रविवार, 8 दिसंबर 2013

कांग्रेस विरोधी लहर में जिले की सभी आठों सीटों पर कांग्रेस का सूपड़ा साफ

-तेजवानी गिरधर- अजमेर। राज्य की कांग्रेस सरकार के लोक कल्याणकारी कार्यों के बावजूद महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण चली कांग्रेस विरोधी लहर, जिसे कि भाजपा मोदी लहर करार दे रही है, ने अजमेर जिले की सभी सीटों पर स्थानीय समीकरणों को दरकिनार सा करते हुए भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलवा दी है। हालांकि स्थानीय समीकरणों ने भी अपनी भूमिका अदा की है, मगर लहर इतनी तेज रही कि उन सब का महत्व ही समाप्त हो गया है। आइये जरा समझें, विधानसभावार क्या रही स्थिति:-

वैश्यवाद व मुस्लिमों के मतदान प्रतिशत पर भारी रही लहर
अजमेर उत्तर सीट पर आठ प्रत्याशियों में से कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती और भाजपा प्रत्याशी वासुदेव देवनानी के बीच सीधा मुकाबला था। यहां सर्वाधिक प्रभावित करने वाला फैक्टर सिंधी-गैरसिंधीवाद माना जा रहा था। राज्य की दो सौ में से एक भी सीट नहीं देने के कारण सिंधी समुदाय में कांग्रेस के प्रति गुस्सा था। पिछली बार भी इस प्रकार गुस्सा रहा, जिसकी वजह से कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती भाजपा के प्रो. वासुदेव देवनानी से 688 मतों से पराजित हो गए थे। इस बार फिर वही स्थिति बनी, मगर इस बार फर्क ये रहा कि वैश्य समुदाय भी लामबंद हो गया। उसकी बाहेती के प्रति सहानुभूति भी थी। उसने बाहेती के पक्ष में जम कर मतदान किया बताया। इसी प्रकार मुस्लिम समुदाय ने भी जम कर वोट डाले, जिसके चलते यही माना जा रहा था कि इस बार बाहेती का पलड़ा भारी रहेगा, मगर  कांग्रेस विरोधी लहर ऐसी चली कि बाहेती 20 हजार 479 मतों से हार गए। इतनी बड़ी जीत की उम्मीद तो भाजपा के देवनानी को भी नहीं थी। बाहेती की हार की एक वजह ये भी मानी जाती थी कि कांग्रेस संगठन ने ठीक से उनका साथ नहीं दिया, मगर यही स्थिति देवनानी के साथ भी रही। उनके वैश्यवादी विरोधियों ने भी बाहेती का साथ दिया। इन सब के बावजूद लहर इतनी तेज थी कि सारे कयास और समीकरण धरे रह गए। कुल मिला कर देवनानी लगातार तीसरी बार जीतने में कामयाब हो गए, वो भी तगड़े वोटों से। इस परिणाम के बाद माना ये जा रहा है कि शायद कांग्रेस अब सिंधियों को नजरअंदाज करने का साहस न दिखा पाए।

