शनिवार, 9 मई 2020

गोलमाल है भई, गोलमाल है

पांच गुना महंगे बिक रहे हैं बीड़ी-सिगरेट, तंबाकू-गुटखा
जब से लॉक डाउन लागू हुआ है, तंबाकू, गुटखा, सिगरेट, बीड़ी आदि पर प्रतिबंध है। यानि कि बनाने और बेचने पर। न बनना चाहिए, न बिकना चाहिए। खाने पर भी। यदि खा कर कहीं थूक दिया तो जुर्माना है। जब कि सच्चाई ये है कि ये सभी वस्तुएं बिक रही हैं। यह सर्वविदित तथ्य है। ठेठ मजदूर तक को पता है। पत्रकार की खोज खबर नहीं। इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं होनी चाहिए। प्रमाण भी है। पिछले दिनों पुलिस ने भारी मात्रा में बरामदगी भी की। वह एक मामला है, जो कि पुलिस की मुस्तैदी से उजागर हो गया, वरना ऐसे न जाने कितने स्टॉकिस्ट होंगे। निष्कर्ष ये कि स्टॉकिस्ट के पास माल आ रहा है। आता कहां से है? अर्थात उत्पादन हो रहा है। बरामद माल पहले का रखा हुआ नहीं हो सकता। पहले का रखा हुआ तो अब तक बिक बिका कर खत्म हो गया होगा। इसकी मांग कितनी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ये सभी वस्तुएं लगभग तीन से पांच गुना दामों में गुपचुप बिक रही हैं। आप दुकानदार के पास जाएंगे तो वह कह देगा, माल कभी का खत्म हो गया। जान पहचान वाला हुआ तो माफी के साथ चुपके से दे देगा, कि मैं क्या करूं? ऊपर से ही महंगा आ रहा है।
बताते हैं कि जो लोग गुटखे के बिना नहीं रह सकते, वे या तो महंगा खरीद रहे हैं या फिर मीठी व फीकी सुपारी में बीड़ी का तम्बाकू या खैनी मिला कर सेवन कर रहे हैं। तंबाकू मिश्रित सुपारी की आदत इतनी गहरी है कि बिना तंबाकू के मिल रही सुपारी से खुद को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। हालत ये हो गई है कि जनरल स्टोर्स पर मीठी व फीकी सुपारी तक गायब हो चुकी है। कई लोग ऐसे हैं, जिनको ब्रांडेड बीड़ी नहीं मिल रही या खरीदने में सक्षम नहीं हैं, वे घर में बनी बीड़ी का जुगाड़ कर रहे हैं। एक बड़ा दिलचस्प प्रकरण जानकारी में आया। कोई युवक जनरल स्टोर पर बटर पेपर लेने गया। दुकानदार ने पूछा कि क्या करोगे, तो उसने बताया कि सिगरेट बहुत महंगी है, वह खरीद नहीं सकता। कहीं से तंबाकू का जुगाड़ किया है, वह बटर पेपर की सिगरेट बना कर उसमें तंबाकू डाल कर उपयोग कर लेगा। ये तो हद्द हो गई। उसे पता ही नहीं कि बटर पेपर का धुंआ फेफड़ों में गया तो कितना नुकसान करेगा। मगर क्या करे, सिगरेट के बिना रहा नहीं जाता। इसी को एडिक्शन कहते हैं। कुछ इसी प्रकार का जुगाड़ पहले भी जानकारी में आया था। कॉलेज टाइम में साथ में कुछ बिहारी युवक भी साथ पढ़ा करते थे। जरदा या खैनी नहीं मिलने पर वे कॉलेज की दीवार का चूना खुरच कर उसमें बीड़ी का तंबाकू मिला कर होंठ के नीचे दबाया करते थे।
