शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

न्यास चेयरमेन के पैनल में है के. सी. चौधरी व भाटी का नाम



हालांकि अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष पद के लिए दावेदारी करने वाले नेता अब थक गए हैं और उन्हें उम्मीद कम ही है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सरकार के बाकी बचे कार्यकाल के लिए न्यास अध्यक्ष की नियुक्ति करेंगे, मगर राजनीतिक गलियारों में यकायक दो नए नाम चर्चा में आ गए हैं। ये नाम हैं पूर्व विधायक डॉ. के. सी. चौधरी व पूर्व उपमंत्री ललित भाटी के। बताया जा रहा है कि सरकार ने काफी जद्दोजहद के बाद इन दो नाम का पैनल बनाया है और उस पर विचार कर अपनी राय देने के लिए अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट को भेज दिया है। सरकार चाहती है कि पायलट की सहमति से ही अध्यक्ष बनाया जाए, ताकि कोई विवाद हो तो वे ही उससे निपटें। वैसे भी पायलट का हाईकमान में इतना दखल है कि उनको नजरअंदाज कर किसी को अध्यक्ष नहीं बनाया जा सकता।
जैसे ये दोनों नाम सामने आए हैं, राजनीतिक विश्लेषक माथपच्ची करने में जुट गए हैं कि आखिर इन दोनों के नाम कैसे उभरे और इन दोनों में से कौन नंबर वन हो सकता है। विश्लेषकों का मानना है कि कभी कांग्रेस के लिए पक्की रही सीट अजमेर दक्षिण (जो पहले अजमेर पूर्व थी) को फिर कब्जे में लेने के लिए वह उस कोली बहुल इलाके के प्रमुख व सर्वसम्मत नेता पूर्व उप मंत्री ललित भाटी को मजबूत करना चाहती है। वह जानती है कि जब तक भाटी को मजबूत नहीं किया जाता, वहां के कोली वोटों पर फिर कब्जा नहीं किया जा सकता। वर्तमान में भाजपा विधायक श्रीमती अनीता भदेल की वजह से कोली वोटों पर कांग्रेस की पहले जैसी पकड़ नहीं रही है। और जब श्रीमती भदेल के सामने कोई कोली नेता खड़ा नहीं किया जाता, उसका अधिकांश हिस्सा भाजपा की ओर झुक जाता है। यह एक सच्चाई है कि कोली वोटों की अहमियत को समझते हुए ही भाजपा ने मेयर पद के लिए कोली नेता डॉ. प्रियशील हाड़ा पर दाव खेला था, मगर वह कामयाब इस कारण नहीं हो पाया क्योंकि अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल अन्य जातियां लामबंद हो गईं थीं। दूसरा बताया ये जाता है कि श्रीमती भदेल नहीं चाहती थीं कि उनके रहते कोई दूसरा भाजपा नेता उनके समाज में खड़ा हो। मेयर का चुनाव तो पूरे शहर का था, मगर यदि अजमेर दक्षिण की बात करें तो वहां कोली वोटों का ही वर्चस्व है। इस लिहाज से कांग्रेस की सोच ठीक ही प्रतीत होती है, मगर भाटी के खिलाफ सबसे बड़ा रोड़ा ये आ रहा है कि अन्य जाति वर्ग उनकी नियुक्ति को उचित नहीं मानते। उनका तर्क ये है कि पहले से अजमेर शहर की एक सीट विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। इसके अतिरिक्त मेयर भी अनुसूचित जाति से है। ऐसे में शहर की एक और महत्वपूर्ण सीट भी अनुसूचित जाति के नेता को देना अन्य जातियों के साथ अन्याय होगा।