हेमंत भाटी को भी ले बैठी लहर
अजमेर दक्षिण में इस बार खास बात ये रही कि जिन हेमंत भाटी के सहारे भाजपा प्रत्याशी श्रीमती अनिता भदेल चुनावी वैतरणी पार करती रहीं, वे ही उनके सामने कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में आ डटे। कांग्रेस के वोट कटर के रूप में पिछली बार की तरह पूर्व मंत्री ललित भाटी भी मैदान में नहीं थे। पिछली बार उन्होंने करीब 16 हजार वोट काटे थे, बावजूद इसके अनिता ने कांग्रेस के डॉ. राजकुमार जयपाल को 19 हजार से अधिक मतों से हरा दिया था। इस बार भाटी ने मतदान के दिन तक भी बगावत व भितरघात का कोई संकेत नहीं दिया ऐसे में अनिता की राह कुछ कठिन मानी जा रही थी।  भाटी को टिकट दिलवाने में अहम भूमिका अदा करने के कारण यहां अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट की प्रतिष्ठा दाव पर रही, इस कारण उन्होंने यहां विशेष निगरानी भी रखी, मगर  कांग्रेस विरोधी लहर इतनी तेज थी कि सारे समीकरण हवा हो गए। बेशक इसमें सिंधीवाद की भी भूमिका रही, जिनके इस इलाके में तकरीबन तीस हजार वोट माने जाते हैं। यद्यपि कुछ सिंधी नेताओं ने इस पर रोक की कोशिश की, मगर लहर के आगे उनकी भी नहीं चली। बात अगर रणनीति की करें तो भाटी की तुलना में अनिता की स्थिति कुछ बेहतर थी। अनिता का टिकट बहुत पहले ही  पक्का हो जाने के कारण उन्होंने कार्यकर्ताओं की सेना को सुव्यवस्थित कर लिया था। साफ-सुथरी छवि ने भी उनकी मदद की। महिला होने का स्वाभाविक लाभ भी मिला। कुल मिला कर अनिता 23 हजार 158 वोटों के भारी अंतर के साथ लगातार तीसरी बार विधानसभा जा रही हैं।

सिंगारिया बने रघु की हार का कारण
केकड़ी में हुआ त्रिकोणीय मुकाबला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। पूरे जिले व राज्य में भले ही कांग्रेस विरोधी लहर का ही ज्यादा असर रहा, मगर आंकड़ों के लिहाज से यहां एनसीपी के बाबूलाल सिंगारियां कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा की हार का कारण बन गए। जाहिर तौर पर सिंगारियां ने कांग्रेस के परंपरागत अनुसूचित जाति वोट बैंक में सेंध मारी, जिसका सीधा नुकसान रघु को हुआ। रघु 8 हजार 867 वोटों से हारे, जबकि सिंगारियां ने 17 हजार 35 मत झटक लिए। पिछली बार निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर उन्होंने 22 हजार 123 वोट हासिल किए थे। पिछली बार सिंगारियां की सेंध को रघु इस कारण बर्दाश्त कर गए, क्योंकि भाजपा के बागी भूपेन्द्र सिंह ने भाजपा प्रत्याशी श्रीमती रिंकू कंवर को 17 हजार 801 वोट का झटका दिया था। इस लिहाज से देखा जाए तो कम से कम केकड़ी सीट पर अगर कांग्रेस के मैनेजर सिंगारियां को राजी करने में कामयाब हो जाते तो, रघु को हार का मुंह नहीं देखना पड़ता।
वस्तुत: विकास कार्य करवाने के दम पर कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा को पूरा विश्वास था कि वे कम मतांतर से ही सही, मगर जीत जाएंगे। असल में उन्होंने यहां से विधायक बनने के बाद से ही अगला चुनाव जीतने की रणनीति बनाई और उसी के अनुरूप विकास भी करवाया। केकड़ी को जिला मुख्यालय बनाने की मुहिम इसी का हिस्सा थी। मगर सरवाड़ व केकड़ी में हुई सांप्रदायिक घटनाओं ने वोटों का धु्रवीकरण कर दिया। इसे रघु शर्मा समझ ही नहीं पाए और वे केवल विकास कार्यों के दम पर ही जीत की आशा में रहे। वैसे देखा जाए तो भाजपा प्रत्याशी शत्रुघ्न गौतम नया चेहरा होने के कारण रघु के सामने कोई दमदार प्रत्याशी नहीं थे और भाजपा में दावेदारों की संख्या अधिक होने के कारण एकजुटता पर भी आशंका थी, मगर कांग्रेस विरोधी लहर पर सवार युवा चेहरे गौतम ने उन्हें पटखनी खिला दी। बताते हैं कि रघु शर्मा के कद की वजह से उनके रूखे व्यवहार को लेकर भी कुछ नाराजगी थी, जबकि गौतम की व्यवहार कुशलता काम आ गई। समझा जाता है कि गौतम ने रघु के ब्राह्मण वोटों में भी सेंध मारी है। हालांकि  भाजपा द्वारा जिले की आठ में से किसी भी सीट पर वैश्य को टिकट नहीं देने के कारण उनकी नाराजगी को रघु ने भुनाने की कोशिश की, मगर कांग्रेस विरोधी लहर ने उसे बेअसर कर दिया।

