शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

नए अवतार में आएंगे लाला बन्ना?

अजमेर नगर परिषद के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना की भाजपा में वापसी से ऐसा प्रतीत होता है कि सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो जाएगा, मगर जिस घटनाक्रम के बाद वे लौटे हैं, उससे इस बात की संभावना अधिक है कि वे लाला बन्ना का दूसरा संस्करण या दूसरा अवतार होंगे।
वस्तुत: कोई ये कह सकता है कि किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए अंतत: मूल धारा में आना मजबूरी होता है, अत: वह हालात से समझौता कर लेता है, मगर जिस प्रकार का लाला बन्ना का व्यक्तित्व है, वे भाजपा में लौटने मात्र के लिए नहीं लौटे हैं। सब जानते हैं कि वे कितने ऊर्जावान और महत्वाकांक्षी हैं। भाजपा में ही ऐसे बहुत से हैं, जो भाजपा में रहते हुए भी मृतप्राय: हैं, मगर लाला बन्ना भाजपा से बाहर रहते हुए भी अपने वजूद को जिंदा रखे हुए रहे। उनकी अपनी फेन्स फॉलोइंग है, जिसने उन्हें विस्मृत नहीं होने दिया। इस बीच संजीदगी व गंभीरता भी बढ़ी है, लिहाजा पक्का मान कर  चलिए कि इस बार बड़ी चतुराई से मोहरे खेलेंगे। और उसकी वजह भी है, वे केवल स्थानीय स्तर पर जिंदा नहीं है, बल्कि ऊपर भी उनके तार बहुत मजबूत हैं। यानि कि अब लाला बन्ना का नया अवतार सामने आना वाला है।
रहा सवाल स्थानीय समीकरणों का, तो कुछ लोग यह मान कर चल सकते हैं कि चूंकि वे पूर्व में महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल के खास सिपहसालार रहे, इस कारण अब भी शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी विरोधी सेना के सेनापति होंगे ही, ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। कहते हैं न कि रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय, टूटे से फिर न ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय। इसकी वजह ये है कि भाजपा में औपचारिक तौर पर भले ही वापसी अब जा कर हुई, मगर वास्तविक सुलह तो नगर निगम के महापौर धर्मेन्द्र गहलोत से हाथ मिला कर हो गई थी। तभी ये तय हो गया था कि वे देर-सवेर भाजपा में शामिल होंगे, अन्यथा सुलह की जरूरत ही क्या थी? बाद में जिस प्रकार भाजपा के दिग्गज नेता ओम प्रकाश माथुर के अजमेर आगमन पर उनकी जो जिंदादिल मौजूदगी थी, वह इस बात का प्रमाण थी कि वापसी सुनिश्चित है। खैर, गहलोत के साथ सुलह राजगढ़ भैरोंधाम के मुख्य उपासक चंपालाल जी महाराज की पहल पर हुई या फिर दोनों सुलह चाहते थे, किसका इनीशियेटिव था पता नहीं, मगर इतना तय है कि सुलह के साथ उन दोनों के बीच कुछ तो तय हुआ ही होगा। ऐसे में यह सुनिश्चित तौर पर नहीं कह सकते कि लाला बन्ना फिर पुराने समीकरणों में समाहित हो जाएंगे। असल में भाजपा से बाहर रह कर उन्हें इस बात का भी ठीक अनुमान हो गया होगा कि उनकी राजनीतिक भलाई कैसा रोल अदा करने में है? कौन अपना और कौन पराया है? सबसे बड़ी बात ये है कि नीचे से ऊपर वे जिस लॉबी के हिस्से रहे हैं, वह कोई कमजोर लॉबी नहीं है। और उसमें भी वे कमजोर स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि वे किसी नई रणनीति के सूत्रधार होंगे। चूंकि उनमें पहले से अधिक परिपक्वता आई होगी, इस कारण लगता नहीं कि वे भावावेश में गैर सिंधीवाद की मुहिम का हिस्सा होंगे या मेयर बनने के लिए विरोधियों से हाथ मिलाने जैसा कदम उठाएंगे। बेशक अजमेर में गैर सिंधी व गैर अनुसूचित जाति के नेताओं के लिए सीमित संभावनाएं हैं, मगर उन सीमित संभावनाओं में भी वे अपने लिए स्थान सुनिश्चित कर लेंगे, ये मान कर चला जा सकता है।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, 26 सितंबर 2017

लाना बन्ना, सारस्वत, जैन व पहाडिय़ा का भी नाम उछल रहा है

राज्य किसान आयोग के अध्यक्ष व अजमेर सांसद रहे प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई अजमेर लोकसभा सीट के लिए होने वाले उपचुनाव में भाजपा की ये मजबूरी है वह प्रो. जाट के ही परिवार से किसी को टिकट दे। अगर नहीं तो भी भाजपा किसी गैर जाट को टिकट देकर पूरी जमात को अपने खिलाफ नहीं कर सकती। अर्थात उसे किसी जाट को ही टिकट देनी होगी, चाहे वह अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी हों या फिर सी बी गैना या कोई और। बावजूद इसके गैर जाटों में भी कई दावेदार उभर कर सामने आ रहे हैं। कदाचित वे भी जानते होंगे कि टिकट मिलना मुश्किल है, मगर कम से कम चर्चित होने का लाभ तो वे ले ही रहे हैं।
अजमेर उत्तर विधानसभा सीट की भाजपा टिकट के लिए सर्वाधिक चर्चित रहे अजमेर नगर परिषद के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना का नाम सोशल मीडिया पर खूब उछल रहा है। उनके समर्थक बाकायदा उनकी फोटो के साथ पोस्टें डाल रहे हैं। इसी प्रकार युवा भाजपा नेता व मसूदा की विधायक श्रीमती सुशील कंवर के पति भंवर सिंह पलाड़ा के नाम का भी सोशल मीडिया पर खूब हल्ला है। उनके समर्थक उन्हें भावी सांसद के रूप में देख रहे हैं। देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत का नाम भी सुर्खियां पा रहा है। उनके लिए तो राजनीतिक पंडित एडवोकेट राजेश टंडन ने बाकायदा एक लंबी-चौड़ी पोस्ट फेसबुक पर डाली है। उनमें लिखा है कि भाजपा लोकसभा अजमेर उप चुनाव में प्रोफेसर सारस्वत को प्रत्याशी बनाने का बहुत गहनता से विचार कर रही है। सारस्वत को टिकट देने संघ लॉबी पूरी तरह साथ लग जायेगी, यह तो निश्चित है, भाजपा की अजमेर देहात जिला की कार्यकारिणी भी साथ लग जायेगी। उनकी जीत की संभावनाओं पर ग्राउंड से रिपोर्टें मंगवाई जा रही हैं। साथ ही उन्होंने यह आशंका भी जताई है कि सारस्वत के लड़ते ही जाट वोट नहीं मिलेगा। पूरे का पूरा प्रोफेसर सावंरलाल का खानदान चुनाव लडऩे को तैयार बैठा है।
इसी प्रकार पिछले दिनों प्रदेश के जाने-माने पत्रकार अनिल लोढ़ा ने इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर एक विश्लेषण में हालांकि कहा यही कि प्रो. जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा को इशारा कर दिया गया है, मगर साथ ही उन्होंने अजमेर नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन का भी नाम लिया। यह वीडियो क्लीपिंग सोशल मीडिया पर खूब चली। ज्ञातव्य है कि जैन पूर्व में भी दावेदारी जता चुके हैं। जब जैन का नाम आता है कि लोग उनके साथ पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा का नाम भी जोडऩे से नहीं चूकते।
-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, 25 सितंबर 2017