जहां तक ब्यावर के पूर्व विधायक डॉ. चौधरी के नाम का सवाल है, यह वैश्य समुदाय को खुश करने के लिए सामने आया है। असल में माना ये जा रहा था कि महेन्द्र सिंह रलावता को शहर कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने के बाद पिछले विधानसभा चुनाव में टिकट से वंचित रहे सिंधी समाज के नेता नरेन शहाणी भगत ही प्रबल दावेदार रह गए हैं। मगर इसमें वैश्य समुदाय ने लंगी मारने की कोशिश शुरू कर दी। उनका तर्क ये है कि अभी सिंधी समुदाय को खुश करने के लिए भले ही किसी सिंधी नेता को अध्यक्ष बना दिया जाए, मगर विधानसभा चुनाव में फिर किसी सिंधी को ही टिकट दिए जाने की बात सामने आएगी। वैश्य वर्ग समझ रहा है कि पिछले चुनाव में वैश्य समुदाय के एकजुट होने और भाजपा के परंपरागत वोटों में सेंध मारने के बाद भी उनके प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती हार गए, इस कारण अगली बार कांग्रेस सिंधी समाज की दावेदारी को काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी। इसी कारण उसने दबाव बनाया कि न्यास अध्यक्ष व विधायक की टिकट, दोनों में एक उसके लिए सुनिश्चित की जाए। अगर अभी किसी सिंधी को अध्यक्ष बनाया जाता है तो विधानसभा की टिकट उनके लिए तय कर दी जाए। और अगर अभी वैश्य को मौका दिया जाता है तो वह विधानसभा चुनाव की दावेदारी छोड़ देगा। कांग्रेस हाईकमान भी समझ रहा है कि विधानसभा चुनाव में दुबारा सिंधी समाज को नाराज नहीं किया जा सकता, इस कारण न्यास अध्यक्ष की कुर्सी किसी वैश्य नेता को देने का मानस बना रही है। वैश्य वर्ग से डॉ. श्रीगोपाल बाहेती प्रबल दावेदार हैं, मगर पायलट से नाइत्तफाकी की वजह से उनका नंबर आता दिखाई नहीं देता। पूर्व में मुकेश पोखरणा का नाम भी सामने आया था, लेकिन साथ ही कालीचरण खंडेलवाल की पायलट से नजदीकी के कारण उनका नाम भी लिया जाने लगा। इसी प्रकार किन्हीं गोपी चंद लढ़ा का नाम भी चर्चा में आया बताया। इन सबके साथ दिक्कत ये है कि ये सभी राजनीति में शून्य हैं। इन सबमें पूर्व विधायक डॉ. चौधरी को ही ज्यादा उपयुक्त माना जा रहा है। वे प्रदेश कांगेस के कोषाध्यक्ष भी रह चुके हैं। अर्थात मनी मैनेजमेंट में माहिर हैं। हालांकि उनके खिलाफ एक सबसे बड़ा तर्क ये दिया जा सकता है कि वे मूलत: किशनगढ़ और बाद में ब्यावर के रहे हैं। मगर साथ ही दूसरा पहलु ये है कि कांग्रेस ने नानकराम जगतराय के चुनाव के अतिरिक्त सचिन पायलट के चुनाव में उनका उपयोग अजमेर में करके सफलता हासिल की है, अत: उन्हें अजमेर से बाहर का नहीं माना जा सकता।
जहां तक डॉ. चौधरी व भाटी में से किसी एक के नाम पर सहमति बनाने का सवाल है, जाहिर तौर पर वैश्य वर्ग के नाते उनका नाम ही तय हो सकता है। वे पायलट के काफी करीब भी हैं। भाटी के मुकाबले तो निश्चित रूप से नजदीक हैं ही। देखते हैं दोनों में से किस पर पायलट हाथ रखते हैं। यूं दावेदारों में नरेन शहानी के अतिरिक्त पिछले दिनों पूर्व सूचना आयुक्त एम. डी. कोरानी के पुत्र शशांक कोरानी का नाम भी है। वैश्य वर्ग से वरिष्ठ कांग्रेसी प्रकाश गदिया और डॉ. सुरेश गर्ग भी पूरी ताकत लगाए हुए हैं। देखते हैं क्या होता है?

