कि दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा होने का नुकसान भाजपा संगठन को हो रहा है। हालांकि साथ ही यह चर्चा भी थी कि प्रो. देवनानी को हटाना आसान काम नहीं है, क्योंकि वे संघ लॉबी में शीर्ष के नेता हैं। उधर श्रीमती भदेल में पक्ष में तर्क ये था कि वसुंधरा ने खुद की पसंद से उन्हें देवनानी को बैलेंस करने के लिए बनाया है, इस कारण उन्हें नहीं हटाया जाएगा। यदि एक हटा तो दूसरा भी हटेगा। मगर मंत्रीमंडल विस्तार के साथ ही यह साफ हो गया है कि अब वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। 

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

अजमेर दक्षिण के लिए संघ ला चुका है एक नया चेहरा

फुसफुसाहटों में ये चर्चा होती रही है कि आगामी विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर व दक्षिण के भाजपा विधायक क्रमश: प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल को टिकट नहीं मिलेगा। इसके तर्क भी दिए जाते हैं। जैसे दोनों की लड़ाई के कारण भाजपा संगठन को नुकसान हुआ है। कोई कहता है कि भाजपा का एक बड़ा धड़ा देवनानी का खिलाफ है, इस कारण उनका टिकट कट जाएगा। कोई कहता है कि चूंकि नगर परिषद चुनाव में अजमेर दक्षिण में भाजपा की करारी हार हो चुकी और श्रीमती भदेल के कभी दाहिने व बायें हाथ रहे हेमंत भाटी व सुरेन्द्र सिंह शेखावत अब उनके साथ नहीं हैं, इस कारण उनका टिकट काटा जाएगा। कोई ये तर्क देता है कि लगातार तीन बार हारे हुए और वर्तमान में मंत्री की जिम्मेदारी निभाने वालों का टिकट भला कैसे काटा जा सकता है। आखिरी बात में दम भी है, मगर चूंकि ये दोनों सीटें आरएसएस के खाते की हैं और सब जानते हैं कि संघ में जिस स्तर पर निर्णय होता है, उसको आदेश के रूप में ही पालना होता है। संघ की नजर में व्यक्ति कुछ नहीं होता, उसकी लोकप्रियता कुछ नहीं होती, होता है तो सिर्फ संघ का नेटवर्क व उसका आदेश शिरोधार्य करने वाले भाजपा कार्यकर्ता। खुद देवनानी जी ही उसके सबसे सटीक उदाहरण हैं। जब वे अजमेर लाए गए तो उन्हें कोई नहीं जानता था, फिर भी संघ ने उन्हें जितवा दिया। श्रीमती भदेल भी जिस तरह से उभर कर आईं, वह संघ का ही कमाल है।
खैर, हालांकि अभी चुनाव दूर हैं और राजनीति वो चौसर है, जिस पर कब कैसे पासे होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता, मगर कानाफूसी है कि आरएसएस देवनानी की ही तरह एक ऐसे चेहरे को उदयपुर से अजमेर ला चुकी है, जिसे चंद लोग, या यूं कहें कि मित्र की जानते हैं। बताया जाता है कि उसे अभी से ग्राउंड पर अजमेर दक्षिण में गुपचुप तानाबाना बुनने को कहा गया है। संयोग से वह मूलत: अजमेर से और कोली समाज से ही है। इसका ये अर्थ ये निकाला जा सकता है कि श्रीमती भदेल का टिकट काटने का मन लगभग बना लिया गया है। कहा जा रहा है कि उन्हें शाहपुरा भेजा जा सकता है। वैसे भले ही संघ एकजुट व मजबूत संगठन हैं, मगर वहां भी अंदर धड़ेबाजी तो है ही, ऐसे में हो सकता है आखिरी वक्त में जिसका पलड़ा भारी होगा, वह बाजी मार जाएगा। जहां तक राजनीतिक क्षेत्र का सवाल है, उसमें मौजूदा जिला प्रमुख वंदना नोगिया, डॉ. प्रियशील हाड़ा आदि की चर्चा है। बताते हैं कि कांग्रेस से भाजपा में गए पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारियां भी मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के संपर्क में हैं।
रहा सवाल देवनानी का तो नगर निगम चुनाव में अजमेर उत्तर में बेहतर प्रदर्शन के अतिरिक्त शिक्षा में संघ का एजेंडा लागू करने व संघ के उच्चाधिकारियों से संकर्प होने के नाते टिकट के प्रति कत्तई आशंकित नहीं हैं, मगर साथ ही ये भी ख्याल में रखना चाहिए कि ये वही संघ है, जिसने भाजपा के एक भीष्म पितामह लालकृष्ण आडवाणी को हाशिये पर फैंक रखा है। यूं चर्चा ये भी है कि अगर किसी स्थिति में देवनानी का टिकट कटा तो उनके स्थान पर संघ के जिन चेहरों की संभावना बताई जाती है, उनमें से एक निरंजन शर्मा हैं। कुछ और नाम भी हैं, मगर उनके नाम लेना अभी व्यर्थ इसलिए है, क्योंकि वे चर्चित नहीं हैं और उनके नाम नाम लेना हास्यास्पद  हो सकता है।
हालांकि भाजपा भी कांग्रेस की तरह गैर सिंधी का प्रयोग करेगी, इसकी संभावना शून्य है, मगर फिर भी समझा जाता है कि चुनाव नजदीक आते आते अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिवशंकर हेडा व संघ के महानगर प्रमुख सुनील दत्त जैन के अतिरिक्त नगर निगम के अध्यक्ष धर्मेन्द्र गहलोत दावेदारों के रूप में गिने जाएंगे। एक और प्रमुख दावेदार पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत अभी भाजपा से बाहर हैं, मगर देर सवेर वे लौटेंगे भाजपा में ही, ऐसा माना जाता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

बुधवार, 16 नवंबर 2016

नितेश गहलोत ने की पुष्कर से कांग्रेस टिकट की दावेदारी

हालांकि विधानसभा चुनाव अभी दो साल दूर हैं और कांग्रेस ने अभी टिकट वितरण प्रक्रिया के लिए दावेदारी मांगना शुरू नहीं किया है, मगर पुष्कर के वरिष्ठ कांग्रेस नेता ताराचंद गहलोत के पुत्र नितेश गहलोत ने अभी से दावेदारी ठोक दी है। इस आशय का एक समाचार एक अखबार में छपा भी है, जो कि समझा जा सकता है कि उन्होंने ही छपवाया होगा, उसकी कटिंग फेसबुक पर शाया की है। उनका दावा है कि पुष्कर के आसपास माली समाज के अतिरिक्त अन्य समाजों पर भी उनका प्रभाव है। वैसे एक बात तो सही है कि उनके पिता ताराचंद गहलोत कई साल से कांग्रेस के सक्रिय नेता हैं। स्वयं नितेश भी पिछले कुछ समय से काफी सक्रिय हैं। अब देखना ये होगा कि क्या इस बार कांग्रेस मुस्लिम दावेदार पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ की दावेदारी को नकार कर माली समाज के इस नेता पर दाव खेलती है? इतना ही नहीं पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती भी इस बार पुष्कर से दावेदारी करते दिखाई दे रहे हैं। इन दो दिग्गजों को ओवर टेक कर कैसे नितेश आगे आते हैं, ये दिलचस्प होगा।

चुनाव नहीं लड़ेगी कीर्ति पाठक

किसी समय अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान उभरी और बाद में आम आदमी पार्टी में सक्रिय रहीं श्रीमती कीर्ति पाठक आज भी सक्रिय हैं। आंदोलन के दौरान व्यवस्था के खिलाफ उग्र रूप में आवाज उठाने वाली ये महिला आज व्यवस्था में कैसे सुधार किया जाए, कैसे मदद की जाए, कैसे नवाचार किया जाए, इसके लिए काम कर रही हैं। वे इन दिनों यूनाइटेड अजमेर नामक संगठन या यूं कहिए कि मुहिम की संयोजिका हैं और निरंतर किसी न किसी सकारात्मक कार्य में जुटी रहती हैं। उनकी इस सक्रियता के चलते ही कई लोगों के जेहन में यह सवाल उठता है कि कहीं वे आगे चल कर चुनाव लडऩे का मानस तो नहीं रखतीं। इसकी वजह ये है कि अमूमन इसी प्रकार समाजसेवा के बाद लोग राजनीति का रुख अख्तियार करते हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान भी उनके बारे में ऐसे कयास थे, मगर उन्होंने तब भी यही कहा था कि वे कभी सक्रिय राजनीति में नहीं आएंगी। हालांकि बाद में आम आदमी पार्टी  से जुडऩे पर सक्रिय राजनीति में तो आईं और उन पर ऐसा दबाव था कि चुनावी रण में उतरें, मगर वे पीछे हट गईं। एक बार फिर उनकी सक्रियता पर ये सवाल उठ रहे हैं कि वे चुनावी तैयारी कर रही हैं। इस पर उन्हें स्पष्ट करना पड़ा है कि ऐसा कुछ नहीं है। बाकायदा घोषणा कर रही हैं कि वे कभी चुनाव नहीं लड़ेंगी। हालांकि अब भी एक संदेह तो बरकरार है ही कि वे चुनाव के वक्त कोई न कोई भूमिका अदा करेंगी। ठाली तो नहीं बैठी रहेंगी। वे किस का साथ देंगी, इसका कयास आप करिये।
बहरहाल, चुनाव न लडऩे की घोषणा करते हुए उन्होंने सोशल मीडिया के जरिए अपनी बात रखी है, उसे हूबहू दिया जा रहा है, ताकि बाद वक्त सनद रहे:-

स्वार्थ के इस समय में निस्स्वार्थ भाव से की जाने वाली सेवा पर भी लोगों को शक होता है ...
वाजिब है क्यूँकि हमारी मनःस्थिति वर्तमान काल से जुड़ी होती है ...
यूनाइटेड अजमेर एक ग़ैर राजनैतिक initiative है , इस में सभी अजमेरवासी अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता से इतर एक अजमेरवासी के रूप में जुड़े हैं ...
पर हाँ सब के राजनैतिक जुड़ाव को छुपाया नहीं गया है ...
इस initiative की संयोजिका होने के नाते साथियों की अपेक्षाएँ मुझ से कुछ ज़्यादा हैं, और होनी भी चाहिएँ क्यूँकि जब कोई व्यक्ति lead करता है तो उसे एक example set करना होता है ...
Whatsapp group में परसों रात एक चर्चा के दौरान एक सहयोगी भाई ने अपने और उन के जानकारों के मस्तिष्क में जो प्रश्न था उसे पूछा ...
आप सभी साथियों के साथ उस उत्तर को share कर रही हूँ ताकि यदि किसी को कोई भी शंका हो तो दूर हो जाए ....
मैं कभी भी चुनाव नहीं लड़ूँगी और इस initiative से किसी भी प्रकार का वोट के रूप में फ़ायदा नहीं लूँगी ...
आशा है आप कि शंका का निवारण हो गया होगा ...
UNITED AJMER सिर्फ़ अजमेरवासियों को निस्स्वार्थ भाव से जोड़ कर अजमेर का चेहरा बदलने की कोशिश मात्र है ...
जय हिंद !!!
- कीर्ति पाठक

सोमवार, 14 नवंबर 2016

मोदी का कदम पड़ा उलटा, बीजेपी को बड़ी देर में समझ आया

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से 8 नवंबर की रात यकायक पांच सौ व एक हजार का नोट बंद करने की घोषणा को काले धन पर बड़ा हमला मान कर भाजपा उत्साहित थी। इसे काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक की संज्ञा देते हुए मोदी को एक महान नेता कहने वालों का हुजूम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर टूट पड़ा। बेशक यह एक कड़ा और साहसिक या कहें कि दुस्साहिक कदम था, जिसे कदाचित गैर भाजपा मानसिकता वाले भी उचित मान रहे थे। मगर उसी रात और दूसरे दिन जब बाजार में अफरातफरी मची और बाद में बैंकों व एटीएम पर लंबी कतारें लगने लगीं, इस कदम के आफ्टर इफैक्ट पर ध्यान गया। बैंकों व एटीएम के बाहर न छाया का प्रबंध, न पानी की व्यवस्था, लंबा इंतजार। आम आदमी त्राहि त्राहि कर बैठा। दिन प्रतिदिन गुस्सा बढऩे लगा। कई घटनाएं भी हुईं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी मोदी पर जम कर हमले होने लगे। तब जा कर भाजपा को समझ में आया कि मोदी का यह रामबाण उलटा पड़ रहा है। छह दिन बाद जा कर ख्याल आया कि अब डैमेज कंट्रोल की सख्त जरूरत है। इसी के चलते भाजपा अजमेर देहात के जिलाध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत ने सभी मंडल अध्यक्ष, पदाधिकारी एवं कार्यकर्ताओं से अपील की है कि प्रधानमंत्री जी के ऐतिहासिक निर्णय के बाद सभी बैंकों और पोस्ट ऑफिस सहित वित्तीय संस्थाओं में, जहां नोट बदले जा रहे है, वहां पर आप सभी कार्यकर्ता समय निकाल कर व्यवस्थाओं में सहयोग करें। वहां नोट बदलने के लिए फॉर्म भरना, चाय-पानी की व्यवस्था करना आदि कार्य करके प्रधानमंत्री जी की इस सकरात्मक पहल में अपना योगदान दें।
कुछ इसी प्रकार कांग्रेस को भी लगा कि इस मौके पर जनता की सेवा करके उनका दिल जीता जा सकता है, सो शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष विजय जैन ने तय किया है कि कलेक्टर चौराहे पर स्थित एसबीआई पर लंबी लाइन में लग कर तकलीफ पा रहे लोगों की सहायता की जाएगी। 

बुधवार, 2 नवंबर 2016

जमीअत के जलसे से सूफीवाद को कैसा खतरा?

