रविवार, 16 दिसंबर 2012

महान सूफी संत के दर से फूटा आक्रोश


पांच साल पहले हुए समझौता एक्सप्रेस बम ब्लास्ट के आरोपी दशरथ सिंह को एनआईए और दिल्ली-नागदा पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद जो प्रतिक्रिया पूरे विश्व में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह के दर से आई, वह अजमेरवासियों के लिए चिंता का विषय है। ज्ञातव्य है कि अंजुमन सैयद जादगान के पूर्व अध्यक्ष सैयद गुलाम किबरिया चिश्ती व पूर्व सचिव सैयद सरवर चिश्ती ने दशरथ को कड़ी से कड़ी सजा दिए जाने की मांग करते हुए दरगाह शरीफ के गेट पर जोरदार प्रदर्शन किया। अगर दशरथ दोषी है तो उसे वही सजा मिलेगी, जो कि कानून के मुताबिक संबंधित न्यायालय देगा और देना भी चाहिए, मगर जिस प्रकार उसकी तुलना कसाब प्रकरण से की गई और बेहद तल्ख भाषा का इस्तेमाल किया गया, वह अजमेर के शांत माहौल के लिए कत्तई ठीक नहीं माना जा सकता।
यूं इन दोनों खादिम नेताओं की ओर से निजी तौर पर की गई प्रतिक्रिया को अंजुमन या पूरी खादिम कौम की प्रतिक्रिया नहीं माना जा सकता, मगर जिस प्रकार सार्वजनिक रूप से गरमागरम बयानबाजी हुई, उसे अगर दरगाह शरीफ के पाक और कदीमी मुकाम से जोड़ कर देखा जाए तो वह काफी गंभीर है। बेशक दरगाह शरीफ सभी धर्मावलंबियों की आस्था का केन्द्र है और उस पर अगर हमला किया जाता है तो वह सभी की आस्था पर हमला है, अकेले किसी एक जमात पर नहीं। अगर ऐसा होता तो अकेली एक ही जमात यहां सुकून पाने को आती। दरगाह में पूर्व में हुए बम विस्फोट पर सभी जमातों को उतना ही गुस्सा आया, जितना एक जमात को आया। किसी भी जमात ने उसकी तरफदारी नहीं की। अगर चंद लोग उस हमले के पीछे थे, जो कि साबित होना बाकी है, तो उन्हें पूरी कौम या संगठन से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। जनाब किबरिया साहब ने जरूर कुछ संयत भाषा का इस्तेमाल किया, मगर जनाब सरवर साहब तो भावावेश में आ गए। उन्होंने साफ तौर पर बम विस्फोट करने की मंशा रखने वाले तत्वों को चुनौती दे कर उन्हें उत्तेजित करने का ही काम किया है। उनकी भावना को समझा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है, मगर जिन शब्दों का इस्तेमाल उन्होंने किया, जिन्हें कि यहां लिखना उचित नहीं है, वे कम से कम उन जैसे जिम्मेदार शख्स को शोभा नहीं देते।
उल्लेखनीय है कि करीब एक माह पहले भी उन्होंने एक विवादास्पद बयान दिया था, जिस पर मंगलूर शहर की पांडेश्वर पुलिस ने मामला दर्ज किया। उन्होंने कहा था कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो कोई ताज्जुब नहीं कि सारे मुसलमान आतंकवादी बन जाएं। गत दो नवंबर को पॉपूलर फ्रंट ऑफ इंडिया की सार्वजनिक बैठक में दिए गए इस बयान पर वहां के नागरिक सुनील कुमार ने शिकायत दर्ज करवाई है कि यह भड़काऊ भाषण लोंगों को दंगे उकसाने प्रयास है। तब भी चिश्ती को निजी तौर पर जानने वालों को अचरज हुआ था कि एक प्रगतिशील खादिम और खादिमों में नई सोच लाने की की कोशिश करने वाला ऐसा कैसे कह सकता है। वैसे कुछ लोगों का मानना है कि वे अंजुमन पर दुबारा काबिज होने के लिए इस प्रकार की बयानबाजी कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

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अजमेर की आशा ने पाया चंडीगढ़ में सम्मान