वस्तुत: इन सभी मादक पदार्थों का बहुत बड़ा उपभोक्ता वर्ग है। वह इनका आदी है। पांच गुना रेट पर भी खरीद कर सेवन करना इसका सबूत है। हो सकता है कि महंगा होने के कारण उसने सेवन की क्वांटिटी कम कर दी हो। फिर भी देशभर में डेली की खपत बहुत होगी। सवाल सिर्फ ये कि अगर गुपचुप सप्लाई हो रही है तो उत्पादन भी हो रहा होगा। दूसरा ये कि बिक रहा है तो ऊपर से नीचे तक की चेन भी सक्रिय है। तंत्र की भी जानकारी में होगा ही। ऐसा ही नहीं सकता कि उसको पता न हो। कालाबाजारी करने वाले डाल-डाल तो तंत्र पात-पात। इसका उलट भी सही है। तंत्र डाल-डाल तो कालाबाजारिये पात-पात। तंत्र के पास इतने संसाधन नहीं कि ग्राउंड लेवल पर जा कर पकड़ सके। वह भी शिकायत पर ही कार्यवाही कर पाता है। उससे भी बड़ी बात ये है कि उसके पास केवल यही एक काम थोड़े ही है। लॉक डाउन की ड्यूटी ही इतनी श्रम साध्य है कि पूछो मत। अब चालीस डिग्री से ऊपर की गर्मी में तो उसका भी हाल बुरा है।
कुल जमा बात ये है कि कालाबाजारी जारी है तो इसका मतलब कुछ न कुछ गोलमाल है। उसका सर्वाधिक फायदा कौन उठा रहा है? स्टॉकिस्ट तो उठा ही रहा है, होल सेलर भी अपनी कमाई रख रहा है। गली का दुकानदार भी जब चार गुना रेट पर लाएगा तो वह भी रेट को पांच गुना करके कमाएगा। केवल माल की कमी का ही सवाल नहीं है। हर स्तर पर पकड़े जाने का रिस्क भी है। अब जो इतनी रिस्क ले रहा है, तो कमाएगा भी। इतना कमाएगा, कि पकड़ा भी जाए तो उसकी भरपाई कमाई से हो जाए।
इस गोरख धंधे का या तो शासन को पता नहीं है। और पता है तो संज्ञान नहीं ले रहा। कुछ न कुछ गोलमाल है। उसके लिए प्रशासन सीधे तौर पर जिम्मेदार इसलिए नहीं कि वह तो केवल शासन के आदेश को एक्जीक्यूट कर रहा है।  बीच में सुना था कि रेवेन्यू के लिए सरकार शराब के साथ पान-बीड़ी की दुकान भी खोल सकती है, मगर जैसे ही शराब खोलने पर सरकार की छीछालेदर हुई, कदाचित इसीलिए पान की दुकान खोलने का विचार ही त्यागना पड़ा।
आदेशों की भी बड़ी महिमा है। सुप्रीम कोर्ट ने तंबाकू मिश्रित पान मसाले पर रोक लगाई तो दूसरे ही दिन सारी कंपनियों ने पान मसाला व तंबाकू अलग-अलग पाउच में बेचना शुरू कर दिया। न तो आदेश की अवहेलना हुई और न ही उपभोक्ताओं को कोई दिक्कत। वे मिला कर सेवन करने लग गए। यह बात भी गौर तलब है कि तंबाकू के उत्पादों में चित्र के साथ लिखा होता है कि तंबाकू स्वास्थ्य के हानिकारक है। अरे भई, यदि हानिकारक है तो बेचने ही क्यों दे रहे हो? यानि की सरकार तो आगाह कर  रही है, अगर आपको हानि का वरण करना है तो यह आपकी मर्जी है।
कुछ ऐसा ही कोरोना को लेकर होने जा रहा है। सरकार आखिर कितने दिन लॉक डाउन करेगी। अंतत: खोलना ही होगा। आखिर चेतावनियां दे कर खोल देगी। आप जानो, आपका काम जाने।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, 2 मई 2020

कर्फ्यू के बाद भी कैसे फैला कोरोना?