जमीअत उलेमा-ए-हिंद के प्रस्तावित राष्ट्रीय जलसे के विरोध के कारण अटकी आयोजन की मंजूरी के बीच उसकी तैयारी भी चल रही है, लेकिन सवाल ये उठता है कि आखिर ये विरोध हो क्यों रहा है? इस आयोजन से सूफीवाद को खतरा क्यों है? हालांकि मूल रूप से ऑल इंडिया उलेमा मशायख बोर्ड इसका विरोध कर रहा है, मगर कुछ खादिम भी इसके साथ जुड़े हुए हैं, अलबत्ता पूरी खुद्दाम जमात और आम मुसलमान कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं।
जहां तक महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से जुड़े चंद सूफी मतावलंबियों के तर्क का सवाल है, वो तो पूरी तरह से बेदम नजर आता है। बताया जा रहा है कि दरगाह से जुड़े कुछ प्रतिनिधि ये तर्क दे रहे हैं कि चूंकि जमीअत की विचारधारा ख्वाजा साहब के सूफीवाद से अलग है, वे दरगाहों व खानकाहों को नहीं मानते, इस कारण जमीयत की विचारधारा वालों को अजमेर में अधिवेशन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
सवाल ये उठता है कि क्या पूरा अजमेर सूफीवाद को मानता है? अगर मानता भी है तो क्या किसी और विचारधारा वालों को यहां आने पर आप उन्हें रोकेंगे? क्या अजमेर के सारे मुसलमान केवल सूफीवाद को ही मानते हैं? क्या अजमेर में दरगाहों व खानकाहों को नहीं मानने वाले नहीं रहते हैं? क्या केवल विचारधारा भिन्न होने के आधार पर आप किसी और विधारधारा वाले को कोई जलसा नहीं करने देंगे? क्या जिस प्रकार जमीयत के जलसे का जिस तर्क के आधार पर विरोध किया जा रहा है, ठीक उसी प्रकार हिंदूवादी विचारधारा वाले संगठनों का कोई सम्मेलन हो तो वे उसका भी उसी तर्क के आधार पर विरोध करेंगे? क्या सूफीवाद इतना कमजोर है कि किसी और विधारधारा वाले अजमेर में जलसा करेंगे तो वह प्रभावित होगा? यानि कि जहां तक तर्क का सवाल है, वह बिलकुल लचर है।
दरअसल सूफीवाद के जो पैरोकार इस जलसे का विरोध कर रहे हैं, वे खुद ही सूफीवाद से नावाकिफ लगते हैं। सूफीवाद अपने आप में सभी धर्मों को समान तवज्जो देने के जीवन दर्शन पर टिका है। उसकी शिक्षाएं किसी भी धर्म के विरोध की बात नहीं करतीं। उलटे सभी को अपने में समाने की क्षमता रखती हैं। तभी तो ख्वाजा साहब के दर पर हर मजहब का आदमी आता है। कदाचित मुसलमानों से भी ज्यादा हिंदू जायरीन यहां आते हैं। जब पूरी तरह से भिन्न जीवन पद्धति को मानने वालों का यहां स्वागत है तो विशुद्ध मुसलमान का विरोध क्यों कर होना चाहिए?
कैसी विडंबना है। जिस हिंदू बहुल शहर में सूफीवाद को कोई खतरा नहीं है तो इस्लाम को मूल रूप में मानने वाले मुस्लिमों से क्या खतरा है? आखिरकार सूफीवाद इस्लाम से ही तो निकला है। यदि आसान शब्दों में कहें तो उदार और सभी मान्यताओं को अपने में समाने वाला पंथ है सूफीवाद। वस्तुत: आम मुस्लिम और सूफी में मोटा फर्क ये है कि मुस्लिम धर्म को मूल रूप में मानने वाले बुतपरस्ती व किसी मजार पर सजदा करने के खिलाफ हैं। वे केवल खुदा के आगे ही झुकते हैं और मोहम्मद साहब को उनका पेगम्बर मानते हैं, जबकि सूफी खुदा में अकीदा रखते हुए मस्जिद के अतिरिक्त दरगाहों में भी इबादत करते हैं। सूफी परंपरा में ख्वाजा साहब का मुकाम सबसे ऊंचा है, जिनकी बारगाह में आ कर हर धर्म का आदमी रूहानी सुकून पाता है।
खैर, होना तो यह चाहिए कि सूफी मत करे मानने वाले जमीअत का इस्तकबाल करें, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि भले ही चंद खादिमों में विरोध के लिए साथ रखा गया है, मगर लड़ाई वर्चस्व की है। ऑल इंडिया उलेमा मशायख बोर्ड नहीं चाहता कि जमीअत का प्रभाव बढ़े। पिछले दिनों बोर्ड ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने जलसे में बुलवाया था। वैसे बताया जाता है कि जमीअत के नेता भी काफी प्रभाव रखते हैं और जलसे की सशर्त मंजूरी के लिए पूरा दबाव बनाए हुए हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

तो फिर दरगाह कमेटी की मंजूरी के मायने क्या हैं?

तेजवानी गिरधर
पुलिस की रिपोर्ट के आधार पर जिला कलेक्टर की ओर से अजमेर में कायड़ विश्राम स्थली पर जमीयत उलेमा ए हिंद के राष्ट्रीय अधिवेशन की अनुमति न दिए जाने के बाद हालांकि दरगाह कमेटी ने भी मंजूरी को निरस्त कर दिया है, मगर सवाल ये उठता है कि उसकी मंजूरी के मायने क्या हैं?
असल में दोनों मंजूरियां अलग-अलग हैं। एक है कानून और व्यवस्था के लिहाज से और दूसरी आयोजन स्थल की। हुआ यूं कि आयोजन कर्ताओं ने दोनों मंजूरियों की अर्जियां दीं। चूंकि आयोजन स्थल कायड़ विश्राम स्थली  की देखरेख दरगाह कमेटी करती है, इस कारण उसने वहां अधिवेशन की मंजूरी दे दी। रहा सवाल जिला प्रशासन की अनुमति का तो उसने पुलिस रिपोर्ट को आधार बना कर मंजूरी दिए जाने से इंकार कर दिया। यानि कि दरगाह कमेटी की मंजूरी का अर्थ ही नहीं रहा। यद्यपि उसने मंजूरी को निरस्त कर दिया, मगर जिला प्रशासन की मंजूरी के बिना आयोजन हो भी तो नहीं सकता था, क्योंकि असल मंजूरी तो वही थी। यदि वह मंजूरी निरस्त नहीं करती, तब भी आयोजन असंभव था, क्योंकि वह तो मात्र स्थान की मंजूरी ही थी। दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही मंजूरियां जरूरी होने के बाद भी उनके बीच विरोधाभास पैदा किया जा रहा है। ऐसा जताया जा रहा है कि मानों दोनों सरकारी एजेंसियों के बीच टकराव है, जबकि ऐसा है नहीं। दोनों अलग-अलग हैं। मिसाल के तौर पर अगर दरगाह कमेटी स्थान की मंजूरी नहीं देती और जिला प्रशासन आयोजन की मंजूरी दे देता, तो क्या होता, तो स्वाभाविक रूप से आयोजकों को नया स्थान तलाशना पड़ता। अर्थात दरगाह कमेटी की मंजूरी की भी अपनी अहमियत है, भले ही वह मात्र स्थान की है।  ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या कमेटी ने जिला प्रशासन की मंजूरी से पहले अपनी मंजूरी दे कर गलत किया? क्या जिला प्रशासन मंजूरी दे देता तो दरगाह कमेटी भी मंजूरी देने के लिए बाध्य होती? क्या जिला प्रशासन की मंजूरी में ही स्थान की मंजूरी भी अंतर्निहित है? क्या मंजूरी देने की स्थिति में जिला कलेक्टर दरगाह कमेटी को बाध्य कर सकते हैं कि वह भी आयोजन स्थल की मंजूरी दे? इन सवालों पर गौर करने से यही लगता है कि विरोधाभास कहीं भी नहीं है, वह जानबूझ कर पैदा किया गया और नए आए नाजिम लेफ्टिनेंट कर्नल मंसूर अली विवाद से बचने के लिए मंजूरी निरस्त कर दी। उन्होंने बाकायदा जमीयत के महासचिव अब्दुल वाहिद को पत्र लिख कर सूचित किया है कि चूंकि जिला प्रशासन ने मंजूरी नहीं दी है, इस कारण उनकी भी मंजूरी निरस्त की जाती है।
असल में मंजूरी नए नाजिम ने दी भी नहीं थी, वह तो हाल ही इस अतिरिक्त पदभार से मुक्त हुए दौसा कलेक्टर अश्फाक हुसैन दे गए थे। आखिरकार वे भी आईएएस व कलेक्टर जैसे जिम्मेदार अधिकारी हैं। क्या उन्हें पता नहीं था कि जिला प्रशासन की मंजूरी से पहले स्थान की मंजूरी देना गलत है? जाहिर तौर पर उन्हें पता होगा, तभी तो मंजूरी दे दी। कदाचित  उन्हें इस बात का इल्म न हो कि जिला कलेक्टर मंजूरी नहीं देंगे। वैसे भी उन्होंने तो केवल आयोजन स्थल उपलब्ध करवाया था, वहां अधिवेशन जिला कलेक्टर की अनुमति के बिना हो भी नहीं सकता था। इसका अर्थ ये निकलता है कि दरगाह कमेटी को मंजूरी निरस्त करने की जरूरत नहीं थी। अगर वह निरस्त नहीं करती तो भी कानून व्यवस्था वाली मंजूरी के बिना जमीयत अधिवेशन नहीं कर सकती थी। वह ये तर्क नहीं दे सकती थी कि भले ही जिला प्रशासन ने मंजूरी नहीं दी है, मगर चूंकि दरगाह कमेटी ने मंजूरी दी है, इस कारण वे तो अधिवेशन करेंगे ही। बहरहाल, चूंकि विवाद उत्पन्न किया गया, इस कारण नए नाजिम ने मंजूरी निरस्त कर दी। बताया जा रहा है कि जमीयत आयोजन को लेकर अब भी प्रयासरत है, देखते हैं क्या होता है?
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

भारी दबाव में प्रो. जाट को बनाना पड़ा किसान आयोग का अध्यक्ष

जाट नेता डॉ. हरिसिंह के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री सुभाष महरिया और महरिया के छोटे भाई फतेहपुर से निर्दलीय विधायक नंदकिशोर महरिया के कांग्रेस में शामिल होने की प्रबल संभावनाओं के चलते भाजपा हाईकमान को पूर्व केन्द्रीय जलदाय राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को राजस्थान किसान आयोग का अध्यक्ष बनाना पड़ा। हालांकि केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाए जाने के बाद से ही जाट समाज में रोष था, जिसका खुल कर प्रदर्शन भी हुआ, नतीजतन भाजपा हाईकमान पर प्रो. जाट को मंत्री के समकक्ष पद देने पर विचार करना पड़ रहा था। यह भी लगभग तय सा था कि उन्हें किसान आयोग का अध्यक्ष बनाया जाएगा। मगर इस मामले में सुस्ती दिखाई जा रही थी।  जैसे ही यह जानकारी आई कि हरिसिंह और महरिया बंधुओं को कांग्रेस में लिया जा सकता है, जाटों के भाजपा से खिसक कर कांग्रेस में जाने का खतरा भांप कर भाजपा हाईकमान भी हरकत में आया। और आखिरकार प्रो. जाट को किसान आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया।
असल में प्रो. जाट को मंत्रीमंडल से हटाए जाने के कारण विशेष रूप से अजमेर का जाट समाज भाजपा से नाराज था। हालांकि प्रदेश स्तर पर तो कोई बड़ा नुकसान होने की आशंका नहीं थी, मगर जाट बहुल अजमेर संसदीय क्षेत्र और अजमेर जिले की तीन विधानसभा सीटों पर जाट भाजपा को झटका देने की स्थिति में थे। ऐसे में प्रो. जाट को राजनीतिक रूप से पुन: प्रतिष्ठित करने का भारी दबाव था।
वस्तुत: प्रो. जाट के साथ बड़ा राजनीतिक मजाक हुआ। वे अच्छे खासे  राज्य में केबीनेट मंत्री थे, मगर केवल पूर्व केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट को हराने के लिए लोकसभा चुनाव लड़ाया गया। दाव कामयाब होने के बाद उन्हें इसके एवज में केन्द्र में राज्य मंत्री बनाया गया, मगर कथित रूप से स्वास्थ्य कारण बताते हुए उन्हें हटा दिया गया और वे महज सांसद बन कर रह गए। ज्ञातव्य है कि वे वसुंधरा के काफी करीब रहे हैं, मगर वसुंधरा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच ट्यूनिंग ठीक न होने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा था। मगर जब देखा कि कुछ जाट नेता कांग्रेस का रुख कर रहे हैं तो तुरतफुरत में उन्हें किसान आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 24 सितंबर 2016

जनता का नुमाइंदा होना चाहिए स्मार्ट सिटी कारपोरेशन लिमिटेड का अध्यक्ष

अन्य सभी संबंधित पक्षों के अतिरिक्त जिला कलेक्टर वैभव गोयल के विशेष प्रयासों और नगर निगम मेयर धर्मेन्द्र गहलोत के रुचि लेने से अब जब कि अजमेर को देशभर की तीसरी सूची में स्मार्ट सिटी बनाने के लिए शामिल कर लिया गया है तो स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि आखिर इसका काम कब शुरू होगा? इसकी मॉनिटरिंग कौन करेगा? क्या इस योजना के तहत आने वाले धन का सही उपयोग भी हो पाएगा या नहीं? ये सवाल इस कारण उठते हैं क्योंकि इससे पहले अजमेर की जनता स्लम फ्री सिटी और जेएनएनयूआरएम की आवास योजना विफल होने और सीवरेज लाइन योजना की कछुआ चाल को देख चुके हैं।
असल में अजमेर के लोग यह देखने के आदी हो चुके हैं कि यहां लाख दावों और प्रयासों के बाद भी विभिन्न विभागों में तालमेल नहीं हो पाता। निगम या पीडब्ल्यूडी सड़क बनाती है और उसके तुरंत बाद अजमेर विद्युत वितरण निगम या भारत दूरसंचार निगम उसे केबल डालने के लिए खोद डालता है। यह मुद्दा न जाने कितनी बार संभागीय आयुक्त व जिला कलेक्टर के सामने और अजमेर विकास प्राधिकरण की बैठकों में उठता रहा है। हर बार यही कहा जाता है कि अब तालमेल का अभाव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, मगर नतीजा ढ़ाक के तीन पात ही रहता है।
इसके अतिरिक्त ये भी पाया गया है कि जब जब अजमेर नगर सुधार न्यास, जो कि अब अजमेर विकास प्राधिकरण है, का मुखिया प्रशासनिक अधिकारी रहा है, विकास का काम ठप ही हुआ है। और जब भी जनता का कोई नुमाइंदा अध्यक्ष रहा है, उसने अपनी प्रतिष्ठा के लिए पूरी रुचि लेकर विकास के कार्य करवाए हैं। स्वाभाविक सी बात है कि सरकारी अधिकारियों की अजमेर के प्रति कोई रुचि नहीं होती, क्योंकि उन्हें तो केवल नौकरी करनी होती है और मात्र दो-तीन साल के लिए अजमेर आते हैं। ऐसे में यह जरूरी सा लगता है कि अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाए जाने के लिए जो अजमेर स्मार्ट सिटी कारपोरेशन लिमिटेड गठित होगा, उसका मुखिया जनता का ही कोई नुमाइंदा हो।
ज्ञातव्य है कि स्मार्ट सिटी योजना के तहत अब तक जयपुर व उदयपुर में कारपोरेशन बनाए गए हैं, जिनका जिम्मा अलग से नियुक्त सीईओ को दिया गया है। जयपुर की हालत ये है कि वहां एक साल में जा कर कंपनी गठित हुई, लेकिन धरातल पर काम ही शुरू नहीं हो पाए हैं। इसी प्रकार उदयपुर में भी कंपनी तो बनी है और रजिस्टर्ड भी हो गई है, लेकिन आठ माह में महज कुछ काम ही शुरू हो पाए हैं। समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस महत्वाकांक्षी योजना की रफ्तार कैसी है। कदाचित इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि अभी तक ठीक से गाइड लाइन तय नहीं हो पाई होगी और संबंधित अधिकारी भी अपनी ओर से कोई अतिरिक्त रुचि नहीं ले रहे होंगे। इसके अतिरिक्त भी इस महती योजना की ठीक से मॉनिटरिंग भी अधिकारियों की बजाय जनता का ऐसा नुमाइंदा कर सकता है या कर पाएगा, जो स्थानीय कठिनाइयों, जरूरतों और संभावनाओं को बेहतर जानता होगा। अधिकारियों के भरोसे काम किस प्रकार होते हैं, इसका अनुमान तो इसी बात से लग जाता है स्मार्ट सिटी के लिए सबसे पहले घोषित तीन शहरों में अजमेर का नाम शुमार होने के बाद भी उसकी औपचारिकता में कितनी लापरवाही बरती गई। ये तो मौजूदा कलेक्टर गौरव गोयल और नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत ने अतिरिक्त रुचि दिखाई, अन्यथा अजमेर का नाम ताजा सूची में भी नहीं आ पाता।
लब्बोलुआब, सरकार को नीतिगत निर्णय करते हुए स्मार्ट सिटी कारपोरेशनों को जनता के प्रतिनिधियों को सौंपना चाहिए और उसकी कमेटी में स्थानीय विशेषज्ञों के साथ संबंधित विभागों के जिम्मेदार अधिकारियों को सदस्य के रूप में शामिल करना चाहिए। तभी अपेक्षित परिणाम सामने आएंगे। नहीं तो इसका हाल वही होना है, जैसा अब स्लम फ्री सिटी, जेएनएनयूआरएम आवास योजना और सीवरेज लाइन योजना का हुआ है।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 3 सितंबर 2016