अजमेर की आशा मनवानी को भले ही अजमेर की जनता ने न ठीक से पहचाना हो और न ही कभी कोई सम्मान दिया हो, मगर उनकी बिंदास पर्सनल्टी की महक चंडीगढ़ पहुंच गई और उन्हें वहां नीरजा भनोट अवार्ड से नवाजा गया है।
जरा अपनी स्मृति में टटोलिए। ये आशा मनवानी वही महिला हैं, जो अमूमन अजमेर में महिलाओं के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यक्रमों में नजर आती रही हैं। इकहरे बदल व नाटे कद की इस महिला को समाजसेवा के क्षेत्र में काम करने वाले लोग उन्हें भलीभांति पहचानते हैं। महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ लडऩे वाले यह लड़ाकू महिला दिखने में तो सामान्य सी लगती है, इसी कारण उनके व्यक्तित्व पर किसी ने गौर नहीं किया। मगर इस महिला की प्रतिभा को चंडीगढ़ में न केवल पहचाना गया, अपितु नवाजा भी गया।
चंडीगढ़ के यूटी गेस्ट हाउस में उनको  नीरजा भनोट अवार्ड से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह अवार्ड पूर्व थलसेना अध्यक्ष रिटायर्ड जनरल वी पी मलिक के हाथों दिलवाया गया। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर दैनिक भास्कर के सिटी लाइफ ने उनका विशेष कवरेज दिया है। आइये, देखते हैं कि उसमें क्या लिखा है:-
पत्नी को सताने वाले को थप्पड़ मारने से नहीं कतराती ये महिला
चंडीगढ़। अजमेर में लोग इन्हें लड़ाकू के नाम से जानते हैं। हो भी क्यों न। पत्नी को सताने वाले हर पति को यह थप्पड़ मारने से कभी भी नहीं कतरातीं। जरूरत पड़े तो पुलिस की तरह भी पेश आती हैं। यह हैं अजमेर की 55 वर्षीय आशा मनवानी। आशा ने सिटी लाइफ से शेयर किया लड़ाकू बनने का सफर।
किसी ने सच ही कहा कि हालात इंसान को मजबूत बना देते हैं। आशा के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह मजबूत बनीं। खुद के लिए भी और अपने जैसी दूसरी औरतों के लिए भी। इसके पीछे उनकी जिंदगी की दर्दनाक दास्तान है। आशा ने बताया कि छोटे कद के कारण उनके पति ने उन्हें शादी के बाद से कोसना शुरू किया। उन्हें अलसर की बीमारी हुई तो उन्हें इलाज के लिए माइके जाने को कहा और पीछे से दूसरी शादी कर ली। इस लाचार बेटी का साथ माइके वालों ने भी दिया। पर आशा ने हार नहीं मानी और हालातों के साथ लड़ती चली गईं। एक फैक्ट्री में काम मिला तो खुद का और बच्चों का गुजारा किया।
हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था, हमारी कश्ती वहां डूबी, जहां पानी कम था। यह कहावत बोलने के बाद आशा ने दो किस्से सुनाए, जिन्हें सुन कर किसी की आंख में भी आंसू आ जाएं। आशा ने बताया कि फैमिली कोर्ट के आदेश के बावजूद उनके व्यापारी पति ने मुआवजा नहीं दिया। फैसला हुआ भी तो मुआवजे के रूप में उन्हें महीने के मात्र 1000 रुपये मिलते थे, जो बढ़ कर अब 2200 हो गए हैं। यह राशि भी उन्हें कोर्ट के कई चक्कर लगाने के बाद मिलती हैं। अपनी 32 साल की बेटी की शादी के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं। दहेज न देना भी बेटी की शादी न होने का कारण है। इस पर आशा ने कहा कि बुजुर्गों और रीति-रिवाजों के नाम पर आज भी लड़की के पेरेंट्स से ससुराल वाले बहुत कुछ वसूलते हैं। इसलिए बेटी की शादी में पेरेंट्स को सिर्फ बेटी के नाम की एफडी, गोल्ड और प्लॉट देना चाहिए ताकि जरूरत के समय पर वह किसी की मोहताज न हों। दूसरा किस्सा सुनाते हुए आशा ने कहा कि पाई-पाई जोड़ कर जो मकान बनाया, उसकी रजिस्ट्री भी भाईयों ने धोखे से अपने नाम करा ली। मगर अवॉर्ड में मिलने वाले डेढ़ लाख रुपये पाकर वह बेहद खुश हैं।
सब कानून मालूम हैं
मनवानी छठी क्लास तक पढ़ी हैं, मगर अब सभी कानूनी कार्यवाइयों से भलीभांति अवगत हो चुकी हंै । वे असहाय महिलाओं की मदद करती हैं। महिलाओं को स्त्रीधन, कोर्ट के बाहर परिवारों को मिलाने, महिलाओं को तलाक ओर महिलाओं व उनके बच्चों को आश्रय दिलाने में मदद की है। फैमली कोर्ट अब कई मामलों में उनकी मदद लेता है। आशा महिलाओं के अधिकारों के लिए लडने वाली लक्षता महिला संस्थान की सचिव हैं।