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

16 जुलाई 2011 को अजमेर फोरम की बैठक में मेरा धन्यवाद संबोधन

शहर भाजपा में चल रही सिर फुटव्वल से ही फूटा ज्वालामुखी

भाजपा का प्रदेश नेतृत्व भले ही भारतीय जनता युवा मोर्चा की अजमेर शहर अध्यक्ष की हाल ही में हुई नियुक्ति को लेकर उठे बवाल को अनुशासनहीनता करार दे, मगर यह खुद उसके यहां मौजूद गुटबाजी और अजमेर भाजपा में चल रही सिर फुटव्वल का ही परिणाम है।
असल में इस पद के कुल तीन दावेदारों नीतेश आत्रे, गौरव टाक व देवेन्द्र सिंह शेखावत के नाम का पैनल बना कर जयपुर भेजा गया था। इनमें से नीतेश आत्रे विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी खेमे के माने जाते हैं, जबकि विधायक अनिता भदेल ने गौरव टाक पर हाथ रख रखा था। इन दोनों को लेकर कुछ न कुछ परेशानी थी, लेकिन दोनों विधायकों के दबाव की वजह से पैनल में उनका नाम आ गया। देवनानी को पूरी उम्मीद थी कि वे अपनी पसंद के आत्रे को अध्यक्ष बनवाने में कामयाब हो जाएंगे और संभावना भी यही थी, मगर जयपुर में देवनानी की विरोधी लॉबी अचानक सक्रिय हो गई और उसने झटपट देवेन्द्र सिंह शेखावत का नाम फाइनल करवा कर घोषित भी कर दिया। उस लॉबी की रुचि इस बात में नहीं थी कि शेखावत को अध्यक्ष बनाया जाए, बल्कि इस बात में ज्यादा थी कि देवनानी को झटका दिया जाए। हालांकि अनिता भदेल को पता लग गया था कि उनकी ओर से प्रस्तावित नाम तय नहीं हो रहा है, मगर उन्हें इस बात से संतुष्टि थी कि देवनानी की ओर से पेश किया गया नाम भी तय नहीं हो रहा है, इस कारण उन्होंने ऐन वक्त पर शेखावत के नाम पर सहमति जता दी। जहां तक शेखावत का सवाल है, वे लाला बन्ना के नाम से प्रसिद्ध पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत के बेहद करीबी हैं। इसके बावजूद उन पर गुटबाजी की छाप कोई खास गहरी नहीं हैं और सभी गुटों के नेताओं से संपर्क रखने में माहिर हैं। उनका नेगेटिव प्वाइंट है तो केवल ये कि वे कई साल तक जीसीए में एसडब्ल्यूओ के बैनर तले एबीवीपी की बारह बजाते रहे हैं। मगर यह भी सच है कि साथ ही हाल के कुछ वर्षों में युवा मोर्चा के कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं। उनके विरोधी युवा नेता प्रशांत यादव उनके नेगेटिव प्वाइंट को ही आधार बना कर विरोध कर रहे हैं, मगर अकेला यह बिंदु इस कारण कारगर नहीं हो पाएगा क्योंकि ऐसे तो जिला भाजपा में कई बड़े नेता हैं, जिनकी निष्ठा पूर्व में कहीं और रही है। खुद शहर भाजपा अध्यक्ष प्रो. रासासिंह रावत भी किसी जमाने में भीम से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं, जबकि बाद में भाजपा में आने के बाद चार बार सांसद बने। इसी प्रकार पूर्व जल संसाधन मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट भी मूलत: भाजपा से नहीं थे। रहा सवाल मेयर के चुनाव में डॉ. प्रियशील हाड़ा के खिलाफ काम करने के आरोप का तो ऐसे कई नेता हैं, जिन पर बगावत करने का आरोप है, मगर उनके खिलाफ अब तक कोई कार्यवाही नहीं हुई। ऐसे में इस आरोप को कितनी गंभीरता से लिया जाएगा, समझा जा सकता है।
बहरहाल, जैसे ही शेखावत की नियुक्ति हुई तो मानो भूचाल आ गया। नीतेश आत्रे के नेतृत्व में पार्टी का अनुशासन सड़क पर तार-तार कर दिया गया। असंतुष्ट कार्यकर्ता अजमेर भाजपा के भीष्म पितामह औंकारसिंह लखावत के घर पर भी प्रदर्शन करने पहुंच गए। वे समझते हैं कि लखावत के देवनानी से नाइत्तफाकी रखने के कारण ही आत्रे की नियुक्ति नहीं हो पाई। मजे की बात ये रही कि असंतुष्ट कार्यकर्ता देवनानी के घर पर भी प्रदर्शन करने पहुंच गए। इसे इस रूप में लिया गया कि ऐसा देवनानी के कहने से ही हुआ है। दरअसल जैसे ही कार्यर्ताओं ने भाजपा का बैनल आग के हवाले किया, सारा ठीकरा देवनानी पर ही फूटने की नौबत आ गई। यही माना जाना लगा कि उनके इशारे पर ही हंगामा हुआ है। कदाचित इस आरोप से बचने के लिए उन्होंने इशारा किया कि खुद उनके घर पर भी प्रदर्शन की रस्म निभा दी जाए। आत्रे देवनानी गुट के ही हैं, इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि उनके खेमे के भाजयुमो राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नीरज जैन ने भी शेखावत की नियुक्ति पर सवालिया निशान लगा दिया है। उनका कहना है कि नियुक्ति के समय आम कार्यकर्ताओं की भावना का ध्यान नहीं रखा गया और नियुक्ति पर फिर से विचार होना चाहिए। जाहिर तौर पर जैन के लिए यह पचा पाना कठिन है कि उनके गुट के आत्रे को अध्यक्ष नहीं बनवा पाए। ज्ञातव्य है कि हाल ही वे राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बन कर अपनी धाक जमा चुके हैं। हालांकि उनकी नियुक्ति में देवनानी की कोई खास भूमिका नहीं रही और वे अपने दम पर ही बन कर आए हैं, मगर खुद अपने ही शहर में अपनी पसंद का अध्यक्ष न बनवा पाना वाकई कष्टप्रद कहा जाएगा।
अब रहा सवाल असंतुष्टों पर कार्यवाही का तो लगता तो यही है कि प्रदेश हाईकमान इसे गंभीरता से ले रहा है। असल में उसका ऐतराज इस बात पर ज्यादा है कि जिस तरह से सड़क पर उतर कर प्रदर्शन किया गया और प्रदेश नेतृत्व का चुनौती दी गई, वह संगठन के लिए काफी घातक है। असंतुष्ट युवा नेता प्रशांत यादव को तो आदर्श मंडल अध्यक्ष घीसूलाल गढ़वाल ने मंडल मंत्री पद से मुक्त भी कर दिया है। अन्य के खिलाफ भी कार्यवाही होने की पूरी संभावना है। दूसरी ओर असंतुष्ट भी कमजोर नहीं हैं। उनके पास कार्यकर्ताओं की अच्छी ताकत है। इसी कारण एकाएक शांत होते नजर नहीं आते। वे घोषणा भी कर चुके हैं कि वे शेखावत को किसी भी सूरत में अध्यक्ष नहीं मानेंगे और आत्रे के नेतृत्व में युवा शक्ति का गठन करेंगे। देखना ये है कि पार्टी उनको मनाने में कामयाब हो पाती है या नहीं।

