शुक्रवार, 25 मार्च 2011

क्या अंजुमनों का फूल मोहम्मद के खानदान को मदद करना जायज है?


महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में तकरीबन आठ सौ साल से खिदमत करने की खुशकिस्मती हासिल खादिमों की दोनों अंजुमनों ने सवाई माधोपुर के सूरवाल थाना इलाके में जला कर मारे गए थानेदार फूल मोहम्मद के खानदान को पचास हजार रुपए की माली इमदाद करने का फैसला किया है। इस फैसले की खबर पढ़ कर यकायक एक सवाल मेरे जेहन में उभर आया। हो सकता है ये सवाल चूंकि एक खास जमात को लेकर है, इस वजह से उन्हें तो उनके मामले में नाजायज दखल सा लग सकता है, मगर उस जमात का हर जमात के लोगों में एक खास दर्जा है, खास इज्जत है, खास यकीन है, इस वजह से जायज न सही, सोचने लायक तो लगता ही है। सवाल आप सुर्खी को देख कर ही चौंके होंगे। इस पर मेरे जेहन में आए कुछ ख्याल तफसील से रख रहा हूं। इसे बुरा न मानते हुए न लेकर खुले दिल और दिमाग से सोचेंगे, ऐसी मेरी गुजारिश है।
दरअसल आज के जमाने में हमारा पूरा समाज धर्म, संप्रदाय और जातिवाद बंट चुका है। हर जाति वर्ग के लोग अपने जाति वर्ग की बहबूदी के लिए काम कर रहे हैं। इसे बुरा नहीं माना जाता। मोटे तौर पर इस लिहाज से अंजुमनों का फूल मोहम्मद के खानदान वालों के लिए हमदर्दी रखना जायज ही माना जाएगा। उस पर ऐतराज की गुंजाइश नहीं लगती। वजह साफ है। फूल मोहम्मद इस्लाम को मानने वाले थे और खादिम भी इस्लाम को मानते हैं। इस लिहाज से हमदर्दी में मदद करने में कुछ भी गलत नजर नहीं आता। मगर सवाल ये है कि खादिम भले ही जाति तौर पर इस्लाम को मानने वाले हों, मगर वे उस कदीमी आस्ताने के खिदमतगार हैं, जहां से पूरी दुनिया में इत्तेहादुल मजाहिब और मजहबों में भाईचारे का पैगाम जाता है। यह उस महान सूफी दरवेश की बारगाह है, जिसमें केवल इस्लाम को मानने वालों का ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के हर मजहब और जाति के करोड़ों लोगों का अकीदा है। अगर ये कहा जाए कि इस मुकद्दस स्थान पर मुसलमानों से ज्यादा हिंदू और दीगर मजहबों के लोग सिर झुकाते हैं, गलत नहीं होगा। वे सब ख्वाजा साहब को एक मुस्लिम संत नहीं, बल्कि सूफी संत मान कर दौड़े चले आते हैं, क्योंकि उन्होंने इंसानियत का संदेश दिया, जो कि हर मजहब के मानने वाले के दिल को छूता है। और यही वजह है कि इस दरगाह की खिदमत करने वालों को भी एक खास दर्जा हासिल है। हर मजहब के लोग आस्ताने में उनका हाथ और चादर अपने सिर पर रखवाने को अपनी खुशनसीबी मानते हैं। बड़ी अकीदत के साथ उनके हाथ चूमते हैं। किसी आम मुसलमान का तो हाथ नहीं चूमते। ऐसी खास जमात के लोग जाति तौर पर भले ही इस्लाम को मानते हैं, मगर सभी मजहबों के लोगों को बराबरी का दर्जा दे कर ही जियारत करवाते हैं। ऐसे में उनकी अंजुमन का इस्लाम को मानने वाले के खानदान के लिए खास हमदर्दी कुछ अटपटी सी लगती है। खासतौर पर यह मामला तो पहले से ही मजहब परस्ती का रुख अख्तियार कर रहा है, इस कारण और भी ज्यादा होशियार रहने की जरूरत है। ख्वाजा साहब के आस्ताने से तो इसे खत्म किए जाने का पैगाम जाना चाहिए। यह भी एक सच है कि अंजुमन ने कई बार सभी मजहबों के लोगों के बीच भाईचारे के जलसे किए हैं। यहां तक कि जब कभी मुल्क में कोई कुदरती आफत आई है तो बढ़-चढ़ कर प्रधानमंत्री कोष और मुख्यमंत्री कोष में मदद की है। यही वजह है कि अंजुमन को नजराना देने वालों में हर मजहब के लोग शुमार हैं। उसी नजराने से इकट्ठा हुई रकम में से एक खास मजहब के परिवार वालों को देना कुछ अटपटा सा लगता है। इसे थोड़ा और खुलासा किए देता हूं। गर कोई मीणा संगठन किसी मीणा को इमदाद देता है तो उस पर कोई ऐतराज नहीं। कोई सिंधी संगठन किसी सिंधी की मदद करता है तो कोई ऐतराज नहीं। ऐसे ही कोई इस्लामिक संगठन किसी मुसलमान की मदद करता है तो भी कोई ऐतराज नहीं। मगर खादिम जमात उन सब से अलहदा है। ऐसा भी नहीं कि इस पचास हजार रुपए की रकम से उस खानदान को बहुत बड़ी राहत मिल जाएगी, जबकि सरकार ने पहले से ही पुलिस का फर्ज निभाते हुए शहीद होने की वजह से काफी मदद कर दी है। ऐसे में महज पचास हजार रुपए की इमदाद की खातिर अपने खास दर्जे से हटना नाजायज नहीं तो सोचने लायक तो है ही।
मेरा मकसद किसी जमात के अंदरूनी मामलात में न तो दखल करने का है और न ही किसी की हमदर्दी पर ऐतराज करने का। असल में मकसद कुछ है नहीं। बस एक ख्याल है, जिसे मैने जाहिर किया है। उम्मीद है इसे बुरा न मानते हुए थोड़ा सा गौर फरमाएंगे। मेरा ख्याल गर दिल को छूता हो तो उसे दाद बेशक न दीजिए, मगर उस पर ख्याल तो कर लीजिए। ताकि एक खास दर्जे की जमात की ओर से ऐसी मिसाल पेश न कर दी जाए, जिसे तंगदिली या तंग जेहनियत माना जाए।

