रविवार, 2 जून 2013

अजमेर उत्तर में भाजपा ने गैर सिंधी को टिकट दी तो दक्षिण की सीट खिसक जाएगी

इन दिनों अजमेर में यह चर्चा काफी गरम है कि भाजपा इस बार अजमेर उत्तर विधानसभा क्षेत्र से किसी गैर सिंधी को चुनाव लड़ाने का मानस बना सकती है। स्थानीय भाजपाइयों का एक बड़ा तबका इसी कोशिश में है, मगर उसमें खतरा ये है कि ऐसा करने पर भाजपा को अपनी दक्षिण सीट गंवानी पड़ सकती है। इस कारण ऐसा करने से पहले भाजपा को दस बार सोचना पड़ेगा।
यहां कहने की जरूरत नहीं है कि सिंधी मतदाता आमतौर पर भाजपा विचारधारा का ही माना जाता है। पिछली बार जब कांग्रेस ने नया प्रयोग करते हुए पूर्व पुष्कर विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को अजमेर उत्तर से उतारा था तो पूरा सिंधी मतदाता लामबंद हो गया, जिससे वे तो पराजित हुए ही, अजमेर दक्षिण की प्रत्याशी विधायक श्रीमती अनिता भदेल भी भारी मतों से जीतीं। असल में उनकी जीत में सिंधी मतदाताओं की बड़ी भूमिका थी, जिसे कि स्वयं श्रीमती भदेल भी स्वीकार करती हैं। कांग्रेस के उस प्रयोग का नुकसान उसे प्रदेश की कुल पांच सीटों पर सीधे उठाना पड़ा था।
हालांकि कांग्रेस की तरह भाजपा में भी पिछले कुछ चुनावों से गैर सिंधी प्रत्याशी को उतारने का दबाव रहता है, मगर अपने पक्के वोट बैंक को नाराज न करने की गरज से पार्टी हाईकमान ने उस पर ध्यान नहीं दिया। विशेष रूप से परिसीमन के बाद यह तर्क दिया जाता है कि अजमेर उत्तर में सिंधी मतदाताओं की संख्या काफी कम हो गई है। इसी को आधार बना कर कुछ दावेदार झूठे आंकड़ों का सहारा लेकर टिकट हासिल करने की जुगत में हैं। मगर वे भूल जाते हैं कि ऐसे आंकड़े पिछली बार के परिणाम से ही सामने आ गए थे। अगर उनकी इस बात को मान भी लिया जाए तो यह तो पक्का हो ही जाता है कि अजमेर उत्तर के मतदाता अब अजमेर दक्षिण में हैं। अगर भाजपा ने गैर सिंधी को टिकट दिया तो अजमेर उत्तर में तो नुकसान होगा ही, साथ ही जिस दक्षिण क्षेत्र में सिंधी ज्यादा हैं, वहां भाजपा प्रत्याशी को सीधे-सीधे नुकसान होगा, जिसके दम पर उसका जीतना आसान हुआ करता है। इतना ही नहीं, अजमेर जिले की नसीराबाद, किशनगढ़, ब्यावर आदि सीटों पर भी असर पड़ सकता है। बताते हैं कि अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल का टिकट इस बार भी पक्का है, इस कारण वे कभी नहीं चाहेंगी कि अजमेर उत्तर से किसी गैर सिंधी को टिकट मिले। इस बार चूंकि उनका तीसरा टर्म होगा और भाजपा की सरकार बनी तो उनका मंत्री बनना पक्का है, ऐसे में संभव है वे अपनी सीट को बचाने के लिए किसी सिंधी को ही टिकट देने की पैरवी करें।

