गुरुवार, 16 नवंबर 2017

कांग्रेस के फैसले के बाद पत्ते खोलेगी भाजपा?

-तेजवानी गिरधर-
गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ अजमेर लोकसभा उपचुनाव की तारीख घोषित न होने के बाद अनुमान है कि अब यहां जनवरी में ही चुनाव होंगे। यही वजह है कि जो चुनावी सरगरमी यकायक बढ़ गई थी, वह धीमी पड़ गई है। कांग्रेस व भाजपा, दोनों को मंथन करने का और वक्त मिल गया है। कांग्रेस जहां प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट अथवा किसी और पर विचार कर रही है, तो भाजपा की नजर कांग्रेस के फैसले पर टिकी है। कांग्रेस अगर सचिन के अलावा कोई और स्थानीय चेहरा सामने लाती है तो भाजपा पूर्व सांसद स्वर्गीय रामस्वरूप लांबा अथवा अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी या किसी और पर दाव खेल सकती है, लेकिन अगर सचिन चुनाव मैदान में आते हैं तो भाजपा को उन्हीं की टक्कर का उम्मीदवार लाना होगा। माना जा रहा है कि स्थानीय कोई भी दावेदार उनका मुकाबला नहीं कर पाएगा। ऐसे में पिछले दिनों सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र के पुत्र सन्नी देओल का नाम उछला। हालांकि यह पता नहीं लगा कि यह मीडिया की कयासी उपज है अथवा भाजपा का सेंपल टेस्ट, मगर उनका नाम इसी वजह से आया, क्योंकि उनकी अपनी चमक है और दूसरी सबसे बड़ी बात ये कि वे जाट समुदाय से हैं।असल में भाजपा की सबसे बड़ी मजबूरी ये है कि वह किसी जाट को ही टिकट दे, क्योंकि प्रो. जाट के निधन से खाली हुई इस सीट पर जाट समुदाय अपना सहज दावा मानता है। न केवल मानता है, अपितु लांबा व चौधरी के बहाने पुरजोर दावा ठोक भी रहा है। दावा तो अन्य जातियों के नेताओं भी है, यथा पूर्व सासंद प्रो. रासासिंह रावत, पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष धर्मेश जैन इत्यादि, मगर वे सचिन के मुकाबले मजबूत नहीं हैं। जातीय लिहाज से भी जाटों संख्या अन्य सामान्य जातियों के मुकाबले ज्यादा है। इस कारण उन्हें नजरअंदाज करना भाजपा के लिए मुश्किल है।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, ऐसी आम धारणा है कि अगर सचिन मैदान में आते हैं तो उनकी जीत सुनिश्चित है। भाजपाई भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। उसकी खास वजह ये है कि सचिन ने अपने पिछले कार्यकाल में जो काम किए, उन्हें यहां की जनता अभी भूली नहीं है। यह बात दीगर है कि पिछली बार मोदी लहर में उन्हीं कामों को जनता ने भुला दिया था। वस्तुत: जनता यहां से पांच बार सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत व एक बार सांसद रहे स्वर्गीय प्रो. जाट के कार्यकाल से तुलना कर रही है। उसमें स्वाभाविक रूप से सचिन भाारी पड़ रहे हैं। इन दिनों आ रही मीडिया रिपोर्टों में भी उसकी झलक दिखाई देती है।
यदि सचिन के चेहरे को एकबारगी भुला भी दिया जाए, तब भी भाजपा तनिक चिंतित है। चिंता सिर्फ एक सीट हारने की नहीं है, अपितु ये है कि यह उपचुनाव आगामी विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री वसुंधरा के भविष्य व भाजपा के मनोबल को तय करेगा। अर्थात भाजपा के लिए यह चुनाव बेहद प्रतिष्ठापूर्ण हो गया है। भाजपा की चिंता इसी से साफ झलकती है कि वसुंधरा ने पिछले दिनों यहां के ताबड़तोड़ दौरे किए। जनता को रिझाने के लिए हरसंभव उपाय भी किए। अब ये पता नहीं कि उनकी यह कवायद कितनी कामयाब रही।
हालांकि यह भी आम धारणा है कि नोटबंदी व जीएसटी की वजह से त्रस्त व्यापारी तबका नाराज है, जिसका खामियाजा भाजपा को भुगतना होगा, मगर कांग्रेस इसका आकलन कर रही है कि क्या वाकई व्यापारियों का गुस्सा कांग्रेस के लिए वोटों में तब्दील हो पाएगा? उससे भी बड़ी बात ये है कि भाजपा केन्द्र व राज्य में सत्तारूढ है, इस कारण चुनाव में भाजपा को सरकारी मशीनरी का संबल होगा। जाहिर तौर पर विधानसभा वार मंत्रियों का जाल फैलने वाला है। उनका मुकाबला कैसे किया जाए, इस पर कांग्रेस में मंथन चल रहा है। कांग्रेस के लिए भी यह सीट प्रतिष्ठापूर्ण है, क्योंकि यह सचिन पायलट का गृहक्षेत्र है। चाहे वे स्वयं चुनाव लड़ें अथवा किसी और को लड़वाएं, मगर यहां का चुनाव परिणाम आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की रणभेरी का आगाज करेगा।
वैसे कांग्रेस अभी तक भाजपा को कन्फ्यूज किए हुए है। सचिन लड़ेंगे या कोई और? हाल ही जब केकड़ी के पूर्व विधायक व दिग्गज कांग्रेसी नेता रघु शर्मा ने देहात जिला कांग्रेस अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह राठौड़ के साथ कलेक्ट्रेट पर प्रदर्शन किया तो ये कयास लगाए गए कि क्या उनके नाम पर गौर किया जा रहा है, मगर ये राजनीतिक चतुराई भी हो सकती है। राजनीति में इस प्रकार के डोज देना चुनावी रणनीति का एक हिस्सा होते हैं। तभी तो पिछले दिनों ज्योति मिर्धा, दिव्या मदेरणा, रघुवेन्द्र मिर्धा सरीखे नेताओं के नाम उछले थे। कुल जमा बात ये है कि कांग्रेस की शतरंजी चाल पर ही निर्भर करेगा कि भाजपा कौन सा मोहरा सामने लाएगी।

सन्नी देओल होंगे अजमेर से भाजपा प्रत्याशी?

हालांकि अजमेर लोकसभा उपचुनाव की तारीख अभी घोषित नहीं हुई है और स्वाभाविक रूप से राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों की घोषणा में भी अभी वक्त लगेगा, मगर एक न्यूज चैनल ने तो उजागर कर दिया है कि भाजपा की ओर से फिल्म अभिनेता सन्नी देओल को चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है। ज्ञातव्य है कि देओल सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र के पुत्र हैं और जानी-मानी फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी उनकी सौतेली मां हैं। न्यूज चैनल ने जिस तरीके से खबर जारी की है, उससे तो यही प्रतीत होता है कि खबर ठोक-बजा कर प्रसारित की गई है, महज पार्टी स्तर पर घोषणा होना ही बाकी है। इसकी प्रस्तुति में भी ऐसा ही कहा गया है। ऐसा नहींं है कि न्यूज चैनल ने पहली बार उनका नाम अनावृत किया है। कुछ दिन पहले भी उनका नाम सोशल मीडिया में उछल चुका है, मगर चैनल तो नाम फाइनल होने की ही बात कर रहा है। उसके अनुसार इसमें हेमा मालिनी ने अहम भूमिका अदा की है। इस बाबत पिछले दिनों सन्नी, हेमा व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बैठक हो चुकी है।
जहां तक सन्नी के राजनीतिक बैक ग्राउंड का सवाल है, यह सर्वविदित है कि उनके पिता धर्मेन्द्र एक बार बीकानेर से भाजपा सांसद रह चुके हैं और सौतेली मां हेमा मालिनी राज्यसभा सदस्य हैं, मगर निजी तौर पर उनका राजनीतिक अनुभव शून्य है। भाजपा सिर्फ उनके जाट होने के आधार पर प्रत्याशी बनाने पर विचार कर रही होगी। इसके अतिरिक्त उनके ग्लैमर का लाभ भी लेना चाहती होगी। उल्लेखनीय है कि भाजपा पर यह दबाव है कि वह किसी जाट को ही टिकट दे, क्योंकि एक तो यह सीट पूर्व केन्द्रीय राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई है और दूसरा इस क्षेत्र में दो लाख से अधिक जाट मतदाता हैं। स्थानीय स्तर पर भाजपा के पास मुख्य रूप से प्रो. जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा और अजमेर डेयरी के अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी ही दावेदार हैं। समझा जाता है कि लांबा को भाजपा अपेक्षाकृत कमजोर मान रही है और चौधरी को लेकर संघ की रजामंदी नहीं बन पा रही। यही वजह है कि उसे किसी विकल्प की तलाश है। संभवत: भाजपा यह मान कर चल रही है कि कांग्रेस की ओर से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट चुनाव मैदान में उतर सकते हैं और उनका मुकाबला ये दोनों ही नेता नहीं कर पाएंगे। शायद इसी वजह से उसे किसी सेलिब्रिटी के नाम पर विचार करने की नौबत आई है।
उधर अभी तक कांग्रेस की ओर से किसी का नाम सामने नहीं आया है, मगर मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि सचिन पायलट ही प्रत्याशी होंगे, क्योंकि वे यहां से सांसद रह चुके हैं। इसके अतिरिक्त यह भी आम धारणा है कि केवल वे ही चुनाव शर्तिया जीतने की स्थिति में हैं। बहरहाल, कांग्रेस की ओर से जो भी आए, मगर सन्नी के चुनाव लडऩे की स्थिति में अजमेर का चुनावी रण काफी रोचक हो जाएगा। स्वाभाविक रूप से चुनाव प्रचार में धर्मेन्द्र, हेमा, बॉबी देओल, हेमा की दोनो पुत्रियों के अतिरिक्त फिल्मी जगत के कई नामचीन कलाकार आ कर माहौल को रंगीन बनाएंगे।  लगे हाथ बता दें कि जैसे ही सन्नी का नाम चैनल ने उजागर किया तो आम जनता में पहली प्रतिक्रिया यही नजर आई कि अगर वे जीत भी गए तो पलट कर अजमेर नहीं आएंगे, जैसा कि पूर्व में उनके पिता धर्मेन्द्र ने बीकानेर के साथ किया था। भाजपा कार्यकर्ता भी जानते हैं कि अगर वे जीते तो उनसे संपर्क करना ही बेहद कठिन होगा, कोई काम करवाना तो बहुत दूर की बात है। देखने वाली बात ये भी होगी कि अगर जातिवाद के नाम पर सन्नी को उतारा गया तो क्या अजमेर संसदीय क्षेत्र का जाट समुदाय उन्हें सहज ही स्वीकार कर लेगा?

न्यूज चैनल में जारी खबर का लिंक ये है -
<a href="https://youtu.be/QnmkC-Ifm7k" rel="noopener" target="_blank">https://youtu.be/QnmkC-Ifm7k</a>
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-तेजवानी गिरधर
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टिकट का दावा तो ठोकेंगे ही भूतड़ा

भले ही तीन साल पहले पार्टी से छह साल के लिए बाहर किए गए पूर्व विधायक व पूर्व अजमेर देहात जिला भाजपा अध्यक्ष देवीशंकर भूतड़ा को अब जा कर फिर भाजपा में शामिल कर लिया गया हो, जिससे ऐसा प्रतीत होता हो कि ऐसा भाजपा हाईकमान की दया पर हुआ है, मगर इसका मतलब ये नहीं कि वे ब्यावर विधानसभा सीट की टिकट के लिए दावा नहीं करेंगे।
वस्तुस्थिति ये है कि भाजपा हाईकमान ने आगामी लोकसभा उपचुनाव में पार्टी को मजबूती प्रदान करने की खातिर ही भूतड़ा व पूर्व देहात जिला अध्यक्ष नवीन शर्मा को गले लगाया है। स्वाभाविक है कि दोनों नेताओं के भाजपा में आने से पार्टी को लाभ मिलेगा। खुद मौजूदा देहात जिला अध्यक्ष डॉ. बी. पी. सारस्वत भी स्वीकार करते हैं कि भूतड़ा को पार्टी से बाहर किए जाने के बावजूद उन्होंने कभी पार्टी की खिलाफत नहीं की बल्कि पार्टी के कार्यकर्ताओं को अपने से जोड़ा रखा और खुद की देखरेख में पार्टी के कार्यक्रम भी आयोजित करते रहे। इसका भी उन्हें फायदा मिला और पार्टी में वापसी के लिए यह प्रयास उनके लिए मददगार बने।
बात अब मुद्दे की। भूतड़ा मात्र मुख्य धारा में शामिल होने मात्र के लिए नहीं लौटे हैं। उनकी पिछली गतिविधियों पर जरा नजर डालें तो यह साफ हो जाएगा कि उनकी महत्वाकांक्षा अब भी उछाल मार रही है। वे सोशल मीडिया पर लगातार इस प्रकार की पोस्ट डाल रहे थे, जिससे ये इशारा होता था कि मौजूदा विधायक शंकर सिंह रावत की तुलना में उनके विधायक कार्यकाल में ज्यादा विकास कार्य हुए हैं। इसका सीधा सा अर्थ था कि एक तो वे जनता में अपनी लोकप्रियता कायम रखना चाहते थे, साथ ही पार्टी के खिलाफ इसलिए नहीं बोले ताकि वापसी संभव हो सके। वे पार्टी के आदर्श पुरुष पंडित दीनदयाल का नाम जपते हुए वैतरणी पार करने की कोशिश करते रहे। भले ही मौजूदा विधायक शंकर सिंह रावत ने उनके भाजपा में लौटने का स्वागत किया हो, मगर वह औपचारिक सा है। वे जानते हैं कि भूतड़ा इस बार फिर दावेदारी करेंगे। सच तो ये है कि भूतड़ा की वापसी होना उनके लिए नागवार गुजरा होगा, क्योंकि शहर व देहात की राजनीति के चलते दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है। भला खुद के खिलाफ बगावत करने वाले नेता को कोई कैसे बर्दाश्त कर सकता है। दोनों के बीच कैसे संबंध हैं, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि भूतड़ा कर निर्वासन समाप्त होने पर एक ओर जहां आम शहरी भाजपा कार्यकर्ता में खुशी की लहर देखी गई, वहीं रावत लॉबी के छुटभैये औपचारिक स्वागत करने भी आगे नहीं आए।
वैसे आम राजनीतिक धारणा है कि इस बार संभवतया रावत टिकट हासिल करने में कामयाब न हो पाएं, ऐसे में भूतड़ा का भाग्य खुल सकता है। रावत के टिकट में संशय इस कारण बना है क्यों कि उनके सीनियर होने के बावजूद पहली बार पुष्कर से जीते सुरेश रावत को संसदीय सचिव बना दिया गया। अर्थात मुख्यमंत्री वसुंधरा के साथ उनकी ट्यूनिंग नहीं रही। यूं जनता के हित में उन्होंने ब्यावर को जिला बनाने की मांग को लेकर खूब मशक्कत की, मगर वसुंधरा की फटकार पर उन्हें अपना आंदोलन समाप्त करना पड़ा।
तथ्यात्मक जानकारी के लिए आपको बता दें कि 18 नवंबर 2013 को भाजपा प्रत्याशियों के सामने बागी के रूप में चुनाव मैदान में उतरने पर पार्टी ने शर्मा व भूतड़ा को 6 साल के लिए निष्कासित करने की घोषणा की गई थी।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