नहीं आई धर्मेन्द्र गहलोत की सफाई

हाल ही आनासागर चौपाटी पर निर्धारित ऊंचाई से बड़ी गणेश प्रतिमाओं पर ऐतराज जताने गए नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत पर एक संगीन आरोप ये लग रहा है कि एक गणेश प्रतिमा को उन्होंने स्वयं ने लात मार कर तोड़ा। बेशक इस बारे में प्रिंट मीडिया ने अपनी मर्यादा और रीति-नीति के तहत खबर छापी, मगर पूरे सोशल मीडिया पर उनकी जो छीछालेदर हुई है, वह बहुत ही शर्मनाक है। सच क्या है ये या तो वे जानते हैं और या फिर प्रत्यक्षदर्शी, मगर अफवाह तो यही फैली या फैलाई गई कि प्रतिमा को उन्होंने तोड़ा। हां, ये बात ठीक है कि इस प्रकार का आरोप प्रतिमा बनाने वाले लगा सकते हैं, लगाया भी है, क्योंकि जिसका नुकसान हुआ, वे मामले को संगीन बनाने के लिए कुछ भी आरोप लगा सकते हैं, मगर जिस प्रकार मूर्ति टूटने के बाद हिंदूवादी गुस्सा हो कर मौके पर आए, उससे ही माहौल गरमाया। और आग में घी डालने का काम किया नए जमाने के वाट्स एपी और फेसबुकिये पत्रकारों ने। बताने की जरूरत नहीं कि वाट्स ऐप और फेसबुक पर कुछ भी लिखने की आजादी है और लिखने के शौकीन, जिन्हें अखबारों में पत्रकार बनने का मौका नहीं मिला, वे जम कर भड़ास निकालने से नहीं चूकते। कुछ ने तो साफ तौर पर यही मान कर गहलोत की आलोचना की कि मूर्ति खुद उन्होंने ही तोड़ी। तोड़ी कि नहीं, इसका प्रमाण किसी के पास नहीं, मगर उन्हें तो मौका चाहिए था, इस कारण इसकी आड़ में हिंदूवादी भावनाएं भड़काने में कसर नहीं छोड़ी।
हो सकता है कि इस घटना से हिंदुओं की भावनाएं आहत हुई हों, सो कुछ ने समाज का प्रतिबिंब बनते हुए बड़ा ऐतराज उठाया कि अक्सर हिंदुओं के साथ ही ऐसा क्यों होता है? उनका ऐतराज था कि होली आती है तो कहते हैं कि पानी काम में मत लो, दीवाली आती है तो कहते हैं कि आतिशबाजी मत करो। इन नेताओं का बस चले तो हिंदुओं के सभी त्यौहारों पर रोक लगा दें। एक ने इस तर्क को खारिज करते हुए कि मूर्ति की कोई प्राणप्रतिष्ठा थोड़े ही हुई थी, प्रतितर्क दिया कि ये तर्क उस देश में दिया जा रहा है, जिस देश की संस्कृति में पत्थर पर सिन्दूर लगा कर उसे ही भैरव मान कर उसकी उपासना की जाती है। यहां की संस्कृति में कंकर को भी शंकर माना जाता है। एक के इस तर्क में दम था कि यदि मूर्ति को हटाना ही था तो और भी विकल्प हो सकते थे, सत्ता की मदहोशी का प्रदर्शन क्यों किया। एक का कहना था कि अगर यही कृत्य कोई गैर हिंदूवादी करता तो बवाल हो जाता, मगर चूंकि हिंदवादी नेता के हाथों हुआ, इस कारण कोई कुछ नहीं बोला। कुल जमा लिखने वालों का सारा जोर इस बात पर था कि यही नेतागण अब गणपति महोत्सव में जाकर उन्हीं गणपति की आरती उतार कर उनके भक्त बनने का स्वांग करते भी नजर आएंगे, क्योंकि उस वक्त इन्हीं नेताओं को गणपति के भक्तों में अपने वोट बैंक नजर आएंगे।
बहरहाल, जो कुछ हुआ, अच्छा नहीं हुआ। भले ही आधिकारिक रूप से किसी भी रिपोर्टिंग में यह बात सामने नहीं आई कि मूर्ति स्वयं गहलोत ने तोड़ी, मगर जिस प्रकार सोशल मीडिया पर उबाल नजर आया, उसे गहलोत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। ये कह कर भी बात को टाला जा सकता है कि सोशल मीडिया में कुछ भी आता रहता है, हर बात का जवाब देते फिरेंगे क्या, मगर जो अफवाह फैली, उसका निस्तारण होना ही चाहिए था। चाहे गहलोत की ओर से चाहे निगम की आधिकारिक विज्ञप्ति में कि मूर्ति कैसे खंडित हुई। अब ये तो गहलोत व निगम प्रशासन ही बेहतर समझ सकते हैं कि अफवाह का खंडन किया जाना चाहिए या नहीं, मगर जनमानस में ऐसी अपेक्षा रही कि वस्तुस्थिति सामने आनी चाहिए। गहलोत जैसे मुखर नेता से तो ये उम्मीद थी कि वे सीना तान कर पूछेंगे कि कौन कहता है कि मूर्ति उन्होंने तोड़ी, साबित करके दिखाएं, मगर वे इस मसले पर चुप्पी साध गए। कदाचित पद की गरिमा का मसला हो। या फिर स्पष्टीकरण देने की जरूरत ही नहीं समझी, क्योंकि उन्होंने इसे नोटिस में ही नहीं लिया। कोई बात नहीं। मगर जनमानस के सबकॉन्शस में जो चला गया, उसका परिणाम अभी नहीं बाद में उभर कर आ सकता है।
क्या आपको गाबदू गहलोत चाहिए?
इस मसले का एक पहलु और भी है। वो ये कि क्या ऐसे मामलों में गहलोत को स्वयं मौजूद रह कर कार्यवाही करवानी चाहिए? यह सवाल तब भी उठा था, जब पिछले कार्यकाल के दौरान उन्हें ठेले वालों को खुद हटाते देखा गया था। कुछ लोग ऐसी सीख दे रहे हैं कि गहलोत को ऐसे मामलों से बचना चाहिए। यह एक विचारणीय विषय हो सकता है। सवाल उठता है कि क्या आपको पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत जैसा अतिविनम्र गहलोत चाहिए, जो हर जगह हाथ जोड़ कर काम चला ले। ऐसे जनप्रतिनिधि अजमेर को क्या दे पाएं हैं, ये किसी से छिपा नहीं है। बेशक विवादित मसलों पर मेयर जैसे जनप्रतिनिधि का मौके पर होना उन्हें विवादित बना सकता है, मगर साथ ही इससे जनहित के मुद्दों के प्रति उसका जज्बा भी साफ नजर आता है। भूतपूर्व नगर परिषद सभापति स्वर्गीय श्री वीर कुमार का भी यही स्टाइल था। इतिहास के झरोखे से थोड़ा पीछे देखें। श्रीमती अदिति मेहता तो जिला कलेक्टर थीं, मगर अतिक्रमण हटाओ अभियान का नेतृत्व खुद कर रही थीं। आपको याद होगा कि अभियान के दौरान दरगाह इलाके में पत्थरबाजी के बाद भी टीम की हौसला अफजाई के लिए पालथी मार कर बैठ गई थीं। उनके कार्यकाल के परिणामों को आज भी याद किया जाता है। खैर, आप ही विचार कीजिए कि आपको गाबदू गहलोत चाहिए या फिर मुखर गहलोत?
-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, 29 अगस्त 2016

मारोठिया की जीत हेमंत भाटी के लिए एक बड़ी उपलब्धि

छात्र संघ चुनाव में एनएसयूआई को मिली सफलता से कांग्रेस को तो लाभ मिला है, वह जग जाहिर है, मगर विशेष रूप से पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय में अध्यक्ष पद पर हनीश मारोठिया की जीत से अजमेर दक्षिण के प्रबल संभावी प्रत्याशी हेमंत भाटी को बंपर लाभ होगा।
वस्तुत: मारोठिया माली समाज के जाने माने व्यवसायी परिवार से हैं और यह भी सब जानते हैं कि माली समाज आम तौर पर भाजपा की ओर रुझान रखता है। इसी का फायदा पिछले तीन चुनाव में महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल को मिलता रहा है। हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की वजह से या पारंपरिक रूप से माली समाज के कुछ लोग कांग्रेस से जुड़े हुए हैं, मगर अधिसंख्य माली भाजपा के खाते में ही गिने जाते हैं। सच तो ये है कि भाजपा के लिए माली समाज एक तगड़े वोट बैंक की तरह रहा है। श्रीमती भदेल को टिकट भले ही कोली वोट बैंक की वजह से मिलता है, मगर उनकी जीत होती माली व सिंधी वोटों से है।
जैसी कि जानकारी है, मारोठिया की उम्मीदवारी से लेकर जीतने तक माली समाज के प्रभावशाली लोगों का समूह हेमंत भाटी के संपर्क में रहा। जाहिर है उन्होंने टिकट दिलवाने से लेकर समर्थन की एवज में आगे चल कर समर्थन देने का वायदा किया ही होगा। इस लिहाज से भाटी ने चुनाव से काफी पहले ही भाजपा के वोट बैंक में सेंध मार दी है।  राजनीतिक क्षेत्रों में यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है। हनीश मारोठिया के जीतने से कांग्रेस का जनाधार बढऩे का सामान्य संकेत तो मिलता ही है, मगर उससे भी अधिक इस घटना का सीधा सीधा लाभ कांग्रेस के प्रबल संभावी उम्मीदवार हेमंत भाटी को ही मिलेगा।
-तेजवानी गिरधर
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बढ़ा विजय जैन का कद, मगर पड़ा रंग में भंग

विजय जैन
छात्र संघ चुनाव में एनएसयूआई को मिली सफलता से शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष विजय जैन का कद बढ़ा है, मगर साथ ही परिणाम वाले दिन पत्थरबाजी व लाठीचार्ज के चलते कांग्रेस में जो खुशी की लहर थी, उसके रंग में भंग पड़ गया है।
यूं तो आमतौर पर एनएसयूआई अपने स्तर पर ही चुनावी रणनीति बनाती रही है और कांग्रेस संगठन से फौरी मार्गदर्शन ही लेती है, मगर इस बार शहर कांग्रेस की भी सक्रियता के कारण जीत का श्रेय विजय जैन के खाते में भी गया है। चुनाव को लेकर कांग्रेस कितनी उत्साहित थी, इसका अनुमान इसी बात से लग जाता है कि लाठीचार्ज में कई कांग्रेसी नेता भी चोटिल हुए। स्वाभाविक सी बात है कि वे घटनास्थल पर मौजूद थे। हालांकि जैन जब अध्यक्ष बने थे तो उन्हें अपेक्षाकृत कम अनुभव का मान कर यह आशंका जताई जा रही थी कि क्या वे दिग्गज नेताओं की गुटबाजी के रहते इस बेड़े को चला भी पाएंगे या नहीं, मगर लगातार धरना-प्रदर्शन और आयोजनों में लगभग सभी बड़े नेताओं की भागीदारी और बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं की शिरकत से संगठन को गति मिली। जाहिर तौर पर इससे जैन को ठीक से स्थापित होने में सुविधा रही। एनएसयूआई के चुनाव में कामयाब होने से जैन का कद और बढ़ा है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि उनका असली वजूद शहर जिला कार्यकारिणी घोषित होने के बाद ही पता लग पाएगा कि वे कितनी मजबूती से संगठन को चला पाते हैं, मगर फिलवक्त तो यही लग रहा है कि वे सौभाग्यशाली हैं। एनएसयूआई की सफलता का जश्न और भी रंगीन होता, मगर परिणाम वाले दिन किसी शरारती तत्व के पत्थरबाजी करने और पुलिस ने अतिरिक्त जोश दिखाते हुए लाठीचार्ज करने से रंग में भंग पड़ गया।  कांग्रेस का यह आरोप कि लाठीचार्ज भाजपा नेताओं व सरकार की शह पर हुआ, अपनी जगह है, मगर निष्पक्ष राय रखने वालों का भी मानना है कि पुलिस ने अतिरिक्त बहादुरी इसी वजह से दिखाई कि उसे पता था कि सामने कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं। अगर दो-चार के हाथ पैर टूटे तो भी कुछ खास बात नहीं है। कांग्रेस ने ज्यादा ही विरोध जताया तो उसके कार्यकर्ताओं पर मुकदमे दर्ज करवा कर उन्हें दबा दिया जाएगा। लाठीचार्ज के बाद जिस प्रकार सोशल मीडिया पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं गुस्सा फूटा उससे लग रहा था विरोध प्रदर्शन तगड़ा होगा, मगर दूसरे ही दिन जन्माष्ठमी होने के कारण कांग्रेस ज्ञापन दे कर औपचारिक विरोध ही कर पाई। इसका दूसरा पक्ष ये भी है कि अगर कांग्रेस ज्यादा उग्र होती तो भी पुलिस व प्रशासन दमनात्मक कदम उठा सकते थे।
कुल मिला कर जीत की खुशी काफूर हो गई है। मगर दूसरी और ये भी तय है कि इन चुनावों ने भाजपा का जनाधार खिसकने के संकेत दे दिए हैं।  और यही वजह है कि यह आम धारणा बनने लगी है कि आगामी विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बड़ी चुनौती ले कर आएंगे। छात्रों अर्थात युवाओं का इस प्रकार का प्रदर्शन जाहिर करता है कि भाजपा की एबीवीपी के माध्यम से युवाओं पर जो पकड़ होनी चाहिए थी, वह कमजोर हुई है। इसको भाजपा ने कितनी गंभीरता से लिया, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा के नेता कह रहे हैं कि इस चुनाव में हार को जनाधार खिसकने से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, 23 अगस्त 2016

प्रकाश जेठरा जाएंगे अब राजनीति में?