सिनोदिया पर बहुत भारी पड़े चौधरी
जाट बहुल किशनगढ़ में एक बार फिर कांग्रेस के नाथूराम सिनोदिया और भाजपा के भागीरथ चौधरी के बीच सीधा मुकाबला था। हालांकि भाजपा के पूर्व विधायक जगजीत सिंह के पुत्र हिम्मत सिंह बसपा के बैनर पर चुनाव लड़े, मगर वे मात्र 2775 वोट ही हासिल कर पाए। इसी प्रकार एनसीपी के उज्जीर खां ने कांग्रेस को 1763 वोटों का झटका दिया। इन समीकरणों के बावजूद लहर इतनी तेज थी चौधरी ने सिनोदिया को 31 हजार 14 मतों से पटखनी दे दी।  ज्ञातव्य है कि पिछली बार भी दोनों आमने सामने थे और सिनोदिया ने चौधरी को 9724 मतों से पराजित किया था। अर्थात चौधरी ने इन मतों को पाटा ही, 31 हजार 14 वोट अधिक हासिल किए। यानि कि उन्होंने इस बार 40 हजार से भी ज्यादा मतों से सिनोदिया को हराया है। यह मात्र और मात्र कांग्रेस विरोधी लहर का ही कमाल है। इसकी एक वजह कदाचित ये भी हो सकती है कि चौधरी का शहरी मतदाताओं से मेल-मिलाप सिनोदिया के मुकाबले कहीं बेहतर था। कुल मिला कर चौधरी ने सिनोदिया से पिछली हार का बदला ले लिया है और दूसरी बार विधानसभा में जा रहे हैं। यहां आपको बता दें कि 1998 नाथूराम सिनोदिया विधायक बने तो 2003 में भागीरथ चौधरी। इसके बाद 2008 में नाथूराम सिनोदिया ने चौधरी को हराया था।

नसीम की हार इतनी बुरी होगी, अनुमान न था
पुष्कर विधानसभा में मतदान से पहले और मतदान के बाद भी यही माना जा रहा था कि शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ भाजपा के नए चेहरे सुरेश रावत के सामने कमजोर रहेंगी। इसकी एक मात्र वजह ये है कि इस बार मुकाबला त्रिकोणीय नहीं था। कांग्रेस केवल त्रिकोणीय मुकाबले में जीतती रही थी। ज्ञातव्य है कि पिछली बार रावतों की चेतावनी को नजरअंदाज कर जब भाजपा ने भंवर सिंह पलाड़ा को टिकट दिया तो श्रवण सिंह रावत ने बगावत कर ताल ठोक दी, जो कि तकरीबन तीस हजार वोट हासिल कर भाजपा की हार का कारण बन गए। ठीक इसी प्रकार का त्रिकोणीय मुकाबला 2003 के चुनाव में भी हुआ था, जबकि पलाड़ा के निर्दलीय रूप से मैदान उतर कर तीस हजार वोट काटने के कारण भाजपा के रमजान खान कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती के सामने हार गए थे। इस बार भाजपा ने रावतों की चेतावनी को ध्यान में रखते हुए ब्यावर के अतिरिक्त पुष्कर में भी रावत को ही मैदान में उतार दिया। यह रावत कार्ड काम कर गया। श्रीमती नसीम की हार की एक वजह ये भी मानी जा सकती है कि इस सीट पर वोटों का धु्रवीकरण धर्म के आधार पर भी हुआ, जिसकी नींव पलाड़ा निर्दलीय रूप से उतरने के दौरान पड़ गई थी। भाजपा के सुरेश रावत को नया चेहरा होने का लाभ भी मिला। इस सीट पर रावत वाद कितना चला, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि उनके ही भाई कुंदन रावत यहां से कांग्रेस टिकट के दावेदार थे, मगर टिकट न मिलने के बाद भाई के साथ आ गए। कुल मिला कर श्रीमती इंसाफ के इतने ज्यादा वोटों से हारने की संभावना नहीं थी, मगर ने अपना काम किया और सुरेश रावत 41 हजार 290 मतों से विजयी रहे।