सचिन पायलट का तोड़ नहीं है भाजपा के पास

हालांकि अभी पक्के तौर कहना कठिन है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट अजमेर लोकसभा सीट का उपचुनाव लड़ेंगे ही, मगर इसकी प्रबल संभावना के मद्देनजर भाजपा तनिक चिंतित नजर आ रही है। उसके पास उनका तोड़ नहीं है। स्थानीय स्तर पर कोई विकल्प न अब है और न ही उनके पहले चुनाव के समय था। तब भी भाजपा को किरण माहेश्वरी को अजमेर से लड़ाना पड़ा था और वे हार गई थीं। हालांकि दूसरे चुनाव में राज्य किसान आयोग के पूर्व अध्यक्ष व अजमेर के भूतपूर्व सांसद प्रो. सांवरलाल जाट ने जरूर उन्हें हराया था, मगर उसकी एक मात्र वजह थी देशव्यापी मोदी लहर।
वस्तुत: सचिन पायलट इस कारण मजबूत प्रत्याशी नहीं हैं कि प्रदेश  कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, अपितु इस वजह से हैं क्योंकि जब वे अजमेर के सांसद और केन्द्र में मंत्री थे, तब उन्होंने अनेक उल्लेखनीय काम कराए थे। अजमेर के वे पहले जनप्रतिनिधि थे, जिन्हें केन्द्रीय मंत्रीमंडल में मौका मिला था। कांग्रेस हाईकमान से नजदीकी के चलते कई महत्वपूर्ण विकास कार्य उन्होंने आसानी से करवा लिए। जनता यह बखूबी जानती है कि जितने काम उन्होंने पांच साल में करवाए, उनका एक प्रतिशत भी यहां से पांच बार सांसद रहे भाजपा के प्रो. रासासिंह रावत नहीं करवा पाए। असल में वे पांच बार जीतने के बाद भी कभी महत्वपूर्ण स्थिति में नहीं रहे।
बहरहाल, आज जब फिर सचिन पायलट के अजमेर से लडऩे की संभावना है, भाजपा उनको टक्कर देने के लिए उपयुक्त प्रत्याशी की तलाश कर रही है। एक तो सचिन पायलट के प्रति जनता का विश्वास है, दूसरा केन्द्र व राज्य सरकार के प्रति एंटीइंकंबेसी फैक्टर भी काम कर रहा है। ऐसे में स्थानीय कोई भी भाजपा नेता उनको टक्कर देने की स्थिति में नहीं है। स्वर्गीय प्रो. सांवरलाल जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा टिकट हासिल करने के लिए पूरा दबाव बनाए हुए हैं, मगर भाजपा हाईकमान उन पर दाव खेलने से पहले दस बार सोचने को मजबूर है। भाजपा की सबसे बड़ी मजबूरी ये है कि उसे किसी भी सूरत में किसी जाट को ही टिकट देना है। अगर किसी गैर जाट को टिकट देती है तो पूरा जाट समुदाय खिलाफ जा सकता है। लांबा के अतिरिक्त भाजपा के पास अजमेर डेयरी के अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी व पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गेना के श्वसुर सी बी गेना हैं, मगर वे भी सचिन पायलट का मुकाबला कर पाएंगे या नहीं, इस पर भाजपा में गंभीर मंथन चल रहा है। एक संभावना ये भी बताई जा रही है कि भाजपा प्रमुख जाट नेता सतीश पूनिया पर दाव खेल ले। यूं गैर जाटों में देहात जिला भाजपा अध्यक्ष डॉ. बी पी सारस्वत, पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन आदि के नाम चर्चा में हैं।
भाजपा को अगर भरोसा है तो केवल इस पर कि वह सत्ता में हैं और सरकारी मशीनरी का आसानी से दुरुपयोग कर सकती है। संभव है कि सत्ता के दम पर वह कांग्रेस में तोडफ़ोड़ करे, हालांकि इसकी संभावना कुछ कम इस कारण है कि आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा का परफोरमेंस बेहतर होने में संदेह है। अगर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कमान संभाली तो यह तय है कि यहां धनबल का भी खूब इस्तेमाल होगा, लेकिन उससे सचिन पायलट को फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि वे भी सक्षम हैं। सचिन पायलट के अजमेर से लडऩे की संभावना के मद्देनजर ही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अजमेर का तीन दिन का दौरा करने वाली हैं। उनके निर्देश पर अनेक मंत्री यहां दौरा कर प्रशासन को चुस्त कर चुके हैं, मगर पिछले साढ़े तीन साल से विकास को तरस रही जनता का मूड बदलेगा, इसको लेकर संदेह है।
कुल मिला कर सचिन पायलट के यहां से लडऩे के आसार होने के कारण भाजपा तनिक परेशान हैं। इसकी बड़ी वजह ये है कि अगर भाजपा हारती है तो यह संकेत जाएगा कि मोदी का जादू व वसुंधरा का आकर्षण खत्म हो गया है, जिसका आगामी विधानसभा चुनाव में नुकसान उठाना पड़ेगा। सचिन पायलट या कोई अन्य कांग्रेसी प्रत्याशी जीतता है तो कांग्रेस कार्यकर्ता का इकबाल ऊंचा होगा, जो विधानसभा चुनाव में जोश प्रदान करेगा। खैर, देखते हैं, आगे होता है क्या?

तेजवानी गिरधर
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किशनगढ़ एयरपोर्ट का श्रेय किसके खाते में?

यह एक अत्यंत सुखद बात है कि अजमेर जिले के वासियों की वर्षों पुरानी एयरपोर्ट की मांग आखिरकार पूरी हो गई, मगर इसके श्रेय को लेकर जो राजनीतिक विवाद हुआ, उसने मानो रंग में भंग सा कर दिया।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि किशनगढ़ में एयरपोर्ट के लिए आरंभिक कवायद के साथ समस्त बाधाओं को दूर करने में कांग्रेस की तत्कालीन केन्द्र व राज्य सरकारों के साथ विशेष रूप से अजमेर के पूर्व सांसद व तत्कालीन केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट की अहम भूमिका है। इसे कोई झुठला नहीं सकता। बेशक पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के चलते पायलट हार गए, मगर अजमेर जिले की आम जनता के जेहन में यह तथ्य बैठ चुका है कि पायलट की बदोलत ही जिले में एयरपोर्ट का मार्ग प्रशस्त हुआ है। जनता के मन यह बात भी स्थापित है कि जो काम पांच बार सांसद रहने पर प्रो. रासासिंह रावत ने नहीं किया, वह मात्र पांच साल में ही सचिन ने कर दिखाया। जानकार लोगों को पता है कि एयरपोर्ट को लेकर आ रही तकनीकी व कानूनी बाधाओं को दूर करने में पायलट ने अपने प्रभाव का किस प्रकार इस्तेमाल किया। केवल कांग्रेसी ही नहीं, बल्कि भाजपाई भी इस बात को स्वीकार करते रहे हैं कि एयरपोर्ट पायलट की देन है। अगर कोई सिर्फ दावे पर यकीन करता है तो उसके लिए यह तनिक विचारणीय है कि क्या बिना नक्शा पास हुए व वित्तीय स्वीकृतियों के बगैर कोई निर्माण हवा में करना संभव है?
बहरहाल, साथ ही यह धरातलीय सच्चाई भी नहीं नकारी जा सकती कि एयरपोर्ट की योजना भाजपा के शासनकाल में पूरी हुई है, मगर जब इसका पूरा का पूरा श्रेय मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने लेने की कोशिश की तो विवाद होना ही था। मुख्यमंत्री जैसे गरिमापूर्ण पद पर होने के बावजूद उदारतापूर्वक पायलट के योगदान को स्वीकार करने की बजाय कांग्रेस पर हमला बोला कि वह तो केवल शिलान्यास के पत्थर ही रखती है, विकास तो भाजपा कराती है। ऐसे में कांग्रेस नेताओं का पलटवार करना स्वाभाविक था। वे चाहतीं तो एयरपोर्ट का काम पूरा करवाने में अपनी सरकार की उपलब्धि का हवाला देते हुए पायटल की भूमिका का भी जिक्र कर सकती थीं, जिससे उनका बड़प्पन झलकता, मगर वह अवसर उन्होंने खो दिया। राजनीति में वह सदाशयता अब बची भी कहां है।
वस्तुत: यह सपाट सत्य है कि विकास की योजनाएं बनती हैं और पूरी होती हैं, इस दरम्यान सरकारें बदल जाती हैं। ऐसे में जिस सरकार के कार्यकाल में वे पूरी होती हैं, वह इसका श्रेय लेने की कोशिश करती है, मगर जनता सब जानती है। दावा चाहे कोई भी करे, मगर जन-जन में जो तथ्य बैठ चुका है, उसे कोई दावा साफ नहीं कर सकता। किशनगढ़ एयरपोर्ट के मामले में भी यही हुआ। जनता तो समझ ही रही थी कि यह पायलट की ही देन है, यहां तक कि वसुंधरा राजे भी जानती थी कि जनमानस में यह बैठा हुआ है कि एयरपोर्ट पायलट की मेहनत का परिणाम है, बावजूद इसके उन्होंने पूरा श्रेय लेने की कोशिश की। श्रेय लेने की इच्छा का सबसे बड़ा सूबत ये है कि नियमित उड़ानें शुरू होने में अभी भी समय है, मगर आचार संहिता लागू हो जाने के डर से जल्दबाजी में इसका उद्घाटन कर दिया गया। समझा जा सकता है कि लोकसभा उपचुनाव में वे इसका लाभ लेना चाहती हैं।
जाहिर सी बात है कि जैसे ही दावे-प्रतिदावे हुए तो मीडिया भी उसमें कूद पड़ा। अमूमन कांग्रेस के खिलाफ लिखने वाले कलमकारों भी स्वीकार किया कि वसुंधरा ने राजनीतिक चतुराई का इस्तेमाल किया है। वे भी इस तथ्य को सहज भाव से स्वीकार कर रहे हैं कि पायलट की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक वरिष्ठ एवं स्वतंत्र लेखक ने तो लिखा है कि सबसे पहले पायलट ने ही किशनगढ़ के पास हवाई अड्डा होने का सपना देखा था।
खैर, राजनीति में दावेबाजी चलती रहती है, उसे रोका भी नहीं जा सकता, मगर किसका दावा स्वीकार करना है, यह तो जनता ही तय करेगी।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

क्या प्रो. सारस्वत आरपीएससी के चेयरमेन बनाए जा रहे हैं?

अजमेर भाजपा के देहात जिला अध्यक्ष बी.पी.सारस्वत ने एमडीएस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर के पद की नौकरी छोडऩे का जैसे ही विधिवत नोटिस दिया है, वैसे ही एक तो ये कयास लगाया जा रहा है कि उन्हें लोकसभा उपचुनाव में टिकट का संकेत दे दिया गया है, वहीं एक अंदाजा ये भी लगाया जा रहा है कि उन्हें आरपीएससी का चेयरमेन बनाया जा सकता है। हालांकि प्रत्यक्षत: इस आशय की फेसबुक पोस्ट राजनीतिक पंडित एडवोकेट राजेश टंडन ने शाया की है, मगर इससे भी इतर शहर में इस प्रकार की चर्चा है। यदि ऐसा होना ही है तो सवाल ये उठता है कि इतनी टॉप सीक्रेट बात वायरल कैसे हो गई? कहीं खुद सारस्वत के मुंह से कहीं ये रहस्य उद्घाटित तो नहीं हो गया? या फिर जिस स्तर पर इस बाबत मंत्रणा हुई है, वहां से किसी ने लीक किया है? टंडन साहब के तो चलो किसी सोर्स ने बताया हो सकता है, मगर यदि राजनीति में रुचि रखने वालों तक भी इस प्रकार की सूचना है तो उनके पास यह बात कैसे पहुंची? क्या उस स्तर पर ये केवल कयास मात्र है? जो कुछ भी हो, जब तक उनकी नियुक्ति नहीं हो जाती, ये अफवाह ही कहलाएगी, क्योंकि इसकी पुष्टि तो कोई करने वाला है नहीं।
हां, इतना जरूर है कि अगर उनके उपचुनाव लडऩे की संभावना है,  तो केवल उसके लिए उनको मौजूदा पोस्ट से इस्तीफा देने की जरूरत ही नहीं है। यूनिवर्सिटी की नौकरी रहते हुए भी वे चुनाव लडऩे को स्वतंत्र हैं। इस कारण चुनाव लडऩे वाली बात में दम कम नजर आता है। हालांकि यह सही है कि स्थानीय स्तर पर उन्होंने जरूर ऐसा माहौल बना लिया है कि वे सबसे प्रबल दावेदार हैं, मगर राजनीतिक समीकरणों में उनकी दावेदारी मजबूत नजर नहीं आती। उसकी वजह ये है कि भाजपा किसी भी सूरत में गैर जाट को टिकट देने का दुस्साहस नहीं करेगी। जैसे ही किसी गैर जाट को टिकट दिया गया तो जाट भाजपा के खिलाफ लामबंद हो जाएंगे। ऐसे में एक कयास ये भी लगाया जा रहा है कि स्वर्गीय प्रो. सांवरलाल जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा को किसान आयोग का अध्यक्ष बना दिया जाएगा और नसीराबाद विधानसभा सीट देने का वादा किया जाएगा। क्या इस सौदेबाजी से जाट समुदाय राजी हो जाएगा, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। राजी होने का एक सूरत ये ही है कि लांबा के अतिरिक्त कोई दूसरा जाट नेता ऐसा नहीं है, जिसकी वाकई दावेदारी बनती हो। अगर लांबा ने सौदेबाजी कर भी ली तो भाजपा को यह खतरा तो बना ही रहेगा कि कोई छोटा-मोटा जाट नेता निर्दलीय रूप से मैदान में उतर सकता है।
जो कुछ भी हो, मगर इतना जरूर है कि सारस्वत के नए कदम से राजनीतिक हलकों हलचल मच गई है। वे मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के करीबी भी हैं, ये सब जानते हैं। ऐसे में अचानक नौकरी छोडऩे का नोटिस यह साफ जाहिर करता है कि जरूर कुछ न कुछ महत्वपूर्ण होने जा रहा है। एक संभावना ये भी है कि चूंकि वरिष्ठ भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी ने वसुंधरा राजे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी की वजह से ब्राह्मण समुदाय के कुछ लोग नाराज हैं, उन पर ठंडे छींटे डालने के लिए सारस्वत को कोई दमदार ओहदा दिया जा रहा हो।
हालांकि खुद सारस्वत ने यह कह कर दिग्भ्रमित करने की कोशिश की है कि उनके इस्तीफे के नोटिस को उपचुनाव से नहीं जोड़ा जाए, मगर दूसरी ओर यह कह कर यह संभावना भी बरकरार रखी है कि अगर वसुंधरा राजे ने  कहा तो वे चुनाव लडऩे को तैयार हैं। वैसे इतना जरूर तय है कि अगर उन्हें आरपीएससी का चेयरमेन बनाया जा रहा है तो वह जल्द ही होगा, क्योंकि निकट भविष्य में कभी भी चुनाव की तारीख का ऐलान होने वाला है, जिसके साथ आचार संहिता लग जाएगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