क्या केवल पशुओं को छुड़ाने की जिम्मेदारी है?


गायों व अन्य पशुओं को कत्लखाने से जाने से रोकना बेशक महान काम है, मगर सवाल ये है कि क्या पशुओं को छुड़वा देने से ही कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है? यह सवाल इस कारण उठा है और मौजूं है कि रेलवे स्टेशन से पिछले दिनों झारखंड के लिए ले जाते छुड़ाए गए 64 बैल ऋषि उद्यान गोशाला के लिए बोझ बन गए। जीआरपी ने बैलों को मुक्त कराने के बाद ऋषि उद्यान गोशाला को सौंपा था, लेकिन गोशाला संचालकों के लिए बैलों की देखरेख और खर्च वहन करना भारी पड़ गया।
गोरक्षा दल के अध्यक्ष और ऋषि उद्यान गोशाला के संचालक यतीन्द्र शास्त्री का कहना है कि रेलवे पुलिस और जिला प्रशासन के अधिकारियों ने जब्त किए गए बैलों को यह कहते हुए दो दिन के लिए उन्हें सौंपा था कि दो दिन बाद इनकी व्यवस्था कर दी जाएगी, लेकिन पुलिस जांच अभी तक पूरी नहीं हुई है। नतीजतन बैलों को रखना उन पर भारी पड़ रहा है। बैलों पर प्रतिदिन 8 से 10 हजार रुपए का खर्च किया जा रहा है। उनका कहना है कि रेलवे पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर बैलों को जब्त किया था। इसलिए इनके रखरखाव की जिम्मेदारी भी पुलिस की है। दूसरी ओर रेलवे पुलिस का तर्क है कि बैलों को गोशाला संचालकों के सहमति से ही सुपुर्दगीनामे पर सौंपे जाने पर सुपुर्दगी लेने वाले पर ही इनकी देखरेख की जिम्मेदारी है। इसका मतलब तो ये हुआ कि शास्त्री ने चाहे इंसानियत के नाते, चाहे वाहवाही के लिए, अनजाने में बैलों की सुपुर्दगी ले ली, मगर वह उनके गले पड़ गई।

खैर, जब इसका कोई हल नहीं निकला तो गोशाला संचालकों की मांग पर जिला प्रशासन को बैलों को पीसांगन और अन्य दूसरी गोशाला में शिफ्ट करने के आदेश जारी करने पड़े। ऐसे में बैलों को अन्य गोशालाओं तक पहुंचाने के खर्च का सवाल भी खड़ा हो गया है।
पर अहम सवाल ये है कि वे लोग, जिन्होंने धर्म के नाम पर बैलों को कत्लखाने जाने से रोक कर वाहवाही ली, उन्होंने पलट कर यह भी नहीं देखा कि उन बैलों का क्या हुआ और बैल शास्त्री के गले पड़ गए। यदि ऐसा होता रहा तो भविष्य में कोई काहे को इस प्रकार सुपुर्दगी लेगा?
बेशक कानूनन इस प्रकार छुड़वाए गए पशुओं की जिम्मेदारी प्रशासन और सरकार की ही है, मगर मुद्दा ये है कि गाय-बैलों को मुक्त करवाने वाले धर्म और नैतिकता के नाते उनके चारे-पानी की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेते? जब धर्म के नाम पर अन्य कार्यों पर लाखों-करोड़ों रुपए खर्च होते हैं तो जानवरों की परवरिश क्यों नहीं की जाती?
-तेजवानी गिरधर