सोमवार, 12 सितंबर 2011

इलायची बाई की गद्दी को मिला राजनीतिक वारिस

किन्नर गुरू इलायची बाई की गद्दी के लिए मशहूर अजमेर शरीफ में पहली बार एक किन्नर को नगर निगम का पार्षद बनने का खुशनसीबी हासिल हुई है। बताते तो यहां तक हैं कि सोनम के नाम से सुपरिचित यह किन्नर पूरे देश में भी सरकार की ओर से मनोनीत पहला किन्नर है। शहर की सियासत में दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई शख्स हो, जो सोनम किन्नर को न जानता हो। अजमेर ही नहीं, कांग्रेस के जयपुर और दिल्ली दरबार तक में इसकी पहचान है, जहां ये बेधड़क दस्तक दे देता है।
असल में सोनम किन्नर का नाम आते ही एक जलजले का ख्याल मन में उभर आता है। तकरीबन 26 साल का सोनम मूलत: केकड़ी का रहने वाला बताया जाता है। जब से इसने अजमेर की कांग्रेसी राजनीति में दस्तक दी है, धरने-प्रदर्शन में इसी का बोलबाला रहता आया है। कई बार तो ऐसा लगा कि शहर कांग्रेस के साबिक सदर जसराज जयपाल की सदारत में किए जा रहे प्रदर्शन को इसने अपने हिसाब से ही दिशा दे दी। जैसा की अमूमन होता है कि किन्नर अमूमन मुंहफट होते हैं, इस कारण कोई भी उसके सामने आ कर अपनी फजीहत करवाना पसंद नहीं करता। असामान्य शख्सियत के कारण किन्नर की मौजूदगी हंसी-ठ_े का माहौल पैदा कर देता है। ठीक वैसे ही सोनम की मौजूदगी कांग्रेस के छोटे-मोटे आंदोलनों में अलग की मंजर पैदा कर देता है। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब किसी वीआईपी के सामने कोई बात रखने के लिए उसका उपयोग किया गया। वह बिंदास हो कर अपनी बात कहने में माहिर है। संयोग से वह खूबसूरत और जवान भी है, इस कारण उसको एकाएक कोई भी नेता नजरअंदाज नहीं करता। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के दरबार में भी वह बेधड़क घुसा जाता है। बताते हैं कि अपने खास अंदाज की बदौलत उसने कांग्रेस के दिग्गज नेता मुकुल वासनिक के यहां भी उसकी खूब चलती है। उन्हीं की बदौलत उसको पार्षद बनने का मौका मिला बताते हैं। कांग्रेस हाईकमान में उसने अपनी कितनी हैसियत बना रखी है कि पिछले निगम चुनाव में बागी बन कर खड़े होने के बाद भी उसे मनोनीत किया गया है।
उसके मनोनयन पर जहां कुछ कांग्रेसी इस बात से खफा हैं कि क्या उसके अलावा उन्हें कोई मर्द या औरत नहीं मिली, तो कुछ इस बात से खुश हैं कि वह भाजपा पार्षदों को छठी का दूध याद दिलाएगा। बहरहाल, अजमेर के सियासी गलियारे में सोनम किन्नर की मौजूदगी क्या गुला खिलाएगी, यह तो वक्त ही बताएगा, मगर इतना तय माना जा रहा है कि पहले से कपड़ा फाड़ सियासत का ठिकाना बने हुए नगर निगम में अब पहले से ज्यादा हंगामे हुआ करेंगे। हालांकि खुद सोनम का मानना है कि वह हंगामा अपने खातिर नहीं, बल्कि शहर की खातिर करता है। वह शहर के विकास केलिए कुछ करना चाहता है। उसके आगे पीछे तो कोई है नहीं है, जिसके लिए वह अपने पद का दुरुपयोग करेगा। रहा सवाल आजीविका का तो वह किन्नर होने के नाते वैसे ही खूब फलफूल रहा है। इसलिए सारा ध्यान शहर की भलाई पर लगा देगा। सरकार की ओर से पार्षद बनाए जाने से वह इतना खुश है कि शुकवार को कांग्रेस दफ्तर में उसके खुशी के आंसू थामे नहीं थम रहे थे। उसके ये आंसू कितने सच्चे हैं, और वह शहर के भले के लिए क्या करता है, यह तो वक्त ही बताएगा। अजमेरवासियों के लिए उसके एक पार्षद का किन्नर होना कितने गौरव की बात है, मगर किन्नर जमात केलिए तो यह जश्र का मौका है ही। वे इस बात ये खुश हैं कि एक ओर जहां लागे किन्नरों को हंसी ठिठोली का पात्र मानते हैं, वहीं सरकार ने उन्हें पहली बार सियासत में जगह दी है।