संघी तो नहीं लेने देंगे चौधरी को टिकट

हाल ही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अजमेर आईं तो उन्होंने अजमेर लोकसभा सीट के उपचुनाव के लिए उपयुक्त प्रत्याशी के लिए स्थानीय नेताओं से सलाह-मश्विरा किया। अगर खबरची व राजनीतिक पंडित एडवोकेट राजेश टंडन की फेसबुक पोस्ट को सही मानें तो चर्चा में अजमेर डेयरी के अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी का नाम आया, हालांकि उन्होंने नाम का खुलासा करने से बचते हुए उन्हें दूध वाले भैया व दूधनाथ के नाम से संबोधित किया है। खोज-खबर के अनुसार चौधरी के प्लस-माइनस पर विचारों का आदान-प्रदान भी हुआ। उससे तो यही प्रतीत होता है कि कम से कम संघियों को तो चौधरी फूटी आंख नहीं सुहाते। उन्होंने एक संघनिष्ठ और संस्कारित पुराने बैंडमास्टर नेता जी का हवाला दिया है, निश्चित ही वे अजमेर भाजपा के भीष्म पितामह रह चुके नेताजी का जिक्र कर रहे हैं। जैसे ही ये बात आई कि चौधरी के पक्ष में खूब नारे लगते हैं और मीडिया भी उन पर मेहरबान है, तो तथाकथित बैंड मास्टर से नहीं रहा गया और तपाक से बोले कि उनको खाना-वाना खिला कर भीड़ जुटाने में हैडमास्टरी है और अखबार वालों को समय-समय पर देसी घी की थैली देते हैं। इस पर मैडम ने इसे तो चौधरी की खूबी करार दिया। जब उन्हें ये बताया गया कि वे जब कांग्रेसी थे तो उनके खिलाफ अखबार वाले हड़ताल कर चुके हैं, इस पर भी मैडम ने यही प्रतिक्रिया दी कि ये तो अच्छी बात है कि हमारे यहां आ कर वे कितने सुधर गए हैं, जो मीडिया वाले हड़ताल कर चुके हैं, वे ही तारीफों के पुल बांध रहे हैं।
खैर, कुल जमा इस संक्षिप्त वार्तालाप से अंदाजा लगाया जा सकता है कि चौधरी संघ को तो हजम नहीं हैं, जबकि वसुंधरा की नजर में वे जंच रहे प्रतीत होते हैं। समझा जा सकता है कि वसुंधरा आरंभ से गैर संघियों को साथ लेकर चल रही हैं। जैसे अजमेर सीट के सांसद रहे प्रो. सांवरलाल जाट। वे भी संघ पृष्ठभूमि के नहीं थे, इस कारण संघ को कभी रास नहीं आए। वसुंधरा ही उन्हें आगे ले कर आईं और अस्वस्थता के चलते केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाए जाने के बाद राज्य किसान आयोग का अध्यक्ष बनाया। हालांकि अकेली वसुंधरा ही प्रत्याशी तय नहीं करेंगी, भाजपा हाईकमान का भी अहम रोल होगा, मगर उनकी चली तो चौधरी गंभीर दावेदार हो सकते हैं। अगर वे टिकट लेने में कामयाब नहीं होते तो यह तय मान कर चलिए कि उसमें संघ वालों का ही हाथ होगा। भला कांग्रेसी कल्चर वाले को संघ क्यों आगे आने देगा?
असल में भाजपा की दिक्कत ये है कि उसे प्रो. जाट के निधन से खाली हुई सीट पर किसी जाट को ही टिकट देना मजबूरी है। सबसे पहले दावेदार प्रो. जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा हैं, मगर लगता यही है कि भाजपा उन्हें अपेक्षित मजबूत नहीं मान रही, इसी कारण रामचंद्र चौधरी पर विचार हो रहा है। चर्चा सी बी गेना की भी है, मगर सबसे उपयुक्त चौधरी को माना जा रहा है। टिकट हासिल करने के लिए उन्होंने एडी से चोटी का जोर भी लगा रखा है। उनकी सबसे बड़ी बाधा है प्रो. जाट के परिवार को राजी करना। अगर लांबा नसीराबाद विधानसभा सीट के लिए राजी हो भी गए तो संघ वाले आड़े आ जाएंगे।
जहां तक स्थानीय नेताओं का सवाल है तो उनकी चौधरी से कभी ट्यूनिंग नहीं रही। होती भी कैसे? वे शुरू से कांग्रेसी रहे। समझा जाता है कि स्थानीय लॉबिंग देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी पी सारस्वत के पक्ष में हो रही है। वे वसुंधरा की पसंद भी हैं, मगर उन्हें टिकट दिए जाने पर जाट समाज भाजपा को पटखनी खिला सकता है। दावा अजमेर से पांच बार सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत भी ठोक चुके हैं, मगर उन्हें तो अजमेर से रुखसत किया ही इसलिए गया था कि रावत बहुल मगरा इलाका अजमेर संसदीय क्षेत्र से बाहर हो गया था। बताते हैं कि अजमेर नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन ने तो यह कह कर टिकट मांगा है कि वे जीतने पर सांसद के नाते मिलने वाले वेतन-भत्ते नहीं लेंगे, मगर भाजपा गैर जाट के रूप में किसी जैन पर दाव खेलेगी, इसमें तनिक संदेह है।
वैसे अपना मानना है कि ये जितने भी नाम हैं, इन पर विराम तभी लग जाएगा, जब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट का नाम फाइनल होगा। उनसे भिड़ाने के लिए भाजपा को बाहर से दावेदार लाना होगा, जैसे पहले किरण माहेश्वरी को लाया गया था। बाहर से आने वालों में सतीश पूनिया व रामपाल जाट का नाम चर्चा में है।
जैसे ईश्वर के बारे व्याख्या करते करते वेद भी आखिर में नेति नेति कह मौन हो जाते हैं, ठीक वैसे ही राजनीति के बारे में भी चर्चा करते हुए आखिर में नेति नेति ही कहना उपयुक्त होगा, क्यों कि राजनीति के ऊंट किस करवट बैठेगा है, इसकी भविष्यवाणी दुनिया का बड़ा से बड़ा ज्योतिषी नहीं कर सकता।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

राजनीतिक मकसद साधने को बढ़ाया हेड़ा का कद

अब जब कि लोकसभा उपचुनाव की सरगरमी शुरू हो गई है, ऐन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के अजमेर दौरे के साथ अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिव शंकर हेड़ा को राज्य मंत्री का दर्जा देने से साफ है कि इसका मकसद मात्र राजनीतिक लक्ष्य साधना ही है।
हो सकता है कि अजमेर विकास प्राधिकरण व जोधुपर विकास प्राधिकरण के अध्यक्षों के अधिकार बढ़ाने पर काफी समय से विचार चल रहा हो, मगर जिस प्रकार प्राधिकरणों को संचालित करने वाले अधिनियम में संशोधन किए बगैर राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है, वह साबित करता है कि यह आनन फानन में किया गया है। अधिनियम में अध्यक्ष की हैसियत से अहम फैसले लेने का क्षेत्राधिकार अब भी इन्हें नहीं मिला है। अर्थात राज्य मंत्री का दर्जा एक तमगे से अधिक कुछ नहीं है। उसके लिए अधिनियम में बाकायदा संशोधन करना होगा। चूंकि सरकार इस बाबत ठीक से विचार नहीं कर पाई थी, इस कारण फिलहाल राज्य मंत्री का दर्जा देने की घोषणा कर दी गई, ताकि उपचुनाव में लाभ हासिल किया जा सके।
असल में सरकार ने लोकसभा चुनाव में वैश्य समाज को और अधिक संतुष्ट करने के लिए ही हेड़ा का कद बढ़ाया है। सरकार जानती है कि जीएसटी लागू होने के बाद वैश्य समुदाय, जो कि आम तौर पर व्यापार से जुड़ा हुआ है, उसमें काफी नाराजगी है। आपको ख्याल होगा कि पिछले साल 21 जनवरी को जब हेड़ा को अध्यक्ष बनाया गया था तो यह पूरी तरह से साफ था कि उनकी ताजपोशी केवल इस कारण संभव हो पाई, क्योंकि भाजपा अपने वोट बैंक वैश्य समाज को तुष्ट करना चाहती थी, जबकि राजनीतिक रूप से हेड़ा भूली बिसरी चीज हो चुके थे। राजनीतिक हलकों में उनकी नियुक्ति को लेकर आश्चर्य भी जताया गया था। ज्ञातव्य है कि जिले की एक भी विधानसभा सीट पर वैश्य समुदाय का व्यक्ति काबिज नहीं है, इस कारण इस समुदाय में नाराजगी रहती है। वे यह शिकायत करते रहे हैं कि वे भाजपा को तन-मन-धन से पूरा सहयोग करते हैं, मगर उसके अनुरूप राजनीतिक लाभ नहीं मिला है।
खैर, हेड़ा को एडीए का अध्यक्ष बनाए जाने से शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी व महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल के बाद सत्ता का एक और केन्द्र विकसित हो गया। जैसे ही हेड़ा अध्यक्ष बने, उन्होंने इस पद के दम पर धरातलीय राजनीतिक ताकत बढ़ाना शुरू कर दिया। यहां तक कि वे गैर सिंधीवाद के नाम पर अजमेर उत्तर विधानसभा सीट के दावेदार भी बन गए हैं। सच बात तो ये है कि उन्होंने दोवदारी मजबूत करने की दिशा में काम भी करना शुरू कर दिया है। अब उनके इर्द गिर्द भी समर्थकों को हुजूम रहता है। इसका नतीजा ये है कि देवनानी व हेड़ा के बीच टकराव आरंभ हो गया है। ये टकराव बाकायदा स्वायत्त शासन मंत्री श्रीचंद कृपलानी तक भी पहुंचा है। देवनानी ने तो कृपलानी से शिकायत भी की कि हेड़ा उनके अनुशंषित कामों में रोड़ा अटकाते हैं। एलीवेटेड रोड को लेकर दोनों के बीच मतभेद खुल कर सामने आ चुके हैं। हेड़ा का दबाव रहता है कि विधायक कोटे के तहत एडीए के माध्यम से कराए जाने वाले कामों के उद्घाटन समारोहों में उन्हें भी अतिथि के तौर पर बुलाया जाए।
बहरहाल, भले ही अधिनियम में संशोधन के बिना हेड़ा का कद बढ़ाया गया है, वे और अधिक मजबूत हो गए हैं। इससे भले ही टिकट को लेकर खींचतान बढ़े, मगर भाजपा को वैश्य समुदाय का लाभ तो मिल ही सकता है। हेड़ा को राज्य मंत्री का दर्जा देते ही जिस प्रकार अजमेर जिला वैश्य सम्मेलन और श्री माहेश्वरी प्रगति संस्थान के कार्यकर्ताओं ने उनका बढ़ चढ़ कर स्वागत किया, वह यह समझने के लिए काफी है कि सरकार का निशाना ठीक लक्ष्य पर पड़ा है।
हालांकि भाजपा की ओर से गैर सिंधी प्रत्याशी का प्रयोग लगभग असंभव प्रतीत होता है, मगर हेड़ा का कद बढ़ाने से वह यह कहने की स्थिति में तो होगी कि उसने सिंधियों के साथ वैश्यों के राजनीतिक हितों का भी ध्यान रखा है।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

आम आदमी पार्टी को भी तलाश है उम्मीदवार की

अजमेर में आगामी लोकसभा उपचुनाव के लिए एक ओर जहां कांग्रेस व भाजपा कमर कस रहे हैं और संभावित प्रत्याशियों के नामों पर चर्चा शुरू हो गई है, वैसे ही आम आदमी पार्टी भी किसी ऐसे प्रत्याशी की तलाश कर रही है तो कांग्रेस व भाजपा से विमुख मतदाताओं के वोट हासिल कर पार्टी की उपस्थिति दर्शा सके। जानकारी के अनुसार इस सिलसिले में अन्ना हजारे आंदोलन की धूम मचा चुकी व वर्तमान में यूनाइटेड अजमेर नामक संस्था के जरिए सामाजिक कार्यों में जुटी श्रीमती कीर्ति पाठक का मन टटोला गया है, हालांकि वे बहुत पहले ही कह चुकी हैं कि वे कभी चुनावी राजनीति में नहीं आएंगी।
ज्ञातव्य है कि अन्ना हजारे आंदोलन के दौरान कीर्ति पाठक बहुत सक्रिय रहीं व उनका नाम खूब चमका और उन्हीं की बदौलत बाद में आम आदमी पार्टी का वजूद पैदा हुआ। मगर जैसे ही पार्टी में जूतपैजार वाली स्थिति आई और उन पर झूठे आरोप लगे तो उन्होंने पार्टी से टाटा बाय बाय करने में ही भलाई समझी। अगर वे इस वक्त तक पार्टी में होतीं तो कदाचित सम्मानजनक उपस्थिति दर्ज करवा पातीं। हालांकि उनके मैदान से हटने के बाद में भी आम आदमी पार्टी सक्रिय रही, मगर उसका वजूद कभी कायम नहीं हो पाया। असल में इस पार्टी की स्थानीय इकाई को लेकर सदा विवाद ही रहे। पिछले चुनाव में तो पार्टी के घोषित प्रत्याशी के ऐन वक्त पर चुनाव मैदान से हटने पर पार्टी की उग्र कार्यकर्ता किरण शेखावत ने उनका मुंह काला कर दिया। बड़ा बवाल हुआ। कुल मिला कर वर्चस्व की लड़ाई के चलते पार्टी में आस्था रखने वाले कार्यकर्ता धीरे-धीरे छिटकते गए। ऐसी कमजोर स्थिति में ही मंगलवार को महावीर सर्किल स्थित बाबा जी की नसियां में कथित प्रदेश स्तरीय सम्मेलन कामयाब नहीं हो पाया। दावे के मुकाबले दस प्रतिशत भी कार्यकर्ता नहीं जुटे। उसकी एक वजह ये भी रही कि पार्टी की अजमेर लोकसभा पीओसी जयश्री शर्मा ने पहले ही विरोध दर्ज करवा दिया था।
बहरहाल, पार्टी के कर्ताधर्ताओं ने हिम्मत नहीं हारी है। वे किसी ऐसे पुराने कांग्रेस या भाजपा नेता की तलाश में हैं, जो कि अपना थोड़ा-बहुत जातीय समीकरण रखता हो, संपन्न हो और कांग्रेस व भाजपा से अलग हो चुके कार्यकर्ताओं को एकजुट कर सके। हालांकि पार्टी जानती है कि इस उपचुनाव में जीतना नितांत असंभव है, मगर यदि अन्ना हजारे व अरविंद केजरीवाल के नाम से वोट हासिल किए जा सकें व पार्टी का थोड़ा-बहुत भी प्रदर्शन ठीक ठाक हो तो उससे आगामी विधानसभा चुनाव के लिए मैदान तैयार किया जा सकेगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

नए अवतार में आएंगे लाला बन्ना?

अजमेर नगर परिषद के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना की भाजपा में वापसी से ऐसा प्रतीत होता है कि सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो जाएगा, मगर जिस घटनाक्रम के बाद वे लौटे हैं, उससे इस बात की संभावना अधिक है कि वे लाला बन्ना का दूसरा संस्करण या दूसरा अवतार होंगे।
वस्तुत: कोई ये कह सकता है कि किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए अंतत: मूल धारा में आना मजबूरी होता है, अत: वह हालात से समझौता कर लेता है, मगर जिस प्रकार का लाला बन्ना का व्यक्तित्व है, वे भाजपा में लौटने मात्र के लिए नहीं लौटे हैं। सब जानते हैं कि वे कितने ऊर्जावान और महत्वाकांक्षी हैं। भाजपा में ही ऐसे बहुत से हैं, जो भाजपा में रहते हुए भी मृतप्राय: हैं, मगर लाला बन्ना भाजपा से बाहर रहते हुए भी अपने वजूद को जिंदा रखे हुए रहे। उनकी अपनी फेन्स फॉलोइंग है, जिसने उन्हें विस्मृत नहीं होने दिया। इस बीच संजीदगी व गंभीरता भी बढ़ी है, लिहाजा पक्का मान कर  चलिए कि इस बार बड़ी चतुराई से मोहरे खेलेंगे। और उसकी वजह भी है, वे केवल स्थानीय स्तर पर जिंदा नहीं है, बल्कि ऊपर भी उनके तार बहुत मजबूत हैं। यानि कि अब लाला बन्ना का नया अवतार सामने आना वाला है।
रहा सवाल स्थानीय समीकरणों का, तो कुछ लोग यह मान कर चल सकते हैं कि चूंकि वे पूर्व में महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल के खास सिपहसालार रहे, इस कारण अब भी शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी विरोधी सेना के सेनापति होंगे ही, ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। कहते हैं न कि रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय, टूटे से फिर न ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय। इसकी वजह ये है कि भाजपा में औपचारिक तौर पर भले ही वापसी अब जा कर हुई, मगर वास्तविक सुलह तो नगर निगम के महापौर धर्मेन्द्र गहलोत से हाथ मिला कर हो गई थी। तभी ये तय हो गया था कि वे देर-सवेर भाजपा में शामिल होंगे, अन्यथा सुलह की जरूरत ही क्या थी? बाद में जिस प्रकार भाजपा के दिग्गज नेता ओम प्रकाश माथुर के अजमेर आगमन पर उनकी जो जिंदादिल मौजूदगी थी, वह इस बात का प्रमाण थी कि वापसी सुनिश्चित है। खैर, गहलोत के साथ सुलह राजगढ़ भैरोंधाम के मुख्य उपासक चंपालाल जी महाराज की पहल पर हुई या फिर दोनों सुलह चाहते थे, किसका इनीशियेटिव था पता नहीं, मगर इतना तय है कि सुलह के साथ उन दोनों के बीच कुछ तो तय हुआ ही होगा। ऐसे में यह सुनिश्चित तौर पर नहीं कह सकते कि लाला बन्ना फिर पुराने समीकरणों में समाहित हो जाएंगे। असल में भाजपा से बाहर रह कर उन्हें इस बात का भी ठीक अनुमान हो गया होगा कि उनकी राजनीतिक भलाई कैसा रोल अदा करने में है? कौन अपना और कौन पराया है? सबसे बड़ी बात ये है कि नीचे से ऊपर वे जिस लॉबी के हिस्से रहे हैं, वह कोई कमजोर लॉबी नहीं है। और उसमें भी वे कमजोर स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि वे किसी नई रणनीति के सूत्रधार होंगे। चूंकि उनमें पहले से अधिक परिपक्वता आई होगी, इस कारण लगता नहीं कि वे भावावेश में गैर सिंधीवाद की मुहिम का हिस्सा होंगे या मेयर बनने के लिए विरोधियों से हाथ मिलाने जैसा कदम उठाएंगे। बेशक अजमेर में गैर सिंधी व गैर अनुसूचित जाति के नेताओं के लिए सीमित संभावनाएं हैं, मगर उन सीमित संभावनाओं में भी वे अपने लिए स्थान सुनिश्चित कर लेंगे, ये मान कर चला जा सकता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