बड़ा गुमान था। हमारे यहां केवल एक ही मरीज सामने आया है। उसने भी केवल अपने ही परिवार को प्रभावित किया है। वो भी ठीक हो रहे हैं। चूंकि भीलवाड़ा मॉडल की तर्ज पर तुरंत चार थाना क्षेत्रों में कफ्र्यू लगा दिया था, और तकरीबन एक माह तक शांति थी, इस कारण फहमी थी कि हम विजेता होंगे। 15 अगस्त को मेडल लेंगे। मगर गलत फहमी निकली। सब कुछ बिखर गया। फैल गया। पसर गया। संभाले नहीं संभल रहा। लॉक डाउन के दो टर्म बीत रहे हैं। रिलीफ चाहिए। मगर गिनती डेली बढ़ रही है। नयों का इलाज कराओ। उनसे संपर्क में आए लोगों को क्वारेंटाइन करवाओ। कफ्र्यू क्षेत्र में परेशान लोगों को जरूरी राहत पहुंचाओ। भाग रहे खानाबदोशों को संभालो। केन्द्र व राज्य की गाइड लाइन पर रिलीफ का फार्मूला निकालो। बहुत मुश्किल है। प्रशासन के लिए। वे ही जान सकते हैं कि कितना कठिन टास्क है। ऐसे वक्त में प्रशासन को पूरा सहयोग चाहिए। लोग कर भी रहे हैं। दानदाता अब भी सेवा में जुटे हैं। उनके जज्बे को सलाम। उनका सेवा भाव इतिहास में दर्ज हो गया है। कुछ कपड़े फाडऩे में लगे हैं। उनका काम ही यही है। आम अजमेरवासी अपनी किस्मत को कोस रहा है।
इन सब के बीच हर एक के मन में एक ही सवाल है। कफ्र्यू के बाद भी कैसे फैला कोरोना? चूक कहां हुई? हालांकि ताजा जो हालत हैं, उसे देखते हुए यह सवाल अब बेमानी सा लगता है। मुर्दे उखाडऩे सा प्रतीत होता है। अव्वल तो पता नहीं लगेगा कि फैला कैसे? गत पता लग भी गया तो आप क्या कर लोगे? कोई एक आदमी तो जिम्मेदार होगा नहीं, जिसे फांसी पर चढ़ा दोगे। लापरवाही कई स्तर पर हुई है। सरकारी एजेंसियों के स्तर पर भी, जिनका पोस्टमार्टम अखबार वाले कर ही रहे हैं। आम जनता के स्तर पर भी, जो डंडे खा कर भी बाहर निकलने से बाज नहीं आ रही थी। डंडे भी ऐसे खाये कि वर्षों तक याद रहेंगे। गनीमत रही कि आरएसी के नहीं थे। उनका मजा भी हम कई साल पहले चख चुके हैं।
कुछ लोग मानते हैं कि पुलिस ने बहुत ज्यादती की, मगर अनेक का मानना है कि अगर सख्ती न बरती होती तो, हालात कुछ और होते। यह मत भी सामने आया है कि सख्ती मुख्य चौराहों व रास्तों पर तो थी, मगर दरगाह के आसपास की तंग गलियों में आवाजाही बनी रही। मॉनिटरिंग की कमी सामने आई है, मगर आबादी का धनत्व बहुत अधिक होने के कारण भी संक्रमण को रोकना बेहद मुश्किल था। इसमें जिला प्रशासन कर भी क्या सकता था? पब्लिक भी क्या कर सकती थी? वैसे ठीक से सर्वे न होने की शिकायतें भी सामने आई हैं। इसलिए बीमारी दबी पड़ी रही। वह अब फूट कर निकल रही है। भोजन के पैकेट या खाद्य सामग्री के वितरण के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग की पालना भी ठीक से नहीं हुई। पासों का जम कर दुरुपयोग हुआ। आखिरकार कलेक्टर को सेल्फी व फोटो खींचने पर रोक लगानी पड़ी। सोशल डिस्टेंसिंग का सबसे ज्यादा भट्टा सब्जी मंडियों में बैठा। हालात ये हो गई कि मंडी दो-दो दिन के लिए बंद करनी पड़ी, नतीजन लोगों को दुगुनी रेट पर सब्जी खरीदनी पड़ी। शेल्टर्स होम्स पर नियंत्रण की कमी ने भी समस्या उत्पन्न की।
हर एंगल से सोचा जाए तो यही लगता है कि अकेला कफ्र्यू लगाना और पुलिस का सख्त होना ही पर्याप्त नहीं था। अजमेर का रेड जोन में आना सामूहिक जिम्मेदारी है। अब वापस दुरुस्त होना भी सबका दायित्व है। बेशक लॉक डाउन की अपनी समस्याएं हैं, मगर कुछ दिन और सब्र रख कर अपना बचाव रखना होगा। उसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com