कानाफूसी है कि कृषि विभाग से आगामी 31 अगस्त को सेवानिवृत्त होने जा रहे प्रकाश जेठरा अब राजनीतिक क्षेत्र में काम करना चाहते हैं। इस आशय की मंशा वे अपने कुछ मित्रों के समक्ष जाहिर भी कर चुके हैं।
ज्ञातव्य है कि जेठरा सरकारी नौकरी में रहते हुए सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं। वे अजमेर सिंधी सेंट्रल महासमिति के प्रचार सचिव पद पर काफी समय से हैं और चोरसियावास रोड स्थित झूलेलाल मंदिर कमेटी के प्रमुख कर्ताधर्ता हैं। अन्य कई संस्थाओं व मंदिर-दरबारों से भी जुड़े हुए हैं और कई संस्थाओं में मीडिया का काम भी देखते हैं। नौकरी के दौरान वे स्थानीय राजनीतिक गुटबाजी का शिकार भी हुए हैं, जिसके चलते उनका तबादला हुआ, मगर उन्होंने दूसरे गुट का सहारा लेकर तबादला रद्द करवा दिया। कदाचित इसी वजह से सेवानिवृत्ति के बाद स्वयं राजनीति में आना चाहते हैं। उनकी पकड़ विशेष रूप से वैशाली नगर में है। इसके अतिरिक्त वे सिंधी समाज का जाना पहचाना चेहरा हैं। समझा जाता है कि वे आगामी विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से भाजपा टिकट के लिए दावेदारी का मानस बना रहे हैं। वैसे जानकारी ये भी है कि वे बहुजन समाज पार्टी के संपर्क में भी हैं। ऐन चुनाव के वक्त क्या करेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता।

शनिवार, 13 अगस्त 2016

अपने गढ़ में ही है भाजपा की हालत खस्ता

जिले के आठ में से सात विधानसभा क्षेत्रों, लोकसभा सीट, जिला परिषद व नगर निगम पर काबिज भाजपा यूं तो बहुत मजबूत दिखाई देती है, है भी, मगर  मात्र ढ़ाई साल में ही उसका ग्राफ जिस तरह से गिरने लगा है, उससे प्रतीत होता है कि यहां भाजपा की जो भी पकड़ नजर आती है, वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की लोकप्रियता के कारण बनी, जिसे कि स्थानीय नेता संभाल नहीं पा रहे।
वस्तुत: इन नेताओं में आपसी तालमेल का कितना अभाव है, इसकी बानगी उस वक्त नजर आ गई, जब केन्द्र व राज्य में भाजपा का झंडा बुलंद होने के बाद भी नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में खुद प्रो. सांवरलाल जाट अपनी इस सीट से खड़ी हुई सरिता गेना को नहीं बचा पाए। ज्ञातव्य है कि वे यहां से विधायक और प्रदेश के केबीनेट मंत्री थे। उन्होंने ने बड़ी अनिच्छा के बाद इस सीट का मोह छोड़ लोकसभा का चुनाव लड़ा था। एक सांसद का अपने ही इलाके में पार्टी की साख न बचा पाना गंभीर संकेत था। चटकारे लेने वाले तो यहां तक कहते हैं कि खुद उनकी रुचि ही सरिता को जिताने में नहीं थी, क्योंकि अगर वे जीत जातीं तो इस सीट पर उनके पुत्र रामस्वरूप लांबा का भविष्य समाप्त हो जाता। समझा जा सकता है कि स्वार्थ के आगे पार्टी हित की क्या अहमियत है? वरना ऐसा हो नहीं सकता था कि उनके खुद के इलाके में ही पार्टी की भद पिट जाती। उनका कद पार्टी से कितना ऊंचा है, इसकी बानगी हाल ही पार्टी की फीडबैक बैठक के दौरान उनके समर्थकों द्वारा उन्हें मंत्रीमंडल से हटाए जाने के विरोध में जम कर हंगामा करने के दौरान मिली थी। अगर ये कहा जाए कि उनकी मथुरा तीन लोक से न्यारी है तो गलत नहीं होगा। वे जो कुछ हैं, अपने दम पर हैं, संगठन से उनका कोई खास वास्ता नहीं। यहां यह उल्लेख करना लाजिमी है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को वे फूटी आंख नहीं सुहाते, फिर भी वे वसुंधरा राजे की पसंद होने के कारण जिले व राज्य दिग्गज नेता हैं।
अब चर्चा करते हैं लगातार तीन बार दोनों विधानसभा सीटों पर भाजपा को जीत दिलाने वाले अजमेर शहर की, जिसमें पिछले दिनों हुए नगर निगम चुनाव ने पार्टी नेताओं की फूट को चौराहे पर ला खड़ा किया था। पार्टी एकजुट हो कर नहीं लड़ पाई। संगठन मूक दर्शक सा खड़ा था। अजमेर दक्षिण के वार्ड श्रीमती अनिता भदेल ने संभाले तो उत्तर के प्रो. वासुदेव देवनानी ने। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पूरे शहर के चुनाव न हो कर दो हिस्सों में बंटे इलाकों के चुनाव हो रहे थे। इतना ही नहीं, जिसका जितना बस चल रहा था, उसने उतना ही दूसरे के इलाके में भीतरघात की। नतीजा सामने आ गया। भाजपा के इस कथित गढ़ में बोर्ड बनाना ही कठिन हो गया। मेयर बनने को आतुर पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत कांग्रेस का समर्थन लेकर बागी हो गए। यद्यपि धर्मेन्द्र गहलोत विजयी घोषित हुए, मगर आरोपित रूप से गड़बड़ करके। शेखावत कोर्ट चले गए। संगठन की मर्यादाओं से इतर दो धुर विरोधियों की हठधर्मिता देखिए कि देवनानी ने सामान्य सीट पर फिर गहलोत के रूप में ओबीसी को मेयर बनवा दिया तो भदेल ने भी अपने चहेते, ओबीसी के संपत सांखला को डिप्टी मेयर पद पर आसीन करवा दिया। सामान्य वर्ग के नेता ठगे से रह गए। उनकी कुंठा आगे चल कर कुछ गुल खिला सकती है। पार्टी को एक बड़ा नुकसान ये हुआ कि उसने सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे शेखावत को खो दिया। संभवत: वे आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी का एक बड़ा सिरदर्द साबित हो जाएं।
बात ताजा घटनाक्रम की करते हैं। केन्द्र व राज्य में बहुमत वाली सरकारों के होते हुए पंचायती राज उपचुनाव में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। एकजुटता का अभाव समझने के लिए इतना ही काफी है कि स्थानीय नेता इस चुनाव को मैनेज नहीं कर पाए। या तो सत्ता के नशे में चूर नेताओं ने लापरवाही बनती, या फिर उनकी रुचि ही नहीं थी।
हालांकि उपचुनाव और अगर वे विशेष रूप से पंचायतीराज व स्थानीय निकाय के हों, तो उसके नतीजे किसी पार्टी को पूरी तरह से नकार दिए जाने अथवा किसी को नवाजने का सीधा-सीधा संकेत तो नहीं देते, मगर वे ये इशारा तो करते ही हैं कि राजनीतिक बयार कैसी बह रही है या बहने जा रही है। इसे साफ तौर पर भले ही आम जनादेश की संज्ञा नहीं दी जा सकती, मगर इतना तय है कि सत्तारूढ़ भाजपा को आम जनता ने खतरे की घंटी तो सुना ही दी है। यद्यपि विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं, मगर ये छोटे व स्थानीय चुनाव अनाज की बोरी में लगाए जाने वाली परखी की तरह हैं, जो बयां कर रही है कि वर्तमान में भाजपा की हालत क्या है?
अजमेर के विशेष संदर्भ में बात करें तो भाजपा के लिए यह हार इस कारण सोचनीय है क्योंकि जिले के 8 में से 7 विधायक भाजपा के हैं। इनमें से दो राज्यमंत्री व एक संसदीय सचिव हैं। जिला परिषद और स्थानीय निकाय में भी भाजपा का कब्जा है। भाजपा के लिए यह शर्मनाक इस वजह से भी हो गया है, क्योंकि उसने सत्तारूढ होने के हथकंडे इस्तेमाल करके भी पराजय का मुंह देखा। इन चुनावों पर कदाचित ज्यादा गौर नहीं किया जाता, मगर भाजपा ने खुद ही मंत्रियों व विधायकों से लेकर नगर पालिका अध्यक्षों आदि को जोत कर इसे प्रतिष्ठा का प्रश्र बना दिया। रही सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी, जो कि आजकल कुछ ज्यादा ही संवदेनशील हो गई है। यह संवेदना इस वजह से है कि भाजपा ने जिस सुराज का सपना दिखा कर आम जन का जबदस्त समर्थन हासिल किया, वह सपना धरातल पर कहीं उतरता नजर नहीं आया। इस चुनाव ने साफ कर दिया है कि अच्छे दिन के नारे यदि धरातल पर नहीं उतरे तो जनता पलटी भी खिलाना जानती है।
इन उपचुनावों ने देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत सहित कुछ अन्य भाजपा नेताओं को मुंह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा है, क्योंकि चंद दिन बाद ही 15 अगस्त को अजमेर में आयोज्य राज्य स्तरीय स्वतंत्रता दिवस समारोह में मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे आने वाली हैं। कभी सफल सदस्यता अभियान चला कर भाजपा हाईकमान के चहेते बने प्रो. बी. पी. सारस्वत को दुबारा देहात जिला अध्यक्ष बनाया ही इसलिए गया था कि उनसे बेहतर संगठनकर्ता नहीं मिल रहा था, मगर ताजा चुनाव परिणाम ने उनकी कलई खोल दी है। हालांकि पार्टी प्रत्याशियों की हार के अनेक स्थानीय कारण हैं, मगर चूंकि उनके नेतृत्व में रणनीति बनी, इस कारण हार की जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते। अब तो ये भी गिना जा रहा है कि नसीराबाद विधानसभा क्षेत्र में आने वाली 9 ग्राम पंचायतों को मिला कर बनाये गए जिला परिषद के वार्ड नंबर 5 में सारस्वत का गांव बिड़कच्यावस भी आता है, लेकिन उनके गांव में भी भाजपा को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। इस चुनाव से जिला प्रमुख वंदना नोगिया को महज आभूषणात्मक जिला प्रमुख साबित कर दिया है, जिनकी धरातल पर कोई पकड़ नहीं है। उनके अतिरिक्त पुष्कर विधायक सुरेश रावत व किशनगढ़ विधायक भागीरथ चौधरी पर भी हार की जिम्मेदारी आयद होती है। हार की एक वजह जाटों की बेरुखी भी बताई जा रही है, जो कि अजमेर के सांसद प्रो. सांवरलाल जाट को केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाए जाने से नाराज हैं।
असल में अजमेर जिले में पार्टी संगठन का ढ़ांचा कुछ खास मजबूत नहीं है। धरातल पर जरूर पार्टी समर्थक दमदार हैं, मगर उन्हें एक सूत्र में बांधने वाला कोई नहीं है। कुछ साफ तौर पर गुटों में बंटे हैं तो तटस्थ कार्यकर्ताओं की स्थिति पैंडुलम सी है। अगर ये कहें कि संगठन तो नाम मात्र का है, चंद नेता अपने-अपने हिसाब से पार्टी कार्यकर्ताओं को हांक रहे है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यूं तो मोटे तौर पर पार्टी कई गुटों में बंटी हुई है, मगर बड़ी गुटबाजी शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी और महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल के बीच है। हालांकि वरिष्ठ नेता और राजस्थान पुरा धरोहर प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत स्थानीय पचड़ों से दूर हैं, मगर जयपुर में बैठ कर देवनानी की कब्र खोदते रहते हैं। श्रीमती भदेल के गॉड फादर वे ही हैं। अजमेर के खाते में गिने जाने वाले राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र यादव का कद इतना ऊंचा है कि उनको कोई छू भी नहीं सकता। वे स्थानीय चंद नेताओं पर वरदहस्त रखे हुए हैं। स्थानीय मसलों में कुछ खास दखल नहीं करते।
कुल मिला कर इससे समझा जा सकता है कि शहर जिला अध्यक्ष अरविंद यादव और देहात जिला अध्यक्ष प्रो. भगवती प्रसाद सारस्वत कितनी कमजोर स्थिति में हैं। दोनों संगठन के प्रमुख तो हैं, मगर उनका बड़े नेताओं पर कोई जोर नहीं चलता। अजमेर देहात में कई क्षत्रप हैं तो अजमेर शहर में पार्टी दो हिस्सों में विभाजित है।
पिछले पंद्रह साल से संगठन की हालत ये ही है। न तो पूर्व अध्यक्ष व पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत की कोई सुनता था और न ही अजमेर विकास प्राधिकरण के मौजूदा अध्यक्ष शिव शंकर हेड़ा के शहर अध्यक्ष होने के दौरान उनकी कुछ खास अहमियत रही। नगर निकाय के चुनाव में केवल और केवल देवनानी व भदेल की ही चलती आई है। अगर ये कहा जाए कि इन दोनों का जब से अभ्युदय हुआ है, तब से संगठन नाम मात्र का रह गया है तो गलत नहीं होगा। संयोग से दोनों लगातार तीन बार जीत गए, मगर पार्टी कार्यकर्ता इतना पीडि़त है कि उसे बयां करना मुश्किल है। केडर बेस पार्टी की ये हालत वाकई अजीबोगरीब है।

-तेजवानी गिरधर
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सबसे बेहतर साबित हो सकता है महाराणा प्रताप स्मारक

