शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

क्यों नहीं मिला ट्रोमा यूनिट के लिए स्टाफ?

फाइल फोटो- लोकार्पण करते सचिन, दुरू मियां व नसीम अख्तर
आखिर वही हुआ, जिसकी आशंका थी। जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के अधीक्षक डॉ. बृजेश माथुर को स्टाफ की कमी के बावजूद ट्रोमा यूनिट को शुरू करना पड़ा। उनके पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। हालांकि सरकार की जानकारी में है कि यहां स्टाफ की जरूरत है, मगर उसने ध्यान नहीं दिया तो लोकार्पित की हुई इस यूनिट को शुरू तो करना ही था।
असल में गत तीस जुलाई को जब इस यूनिट का शुभारंभ केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट, राज्य के चिकित्सा मंत्री दुर्रू मियां व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ ने किया था, तभी यह तथ्य मुंह नोंच रहा था कि इस यूनिट के लिए स्टाफ की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। ऐेसे में उद्घाटन को केवल एक रस्म अदायगी फोकट वाहवाही लूटने का जरिया माना गया था। तब पायलट व दुर्रु मियां ने गर्व से कहा था कि इससे जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय की सुपर स्पेशलिटी सेवाओं में वृद्धि हुई है और इसका लाभ अजमेर संभाग व राज्य के अन्य स्थानों के मरीजों व बच्चों को मिलेगा। समारोह में मौजूद जिले के अधिसंख्य जनप्रतिनिधि संसदीय सचिव ब्रह्मदेव कुमावत, विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर, नाथूराम सिनोदिया, श्रीमती अनिता भदेल, महापौर कमल बाकोलिया, नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत का यह दायित्व बनता था कि वे सरकार पर दबाव बना कर यहां स्टाफ की नियुक्ति करवाते, मगर ऐसा हुआ नहीं।
 अब मजबूरी में डॉ. बलराम बच्चानी व डॉ. घोसी मोहम्मद चौहान को लगाया गया है, जो कि क्रमश: सुबह आठ से दोपहर दो बजे तक और दोपहर दो से रात आठ बजे तक सेवाएं देंगे। रात में रेजीडेंट्स की सेवाएं ली जाएंगी। ऐसे में पर्याप्त स्टाफ के अभाव में यह यूनिट किस प्रकार काम कर पाएगी, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। स्वयं अस्पताल अधीक्षक माथुर ने खुलासा किया है कि सरकार ने जो वेतन तय किया था, उसमें कोई भी चिकित्सक ने आवेदन नहीं किया। फिलहाल तीन नर्सिंग कर्मियों को लगाया गया है, जबकि नर्सिंग कर्मियों के दस पद स्वीकृत किए गए थे।
जाहिर सी बात है कि डॉ. माथुर तो केवल सरकार को स्टाफ के लिए लिख ही सकते हैं, खुद तो नियुक्त कर नहीं सकते। साथ जो भी उपलब्ध संसाधन हैं, उसी से जैसे तैसे काम चलाने के अतिरिक्त उनके हाथ में है भी क्या? ऐसे में सरकार पर दबाव बनाने का काम तो जनप्रतिनिधियों को ही करना होगा। मगर अफसोस कि हमारे जनप्रतिनिधि या तो लापरवाह हैं या फिर सरकार उनकी बात को तवज्जो नहीं देती। कुला मिला कर यह हमारी राजनीतिक कमजोरी का ही परिणाम है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि एक ओर तो सरकार के जिम्मेदार नुमाइंदों ने इसका लोकार्पण कर अखबारों के बड़े-बड़े फोटो खिंचवा कर वाहवाही लूटी और बाद में खूंटी तान कर सो गए।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