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

आखिर पायलट ने बिछा ही ली अपनी जाजम

आखिरकार केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट ने अजमेर शहर कांग्रेस पर अपना कब्जा कर ही लिया है। अपने खासमखास महेन्द्र सिंह रलावता को शहर कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाने के बाद नव नियुक्त मंडल अध्यक्षों व नव मनोनीत पार्षदों के संयुक्त सम्मान समारोह के जरिए उन्होंने यह साबित कर दिया है कि संगठन अब उनके ही इशारे पर काम करेगा। हालांकि मनोनीत पार्षदों पर नजर डालें तो साफ दिखाई देता है कि हाईकमान से सभी गुटों को समायोजित करने की कोशिश की है, मगर उन सभी के सम्मान समारोह में मौजूद रहने को इस अर्थ में लिया जा रहा है कि सभी पायलट की छतरी के नीचे आ गए हैं।
असल में आजादी के बाद पहली बार एक मंत्री के रूप में अजमेर का प्रतिनिधित्व करने वाले पायलट अपने प्रभाव से अजमेर को कुछ देने का जज्बा तो दिखा चुके हैं, मगर खुद अपनी ही पार्टी का स्थनीय नेटवर्क उनके कब्जे में नहीं आ रहा था। पूर्व अध्यक्ष जसराज जयपाल की लॉबी न तो उनको तवज्जो देती थी और न ही अजमेर शहर के मेयर कमल बाकोलिया को गांठ रही थी। जाहिर तौर पर केन्द्र में मंत्री और कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी से करीबी रखने वाले शख्स के लिए यह काफी पीड़ादायक था। वे वक्त का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही मौका मिला उन्होंने रलावता को शहर अध्यक्ष बनवा दिया। रलावता के आसीन होने के साथ ही जसराज जयपाल व ललित भाटी की खींचतान से एक लंबे अरसे से त्रस्त चल रही शहर कांग्रेस गुटबाजी से मुक्त हो गई है। हालांकि जयपाल खेमा अब भी टेढ़ा-टेढ़ा ही चल रहा है, मगर अधिसंख्य कांग्रेसियों के गत शनिवार को अजमेर के जवाहर रंगमंच पर आयोजित जलसे में मौजूद होने से स्थापित हो गया है कि संगठन अब पूरी तरह से पायलट के साथ है। इस जलसे का लाभ रलावता को भी मिला है, जिनके बारे में यह कहा जा रहा है कि उनकी स्वीकार्यता अभी कायम नहीं हो पाई है। इसी के साथ मेयर बाकोलिया को भी इससे मजबूती मिली है। यानि कि अब कहा जा सकता है कि सत्ता व संगठन का अब बेहतर तालमेल नजर आएगा, जिसका लाभ अजमेर को मिलने की उम्मीद की जा सकती है।
उल्लेखनीय है कि गुटबाजी के कारण अजमेर में कांग्रेस को बहुत नुकसान हो चुका है। अजमेर शहर की दोनों विधानसभा सीटें गुटबाजी के कारण कांग्रेस को लगातार दो बार गंवानी पड़ी। लगातार चार बार स्थानीय निकाय के चुनाव में भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। हालांकि लोकसभा के चुनाव में इसी गुटबाजी को दबा कर सचिन पायलट जीतने में कामयाब हो गए थे, मगर संगठन पर उनकी विरोधी जयपाल लॉबी का कब्जा था। हालांकि पायलट ने अपने कुछ चहेतों को संगठन में प्रवेश दिलवाया, मगर मन मुताबिक टीम बनाने का इंतजार कर रहे थे। हालांकि एक बार जरूर शहर अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का अधिकार सर्वसम्मति से पायलट को दे दिया गया, लेकिन बाद में जयपाल लॉबी फिसल गई और उसने बाकायदा चुनाव करवाने की मांग कर डाली। जाहिर तौर पर यह घटना पायलट के लिए एक बड़ा झटका था। लेकिन जैसे ही डॉ. चंद्रभान प्रदेश अध्यक्ष बने, शहर जिला अध्यक्ष की नियुक्ति का रास्ता भी खुल गया। और इसी का लाभ लेते हुए पायलट ने अपना दाव खेल दिया।
बहरहाल, अपने मन के मुताबिक जाजम बिछाने के बाद देखना ये है कि पायलट अजमेर के विकास में कितनी रुचि लेते हैं। वरना अब तक यही माना जा रहा था कि संगठन से तालमेल के अभाव में वे आगामी चुनाव तक भीलवाड़ा या जयपुर ग्रामीण की ओर रुख कर लेंगे। पिछले दिनों अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान तो यह सवाल भी उठा था कि अजमेर में उनका कोई ठिकाना नहीं है, क्या वे अगली बार अजमेर से भाग्य नहीं आजमाएंगे। मगर लोगों को अब उम्मीद है कि वे अजमेर को ही अपनी कर्मस्थली बनाएंगे।