प्रतिष्ठापूर्ण शिक्षा बोर्ड पर अनोखा सवालिया निशान

गोपनीयता व निष्पक्षता के मामले में राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड  का नाम पूरे देश में अव्वल है। यहां के परीक्षा सिस्टम को पूरे देश के शिक्षा बोर्डों में सर्वाधिक लीक प्रूफ माना जाता है। इसी वजह से देश के अनेक बोर्डों के प्रतिनिधिमंडल यहां आ कर यहां की कार्यप्रणाली जानने-समझने आ चुके हैं। देशभर के शिक्षा बोर्डों की संस्था कोब्से की अध्यक्षता करने का सौभाग्य स्थानीय बोर्ड अध्यक्ष को मिलने की वजह आदर्श परीक्षा पद्धति ही है। हालांकि समय-समय पर कर्मचारियों की लापरवाही व बदमाशी के कारण कुछ आर्थिक गड़बडिय़ां उजागर हुई हैं। इसके अतिरिक्त पेपर लीक के मामले भी सामने आए हैं, मगर उनमें अमूमन बोर्ड के बाहर की अधिक घटनाएं हैं। कुल मिला कर ऐसा माना जाता है कि इस बोर्ड में अंकों को लेकर घपलेबाजी या सेटिंग नहीं हो सकती। ऐसे प्रतिष्ठापूर्ण बोर्ड पर एक अनोखा सवालिया निशान अंकित हो गया है।
यह मामला अनोखा इस कारण है कि इसमें परीक्षक ने सेटिंग करके अंक बढ़ाए नहीं हैं, बल्कि घटाए हैं। अंक घटने के कारण सात परीक्षार्थियों को जब नुकसान हुआ तो उन्होंने मामला उजागर किया। असल में हुआ ये है कि कम अंक मिलने और अपने परिणाम से असंतुष्ट विद्यार्थियों ने बोर्ड से अपनी अंग्रेजी विषय की उत्तर पुस्तिकाओं की स्कैन प्रति निकलवाईं तो इन उत्तर पुस्तिकाओं की स्कैन प्रति को देख कर विद्यार्थियों के होश उड़ गए। शिक्षक ने सात विद्यार्थियों को पहले कुछ और अंक दिए और बाद में उन्हें व्हाइटनर से मिटा कर कम कर दिए। हालांकि इस प्रकरण को शिक्षक की लापरवाही करार दिया जा रहा है, मगर यह मामला साफ तौर पर सायास किया गया लगता है। लापरवाही तो तब होती जब शिक्षक उत्तर पुस्तिका को ठीक से नहीं जांचता, अथवा अंकों में योग में सावधानी नहीं रखता। व्हाइटनर से पुराने अंक छिपा कर नए अंक देने से यह साफ है कि यह जानबूझ कर किया गया है। ठीक से पड़ताल होने पर ही पता लग पाएगा कि परीक्षक ने बाद में जो अंक दिए हैं, वे सही हैं या गलत। इस प्रकरण के पीछे कोई साजिश है, यह तो जांच से ही सामने आ पाएगा, मगर संभावना इस बात की भी है कि पहले शिक्षक ने असावधानी के कारण कुछ अंक दिए, मगर जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने व्हाइटनर से पुराने अंक छिपा कर नए अंक दे दिए। जहां तक व्हाइटनर लगाने का प्रश्र है तो केवल ऐसा करने मात्र से मामले को संगीन नहीं माना जा सकता। सुधार के लिए वह व्हाइटनर का उपयोग कर सकता है। मगर यदि उसने किसी दुश्मनी के भाव से अथवा किसी के कहने से इस प्रकार की कारसतानी की है तो यह वाकई गंभीर बात है।
हालांकि बोर्ड अध्यक्ष बी एल चौधरी ने जो प्रतिक्रिया दी है, वह अपेक्षित और सीधी-सपट भी है कि शिक्षक ने उत्तर पुस्तिका की जांच में लापरवाही बरती है और जांच के बाद इसकी पुष्टि हो जाएगी। बोर्ड ऐसे शिक्षक के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगा और उसे डीबार कर दिया जाएगा। मगर चूंकि बोर्ड की अपनी बड़ी प्रतिष्ठा है, इस कारण इस मामले को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 23 सितंबर 2017

नगर निगम को अब कैसे नजर आ गई रेलवे की बिल्डिंग?