आरपीएससी को एक धक्का और दे कर चले प्रो. शर्मा


शुक्रवार को सेवानिवृत्त हो रहे राजस्थान लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष प्रो. बी. एम. शर्मा भले ही अपने 1 जुलाई 2011 से आरंभ हुए अपने कार्यकाल को बहुत सफल मानें, मगर सच ये है कि उनके इस छोटे से कार्यकाल में आयोग की प्रतिष्ठा और गिरी ही है। हालांकि उनके खाते में 20 हजार रिकार्ड भर्तियां करवाने, उत्तर कुंजी जारी करने की व्यवस्था, आयोग अध्यक्षों का सम्मेलन की उपलब्धि दर्ज है, मगर संभवत: वे पहले अध्यक्ष हैं, जिनके कार्यकाल में  प्रश्नपत्रों पर सर्वाधिक आपत्तियां सामने आईं और महत्वपूर्ण परीक्षाओं के मामले कोर्ट गए।
ज्ञातव्य है कि प्रो. शर्मा के कार्यकाल में आरजेएस व एपीपी जेसी महत्वपूर्ण परीक्षा के मामले कोर्ट में गए, जो कि एक बहुत ही गंभीर बात है। जाहिर तौर पर इसमें आयोग की कहीं न कहीं लापरवाही रही होगी। इसके अतिरिक्त आरएएस, लेखाकार-कनिष्ठ लेखाकार, पीआरओ, एपीआरओ आदि की परीक्षाओं में प्रश्नपत्रों में अनेक आपत्तियां आईं। आरएएस प्री का भौतिकी विषय को प्रश्न पत्र तो आयोग को दोबारा ही करना पड़ गया। आरजेएस की 21 दिसम्बर 2011 को हुई परीक्षा में 26 प्रश्नपत्रों पर आपत्तियां थीं, जिनमें से 14 को तो आयोग ने भी माना।
अब जब कि वे सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं तो यह दुहाई दे रहे हैं कि भर्ती परीक्षाओं के प्रश्न पत्र तैयार करने के लिए आयोग की अपनी फैकल्टी नहीं है। इस दिशा में कुछ करने की बजाय यह कह कर वे अपना पिंड छुड़वा रहे हैं कि विभिन्न विश्वविद्यालय और महाविद्यालय समय-समय पर प्रश्न निर्माण संबंधित कार्यशालाएं आयोजित करें। इन कार्यशालाओं में अच्छे प्रश्न पत्र बनाने पर चर्चा हो, जिससे आयोग की भर्ती परीक्षाओं के बाद अभ्यर्थियों की ओर से आने वाली आपत्तियां कम होंगी। कैसी बेहूदा बात है। जब उनका अध्यक्ष रहते अपने आयोग पर ही नियंत्रण नहीं है, भला उनके इस सुझाव को कौन मानने वाला है। उससे भी बड़ी बात ये कि गलती भले ही केवल परीक्षक के स्तर पर ही हो रही है, मगर इससे प्रतिष्ठा तो आयोग की दाव पर लग रही है। अभ्यर्थी को भला किसी परीक्षक विशेष से क्या लेना-देना, वह तो आयोग को जानता है और आयोग ही जवाबदेह है। आयोग की बेशर्मी का आलम ये है कि आयोग ने जिस दिन अपने स्थापना दिवस का जश्न मनाया, उसी दिन अखबारों में आयोग ने एक प्रश्नपत्र के बारे में यह सफाई दी थी कि हम क्या करें परीक्षकों ने ही उत्तर कुंजी गलत दी थी।
बेरोजगारी मिटाने के लिए प्रो. शर्मा का एक बेतुका तर्क देखिए। वे कह रहे हैं कि अगर राज्य सरकार विभिन्न विभागों में वर्तमान में रिक्त पदों की समीक्षा करे और यथासमय आयोग को वेकेंसी उपलब्ध कराए तो राज्य की बेरोजगारी की समस्या को सुनिश्चित तरीके से सुलझाया जा सकेगा। सवाल ये उठता है कि आपकी जिम्मेदारी तो केवल सुझाई गई वेकेंसी के लिए योग्य अभ्यर्थी का चयन करने की है, कितनों को नौकरी दी जानी है अथवा सरकार के पास कितना संसाधन है, यह तो सरकार को सोचना है। आपका क्या, आप तो चयन करके अभ्यर्थी भेजते जाएंगे, मगर उनको जब तनख्वाह तो सरकार को ही देनी है।
प्रो. शर्मा ने अभ्यर्थियों के लिए एक संदेश भी दिया है कि वे सिस्टम पर विश्वास रखें, बाहर कई प्रकार की अफवाहें चलती हैं। सवाल ये है कि इस प्रकार की अफवाहें चलती क्यों हैं? जरूर आग सुलगती होगी, तभी धुआं उठता है। आयोग के अब तक के इतिहास में दलाली के कई मामले उजागर हो चुके हैं। हो सकता है हमारा आयोग और आयोगों की तुलना में कहीं बेहतर हो, मगर उसकी प्रतिष्ठा आज तक अजमेर में ही स्थित राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड जैसी नहीं बन पाई है।
कुल मिला कर विभिन्न आयोग अध्यक्षों व सदस्यों की लापरवाहियों की वजह से आयोग की प्रतिष्ठा ये हो चुकी है कि कई लोग यह सोचने लगे हैं कि आपने परीक्षा दी, पास हो गए, साक्षात्कार हुआ, पास हो गए हो और मेडिकल के बाद नौकरी भी लग गयी और फिर एक दिन अदालत का आदेश आये की परीक्षा गलत थी, नौकरी से निकालो, नयी मेरिट लिस्ट बनाओ।
-तेजवानी गिरधर

भाजपा शहर इकाई चेती, मगर जरा देर से

प्रो. रासासिंह रावत

पिछले पांच दिन से शहर की यातायात पुलिस कुछ ज्यादा ही मुस्तैद है। मुस्तैदी भी ऐसी कि वाहन चालकों के साथ बदतमीजी पर उतर आई है। सारे वाहन चालक त्रस्त हैं। बेशक कांग्रेसी इस कारण चुप हैं कि सरकार उनकी है, मगर भाजपा से पूरी उम्मीद थी कि वह कुछ बोलेगी। अब जा कर बोली है। यूं उम्मीद कांग्रेस के नेता व बार अध्यक्ष राजेश टंडन से भी थी क्योंकि वे कांग्रेसी होते हुए भी गलत बात पर प्रशासन से भिड़ जाते हैं। मगर वे चुप हैं। और वह भी तब जब कि पांच दिन पहले जब पुलिस ने नाकाबंदी के नाम पर दादागिरी की और उनके वकील समुदाय के ही अशोक तेजवानी स्थानीय टीवी चैनलों पर पुलिस के खिलाफ दहाड़ रहे थे। चेहरे पर कपड़ा बांधने वाली लड़कियों के साथ जम कर बदसलूकी की गई, मगर कोई महिला संगठन नहीं बोला। यदि कानून के मुताबिक लड़कियों का कपड़ा बांधना गलत है तो आम दिनों में पुलिस क्यों चुप खड़ी रहती है। क्या इसके लिए पुलिस ने कभी समझाइश अभियान चलाया है?
खैर, हो सकता है कि यातायात पुलिस के पास अपने तर्क हों। वे दमदार भी हो सकते हैं। जैसे नाकाबंदी भले ही किसी और मकसद से की थी, मगर यदि जांच के दौरान वाहन चालक अप टू डेट नहीं होंगे तो चालान किए ही जाएंगे। बात ठीक भी है। मगर इसी यातायात पुलिस को जगह-जगह रुकने वाले सिटी बसें वाले नजर क्यों नहीं आतीं? सिटी बसों में भेड़ बकरियों की तरह ठूंसे हुए यात्री नजर क्यों नहीं आते? ओवर लोडेड वाहन नजर क्यों नहीं आते? नो एंट्री एरिया में घुसने वाले चौपहिया वाहन नजर क्यों नहीं आते? और अफसोस कि यह सब जयसिंह जैसे संजीदा और बुद्धिजीवी अधिकारी के होते हुए हो रहा है। संभव है पुलिस ये तर्क दे कि यातायात व्यवस्थित करना उसके जिम्मे है, वह बेहतर समझती है कि क्या करना है और क्या नहीं, इसमें किसी राजनीतिक दल अथवा बुद्धिजीवी को दखल नहीं देना चाहिए, मगर सामाजिक सरोकार भी तो कोई महत्व रखता है। आप कानून का पालन करवाइये। अजमेर की जनता वैसे भी कोई अडिय़ल नहीं है। मगर यदि पुलिस के प्रति असंतोष उभर रहा है तो पुलिस के आला अफसरों को इस पर विचार तो करना ही होगा कि निचले स्तर पर सिपाही या दीवान स्तर के कर्मचारी व्यवहार कैसा कर रहे हैं।
भाजपा की यह बात बिलकुल सही है कि कि शहर के प्रमुख चौराहों पर पैदल चलने वाले यात्रियों के लिये बनाई गयी जेबरा लाइनें सड़क के दोनों ओर बड़े जंगले व दीवारें होने के कारण तकनीकी रूप से उपयोग में आने योग्य नहीं हैं व गलत बनी हुई हैं, फिर भी यातायातकर्मी इसी ताक में रहते हैं कि कोई वाहन चालक इन गलत बनी जेबरा लाइनों पर आये तो उसका तत्काल चालान बना दिया जाये। भाजपा का यह आरोप भी बिलकुल सही है कि शहर के सभी प्रमुख चौराहों पर लाखों रुपये खर्च कर यातायात की व्यवस्था व यातायात कर्मियों पर निगरानी के लिये शार्ट सर्किट कैमरे लगाये गये थे, लेकिन ये काम हीं नहीं करते। कहीं यह मिलीभगत का परिणाम तो नहीं है। कुल मिला कर पुलिस की कार्यवाही से बदमाशों में खौफ हो न हो, आम जनता में जरूर खौफ व्याप्त हो गया है। अगर यदि यह बात गलत है तो भाजपा क्यों कर इस मुद्दे पर पुलिस के आला अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया है। इस पर गौर किया ही जाना चाहिए।
भाजपा ने चेतावनी दी है कि यदि बेकसूरों के प्रति इस प्रकार की पुलिसिया कार्यवाही को रोका नहीं गया तो जनहित में आन्दोलन किया जाएगा, मगर देखने वाली बात ये होगी कि इससे आम जन को राहत मिल पाती है या नहीं।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