लाना बन्ना, सारस्वत, जैन व पहाडिय़ा का भी नाम उछल रहा है

राज्य किसान आयोग के अध्यक्ष व अजमेर सांसद रहे प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई अजमेर लोकसभा सीट के लिए होने वाले उपचुनाव में भाजपा की ये मजबूरी है वह प्रो. जाट के ही परिवार से किसी को टिकट दे। अगर नहीं तो भी भाजपा किसी गैर जाट को टिकट देकर पूरी जमात को अपने खिलाफ नहीं कर सकती। अर्थात उसे किसी जाट को ही टिकट देनी होगी, चाहे वह अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी हों या फिर सी बी गैना या कोई और। बावजूद इसके गैर जाटों में भी कई दावेदार उभर कर सामने आ रहे हैं। कदाचित वे भी जानते होंगे कि टिकट मिलना मुश्किल है, मगर कम से कम चर्चित होने का लाभ तो वे ले ही रहे हैं।
अजमेर उत्तर विधानसभा सीट की भाजपा टिकट के लिए सर्वाधिक चर्चित रहे अजमेर नगर परिषद के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना का नाम सोशल मीडिया पर खूब उछल रहा है। उनके समर्थक बाकायदा उनकी फोटो के साथ पोस्टें डाल रहे हैं। इसी प्रकार युवा भाजपा नेता व मसूदा की विधायक श्रीमती सुशील कंवर के पति भंवर सिंह पलाड़ा के नाम का भी सोशल मीडिया पर खूब हल्ला है। उनके समर्थक उन्हें भावी सांसद के रूप में देख रहे हैं। देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत का नाम भी सुर्खियां पा रहा है। उनके लिए तो राजनीतिक पंडित एडवोकेट राजेश टंडन ने बाकायदा एक लंबी-चौड़ी पोस्ट फेसबुक पर डाली है। उनमें लिखा है कि भाजपा लोकसभा अजमेर उप चुनाव में प्रोफेसर सारस्वत को प्रत्याशी बनाने का बहुत गहनता से विचार कर रही है। सारस्वत को टिकट देने संघ लॉबी पूरी तरह साथ लग जायेगी, यह तो निश्चित है, भाजपा की अजमेर देहात जिला की कार्यकारिणी भी साथ लग जायेगी। उनकी जीत की संभावनाओं पर ग्राउंड से रिपोर्टें मंगवाई जा रही हैं। साथ ही उन्होंने यह आशंका भी जताई है कि सारस्वत के लड़ते ही जाट वोट नहीं मिलेगा। पूरे का पूरा प्रोफेसर सावंरलाल का खानदान चुनाव लडऩे को तैयार बैठा है।
इसी प्रकार पिछले दिनों प्रदेश के जाने-माने पत्रकार अनिल लोढ़ा ने इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर एक विश्लेषण में हालांकि कहा यही कि प्रो. जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा को इशारा कर दिया गया है, मगर साथ ही उन्होंने अजमेर नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन का भी नाम लिया। यह वीडियो क्लीपिंग सोशल मीडिया पर खूब चली। ज्ञातव्य है कि जैन पूर्व में भी दावेदारी जता चुके हैं। जब जैन का नाम आता है कि लोग उनके साथ पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा का नाम भी जोडऩे से नहीं चूकते।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, 25 सितंबर 2017

प्रतिष्ठापूर्ण शिक्षा बोर्ड पर अनोखा सवालिया निशान

गोपनीयता व निष्पक्षता के मामले में राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड  का नाम पूरे देश में अव्वल है। यहां के परीक्षा सिस्टम को पूरे देश के शिक्षा बोर्डों में सर्वाधिक लीक प्रूफ माना जाता है। इसी वजह से देश के अनेक बोर्डों के प्रतिनिधिमंडल यहां आ कर यहां की कार्यप्रणाली जानने-समझने आ चुके हैं। देशभर के शिक्षा बोर्डों की संस्था कोब्से की अध्यक्षता करने का सौभाग्य स्थानीय बोर्ड अध्यक्ष को मिलने की वजह आदर्श परीक्षा पद्धति ही है। हालांकि समय-समय पर कर्मचारियों की लापरवाही व बदमाशी के कारण कुछ आर्थिक गड़बडिय़ां उजागर हुई हैं। इसके अतिरिक्त पेपर लीक के मामले भी सामने आए हैं, मगर उनमें अमूमन बोर्ड के बाहर की अधिक घटनाएं हैं। कुल मिला कर ऐसा माना जाता है कि इस बोर्ड में अंकों को लेकर घपलेबाजी या सेटिंग नहीं हो सकती। ऐसे प्रतिष्ठापूर्ण बोर्ड पर एक अनोखा सवालिया निशान अंकित हो गया है।
यह मामला अनोखा इस कारण है कि इसमें परीक्षक ने सेटिंग करके अंक बढ़ाए नहीं हैं, बल्कि घटाए हैं। अंक घटने के कारण सात परीक्षार्थियों को जब नुकसान हुआ तो उन्होंने मामला उजागर किया। असल में हुआ ये है कि कम अंक मिलने और अपने परिणाम से असंतुष्ट विद्यार्थियों ने बोर्ड से अपनी अंग्रेजी विषय की उत्तर पुस्तिकाओं की स्कैन प्रति निकलवाईं तो इन उत्तर पुस्तिकाओं की स्कैन प्रति को देख कर विद्यार्थियों के होश उड़ गए। शिक्षक ने सात विद्यार्थियों को पहले कुछ और अंक दिए और बाद में उन्हें व्हाइटनर से मिटा कर कम कर दिए। हालांकि इस प्रकरण को शिक्षक की लापरवाही करार दिया जा रहा है, मगर यह मामला साफ तौर पर सायास किया गया लगता है। लापरवाही तो तब होती जब शिक्षक उत्तर पुस्तिका को ठीक से नहीं जांचता, अथवा अंकों में योग में सावधानी नहीं रखता। व्हाइटनर से पुराने अंक छिपा कर नए अंक देने से यह साफ है कि यह जानबूझ कर किया गया है। ठीक से पड़ताल होने पर ही पता लग पाएगा कि परीक्षक ने बाद में जो अंक दिए हैं, वे सही हैं या गलत। इस प्रकरण के पीछे कोई साजिश है, यह तो जांच से ही सामने आ पाएगा, मगर संभावना इस बात की भी है कि पहले शिक्षक ने असावधानी के कारण कुछ अंक दिए, मगर जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने व्हाइटनर से पुराने अंक छिपा कर नए अंक दे दिए। जहां तक व्हाइटनर लगाने का प्रश्र है तो केवल ऐसा करने मात्र से मामले को संगीन नहीं माना जा सकता। सुधार के लिए वह व्हाइटनर का उपयोग कर सकता है। मगर यदि उसने किसी दुश्मनी के भाव से अथवा किसी के कहने से इस प्रकार की कारसतानी की है तो यह वाकई गंभीर बात है।
हालांकि बोर्ड अध्यक्ष बी एल चौधरी ने जो प्रतिक्रिया दी है, वह अपेक्षित और सीधी-सपट भी है कि शिक्षक ने उत्तर पुस्तिका की जांच में लापरवाही बरती है और जांच के बाद इसकी पुष्टि हो जाएगी। बोर्ड ऐसे शिक्षक के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगा और उसे डीबार कर दिया जाएगा। मगर चूंकि बोर्ड की अपनी बड़ी प्रतिष्ठा है, इस कारण इस मामले को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, 23 सितंबर 2017

नगर निगम को अब कैसे नजर आ गई रेलवे की बिल्डिंग?

पिछले काफी समय से गांधी भवन चौराहे पर रेलवे स्टेशन परिसर में एक बहुमंजिला इमारत का निर्माण चल रहा है। संभवत: उसका ढ़ांचा बन कर पूरा हो गया है और अब उसे अंतिम रूप दिया जाना शेष है। मगर चंद कदम दूर ही स्थित नगर निगम को अचानक यह निर्माण खटक गया और उसने इस बहुमंजिला व्यावसायिक निर्माण को अवैध निर्माण बताते हुए काम बंद करने का नोटिस दिया है। इतना ही नहीं उसे अवैध निर्माण मानते हुए तोडऩे तक की आवश्यक कानूनी कार्यवाही करने को चेताया गया है। यह कैसी अंधेरगर्दी है?
हालांकि इस मामले में दोनों पक्षों की दलीलों पर गौर करें तो यह विभागीय तालमेल के अभाव अथवा नियमों की अस्पष्टता का मामला लगता है, मगर सवाल ये है कि जब बिल्डिंग इतनी ऊंचाई तक बन चुकी है, तब जा कर निगम को होश कैसे आया? एक के बाद एक मंजिल का निर्माण होता गया और अब यह विशालकाय हो चुकी है, तब जा कर ख्याल कैसे आया कि यह नियम विरुद्ध बन रही है? हालांकि निगम का यह रवैया नया नहीं है और गली-मोहल्लों में हो रहे निर्माण पूरे होने के करीब आने पर ही निगम को होश आता है, मगर ये निर्माण तो शहर की छाती पर हो रहा है, जिस पर गांधी भवन चौराहे से गुजरने वाले हर नागरिक की कई कई बार नजर पड़ चुकी है। बेहद अफसोसनाक बात है कि निगम के जिम्मेदार अधिकारियों की तंद्रा अब जा कर खुली है। स्मार्ट सिटी बनने जा रहे अजमेर में यदि ऐसे गैरजिम्मेदार व लापरवाह अधिकारी बैठे हैं तो इस शहर का भगवान ही मालिक है।
जहां तक विवाद का सवाल है, निगम का कहना है कि यह अगर रेलवे का कार्यालय होता तो कोई बात नहीं, कॉमर्शियल निर्माण के लिए तो अनुमति जरूरी है। दूसरी ओर निर्माण करवाने वाले हरसद तलेदा की तरफ से रेल भूमि विकास प्राधिकरण के जनरल मैनेजर वीरेंद्र कुमार ने तर्क दिया कि उक्त भूमि पर आरएलडीए यानी रेलवे भूमि विकास प्राधिकरण द्वारा निविदाएं आमंत्रित कर 45 वर्ष की लीज पर भूमि लेकर एमएफसी यानी मल्टी फंक्शन कॉम्पलेक्स के निर्माण के लिए दिया गया है। चूंकि एमएफसी रेलवे का संचालित भवन है, इसलिए रेल्वे अधिनियम के अंतर्गत इसके निर्माण की स्वीकृति स्थानीय नगरीय निकाय अथवा राज्य सरकार से लिए जाने की आवश्यकता नहीं है। यानि कि कुल मिला कर यह मामला नियमों की पेचीदगी का है। ऐसे में अगर यह प्रकरण कोर्ट में गया और निर्माण अवैध माना गया तो उसे तोडऩे से होने वाला नुकसान क्या देश का नुकसान नहीं होगा?
वैसे, लनता ये है कि आखिरकार इसका कोई न कोई रास्ता निकल आएगा, मगर तब तक यह विशालकाय भवन निगम को मुंह चिढ़ता रहेगा और आम जनता की जिज्ञासा बढ़ती ही जाएगी।
अंधेरगर्दी का दूसरा संगीन मामला
अजमेर नगर निगम की लापरवाही का दूसरा संगीन मामला भी गौर फरमाइये, जिसकी वजह से आम आदमी फोकट ही परेशान हो रहा है:-
नगर निगम द्वारा जलदाय विभाग के सहयोग से इस माह से सीवरेज सरचार्ज लिया जा रहा है, मगर कई उपभोक्ता ऐसे हैं, जिनके क्षेत्र में सीवरेज लाइन डाली ही नहीं गई और उनसे भी वसूली की जा रही है। असल में हुआ ये है कि निगम ने सीवरेज कनेक्शन लेने के लिए नोटिस जारी किए हैं, इस पर लोगों ने निगम में 600 रुपए की रसीद कटवा ली है। हालांकि अनेक आवेदकों के घरों के सीवरेज कनेक्शन या तो हुए नहीं हैं और या फिर सीवरेज कनेक्शन चालू किए नहीं गए हैं, लेकिन निगम ने सभी आवेदकों के नाम जलदाय विभाग को भिजवा दिए हैं, नतीजतन विभाग ने पानी के बिल के साथ सरचार्ज की राशि भी जोड़ दी गई है। ऐसे में जनता का परेशान होना स्वाभाविक ही है। जब उनका सीवरेज कनेक्शन चालू ही नहीं हुआ है तो वे काहे का सरचार्ज दें।
इस मामले में निगम के एक्सईएन केदार शर्मा का हास्यास्पद बयान देखिए कि इस त्रुटि का जल्द ही समाधान कर दिया जाएगा। वे कह रहे है कि ऐसे उपभोक्ता परेशान होने के बजाए निगम की योजना शाखा में आकर प्रार्थना पत्र मय मोबाइल नंबर दे सकते हैं। इसके लिए निगम स्तर पर एक कार्मिक को जिम्मेदारी भी सौंप दी गई है। अजी महाराज, गलती आपकी और जनता निगम को चक्कर काटे, क्या वह फालतू है? आपको केवल उनके  के नाम जलदाय विभाग को भेजने चाहिए थे ना, जिनके सीवरेज कनेक्शन हो चुके हैं।
शर्मा कह रहे हैं कि उपभोक्ताओं की परेशानी को देखते हुए जलदाय विभाग के अधिकारियों से चर्चा की गई है। यदि पानी के बिल की अंतिम तिथि करीब ही है तो उक्त बिल को जमा करवा दें। अगले माह में आने वाले पानी के बिल में उक्त राशि को समायोजित कर लिया जाएगा। अरे प्रभु, पहले बिल में राशि जोडऩे और फिर समायोजित करने की मशक्कत क्यों करवाई? इस प्रकार की बेगारी करवाने के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या कानून को उसकी गर्दन नहीं नापनी चाहिए?
-तेजवानी गिरधर
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लाचार शहर के लाचार मंत्री

गत दिवस स्वायत्त शासन मंत्री श्रीचंद कृपलानी की मौजूदगी में स्थानीय जनप्रतिनिधियों, जो कि राज्य सरकार में मंत्री भी हैं, ने जिस प्रकार स्मार्ट सिटी में काम न होने का रोना रोया, उससे एक ओर तो यह आभास कराया गया कि उन्हें अजमेर की बड़ी चिंता है, दूसरी ओर यह भी साबित हो गया कि टायर्ड-रिटायर्ड लोगों के इस लाचार शहर के मंत्री भी कितने लाचार हैं।
शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का तो यहां तक कहना था कि स्मार्ट सिटी केवल चर्चाओं में है, काम नहीं हो रहे। स्मार्ट सिटी पर काम कम, बातें ज्यादा हो रही हैं। जिस प्रकार काम चल रहा है, इसमें सालों लग जाएंगे। हम जब जनता के बीच जब जाएंगे तो उन्हें क्या जवाब देंगे। हालत ये थी कि मंत्री की हैसियत रखने वाले देवनानी को भी पूछना पड़ा कि स्मार्ट सिटी योजना के तहत अब तक कितना पैसा खर्च हो चुका है। अफसोसनाक बात देखिए कि बैठक के आखिर तक अधिकारी भी ये नहीं बता पाए कि दिल्ली से कितना आ बजट चुका है।
महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री अनिता भदेल की लाचारी देखिए कि उन्हें यह तक कहना पड़ा कि अमृत योजना में क्या चल रहा है, इसकी उनके पास जानकारी नहीं है। बैठक में उन्हें बुलाया ही नहीं जाता है। उनके विधानसभा क्षेत्र में सीवरेज की लाइनें जाम हो चुकी हैं, गंदा पानी ओवर फ्लो होकर सड़कों पर रहा है। निगम अधिकारियों को कई बार कहा, लेकिन उनकी समस्या का समाधान नहीं हो रहा है। अब जब हम जनता के बीच जाएंगे तो उन्हें क्या जवाब दें? शहर जिला भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव तक की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही थी। उन्हें यहां तक कहना पड़ा कि लेपटॉप लेकर आने से बैठक पूरी नहीं हो जाती। जनता को हमें जवाब देना है। आचार संहिता लग जाएगी तब बजट का उपयोग किया जाएगा क्या?
देवनानी सहित अन्य जनप्रतिनधियों ने स्ट्रीट लाइट जैसी मूलभूत सुविधा को लेकर हो रही लापरवाही का रोना रोया, जिसका संचालन ईएसएल कंपनी करती है।
समझा जा सकता है कि हमारे जनप्रतिनिधि कितने लाचार हैं। जब वे ही संतुष्ट नहीं हैं तो जनता की क्या हालत होगी, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
रहा सवाल जनप्रतिनधियों का तो वे समझ रहे हैं कि वे वैसा परफोरमेंस नहीं दे पाए हैं, जिसकी जनता अपेक्षा कर रही है। चार साल पूरे होने को हैं। बाकी एक साल बचा है। अगर ही हाल रहा तो जनता पलटी भी खिला सकती है। बस इसी बात की उन्हें चिंता सता रही है। विधानसभा चुनाव की छोड़ो, दो माह बाद लोकसभा उपचुनाव होने हैं। उन्हें डर है कि जनता का असंतोष भारी न पड़ जाए। ऐसे में जाहिर तौर पर हाईकमान कान उमेड़ेगा, इस कारण इस महत्वूपूर्ण बैठक में अपना असंतोष जाहिर कर दिया ताकि बाद में कहा जा सके वे तो पहले ही कह रहे थे कि जनता के काम ठीक से नहीं हो रहे।
एक ही पार्टी के जनप्रतिनिधियों के बीच तालमेल की हालत ये है कि वे एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं। काम न होने की शिकायत का ठीकरा अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिव शंकर हेडा पर फोडऩे की कोशिश की गई। अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत का कहना था कि एडीए एवं आवासन मंडल की कई योजनाएं हैं, लेकिन उन्हें निगम को ट्रांसफर नहीं किया है, जबकि इन क्षेत्रों में साफ सफाई एवं लाइट की जिम्मेदारी निगम प्रशासन की रहती है।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 20 सितंबर 2017

क्या सचिन पायलट अजमेर से चुनाव लड़ेंगे?