पिछले काफी समय से गांधी भवन चौराहे पर रेलवे स्टेशन परिसर में एक बहुमंजिला इमारत का निर्माण चल रहा है। संभवत: उसका ढ़ांचा बन कर पूरा हो गया है और अब उसे अंतिम रूप दिया जाना शेष है। मगर चंद कदम दूर ही स्थित नगर निगम को अचानक यह निर्माण खटक गया और उसने इस बहुमंजिला व्यावसायिक निर्माण को अवैध निर्माण बताते हुए काम बंद करने का नोटिस दिया है। इतना ही नहीं उसे अवैध निर्माण मानते हुए तोडऩे तक की आवश्यक कानूनी कार्यवाही करने को चेताया गया है। यह कैसी अंधेरगर्दी है?
हालांकि इस मामले में दोनों पक्षों की दलीलों पर गौर करें तो यह विभागीय तालमेल के अभाव अथवा नियमों की अस्पष्टता का मामला लगता है, मगर सवाल ये है कि जब बिल्डिंग इतनी ऊंचाई तक बन चुकी है, तब जा कर निगम को होश कैसे आया? एक के बाद एक मंजिल का निर्माण होता गया और अब यह विशालकाय हो चुकी है, तब जा कर ख्याल कैसे आया कि यह नियम विरुद्ध बन रही है? हालांकि निगम का यह रवैया नया नहीं है और गली-मोहल्लों में हो रहे निर्माण पूरे होने के करीब आने पर ही निगम को होश आता है, मगर ये निर्माण तो शहर की छाती पर हो रहा है, जिस पर गांधी भवन चौराहे से गुजरने वाले हर नागरिक की कई कई बार नजर पड़ चुकी है। बेहद अफसोसनाक बात है कि निगम के जिम्मेदार अधिकारियों की तंद्रा अब जा कर खुली है। स्मार्ट सिटी बनने जा रहे अजमेर में यदि ऐसे गैरजिम्मेदार व लापरवाह अधिकारी बैठे हैं तो इस शहर का भगवान ही मालिक है।
जहां तक विवाद का सवाल है, निगम का कहना है कि यह अगर रेलवे का कार्यालय होता तो कोई बात नहीं, कॉमर्शियल निर्माण के लिए तो अनुमति जरूरी है। दूसरी ओर निर्माण करवाने वाले हरसद तलेदा की तरफ से रेल भूमि विकास प्राधिकरण के जनरल मैनेजर वीरेंद्र कुमार ने तर्क दिया कि उक्त भूमि पर आरएलडीए यानी रेलवे भूमि विकास प्राधिकरण द्वारा निविदाएं आमंत्रित कर 45 वर्ष की लीज पर भूमि लेकर एमएफसी यानी मल्टी फंक्शन कॉम्पलेक्स के निर्माण के लिए दिया गया है। चूंकि एमएफसी रेलवे का संचालित भवन है, इसलिए रेल्वे अधिनियम के अंतर्गत इसके निर्माण की स्वीकृति स्थानीय नगरीय निकाय अथवा राज्य सरकार से लिए जाने की आवश्यकता नहीं है। यानि कि कुल मिला कर यह मामला नियमों की पेचीदगी का है। ऐसे में अगर यह प्रकरण कोर्ट में गया और निर्माण अवैध माना गया तो उसे तोडऩे से होने वाला नुकसान क्या देश का नुकसान नहीं होगा?
वैसे, लनता ये है कि आखिरकार इसका कोई न कोई रास्ता निकल आएगा, मगर तब तक यह विशालकाय भवन निगम को मुंह चिढ़ता रहेगा और आम जनता की जिज्ञासा बढ़ती ही जाएगी।
अंधेरगर्दी का दूसरा संगीन मामला
अजमेर नगर निगम की लापरवाही का दूसरा संगीन मामला भी गौर फरमाइये, जिसकी वजह से आम आदमी फोकट ही परेशान हो रहा है:-
नगर निगम द्वारा जलदाय विभाग के सहयोग से इस माह से सीवरेज सरचार्ज लिया जा रहा है, मगर कई उपभोक्ता ऐसे हैं, जिनके क्षेत्र में सीवरेज लाइन डाली ही नहीं गई और उनसे भी वसूली की जा रही है। असल में हुआ ये है कि निगम ने सीवरेज कनेक्शन लेने के लिए नोटिस जारी किए हैं, इस पर लोगों ने निगम में 600 रुपए की रसीद कटवा ली है। हालांकि अनेक आवेदकों के घरों के सीवरेज कनेक्शन या तो हुए नहीं हैं और या फिर सीवरेज कनेक्शन चालू किए नहीं गए हैं, लेकिन निगम ने सभी आवेदकों के नाम जलदाय विभाग को भिजवा दिए हैं, नतीजतन विभाग ने पानी के बिल के साथ सरचार्ज की राशि भी जोड़ दी गई है। ऐसे में जनता का परेशान होना स्वाभाविक ही है। जब उनका सीवरेज कनेक्शन चालू ही नहीं हुआ है तो वे काहे का सरचार्ज दें।
इस मामले में निगम के एक्सईएन केदार शर्मा का हास्यास्पद बयान देखिए कि इस त्रुटि का जल्द ही समाधान कर दिया जाएगा। वे कह रहे है कि ऐसे उपभोक्ता परेशान होने के बजाए निगम की योजना शाखा में आकर प्रार्थना पत्र मय मोबाइल नंबर दे सकते हैं। इसके लिए निगम स्तर पर एक कार्मिक को जिम्मेदारी भी सौंप दी गई है। अजी महाराज, गलती आपकी और जनता निगम को चक्कर काटे, क्या वह फालतू है? आपको केवल उनके  के नाम जलदाय विभाग को भेजने चाहिए थे ना, जिनके सीवरेज कनेक्शन हो चुके हैं।
शर्मा कह रहे हैं कि उपभोक्ताओं की परेशानी को देखते हुए जलदाय विभाग के अधिकारियों से चर्चा की गई है। यदि पानी के बिल की अंतिम तिथि करीब ही है तो उक्त बिल को जमा करवा दें। अगले माह में आने वाले पानी के बिल में उक्त राशि को समायोजित कर लिया जाएगा। अरे प्रभु, पहले बिल में राशि जोडऩे और फिर समायोजित करने की मशक्कत क्यों करवाई? इस प्रकार की बेगारी करवाने के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या कानून को उसकी गर्दन नहीं नापनी चाहिए?
-तेजवानी गिरधर
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लाचार शहर के लाचार मंत्री

गत दिवस स्वायत्त शासन मंत्री श्रीचंद कृपलानी की मौजूदगी में स्थानीय जनप्रतिनिधियों, जो कि राज्य सरकार में मंत्री भी हैं, ने जिस प्रकार स्मार्ट सिटी में काम न होने का रोना रोया, उससे एक ओर तो यह आभास कराया गया कि उन्हें अजमेर की बड़ी चिंता है, दूसरी ओर यह भी साबित हो गया कि टायर्ड-रिटायर्ड लोगों के इस लाचार शहर के मंत्री भी कितने लाचार हैं।
शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का तो यहां तक कहना था कि स्मार्ट सिटी केवल चर्चाओं में है, काम नहीं हो रहे। स्मार्ट सिटी पर काम कम, बातें ज्यादा हो रही हैं। जिस प्रकार काम चल रहा है, इसमें सालों लग जाएंगे। हम जब जनता के बीच जब जाएंगे तो उन्हें क्या जवाब देंगे। हालत ये थी कि मंत्री की हैसियत रखने वाले देवनानी को भी पूछना पड़ा कि स्मार्ट सिटी योजना के तहत अब तक कितना पैसा खर्च हो चुका है। अफसोसनाक बात देखिए कि बैठक के आखिर तक अधिकारी भी ये नहीं बता पाए कि दिल्ली से कितना आ बजट चुका है।
महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री अनिता भदेल की लाचारी देखिए कि उन्हें यह तक कहना पड़ा कि अमृत योजना में क्या चल रहा है, इसकी उनके पास जानकारी नहीं है। बैठक में उन्हें बुलाया ही नहीं जाता है। उनके विधानसभा क्षेत्र में सीवरेज की लाइनें जाम हो चुकी हैं, गंदा पानी ओवर फ्लो होकर सड़कों पर रहा है। निगम अधिकारियों को कई बार कहा, लेकिन उनकी समस्या का समाधान नहीं हो रहा है। अब जब हम जनता के बीच जाएंगे तो उन्हें क्या जवाब दें? शहर जिला भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव तक की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही थी। उन्हें यहां तक कहना पड़ा कि लेपटॉप लेकर आने से बैठक पूरी नहीं हो जाती। जनता को हमें जवाब देना है। आचार संहिता लग जाएगी तब बजट का उपयोग किया जाएगा क्या?
देवनानी सहित अन्य जनप्रतिनधियों ने स्ट्रीट लाइट जैसी मूलभूत सुविधा को लेकर हो रही लापरवाही का रोना रोया, जिसका संचालन ईएसएल कंपनी करती है।
समझा जा सकता है कि हमारे जनप्रतिनिधि कितने लाचार हैं। जब वे ही संतुष्ट नहीं हैं तो जनता की क्या हालत होगी, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
रहा सवाल जनप्रतिनधियों का तो वे समझ रहे हैं कि वे वैसा परफोरमेंस नहीं दे पाए हैं, जिसकी जनता अपेक्षा कर रही है। चार साल पूरे होने को हैं। बाकी एक साल बचा है। अगर ही हाल रहा तो जनता पलटी भी खिला सकती है। बस इसी बात की उन्हें चिंता सता रही है। विधानसभा चुनाव की छोड़ो, दो माह बाद लोकसभा उपचुनाव होने हैं। उन्हें डर है कि जनता का असंतोष भारी न पड़ जाए। ऐसे में जाहिर तौर पर हाईकमान कान उमेड़ेगा, इस कारण इस महत्वूपूर्ण बैठक में अपना असंतोष जाहिर कर दिया ताकि बाद में कहा जा सके वे तो पहले ही कह रहे थे कि जनता के काम ठीक से नहीं हो रहे।
एक ही पार्टी के जनप्रतिनिधियों के बीच तालमेल की हालत ये है कि वे एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं। काम न होने की शिकायत का ठीकरा अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिव शंकर हेडा पर फोडऩे की कोशिश की गई। अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत का कहना था कि एडीए एवं आवासन मंडल की कई योजनाएं हैं, लेकिन उन्हें निगम को ट्रांसफर नहीं किया है, जबकि इन क्षेत्रों में साफ सफाई एवं लाइट की जिम्मेदारी निगम प्रशासन की रहती है।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 20 सितंबर 2017

क्या सचिन पायलट अजमेर से चुनाव लड़ेंगे?