नागौरा जी, एक व्यक्ति एक पद का फार्मूला कहां गया?


हाल ही शहर कांग्रेस सेवादल के शहर संगठक पद से हटाए गए पार्षद विजय नागौरा सेवादल के बहुत पुराने नेता हैं। एक तरह से कहा जाए कि वे अजमेर में सेवादल की जान हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। और ही वजह है कि हाईकमान तक अपने रसूखात के दम पर सेवादल के महत्वपूर्ण पद पर फिर से काबिज हो गए हैं। अखिल भारतीय कांग्रेस सेवादल के राष्ट्रीय मुख्य संगठक महेन्द्र जोशी और सेवादल के राज्य प्रभारी रामजी लाल ने उन्हें शहर संगठक पद से हटाने के बाद दो दिन के भीतर ही प्रदेश संगठक बना दिया है।
कदाचित इस डवलमेंट से यह भ्रम हो सकता है कि नागौरा को नगर निगम में कांग्रेस पार्षद दल के नवनियुक्त नेता नरेश सत्यावना का विरोध करने की वजह से अनुशासनहीनता के चलते नहीं हटाया गया था। यह नियुक्ति की एक रूटीन प्रक्रिया थी। मगर असलियत ये है कि उन्हें हटाया तो अनुशासनहीनता के चलते ही था, हां, इतना जरूर है कि वे अपने पुराने रसूखात के दम पर फिर से नियुक्त हो कर आ गए। इसकी पुष्टि खुद नागौरा के बयान से हो जाती है। ज्ञातव्य है कि जब उन्हें हटाया गया तो उनसे उसका जवाब देते नहीं बना। इस पर उन्होंने कहा था कि उन्हें अनुशासनहीनता के कारण नहीं हटाया गया। बहाना यह बनाया कि चूंकि वे ब्लॉक कांग्रेस के भी अध्यक्ष हैं और एक व्यक्ति एक पद वाले सिद्धांत के तहत एक व्यक्ति का दो पदों पर रहना पार्टी की रीति-नीत के विरुद्ध है, इस कारण हटाया गया है। तर्क की दृष्टि से उनके बहाने में दम है, मगर अगर ऐसा ही था तो दो दिन बाद ही उन्हें सेवादल का प्रदेश संगठक कैसे बना दिया गया? क्या अब एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत समाप्त कर दिया गया है? साफ है कि हटाए जाने पर चूंकि उनके पास अपने बचाव का कोई रास्ता नहीं था, इस कारण सिद्धांत वाला तर्क दिया। मगर वे चुप नहीं बैठे और इसी सिद्धांत को ताक पर रख कर अपना रुतबा बरकरार रखने के लिए प्रदेश संगठक बन कर आ गए। असल में उन्होंने हटाए जाने वाले दिन ही इशारा कर दिया था कि उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी मिलने वाली है, मगर वह बात दम गई। अर्थात जैसे ही उन्हें हटाया गया उन्होंने अपने आकाओं के यहां दस्तक दी और आश्वासन पा लिया कि उनकी इज्जत बरकरार रखी जाएगी। और वही हुआ। अब नागौरा डंके की चोट पर फिर नियुक्ति करवा कर आ गए हैं। यानि कि अपुन का वह कयास तो गलत हो गया कि उनकी विधानसभा चुनाव में दावेदारी को झटका लगा है। इससे तो उनका दावा और मजबूत हो गया है। स्वाभाविक रूप से इससे उनके अजमेर के आका नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत की स्थिति भी मजबूत होगी।
बहरहाल, ताजा प्रकरण से एक बात यह भी साफ होती है कि सेवादल के बारे में अनुशासन वाली जो दुहाई दी जाती है, वह धरातल पर कोई अहमियत नहीं रखती। वहां भी नियुक्तियां उसी प्रकार होती हैं, जैसी कि राजनीतिक दलों में। सेवादल पर भी मातृ संगठन कांग्रेस की लचीली रीति-नीति हावी है। ऐसे में अगर सेवादल ये कल्पना करती है कि वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समकक्ष दमदार बनेगी तो वह कभी पूरी नहीं होनी है। संघ भाजपा का छाया संगठन नहीं बल्कि भाजपा को इशारों पर नचाने वाला संगठन है।
-तेजवानी गिरधर