नाजिम साहब, दरगाह में तो खादिमों की ही चलेगी

हाल ही जब महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह का प्रबंध संभालने वाली सरकार संस्था दरगाह कमेटी के नए नाजिम अंसार अहमद ने कहा कि दरगाह में जायरीन के साथ दुव्र्यवहार होता है और मेरे साथियों के साथ भी हो चुका है बुरा सलूक हो चुका है तो मुझे यकायक अपनी वह पोस्ट याद आ गई, जिसमें बताया गया था कि दरगाह में तो केवल खादिमों की चलेगी।
असल में हर नया नाजिम जब आता है तो कुछ पहले से उसे पता होता है और कुछ आने के बाद यहां के हालात पता लगते हैं तो वह उन्हें सुधारने की सोचता है। मगर अफसोस कि हर बार असफलता ही हाथ लगती है। समझदार नाजिम तो जल्द ही एडजस्ट होने की कोशिश करते हैं, जबकि अडिय़ल कुछ दिन बाद एडजस्ट होने को मजबूर हो जाते हैं। अंसार अहमद पहले नाजिम नहीं हैं, जिन्हें यह पता लगा है कि दरगाह में जायरीन के साथ बुरा सलूक होता है। उनसे पूर्व के सभी नाजिमों को इन हालात से मुकाबिल होना पड़ा है। दो नाजिम, जिन्हें अपने पद का गुमान था, वे तो पिट भी चुके हैं। वे ही क्यों, पिछले सालों में गुजरे कई उर्स मेलों में पुलिस वाले तक पिट चुके हैं। बाद में ऊपर के दबाव से पुलिस कर्मियों को समझौता ही करना पड़ा है।
वस्तुत: दरगाह के इंतजामात में भले ही दरगाह कमेटी की भूमिका होती है, मगर दरगाह की सारी धार्मिक रस्में अदा करने और जियारत करवाने में सीधा खादिमों व उनकी संस्था अंजुमन की ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। इस लिहाज से जायरीन का सीधा वास्ता खादिमों से ही पड़ता है। इनके बीच दरगाह कमेटी की कोई भी भूमिका नहीं होती। एक तो खादिमों की तादाद बहुत है, दूसरा उनकी ऊपर तक राजनीतिक पहुंच तगड़ी है। आर्थिक दृष्टि से भी वे बहुत संपन्न हैं। इस कारण वे ही दरगाह में हावी हैं। जहां तक नाजिम का सवाल है, उसको कुछ तो सीमित अधिकार हैं, दूसरे उनको इस्तेमाल करवाने के लिए खुद की कोई पुख्ता सुरक्षा एजेंसी नहीं है। ऐसे में चाह कर भी वह कुछ नहीं कर पाता। दरगाह के अंदर अतिक्रमणों को ही लीजिए। हर बार उर्स से पहले इस पर चर्चा होती है, मगर आज तक अतिक्रमण नहीं हटाए जा सके हैं। नाजिम के पास अधिकारों की कमी के चलते आने वाली समस्याओं से निपटने के लिए कई बार दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट में संशोधन की चर्चा होती है, मगर वह चर्चा भर हो कर रह जाती है। आज तक सरकार की हिम्मत नहीं हुई है कि वह बर्र के छत्ते में हाथ डाले। वजह साफ है। अगर उसने एक्ट के जरिए खादिमों पर अंकुश लगाने की कोशिश तो उनका विरोध पूरे देश के मुसलमानों में गलत संदेश देगा।
पिछले दिनों जब पहली बार केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलात मंत्रालय के नवनियुक्त सचिव डॉ. सुतानु बेहुरिया यहां आए तो उन्होंने भी इस दिशा में कदम उठाने की बात कही थी। उन्होंने दरगाह के बारे में बारीक जानकारी रखने वाले पूर्व नाजिम अशफाक हुसैन से गहन चर्चा की और जाना कि दरगाह से जुड़े संबद्ध पक्षों के क्षेत्राधिकार, उनका योगदान और उनमें टकराव के कारण होने वाली समस्याएं क्या हैं? चूंकि बेहुरिया का यह दौरा विशेष रूप से दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट के सिलसिले में था नहीं, वे तो कटसी विजिट पर आए थे, इस कारण सहसा यकीन ही नहीं हुआ कि वे वाकई गंभीर हैं।  हुआ भी वही। उसके बाद आज तक फिर उस पर कोई चर्चा सामने नहीं आई।
दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट में संशोधन तो बहुत बड़ी बात हो गई, दरगाह से सीधे जुड़े तीन पक्षों खुद्दाम साहेबान, दरगाह दीवान व दरगाह नाजिम और दरगाह के बाहर की व्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार जिला प्रशासन के बीच ही छोटी-छोटी बातों पर सहमति नहीं हो पाती। आए दिन टकराव होता है और उसकी सुर्खियां प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर चमकती हैं। जिला प्रशासन अंदर के मामलों पर सीधे दखल कर नहीं पाता और नाजिम को इतने अधिकार हैं नहीं कि वह सख्ती बरत पाए। इसी कारण एक्ट में संशोधन की बातें उठती हैं, मगर फिर चादर ओढ़ कर सो जाती हैं।
आपको याद होगा कि दरगाह ख्वाजा साहब के खादिमों के लिए लाइसेंस लेना जरूरी करने के मामले में दरगाह नाजिम के पूर्व नाजिम की कथित सिफारिश ने ही जबरदस्त तूल पकड़ लिया था। हालांकि नाजिम अहमद रजा ने अपनी सफाई में साफ कर दिया कि उन्होंने न तो लाइसेंस जरूरी करने सिफारिश की है और न ही ऐसा करने का उनका मानस है, लेकिन खादिम इससे राजी नहीं हुए। वे मामले की सीआईडी जांच करवाना चाहते थे ताकि यह पता लग सके कि यह खुराफात किसने की है। दरअसल दरगाह एक्ट की धारा 11(एफ) पर एक राय नहीं बनने तक दरगाह कमेटी ने पहले ही इस मामले को टाल दिया था। उसके बाद नाजिम का सिफारिश करने का कोई मतलब ही नहीं था। इसके बावजूद ऐसा पत्र फैक्स के जरिए मीडिया के पास पहुंचा तो विवाद हो गया। इस पर खादिम शेखजादा जुल्फिकार चिश्ती का कहना था कि जो खादिम पिछले तकरीबन आठ सौ साल से दरगाह ख्वाजा साहब की खिदमत कर रहे हैं, उन्हें लाइसेंस लेना जरूरी करने की बात ही बेमानी है। खिदमत करने अथवा जियारत करवाने का हक खादिमों का जन्मजात हक है। इसके लिए उन्हें किसी सल्तनत या सरकार का मुंह ताकने की भला क्या जरूरत है? लाइसेंस का मतलब ही ये होता है कि किसी काम करने का हक सरकार की ओर से मुहैया करवाया जाए। दरगाह में कौन जियारत करवाएगा, इससे सरकार का कोई लेना-देना ही नहीं है।
एक मुद्दा खादिमों को आइडेंटिटी कार्ड जारी करने का भी रहा है। इसको लेकर भी खादिमों को ऐतराज रहा है। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा करके सरकार उनके हक-हकूक को छीनना चाहती है।
कुल मिला कर नए नाजिम ने कही भले ही सही बात हो और व्यवस्थाएं सुधारने का जज्बा दिखाया है, मगर जल्द ही उनको भी समझ में आ जाएगा कि यहां किस प्रकार नौकरी करनी है।
-तेजवानी गिरधर