क्या प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट अजमेर लोकसभा सीट के लिए आगामी नवंबर-दिसंबर में संभावित उपचुनाव लड़ेंगे, यह सवाल यहां की राजनीतिक फिजां पर छाया हुआ है। हर आदमी के जेहन में यह सवाल कौंध रहा है, जिसे पैदा करने में मीडिया की अहम भूमिका है।
यूं सवाल स्वाभाविक भी लगता है, क्योंकि पिछले दो चुनाव वे यहां से लड़ चुके हैं, जिसमें एक बार जीते व दूसरी बार मोदी लहर के चलते नहीं जीत पाए। उनके यहां से लडऩे की चाहत उन लोगों में ज्यादा हो सकती है, जिन्हें अहसास है कि एक बार जब वे यहां से जीतने के बाद केन्द्र में अजमेर के पहले मंत्री बने तो खूब काम करवाए। इसके अतिरिक्त चूंकि उनके मुकाबले का दूसरा प्रत्याशी कांग्रेस में है नहीं, इस कारण भी उनसे लडऩे की उम्मीद की जा रही है। मगर बदले राजनीतिक समीकरणों में उनके यहां से लडऩे का सवाल पूरी तरह से बेमानी भी है। वजह ये है कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया ही इस कारण गया कि उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जाना है। उसी के तहत विधानसभा चुनाव में बुरी तरह परास्त और पस्त कांग्रेस में उन्होंने पिछले तीन साल में जान फूंकने के लिए दिन-रात एक कर रखा है। उनकी मेहनत का ही फल है कि आज कांग्रेस, भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में मानी जाती है। ऐसे में एक अदद लोकसभा सीट के चुनाव, वो भी एक डेढ़ साल के कार्यकाल के लिए होने वाले उपचुनाव में उनका लडऩा निहायत ही असंभव सा है। यह बात बिलकुल सीधी और सहज है, फिर भी मीडिया ने इसे तूल दे रखा है।
हालांकि यह सही है कि वे कांग्रेस के एक आइकन हैं, इस कारण उनकी हर गतिविधि पर सब की नजर रहती है। केन्द्र व राज्य में सत्ता पर काबिज भाजपा के लिए अजमेर सीट प्रतिष्ठा का सवाल है, इस कारण उसे इस मुद्दे पर विचार करना ही पड़ रहा है। उनको टक्कर देने के लिए भाजपा के पास कोई प्रत्याशी नहीं है। पिछली बार जाटों की बहुलता के आधार पर प्रो. सांवरलाल जाट को प्रत्याशी बनाया गया, मगर सब जानते हैं कि उनकी जीत में ज्यादा भूमिका मोदी लहर की ही रही। अब न तो मोदी लहर जैसी कोई बात है और न ही प्रो. जाट जैसा नेता भाजपा के पास है। ऐसे में उसका चिंतित होना स्वाभाविक है।
बात मीडिया की करें तो उसने इस मुद्दे को इस तरीके से उठाया कि सचिन चुनाव लडऩे पर केवल इसी कारण विचार करें कि अगर वे नहीं लड़े तो यह माना जाएगा कि हार के डर से घबरा गए, जबकि मुद्दा ये है ही नहीं। उनकी भूमिका अब एक सांसद की नहीं रह गई है। कांग्रेस की ओर से वे भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखे जा रहे हैं, तो भला वे क्यों बहुत कम समय के लिए सांसद बनना चाहेंगे, जो कि केन्द्र में पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार के रहते अजमेर को कुछ विशेष नहीं दे सकते। दैनिक भास्कर की ओर से एक कथित सर्वे का क्या परिणाम आया, ये तो सर्वे करने वाली कंपनी ही जाने, मगर उसी सर्वे की खबर को फेसबुक पर शाया किया गया तो अधिसंख्य ने यही राय जाहिर की कि वे सांसद की बजाय मुख्यमंत्री के रूप में पसंद किए जा रहे हैं। सचिन पायलट से संबंधित खबर के लिए मीडिया की आतुरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जैसे ही प्रदेश कांग्रेस सेवादल के अध्यक्ष राकेश पारीक की जुबान फिसली, अथवा नहीं फिसली, उसे तुरंत लपक कर यह खबर बना दी कि उन्होंने सचिन पायलट के अजमेर से लडऩे की घोषणा की है, जबकि एक सामान्य बुद्धि भी अंदाजा लगा सकता है कि भला पारीक कैसे घोषणा कर सकते हैं। पारीक की ओर से भी सोचें तो कैसे कोई इतना जिम्मेदार नेता इतना अहम निर्णय सुना सकता है, जबकि इसका अधिकार क्षेत्र कांग्रेस हाईकमान व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पास है। निश्चय ही उनका ये मकसद ये रहा होगा कि सचिन पायलट को अजमेर से चुनाव लडऩे का आग्रह किया जाए। हालांकि बाद में उन्होंने जब अपनी मंशा को स्पष्ट किया तो मामले का पटाक्षेप हो गया।
बात अगर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के नजरिये की करें तो उनके प्रति लगाव के चलते वे ऐसा कह सकते हैं कि उन्हें यह चुनाव लडऩा चाहिए, मगर वे भी मन ही मन जानते हैं कि उनके ऊपर पूरे प्रदेश का दायित्व है, अत: सारा ध्यान आगामी विधानसभा चुनाव पर देंगे। हां, इतना जरूर है कि उन पर यह पूरा मानसिक दबाव रहेगा कि ऐसा प्रत्याशी मैदान में उतारें जो जीत कर आए, ताकि आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और अधिक उत्साह के साथ कमर कस सके।
कुल मिला कर मोटे तौर पर यही माना जा सकता है कि वे उपचुनाव नहीं लड़ेंगे। केवल एक क्षीण सी संभावना ये है कि हाईकमान यह सोच कर  कि उनके अतिरिक्त कोई दूसरा उपयुक्त प्रत्याशी है नहीं और इस उपचुनाव को किसी भी सूरत में जीतना है, ताकि आगामी विधानसभा चुनाव में जीत का आगाज हो, तो उन्हें चुनाव लडऩे को कहे। अथवा स्वयं उन्हें लगे कि ऐसा करना उचित रहेगा, तभी उनके लडने की संभावना बनती है पर यह उनके स्वविवेक पर निर्भर करता है। कानूनी रूप से एक सांसद चुने जाने के बाद भी वे मुख्यमंत्री बनाए जा सकते हैं और छह माह में किसी भी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ कर विधायक बन सकते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 17 सितंबर 2017

बीजेपी की जाजम तैयार, मगर उतारे किसको?