गालरिया की डांट से कौन सा सुधर जाएगा निगम

फाइल फोटो- मौका मुआयना करते जिला कलेक्टर गालरिया

आनासागर झील में फैली गंदगी और कचरे से अटे पड़े एस्केप चैनल को देख कर जिला कलेक्टर वैभव गालरिया ने भले ही निगम के स्वास्थ्य अधिकारी प्रहलाद भार्गव को जम कर लताड़ पिला दी हो, मगर सब जानते हैं कि न तो निगम की कार्य प्रणाली में कोई सुधार होने वाला है और न ही निगम के अधिकारी सुधरने वाले हैं। यह तो ठीक है कि जिला कलेक्टर ने खुद मौके पर गंदगी व कचरा देख कर भार्गव को अजमेर से बाहर तबादला करने अल्टीमेटम दे डाला, मगर इससे पहले भी नालों की सफाई का मुद्दा खूब उठ चुका है। अगर नगर निगम के अधिकारियों का सुधरना होता तो तभी सुधर जाते।
असल में निगम के अधिकारियों को एक ढर्ऱे पर काम करने की आदत पड़ गई है। एक तो वे आश्वसन देने में माहिर हैं और दूसरा बाहनेबाजी  में भी अव्वल। देखिए, जब कलेक्टर ने पूछा कि झील के किनारे पर इतनी गंदगी कैसे है? यहां सफाई नहीं की जाती है क्या? इस पर भार्गव ने बहाना बनाया कि सफाई होती है, लेकिन लोग कचरा डाल जाते हैं। है न नायाब बहाना। उन्होंने भार्गव से पूछा कि नालों की सफाई हो गई थी, तो इतना कचरा कैसे एकत्रित हो गया, इस पर भार्गव ने कहा कि बरसात के पानी के साथ कचरा बह कर आया है। ऐसे में भला कलेक्टर पलट कर क्या कहते। उन्हें आखिर सख्त लहजे में भार्गव को फटकारते हुए कहना पड़ा कि दो दिन में नाला साफ हो जाना चाहिए, अन्यथा अजमेर से जाने के लिए अपना बोरिया बिस्तर बांध लो। हालांकि भार्गव ने कलेक्टर को आश्वासन दिया कि दो दिन में नाले की सफाई कर दी जाएगी। मगर सवाल ये उठता है कि जो कचरा पिछले दो माह से चल रहे इस मुद्दे के बाद नहीं हटा, वह आखिर दो दिन में कैसे हटा जाएगा?
आपको ख्याल होगा कि अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी ने पिछले दिनों नालों की सफाई को लेकर बाकायदा उलाहना देते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था कि मेयर साहब अब तो जागो।
सब जानते हैं कि मानसून आने से एक माह पहले से ही नालों की सफाई का रोना चालू हो गया था। नगर निगम प्रशासन न जाने किसी उधेड़बुन अथवा तकनीकी परेशानी में उलझा हुआ था कि उसने इस ओर ध्यान नहीं दिया। अगर ध्यान दिया भी तो जुबानी जमा खर्च में। धरातल पर पर स्थिति बिलकुल विपरीत थी। जब आला अधिकारियों ने निर्देश दिए तो भी निगम प्रशासन ने हां हूं और बहानेबाजी करके यही कहा कि सफाई करवा रहे हैं। जल्द पूरी हो जाएगी। बारिश से पहले पूरी हो जाएगी। जब कुछ होता नहीं दिखा तो पार्षदों के मैदान में उतरना पड़ा। श्रीगणेश भाजपा पार्षद जे के शर्मा ने किया और खुद ही अपनी टीम के साथ नाले में कूद गए। हालांकि यह प्रतीकात्मक ही था, मगर तब भी निगम प्रशासन इस बेहद जरूरी काम को ठीक से अंजाम नहीं दे पाया। परिणामस्वरूप दो और पार्षदों ने भी मोर्चा खोला। ऐसा लगने लगा मानो निगम में प्रशासन नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई। अगर ये मान भी लिया जाए कि पार्षदों ने सस्ती लोकप्रियता की खातिर किया, मगर निगम प्रशासन को जगाया तो सही। मगर वह नहीं जागा। इतना ही नहीं पूरा मीडिया भी बार बार यही चेताता रहा कि नालों की सुध लो, मगर निगम की रफ्तार नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली ही रही। यह अफसोसनाक बात है कि जो काम निगम प्रशासन का है, वह उसे जनता या जनप्रतिनिधि याद दिलवाएं। मेयर कमल बाकोलिया व सीईओ सी आर मीणा मानें न मानें, मगर वे नालों की सफाई में फिसड्डी साबित हो गए हैं। उसी का परिणाम रहा कि मानसून की पहली ठीकठाक बारिश में ही सफाई व्यवस्था की पोल खुल गई थी। निचली बस्तियों  में पानी भर गया तथा नाले-नालियों की सफाई नहीं होने से उनमें से निकले कचरे व मलबे के जगह-जगह ढ़ेर लग गये थे। इसके बाद भी निगम के अधिकारी नहीं चेते और आखिर जब जिला कलेक्टर गालरिया ने खुद हालात देखे तो उन्हें निगम के स्वास्थ्य अधिकारी भार्गव को फटकार लगानी पड़ी। सवाल अकेले भार्गव का ही नहीं है। वो तो चूंकि वे कलेक्टर के धक्के चढ़़ गए, इस कारण गुस्सा उन पर ही फूटा, मगर इसके लिए अकेले वे ही तो जिम्मेदार नहीं हैं। उनके ऊपर बैठे अधिकारी आखिर क्या कर रहे हैं?
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 26 अगस्त 2012

सेवा के भाव से कितने आते हैं दरगाह कमेटी में?