अजमेर शहर भाजपा में बन रहा है नया गुट

शहर जिला भाजपा में यूं तो तीन-चार गुट हैं, मगर मूल रूप से एक गुट विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी का और एक उनके खिलाफ वालों का है। कम से कम देवनानी के मामले में उनके विरोधी सभी लोग एक हो जाते हैं। विधायक श्रीमती अनिता भदेल का सौभाग्य रहा कि उनके खिलाफ कोई गुट नहीं था। उन्हें केवल देवनानी से ही टक्कर लेनी पड़ती रही है। मगर अब समीकरण कुछ बदले हैं। श्रीमती भदेल के खिलाफ भी एक लॉबी बन गई है। इनमें मुख्य रूप से नगर निगम मेयर के चुनाव में भाजपा प्रत्याशी रहे डॉ. प्रियशील हाड़ा उभर कर आए हैं। यहां उल्लेखनीय है कि डॉ. हाड़ा की हाल के एक प्रमुख कारण में श्रीमती भदेल का असहयोग भी रहा। वे नहीं चाहती थीं कि अजमेर में अनुसूचित जाति का दूसरा नेता उभर कर आए। इसी प्रकार श्रीमती भदेल के कारण हाशिये पर चले गए पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा भी उन्हें निपटाने के लिए घात लगा कर बैठे हैं। वे भी इस नए गुट में सहयोग कर रहे हैं। उनका सहयोग नगर निगम के पूर्व उपसभापति सोमरत्न आर्य भी कर रहे हैं। बताते हैं कि अजमेर से लोकसभा चुनाव हार चुकी श्रीमती किरण माहेश्वरी का नए गुट को वरदहस्त मिल रहा है। यह गुट चूंकि देवनानी के विरुद्ध ही है, इस कारण उनका सहयोग तो नहीं ले रहा, मगर अपने स्तर पर ही लामबंद हो रहा है। हालांकि अभी चुनाव दूर हैं, इस कारण जो खिचड़ी पक रही है, उसका परिणाम तभी आएगा।