पुष्कर घाटी में नौसर माता मंदिर के पास लोकार्पण को तैयार महाराणा प्रताप स्मारक अजमेर में अब तक स्थापित सभी स्मारकों से बेहतर साबित हो सकता है। इसकी एक मात्र वजह है इसकी लोकेशन। इसके सामने  दिन-रात तीर्थराज पुष्कर व अजमेर के बीच की आवाजाही रहती है। इस रूट का जुड़ाव मेड़ता व नागौर और उनसे जुड़े जोधपुर व बीकानेर मार्गों से भी है। स्मारक पर खड़े हो कर अजमेर शहर और आनासागर का सुंदर नजारा दिखाई देता है। इसकी एप्रोच भी अन्य स्मारकों की तुलना में बेहतर है। यदि अजमेर विकास प्राधिकरण ने ठीक से इसका विकास किया और बेहतर सुविधाएं जुटाईं तो यह स्मारक सबसे ज्यादा पर्यटकों को आकर्षित कर सकता है। इसका शिलान्यास तत्कालीन न्यास सदर धर्मेश जैन के कार्यकाल में हुआ था। बीच में पांच साल कांग्रेस सरकार के दौरान किसी ने इसकी खैर खबर नहीं ली। अब भाजपा राज में इसका निर्माण पूरा किया गया है और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इसका लोकार्पण करने वाली हैं। इस बीच इस स्मारक को जिंदा रखने के लिए जैन साल में एक बार यहां आयोजन करते रहे। बन जाने के बाद इसे लोकप्रिय करने के लिए शायद जैन ही प्रयास करें। हालांकि महाराणा प्रताप भी एक बड़ी शख्सियत रहे, मगर यह इसकी लोकेशन की वजह से ज्यादा सजीव रहेगा, जिसकी सोच का श्रेय जैन को जाता है।
अन्य स्मारकों की चर्चा करें तो उनमें सबसे महत्वपूर्ण है तारागढ़ मार्ग के बीच स्थापित अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान स्मारक। ऐतिहासिक दृष्टि से यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अजमेर के इतिहास से इसका सीधा संबंध है। इसी वजह से आने वाले समय में भी इसका महत्व बना रहेगा। यह विकसित भी ठीक से किया गया है। इसका श्रेय सीधे तौर पर अजमेर नगर सुधार न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष औंकार सिंह लखातव को जाता है, जिनकी कल्पना, कड़ी मेहनत और लगन से यह निर्मित हुआ। उनके ही प्रयासों से हर साल यहां बड़े-बड़े आयोजन होते हैं। यह लखावत के न्यास अध्यक्ष के कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि है। मगर अफसोस कि इस पर पर्यटक का पैर नहीं पड़ता। अधिकतर पर्यटक तारागढ़ स्थित मीरा साहब की दरगाह की जियारत करने को आने वाले होते हैं, जिनकी इसमें कोई खास रुचि नहीं होती। अजमेर के शहर वासी तो यदा कदा ही वहां जाते हैं।
लखावत की ही एक और सौगात है हरिभाऊ उपाध्याय नगर विस्तार स्थित दाहरसेन स्मारक। अजमेर में बड़ी तादात में बसे सिंधी समुदाय के सम्मान के लिए काफी बड़े क्षेत्र में यह बनाया गया, मगर सच्चाई ये है कि अस्सी प्रतिशत सिंधियों ने इसे देखने की जहमत नहीं उठाई है। और उसकी एक मात्र वजह ये रही कि अधिसंख्य सिंधियों को पता ही नहीं कि महाराजा दाहरसेन कौन थे? चंद साहित्यकारों को जरूर पता था कि वे सिंधुपति महाराजा थे। उनके नाम पर स्मारक बनाना लखावत की एक बड़ी सोच का परिणाम है। वहां लगातार हर साल जयंती व पुण्यतिथी पर दो बार बड़े आयोजन करवा कर उन्होंने इसे सुपरिचित तो कर दिया है, मगर आज भी इसका भ्रमण करने वाले नगण्य हैं। इर्द गिर्द बसे कुछ निवासी जरूर मॉर्निंग और ईवनिंग वॉक के लिए आते हैं। और कुछ महिलाएं स्मारक परिसर में स्थित मंदिर में पूजा अर्चना करने आती हैं। कुल मिला कर जितनी मेहनत करके लखावत ने इसको बनवाया, उसका एक प्रतिशत भी अजमेर वासी इसका लाभ नहीं उठाते। इसे अजमेर वासियों की फितरत समझ लीजिए।
एक स्मारक है पंचशील इलाके में। नाम है वीरांगना झलकारी बाई स्मारक। वहां से लोहागल, जनाना अस्पताल और जयपुर का रास्ता खुलता है। यहां भी पर्यटक नहीं आता। साल में एक बार जरूर कोली समाज के लोग यहां एकत्रित होते हैं। न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष धर्मेश जैन ने अजमेर दक्षिण में बड़ी तादात में रहने वाले कोली समुदाय के सम्मान की खातिर किया, मगर इतनी दूर है कि वे यहां पहुंच ही नहीं पाते। जैन के ही कार्यकाल में कोटड़ा स्थित पत्रकार कॉलोनी में विवेकानंद स्मारक का निर्माण शुरू हुआ। यह भी काफी सुरम्य होगा, मगर पर्यटकों को कितना आकर्षित करेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। जब डॉ. श्रीगोपाल बाहेती न्यास सदर थे, तब उन्होंने राजवी उद्यान व अशोक उद्यान बनवाये, मगर वे भी दूर होने के कारण आबाद नहीं हो पाए।
कुल मिला कर सभी स्मारकों में दर्शकों के सर्वाधिक दीदार महाराणा प्रताप स्मारक को हो सकते हैं, मगर उसके लिए जैन को ही अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। वरना अजमेर के लोग कितने टायर्ड और रिटायर्ड हैं, सबको पता है।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 10 अगस्त 2016

सपना साकार होने जा रहा है धर्मेश जैन का

धर्मेश जैन
अजमेर नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन का सपना साकार होने जा रहा है। आगामी 15 अगस्त को उनके कार्यकाल में शिलान्यासित महाराणा प्रताप स्मारक का राज्य की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे लोकार्पण करेंगी। जाहिर है वे बेहद खुश होंगे। मगर साथ ही इस बात का मलाल भी कि यही काम उनके कार्यकाल में नहीं हो पाया। एक फर्जी सीडी के चक्कर में बिना मामले की पूरी तहकीकात किए तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने खुद को साफ सुथरा जताने के लिए उनका इस्तीफा ले लिया और जैन का कार्यकाल पूरा नहीं हो पाया। बाद में कांग्रेस सरकार के दौरान उनका क्लीन चिट भी मिल गई, इस कारण उन्हें उम्मीद थी कि भाजपा सरकार उन्हें फिर मौका देगी, मगर इस बार समीकरण कुछ और थे और शिवशंकर हेडा अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष बन गए।
यहां कहने की आवश्कता नहीं है कि कांग्रेस के राज में इस प्रस्तावित स्मारक की किसी ने सुध नहीं ली। तत्कालीन न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत भाजपा राज में शिलान्यासित स्मारक को बनवाने के पचड़े में पडऩा नहीं चाहते थे और राज्य सरकार को भला क्या पड़ी कि वह इसमें रुचि लेती। जब भाजपा सरकार दुबारा आई तो उम्मीद जगी कि अब स्मारक जरूर बनेगा, मगर जिला कलेक्टर व पदेन अध्यक्षों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। एक बार तो लगा कि शायद ये स्मारक बन ही नहीं पाएगा, मगर जैसे ही प्राधिकरण के अध्यक्ष पद पर राजनीतिक नियुक्ति हुई तो हेडा पर दबाव रहा कि वे इस स्मारक का काम पूरा करवाएं। वैसे भी यह स्मारक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा की अकबर महान की तुलना में महाराणा प्रताप को राष्ट्रीय प्रतीक व प्रेरणा स्रोत बनाने की मंशा को पूरा करता है। इसके अतिरिक्त हेडा पर ये भी दबाव रहा कि वे पूर्व भाजपा सरकार के दौरान बनी योजना को पूरा करवाएं, ताकि किरकिरी न हो। जैन ने भी पीछा नहीं छोड़ा। वे भी महाराणा प्रताप जयंती मनाने के बहाने स्मारक को जिंदा किए रहे।
बहरहाल, जिस प्रकार महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किए, ठीक उसी प्रकार उनकी प्रतिमा को भी यहां स्थापित होने के लिए ग्वालियर से अजमेर आने तक नौ साल का सफर पूरा करना पड़ा। एक दिलचस्प बात देखिए कि जैन के कार्यकाल में सिंधुपति महाराजा दाहरसेन और वीरांगना झलकारी की प्रतिमा तो स्थापित हो गई, मगर जिस महाराणा प्रताप की प्रतिमा में उनकी अधिक रुचि थी, उसकी स्थापना से पहले ही उनका कार्यकाल अधूरा छूट गया। यह वही प्रतिमा है, जो जैन के कार्यकाल में बनी थी। इसके लिए उन्होंने न्यास की एक टीम ग्वालियर भेजी थी। प्रतिमा का घोड़ा महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की तरह हष्ट पुष्ट हो, इसके लिए उन्होंने उसे दुरुस्त भी करवाया था। प्रतिमा जब यहां लाई गई तो महाराणा प्रताप की प्रतिमा की टांग टूट जाने का विवाद उठा, मगर बाद में यह स्पष्ट हुआ कि वह तो जूता था, जो कि यहीं पर असेंबल होना था।
बहरहाल, अब जब कि जैन का सपना साकार होने जा रहा है मन ही मन मुग्ध होंगे ही। हों भी क्यों न। वे भी तो मेवाड़ के पुत्र हैं। मगर साथ ही ऐतराज भी कि जैसा स्वरूप उन्होंने सोचा था, उसमें काफी तब्दीली कर दी गई है, वरना इसकी खूबसूरती कुछ और ही होती। मगर क्या हो सकता है। वे सुझाव मात्र दे सकते हैं। होगा वही, जो हेडा चाहेंगे। बावजूद इसके इस स्मारक पर जैन की ही छाप रहेगी, भले ही हेडा इसे पूरा करवा रहे हों। समझा जाता है कि जिस प्रकार न्यास के पूर्व अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत अपने कार्यकाल में बने पृथ्वीराज स्मारक और महाराजा दाहरसेन स्मारक को पुजवाते हैं, वे भी कोई न कोई समारोह-वमारोह करवाते रहेंगे, ताकि जब तक यह स्मारक रहे, उनका नाम भी अमर रहे।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 7 अगस्त 2016

जनता ने सुनाई भाजपा को खतरे की घंटी

हालांकि उपचुनाव और अगर वे विशेष रूप से पंचायतीराज व स्थानीय निकाय के हों, तो उसके नतीजे किसी पार्टी को पूरी तरह से नकार दिए जाने अथवा किसी को नवाजने का सीधा-सीधा संकेत तो नहीं देते, मगर वे ये इशारा तो करते ही हैं कि प्रदेश में राजनीतिक बयार कैसी बह रही है या बहने जा रही है। प्रदेश के सातों संभागों के सत्रह जिलों में 37 सीटों पर हुए पंचायती राज और नगर निकायों के उपचुनाव में कांग्रेस का 19 सीटों और भाजपा का मात्र 10 सीटों पर जीतना यही दर्शाता है कि जहां कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव में हुई करारी हार से उबरने लगी है, वहीं केन्द्र व राज्य में प्रचंड बहुमत से जीती भाजपा का ग्राफ गिरने लगा है। इसे साफ तौर पर भले ही आम जनादेश की संज्ञा नहीं दी जा सकती, मगर इतना तय है कि सत्तारूढ़ भाजपा को आम जनता ने खतरे की घंटी तो सुना ही दी है। यद्यपि विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं, मगर ये छोटे व स्थानीय चुनाव अनाज की बोरी में लगाए जाने वाली परखी की तरह हैं, जो बयां कर रही है कि वर्तमान में भाजपा की हालत क्या है?
अजमेर के विशेष संदर्भ में बात करें तो भाजपा के लिए यह हार इस कारण सोचनीय है क्योंकि जिले के 8 में से 7 विधायक भाजपा के हैं। इनमें से दो राज्यमंत्री व एक संसदीय सचिव हैं। जिला परिषद और स्थानीय निकाय में भी भाजपा का कब्जा है। भाजपा के लिए यह शर्मनाक इस वजह से भी हो गया है, क्योंकि उसने उसने सत्तारूढ होने के हथकंडे इस्तेमाल करके भी पराजय का मुंह देखा। इन चुनावों पर कदाचित ज्यादा गौर नहीं किया जाता, मगर भाजपा ने खुद ही मंत्रियों व विधायकों से लेकर नगर पालिका अध्यक्षों आदि को जोत कर इसे प्रतिष्ठा का प्रश्र बना दिया। रही सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी, जो कि आजकल कुछ ज्यादा ही संवदेनशील हो गई है। यह संवेदना इस वजह से है कि भाजपा ने जिस सुराज का सपना दिखा कर आम जन का जबदस्त समर्थन हासिल किया, वह सपना धरातल पर कहीं उतरता नजर नहीं आया। इस चुनाव ने साफ कर दिया है कि अच्छे दिन के नारे यदि धरातल पर नहीं उतरे तो जनता पलटी भी खिलाना जानती है।
इन उपचुनावों ने देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत सहित कुछ अन्य भाजपा नेताओं को मुंह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा है, क्योंकि महज एक हफ्ते बाद ही 15 अगस्त को अजमेर में आयोजित राज्य स्तरीय स्वतंत्रता दिवस समारोह में मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे आने वाली हैं। कभी सफल सदस्यता अभियान चला कर भाजपा हाईकमान के चहेते बने प्रो. बी. पी. सारस्वत को दुबारा देहात जिला अध्यक्ष बनाया ही इसलिए गया था कि उनसे बेहतर संगठनकर्ता नहीं मिल रहा था, मगर ताजा चुनाव परिणाम ने उनकी माइनस मार्किंग कर दी है। हालांकि पार्टी प्रत्याशियों की हार के अनेक स्थानीय कारण हैं, मगर चूंकि उनके नेतृत्व में रणनीति बनी, इस कारण हार की जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते। अब तो ये भी गिना जा रहा है कि नसीराबाद विधानसभा क्षेत्र में आने वाली 9 ग्राम पंचायतों को मिला कर बनाये गए जिला परिषद के वार्ड नंबर 5 में सारस्वत का गांव बिड़कच्यावस भी आता है, लेकिन उनके गांव में भी भाजपा को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। इस चुनाव से जिला प्रमुख वंदना नोगिया को महज आभूषणात्मक जिला प्रमुख साबित कर दिया है, जिनकी धरातल पर कोई पकड़ नहीं है। उनके अतिरिक्त पुष्कर विधायक सुरेश रावत व किशनगढ़ विधायक भागीरथ चौधरी पर भी हार की जिम्मेदारी आयद होती है। हार की एक वजह जाटों की बेरुखी भी बताई जा रही है, जो कि अजमेर के सांसद प्रो. सांवरलाल जाट को केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाए जाने से नाराज हैं।
बात कांग्रेस की करें तो उसके इसलिए सुखद क्योंकि वह बहुत सशक्त नहीं रही, फिर भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के नेतृत्व में फिर से खड़े होने की कोशिश कर रही है। इस जीत को पायलट की लोकप्रियता और रणनीति से जोड़ा जा रहा है, मगर स्थानीय स्तर पर नए नवेले देहात जिला अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह राठौड़ के कंघे पर जीत का तमगा लग गया है। उन्होंने पूर्व विधायक श्रीमती नसीम अख्तर व उनके पति इंसाफ अली और पूर्व विधायक नाथूराम सिनोदिया से तालमेल बैठा कर नियुक्ति के बाद पहली परीक्षा पास कर ली है, लिहाजा उन लोगों के मुंह बंद हो गए हैं, जो कि राठौड़ की नियुक्ति से असहमत थे। स्वाभाविक रूप से राठौड़ अब पायलट के और करीब हो जाएंगे।
कुल मिला कर मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आगमन से चंद दिन पहले भाजपा नेताओं के चेहरे बुझ गए हैं और कांग्रेसी बहुत उत्साहित हैं व इसे आगामी विधानसभा चुनाव में जीत की किरण के रूप में देख रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

राजेश टंडन ने क्यों खोला अशोक गहलोत के खिलाफ मोर्चा?