प्रो. सोहल अहमद की सदारत वाली दरगाह कमेटी का कार्यकाल पूरा होते ही एक ओर जहां नए सदस्यों के लिए भाग दौड़ तेज हो गई है, वहीं मुस्लिम एकता मंच ने कमेटी में राजनीतिक व्यक्तियों की नियुक्तियों पर रोक लगाने व स्वच्छ छवि के ईमानदार लोगों को शामिल करने की मांग कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी से करके एक नई बहस को जन्म दिया है।
हालांकि मंच के कर्ताधर्ता शेखजादा जुल्फिकार चिश्ती व मुजफ्फर भारती की मांग तार्किक दृष्टि से सही है, मगर सच्चाई यही है कि नियुक्ति राजनीतिक आधार पर ही होती है। कांग्रेस राज में कांग्रेसी विचारधारा वाले और भाजपा राज में भाजपा पृष्ठभूमि के लोगों को तरजीह दी जाती है। अलबत्ता उनकी इस मांग में दम है कि ऐसी साफ सुथरी छवि के लोगों का मनोनयन किया जाना चाहिये, जो हर नजरिये से जायरीने ख्वाजा की खिदमत का जज्बा रखते हों, मगर धरातल का सच ये ही है कि कुछ ले दे कर अथवा सिफारिश से सदस्य बनने वाले जायरीन की सेवा की बजाय कमेटी के संसाधनों का उपयोग ही ज्यादा करते हैं। विशेष रूप से दरगाह गेस्ट हाउस का अपने जान-पहचान वालों के लिए उपयोग करने के तो अनेक मामले उजागर हो चुके हैं।
यद्यपि चिश्ती व भारती कांग्रेस पृष्ठभूमि के हैं, मगर उन्होंने बेकाकी से स्वीकार किया है कि मुगलकाल से ब्रिटिश शासन और आजाद भारत के शुरुआती सालों में दरगाह का प्रबंध इस्लामिक विद्धानों, धर्म प्रमुखों, सूफीज्म से जुड़े लोगों द्वारा किया जाता रहा है, मगर 1991 में केन्द्र की कांग्रेसनीत सरकार के सामाजिक न्याय मंत्री सीताराम केसरी ने सांसद तारिक अनवर तथा सैयद शहाबुद्दीन को नियुक्त कर मुसलमानों के इस धर्म स्थल को सियासी कार्यकर्ताओं के हाथों में सौंपने की बुनियाद डाल दी। बाद में 2003 में भाजपा शासित केन्द्र सरकार ने भी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को ही शामिल किया। दुर्भाग्य से इस कमेटी का पूरा कार्यकाल विवादास्पद रहा। दरगाह के इतिहास में पहली बार कमेटी को भंग करने के लिये एक सामाजिक संस्था हम आपके ने दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की। इस पर 24 अगस्त 2007 को केन्द्रीय अल्पसंख्यक मामलात मंत्री ए. आर. अंतुले ने तत्कालीन दरगाह कमेटी को कुप्रबंधन के लिये जिम्मेदार मानते हुए भंग कर दिया। मगर किया ये कि कांग्रेस व सहयोगी दलों के ही कार्यकर्ताओं को भर दिया, जिनके खाते में दरगाह की सम्पत्तियों में कुप्रबंधन, दरगाह गेस्ट हाउस व वाहन का दुरुपयोग कर लाखों रुपए का नुकसान दर्ज हो गया। ऐसे में मंच की यह मांग जायज ही है कि कमेटी में स्वच्छ छवि के लोगों की नियुक्ति होनी चाहिए, ताकि दुनियाभर में मशहूर दरगाह के साथ भ्रष्टाचार के किस्से न जुड़ें।
हालांकि निवर्तमान कमेटी विवादास्पद रही है, फिर भी सोहेल अहमद की सदारत में कायड़ विश्राम स्थली कमेटी को सौंपे जाने, आस्ताना शरीफ में नया गेट निकालने सहित पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के 5 करोड़ 47 लाख 48 हजार 905 रुपये के नजराने में से एक करोड़ 46 लाख रुपए हासिल करने और दरगाह गेस्ट हाउस में रेलवे आरक्षण काउंटर की शुरुआत करने की उपलब्धियां कमेटी के खाते में दर्ज हैं।
प्रसंगवश बता दें कि दरगाह कमेटी भारत सरकार के अधीन एक संवैधानिक संस्था है, जिसका गठन संसद द्वारा पारित दरगाह ख्वाजा साहब अधिनियम 1955 के तहत किया जाता है। निवर्तमान कमेटी का कार्यकाल गत 24 अगस्त को समाप्त हो गया। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलात मंत्रालय नई कमेटी के लिए गजट नोटिफिकेशन जारी करेगा। जैसी कि जानकारी है राजस्थान के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल व मध्यप्रदेश आदि राज्यों के अनेक सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता, शिक्षाविद् आदि कमेटी सदस्य बनने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं। यहां तक कि निवर्तमान कमेटी के सदस्य भी दुबारा मौका हासिल करने की जुगत कर रहे हैं। अब देखना ये है कि क्या मुस्लिम एकता मंच की शिकायत पर गौर करके अच्छे लोगों को नियुक्त किया जाता है, या फिर वही ढर्ऱे के मुताबिक कमेटी के संसाधनों का दुरुपयोग करने वाले ही काबिज होते हैं।
-तेजवानी गिरधर

चेन स्नेचरों का गुस्सा निकाला आम जनता पर

पुलिस कप्तान राजेश मीणा

इन दिनों पुलिस चेन स्नेचरों से बेहद परेशान है। चेन स्नेचरों को नहीं पकड़ पाने पर हो रही फजीहत से दुखी हो कर पुलिस कप्तान के आदेश पर शनिवार को शहर में कंपोजिट नाकाबंदी की गई। मार्टिंडल ब्रिज, रोडवेज बस स्टैंड, चौपाटी, वैशाली नगर, रामगंज, इंडिया मोटर सर्किल सहित अन्य क्षेत्रों में शहर की पूरी पुलिस को सीओ स्तर के अधिकारियों के नेतृत्व में सर्किल के सभी थाना प्रभारियों को तैनात किया गया। उससे भी बड़ी नाकामी ये रही कि इस पूरी कवायद के बाद एक भी चेन स्नेचर नहीं पकड़ा गया,  जो कि पकड़ा भी नहीं जाना था। भला चेन स्नेचर इतने बेवकूफ थोड़े ही हैं कि ऐसी नाकाबंदी में शहर से गुजरेंगे। और वैसे भी इस नाकाबंदी से कौन सा पता लगना था कि कौन चेन स्नेचर है। मगर पुलिस कप्तान का अदेश था, सो उसकी पालना करनी ही थी।
पुलिस की इस कवायद से चेन स्नेचरों में खौफ हुआ हो न हुआ हो, आम जनता में जरूर हो गया। जिस पुलिस से आम आदमी को सुरक्षा का अहसास होना चाहिए, उसी से भय का वातावरण बनाया गया। पुलिस ने बाकायदा अपने प्रसिद्ध पुलिसिया तरीके से वाहनों को रोका और वाहन चालकों के साथ जम कर बदतमीजी की। मानो चेन स्नेचरों का गुस्सा आम लोगों पर निकाल रहे हों। विशेष रूप से उन युवतियों के साथ पुलिस जवानों के साथ नई नई भर्ती हुई लड़कियों ने सबसे ज्यादा घटिया रवैया अपनाया। वे इतनी अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे, मानों इन्हीं युवतियों में उन्हें कोई चेन स्नेचर नजर आ गया हो। जाहिर है पुलिस के इस रवैये से आम लोगों में रोष होना ही था। कई जगह झड़पें भी हुई। लोगों का आरोप था कि पुलिस का वाहनों को रोकने का तरीका गलत था। कई लोग हादसे का शिकार होने से बचे। भले ही पुलिस यह कह कर जिन लोगों के कागजात पूरे नहीं थे, उनके चालान किए गए, बचने की कोशिश करे, मगर सवाल ये उठता है कि यह चेन स्नेचरों को पकडऩे का अभियान था या यातायात पुलिस का यातायात सप्ताह? अफसोस की पुलिस की इस आतंक फैलाने वाली कार्यवाही की किसी भी जनप्रतिनिधि ने खिलाफत नहीं की। अलबत्ता कांग्रेस पार्षद मुबारक अली चीता ने जरूर विरोध किया, मगर वह जायज इस कारण नहीं माना गया क्योंकि वे अपने किसी परिचित का वाहन पकडऩे की वजह से अटक रहे थे। उनके खिलाफ बाकायदा रपट भी डाली गई।
लब्बोलुआब, पुलिस की इस कार्यवाही का नतीजा ये निकला कि उसे सौ से अधिक चालान करने की कमाई हुई और पचास वाहन सीज किए गए। और एक अहम सवाल, क्या दिन ब दिन गिरती पुलिस की छवि को सुधारने के लिए आए दिन होने वाली पुलिस सेमिनार का पुलिस अधिकारियों पर ही कोई असर नहीं होता? ऐसा करके पुलिस कप्तान ने अपने मातहतों को क्या संदेश देने की कोशिश की?
-तेजवानी गिरधर