अजमेर लोकसभा सीट के लिए आगामी नवंबर-दिसंबर में संभावित उपचुनाव के लिए भाजपा की संगठनात्मक जाजम तो तैयार है, मगर सबसे बड़ी समस्या ये है कि उस पर उतारे किस नेता को?ï उसे यह उपचुनाव इसलिए जीतना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस के परिणाम आगामी साल में होने वाले विधानसभा चुनाव को सीधा-सीधा प्रभावित करेंगे। एक तरह से इस चुनाव का परिणाम ठीक उसी तरह से है, जैसे चावल पका या नहीं, यह देगची में से एक चावल को निकाल कर देखा जाता है। बेशक केन्द्र व राज्य में भाजपा की सरकार होने का फायदा मिलना ही है, मगर ये चुनाव इस बात का सेंपल होगा कि राजस्थान में मोदी लहर व वसुंधरा के ग्लैमर की हालत कैसी है?
वस्तुत: संगठनात्मक लिहाज से भाजपा बहुत अधिक सक्रिय हो गई है। बूथ स्तर तक की चुनावी सेना व सैनिक कमर कस कर तैयार हैं। सत्ता है तो साधन-संसाधन की भी कोई कमी नहीं है। मगर डर सिर्फ इस बात का है कि जनता का मूड कहीं बिगड़ तो नहीं गया है? उसकी अनेक वजुआत हैं। यथा नोटबंदी व जीएसी की वजह से आई बाजार में आई घोर मंदी, महंगाई, बेराजगारी, काले धन को लेकर की गई बड़ी-बड़ी घोषणाएं इत्यादि इत्यादि। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री वसुंधरा को अपेक्षित फ्री हैंड न मिलने के कारण उनका परफोरमेंस निल है। इस बात को ठेठ गांव में बैठा भाजपा का कार्यकर्ता भी जान रहा है। मोदी व वसुंधरा के नाम पर जनता का वोट लेने वाला कार्यकर्ता के सामने जब सवाल खड़े करती है, तो उससे जवाब देते नहीं बनता।
मायूस मोदी समर्थकों के साथ ही ग्रहों का चक्र भी मोदी से कुछ यूं  नाराज सा है कि पिछले दो महीने से हर घटना सरकार के लिए अपयश लेकर आ रही है। वो चाहे गोरखपुर में बच्चों का असमय संसार छोडऩा हो या फिर एक के बाद रेल दुर्घटनाएं या बाबा राम रहीम का भाजपा के सरंक्षण में बेनकाब होना या फिर एबीवीपी की ताजा चुनावी पराजय, जिधर देखिये, हवा में एक नकारात्मक सी प्रतिक्रिया है।
ऐसे हालात में ऐसा कौन सा प्रत्याशी होगा, जो भाजपा की नैया पार लगाएगा, यह सवाल भाजपा के लिए यक्ष बन कर खड़ा है। उस पर सबसे बड़ा दबाव ये है कि जाट के अतिरिक्त किसी अन्य जाति के प्रत्याशी को उतारे जाने का विचार मात्र भयावह है। वजह स्पष्ट है। यह सीट अब जाट बहुल हो चुकी है। दूसरा ये कि प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई है। तो जाट प्रत्याशी के अतिरिक्त अन्य पर दाव खेलने पर जाट समुदाय नाराज हो सकता है। जाटों में भी प्रो. जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा का भारी दबाव है, जो लगातार गांवों में ऐसे दौरे कर रहे हैं, मानो वे ही प्रत्याशी होने वाले हैं। भाजपा समझ रही है कि लांबा का कद व पकड़ उनके पिता प्रो. जाट के मुकाबले कमजोर है। बेशक केन्द्र व राज्य सरकार की ताकत उनके साथ हो सकती है, मगर पिछली बार की तरह मोदी लहर जैसा आलम नहीं है, जिस पर सवार हो कर नैया पार लग जाए। उलटा एंटी इंन्कंबेंसी अलग सता रही है। ऐसे में लांबा पर दाव खेलने से पहले भी उसे सौ बार सोचना होगा। अगर लांबा को नसीराबाद विधानसभा सीट के लिए राजी कर भी लिया जाता है तो जाटों में सिर्फ अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी, किशनगढ़ विधायक भागीरथ चौधरी व सी बी गेना ही विकल्प बचते हैं। अगर कांग्रेस की ओर से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट आ गए, जैसा कि इन दिनों हौवा बना हुआ है, तो इनमें से कोई भी नहीं टिक पाएगा। कारण कि सचिन पायलट हाईप्रोफाइल हैं और उनके केन्द्रीय राज्यमंत्री रहते कराए गए काम जनता के जेहन में हैं। ऐसे में भाजपा स्थानीय जाट की बजाय बाहरी जाट पर विचार कर सकती है। इस रूप में सतीश पूनिया का नाम चर्चा में आया है। रहा सवाल गैर जाट का तो उस पर दाव खेलने का रिस्क भाजपा शायद नहीं ले पाएगी। कुल मिला कर भाजपा की मजबूत सेना को एक मजबूत सेनापति की दरकार है, जिसका फैसला करने से पहले वह कांग्रेस खेमे में झांक कर रही है, उधर से कौन आ रहा है?
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 16 सितंबर 2017