राजेश टंडन
सदैव किसी न किसी बहाने सुर्खियों में रहने वाले वरिष्ठ एडवोकेट व कांग्रेस नेता राजेश टंडन ने अचानक पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को बाकायदा पत्र लिख कर गहलोत को राजस्थान की राजनीति से हटाने की मांग तक कर डाली है, ताकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट को काम करने में सुविधा रहे। इतना ही नहीं, उन्होंने मौजूदा मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से गहलोत की तुलना करते हुए उनके बीच हाथ मिलाने का रिश्ता होने तक जिक्र किया है, जो कि गहलोत पर एक गंभीर आरोप के समान है। इसे अगर एक राजनीतिक फलझड़ी न समझा जाए तो बेहद विस्फोटक बम के समान है। एक वरिष्ठ कांग्रेसी का अपनी ही पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री पर गंभीर आरोप लगाना कोई सामान्य बात तो नहीं। उन्होंने अपने पत्र की कॉपी फेसबुक व वाट्स ऐप पर भी शाया की है। हालांकि पत्र में लिखी गईं बातें तर्कसंगत प्रतीत होती हैं, मगर साथ ही इसके पीछे उनके किसी साइलेंट एजेंडे की भी गंध आती है। जाहिर तौर पर इससे शांत से प्रतीत होते तालाब में पत्थर फैंकने से उठने वाली तरंगों की माफिक कुछ तो खलबली होगी ही।
दरअसल टंडन कभी कोई काम बेमकसद नहीं करते। कदाचित पायलट में राजस्थान का भविष्य तलाशते हुए उनसे नजदीकी हासिल करना चाहते हों। या फिर खुद को सुर्खियों में रखने का पुराना शगल। इसके लिए गहलोत को ही निशाना बना डाला। अब ये फैंका गया पत्थर दूर तक जाएगा या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। मगर लोगों को तो जुगाली करने का मौका मिल ही जाएगा। हालांकि हमले का टारगेट गहलोत हैं, मगर एक ही तीर से दूसरा निशाना वसुंधरा पर भी लग ही रहा है। टंडन की नजर इतनी तेज है कि वे हॉट केक को तलाश ही लेते हैं। मौजूदा मुद्दा भी सुर्खियों वाला ही है। हाल ही गहलोत अजमेर से गुजरे हैं। उनकी आवभगत के लिए पायलट खेमे के कम ही लोगों के पहुंचने की खासी चर्चा है। गहलोत व पायलट के बीच कितना फासला है, कुछ कह नहीं सकते, मगर मीडिया और विशेष रूप से गहलोत के समर्थकों ने ऐसा माहौल बना रखा है कि मानो कांग्रेस इन दोनों नेताओं के बीच विभाजित है। स्वाभाविक रूप से कुछ कट्टर समर्थक हैं तो कई को सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस से मतलब है। उनके लिए दोनों ही नेता स्वीकार्य हैं। एक ओर जहां गहलोत के दो बार मुख्यमंत्री रह चुकने के कारण उनके साथ अनेक उपकृत लोगों की जमात है तो दूसरी ओर पायलट के ऊर्जावान और तेज-तर्रार होने के कारण लोग उनमें कांग्रेस का भविष्य देखते हैं। अब यह तो कांग्रेस आलाकमान पर निर्भर करता है कि वह क्या सोचता है? क्या करता है?
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000




सोमवार, 1 अगस्त 2016

क्या जिला कलेक्टर गोयल यूं ही काम करते रहेंगे?

जिला कलेक्टर गौरव गोयल का आगाज अच्छा था। जैसे ही अजमेर आए, तुरंत जरूरी मसलों पर त्वरित निर्णय करने लगे। अभी कुछ और करते इतने में राज्य स्तरीय स्वाधीनता समारोह की तैयारी में जुट गए। बेशक वे जिस तरीके से अजमेर को संवारने में लगे हैं, वह तारीफ ए काबिल है, मगर अभी से अजमेर वासियों में मन में एक सवाल उठने लगा है कि क्या 15 अगस्त के बाद भी इसी गति को बरकरार रखेंगे?
असल में यह सवाल इस कारण कौंधता है क्योंकि अजमेर के नागरिकों एक लंबे अरसे बाद ऐसा जिला कलेक्टर मिला है, जिसमें ऊर्जा के साथ काम करने का जज्बा भी है। उनकी पहली झलक के साथ ही सभी में उनसे अत्यधिक आशाएं जाग गई हैं। ऐसा सामान्य मानव व्यवहार है। जो मनुष्य लंबे समय से भूखा हो, उसे अगर रोटी नसीब हो जाए तो फिर वह अच्छी रोटी की भी उम्मीद भी पाल लेता है। इसी के चलते जहां कुछ लोगों को अजमेर का कायाकल्प होने की आशा है तो कुछ लोगों को संदेह है कि जैसी अजमेर की राजनीति है, उसके चलते क्या स्थानीय राजनीतिज्ञ उन्हें फ्री हैंड काम करने देंगे? क्या वे उनके काम में टांग तो नहीं अड़ाएंगे?
इन सवालों से हट कर बात करें तो सच्चाई ये है कि कलेक्टर गोयल ने आते ही अजमेर को स्मार्ट सिटी के रूप में चयनित करवाने के लिए जो खाका तैयार किया था, उसमें फिलहाल रुकावट आई है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्र्माट सिटी की दिशा में कदम उठाने के लिए अजमेर शहर को स्लग देने की जो प्रतियोगिताएं आयोजित की गईं, उनके परिणाम अभी तक नहीं आए हैं। इसके अतिरिक्त भी जो काम वे करना चाहते थे, उनसे ध्यान हटा कर पूरा ध्यान आगामी 15 अगस्त को होने वाले राज्य स्तरीय स्वाधीनता दिवस समारोह की तैयारी में लगा दिया है। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा के इस दौरान दो या तीन दिन अजमेर में रहने के कार्यक्रम के कारण स्वाभाविक रूप से पूरा कंसन्ट्रेशन उन्हीं को लेकर है। कोई और जिला कलेक्टर भी होता तो मुख्यमंत्री की शाबाशी पाने के लिए ऐसा ही करता। जिला प्रशासन ने वसुंधरा के आगमन की तैयारी का अभियान आनन फानन में तोबड़तोड तरीके आरंभ किया है। जिन मार्गों से मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को गुजरना है, उनको दुरुस्त करने का काम युद्ध स्तर पर किया जा रहा है। इसमें कोई दोराय नहीं कि मुख्यमंत्री के अजमेर आने के बहाने मार्गों को पोल लेस करने, जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के सामने वर्षों से हो रखे स्थाई अतिक्रमण को हटाने, सड़कों के नए सिरे से डामरीकरण करने का काम बेहद सराहनीय है। इसमें जिला कलेक्टर गौरव गोयल पूरी लगन से कर रहे हैं, मगर निर्णय करने की जितनी उनकी रफ्तार है, उस रफ्तार से काम होना मुश्किल है। विशेष रूप से बारिश के मौसम में कितनी कठिनाई आ रही है, ये तो इस काम में जुटे लोग ही बेहतर जानते हैं। धरातल की सच्चाई यही है, मगर मुख्यमंत्री के डर से सारे विभाग मजबूरी में जी जान से जुटे हुए हैं। अब तो जिला कलेक्टर भी समझ चुके होंगे कि समय कम है और जिस तरह से काम किया जा रहा है, वह ज्यादा टिकने वाला नहीं है। ऐसे में यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि कहीं पिछले राज्य स्तरीय गणतंत्र दिवस समारोह की तरह इस बार भी लीपापोती की कलई जल्द ही खुल न जाए। एक सवाल ये भी कि मुख्यमंत्री के अजमेर को गंदा कहने के बाद जिस तरह से सफाई अभियान शुरू हुआ है, आवारा पशुओं को पकडऩे  पर जोर दिया जा रहा है, क्या वह बाद में भी इसी गति से जारी रहेगा। या फिर यह मुख्यमंत्री को मुंह दिखाई रस्म की तरह रह जाएगा।
कुल मिला कर उत्साह से लबरेज कलेक्टर गोयल पर सभी की नजरें हैं कि क्या 15 अगस्त के बाद भी वे इसी उत्साह से काम करेंगे और पूरे अजमेर को सुधारने पर ध्यान देंगे।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 27 जुलाई 2016

Pratibha Samman only me 24 7 16 2016

tejwani girdhar 17 7 2016

डॉ. बाहेती की अब भी सक्रियता के मायने?

लगातार दो बार विधानसभा चुनाव हारने के बाद हालांकि पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को तीसरी बार भी अजमेर उत्तर से टिकट मिलने की संभावना न्यून है, बावजूद इसके उनकी लगातार सक्रियता जाहिर करती है कि उनमें कांग्रेस के प्रति काम करने का जज्बा अब भी मौजूद है। यूं चुनावी राजनीति में कोई फार्मूला अंतिम नहीं होता। रामबाबू शुभम को लगातार दो बार हारने के बाद भी तीसरी बार टिकट दिया गया, तो भला डॉ. बाहेती हताश क्यों हों? मगर अजमेर उत्तर का मसला अलग है। यदि इस सीट को लेकर सिंधी-गैर सिंधी का विवाद नहीं होता तो डॉ. बाहेती तीसरी बार भी उम्मीद कर सकते थे, क्योंकि कांग्रेस के पास उनसे बढिय़ा गैर सिंधी चेहरा नहीं है। लेकिन उनके लगातार दो बार हारने की वजह ही सिंधी-गैर सिंधीवाद रहा, इस कारण समझा यही जाता है कि इस बार कांग्रेस फिर किसी गैर सिंधी को टिकट देने की गलती नहीं करेगी। ऐसे में डॉ. बाहेती के लिए उम्मीद कम ही है। हां, वे फिर पुष्कर कर रुख कर सकते हैं, जहां से वे एक बार विधायक रहे हैं, मगर वहां उनके ही शागिर्द इंसाफ अली की पत्नी नसीम अख्तर इंसाफ एक बार विधायक और राज्य मंत्री बनने के बाद मैदान पर लगातार डटी हुई हैं। उनको टिकट सिर्फ उसी परिस्थिति में नहीं मिलेगा, अगर कांग्रेस ने मसूदा से किसी मुस्लिम को टिकट दे दिया।
बहरहाल, डॉ. बाहेती की सक्रियता की एक वजह ये भी हो सकती है कि उनके आका पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की लॉबी अब भी मैदान में खम ठोक कर खड़ी है, तो भला डॉ. बाहेती निराश क्यों हों? राजनीति में संभावनाओं की सीमा कहीं समाप्त नहीं होती। अगर अशोक गहलोत प्रभाव में रहे और सरकार कांग्रेस की बनी तो अपने कृपापात्र को भूलेंगे थोड़े ही।
ज्ञातव्य है कि शहर कांग्रेस अध्यक्ष विजय जैन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की पसंद से बने हैं। स्वाभाविक रूप से पायलट लॉबी का दबदबा है। फिर भी डॉ. बाहेती कांग्रेस के हर कार्यक्रम में मौजूद रहते हैं। चूंकि अजमेर में वे ही मिनी गहलोत हैं, इस कारण उनकी सक्रियता से गहलोत समर्थकों में भी जोश बरकरार है। यूं भले ही सभी कांग्रेसी एकजुट दिखाने का प्रयास करते हैं, मगर सोशल मीडिया पर उनके बीच की दीवारें साफ देखी जा सकती हैं। अशोक गहलोत के नाम से बने फेसबुक अकाउंट्स पर उनकी तारीफों के पुल बांधने वाले कई समर्थक हर वक्त डटे रहते हैं।
खैर, कुल मिला कर डॉ. बाहेती की सक्रियता खास मायने रखती है। वह कांग्रेस और भाजपा की कल्चर में अंतर की ओर भी इशारा करती है। ये कांग्रेस ही है, जहां व्यक्ति भी कुछ मायने रखता है, वरना भाजपा में देखिए, पांच बार सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत, पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा, पूर्व विधायक नवलराय बच्चानी और हरीश झामनानी सरीखों की क्या कद्र है? एक ओर जहां रावत व सोनगरा के पुत्रों को संगठन में स्थान दे कर संतुष्ट किया गया है, वहीं झामनानी व बच्चानी सामाजिक कार्यों में सक्रिय रह कर अपना वजूद बचाए हुए हैं। हालांकि उनका उपयोग चुनाव के वक्त तो किया जाता है, लेकिन बाद में उनकी कोई खास पूछ नहीं होती। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि कांग्रेस अमूमन व्यक्तित्व पर दाव खेलती है, जबकि भाजपा व्यक्ति पर। इस कारण जैसे ही व्यक्ति पर से पार्टी का साया हटता है, वह फिर से व्यक्ति बन जाता है। शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी और महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल भाजपा द्वारा व्यक्तियों पर हाथ रखने का सटीक उदाहरण है, जिनकी चवन्नी अभी रुपए में चल रही है। आगे की भगवान जाने।
-तेजवानी गिरधर
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अपनी सरकार रहते मुंह खोलने के लिए धर्मेश जैन जैसा जिगर चाहिए