लो शशांक कोरानी भी आ गए दावेदारों में

लम्बे समय से राजनीतिक नियुक्तियों का इंतजार कर रहे कांग्रेसियों का हौसला भी लाजवाब है। वे अब भी इसी उम्मीद में हैं कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपना जादूई पिटारा आखिरकार खोलेंगे ही। अजमेर में सर्वाधिक उत्सुकता और इंतजार नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष पद को लेकर है। हाल ही महेन्द्र सिंह रलावता के शहर कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद न्यास अध्यक्ष के प्रथम पंक्ति के दावेदारों में से एक की कमी हो गई है। दूसरे प्रबल दावेदार नरेन शहानी भगत अपने आपको अब कुर्सी के बेहद निकट महसूस कर रहे हैं। यदि किसी सिंधी को अध्यक्ष बनाने का नीतिगत फैसला होता है तो वे पहले नंबर पर हैं। अन्य जितने भी सिंधी अपने आपको दावेदार मान भी रहे हैं तो वे कम से कम दूसरे, तीसरे या चौथे नंबर पर तो नहीं हैं। मगर इसी बीच सुना है कि एक नया नाम उभर आया है। कदाचित भगत के राजनीतिक समीकरणों में कोई कमी है, इसी का फायदा उठा कर पूर्व सूचना आयुक्त एम. डी. कोरानी के पुत्र शशांक कोरानी दावेदारी में उनके काफी करीब आ गए हैं। बताया जाता है कि ऑफर तो खुद एम. डी. कोरानी को की गई थी, लेकिन वे जितने बड़े पद से रिटायर हुए हैं, उनके लिए यह पद स्वीकारना करना शोभाजनक नहीं है। ऐसे में उनके पुत्र शशांक पर विचार किया जा रहा है। समझा जाता है कि ऐसा करके मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक ओर तो सिंधियों को खुश करने की सोच रहे हैं, साथ ही अपनी पसंद को भी बरकरार रखना चाहते हैं।
वैश्य वर्ग भी चुप नहीं बैठा है
ऐसा नहीं है कि बात यहीं पर समाप्त होने वाली है। वैश्य वर्ग भी इस पद के लिए पूरी ताकत लगाए बैठा है। उसका तर्क ये है कि जब शहर की विधानसभा की एक सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित है और दूसरी अघोषित रूप से सिंधियों के लिए तो कम से कम न्यास का अध्यक्ष पद तो वैश्य वर्ग को मिलना चाहिए। इसके लिए एक शर्त ये भी रखी जा रही है कि यदि कांग्रेस नाराज सिंधियों को ही खुश करना चाहती है तो भले ही यह पद किसी सिंधी को दे दिया जाए, मगर आगामी विधानसभा चुनाव में एक विधानसभा सीट वैश्य वर्ग के लिए रखी जाए। ऐसा करना कांग्रेस के लिए इसलिए संभव नहीं है क्योंकि यह प्रयोग करके कांग्रेस एक सीट गंवा चुकी है। अर्थात आगामी चुनाव में कांग्रेस यह प्रयोग दोहराने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी। ऐसे में बेहतर यही है कि न्यास अध्यक्ष की सीट वैश्य वर्ग को दे दी जाए। वैश्य वर्ग में यूं तो पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती प्रबल दावेदार हैं, वरिष्ठ कांग्रेसी प्रकाश गदिया और डॉ. सुरेश गर्ग भी पूरी ताकत लगाए हुए हैं, लेकिन मुकेश पोखरणा भी अंदर ही अंदर पूरे समीकरण बैठा चुके हैं। देखते हैं क्या होता है?