राजपूतों के बाद अब सिंधी भी सरकार से नाराज

कुख्यात आनंदपाल एनकाउंटर को लेकर राजपूत समाज की नाराजगी अभी थमी ही नहीं है कि अब जयपुर में हुए उपद्रव के दौरान कथित तौर पर मारे गए भरत कोडवानी के परिजन को उचित मुआवजा नहीं दिए जाने को लेकर सिंधी समुदाय भी प्रदेश की भाजपा सरकार से नाराज हो रहा है। हालांकि पुलिस का दावा है कि उसकी मौत उपद्रव के दौरान नहीं हुई, मगर पोस्टमार्टम रिपोर्ट से मौत का कारण नहीं पता लग पाने के कारण संशय बना हुआ है। सिंधी समुदाय का मानना है कि भरत की मृत्यु उपद्रव के दौरान ही हुई, इस कारण उसके परिजन को भी उतना ही मुआवजा मिलना चाहिए, जितना एक मुस्लिम युवक के परिजन को। उसमें भेदभाव को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
इस मुद्दे पर सोशल मीडिया पर जम कर आक्रोष नजर आ रहा है। ज्यादा गुस्सा इस कारण है कि उसकी मौत उपद्रव वाले दिन ही हुई, जबकि इसकी जानकारी दो दिन बाद सामने आई। इसे इस रूप में लिया जा रहा है कि यह जानबूझ कर किया गया, ताकि मामला दब जाए। गुस्से की वजह ये भी बन रही है कि पुलिस यह मानने को ही तैयार नहीं है कि उसकी मौत उपद्रव के दौरान हुई। डीसीपी सत्येन्द्र सिंह ने कहा कि भरत की मौत का रामगंज में हुए उपद्रव से कोई लेना-देना नहीं है। उसका शव उसके ही ई-रिक्शा में घटनास्थल से बहुत दूर माणक चौक के पास मिला था। दूसरी ओर एसएमएस के अधीक्षक डॉ. डी एस मीणा ने कहा कि प्रारंभिक जांच में भरत के शरीर पर चोट के निशान मिले हैं। जांच के लिए विसरा एफएसएल को भेजा है। मौत धारदार हथियार, चोट, गोली लगने या अन्य किसी कारण से होने के सवाल पर वे बोले- पुलिस कमिश्नर को रिपोर्ट भेज दी है। वे ही बताएंगे।
बहरहाल, इस मुद्दे को लेकर सिंधी समुदाय लामबंद होता जा रहा है।  बाकायदा अपीलें की जा रही हैं कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए जिला व उपखंड स्तर पर ज्ञापन दे कर विरोध दर्ज करवाया जाए। सिंधी समुदाय से भाजपा का बहिष्कार करने का आह्वान किया जा रहा है। कुछ लोग इस मसले को इस रूप में भी उठाने लगे हैं कि जो भाजपा अब तक कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है, आज वही तुष्टिकरण करते हुए हिंदू युवक के मामले में भेदभाव बरत रही है। तुष्टिकरण को इस रूप में भी पुष्ट किया जा रहा है कि जिन लोगों ने पुलिस के टकराव कर जयपुर को हिंसा में धकेल दिया, उनके ही युवक के उपद्रव के दौरान माने जाने पर सरकार उसके परिजन को मुआवजा देने को मजबूर हो रही है। स्वाभाविक रूप से यह मुद्दा राजनीतिक तो हो ही रहा है, मगर हिंदूवादी भी सरकार के रवैये को लेकर तंज कस रहे हैं। विरोध करने वालों की भाषा तो बहुत कड़वी है, जिसकी पुनरावृत्ति यहां करना उचित नहीं, मगर उसका सार यही है कि वे वसुंधरा सरकार का बोरिया बिस्तर गोल करने तक की अपील कर रहे हैं, जिससे तुष्टिकरण की उम्मीद नहीं थी।
खैर, वस्तुस्थिति जो भी हो, मगर सरकार के लिए नई मुसीबत खड़ी हो गई। जिस प्रकार सिंधी समुदाय एकजुट हो रहा है, उससे भाजपा को अपना वोट बैंक खिसकता नजर आ रहा है। विधानसभा चुनाव से सवा साल पहले  इस प्रकार किसी समुदाय विशेष का रुष्ठ होना चिंता का विषय है ही। इसका नुकसान अजमेर लोकसभा सीट के लिए आगामी नवंबर-दिसंबर में प्रस्तावित उपचुनाव में भी हो सकता है, क्योंकि विशेष रूप से इस संसदीय क्षेत्र का अजमेर शहर सिंधी बहुल है।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 13 सितंबर 2017

रावत समाज ने ठोकी ताल, भाजपा की बढ़ी मुसीबत

अजमेर जिले के रावत समाज ने आगामी नवंबर-दिसंबर में अजमेर संसदीय क्षेत्र के संभावित चुनाव के लिए ताल ठोक दी है। समाज किसी रावत को टिकट देने की मांग कर रहा है। भाजपा के लिए यह मुसीबत का सबब है। वह इस चुनौती से कैसे निपटेगी, यह आने वाला वक्त ही बताएगा।
असल में भाजपा की लगभग मजबूरी सी है कि वह किसी जाट को ही टिकट दे। एक तो इस वजह से कि यह सीट प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई है, दूसरा ये कि अजमेर संसदीय क्षेत्र अब जाट बहुल माना जाता है। हालांकि रावत मतदाताओं की संख्या भी कम नहीं है, जिनका रुझान भाजपा की ओर रहता आया है। ज्ञातव्य है कि पांच बार लोकसभा का चुनाव प्रो. रासासिंह रावत ने समाज के वोटों के दम पर ही जीता था। हर एक चुनाव को छोड़ कर पांच बार अस्सी से नब्बे प्रतिशत मतदान करने वाले रावतों और पार्टी के जनाधार वाले वोटों के योग से प्रो. रावत को जीतने में दिक्कत नहीं होती थी। केवल एक बार डॉ. प्रभा ठाकुर उन्हें हरा पाई, वो भी इसलिए कि उन्होंने भाजपा के राजपूत वोट बैंक में सेंध मारी थी। खैर, रासासिंह रावत का अवसान तब जा कर हुआ, जब परिसीमन में इस संसदीय क्षेत्र का रावत बहुल इलाका मगरा कट गया। अकेले इसी वजह से भाजपा ने प्रो. रावत को टिकट नहीं दिया गया। उनके स्थान पर भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती किरण माहेश्वरी को लाया गया और वे मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट से हार गईं। इसके बाद में हुए चुनाव में भाजपा ने प्रो. जाट पर दाव खेला और जाटों की बहुलता व विशेष रूप से मोदी लहर के कारण वह प्रयोग सफल रहा। लहर इतनी प्रचंड थी कि लोग सचिन पायलट के कराए गए कामों को ही भूल बैठे। अब जबकि प्रो. जाट का निधन हो गया है, ऐसे में भाजपा पर दबाव है कि वह किसी जाट को और विशेष रूप से प्रो. जाट के परिवार से किसी को टिकट दे। हालांकि प्रो. रावत के पांच बार सांसद बनने से रावत भाजपा मानसिकता के ही माने जाते हैं, मगर जिस प्रकार उन्होंने ताल ठोकी है, वह भाजपा के लिए चिंता का कारण है। एक ओर वह किसी गैर जाट को टिकट दे कर जाटों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहेगी, दूसरी ओर वर्षों से कायम अपने रावत वोट बैंक को भी नहीं खोना चाहेगी। ऐसा नहीं है कि रावतों का जिले में प्रतिनिधित्व नहीं है। पुष्कर के विधायक सुरेश रावत हैं। इसके अतिरिक्त संसदीय क्षेत्र से ही सटे और जिले के ब्यावर से भी शंकर सिंह रावत विधायक हैं। ऐसे में रावतों का टिकट के लिए अडऩा अटपटा है, मगर लोकतंत्र में कुछ न कुछ हासिल करने के लिए समाज अड़ते ही हैं। अब देखना ये होगा कि भाजपा रावतों के कितने दबाव में आती है।
रहा कांग्रेस का सवाल तो उसके लिए रावत एक बेहतरीन कार्ड के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। गुर्जरों, अनुसूचित जाति व मुस्लिमों के वोट तो बहुतायत में कांग्रेस को मिलने ही हैं। कांग्रेस के पास एक और कार्ड राजपूतों का भी है। वे भी भाजपा मानसिकता के माने जाते हैं, मगर कुख्यात आनंदपाल मामले के बाद भाजपा से रुष्ठ हैं। ऐसे में कांग्रेस राजपूत कार्ड भी खेल सकती है, जो कि एक बार प्रभा ठाकुर के रूप में सफल हो चुका है।  इस लिहाज से कांग्रेस सुविधानजक स्थिति में है। उसके पास बहुत विकल्प हैं। गुर्जर कार्ड के अतिरिक्त वह किसी दिग्गज जाट को भी मैदान में उतार सकती है। इस सिलसिले में राजस्थान के दिग्गज जाट नेता स्वर्गीय परसराम मदेरणा की पोती दिव्या मदेरणा का नाम चर्चा में आया है। बहरहाल, जैसे जैसे चुनाव नजदीक आएंगे कई नाम उभरेंगे व डूबेंगे। प्रत्याशियों का फैसला नामांकन पत्र भरने की तिथी से एक-दो दिन पहले ही हो पाएगा। तब तक चर्चाओं की जुगाली चलती रहेगी।
-तेजवानी गिरधर
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टंडन साहब, क्या अनादि सरस्वती जी को चुनाव लड़वा कर ही मानोगे?