नागौरा की विधानसभा टिकट की दावेदारी को झटका


कहते हैं अति सर्वत्र वर्जयते। मगर हमेशा आक्रामक रुख रखने वाले कांग्रेस पार्षद विजय नागौरा को शायद इस सूत्र का कभी ख्याल नहीं रहा।  ऐसे में उन पर अति भारी पड़ गई है। निगम मेयर कमल बाकोलिया के खिलाफ सदैव विरोधी रुख रखने वाले नागौरा ने जब नगर निगम में प्रतिपक्ष के नेता पद पर नरेश सत्यावना की नियुक्ति को भी खुली चुनौती दी तो पार्टी ने इसे गंभीर माना। विशेष रूप से सेवादल जैसे अनुशासित अग्रिम संगठन में मुख्य संगठक का दायित्व निभाने वाला शख्स यदि इस प्रकार खुल कर हाईकमान के निर्णय का विरोध करता है तो उसे गंभीर माना ही जाना था। नतीजतन सेवा दल के राजस्थान प्रभारी रामजीलाल ने उनकी इस पद से छुट्टी कर दी गई। उनके स्थान पर सेवादल में उन जितने ही सीनियर शैलेन्द्र अग्रवाल को नियुक्त कर दिया गया है।
हालांकि यूं तो नागौरा केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट गुट के न्यास सदर नरेन शहाणी भगत के खास सिपहसालार हैं, मगर चूंकि सत्यावना की नियुक्ति पायलट की सहमति से ही हुई थी, इस कारण वहीं से इशारा किया गया बताया कि नागौरा के पर कतर डालो। पार्टी नेता भले ही नागौरा को हटाने का कारण यह मानने से इंकार करें, मगर अचानक संगठन में फेरबदल की वजह एक मात्र सत्यावना की खिलाफत मानी जा रही है।
नागौरा को यह झटका सिंगल नहीं है। इसे डबल माना जा रहा है। वे अपने आका भगत के न्यास सदर बनने के बाद अजमेर दक्षिण में ज्यादा से ज्यादा काम करवा कर आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट की दावेदारी करने की तैयारी कर रहे थे। उनकी इस इच्छा को भी झटका लग गया है। भगत के प्रयासों से ही नागौरा इस सेवादल संगठक के पद पर काबिज थे। अब जब कि उन्होंने यह पद खो दिया है, यह खबर भगत की राजनीतिक सेहत के लिए भी अच्छी नहीं मानी जाएगी। वे आगामी विधानसभा चुनाव में भगत को टिकट मिलने पर सेवादल टीम का भरपूर इस्तेमाल करते, मगर अब उसकी संभावना खत्म हो गई। हालांकि किसी जमाने नए संगठक शैलन्द्र अग्रवाल भी भगत खेमे के ही खास सिपहसालार रहे हैं, मगर पिछले विधानसभा चुनाव के बाद अब उनके भगत से पहले जैसे संबंध नहीं हैं।
जहां तक पायटल की सहमति से सत्यावना की नियुक्ति पर विरोध का सवाल है, उस पर सर्वाधिक मुखर नौरत गुर्जर के इस दावे पर चौंकना स्वाभाविक है कि सभी गुर्जर पार्षद जिया देवी, सुरेश भडाणा, ललित गुर्जर भी उनके साथ हैं। सवाल उठता है कि क्या गुर्जर पार्षद भी गुर्जर समाज के प्रमुख नेता पायलट के विरोधी हो गए हैं?
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

