मंगलवार, 18 जनवरी 2011

सुरजीत को हटाने के तुरंत बाद क्यों नहीं दिए थे इस्तीफे

शहर महिला कांग्रेस की कार्यकारिणी ने अब जा कर सामूहिक इस्तीफा देते हुए शहर अध्यक्ष सुरजीत कपूर को हटाने का विरोध दर्ज करवाया है। और उससे भी मजेदार बात ये है कि उन्होंने सुरजीत को बिना जांच-पड़ताल के पद से हटाने की वजह बताते हुए इस्तीफा दिया है।
सवाल ये है कि जब एडवोकेट दिनेश राठौड़ ने आत्महत्या करने की कोशिश के लिए सुरजीत कपूर को जिम्मेदार ठहराया था और प्रदेश महिला कांग्रेस अध्यक्ष विजयलक्ष्मी विश्राई ने उन्हें तुरंत हटाया था, तब पूरी कार्यकारिणी की एक भी सदस्या को यह ख्याल क्यों नहीं आया कि सुरजीत को बिना जांच-पड़ताल के हटाया जा रहा है। तब तो सबकी सब चुपचाप तमाशा देखती रहीं और अब जब कि वकील दिनेश राठौड़ ने यह स्वीकार कर लिया है कि सुरजीत के साथ उसके बेहतरीन संबंध थे, उसे उसने लोगों के भडक़ाने पर मुफ्त ही बदनाम कर दिया था, सुरजीत की संगिनियों को याद आया है कि सुरजीत को हटाने का विरोध दर्ज करवाया जाए। यानि कि वह उक्ति वाकई सही है कि सुख में सब साथी, दुख में न कोय।
उल्लेखनीय है कि राठौड़ ने पूर्व में कहा था कि उसने सुरजीत के साथ खोड़ा गणेश में शादी की थी। यह आरोप तक लगाया था कि सुरजीत के एक पुलिस अफसर के साथ अवैध संबंध थे। आत्महत्या की कोशिश करने पर न केवल वे खुद गिरफ्तार हुए, अपितु सुरजीत को भी गिरफ्तार होना पड़ा। बाद में दोनों जमानत पर रिहा हो गए। सुरजीत न केवल बदनाम हुई, बल्कि पुलिस केस में भी फंसी। इतना ही नहीं, उन्होंने शहर महिला कांग्रेस अध्यक्ष का पद तक खो दिया। बाद में राठौड़ ने विजय लक्ष्मी विश्नोई को पत्र लिख कर मांगी, तो यह उम्मीद की जा रही थी कि सुरजीत का दाग मिटने पर वे उन्हें फिर से पद पर काबिज कर देंगी, लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। ऐसा लगता है कि काफी दिन के इंतजार के बाद न केवल सुरजीत, बल्कि उनकी साथिनों को भी विचार आया है कि फिर से अध्यक्ष बनाए जाने के लिए दबाव बनाया जाए, सो सामूहिक इस्तीफे की रणनीति बनाई गई है। वैसे कायदे से होना भी यह चाहिए कि आरोप से मुक्त होने के बाद उन्हें फिर से पदारूढ़ किया जाना चाहिए, क्योंकि इसी आरोप की वजह से उन्हें हटाया गया था, लेकिन कार्यकारिणी का यह कहना की वे तो सुरजीत को बिना जांच-पड़ताल के हटाने के कारण इस्तीफा दे रही हैं तो ये सवाल उठता ही है कि अब जब कि सुरजीत आरोप मुक्त हुई हैं, तब क्यों हिमायती बन रही हैं, उसी वक्त यह कह कर साथ क्यों नहीं खड़ी हो गई थीं कि सुरजीत को फंसाया गया है। कहीं इस कारण तो नहीं कि उन्हें सुरजीत के फिर से पद पर काबिज होने के कोई संकेत मिल रहे हैं और लगता है कि सुरजीत दुबारा बनीं तो कार्यकारिणी के पदों को ताश के पत्तों की तरह फैंट सकती हैं। या फिर इस कारण कि उन्हें ये लग रहा है कि अगर कोई और अध्यक्ष बनी तो वह उन्हें हटा कर नई टीम का गठन करेगी। बहरहाल, देखते हैं इस सामूहिक इस्तीफे की रणनीति काम करती है या नहीं।
ऊपर वाले को इनाम, नीचे वाले को दंड?