क्या प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट अजमेर लोकसभा सीट के लिए आगामी नवंबर-दिसंबर में संभावित उपचुनाव लड़ेंगे, यह सवाल यहां की राजनीतिक फिजां पर छाया हुआ है। हर आदमी के जेहन में यह सवाल कौंध रहा है, जिसे पैदा करने में मीडिया की अहम भूमिका है।
यूं सवाल स्वाभाविक भी लगता है, क्योंकि पिछले दो चुनाव वे यहां से लड़ चुके हैं, जिसमें एक बार जीते व दूसरी बार मोदी लहर के चलते नहीं जीत पाए। उनके यहां से लडऩे की चाहत उन लोगों में ज्यादा हो सकती है, जिन्हें अहसास है कि एक बार जब वे यहां से जीतने के बाद केन्द्र में अजमेर के पहले मंत्री बने तो खूब काम करवाए। इसके अतिरिक्त चूंकि उनके मुकाबले का दूसरा प्रत्याशी कांग्रेस में है नहीं, इस कारण भी उनसे लडऩे की उम्मीद की जा रही है। मगर बदले राजनीतिक समीकरणों में उनके यहां से लडऩे का सवाल पूरी तरह से बेमानी भी है। वजह ये है कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया ही इस कारण गया कि उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जाना है। उसी के तहत विधानसभा चुनाव में बुरी तरह परास्त और पस्त कांग्रेस में उन्होंने पिछले तीन साल में जान फूंकने के लिए दिन-रात एक कर रखा है। उनकी मेहनत का ही फल है कि आज कांग्रेस, भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में मानी जाती है। ऐसे में एक अदद लोकसभा सीट के चुनाव, वो भी एक डेढ़ साल के कार्यकाल के लिए होने वाले उपचुनाव में उनका लडऩा निहायत ही असंभव सा है। यह बात बिलकुल सीधी और सहज है, फिर भी मीडिया ने इसे तूल दे रखा है।
हालांकि यह सही है कि वे कांग्रेस के एक आइकन हैं, इस कारण उनकी हर गतिविधि पर सब की नजर रहती है। केन्द्र व राज्य में सत्ता पर काबिज भाजपा के लिए अजमेर सीट प्रतिष्ठा का सवाल है, इस कारण उसे इस मुद्दे पर विचार करना ही पड़ रहा है। उनको टक्कर देने के लिए भाजपा के पास कोई प्रत्याशी नहीं है। पिछली बार जाटों की बहुलता के आधार पर प्रो. सांवरलाल जाट को प्रत्याशी बनाया गया, मगर सब जानते हैं कि उनकी जीत में ज्यादा भूमिका मोदी लहर की ही रही। अब न तो मोदी लहर जैसी कोई बात है और न ही प्रो. जाट जैसा नेता भाजपा के पास है। ऐसे में उसका चिंतित होना स्वाभाविक है।
बात मीडिया की करें तो उसने इस मुद्दे को इस तरीके से उठाया कि सचिन चुनाव लडऩे पर केवल इसी कारण विचार करें कि अगर वे नहीं लड़े तो यह माना जाएगा कि हार के डर से घबरा गए, जबकि मुद्दा ये है ही नहीं। उनकी भूमिका अब एक सांसद की नहीं रह गई है। कांग्रेस की ओर से वे भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखे जा रहे हैं, तो भला वे क्यों बहुत कम समय के लिए सांसद बनना चाहेंगे, जो कि केन्द्र में पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार के रहते अजमेर को कुछ विशेष नहीं दे सकते। दैनिक भास्कर की ओर से एक कथित सर्वे का क्या परिणाम आया, ये तो सर्वे करने वाली कंपनी ही जाने, मगर उसी सर्वे की खबर को फेसबुक पर शाया किया गया तो अधिसंख्य ने यही राय जाहिर की कि वे सांसद की बजाय मुख्यमंत्री के रूप में पसंद किए जा रहे हैं। सचिन पायलट से संबंधित खबर के लिए मीडिया की आतुरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जैसे ही प्रदेश कांग्रेस सेवादल के अध्यक्ष राकेश पारीक की जुबान फिसली, अथवा नहीं फिसली, उसे तुरंत लपक कर यह खबर बना दी कि उन्होंने सचिन पायलट के अजमेर से लडऩे की घोषणा की है, जबकि एक सामान्य बुद्धि भी अंदाजा लगा सकता है कि भला पारीक कैसे घोषणा कर सकते हैं। पारीक की ओर से भी सोचें तो कैसे कोई इतना जिम्मेदार नेता इतना अहम निर्णय सुना सकता है, जबकि इसका अधिकार क्षेत्र कांग्रेस हाईकमान व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पास है। निश्चय ही उनका ये मकसद ये रहा होगा कि सचिन पायलट को अजमेर से चुनाव लडऩे का आग्रह किया जाए। हालांकि बाद में उन्होंने जब अपनी मंशा को स्पष्ट किया तो मामले का पटाक्षेप हो गया।
बात अगर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के नजरिये की करें तो उनके प्रति लगाव के चलते वे ऐसा कह सकते हैं कि उन्हें यह चुनाव लडऩा चाहिए, मगर वे भी मन ही मन जानते हैं कि उनके ऊपर पूरे प्रदेश का दायित्व है, अत: सारा ध्यान आगामी विधानसभा चुनाव पर देंगे। हां, इतना जरूर है कि उन पर यह पूरा मानसिक दबाव रहेगा कि ऐसा प्रत्याशी मैदान में उतारें जो जीत कर आए, ताकि आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और अधिक उत्साह के साथ कमर कस सके।
कुल मिला कर मोटे तौर पर यही माना जा सकता है कि वे उपचुनाव नहीं लड़ेंगे। केवल एक क्षीण सी संभावना ये है कि हाईकमान यह सोच कर  कि उनके अतिरिक्त कोई दूसरा उपयुक्त प्रत्याशी है नहीं और इस उपचुनाव को किसी भी सूरत में जीतना है, ताकि आगामी विधानसभा चुनाव में जीत का आगाज हो, तो उन्हें चुनाव लडऩे को कहे। अथवा स्वयं उन्हें लगे कि ऐसा करना उचित रहेगा, तभी उनके लडने की संभावना बनती है पर यह उनके स्वविवेक पर निर्भर करता है। कानूनी रूप से एक सांसद चुने जाने के बाद भी वे मुख्यमंत्री बनाए जा सकते हैं और छह माह में किसी भी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ कर विधायक बन सकते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 17 सितंबर 2017

बीजेपी की जाजम तैयार, मगर उतारे किसको?

अजमेर लोकसभा सीट के लिए आगामी नवंबर-दिसंबर में संभावित उपचुनाव के लिए भाजपा की संगठनात्मक जाजम तो तैयार है, मगर सबसे बड़ी समस्या ये है कि उस पर उतारे किस नेता को?ï उसे यह उपचुनाव इसलिए जीतना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस के परिणाम आगामी साल में होने वाले विधानसभा चुनाव को सीधा-सीधा प्रभावित करेंगे। एक तरह से इस चुनाव का परिणाम ठीक उसी तरह से है, जैसे चावल पका या नहीं, यह देगची में से एक चावल को निकाल कर देखा जाता है। बेशक केन्द्र व राज्य में भाजपा की सरकार होने का फायदा मिलना ही है, मगर ये चुनाव इस बात का सेंपल होगा कि राजस्थान में मोदी लहर व वसुंधरा के ग्लैमर की हालत कैसी है?
वस्तुत: संगठनात्मक लिहाज से भाजपा बहुत अधिक सक्रिय हो गई है। बूथ स्तर तक की चुनावी सेना व सैनिक कमर कस कर तैयार हैं। सत्ता है तो साधन-संसाधन की भी कोई कमी नहीं है। मगर डर सिर्फ इस बात का है कि जनता का मूड कहीं बिगड़ तो नहीं गया है? उसकी अनेक वजुआत हैं। यथा नोटबंदी व जीएसी की वजह से आई बाजार में आई घोर मंदी, महंगाई, बेराजगारी, काले धन को लेकर की गई बड़ी-बड़ी घोषणाएं इत्यादि इत्यादि। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री वसुंधरा को अपेक्षित फ्री हैंड न मिलने के कारण उनका परफोरमेंस निल है। इस बात को ठेठ गांव में बैठा भाजपा का कार्यकर्ता भी जान रहा है। मोदी व वसुंधरा के नाम पर जनता का वोट लेने वाला कार्यकर्ता के सामने जब सवाल खड़े करती है, तो उससे जवाब देते नहीं बनता।
मायूस मोदी समर्थकों के साथ ही ग्रहों का चक्र भी मोदी से कुछ यूं  नाराज सा है कि पिछले दो महीने से हर घटना सरकार के लिए अपयश लेकर आ रही है। वो चाहे गोरखपुर में बच्चों का असमय संसार छोडऩा हो या फिर एक के बाद रेल दुर्घटनाएं या बाबा राम रहीम का भाजपा के सरंक्षण में बेनकाब होना या फिर एबीवीपी की ताजा चुनावी पराजय, जिधर देखिये, हवा में एक नकारात्मक सी प्रतिक्रिया है।
ऐसे हालात में ऐसा कौन सा प्रत्याशी होगा, जो भाजपा की नैया पार लगाएगा, यह सवाल भाजपा के लिए यक्ष बन कर खड़ा है। उस पर सबसे बड़ा दबाव ये है कि जाट के अतिरिक्त किसी अन्य जाति के प्रत्याशी को उतारे जाने का विचार मात्र भयावह है। वजह स्पष्ट है। यह सीट अब जाट बहुल हो चुकी है। दूसरा ये कि प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई है। तो जाट प्रत्याशी के अतिरिक्त अन्य पर दाव खेलने पर जाट समुदाय नाराज हो सकता है। जाटों में भी प्रो. जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा का भारी दबाव है, जो लगातार गांवों में ऐसे दौरे कर रहे हैं, मानो वे ही प्रत्याशी होने वाले हैं। भाजपा समझ रही है कि लांबा का कद व पकड़ उनके पिता प्रो. जाट के मुकाबले कमजोर है। बेशक केन्द्र व राज्य सरकार की ताकत उनके साथ हो सकती है, मगर पिछली बार की तरह मोदी लहर जैसा आलम नहीं है, जिस पर सवार हो कर नैया पार लग जाए। उलटा एंटी इंन्कंबेंसी अलग सता रही है। ऐसे में लांबा पर दाव खेलने से पहले भी उसे सौ बार सोचना होगा। अगर लांबा को नसीराबाद विधानसभा सीट के लिए राजी कर भी लिया जाता है तो जाटों में सिर्फ अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी, किशनगढ़ विधायक भागीरथ चौधरी व सी बी गेना ही विकल्प बचते हैं। अगर कांग्रेस की ओर से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट आ गए, जैसा कि इन दिनों हौवा बना हुआ है, तो इनमें से कोई भी नहीं टिक पाएगा। कारण कि सचिन पायलट हाईप्रोफाइल हैं और उनके केन्द्रीय राज्यमंत्री रहते कराए गए काम जनता के जेहन में हैं। ऐसे में भाजपा स्थानीय जाट की बजाय बाहरी जाट पर विचार कर सकती है। इस रूप में सतीश पूनिया का नाम चर्चा में आया है। रहा सवाल गैर जाट का तो उस पर दाव खेलने का रिस्क भाजपा शायद नहीं ले पाएगी। कुल मिला कर भाजपा की मजबूत सेना को एक मजबूत सेनापति की दरकार है, जिसका फैसला करने से पहले वह कांग्रेस खेमे में झांक कर रही है, उधर से कौन आ रहा है?
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 16 सितंबर 2017

राजपूतों के बाद अब सिंधी भी सरकार से नाराज

कुख्यात आनंदपाल एनकाउंटर को लेकर राजपूत समाज की नाराजगी अभी थमी ही नहीं है कि अब जयपुर में हुए उपद्रव के दौरान कथित तौर पर मारे गए भरत कोडवानी के परिजन को उचित मुआवजा नहीं दिए जाने को लेकर सिंधी समुदाय भी प्रदेश की भाजपा सरकार से नाराज हो रहा है। हालांकि पुलिस का दावा है कि उसकी मौत उपद्रव के दौरान नहीं हुई, मगर पोस्टमार्टम रिपोर्ट से मौत का कारण नहीं पता लग पाने के कारण संशय बना हुआ है। सिंधी समुदाय का मानना है कि भरत की मृत्यु उपद्रव के दौरान ही हुई, इस कारण उसके परिजन को भी उतना ही मुआवजा मिलना चाहिए, जितना एक मुस्लिम युवक के परिजन को। उसमें भेदभाव को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
इस मुद्दे पर सोशल मीडिया पर जम कर आक्रोष नजर आ रहा है। ज्यादा गुस्सा इस कारण है कि उसकी मौत उपद्रव वाले दिन ही हुई, जबकि इसकी जानकारी दो दिन बाद सामने आई। इसे इस रूप में लिया जा रहा है कि यह जानबूझ कर किया गया, ताकि मामला दब जाए। गुस्से की वजह ये भी बन रही है कि पुलिस यह मानने को ही तैयार नहीं है कि उसकी मौत उपद्रव के दौरान हुई। डीसीपी सत्येन्द्र सिंह ने कहा कि भरत की मौत का रामगंज में हुए उपद्रव से कोई लेना-देना नहीं है। उसका शव उसके ही ई-रिक्शा में घटनास्थल से बहुत दूर माणक चौक के पास मिला था। दूसरी ओर एसएमएस के अधीक्षक डॉ. डी एस मीणा ने कहा कि प्रारंभिक जांच में भरत के शरीर पर चोट के निशान मिले हैं। जांच के लिए विसरा एफएसएल को भेजा है। मौत धारदार हथियार, चोट, गोली लगने या अन्य किसी कारण से होने के सवाल पर वे बोले- पुलिस कमिश्नर को रिपोर्ट भेज दी है। वे ही बताएंगे।
बहरहाल, इस मुद्दे को लेकर सिंधी समुदाय लामबंद होता जा रहा है।  बाकायदा अपीलें की जा रही हैं कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए जिला व उपखंड स्तर पर ज्ञापन दे कर विरोध दर्ज करवाया जाए। सिंधी समुदाय से भाजपा का बहिष्कार करने का आह्वान किया जा रहा है। कुछ लोग इस मसले को इस रूप में भी उठाने लगे हैं कि जो भाजपा अब तक कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है, आज वही तुष्टिकरण करते हुए हिंदू युवक के मामले में भेदभाव बरत रही है। तुष्टिकरण को इस रूप में भी पुष्ट किया जा रहा है कि जिन लोगों ने पुलिस के टकराव कर जयपुर को हिंसा में धकेल दिया, उनके ही युवक के उपद्रव के दौरान माने जाने पर सरकार उसके परिजन को मुआवजा देने को मजबूर हो रही है। स्वाभाविक रूप से यह मुद्दा राजनीतिक तो हो ही रहा है, मगर हिंदूवादी भी सरकार के रवैये को लेकर तंज कस रहे हैं। विरोध करने वालों की भाषा तो बहुत कड़वी है, जिसकी पुनरावृत्ति यहां करना उचित नहीं, मगर उसका सार यही है कि वे वसुंधरा सरकार का बोरिया बिस्तर गोल करने तक की अपील कर रहे हैं, जिससे तुष्टिकरण की उम्मीद नहीं थी।
खैर, वस्तुस्थिति जो भी हो, मगर सरकार के लिए नई मुसीबत खड़ी हो गई। जिस प्रकार सिंधी समुदाय एकजुट हो रहा है, उससे भाजपा को अपना वोट बैंक खिसकता नजर आ रहा है। विधानसभा चुनाव से सवा साल पहले  इस प्रकार किसी समुदाय विशेष का रुष्ठ होना चिंता का विषय है ही। इसका नुकसान अजमेर लोकसभा सीट के लिए आगामी नवंबर-दिसंबर में प्रस्तावित उपचुनाव में भी हो सकता है, क्योंकि विशेष रूप से इस संसदीय क्षेत्र का अजमेर शहर सिंधी बहुल है।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 13 सितंबर 2017