लंबी चुप्पी के बाद साध्वी अनादि सरस्वती एक बार फिर चर्चा में हैं। राजनीति के पंडित एडवोकेट राजेश टंडन ने फिर उनका नाम उछाला है। वे गईं तो थीं अविनाश माहेश्वरी स्कूल में आयोजित अश्विनी कुमार जी के सुंदरकांड पाठ में शिरकत करने और टंडन साहब ने उनका फोटो फेसबुक पर यह कह कर चिपका दिया कि वे अजमेर उत्तर से भाजपा की भावी विधायक हैं। यूं फोटो तो खुद अनादि जी ने भी शाया किया है, मगर उसका मकसद महज इतना सा दिखता है, जितना आम तौर पर फेसबुकियों का अपनी दिनचर्या को सार्वजनिक करने का होता है। इसमें कुछ खास बुराई भी नहीं है, क्योंकि इस बहाने व्यक्ति अपने समर्थकों या मित्रों के बीच लाइव रहता है। मगर टंडन साहब को इसमें भी कुछ खास अर्थ दिखाई दिया। उन्हें लग रहा है कि अनादि सरस्वती इस प्रकार हर सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक कार्यक्रम में शिरकत कर अपना जनाधार बढ़ा रही हैं।
अगर ये मान भी लिया जाए कि टंडन साहब का इशारा कपोल कल्पित है या अनादि सरस्वती ने भी कभी इस दिशा में सोचा तक न हो, मगर कानाफूसियों के बाजार में चर्चा तो हो ही रही है। बहरहाल, साध्वी अनादि सरस्वती का इस रूप में चर्चित होना कदाचित शिक्षा राज्य मंत्री व अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी को तकलीफ दे रहा होगा। वो इसलिए लिए कि उनके पासंद एक भी दावेदार उन्हें नजर नहींं आता, लिहाजा चौथी बार भी पक्के तौर टिकट हासिल करने का विश्वास रखते हैं। अगर संघ की बात करें तो वह क्या सोचता है और क्या करने वाला है, किसी को भनक तक नहीं लगने देता। वह एक साथ कई प्रयोग कर रहा होता है। कुछ गुप्त तो कुछ सार्वजनिक। हो सकता है कि अनादि सरस्वती को आगे लाने का उसका विचार हो, मगर जिस प्रकार वे हेडा के साथ एकाधिक कार्यक्रमों में नजर आई हैं, उससे जरूर प्रतीत होता है कि वे उन्हें देवनानी के मुकाबले में प्रमोट करना चाहते होंगे। कहने की जरूरत नहीं कि वे गैर सिंधीवाद के नाम पर टिकट चाहते हैं। कदाचित उन्हें लगता हो कि इसमें कामयाब नहीं हो पाएंगे तो बेहतर है विकल्प के तौर पर अनादि सरस्वती को ही आगे लाया जाए, जो कि सिंधी समुदाय की हैं। यहां इस बात को ख्याल में रखना ही चाहिए कि टिकट लाने की कलाकारी देवनानी में है, वो तो एक बात है, मगर विकल्प का अभाव भी कहीं न कहीं उनकी दावेदारी को कमजोर नहीं होने देता। अगर अनादि सरस्वती इस प्रकार उभर कर आती हैं तो वह बात तो खत्म हो ही जाएगी कि देवनानी का विकल्प ही नहीं है।
अब पता नहीं खुद अनादि सरस्वती की रुचि राजनीति में है या नहीं, मगर मौका अच्छा है। अगर देवनानी टिकट लाने में कहीं कमजोर होते हैं तो चांंस बनता है। ज्ञातव्य है कि पिछली बार जब टंडन साहब ने खोज खबर ला कर दी थी कि आरएसएस उनको चुनाव लड़वाने के मूड में है। आरआरएस के एक प्रमुख कार्यक्रम के बाद वे कई बार अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिव शंकर हेडा के साथ कार्यक्रमों में नजर आईं। इससे यह संदेश गया कि या तो उन्हें प्रोजेक्ट किया जा रहा है, या फिर वे स्वयं राजनीतिक व सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर राजनीतिक जमीन तलाश रही हैं। हालांकि उन्होंने कभी इसका खंडन नहीं किया कि उनकी राजनीति में कोई रुचि नहीं है। उनकी चुप्पी को मौन स्वीकृति भी माना जा सकता है, मगर ऐसा भी हो सकता है कि उन्होंने प्रतिक्रिया जाहिर कर व्यर्थ विवाद में पडऩा उचित नहीं समझा हो। इसी प्रकार की नीति संघ की रहती है। हो सकता है कि उनका नाम इस प्रकार राजनीति में घसीटे जाने पर उनको गुस्सा भी हो, चूंकि एक साध्वी के तौर पर उनका जो सम्मान है, वह एक राजनीतिक व्यक्ति की तुलना में कई गुना अधिक है। इसे यूं समझा जा सकता है कि साध्वी के रूप में हर राजनीतिज्ञ उनके आगे नतमस्तक हो रहा है, जो कि राजनीति में आने पर कम हो जाने वाला है। मगर संभावना इसकी भी कम नहीं है कि सुर्खियों में रहने की चाह में वे भी इस प्रकार की खबरों में रस ले रही हों, जो कि एक मानव स्वभाव है। वैसे उन्हें चर्चाओं को अन्यथा नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वे तो फिर भी एक आइकन हैं, जिनकी हर गतिविधि पर नजर रहती है, हालत तो ये है कि अगर कोई सामान्य व्यक्ति भी थोड़ा सा सामाजिक कार्यों में रुचि बढ़ाता है तो यही कयास लगाया जाता है कि वह आगे चल कर राजनीति की पगडंडी पकड़ेगा।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 10 सितंबर 2017