वाकई मीणा बुरे फंसे सीईओ बन कर

होली के मौके पर बुरा न मानने की गुजारिश करते हुए नगर निगम सीईओ को दिया गया शीर्षक च्बुरे फंसे सीईओ बन करज् खरा होता दिखाई दे रहा है। असल में देखा जाए तो वे चारों से ओर से घिर गए हैं, इसी कारण तंग आ कर उनके मुंह से निकल ही गया कि यदि मेरा भी तबादला हुआ तो मैं भी एक घंटे से ज्यादा समय रिलीव होने में नहीं लगाऊंगा।
हालांकि जब मेयर कमल बाकोलिया उन्हें ससम्मान सीईओ बनवा कर लाए तो लगा था कि दोनों के बीच अच्छी ट्यूनिंग रहेगी और इसका फायदा दोनों को मिलेगा। राजनीति के नए खिलाड़ी बाकोलिया को सीईओ की समझदारी काम आएगी और मीणा को भी राजनीतिक संरक्षण मिलने पर काम करने में सुविधा रहेगी। मगर हुआ ठीक इसका उलटा। च्नई नवेली दुल्हन नौ दिन की, खींचतान करके तेरह दिन कीज् वाली कहावत चरितार्थ हो गई। जल्द ही दोनों के बीच ट्यूनिंग बिगड़ गई। यहां तक भी ठीक था, लेकिन शहर के सौभाग्य से अथवा मीणा के दुर्भाग्य से कुछ पार्षद भी ऐसे जागरूक चुन कर आए, जो फुल टाइम पार्षदी कर रहे हैं। ऐसे में पार्षदों व कर्मचारियों के बीच तनातनी की घटनाएं एक के बाद एक होती जा रही हैं। विवाद अमूमन अतिक्रमण हटाने को लेकर हुए हैं। कर्मचारी जहां तेज-तर्रार माने जाने वाले आरएएस मीणा के आदेश पर बेखौफ हो कर कार्यवाही करते हैं तो जनता के वोटों से चुने हुए जनप्रतिनिधियों की भी अपनी प्रतिबद्धताएं हैं। ऐसे में टकराव तो होना ही है। हालात गाली-गलौच तक पहुंचने लगी है। किसी दिन मारपीट हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। मीणा की परेशानी ये है कि वे जिला प्रशासन के कहने पर अतिक्रमण के खिलाफ सख्ती से पेश आते हैं तो एक ओर पार्षदों से खींचतान होती है और दूसरी ओर कर्मचारी अपने काम में बाधा आने की वजह से लामबंद हो जाते हैं। लगातार दो बार ऐसा मौका आ चुका है कि कर्मचारियों ने पार्षदों की सीधी दखलंदाजी के कारण काम करने में असमर्थता जता दी है। यानि एक ओर कर्मचारियों का दबाव है तो दूसरी ओर पार्षदों का। जिला प्रशासन का तो है ही। कुल मिला कर मीणा चारों ओर से घिर गए हैं। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें। मेयर से राजनीतिक संरक्षण की जो उम्मीद थी, वह बेकार गई, ऐसे में रोजमर्रा के काम की जगह माथाफोड़ी को कितने दिन तक झेल पाते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा। मगर इतना जरूर है कि मीणा ज्यादा दिन तक यहां रहना पसंद नहीं करेंगे। या तो मेयर व कांग्रेसी पार्षद उनके तबादले की गुजारिश करेंगे या फिर खुद मीणा ही हाथ खड़े कर देंगे। यह स्थिति शहर के लिए तो अच्छी नहीं कही जा सकती। जब मीणा जैसे सुलझे हुए अधिकारी की ही पार नहीं पड़ रही तो निगम का भगवान ही मालिक है। यहां उल्लेखनीय है कि जब बाकोलिया मेयर बन कर आए तो सभी ने सोचा था कि राजीव गांधी की तरह नए होने के कारण कुछ नया कर दिखाएंगे और सोने में सुहागा ये माना गया कि वे मीणा को सीईओ के रूप में ले आए। मगर वह सपना चूर होता दिखाई दे रहा है। इसकी एक अहम वजह ये भी है कि बाकोलिया के कब्जे में अपनी पार्टी के ही पार्षद नहीं आ रहे। अधिकारियों या कर्मचारियों से कोई परेशानी होने पर बाकोलिया को शिकायत करने की बजाय पार्षद खुद की मौके पर निपट लेते हैं। और विवाद बढऩे पर उनके पास शिकायत ले कर आ जाते हैं। जाहिर तौर पर कर्मचारी वर्ग भी लामबंद हो जाता है। अब बताइये, मेयर या सीईओ रोजाना के इन झगड़ों से निपटें या शहर के विकास की सोचें। ऐसे में हो लिया शहर का कल्याण।