रावत समाज ने ठोकी ताल, भाजपा की बढ़ी मुसीबत

अजमेर जिले के रावत समाज ने आगामी नवंबर-दिसंबर में अजमेर संसदीय क्षेत्र के संभावित चुनाव के लिए ताल ठोक दी है। समाज किसी रावत को टिकट देने की मांग कर रहा है। भाजपा के लिए यह मुसीबत का सबब है। वह इस चुनौती से कैसे निपटेगी, यह आने वाला वक्त ही बताएगा।
असल में भाजपा की लगभग मजबूरी सी है कि वह किसी जाट को ही टिकट दे। एक तो इस वजह से कि यह सीट प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई है, दूसरा ये कि अजमेर संसदीय क्षेत्र अब जाट बहुल माना जाता है। हालांकि रावत मतदाताओं की संख्या भी कम नहीं है, जिनका रुझान भाजपा की ओर रहता आया है। ज्ञातव्य है कि पांच बार लोकसभा का चुनाव प्रो. रासासिंह रावत ने समाज के वोटों के दम पर ही जीता था। हर एक चुनाव को छोड़ कर पांच बार अस्सी से नब्बे प्रतिशत मतदान करने वाले रावतों और पार्टी के जनाधार वाले वोटों के योग से प्रो. रावत को जीतने में दिक्कत नहीं होती थी। केवल एक बार डॉ. प्रभा ठाकुर उन्हें हरा पाई, वो भी इसलिए कि उन्होंने भाजपा के राजपूत वोट बैंक में सेंध मारी थी। खैर, रासासिंह रावत का अवसान तब जा कर हुआ, जब परिसीमन में इस संसदीय क्षेत्र का रावत बहुल इलाका मगरा कट गया। अकेले इसी वजह से भाजपा ने प्रो. रावत को टिकट नहीं दिया गया। उनके स्थान पर भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती किरण माहेश्वरी को लाया गया और वे मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट से हार गईं। इसके बाद में हुए चुनाव में भाजपा ने प्रो. जाट पर दाव खेला और जाटों की बहुलता व विशेष रूप से मोदी लहर के कारण वह प्रयोग सफल रहा। लहर इतनी प्रचंड थी कि लोग सचिन पायलट के कराए गए कामों को ही भूल बैठे। अब जबकि प्रो. जाट का निधन हो गया है, ऐसे में भाजपा पर दबाव है कि वह किसी जाट को और विशेष रूप से प्रो. जाट के परिवार से किसी को टिकट दे। हालांकि प्रो. रावत के पांच बार सांसद बनने से रावत भाजपा मानसिकता के ही माने जाते हैं, मगर जिस प्रकार उन्होंने ताल ठोकी है, वह भाजपा के लिए चिंता का कारण है। एक ओर वह किसी गैर जाट को टिकट दे कर जाटों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहेगी, दूसरी ओर वर्षों से कायम अपने रावत वोट बैंक को भी नहीं खोना चाहेगी। ऐसा नहीं है कि रावतों का जिले में प्रतिनिधित्व नहीं है। पुष्कर के विधायक सुरेश रावत हैं। इसके अतिरिक्त संसदीय क्षेत्र से ही सटे और जिले के ब्यावर से भी शंकर सिंह रावत विधायक हैं। ऐसे में रावतों का टिकट के लिए अडऩा अटपटा है, मगर लोकतंत्र में कुछ न कुछ हासिल करने के लिए समाज अड़ते ही हैं। अब देखना ये होगा कि भाजपा रावतों के कितने दबाव में आती है।
रहा कांग्रेस का सवाल तो उसके लिए रावत एक बेहतरीन कार्ड के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। गुर्जरों, अनुसूचित जाति व मुस्लिमों के वोट तो बहुतायत में कांग्रेस को मिलने ही हैं। कांग्रेस के पास एक और कार्ड राजपूतों का भी है। वे भी भाजपा मानसिकता के माने जाते हैं, मगर कुख्यात आनंदपाल मामले के बाद भाजपा से रुष्ठ हैं। ऐसे में कांग्रेस राजपूत कार्ड भी खेल सकती है, जो कि एक बार प्रभा ठाकुर के रूप में सफल हो चुका है।  इस लिहाज से कांग्रेस सुविधानजक स्थिति में है। उसके पास बहुत विकल्प हैं। गुर्जर कार्ड के अतिरिक्त वह किसी दिग्गज जाट को भी मैदान में उतार सकती है। इस सिलसिले में राजस्थान के दिग्गज जाट नेता स्वर्गीय परसराम मदेरणा की पोती दिव्या मदेरणा का नाम चर्चा में आया है। बहरहाल, जैसे जैसे चुनाव नजदीक आएंगे कई नाम उभरेंगे व डूबेंगे। प्रत्याशियों का फैसला नामांकन पत्र भरने की तिथी से एक-दो दिन पहले ही हो पाएगा। तब तक चर्चाओं की जुगाली चलती रहेगी।
-तेजवानी गिरधर
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टंडन साहब, क्या अनादि सरस्वती जी को चुनाव लड़वा कर ही मानोगे?

लंबी चुप्पी के बाद साध्वी अनादि सरस्वती एक बार फिर चर्चा में हैं। राजनीति के पंडित एडवोकेट राजेश टंडन ने फिर उनका नाम उछाला है। वे गईं तो थीं अविनाश माहेश्वरी स्कूल में आयोजित अश्विनी कुमार जी के सुंदरकांड पाठ में शिरकत करने और टंडन साहब ने उनका फोटो फेसबुक पर यह कह कर चिपका दिया कि वे अजमेर उत्तर से भाजपा की भावी विधायक हैं। यूं फोटो तो खुद अनादि जी ने भी शाया किया है, मगर उसका मकसद महज इतना सा दिखता है, जितना आम तौर पर फेसबुकियों का अपनी दिनचर्या को सार्वजनिक करने का होता है। इसमें कुछ खास बुराई भी नहीं है, क्योंकि इस बहाने व्यक्ति अपने समर्थकों या मित्रों के बीच लाइव रहता है। मगर टंडन साहब को इसमें भी कुछ खास अर्थ दिखाई दिया। उन्हें लग रहा है कि अनादि सरस्वती इस प्रकार हर सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक कार्यक्रम में शिरकत कर अपना जनाधार बढ़ा रही हैं।
अगर ये मान भी लिया जाए कि टंडन साहब का इशारा कपोल कल्पित है या अनादि सरस्वती ने भी कभी इस दिशा में सोचा तक न हो, मगर कानाफूसियों के बाजार में चर्चा तो हो ही रही है। बहरहाल, साध्वी अनादि सरस्वती का इस रूप में चर्चित होना कदाचित शिक्षा राज्य मंत्री व अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी को तकलीफ दे रहा होगा। वो इसलिए लिए कि उनके पासंद एक भी दावेदार उन्हें नजर नहींं आता, लिहाजा चौथी बार भी पक्के तौर टिकट हासिल करने का विश्वास रखते हैं। अगर संघ की बात करें तो वह क्या सोचता है और क्या करने वाला है, किसी को भनक तक नहीं लगने देता। वह एक साथ कई प्रयोग कर रहा होता है। कुछ गुप्त तो कुछ सार्वजनिक। हो सकता है कि अनादि सरस्वती को आगे लाने का उसका विचार हो, मगर जिस प्रकार वे हेडा के साथ एकाधिक कार्यक्रमों में नजर आई हैं, उससे जरूर प्रतीत होता है कि वे उन्हें देवनानी के मुकाबले में प्रमोट करना चाहते होंगे। कहने की जरूरत नहीं कि वे गैर सिंधीवाद के नाम पर टिकट चाहते हैं। कदाचित उन्हें लगता हो कि इसमें कामयाब नहीं हो पाएंगे तो बेहतर है विकल्प के तौर पर अनादि सरस्वती को ही आगे लाया जाए, जो कि सिंधी समुदाय की हैं। यहां इस बात को ख्याल में रखना ही चाहिए कि टिकट लाने की कलाकारी देवनानी में है, वो तो एक बात है, मगर विकल्प का अभाव भी कहीं न कहीं उनकी दावेदारी को कमजोर नहीं होने देता। अगर अनादि सरस्वती इस प्रकार उभर कर आती हैं तो वह बात तो खत्म हो ही जाएगी कि देवनानी का विकल्प ही नहीं है।
अब पता नहीं खुद अनादि सरस्वती की रुचि राजनीति में है या नहीं, मगर मौका अच्छा है। अगर देवनानी टिकट लाने में कहीं कमजोर होते हैं तो चांंस बनता है। ज्ञातव्य है कि पिछली बार जब टंडन साहब ने खोज खबर ला कर दी थी कि आरएसएस उनको चुनाव लड़वाने के मूड में है। आरआरएस के एक प्रमुख कार्यक्रम के बाद वे कई बार अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिव शंकर हेडा के साथ कार्यक्रमों में नजर आईं। इससे यह संदेश गया कि या तो उन्हें प्रोजेक्ट किया जा रहा है, या फिर वे स्वयं राजनीतिक व सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर राजनीतिक जमीन तलाश रही हैं। हालांकि उन्होंने कभी इसका खंडन नहीं किया कि उनकी राजनीति में कोई रुचि नहीं है। उनकी चुप्पी को मौन स्वीकृति भी माना जा सकता है, मगर ऐसा भी हो सकता है कि उन्होंने प्रतिक्रिया जाहिर कर व्यर्थ विवाद में पडऩा उचित नहीं समझा हो। इसी प्रकार की नीति संघ की रहती है। हो सकता है कि उनका नाम इस प्रकार राजनीति में घसीटे जाने पर उनको गुस्सा भी हो, चूंकि एक साध्वी के तौर पर उनका जो सम्मान है, वह एक राजनीतिक व्यक्ति की तुलना में कई गुना अधिक है। इसे यूं समझा जा सकता है कि साध्वी के रूप में हर राजनीतिज्ञ उनके आगे नतमस्तक हो रहा है, जो कि राजनीति में आने पर कम हो जाने वाला है। मगर संभावना इसकी भी कम नहीं है कि सुर्खियों में रहने की चाह में वे भी इस प्रकार की खबरों में रस ले रही हों, जो कि एक मानव स्वभाव है। वैसे उन्हें चर्चाओं को अन्यथा नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वे तो फिर भी एक आइकन हैं, जिनकी हर गतिविधि पर नजर रहती है, हालत तो ये है कि अगर कोई सामान्य व्यक्ति भी थोड़ा सा सामाजिक कार्यों में रुचि बढ़ाता है तो यही कयास लगाया जाता है कि वह आगे चल कर राजनीति की पगडंडी पकड़ेगा।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 10 सितंबर 2017

आखिकार गौरी लंकेश पत्रकार थी

इन दिनों पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या को लेकर सोशल मीडिया पर जम कर बवाल हो रहा है। खासकर इसलिए कि जैसे ही यह तथ्य सामने आया कि वह वामपंथी विचारधारा की थी, इसी कारण दक्षिपंथियों ने उसकी हत्या कर दी तो अब दक्षिणपंथी लगे हैं यह साबित करने में कि उसकी हत्या नक्सलपंथियों ने की। बेशक, यह कोर्ट को ही तय करना है कि आखिर उसकी हत्या किसने की, मगर जिस प्रकार दक्षिणपंथी पत्रकार मामले को ट्विस्ट दे रहे हैं, तर्क के निम्नतम स्तर पर जा रहे हैं, उससे लगता है कि वे अपने मौलिक पत्रकार धर्म को छोड़ कर विचारधारा मात्र को पोषित करने में लगे हुए हैं। यह ठीक है कि वे हत्या पर दुख भी जता रहे हैं, मगर उनकी भाषा में हमदर्दी तनिक मात्र भी नजर नहीं आती। कुछ तो इंसानियत की सारी मर्यादाएं तोड़ कर इस हत्याकांड पर खुशी तक जता रहे हैं।
गौरी लंकेश आखिरकार पत्रकार थीं। उनकी कलम के बारे में कहा जा रहा है कि वह संयमित नहीं थी, तो इसका मतलब ये नहीं है कि कानून तोड़ कर कुछ लोग उसकी हत्या कर दें। किसी को अधिकार नहीं की कलम के विरोध स्वरूप गोली मार दे, यदि आपको किसी की लेखनी से नाराजगी है तो अदालत और कानून है। अगर इस प्रकार विचारधारा विशेष के लोग सजा देने का अधिकार अपने हाथ में ले लेंगे तो फिर कानून की जरूरत ही क्या है? तो फिर इस लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा? तो फिर असहिष्णुता का सवाल उठाया जाता है, वह पूरी तरह से जायज है।
चलो, इस मसले को अब जबकि पूरा राजनीतिक रंग मिल चुका है, तो इससे हट कर भी विचार कर लें। फेसबुक पर एक पत्रकार ने अपना दर्द बयान करते हुए लिखा है कि अगर किसी पत्रकार पर हमला होता है तो पत्रकार संघ इसके विरोध में मात्र ज्ञापन देने एवं आलोचना की खबर प्रकाशित करने के अलावा कुछ भी नहीं करते हैं। अति महत्वाकांक्षा के इस दौर में खबर एवं विज्ञापन के लालच में हम स्वयं ही एक दूसरे के विरोधी बन जाते हैं। प्रशासन के वो ही अधिकारी जो अन्य मामलों में पत्रकारों से सहयोग की अपील करते हुए देखे जाते हैं, वो ही ऐसे मामलों में पत्रकारों से कभी सहयोग नहीं करते। जनता भी कभी पत्रकार के फेवर में देखी नहीं गई। जब फोटो या नाम छपवाना हो तो पत्रकारजी होते हैं, वरना वो कभी भी पत्रकार के दु:ख दर्द में साथी नहीं होती। उनकी बात में दम है।
एक पत्रकार साथी ने तो और खुल कर लिखा है कि किस प्रकार पत्रकार की सेवाएं तो पूरी ली जाती हैं, मगर जब उस पर विपत्ति आती है तो उसकी सेवाओं को पूरी तरह से नकार दिया जाता है:-
लड़ाई हो तो पत्रकारों को बुलाओ
सड़क नहीं बनी पत्रकारों को बुलाओ
पानी नहीं आ रहा पत्रकारों को बुलाओ
नेतागिरी में हाईलाइट होना है तो पत्रकारों को बुलाओ
नेतागिरी चमकानी हो तो पत्रकरों को बुलाओ
पुलिस नहीं सुन रही तो पत्रकारों को बुलाओ
प्रशासन के अधिकारी नहीं सुन रहे पत्रकारों को बुलाओ
जनता की हर छोटी मोटी समस्या के लिए पत्रकार हमेशा हाजिर हो जाते हैं और अपने कर्तव्यों का निर्वहन बखूबी करते हैं, पर जब पत्रकारों पर हमला होता है, उनकी हत्या की जाती है, तब आमजन क्यों नहीं पत्रकारों का साथ देने आगे आते हैं? जरा सोचिए, पत्रकार भी आपके समाज का हिस्सा है, फिर पत्रकारों पर हमले का विरोध सिर्फ पत्रकार ही करते हैं, बाकी क्यों नहीं करते?
कुल जमा बात ये है कि किसी पत्रकार की हत्या को जायज ठहराने अथवा किसी और पर आरोप मढऩे से भी अधिक महत्वपूर्ण ये है कि गौरी लंकेश आखिरकार पत्रकार थी। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अगर छीनी जाती रहेगी तो इस देश में लोकतंत्र को बचाना मुश्किल हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

इतनी पोल है जिला परिषद में?