नसीराबाद में टूट गया कांग्रेस का गढ़
आरंभ से कांग्रेस के कब्जे वाली नसीराबाद सीट कांग्रेस विरोधी तगड़ी लहर के चलते आखिर पहली बार भाजपा के खाते में चली गई। ज्ञातव्य है कि यहां 1980 से लगातार छह बार कांग्रेस के दिग्गज गुर्जर नेता गोविंद सिंह गुर्जर जीतते रहे और पिछले चुनाव में उनके कब्जे को बरकरार रखते हुए उन्हीं के रिश्तेदार महेन्द्र सिंह गुर्जर ने जीत हासिल की थी। इस बार फिर गुर्जर व भाजपा के पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट आमने-सामने थे। माना ये जा रहा था कि जाट ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है, मगर भाजपा के बागी अशोक खाबिया ने परेशानी पैदा कर रखी थी। इसी कारण राजनीतिक जानकारी असमंजस में थे और हार-जीत का अंतर कम ही रहने का अनुमान था, मगर जाट ने गुर्जर को 28 हजार 900 मतों से हरा दिया। पिछली बार जाट मात्र 71 मतों से हार गए थे। यहां आपको बता दें कि जाट को भाजपा के परंपरागत राजपूत वोट बैंक में निर्दलीय संगीता के सेंध मारने का खतरा था, मगर वे मात्र 1131 वोट ही हासिल कर पाईं। इसी प्रकार बसपा के अशोक खाबिया भी 1515 वोट का ही झटका दे पाए। निर्दलीय भागू सिंह रावत ने भी भाजपा को महज 248 वोट का नुकसान पहुंचाया। कांग्रेस को निर्दलीय सुवा लाल गुंजल व सलामुद्दीन से कुछ खतरा था और उन्होंने क्रमश: 2972 व 1769 वोट का झटका दिया।
जातीय लिहाज से देखें तो यहां जाटों व गुर्जरों के बीच सीधा मुकाबला था। दोनों ने जमकर मतदान किया। यहां अनुसूचित जाति के मतदाता 45 हजार, गुर्जर 30 हजार, जाट 25 हजार, मुसलमान 15 हजार, वैश्य 15 हजार, रावत 17 हजार हैं। गुर्जर, अनुसूचित जाति और मुसलमान परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ हैं तो जाट, रावत व वैश्य भाजपा का साथ दे रहे थे। चूंकि आंकड़ों के लिहाज से मुकाबला बराबर का और पिछले चुनाव जैसा था, इस कारण इस बार फिर हार-जीत का अंतर ज्यादा होने के आसार नहीं थे, मगर लहर ने सारे समीकरण गड़बड़ा दिए और जाट ने गुर्जर को 28 हजार900 मतों से हरा दिया। इस प्रकार कांग्रेस का यह गढ़ ढ़ह गया। एक महत्वपूर्व बात ये है कि जाट को इस बार फिर केबिनेट मंत्री बनने का मौका मिलेगा।