आखिकार गौरी लंकेश पत्रकार थी

इन दिनों पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या को लेकर सोशल मीडिया पर जम कर बवाल हो रहा है। खासकर इसलिए कि जैसे ही यह तथ्य सामने आया कि वह वामपंथी विचारधारा की थी, इसी कारण दक्षिपंथियों ने उसकी हत्या कर दी तो अब दक्षिणपंथी लगे हैं यह साबित करने में कि उसकी हत्या नक्सलपंथियों ने की। बेशक, यह कोर्ट को ही तय करना है कि आखिर उसकी हत्या किसने की, मगर जिस प्रकार दक्षिणपंथी पत्रकार मामले को ट्विस्ट दे रहे हैं, तर्क के निम्नतम स्तर पर जा रहे हैं, उससे लगता है कि वे अपने मौलिक पत्रकार धर्म को छोड़ कर विचारधारा मात्र को पोषित करने में लगे हुए हैं। यह ठीक है कि वे हत्या पर दुख भी जता रहे हैं, मगर उनकी भाषा में हमदर्दी तनिक मात्र भी नजर नहीं आती। कुछ तो इंसानियत की सारी मर्यादाएं तोड़ कर इस हत्याकांड पर खुशी तक जता रहे हैं।
गौरी लंकेश आखिरकार पत्रकार थीं। उनकी कलम के बारे में कहा जा रहा है कि वह संयमित नहीं थी, तो इसका मतलब ये नहीं है कि कानून तोड़ कर कुछ लोग उसकी हत्या कर दें। किसी को अधिकार नहीं की कलम के विरोध स्वरूप गोली मार दे, यदि आपको किसी की लेखनी से नाराजगी है तो अदालत और कानून है। अगर इस प्रकार विचारधारा विशेष के लोग सजा देने का अधिकार अपने हाथ में ले लेंगे तो फिर कानून की जरूरत ही क्या है? तो फिर इस लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा? तो फिर असहिष्णुता का सवाल उठाया जाता है, वह पूरी तरह से जायज है।
चलो, इस मसले को अब जबकि पूरा राजनीतिक रंग मिल चुका है, तो इससे हट कर भी विचार कर लें। फेसबुक पर एक पत्रकार ने अपना दर्द बयान करते हुए लिखा है कि अगर किसी पत्रकार पर हमला होता है तो पत्रकार संघ इसके विरोध में मात्र ज्ञापन देने एवं आलोचना की खबर प्रकाशित करने के अलावा कुछ भी नहीं करते हैं। अति महत्वाकांक्षा के इस दौर में खबर एवं विज्ञापन के लालच में हम स्वयं ही एक दूसरे के विरोधी बन जाते हैं। प्रशासन के वो ही अधिकारी जो अन्य मामलों में पत्रकारों से सहयोग की अपील करते हुए देखे जाते हैं, वो ही ऐसे मामलों में पत्रकारों से कभी सहयोग नहीं करते। जनता भी कभी पत्रकार के फेवर में देखी नहीं गई। जब फोटो या नाम छपवाना हो तो पत्रकारजी होते हैं, वरना वो कभी भी पत्रकार के दु:ख दर्द में साथी नहीं होती। उनकी बात में दम है।
एक पत्रकार साथी ने तो और खुल कर लिखा है कि किस प्रकार पत्रकार की सेवाएं तो पूरी ली जाती हैं, मगर जब उस पर विपत्ति आती है तो उसकी सेवाओं को पूरी तरह से नकार दिया जाता है:-
लड़ाई हो तो पत्रकारों को बुलाओ
सड़क नहीं बनी पत्रकारों को बुलाओ
पानी नहीं आ रहा पत्रकारों को बुलाओ
नेतागिरी में हाईलाइट होना है तो पत्रकारों को बुलाओ
नेतागिरी चमकानी हो तो पत्रकरों को बुलाओ
पुलिस नहीं सुन रही तो पत्रकारों को बुलाओ
प्रशासन के अधिकारी नहीं सुन रहे पत्रकारों को बुलाओ
जनता की हर छोटी मोटी समस्या के लिए पत्रकार हमेशा हाजिर हो जाते हैं और अपने कर्तव्यों का निर्वहन बखूबी करते हैं, पर जब पत्रकारों पर हमला होता है, उनकी हत्या की जाती है, तब आमजन क्यों नहीं पत्रकारों का साथ देने आगे आते हैं? जरा सोचिए, पत्रकार भी आपके समाज का हिस्सा है, फिर पत्रकारों पर हमले का विरोध सिर्फ पत्रकार ही करते हैं, बाकी क्यों नहीं करते?
कुल जमा बात ये है कि किसी पत्रकार की हत्या को जायज ठहराने अथवा किसी और पर आरोप मढऩे से भी अधिक महत्वपूर्ण ये है कि गौरी लंकेश आखिरकार पत्रकार थी। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अगर छीनी जाती रहेगी तो इस देश में लोकतंत्र को बचाना मुश्किल हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर
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इतनी पोल है जिला परिषद में?

अजमेर जिला परिषद का सरकारी तंत्र कैसा काम कर रहा है, इसकी पोल तब खुली, जब एक फर्जी पत्र के आधार पर झारखंड के जिला कोडरमा के गांव चंदवारा के विनोद प्रसाद गुप्ता द्वारा राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के नाम पर गांवों में तकरीबन दो हजार परिवारों के घरों के बाहर एल्यूमिनियम की प्लेटें लगा कर हर एक से तीस-तीस रुपए वसूल लेने का मामला उजागर हुआ।
दैनिक भास्कर ने इस चौंकाने वाले मामले के हर पहलु पर प्रकाश डाला है, जिससे साफ जाहिर होता है कि गारेखधंधा करने वाले ने बड़ी चतुराई से फर्जी पत्र जिला परिषद से जारी करवा लिया। अगर वह अपने स्तर पर ही ऐसा फर्जी पत्र बना कर लोगों को चूना लगाता तो समझ आ सकता था कि इसमें जिला परिषद का कोई दोष नहीं है, मगर उसने जिस तरह उस पत्र को बाकायदा स्वच्छता मिशन शाखा के रजिस्टर से ही डिस्पैच  करवाया, वह साफ दर्शाता है कि इसमें जिला परिषद के ही किसी कर्मचारी की मिलीभगत है। अगर मिलीभगत नहीं है तो भी इतना तो तय है कि गोरखधंधा करने वाले ने परिषद में चल रही लापरवाही का फायदा उठाया है। आम तौर ये देखा गया है कि कोई पत्र एक सीट से दूसरी सीट तक पहुंचाने में कर्मचारी मुस्तैदी नहीं दिखाते, तो संबंधित व्यक्ति ही इस काम को अंजाम दे देता है। यह एक ढर्रा सा बन गया है। ऐसा प्रतीत होता कि आरोपी ने इसी पोल का फायदा उठाया है।
हालांकि अभी यह पता नहीं है कि उस फर्जी पत्र पर तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी निकया गोहाएन के हैं या नहीं, मगर संदेह तो होता ही है कि उस शातिर ने कहीं गुडफेथ का लाभ उठा कर तो हस्ताक्षर नहीं करवा लिए। जांच का एक बिंदु ये भी होगा कि कहीं मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने आरोपी को लाभ पहुंचाने के लिए नियमों से परे जा कर इस प्रकार के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। कदाचित उनके हस्ताक्षर देख कर ही डिस्पैच करने वाले बाबू ने गुडफेथ में यकीन कर लिया हो कि पत्र मुख्य कार्यकारी अधिकारी की ओर से ही जारी हुआ है। इसका अर्थ ये है कि कारगुजारी करने वाले को पता था कि जिला परिषद में कितनी पोल है, तभी तो उसने उसका फायदा उठाते हुए बाकायदा पत्र डिस्पैच करवाया।
हालांकि अभी ये पता नहीं है कि एल्यूमिनियम प्लेट की लागत कितनी है और फर्जीवाड़ा करने वाले को कितना मुनाफा हो रहा था, मगर जिस प्रकार का श्रमसाध्य काम उसने हाथ में लिया, उससे इतना तो अनुमान होता ही है कि पत्र जारी करवाने के बाद वह बेखौफ हो कर यह काम अंजाम दे रहा था। इस से संदेह होता है कि कहीं पत्र पर हस्ताक्षर असली तो नहीं। हालांकि जांच होगी तो निश्चित रूप से तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी मुकर ही जाने वाले हैं। वैसे जिला कलेक्टर गौरव गोयल का कहना है कि विकास अधिकारियों को भेजे पत्र पर मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं सदस्य सचिव जिला स्वच्छता मिशन जिला परिषद के दस्तखत सही है या नहीं इसकी भी जांच करवाई जाएगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000