अनिता भदेल ने दिया भगत को एक और झटका


अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल के खाते में एक और उपलब्धि दर्ज हो गई है। उन्होंने भगवान गंज स्थित जिस 2421 वर्ग गज जमीन के मामले को उठाया था, उसका नियमन यूआईटी ने निरस्त कर दिया है। और इस प्रकार एक ओर जहां करोड़ों रुपए की जमीन भूमाफियाओं के हाथों जाने से बच गई, वहीं यूआईटी अधिकारियों की मिलीभगत से भूमाफियाओं के साथ की जा रही बंदरबांट का भी खुलासा हो गया है। इतना ही नहीं अनिता के हाथों यूआईटी सदर नरेन शहाणी भगत को एक और झटका लग गया है।
मामला ये था कि जयपुर के रामनगर, सोडाला निवासी मीरा छतवानी ने भगवान गंज स्थित खसरा संख्या 5237 की 2421 वर्ग जमीन का नियमन करने के लिए आवेदन किया था। यूआईटी ने 18 जुलाई को आवेदन मंजूर कर नियमन आदेश जारी कर दिए। यहां तक कि नियमन राशि जमा कर पट्टा भी जारी कर दिया गया और सब रजिस्ट्रार के यहां से रजिस्टर्ड हो गया। इस पर विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने इस नियमन में भारी अनियमितता बताते हुए यूआईटी पर भू माफियाओं को उपकृत करने का आरोप लगाया। भदेल का आरोप था कि जमीन की बाजार कीमत 50 करोड़ रुपए है और यूआईटी ने कौडिय़ों में बेशकीमती जमीन का नियमन कर भू-माफियाओं को मालामाल कर दिया। भदेल का यह भी कहना था कि मीरा छतवानी के नाम नियमन किया गया है लेकिन इस जमीन से शहर के भू-माफिया सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। ज्ञातव्य है इस मसले को लेकर यूआईटी सदर नरेन शहाणी के बीच नोंकझोंक भी हुई। जब अनिता भदेल अचानक यूआईटी धमक गई और मामले के दस्तावेज दिखाने को कहा तो भगत दिखवा नहीं पाए क्योंकि संबंधित बाबू मौजूद नहीं था। हालांकि भगत ने विधायक अनिता भदेल द्वारा लगाए गए आरोपों को गलत बताते हुए कहा था कि भदेल की आपत्ति को देखते हुए मामले की जांच कर रिपोर्ट करने के आदेश दे दिए।  इस मामले में अनिता भदेल का आरोप था कि यूआईटी अध्यक्ष भगत और सचिव श्रीमती पुष्पा सत्यानी ने उनके द्वारा इस मामले की जानकारी चाहने पर नियमन की पत्रावली का अवलोकन नहीं करवाया। जबकि सरकार के निर्देश है कि जनप्रतिनिधि मिलने आए तो उन्हें वांछित जानकारी एवं दस्तावेज उपलब्ध कराने के साथ पूरा सम्मान दिया जाए।
इसी सिलसिले में भगत के  आदेश पर यूआईटी ने मौके की स्थिति का आकलन करते हुए मीरा छतवानी को 17 अगस्त को नोटिस जारी कर दिया। नोटिस में कहा गया कि उनके नियमन के संबंध में प्राप्त शिकायतों पर जांच की गई है। छतवानी का मौके पर मात्र 106.25 वर्ग गज जमीन पर ही कब्जा है। यूआईटी ने छतवानी से स्पष्टीकरण चाहा था कि क्यों नहीं उनका नियमन खारिज कर दिया जाए। यूआईटी प्रशासन को स्पष्टीकरण नहीं मिलने पर नियमन निरस्त कर दिया गया। इस बारे में खुद न्यास सचिव श्रीमती पुष्पा सत्यानी का कहना है कि जांच में पाया गया था कि मीरा छतवानी का पूरी जमीन पर कब्जा नहीं है, इस कारण नियमन निरस्त कर दिया गया है।
कुल मिला कर श्रीमती भदेल के खाते में एक और उपलब्धि दर्ज हो गई कि उन्होंने करोड़ों की जमीन भूमाफियाओं के हाथों से बचवा ली। साथ ही इस मामले में भगत को मुंह की खानी पड़ी है कि वे किस आधार पर आरोप को झूठा बता रहे थे। हालांकि तुरंत जांच के आदेश देने से यह तो स्पष्ट हो गया है कि भगत की इस मामले में सीधी संलिप्तता तो नहीं रही होगी, मगर उनकी छत्रछाया में कैसा भ्रष्टाचार पनप रहा है, इसका तो खुलासा हो ही गया है। प्रकरण से यह भी स्पष्ट हो गया है कि न्यास में गजब की धांधली मची हुई है और भगत की ढि़लाई के चलते अधिकारी लूटने में लगे हुए हैं। अपुन ने भगत के कार्यभार संभालते ही सचेत किया था कि अगर उन्होंने सावधानी नहीं बरती तो लपेटे में आ जाएंगे। इस प्रकरण के साथ ही पुष्पा सत्यानी संदेह के घेरे में आ गई हैं और आशंका है कि वे भगत के कार्यकाल का सत्यानाश न कर दें।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

आनासागर पर अब माथापच्ची, पहले मूकदर्शक क्यों बने बैठे थे?


ऐतिहासिक झील आनासागर की भराव क्षमता को लेकर अब माथापच्ची हो रही है, प्रशासन भी पशोपेश में है, मगर तब सब मूकदर्शक बने बैठे थे, जब प्रभावशाली लोग भराव क्षेत्र में नियमों की अवहेलना कर धड़ाधड़ मकान खड़े करते जा रहे थे। जिन अफसरों पर इस पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी थी, वे भी जेबें भरने में लगे रहे। कैसी विडंबना है?
असल में यह बहस इस कारण शुरू हुई है कि इस बार बरसात के पानी की आवक होने से झील का गेज वर्तमान में 11 फीट पार करने को है। विश्राम स्थली के करीब 25 फीसदी हिस्से में पानी भर चुका है। पानी का फैलाव आनासागर सरक्यूलर रोड के किनारे छूने लगा है। रीजनल कॉलेज व एमपीएस स्कूल की ओर पानी सड़क के नजदीक पहुंच चुका है। झील के पेटे में आवासन मंडल तथा यूआईटी द्वारा बसाए गए आवासों में पानी का रिसाव शुरू हो चुका है। आबादी इलाकों में आए इस पानी को वापस झील में डालने के लिए पंप सेट लगाने पड़े हैं। झील अपनी कुल भराव क्षमता 13 फीट तक पहुंची तो विश्राम स्थली के अधिकांश हिस्से में पानी भर जाएगा। अरिहंत कॉलोनी और महावीर कॉलोनी के ड्रेनेज और सीवर सिस्टम से पानी घर के अंदर तक जा पहुंचेगा। वैशाली नगर, सागर विहार, मूक बधिर विद्यालय, जनता कालोनी, रीजनल कॉलेज परिसर, एमपीएस स्कूल परिसर, सरक्यूलर रोड, क्रिश्चनगंज, आनंद नगर, बीएसएनएल कॉलोनी तक पानी का भराव हो सकता है। काजी का नाला, आंतेड़ नाला, चौरसियावास नाला समेत बाडी नदी में भी पानी का भराव हो जाएगा। ऐसे में सवाल ये उठ खड़ा हुआ है कि खतरे की जद में आए इन मकानों को नजरअंदाज कर पानी पूरा भरने दिया जाए या फिर 12 फीट होते-होते चेनल गेट खोल कर पानी बहने दिया जाए।
बेशक आनासागर झील हमारी ऐतिहासिक और सुरम्य धरोहर है। उसकी संरक्षा लाजिमी है। आज जब प्रकृति की कृपा से इसमें पानी आ गया है तो यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि कितनी भराव क्षमता तक पानी भरने दिया जाए और कब चेनल गेट खोल कर पानी निकाला जाए। कुछ लोग कह रहे हैं कि झील को पूरी क्षमता तक भरा जाना चाहिए, इसमें किसी प्रकार का किंतु परंतु होना ही नहीं चाहिए। यह झील के सौंदर्य का सवाल है।  चाहे डूब में आने वाले मकानों के बचाव के दूसरे उपाय किए जाएं। कोई कह रहा है कि देश की सबसे बेहतरीन झील में पानी का भराव इसलिए नहीं रोका जाए कि कुछ लोगों को खतरा हो सकता है। कुछ लोगों की परेशानी ज्यादा मायने नहीं रखती है।
जाहिर है ऐसे में प्रशासन पशोपेश में है कि आखिर क्या करे। उसके सामने दो प्रस्ताव हैं। झील को  पूरे 13 फीट गेज तक भरने दिया जाए या झील का गेज 12 फीट से अधिक नहीं होने दिया जाए। एक फीट का मार्जिन रखा जाए। इससे अधिक पानी को चैनल गेट के माध्यम से एस्केप चैनल में डाल दिया जाए। समझा जाता है कि प्रशासन भी 12 फीट लेवल तक तो किसी प्रकार की छेड़छाड़ करने के पक्ष में नहीं है, लेकिन इसके बाद कलेक्टर की सदारत में गठित कमेटी के निर्णय पर तय होगा कि पानी का लेवल कहां तक रखा जाए। उपाय ये किया जाएगा कि चेनल गेट को धीरे-धीरे खोला जाएगा, क्योंकि पानी की निकासी होती है तो पाल बीछला व आगे के आबादी इलाकों में पानी का दबाव बढ़ जाएगा।
अव्वल तो सच ये है कि सन् 1975 की बाढ़ से पहले झील की भराव क्षमता 16 फीट थी। वह आज 13 फीट ही रह गई है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? आंख मीच कर अवैध मकान बनाने वाले? मकान बनते देख आंख मीच कर बैठे जिम्मेदार अफसर? मकान बनने के बाद उन्हें नियमित करने की पैरवी करने वाले राजनीतिज्ञ? या फिर वोटों की खातिर अवैध को वैध करने का रास्ता निकालने वाली सरकार? असल में ये सभी जिम्मेदार हैं। न लोगों को नियमों की परवाह है और न ही सरकार में सख्ती जैसी कोई बात। हर निर्णय के पीछे राजनीति आ जाती है। विशेष रूप से अजमेर में न तो कभी सशक्त राजनीतिक नेतृत्व रहा और न ही अफसर मुस्तैद। अधिकतर राजनेता शहर की कम अपनी ज्यादा सोचते हैं और अफसर तो अमूमन इस जमीन को चरागाह ही समझते हैं। और इसी कारण ऐसी स्थितियां उत्पन्न होती हैं, जिन पर बाद में सियापा करने के सिवाय कोई चारा नहीं बच जाता।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 22 अगस्त 2012