कांग्रेस की फूट पड़ रही है मेयर पर भारी

नगर निगम की नवगठित समितियों पर हुआ विवाद
अजमेर। कुछ तो अजमेर नगर निगम के मेयर कमल बाकोलिया में राजनीतिक सूझबूझ की कमी है और कुछ शहर कांग्रेस की फूट उन पर भारी पड़ रही है। तकरीबन दस साल बाद नियुक्त नए शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता भी कोई समाधान नहीं निकाल पाए हैं, जबकि वे इसी प्रयास में लगे हैं कि कैसे बाकोलिया को मजबूत किया जाए।
असल में हुआ ये कि बाकोलिया ने जैसे ही लंबे अंतराल के बाद नगर निगम की विभिन्न कमेटियों का गठन किया तो, उस पर विवाद हो गया। बवाल भी इतना ज्यादा हुआ है कि बाकोलिया से संभाले नहीं संभल रहा है। गर निगम में बहुमत वाली भाजपा के पार्षद ही विरोध करते अथवा समितियों में रहने को राजी नहीं होते तो बात समझ में आ सकती थी, मगर यहां तो अल्पमत वाली कांग्रेस के पार्षद ही कब्जे में नहीं आ रहे। उन्होंने न केवल पार्टी हाईकमान और सरकार के स्तर पर विरोध दर्ज करवाया है, अपितु सार्वजनिक रूप से भी बाकोलिया के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ पार्षद मोहनलाल शर्मा ने तो विभिन्न कमेटियों के सदस्य पद से बाकायदा इस्तीफा दे दिया है, जबकि कई पार्षदों ने कमेटी अध्यक्षों और सदस्यता से इस्तीफा देने की घोषणा कर रखी है। इनमें विजय नागौरा, श्रवण टोनी, सुरेश भड़ाना, नौरत गुर्जर, मुबारक अली चीता, सोनल मौर्य, ललित गुर्जर, सुनीता केन, जिया देवी, कमल बैरवा आदि शामिल हैं।
शर्मा ने तो इस्तीके साथ सीधे मेयर पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि उनकी ईमानदारी और वफादारी पर संदेह किया गया है। शर्मा ने लिखा है कि आपने अपनी सेना में ईमानदार और कुशल सेनापतियों की टीम तैयार की है। इसमें मुझे भी कुछ कमेटियों में सदस्य नियुक्ति किया गया है। आपने कमेटियों में योग्यतानुसार पद देने की बात कही है। शायद मुझ में ईमानदारी और वफादारी की कमी थी। इस वजह से मुझे सदस्य बनाया गया है। यह बात सही की 55 पार्षदों को संतुष्ट नहीं कर सकते हैं। इसलिए आप मुझ से अधिक योग्य पार्षद को सदस्य बनाकर मुझे पद से मुक्त करें। स्पष्ट है कि शर्मा को तकलीफ ये है कि न तो उनकी वरिष्ठता का सम्मान किया गया और न ही उनकी सक्रियता को कोई तवज्जो दी गई। समझा जाता है कि नगर निगम के कांग्रेस व भाजपा के मिला कर कुल 55 में से 45 पार्षद बाकोलिया का विरोध कर रहे हैं। यदि ये सभी इस्तीफा दे देते हैं तो इन कमेटियों के कोई मायने ही नहीं रह जाएंगे।
असल में कांग्रेस में अंतर्कलह तो लंबे समय से है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस स्वायत्तशासी संस्था पर बीस साल तक भाजपा का कब्जा बना हुआ है। यहां तक कि ताजा निगम चुनाव में भी भाजपा के पार्षद ज्यादा जीत कर आए। इत्तफाक से पहली बार सीधे हुए मेयर के चुनाव में केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के प्रभाव और भाजपा प्रत्याशी डॉ. प्रियशील हाड़ा के कमजोर होने के कारण बाकोलिया जीत गए। हालांकि बाकोलिया ने जीत कर कांग्रेस की इज्जत तो बचा ली, मगर अपनी पार्टी ही उनके साथ नहीं है। हालांकि यह सही है कि खुद बाकोलिया में भी नेतृत्व क्षमता का अभाव है, लेकिन पार्टी भी उनका पूरी तरह से साथ नहीं दे रही है। लगता तो ये भी है कि सरकार के स्तर पर भी बाकोलिया को कोई तवज्जो नहीं मिल रही। तभी तो माधव नगर कॉलोनी का जमीन आवंटन रद्द करने की कार्यवाही तक सरकार ने मेयर को विश्वास में लिए बिना सीधे प्रशासन के जरिए कार्यवाही करवाई। इस मामले में पहले से विरोध में चल रहे कांग्रेसियों ने यह कह कर बाकोलिया का साथ नहीं दिया कि वे सरकार के आदेश के खिलाफ कैसे जा सकते हैं।
दरअसल बाकोलिया के केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट का पल्लू थामने से पायलट विरोधी लॉबी स्वत: ही उनके भी खिलाफ हो गई। हालांकि पायलट ने काफी जद्दोजहद के बाद अपनी पसंद के महेन्द्र सिंह रलावता को शहर अध्यक्ष तो बनवा लिया, जो कि बाकोलिया के शुभचिंतक और सलाहकार हैं, मगर वे खुद अपनी जाजम ही ठीक से नहीं बिछा पाए हैं। वर्षों से काबिज कांग्रेसी नेता अपदस्थ होने के बाद सुर में सुर नहीं मिला रहे। बाकोलिया की बदकिस्मती ये रही कि उन्होंने भी ऐसे वक्त में कमेटियों का गठन कर दिया, जबकि शहर कांग्रेस का पुनर्गठन ही नहीं हो पाया है। जाहिर तौर पर कांग्रेस की गुटबाजी उन्हें भारी पड़ा।
बहरहाल, मेयर बाकोलिया के प्रति नाराजगी हाईकमान तक पहुंच चुकी है, मगर वह भी असमंजस में है कि क्या समाधान निकाला जाए। अनुशासनात्मक कार्यवाही इसलिए नहीं की जा सकती कि बोर्ड में कांग्रेस पहले से ही कमजोर स्थिति में है।
अब बात करें कमेटियों के वजूद के बारे में तो इसका फैसला सरकार की इच्छा पर निर्भर रहेगा। नगर निगम एक्ट में सात कमेटियां गठित करने का प्रस्ताव है। निगम चाहे तो नियम के तहत नौ कमेटियां गठित कर सकता है। कमेटियां कम और पार्षद अधिक होने की वजह से मेयर ने 16 कमेटियों का गठन का प्रस्ताव सरकार को भेजा। मेयर ने प्रस्ताव में सदस्यों के नाम के साथ नियमों का अनुमोदन भी करने आग्रह किया है। यदि सरकार सिर्फ नियमों का अनुमोदन करती है तो मेयर को कमेटी में रखे सदस्यों का अनुमोदन साधारण सभा में करना होगा। बोर्ड में कांग्रेस अल्पमत में होने के कारण उनका अनुमोदन ही नहीं हो पाएगा। यदि सरकार नियम के साथ सदस्यों के नाम का अनुमोदन कर देती है तो मेयर को प्रस्ताव साधारण सभा में नहीं रखना पड़ेगा। तब जा कर कमेटियां वजूद में आ पाएंगी। देखते हैं कि सरकार विवाद खत्म करने के लिए क्या रास्ता निकालती है।