अजमेर जिला परिषद का सरकारी तंत्र कैसा काम कर रहा है, इसकी पोल तब खुली, जब एक फर्जी पत्र के आधार पर झारखंड के जिला कोडरमा के गांव चंदवारा के विनोद प्रसाद गुप्ता द्वारा राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के नाम पर गांवों में तकरीबन दो हजार परिवारों के घरों के बाहर एल्यूमिनियम की प्लेटें लगा कर हर एक से तीस-तीस रुपए वसूल लेने का मामला उजागर हुआ।
दैनिक भास्कर ने इस चौंकाने वाले मामले के हर पहलु पर प्रकाश डाला है, जिससे साफ जाहिर होता है कि गारेखधंधा करने वाले ने बड़ी चतुराई से फर्जी पत्र जिला परिषद से जारी करवा लिया। अगर वह अपने स्तर पर ही ऐसा फर्जी पत्र बना कर लोगों को चूना लगाता तो समझ आ सकता था कि इसमें जिला परिषद का कोई दोष नहीं है, मगर उसने जिस तरह उस पत्र को बाकायदा स्वच्छता मिशन शाखा के रजिस्टर से ही डिस्पैच  करवाया, वह साफ दर्शाता है कि इसमें जिला परिषद के ही किसी कर्मचारी की मिलीभगत है। अगर मिलीभगत नहीं है तो भी इतना तो तय है कि गोरखधंधा करने वाले ने परिषद में चल रही लापरवाही का फायदा उठाया है। आम तौर ये देखा गया है कि कोई पत्र एक सीट से दूसरी सीट तक पहुंचाने में कर्मचारी मुस्तैदी नहीं दिखाते, तो संबंधित व्यक्ति ही इस काम को अंजाम दे देता है। यह एक ढर्रा सा बन गया है। ऐसा प्रतीत होता कि आरोपी ने इसी पोल का फायदा उठाया है।
हालांकि अभी यह पता नहीं है कि उस फर्जी पत्र पर तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी निकया गोहाएन के हैं या नहीं, मगर संदेह तो होता ही है कि उस शातिर ने कहीं गुडफेथ का लाभ उठा कर तो हस्ताक्षर नहीं करवा लिए। जांच का एक बिंदु ये भी होगा कि कहीं मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने आरोपी को लाभ पहुंचाने के लिए नियमों से परे जा कर इस प्रकार के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। कदाचित उनके हस्ताक्षर देख कर ही डिस्पैच करने वाले बाबू ने गुडफेथ में यकीन कर लिया हो कि पत्र मुख्य कार्यकारी अधिकारी की ओर से ही जारी हुआ है। इसका अर्थ ये है कि कारगुजारी करने वाले को पता था कि जिला परिषद में कितनी पोल है, तभी तो उसने उसका फायदा उठाते हुए बाकायदा पत्र डिस्पैच करवाया।
हालांकि अभी ये पता नहीं है कि एल्यूमिनियम प्लेट की लागत कितनी है और फर्जीवाड़ा करने वाले को कितना मुनाफा हो रहा था, मगर जिस प्रकार का श्रमसाध्य काम उसने हाथ में लिया, उससे इतना तो अनुमान होता ही है कि पत्र जारी करवाने के बाद वह बेखौफ हो कर यह काम अंजाम दे रहा था। इस से संदेह होता है कि कहीं पत्र पर हस्ताक्षर असली तो नहीं। हालांकि जांच होगी तो निश्चित रूप से तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी मुकर ही जाने वाले हैं। वैसे जिला कलेक्टर गौरव गोयल का कहना है कि विकास अधिकारियों को भेजे पत्र पर मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं सदस्य सचिव जिला स्वच्छता मिशन जिला परिषद के दस्तखत सही है या नहीं इसकी भी जांच करवाई जाएगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

कौन होगा प्रो. सांवरलाल जाट का उत्तराधिकारी?

अजमेर लोकसभा सीट से सांसद प्रो. सांवर लाल जाट के निधन से रिक्त हुई सीट के लिए आगामी छह माह के भीतर उप चुनाव कराना संभावित है। ऐसे में भाजपा के लिए उनके जितना ही सशक्त उत्तराधिकारी तलाशना कठिन होगा। उधर कांग्रेस में भी चूंकि यहां के पूर्व सांसद व केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं और मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किए जा रहे हैं, इस कारण वहां भी नया प्रत्याशी तलाशना कठिन टास्क होगा।
जहां तक भाजपा का सवाल है, उसके पास इस वक्त अजमेर जिले से दो राज्य मंत्री, दो संसदीय सचिव, एक प्राधिकरण के अध्यक्ष होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि उसके पास जिला स्तरीय नेताओं की कोई कमी नहीं है, मगर सच्चाई ये है कि प्रो. जाट के निधन के बाद आगामी संभावित लोकसभा उपचुनाव के लिए सशक्त प्रत्याशी का अभाव है। यह अभाव तब भी था, जब भाजपा ने जाट को नजरअंदाज कर किरण माहेश्वरी को बाहर से ला कर चुनाव लड़वाया था।
ज्ञातव्य है कि स्वर्गीय जाट की रुचि अपने बेटे रामस्वरूप लांबा को नसीराबाद विधानसभा सीट से चुनाव लड़वाने थी, मगर भाजपा ने पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गेना को मैदान में उतारा, मगर वे हार गईं। उन्हें भी आगामी उपचुनाव में एक दावेदार माना जा सकता है, मगर चूंकि वे विधानसभा चुनाव हार चुकी हैं, इस कारण लगता नहीं कि भाजपा उन पर दाव खेलेगी। अजमेर डेयरी अध्यक्ष व प्रमुख जाट नेता रामचंद्र चौधरी जरूर भाजपा के खेमे में हैं, मगर अभी उन्होंने भाजपा ज्वाइन नहीं की है। वे एक दमदार नेता हैं, क्योंकि डेयरी नेटवर्क के कारण उनकी पूरे जिले पर पकड़ है। शायद ही ऐसा कोई गांव-ढ़ाणी हो, जहां उनकी पहचान न हो। यदि संघ सहमति दे दे तो वे भाजपा के एक अच्छे प्रत्याशी हो सकते हैं। यूं पूर्व जिला प्रमुख व मौजूदा मसूदा विधायक श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा प्रयास कर सकते हैं, मगर भाजपा राजपूत का प्रयोग कितना कारगर मानती है, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
बहरहाल, अब जबकि प्रो. जाट का स्वर्गवास हो गया है, संभव है भाजपा सहानुभूति वोट हासिल करने के लिए उनके पुत्र रामस्वरूप लांबा को चुनाव मैदान में उतारे।
जरा पीछे जाएं तो पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत लंबे समय तक स्थानीय प्रत्याशी के रूप में जीतते रहे। वे पांच बार जीते व एक बार हारे। रावत के सामने कांग्रेस ने भूतपूर्व राजस्व मंत्री किशन मोटवानी, पुडुचेरी के उपराज्यपाल बाबा गोविंद सिंह गुर्जर, जगदीप धनखड़ व हाजी हबीबुर्रहमान को लड़ाया गया था, जो कि हार गए। पूर्व राज्यसभा सदस्य डॉ. प्रभा ठाकुर एक बार उनसे हारीं और एक बार जीतीं। इनमें से मोटवानी व बाबा का निधन हो चुका है, जबकि धनखड़ ने राजनीति छोड़ दी है और हाजी हबीबुर्रहमान भाजपा में जा चुके हैं। डॉ. प्रभा ठाकुर अभी हयात हैं। स्थानीय सशक्त प्रत्याशी के अभाव में कांग्रेस ने सचिन पायलट को उतारा, और वह प्रयोग कारगर साबित हुआ। उन्होंने जिले में जितने कार्य करवाए, उतने तो पूर्व सासंद पच्चीस साल में भी नहीं करवा पाए, मगर मोदी लहर के चलते वे दूसरी बार नहीं जीत पाए। अब जब कि उपचुनाव की नौबत आ गई है तो एक बार फिर उनके नाम पर नजर अटकती है, मगर वे प्रदेश अध्यक्ष हैं और उन्हें यह दायित्व मुख्यमंत्री के रूप में ही प्रोजेक्ट करने के लिए ही दिया गया तो समझा जाता है कि वे विधानसभा चुनाव ही लड़ेंगे। ऐसे में कांग्रेस के लिए फिर लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी तलाशना कठिन होगा। यदि जातीय समीकरण की बात करें तो कांग्रेस के पास सचिन के अतिरिक्त उनके जितना कोई दमदार गुर्जर नेता जिले में नहीं है। चूंकि यह सीट अब जाट बहुल हो गई है, उस लिहाज से सोचा जाए तो पूर्व जिला प्रमुख रामस्वरूप चौधरी व पूर्व विधायक नाथूराम सिनोदिया को दावेदार माना जा सकता है। गुर्जर प्रत्याशी के रूप में महेन्द्र गुर्जर का नाम लिया जा सकता है।
यदि जाट-गुर्जर से हट कर बात करें तो कांग्रेस के पास बनियों में पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती हैं, जिनका नाम पूर्व में भी उभरा था। एक बार इस सीट पर जीत चुकी प्रभा ठाकुर के नाम पर भी विचार हो सकता है। उनके अतिरिक्त पूर्व विधायक रघु शर्मा व सेवादल के प्रदेशाध्यक्ष राजेश पारीक के भी नाम भी सामने आ सकते हैं। उधर भाजपा के पास पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा हैं, हालांकि नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन भी अपने आप को इस योग्य मानते रहे हैं। प्रयोग करने के लिए मौजूदा अजमेर नगर निगम मेयर धर्मेन्द्र गहलोत की विचारे जा सकते हैं।
बहरहाल, चूंकि इस साल के आखिर में गुजरात में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में संभव है कि इसके साथ ही अजमेर का उपचुनाव भी करवा लिया जाए। कुल मिला कर यह तय है कि अजमेर लोकसभा का चुनाव कांग्रेस हो या भाजपा दोनों के लिए ही 2018 में होने वाले विधानसभा चुनावों के सेमीफाइनल की तरह होगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, 9 अगस्त 2017

मजबूत जाट नेता के रूप में भाजपा को बड़ा नुकसान

राज्य किसान आयोग के अध्यक्ष व अजमेर के भाजपा सांसद प्रो. सांवरलाल के निधन से जहां देश व राज्य ने एक सशक्त किसान नेता खो दिया है, वहीं भाजपा राजनीतिक रूप से एक मजबूत जाट नेता से वंचित हो गई है, जिसकी क्षतिपूर्ति बेहद मुश्किल है। कदाचित वे इकलौते जाट नेता थे, जिन्होंने अजमेर जिले में परंपरागत रूप से कांग्रेस विचारधारा के जाट समुदाय को भाजपा से जोड़े रखा। जल संसाधन मंत्री रहे प्रो. जाट ने अनके बार मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के लिए संकट मोचक के रूप में भूमिका निभाई।
स्वर्गीय श्री बालूराम के घर गोपालपुरा गांव में 1 जनवरी 1955 को जन्मे श्री जाट ने एम.कॉम. व पीएच.डी. की डिग्रियां हासिल की। पेशे से वे प्रोफेसर थे, मगर बाद में राजनीति में भी उन्होंने सफलता हासिल की। वे राजस्थान विश्वविद्यालय के लेखा शास्त्र एवं सांख्यिकी विभाग के सह आचार्य रहे। चौधरी चरण सिंह के लोकदल से 1990 में राजनीतिक सफर शुरू करने वाले जाट ने फिर राजनीति में पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वे कितने लोकप्रिय थे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे नौवीं, दसवीं, ग्यारहवीं व बारहवीं राजस्थान विधानसभा के सदस्य चुने गए। वे 13 दिसंबर 1993 से 30 नवंबर 1998 तक सहायता एवं पुनर्वास विभाग के राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और 8 दिसंबर 2003 से 8 दिसंबर 2008 तक जल संसाधन, इंदिरा गांधी नहर परियोजना, जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी, भू-जल एवं सिंचित क्षेत्र विकास विभाग के मंत्री रहे। तेरहवीं विधानसभा के चुनाव में उनका विधानसभा क्षेत्र भिनाय परिसीमन की चपेट में आ गया और उन्होंने नसीराबाद से चुनाव लड़ा, लेकिन कुछ वोटों के अंतर से ही श्री महेन्द्र सिंह गुर्जर से पराजित हो गए। पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव में वे अजमेर संसदीय क्षेत्र से भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार थे, लेकिन पार्टी ने अपने महिला मोर्चे की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती किरण माहेश्वरी को चुनाव मैदान में उतार दिया था, जो कि पूर्व केन्द्रीय राज्य मंत्री व मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट से हार गईं। चौदहवीं विधानसभा के चुनाव में वे नसीराबाद से जीते और फिर से जलदाय मंत्री बनाए गए, मगर उसके बाद सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में उन्हें अजमेर संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़वाया गया और उन्होंने पायलट को हरा दिया। 20 दिसम्बर 2013 को उन्होंने केंद्रीय मंत्री की शपथ ग्रहण की। मोदी सरकार के पहले मंत्रिमंडल विस्तार में राज्यमंत्री बने प्रोफेसर सांवरलाल जाट सांसद बनने के बाद भी वसुंधरा सरकार में कैबिनेट मंत्री रहने पर हमेशा विपक्ष के निशाने पर रहे। विपक्ष ने कई बार सांवरलाल जाट को लेकर सदन की कार्यवाही में बाधा डाली और सदन से वॉकआउट किया।
मोदी मंत्रीमंडल के फिर हुए विस्तार में उन्हें स्वास्थ्य कारणों से मंत्री पद से हटा दिया गया। इसका जाट समाज ने कड़ा विरोध किया। आखिरकार मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को उन्हें राज्य किसान आयोग का अध्यक्ष बना कर केबीनेट मंत्री का दर्जा दिया।
उनकी सबसे बड़ी विशेषता ये रही कि वे अपने समर्थकों व कार्यकर्ताओं के सार्वजनिक अथवा निजी कामों के लिए सदैव तत्पर रहते थे। अजमेर ने एक दिग्गज किसान नेता तो खो ही दिया है, उनके निधन से भाजपा को ज्यादा बड़ा नुकसान हुआ है। उनके मुकाबले का दूसरा जाट नेता भाजपा के पास नहीं है। अब संभव है अजमेर संसदीय सीट के लिए आगामी छह माह के भीतर होने वाले उपचुनाव में भाजपा उनके पुत्र रामस्वरूप लांबा को स्वर्गीय प्रो. जाट की विरासत संभालने को कहे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

प्रो. जाट के स्वास्थ्य पर जारी करना पड़ा प्रेस नोट

राजस्थान किसान आयोग के अध्यक्ष व अजमेर के सांसद प्रो. सांवरलाल जाट के स्वास्थ्य को लेकर उनके पीए राजेन्द्र जैन ने एक प्रेस नोट जारी किया है। उसमें लिखा है कि उनका दिल्ली के एम्स में इलाज चल रहा है और स्वास्थ्य में सुधार है। शुभचिंतकों से अपील की गई है कि वे किसी भी प्रकार अफवाह या दुष्प्रचार पर ध्यान न दें। यह बेहद अफसोसनाक बात है कि कोई शख्सियत जिजीविषा के बल पर स्वास्थ्य लाभ ले रही हो और उसके बारे में अफवाहें फैलाई जाएं, तब मजबूरी में स्वास्थ्य को लेकर स्पष्टीकरण जारी करना पड़े।
असल में यह स्थिति इस कारण बनी है कि वे दिल्ली के एम्स में भर्ती हैं और मीडिया उसकी रिपोर्टिंग नहीं कर रहा। जब तक जयपुर में भर्ती थे तो पूरी सरकार का ध्यान वहीं था, दिनभर नेताओं का जमावड़ा अस्पताल में ही रहता था और मीडिया भी पल-पल की खबर ले रहा था। चाहे सोशल मीडिया के जरिये, चाहे प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए, उनके स्वास्थ्य के बारे में आम जनता को जानकारी मिल रही थी। अस्पताल की ओर से मेडिकल बुलेटिन जारी हो न हो, पत्रकार अपने स्तर पर ही डॉक्टरों से जानकारी लेकर खबर बना रहे थे। मगर जब से उन्हें दिल्ली शिफ्ट किया गया है, कोई भी आधिकारिक जानकारी मीडिया में नहीं आ पा रही। उसकी वजह ये है कि दिल्ली की मीडिया की इसमें रुचि नहीं है। राज्य के अखबारों को भी अपने प्रतिनिधियों के जरिए प्रतिदिन खबर मंगवाना प्रैक्टिकेबल नहीं है। यही  वजह है कि प्रो. जाट की हालत इस समय कैसी है, उसके बारे में कुछ भी पता नहींं लग रहा। जाहिर है ऐसे में अफवाहें फैलती हैं। जितने मुंह उतनी बातें। नकारात्मक-सकारात्मक दोनों किस्म की चर्चाएं हो रही हैं। यहां तक कि भावी राजनीति तक पर चर्चा करने से लोग बाज नहीं आ रहे। इसको लेकर तनिक विवाद भी हुआ। हालांकि उनके समर्थक, जो कि दिल्ली में प्रो. जाट के रिश्तेदारों के संपर्क में है, वे वाट्स ऐप के जरिए स्वास्थ्य में सुधार की जानकारी दे रहे हैं, मगर चूंकि उसमें मेडिकल की टैक्निकल टर्म में खुलासा नहीं होता, इस कारण उस पर उतना विश्वास नहीं होता, जितना कि प्रिंट मीडिया में छपी खबर पर होता है।
कुल मिला कर उनके बारे में जानकारी न मिलने के कारण समर्थकों में चिंता व्याप्त है। विशेष रूप से अजमेर जिले के लोगों को तो उनके बारे में जानने की बहुत उत्कंठा है, चूंकि वे अजमेर के जनप्रतिनिधि हैं। राज्यभर में भी सरकार व राजनीति से जुड़े लोगों को उत्सुकता है, चूंकि वे एक प्रभावशाली नेता व किसान आयोग के अध्यक्ष हैं।
हालांकि यह तय है कि जयपुर की तुलना में दिल्ली में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य सरकार की भी यही मंशा रही कि आगे का इलाज दिल्ली में हो। उसकी वजह ये रही होगी कि जयपुर में इलाज चलने पर पूरी सरकार व मंत्रियों-विधायकों का ध्यान यहीं अटका रहता। इसके अतिरिक्त उनके शुभचिंतकों का जमावड़ा होने से अस्पताल की व्यवस्थाएं प्रभावित होतीं। मगर दिल्ली भेजे जाने का परिणाम ये रहा कि उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी मिलना ही बंद सी हो गई। ऐसे में अफवाहें फैलनी ही थीं। उसी की प्रतिक्रिया स्वरूप उनके निजी सचिव को भी बाकायदा प्रेस नोट जारी करना पड़ा कि उनके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है। यह सुखद है कि उनकी तबियत अब ठीक है, मगर सरकार को चाहिए कि वह अपने स्तर पर ही प्रतिदिन के सुधार के बारे में जानकारी मीडिया को उपलब्ध करवाए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