ब्यावर में त्रिकोण नहीं बना पाए भूतड़ा
ब्यावर विधानसभा क्षेत्र में इस बार भाजपा के बागी देवीशंकर भूतड़ा के मैदान में उतरने से त्रिकोण बनने की संभावना थी, मगर भाजपा के शंकर सिंह रावत ने कांग्रेस के मनोज चौहान को 42 हजार 909 मतों से हरा दिया।  भूतड़ा मात्र 7 हजार 129 वोट ही हासिल कर पाए। दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों के रावत होने के कारण यह माना जा रहा था कि भूतड़ा वैश्य व शहरी वोटों को आकर्षित कर भाजपा को तगड़ा नुकसान पहुंचाएंगे। इसी आधार पर उनकी जीत के कयास भी थे। मगर लहर ने सब कुछ धो दिया। यहां कांग्रेस को निर्दलीय पप्पू काठात ने 12 हजार 390 वोटों का झटका दिया है।
यहां आम तौर पर शहरी मतदाताओं का वर्चस्व रहता है, लेकिन परिसीमन के बाद 11 पंचायतें शामिल किए जाने से ग्रामीणों का वर्चस्व बढ़ा है। असल में इस सीट पर आमतौर पर वैश्यों का कब्जा रहा, मगर परिसीमन के बाद रावतों की बहुलता होने के बाद भाजपा का रावत कार्ड कामयाब हो गया और पिछली बार शंकर सिंह रावत रिकार्ड वोटों से जीते। पिछली बार यहां कांग्रेस के बागी पूर्व विधायक के. सी. चौधरी ने वैश्य मतदाताओं के दम पर त्रिकोण बनाया था और वे दूसरे स्थान रहे, जबकि कांग्रेस तीसरे स्थान पर धकेल दी गई। इस बार भी त्रिकोण की संभावना थी मगर वह खारिज हो गई और रावत लगातार दूसरी बार विधानसभा में जा रहे हैं।

कड़े मुकाबले में जीत ही गईं श्रीमती पलाड़ा
मसूदा में पहली बार हुए बहुकोणीय मुकाबले में कड़े संघर्ष के बाद भाजपा की श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा ने जीत दर्ज कर ही ली। उन्होंने कांग्रेस के ब्रह्मदेव कुमावत को 4475 मतों से पराजित किया। असल में यहां की तस्वीर इतनी धुंधली थी कि कोई भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। कयास तो यहां तक थे कि कांग्रेस के बागी निर्दलीय रामचंद्र चौधरी या वाजिद चीता जीत जाएंगे। ये दोनों कितने सशक्त थे, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि चौधरी को 28 हजार 447 तो वाजिद को 20690 वोट हासिल हुए। उधर भाजपा को तीन बागियों से खतरा था, उनमें से देहात जिला अध्यक्ष नवीन शर्मा ने बिजयनगर में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए 22 हजार 186 हासिल कर लिए। इसी प्रकार भाजपा के ही बागी भंवर लाल बूला को 8433 मत हासिल हुए। श्रीमती पलाड़ा को बागी शांति लाल गुर्जर से भी खतरा रहा, जिन्होंने 10622  मत हासिल किए।  कुल मिला कर बहुकोणीय मुकाबले में इतना घमासान हुआ कि सुशील कंवर पलाड़ा को 34 हजार 11 मत पा कर जीत गई। ब्रह्मदेव कुमावत को 29 हजार 536 मत मिले। यहां बसपा के गोविन्द को 2098,  भारतीय युवा शक्ति के कमलेश को 1066, निर्दलीय ओमप्रकाश को 1078, पुष्कर नारायण त्रिपाठी को 791, भंवर सिंह को 3390, मांगीलाल जांगिड़ को 1838 और शान्ति लाल को 10622  मत मिले। वस्तुत: यह सीट भाजपा के लिए इसलिए प्रतिष्ठापूर्ण थी क्योंकि उसने यहां से जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा को राजपूतों के दबाव में उतारा था। कड़े मुकाबले में जीत हासिल कर उन्होंने प्रतिष्ठा बरकरार रख ही ली।