तत्कालीन नगर सुधार न्यास (यूआईटी) अजमेर के अध्यक्ष रहे धर्मेश जैन ने अपनी ही सरकार के मनोनीत एडीए अध्यक्ष शिवशंकर हेड़ा के फैसलों पर सवाल उठा कर सबको चौंका दिया है। उनके सवाल में जितना दम है, उससे कहीं अधिक दम है उनके अपनी ही सरकार के खिलाफ बोलने की हिम्मत दिखाने में। जिस सवाल को उठाने की अपेक्षा कांग्रेस से थी, उसे अगर कोई प्रतिष्ठित और सूझबूझ वाला भाजपा नेता उठाएगा तो जाहिर है उसमें कुछ तो माद्दा होगा ही। यहां यह चुटकी लेने का मन हो रहा है कि कोई अजमेर का जाया होता तो शायद नहीं बोलता, मगर चूंकि जैन मेवाड़ और महाराणा प्रताप की धरती के जाये हैं, इस कारण इतनी हिम्मत दिखा रहे हैं। वरना इलायची बाई की गद्दी के विख्यात अजमेर वालों का मिजाज कैसा है, सब जानते हैं।
ज्ञातव्य है कि जैन ने एडीए की दीपक नगर योजना को डिनोटिफाइड करने के हेड़ा के फैसले को गलत बताते हुए कहा कि अफसर हेड़ा को गुमराह कर रहे हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने ये तक कहा कि डिनोटिफाइड होने में अधिकारी नियमन के नाम पर भ्रष्टाचार का उद्योग चलाते हैं। यदि किसी का नियमन करना है तो कर दो। उनके कार्यकाल में भी इस योजना के डिनोटिफाइड करने का अधिकारियों ने प्लान बनाया था। एक भूखंड के नियमन के लिए 10 आईएएस अधिकारियों के फोन आए लेकिन उन्होंने उनके मंसूबे कामयाब नहीं होने दिए। जो अधिकारी इसे डिनोटिफाइड करवाना चाहते हैं, उनका खुद का स्वार्थ है। उनकी खुद की इस योजना में जमीनें तथा बंगले हैं। योजना के डिनोटिफाइड होने से अजमेर-जयपुर सड़क को सिक्सलेन करने में बाधा आएगी और इसके लिए जमीन कैसे अवाप्त होगी। जैन ने कहा कि वे एडीए अध्यक्ष शिवशंकर हेड़ा पर वे कोई आरोप नहीं लगा रहे हैं, लेकिन योजना समाप्त होने के कारणों की जांच होनी चाहिए। उन अफसरों को भी चिह्नित किया जाना चाहिए, जिनकी इस क्षेत्र में जमीन हैं।
समझा जा सकता है कि जैन की दलील में कितना दम है। इतनी बारीकी से एडीए बाबत बात करने वाले संभवत: जैन इकलौते नेता हैं, जिन्होंने पद पर रहते हुए और न रहते हुए भी गहराई से अध्ययन किया है। अब ये सरकार को देखना है कि वह अपने ही नेता की ओर से उठाए गए भ्रष्टाचार के मुद्दे पर क्या रुख अपनाती है।
जैन को इस बात का भी बहुत दु:ख है कि महाराणा प्रताप स्मारक पर हो रहे काम के बारे में उनसे राय ही नहीं ली गई। उल्लेखनीय है कि यह स्मारक बनाने का निर्णय और शिलान्यास जैन के कार्यकाल में हुआ था, मगर एक फर्जी सीडी सामने आने के चक्कर में उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा था। बाद में वह सीडी फर्जी भी साबित हो गई। उनका ऐतराज है कि स्मारक के शिलान्यास का पत्थर हटा दिया गया है। स्मारक के अंदर की सड़क बना दी है। दर्शक दीर्घा का पता नहीं है। पार्किंग की जगह ठीक नहीं है।
हालांकि जैन के मुंह खोलने के समय को लेकर मीडिया ने यह सवाल उठाया कि दोनों मामलों में उन्होंने तुरंत राय क्यों जाहिर नहीं की। मीडिया मानता है कि चूंकि उनके बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के दूसरे दिन अजमेर में पांच मंत्री आने वाले थे और वे चाहते थे कि यह गरमागरम मामला मुख्यमंत्री तक पहुंच जाए। कदाचित ये सही भी हो, मगर जैन ने जो सवाल उठाया है, उसका जवाब इतना नहीं होता, जो कि हेड़ा ने दिया है:- दीपक नगर योजना 25 साल पुरानी है। इसकी 90 फीसदी जमीन हिंदुस्तान जिंक के पास है। दस प्रतिशत में योजना कैसे लागू होगी। अब तक अवार्ड का भुगतान ही किया गया है। सरकारी जमीन पर कार्यालय बन गए है। उपयोगिता नजर नहीं आ रही है। हमने तो प्रस्ताव भेजा है। सरकार उचित समझे तो निरस्त करें।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, 26 जुलाई 2016

हरीश हिंगोरानी अब करेंगे खुल कर दावेदारी

कर्मचारी नेता रहे हरीश हिंगोरानी इस बार अजमेर उत्तर सीट के लिए कांग्रेस की टिकट की खातिर खुल कर दावेदारी करेंगे। वे जल्द ही सेवानिवृत्त होने वाले हैं। हालांकि इससे पहले भी दावेदारी कर चुके हैं, मगर तब सरकारी नौकरी उनके लिए तनिक बाधा बन जाती थी।
यहां आपको बता दें कि हिंगोरानी एक बार टिकट के बिलकुल करीब पहुंच गए थे, मगर तब नरेन शहाणी टिकट ले आए। बाद के दो चुनाव में भी उन्होंने पूरी कोशिश की मगर, दोनों बार पूर्व पुष्कर विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती बाजी मार गए। इस बार चूंकि किसी सिंधी को ही टिकट दिए जाने की संभावना है और साथ ही वे रिटायर भी हो रहे हैं, इस कारण पूरी ताकत लगा देने वाले हैं। हिंगोरानी की कर्मचारी वर्ग में अच्छी पकड़ है। इसके अतिरिक्त सिंधी समाज की गतिविधियों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। उनकी स्वयं की एक संस्था हर साल सिंधी वैवाहिक परिचय सम्मेलन आयोजित करती है।

संगठन में स्थापित हुए कमल बाकोलिया

अजमेर नगर निगम के पूर्व मेयर कमल बाकोलिया लंबे इंतजार के बाद संगठन में स्थापित हो गए हैं। उन्हें प्रदेश कांग्रेस के अनुसूचित जाति विभाग का संभाग प्रभारी बनाया गया है। हालांकि बाकोलिया की इच्छा थी कि मेयर पद का कार्यकाल समाप्त होने के बाद उन्हें शहर जिला कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाए और इसके लिए उन्होंने अपनी कोशिशों में कोई कमी भी नहीं रखी, मगर जातीय समीकरण के तहत वैश्य वर्ग के विजय जैन को अध्यक्ष बनाया गया। प्रदेश कांग्रेस में पहले से ही अनुसूचित जाति के अन्य दिग्गज स्थापित थे, ऐसे में उन्हें अनुसूचित जाति विभाग में एडजस्ट किया गया है। हालांकि यह कांग्रेस का अग्रिम संगठन है, मगर वे चाहें तो इस जिम्मेदारी के बहाने अपने पांव पसार सकते हैं और चुनावी राजनीति में फिर संभावना तलाश सकते हैं।
ज्ञातव्य है कि मेयर का चुनाव जीतने से पहले उनकी संगठन में कोई भूमिका नहीं रही और उपयुक्त उम्मीदवार होने के नाते उन्हें मौका मिला। एक बार मेयर पद पर रहने के बाद उनके लिए यह जरूरी था कि विपक्ष में रहते संगठन की कोई जिम्मेदारी लें और आगे सक्रिय राजनीति के लिए अपने आपको सुरक्षित रखें। फिलहाल उन्हें यह जिम्मेदारी मिली है, देखते हैं वे कितनी सक्रियता दिखा पाते हैं।

सोमवार, 25 जुलाई 2016

क्या रामचंद्र चौधरी ने भाजपा ज्वाइन कर ली है?

हाल ही संगठन व सरकार के कार्यों की समीक्षा सहित जिलों की बूथ समितियों के सम्मेलन सम्पन्न करवा कर बूथ इकाइयों के सुदृढ़ीकरण के लिए अजमेर आये मंत्रियों व प्रदेश पदाधिकारियों के समूह की मौजूदगी में हुई एक बैठक में देहात जिला कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष व अजमेर डेयरी के अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी को देख कर भाजपाई चौंक गए। सभी की जुबान पर एक ही सवाल था कि क्या चौधरी ने भाजपा ज्वाइन कर ली है? और की है तो कब, क्योंकि अब तक तो इस आशय की जानकारी कभी सार्वजनिक रूप से सामने आई नहीं है।
ज्ञातव्य है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट से नाइत्तफाकी के चलते पिछले लोकसभा चुनाव में चौधरी ने कांग्रेस छोड़ कर पायलट की जम कर खिलाफत की। इतना ही नहीं उन्होंने भाजपा की एक सभा में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की मौजूदगी में मंच पर रह कर शिरकत भी की, हालांकि उन्होंने तब भी भाजपा ज्वाइन नहीं की थी। इस कारण सभी को यही जानकारी थी कि वे भाजपा में नहीं आए हैं। यदि गुपचुप भाजपा की सदस्यता का फार्म भर भी दिया हो तो किसी को इसकी जानकारी नहीं है। ऐसे में चौधरी का भाजपा की बैठक में मौजूद रहना चौंकाने वाला ही था। यहां बता दें कि इस बैठक में सिर्फ पहली पंक्ति के नेताओं को ही आने की इजाजत थी। निचले स्तर के भाजपा पदाधिकारी भी इसमें नहीं बैठ पाए थे। ऐसी बैठक में चौधरी की मौजूदगी ने उनके भाजपा में शामिल हो जाने संबंधी सवाल पैदा किया है।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 23 जुलाई 2016

गुबार निकालने का मौका दिया, ताकि ठंडे पड़ जाएं

कानाफूसी है कि सत्ता और संगठन में तालमेल की खातिर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने जो फीड बैक लेने की कवायद की है, वह कार्यकर्ताओं का गुबार निकालने को ही की गई है, ताकि वे अपना गुस्सा निकाल कर शांत हो जाएं।
असल में भाजपा आलाकमान अपने कार्यकर्ता का मिजाज बखूबी जानता है। उसे पता है कि उसके कार्यकर्ता को विरोध की कितनी बढिय़ा ट्रेनिंग दे रखी है। अब जब कि केन्द्र व राज्य दोनों जगह भाजपा की ही सरकार है और कुल मिला कर परफोरमेंस आशा के अनुरूप नहीं है तो कार्यकर्ता उबल ही रहा होगा। उसके साथ परेशानी ये है कि वो सार्वजनिक रूप से विरोध प्रदर्शन भी नहीं कर सकता। कांग्रेस की सरकार होती तो अब तक आसमान सिर पर उठा लेता, मगर खुद की ही सरकार के खिलाफ बेचारा क्या बोले। और ये जो भीतर दम तोड़ती भड़ास है वह किसी दिन विस्फोट का रूप ले सकती है, लिहाजा उसे जानबूझ कर ऐसा मंच दिया गया ताकि वह अपनी भड़ास निकाल सके। भड़ास निकाल कर वह तनिक शांत हो जाएगा। उसे यही सुकून काफी राहत देगा कि उसने अमुक मंत्री-नेता के सामने खूब खरी खोटी सुनाई। उसके बाद कुछ हो या नहीं, मगर कम से कम भड़ास तो निकल गई। पार्टी के कर्ताधर्ता भी जानते हैं कि कार्यकर्ता रो धो कर बैठ जाएगा, लिहाजा बड़े ही संयम से उन्होंने कार्यकर्ता की बात सुनी और चिर परिचित अंदाज में आश्वासन भी दे दिया। इस कवायद का एक फायदा ये भी रहा कि कौन अनुशासित मूक बधिर और कौन ज्यादा उछल रहा है, ताकि उसी के अनुरूप आगे उसके साथ बर्ताव किया जाए। रहा सवाल मीडिया का तो उसे छापने का मसाला मिल गया। बाकी होना जाना क्या है, सब जानते हैं। होना वही ढ़ाक के तीन पात है।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 21 जुलाई 2016

जाट किसी की कृपा से नहीं, अपने दमखम से नेता बने हैं

भाजपा के बूथ स्तरीय सम्मेलन में जिस प्रकार निवर्तमान केन्द्रीय जलदाय राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट के समर्थकों ने हंगामा किया, वो इस बात का पक्का सबूत है कि प्रो. जाट भाजपा में किसी की कृपा से नेता नहीं बने हैं, बल्कि अपने दमखम और जनाधार की वजह से मंत्री स्तर पर पहुंचे थे। प्रो. जाट के समर्थकों ने जैसा हंगामा किया, वह भाजपा और संघ की अनुशासन प्रिय रीति-नीति से कत्तई मेल नहीं खाता, फिर भी अगर प्रदेश के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य मंत्री राजेन्द्र सिंह राठौड़ को कहना पड़े कि जाट भाजपा के सम्मानित नेता हैं, उन जैसे नेताओं के कारण ही भाजपा सत्ता में है तो समझा जा सकता है कि कथित रूप से बीमारी के कारण से प्रो. जाट को मंत्रीमंडल से हटाए जाने के बाद राज्य की भाजपा इकाई और मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को कैसे सांप सूंघा हुआ है। कदाचित इसी वजह से ये खबरें आईं हैं कि प्रो. जाट के सम्मान को बरकरार रखने के लिए किसी आयोग में मंत्री के समकक्ष अध्यक्ष सौंपने पर विचार किया जा रहा है।
प्रो. जाट की जमीन पर कितनी पकड़ है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके समर्थक अजमेर में होने वाले राज्य स्तरीय स्वतंत्रता दिवस समारोह के बहिष्कार की धमकी देने की जुर्रत कर रहे हैं। यह कोई छोटी मोटी बात नहीं। यह जातीय एकजुटता का प्रमाण है, जिसके आगे हर राजनीतिक दल को झुकना ही होता है। प्रो. जाट केवल भाजपा के दम पर नहीं हैं, बल्कि उनकी अपने समर्थकों की लंबी चौड़ी फौज है, जो कि प्रो. जाट के केन्द्र व राज्य में मंत्री रहते उपकृत हो चुकी है। हालांकि संघ ने उन्हें कभी पसंद नहीं किया, मगर वे इसी कारण भाजपा में अपना वजूद रखते हैं, क्योंकि वे अपने दम पर ही परंपरागत रूप से कांग्रेस विचारधारा के रहे जाट समुदाय को भाजपा में लेकर आए। मेरी नजर में अजमेर में वे एक मात्र ऐसे नेता हैं, जो इस प्रकार हाईकमान से आंख से आंख मिला कर बात कर सकते हैं, वरना बाकी के तो मात्र पार्टी टिकट की वजह से जीतते हैं और मंत्री भी मुख्यमंत्री की कृपा से ही बनते हैं। उनके साथ वसु मैडम किस अंदाज में बात करती हैं, ये या तो वसु मैडम ही जानती हैं, या फिर वे खुद अथवा वहां मौजूद चंद व्यक्ति।
वस्तुत: पिछले परिसीमन के बाद अजमेर लोकसभा क्षेत्र जाट बहुल हो गया है। चूंकि भाजपा के पास प्रो. जाट से ज्यादा ताकतवर जाट नेता नहीं था, इसी कारण पिछले लोकसभा चुनाव में उनको मैदान में उतारा और वह प्रयोग सफल रहा। हालांकि उनकी राज्य में जलदाय मंत्री पद छोड़ कर केन्द्र में जाने की कत्तई इच्छा नहीं थी, मगर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और भाजपा हाईकमान के दबाव में पार्टी हित के कारण चुनाव लडऩा पड़ा। जीतने के बाद उन्हें केन्द्र में राज्य मंत्री के पद से नवाजा गया, मगर दो साल पूरे होते ही स्वास्थ्य कारणों के चलते हटाया गया है तो स्वाभाविक रूप से प्रो. जाट के समर्थक नाराज हैं। यही वजह है कि राज्य की भाजपा इकाई को चिंता सता रही है कि प्रो. जाट को कैसे राजी किया जाए। राज्य में एक विभाग का केबीनेट मंत्री पद भले चंगे संभाल रहे नेता को उसकी इच्छा के विपरीत केन्द्र में भेजा गया और दो साल में अदद सांसद की हैसियत में ला कर खड़ा कर दिया गया तो वसुंधरा पर भी अब ये दबाव है कि वे उन्हें कहीं ने कहीं एडजस्ट करें।
-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