सरकार दरगाह कमेटी व नाजिम को लेकर गंभीर नहीं

ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह की अंदरूनी व्यवस्थाओं को देखने वाली दरगाह कमेटी के प्रशासनिक मुखिया नाजिम को लेकर गंभीर नहीं है। दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट के तहत गठित इस कमेटी को एक ढर्ऱे की तरह चलाया जा रहा है, जबकि इसमें सदस्यों से लेकर नाजिम तक की नियुक्ति में अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है।
सरकार की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कमेटी के प्रशासनिक मुखिया की नियुक्ति अत्यधिक लेटलतीफी बरती जाती है। ऐसे अनेक मौके रहे हैं, जबकि नाजिम की अनुपस्थिति में कार्यवाहक नाजिम से ही काम चलाया गया है। हाल ही गुजरात के रिटायर्ड आईएएस आई बी पीरजादा को नाजिम नियुक्त किया गया है। सरकार की मनमर्जी देखिए कि जब अब तक यहांं नौकरी कर रहे सरकारी अधिकारी की नियुक्ति का नियम है और यही परंपरा भी रही है, उसके बावजूद इस पद पर सेवानिवृत्त आईएएस को नियुक्त कर दिया है। नियुक्ति में किस प्रकार राजनीतिक दखल रहा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे देश में उसे केवल गुजरात का ही अधिकारी इस पद के योग्य मिला है। इससे स्पष्ट है कि सरकार इस पद को ईनाम का जरिया बना रही है, जबकि यहां पूर्णकालिक अधिकारी की जरूरत है। जरूरत इसलिए है कि यह उस दरगाह का प्रबंध देखने वाली कमेटी का प्रशासनिक मुखिया है, जो पूरी दुनिया में सूफी मत मानने वालों का सबसे बड़ा मरकज है। इतना ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के चलते अत्यंत संवेदनशील स्थान है। आतंकियों के निशाने पर है और एक बार तो यहां बम ब्लास्ट तक हो चुका है।
बेशक प्रतिदिन आने वाले जायरीन की सुविधा के मद्देनजर सरकार गंभीर रहती है, उसके लिए बजट भी आवंटित होता है, मगर दरगाह कमेटी व नाजिम को लेकर सरकार एक ढर्ऱे पर ही चल रही है। वस्तुस्थिति ये है कि यह कमेटी, विशेष रूप से नाजिम न केवल दरगाह की दैनिक व्यवस्थाओं को अंजाम देते हैं, अपितु खादिमों व दरगाह दीवान के बीच आए दिन होने वाले विवाद में भी मध्यस्थ की भूमिका उन्हें निभानी होती है। यह काम कोई पूर्णकालिक अधिकारी ही कर सकता है। होना तो यह चाहिए कि इस पद पर नियुक्ति ठीक उसी तरह से की जाए, जिस तरह आरएएस व आईएएस अधिकारियों तबादला नीति के तहत की जाती है। उसमें विशेष रूप से यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वह दबंग हो।
अफसोसनाक बात है कि इस ओर केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय कत्तई गंभीर नहीं है। यही वजह है कि जब भी कोई नाजिम अपना कार्यकाल पूरा करके जाता है या इस्तीफा दे देता है तो लंबे समय तक यह पद खाली ही पड़ा रहता है। कार्यवाहक नाजिम से काम चलाया जाता है, जिसके पास न तो प्रशासनिक अनुभव होता है और न ही उतने अधिकार होते हैं। मंत्रालय इस पद को लेकर कितना लापरवाह है, इसका अनुमान इसी बात से लग रहा है कि उसने नियमों के विपरीत जा कर एक सेवानिवृत्त अधिकारी को नाजिम बना दिया। एक सेवानिवृत्त अधिकारी में कितनी ऊर्जा होती है, यह बताने की जरूरत नहीं है, जबकि यहां ऊर्जावान अधिकारी की जरूरत है, जैसे जिला कलेक्टर गौरव गोयल। ऐसा अधिकारी ही यहां की व्यवस्थाओं को ठीक ढ़ंग से अंजाम दे सकता है।
एक सवाल ये भी उठा है कि यदि सरकार को नियम बदल कर सेवानिवृत्त अधिकारी हो ही यहां लगाना था तो काहे को सेवारत अधिकारियों के इंटरव्यू आहूत किए गए। यह पहले से स्पष्ट होता कि इस पद के लिए सेवानिवृत्त अधिकारी भी आवेदन कर सकता है, तो संभव अन्य सेवानिवृत्त अधिकारी भी आवेदन करते।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, 2 अगस्त 2017

साध्वी अनादि सरस्वती लड़ेंगी अजमेर उत्तर से?

जाने-माने राजनीतिक पंडित एडवोकेट राजेश टंडन एक नई खबर लेकर आए हैं सोशल मीडिया पर। वो ये कि चिति योग संस्थान की साध्वी अनादि सरस्वती पर संघ की नजर है कि यदि आगामी विधानसभा चुनाव में ऐन वक्त पर मौजूदा विधायक व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का टिकट काटना पड़े तो उनकी जगह किसी भाजपाई की बजाय उनको चुनाव मैदान में उतारा जाए। हालांकि यह खबर से ज्यादा फिलहाल अफवाह ही कही जाएगी, मगर राजनीति में सब कुछ संभव है। और जब टंडन साहब कहीं से खोद कर लाए हैं तो उस पर जरा गौर करना वाजिब है।
टंडन ने अपनी खबर को पुख्ता आधार देने के लिए साध्वी की हाल की गतिविधियों की ओर भी इशारा किया है। जैसे जयपुर में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को उनका आशीर्वाद देना, राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र यादव से उनकी शिष्टाचार भेंट इत्यादि। इसके अतिरिक्त विश्व हिंदू परिषद व संघ के कार्यक्रमों में उनके मंचों पर भी उन्हें देखा गया है। इसके अलावा रायपुर-छत्तीसगढ की यात्रा के दौरान उनकी मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से मुलाकात को भी उन्होंने इसी संदर्भ में जोड़ा है।
हालांकि अभी तक साध्वी अनादि सरस्वती की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है, इस कारण उनका मन्तव्य क्या है, कुछ कहा नहीं जा सकता। चूंकि संघ की भले ही उन पर नजर हो, मगर अनादि सरस्वती जैसी साध्वी राजनीति में आने को तैयार होती हैं, या नहीं, उस बारे में अभी से अनुमान लगाना कठिन है। हालांकि जब से वे जनता में अवतरित हुई हैं, तब आरंभ में कांग्रेस व भाजपा, दोनों ही दलों के नेताओं से उनके संपर्क रहे हैं। शुरू में कुछ प्रमुख समाजसेवी व व्यवसायी भी उनके संपर्क में रहे। पिछले कुछ सालों में उनकी गतिविधि यकायक बढ़ गई है और वे दूर-दूर की आध्यात्मिक यात्राएं कर चुकी हैं। अब तो उनके चित्ताकर्षक फोटो युक्त प्रवचन सोशल मीडिया में भी खूब नजर आ रहे हैं। फेसबुक पर उनके सैकड़ों अनुयायी हैं। उनके मन में राजनीतिक महत्वाकांक्षा है, या नहीं, कहा नहीं जा सकता, मगर जो कोई भी उनको प्रोजेक्ट करना चाहता है, वह निश्चित रूप से शातिर दिमाग है। कदाचित संघ में घुसपैठ करवाने में भी उसी की भूमिका हो।
अपनी जितनी समझ है, उसके हिसाब अगर साध्वी राजनीति में आती हैं तो यह तय है कि जब वे साध्वी नहीं थीं, तब के कहानी-किस्से भी लोग चर्चा में ले आएंगे। एक चुटकला नहीं है कि अगर आपको अपनी सात पीढिय़ों के बारे में जानकारी न हो तो केवल इतना कीजिए कि अपने चुनाव लडऩे की अफवाह फैला दीजिए, लोग आपकी सात पीढ़ी का पूरा हिसाब-किताब ढूंढ लाएंगे, पुष्कर में किसी पंडे से नहीं मिलना होगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

शरीर मात्र विलीन हुआ है, आनंदपाल अब भी जिंदा है

हालांकि भारी जद्दोजहद के बाद भड़की हिंसा के बीच पुलिस के हस्तक्षेप से कुख्यात आनंदपाल की अंत्येष्टि हो गई और उसका शरीर पंच तत्त्व में विलीन हो गया, मगर आनंदपाल अब भी जिंदा है। पूरे राजपूत समाज के समर्थन में खड़े होने से उसकी आत्मा का साया अब भी मंडरा रहा है। बेशक अंत्येष्टि से सरकार ने राहत की सांस ली है, मगर एनकाउंटर की सीबीआई जांच पर अड़ा राजपूत समाज शांत होता नहीं दिख रहा।
विशेष रूप से सोशल मीडिया में समाज को और लामबंद करने और सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले रखने की मुहिम जारी है। क्राइम के दायरे को लांघ कर पूरी तरह से राजनीतिक हो गई इस समस्या से सरकार कैसे निपटेगी, ये तो आने वाला समय ही बताएगा, मगर चुनाव से तकरीबन डेढ़ साल पहले उपजे इस जिन्न को शांत करने के लिए कई जतन करने होंगे।
वस्तुत: आंदोलन के चलते हुए हिंसा के कारण यह मामला और पेचीदा हो गया है। अनेक नेताओं की धरपकड़ की गई है तो कई पर मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। अब जो लोग फंसे हैं, उन्हें बचाने के लिए समाज का दबाव नेताओं पर होगा। एनकाउंटर की सीबीआई जांच की मांग तो अपनी जगह है ही, मगर आंदोलन के चलते मुकदमों में फंसे लोगों का साथ देने के के लिए एक और मुहिम शुरू होगी। सच तो ये है कि मुहिम शुरू हो ही गई है। सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री को राजपूत विरोधी करार देकर आने वाले चुनाव में निपटाने की कसमें खाई जा रही हैं। बीजेपी के झंडे वाले चिन्ह पर क्रॉस बना कर बहिष्कार की अपील की जा रही है। राजस्थान के हर राजपूत परिवार के पास मोबाइल में यह सब पहुंच रहा है। समाज के हित में निर्णय लेने की कसम खिलाई जा रही है।
वाट्स ऐप पर एक अपील चल रही है कि अगर आप आनन्दपाल को न्याय दिलवाना चाहते हो तो  प्रधानमन्त्री कार्यालय के टोल फ्री नंबर 18001204411 पर कॉल करके पीएम मोदीजी को अपनी आवाज में वॉइस सन्देश दें कि इस फर्जी एनकाउंटर की सीबीआई जांच करवा कर वसुंधरा को हटायें नहीं तो आगामी चुनाव में परिणाम भुगतना होगा। ध्यान रहे 1 मिनट होते ही आपकी काल कट जायेगी और आपका सन्देश पहुंचते ही आपको वापस मेसेज मिलेगा। अब एक कॉल तो घुमा दो राजपूत होने के नाते। अभी नही तो कभी नहीं। इतने कॉल करो कि मोदीजी सोचने पर मजबूर हो जाएं।
इसी प्रकार लोकेन्द्र सिंह कालवी, गिरिराज सिंह लाटवाड़ा, महिपाल सिंह मकराना व सुखदेव सिंह गोगामेड़ी के नाम से एक अपील जारी की गई है, जिसके तहत 21 जुलाई को राजस्थान चक्का जाम, 22 जुलाई को जयपुर बंद का अह्वान किया गया है।
इतना जरूर है कि सरकार अपनी पावर का उपयोग कर इस आंदोलन से निपट ही लेगी, मगर सत्तारूढ़ भाजपा के लिए बड़ी समस्या ये है कि जो समाज वर्षों तक उसका वोट बैंक रहा है, उसे छिटकने से कैसे बचाया जाए? हालांकि जातीय मुहिमों में दरार डालने के कई उपाय सरकार के पास होते हैं, मगर जिस तरह से इस आंदोलन ने रूप अख्तियार किया है, उसे देखते हुए लगता है कि सरकार भले ही समाज को संतुष्ट करने के अनेक जतन कर ले, मगर जो  एक बड़ा तबका छिटकेगा, उसका रुख फिर भाजपा की ओर करना बेहद कठिन होगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बनते बनते बिगड़ी बात, लॉ एंड ऑर्डर फेल

राजस्थान पुलिस के हाथों एनकाउंटर में मारा गया कुख्यात गैंगस्टर आनंदपाल सिंह मौत के बाद भी सरकार और पुलिस के लिए सिर दर्द बना हुआ है। पूरा राजपूत समाज उसके साथ खड़ा है। किसी अपराधी के साथ पूरा समाज एकजुट है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि यह मसला अकेला कानून व्यवस्था का नहीं, बल्कि इसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। उधर सरकार का सीबीआई जांच के लिए राजी न होना संकेत देता है कि वह किसी आशंका से घिरी हुई है।
चलो, पहले कानून व्यवस्था की बात। मुठभेड़ से पहले समस्या ये थी कि जब भी सरकार कानून व्यवस्था की उपलब्धियों का बखान करती तो आनंदपाल का नाम उस पर कालिख पोत देता और अब मौत के बाद हुआ आंदोलन जब पूर्णाहुति के करीब था तो कानून व्यवस्था की विफलता ने ही पानी फेर दिया। पहले गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया आनंदपाल का नाम सुनते ही झल्ला जाते थे और और बोल पड़ते थे कि वह मेरी जेब में तो बैठा नहीं है। अब भी उनकी स्थिति ये है कि सांवराद में सुलह सिरे पर पहुंचती, इससे पहले ही हिंसा भड़क उठी और डीजी जेल अजीत सिंह शेखावत की सारी मेहनत जाया हो गई, ऐसे में उनसे जवाब देते नहीं बन रहा। समस्या वहीं की वहीं है। कानून व्यवस्था संभाले नहीं संभल रही। इसकी जड़ें मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे व संघ पृष्ठभूमि के गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया के बीच खिंची अदृश्य रेखा की तह में तो नहीं है, इसका केवल कयास ही लगाया जा सकता है।
असल में सरकार ऐसे पेचीदा मसले में भी सीबीआई जांच की मांग तुरंत मानने की बजाय आगामी चुनाव को ही ध्यान में रख रही है। दैनिक भास्कर ने तो साफ लिखा है कि सुलह के लिए डीजी जेल अजीत सिंह शेखावत को भेजने का मकसद ही ये था कि राजपूत समाज में संदेश जाए कि वे ही राज्य के नए डीजीपी बनाए जा रहे हैं। अगर सफलता मिलती तो सरकार में एक दमदार राजपूत चेहरा उभरता। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार सुलह लगभग हो भी चुकी थी, मगर इस बीच अचानक हिंसा भड़क उठी और सब कुछ बिखर गया। स्पष्ट है कि जब अजीत सिंह बातचीत में व्यस्त थे तो वहां की कानून व्यवस्था संभाले हुए अफसर गच्चा खा गए। अब लाख तर्क दिए जाएं कि पुलिस की कोई गलती नहीं है, आंदोलनकारियों ने हिंसा की, मगर इस बात का जवाब क्या है कि आपसे भीड़ हैंडल क्यों नहीं हो पाई? भीड़ अनुमान से ज्यादा पहुंचने का तर्क भी पुलिस के ही गले पड़ा हुआ है कि आपका सूचना तंत्र फेल कैसे हो गया? खुफिया रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 20 हजार लोगों के ही आने की संभावना थी, मगर आ गए तीन गुना ज्यादा, जबकि जवान तैनात थे 2 हजार 500। इसका सीधा सा अर्थ है कि आपने भीड़ को रोकने के इंतजामात के तहत 16 स्थानों पर जो नाकेबंदी की थी, वह भी गड़बड़ा गई।
बात अगर राजनीतिक कोण की करें तो इस आंदोलन से परंपरागत रूप से भाजपा मानसिकता से जुड़े राजपूत समाज के छिटकने का खतरा है।  अब अगर सरकार सीबीआई जांच की मांग मान भी लेती है तो भी जो नुकसान हो चुका है, उसकी भरपाई पूरी तो नहीं हो पाएगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000