कैसी विडंबना है कि हमारे प्रशासनिक तंत्र में अच्छा काम करने पर तो ऊपर के अधिकारी को इनाम दिया जाता है, जबकि गलती या लापरवाही करने पर नीचे वाले कर्मचारी की खाल खींची जाती है।
वाकया देखिए। चुनाव ड्यूटी पर लगे कर्मचारियों को ऑनलाइन पेमेंट करने के नवप्रयोग में उत्तर भारत में अजमेर को पहला स्थान मिलने पर अजमेर के पूर्व जिला कलेक्टर और सीएमओ में तैनात विशिष्ट शासन सचिव राजेश यादव को आगामी 25 जनवरी को दिल्ली में राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल 25 हजार रुपए के नकद इनाम व ट्रॉफी से नवाजेंगी। तस्वीर का दूसरा रुख देखिए कि उन्हीं के कलेक्ट्रत्व में चुनाव में लापरवाही बरत कर पचास हजार मतदाताओं को मतदान से वंचित कर दिए जाने का दंड बीएलओ लेवल पर देने की कवायद चल रही है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि लोकसभा, विधानसभा व पंचायत चुनाव में नवाचार के लिए यादव बधाई के पात्र हैं। जाहिर तौर पर उन्हीं नेतृत्व में यह नवाचार अंजाम दिया गया, लेकिन इसे लागू करने में निश्चित रूप से पूरी टीम का भी योगदान रहा होगा। परंपरा यही है कि टीम लीडर को ही इनाम के लिए बुलाया जाता है, लेकिन यदि टीम गलती करे तो टीम लीडर की खिंचाई करने की बजाय यह तलाशने की कोशिश की जा रही है कि आखिर किस स्तर पर लापरवाही बरती गई। सवाल ये उठता है कि यदि टीम की कामयाबी पर लीडर को सम्मानित किया जाता है तो उसी लीडर की अनदेखी की वजह से टीम गलती करती है तो उसे दंडित क्यों नहीं किया जाता। सम्मान और दंड को एक ही तराजू पर क्यों नहीं तोला जाता?
यहां उल्लेखनीय है कि नगर निगम चुनाव में मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर लापरवाही और गड़बड़ी के मामले में बड़े अधिकारी तो बड़ी सफाई से बच और जिन बीएलओ को दोषी माना गया था, उनके खिलाफ कार्यवाही की कवायद की जा रही है। हकीकत तो ये है कि जिस प्रकार कार्यवाही की जा रही है, उससे लीपापोती की संभावना ज्यादा ही नजर आती है। दोषी पाए गए बीएलओ के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए संबंधित विभागों को कहा गया था, लेकिन उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। वस्तुत: मतदाता सूचियों में गड़बड़ी इतनी बड़ी थी कि अनुमानत: पचास हजार मतदाता वोट देने से वंचित रह गए थे। तकनीकी रूप से भले ही प्रशासन इस कारण बच रहा था कि उसने तो बाकायदा समय-समय पर लोगों को चेताया, मगर सवाल ये था कि जिसने पिछलेे लोकसभा चुनाव में वोट दिया था, वह भला क्यों जा कर देखेगा कि उसका नाम मतदाता सूची में है या नहीं। इस मामले को लेकर एक-दो दिन तो बड़ा हंगामा हुआ और अखबार वालों ने भी पूरे के पूरे पेज रंग दिये। मीडिया बार-बार मामले को उछाल रहा था, इस कारण मजबूरी में प्रशासन ने बीएलओ को ही बली का बकरा बनाने की सोची। असल में धरातल पर तो वे ही दोषी थे, क्योंकि मतदाता सूचियां बनवाने का काम सीधे तौर पर उन्होंने ही किया था। जिला निर्वाचन अधिकारी और रिटर्निंग ऑफिसर इस कारण दोषी थे कि भले ही सीधे तौर पर उन्होंने कोई गड़बड़ी नहीं की, मगर यह सवाल तो था ही कि उन्हीं के देखरेख में इतनी बड़ी लापरवाही कैसे हो गई।
कुल मिला कर जब तक हमारे तंत्र में दोहरे पैमाने होंगे, सुधार की की गुंजाइशें उतनी ही कम हो जाएंगी।