हरफनमौला पत्रकार हैं राजेन्द्र याज्ञिक

तीर्थराज पुष्कर की सौंधी खुशबू में उपजे दैनिक नवज्योति के वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र याज्ञिक 27 साल की नौकरी के बाद सेवानिवृत्त हो गए। उल्लेखनीय बात ये कि उनकी पूरी पत्रकारिता बेदाग रही। कभी किसी विवाद में नहीं फंसे। मेरे साथ उन्होंने आधुनिक राजस्थान में काम किया। उसके बाद नवज्योति चले गए। उस जमाने में दैनिक नवज्योति में काम करना बहुत प्रतिष्ठापूर्ण माना जाता था। हर पत्रकार का सपना होता था कि वह नवज्योति में प्रवेश करे। अजमेर से राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर के संस्करण प्रकाशित होने के बाद विकल्प बढ़ गए। खैर, जिस समय उन्होंने दैनिक नवज्योति में प्रवेश किया, उस वक्त बड़ी जांच परख कर रखा जाता था। यूं अजमेर में अच्छे पत्रकारों जननी के रूप में दैनिक न्याय प्रतिष्ठित है, मगर यहां की पत्रकारिता को दिशा देने में दैनिक नवज्योति का अहम स्थान है।
खुशमिजाज याज्ञिक ठंडे दिमाग के मालिक हैं, इस कारण उनका कभी किसी से विवाद नहीं रहा। गुस्से में तो मैने उन्हें कभी देखा ही नहीं। न तो वे कभी किसी प्रपंच में फंसे, न ही पत्रकारों की राजनीति में उलझे। उनमें कितनी ऊर्जा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे जब पुष्कर में रहते थे, तब सुबह अजमेर आ जाते और देर रात लौटते। असल में उन्होंने पत्रकारिता का बहुत डूब कर आनंद लिया है। यदि ये कहा जाए कि पत्रकारिता को उन्होंने महज नौकरी न मान कर जीवन समझ कर जिया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। विशेष बात ये है कि अन्य विभागों के साथ उन्होंने लंबे समय तक क्राइम रिपोर्टिंग भी जम कर की है। जबकि बहुधा ऐसा होता है कि क्राइम रिपोर्टर टाइप्ड हो जाता है। उनके पास जो भी विभाग बीट के रूप में था, उसकी उन्होंने पूरी मास्टरी की। क्या मजाल कि विभाग में पत्ता भी हिले और उन्हें पता न लगे। उन्होंने कई खबरें ऐसी भी लिखीं, जिसकी तह तक जाना किसी और पत्रकार के लिए संभव नहीं था। सीआईडी की खबरों पर भी उनकी सबसे ज्यादा पकड़ रही। सांस्कृतिक खबरें भी बहुत रोचक ढंग से लिखीं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वे अजमेर के पहले ऐसे पत्रकार हैं, जिनकी दरगाह से जुड़े मसलों पर जबरदस्त पकड़ रही है। हालांकि उनके बाद दैनिक भास्कर के चीफ रिपोर्टर सुरेश कासलीवाल ने भी अपनी पकड़ साबित की है।
याज्ञिक अजमेर जिले के संभवत: ऐसे पहले पत्रकार हैं, जिनको उत्कृष्ठ पत्रकारिता के लिए जिला प्रशासन ने सबसे पहले सम्मानित किया। उस सम्मान का महत्व इस वजह से माना जा सकता है, क्योंकि वह खालिस योग्यता के आधार पर दिया गया। आपसी प्रतिस्पद्र्धा के चलते अन्य समाचार पत्रों के पत्रकारों ने ऐतराज किया तो उसके बाद प्रशासन ने पत्रकारों की राजनीति से बचने के लिए किसी भी पत्रकार को स्वाधीनता दिवस व गणतंत्र दिवस पर सम्मानित करने पर अघोषित रोक ही लगा दी। उनके सम्मान के बाद तकरीबन 20 साल तक किसी भी पत्रकार को सम्मानित नहीं किया गया। बाद में यह परंपरा तब टूटी, जब मेरा नंबर आया, हालांकि उसमें पेच ये रहा कि मुझे पत्रकारिता के लिए नहीं, बल्कि अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक के लिए सम्मानित किया गया। तत्कालीन कलैक्टर मंजू राजपाल पहले तो केवल इसी कारण सम्मानित करने को तैयार नहीं थीं कि मैं पत्रकार हूं। जब उनको अधीनस्थ अधिकारियों ने समझाया कि मेरा प्रस्ताव अजमेर के इतिहास पर पुस्तक लिखने की उपलब्धि की वजह से है, तब जा क
र वे राजी हुईं। खैर, उसके बाद तो पत्रकारों को सम्मानित करने का सिलसिला शुरू हो गया है। अब तो हालत ये है कि तीनों बड़े समाचार पत्रों को संतुष्ट करने के लिए हर एक के किसी एक पत्रकार को सम्मानित किया जाने लगा है।
बहरहाल, जैसा कि दैनिक नवज्योति के स्थानीय संपादक ओम माथुर ने अपने आलेख में लिखा है कि सेवानिवृत्ति के बाद भी पत्रकारिता में उनके जलवे हम देखते रहेंगे, अजमेर वासियों के लिए सुखद बात है। मैं उनकी लेखनी अनवरत जारी रहने और लंबी उम्र की कामना करता हूं।
-तेजवानी गिरधर
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नाम चाहे कितने ही पहुंचें, कार्यकारिणी तो पायलट ही फाइनल करेंगे

हालांकि पहले ये समझा जा रहा था कि शहर जिला कांग्रेस कमेटी की नई कार्यकारिणी सितंबर के बाद ही घोषित हो पाएगी, मगर प्रदेश के प्रभारी गुरुदास कामथ के निर्देश के बाद कमेटी के गठन की कवायद यकायक तेज हो गई है। जाहिर है कि कार्यकारिणी में अपना नाम जुड़वाने के इच्छुक दावेदारों में भी भारी हलचल है। हर कोई अपने आका के जरिए अपना नाम जुड़वाने की जुगाड़ कर रहा है।
समझा जाता है कि तकरीबन ढ़ाई सौ कार्यकर्ता हैं, जो कि कार्यकारिणी में आना चाहते हैं। कार्यकर्ताओं की इतनी संख्या इस कारण हो गई है क्योंकि पूर्व विधायकों से भी नाम सुझाने को कहा गया है।  हालांकि प्रदेश हाईकमान ने ऐसा सबको साथ लेकर चलने के मकसद से किया है, मगर निचले स्तर पर कई गुटों में बंटे कार्यकर्ताओं में सिर फुटव्वल की स्थिति पैदा हो गई है। ज्यादा खलबली उन कार्यकर्ताओं में है, जो कि प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट से नाइत्तफाकी रखने वाले पूर्व विधायकों से दूर रह कर अपने आपको सीधे पायलट खेमे से जोड़ कर चल रहे थे। उन्हें लग रहा है कि यदि पायलट विरोधी पूर्व विधायकों के चहेतों के नाम भी जोड़े जाएंगे, तो फिर उनकी लंबी वफादारी का क्या होगा?
स्वाभाविक रूप से शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष विजय जैन सशंकित हैं कि कहीं उन कार्यकर्ताओं के नाम न मंजूर हो जाएं, जो गुटबाजी के चलते उनसे दूरी बना कर चल रहे थे। जब से वे अध्यक्ष बने हैं, यूं तो कई कार्यकर्ताओं ने पार्टी कार्यक्रमों में शिरकत की है, मगर उनमें से कुछ उनके बेहद करीब आने में कामयाब हो गए। जाहिर सी बात है कि वे जैन के साथ कंघे से कंघा मिला कर इसीलिए चल रहे थे क्योंकि उन्हें कार्यकारिणी में लिए जाने की उम्मीद थी। जैसे ही पूर्व विधायकों से भी नाम मांगे गए और उन्होंने दे दिए तो जैन के करीबी कार्यकर्ताओं में शंका उत्पन्न हो गई। अब वे सीधे जयपुर जा कर जुगाड़ कर रहे हैं। वैसे जैन ये भलीभांति जानते थे कि वे भले ही अध्यक्ष बन गए हों, मगर कार्यकारिणी पर आखिरी मुहर प्रदेश अध्यक्ष ही लगाएंगे। कार्यकारिणी को आखिरी रूप देने के दौरान पूरी छानबीन की जाएगी। पूरी कार्यकारिणी जैन की पसंद की होगी, इसका गुमान उन्हें भी नहीं था। ऐसे में उनकी कोशिश इतनी रहेगी कि उन कार्यकर्ताओं के नाम जरूर जुड़वाएं, जो कि उनके साथ एक जुट हो कर चल रहे हैं और आगे भी चलेंगे।
वैसे उम्मीद यही की जा रही है कि कार्यकारिणी संतुलित होगी और उसमें सभी गुटों को स्थान मिलेगा। आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस के लिए ये जरूरी भी है। अब देखने वाली बात ये है कि पायलट से नाइत्तफाकी रखने वाले नेताओं के कितने चहेते कार्यकारिणी में स्थान हासिल कर पाते हैं। बाकी इतना तय है कि कार्यकारिणी का एक एक नाम पायलट की जानकारी से गुजरेगा। अपना चुनाव क्षेत्र होने के कारण वे इसमें तनिक भी लापरवाही नहीं करेंगे।

बुधवार, 13 जुलाई 2016

क्या सांवरलाल जाट को राजस्थान किसान आयोग का अध्यक्ष बनाया जा रहा है?

हाल ही केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाए गए प्रो. सांवरलाल जाट को राजस्थान किसान आयोग का अध्यक्ष बनाया जा सकता है। इस आशय का समाचार सोशल मीडिया पर चल रहा है। इस समाचार में कितना दम है, मगर इतना तय है कि कहीं न कहीं प्रो. जाट को केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाए जाने के बाद जाटों, विशेष रूप से अजमेर जिले के जाटों की नाराजगी से मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे व भाजपा हाईकमान चिंतित हैं। यही वजह है कि प्रो. जाट को फिर से किसी बड़े पद पर स्थापित किए जाने पर विचार किया जा सकता है। हालांकि प्रो. जाट के स्थान पर नागौर जिले के सांसद सी. आर. चौधरी का समायोजन कर जाटों को राजी करने की कोशिश जरूर की गई है, मगर उसका लाभ अजमेर जिले में होता नहीं दिखाई देता। अजमेर व नागौर के जाट में मौलिक फर्क है।
असल में आजादी के बाद लंबे समय तक जाट समुदाय का रुझान कांग्रेस की ओर रहा है, मगर प्रो. जाट संभवत: पहले ऐसे नेता हैं, जिन्होंने अजमेर जिले के जाटों को भाजपा के साथ जोड़ा। बेशक यहां के जाटों पर उनकी पकड़ जातिवाद के नाते ही है, मगर खुद उनकी भी निजी पैठ इस समाज में है। जब वे भाजपा में आए, उस वक्त तक भी नागौर जिले के जाट कांग्रेस के साथ थे। बाद में जा कर वहां भी भाजपा की बयार आई। कुल मिला कर चौधरी को मंत्री बनाए जाने से अजमेर के जाटों पर कोई असर नहीं पड़ा है। वे अपने नेता के मंत्री पद से हटाए जाने से बहुत आहत हैं। उन्हें अफसोस है कि वे अच्छे भले राजस्थान में जलदाय विभाग का केबीनेट मंत्री पद ले कर बैठे थे और उनकी राष्ट्रीय राजनीति में जाने की कोई इच्छा नहीं थी, फिर भी केवल और केवल कांग्रेस के दिग्गज सचिन पायलट को हराने के लिए उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़ाया गया। चलो, केन्द्र सरकार में राज्य मंत्री पद दे कर उनका कद बरकरार रखा गया, मगर दो साल बाद ही हटा दिया गया। अब वे अदद सांसद रह गए हैं, जो कि न तो प्रो. जाट को गवारा है और न ही उनके समर्थकों की फौज को। और ये फौज ऐसे ही नहीं बनी है। प्रो जाट ने सैकडों समर्थकों को निहाल किया है, जिनकी सात पीढी भी उनका अहसान नहीं चुका पाएगी। यदि ये कहा जाए कि जाट नागौर जिले के बाबा नाथूराम मिर्धा शैली के नेता हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। समझा जाता है कि अजमेर के जाटों की नाराजगी को देखते हुए ही प्रो. जाट को मंत्री जैसे किसी सुविधा युक्त पद पर बैठाने का रास्ता निकाला जा रहा है।
रहा सवाल वसुंधरा राजे के साथ प्रो. जाट की ट्यूनिंग का तो यह सर्वविदित है कि उन्हें वसुंधरा का संकट मोचक हनुमान माना जाता था। कई गंभीर मसलों में वे उनके साथ कंघे से कंघा मिला कर खड़े रहे। हालांकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कभी प्रो. जाट और उनकी जीवन शैली को पसंद नहीं करता, मगर फिर भी वसुंधरा ने उन्हें अपने दरबार में अहम जिम्मेदारी दे रखी थी। अपने पहले कार्यकाल में भी मंत्री बनाया और दूसरे में भी। अब जब वे लौट कर अजमेर आ गए हैं तो वसुंधरा पर ही जिम्मेदारी आ गई है कि कैसे उनका पुनर्वास किया जाए। यहां यह बिलकुल स्पष्ट है कि यदि प्रो. जाट अदद सांसद रह कर कमजोर होते हैं तो जाटों पर उनकी पकड़ कमजोर पड़ जाएगी। ऐसे में जाट बहुल अजमेर लोकसभा क्षेत्र में एक बड़ा वोट बैंक खिसकने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा, जो कि रणनीतिक रूप से भाजपा के लिए कत्तई मुफीद नहीं रहेगा। सोशल मीडिया पर चल रही खबर कितनी सही है, पता नहीं, मगर तार्किक रूप से बात गले उतरती तो है। इसमें एक संभावना ये भी हो सकती है कि खराब स्वास्थ्य के चलते यदि प्रो. जाट स्वयं ही खुद की बजाय अपने पुत्र को आगे करते हैं तो उसको भी तवज्जो दी जाएगी।
-तेजवानी गिरधर
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