प्रदेश अध्यक्ष ने बढ़ा दी कांग्रेस पार्षदों में फूट

 डॉ. चंद्रभान

हाल ही नगर निगम में नेता प्रतिपक्ष के पद को लेकर कांग्रेस पार्षद दल एक बार फिर दो फाड़ दिखाई दिया। असल में कांग्रेस पार्षद दल शुरू से ही दो फाड़ है। एक धड़ा मेयर कमल बाकोलिया के साथ रहता है तो दूसरा हर वक्त फच्चर डालता रहता है। इस कारण आए दिन मेयर व कांग्रेस की किरकिरी होती रहती है, जिस पर न तो कभी मेयर ने ध्यान दिया और न ही संगठन ने। अब तो बाकायदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. चंद्रभान ने ही नरेश सत्यावना को पार्षद दल का नेता बना कर इस दो फाड़ पर ठप्पा लगा दिया है।
असल में लगता ये है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को यहां के हालत की पूरी जानकारी दी ही नहीं गई। कम से कम यह तो खुलासा किया ही नहीं गया कि यदि सत्यावना को नेता बनाया तो दूसरा दल गैर अनुसूचित जाति के व्यक्ति को नेता बनाने के मुद्दे पर बिफर जाएगा। कदाचित कांगे्रस के स्थानीय मैनेजरों को भी इसका अंदाजा नहीं हो। उन्होंने सोचा कि जैसे ही हाईकमान से सत्यावना की नियुक्ति की घोषणा होगी, सभी नतमस्तक हो कर उसे मान लेंगे। मगर हुआ उलटा। जैसे ही सत्यावना का नाम घोषित हुआ, वरिष्ठ कांग्रेस पार्षद मोहनलाल शर्मा उर्फ मोहन नेता के साथ लामबंद हो गए। उनका खुला आरोप है कि कांग्रेसजन की रायशुमारी के बिना पार्टी ने नेता प्रतिपक्ष घोषित कर दिया है। सत्यावना के विरोध में लामबंद हुए पार्षद एकत्रित भी बाकोलिया के धुर विरोधी पार्षद नौरत गुर्जर के निवास स्थान पर हुए, जिससे स्पष्ट है सत्यावना की नियुक्ति में बाकोलिया का ही हाथ है। विरोधी गुट में मोहन नेता सहित विजय नागौरा, मुबारक अली चीता, ललित गुर्जर शामिल हैं।
नेता बनने पर इस प्रकार स्वागत हुए नरेश सत्यावना का
यहां उल्लेखनीय है कि विरोधी गुट का आरोप है कि बिना रायशुमारी के सत्यावना की नियुक्ति की गई है, जबकि संगठन का तर्क है कि अजमेर के प्रभारी सलीम भाटी पिछले दिनों रायशुमारी करके गए है। रायशुमारी में नरेश सत्यावना, विजय नागौरा, मोहन लाल शर्मा, नौरत गुर्जर, आशा तुनवाल, सोनल मौर्य तथा शाहिदा परवीन के नाम आए थे। उन्होंने ही सत्यावना का नाम सुझा दिया, जिसे कि प्रदेश अध्यक्ष डॉ. चंद्रभान ने घोषित कर दिया। जहां तक विरोध के पीछे तर्क का सवाल है, वह काफी ठोस है। जब पहले से ही मेयर अनुसूचित जाति आरक्षित वर्ग से है तो पार्षद दल का नेता सामान्य या अन्य पिछड़ा वर्ग से होना चाहिए था। इस तर्क को प्रदेश अध्यक्ष कितना तवज्जो देते हैं, पता नहीं, मगर प्रदेश अध्यक्ष की लापरवाही से ही कांग्रेस पार्षदों के बीच की खाई और बढ़ गई है, जिसे कि पाटना कठिन होगा। जाहिर सी बात है कि ऐसे में बाकोलिया को सामान्य कामकाम में भाजपा पार्षदों की मिजाजपुर्सी करनी होगी, जो कि उन पर पहले से ही करने के आरोप लगते रहे हैं। वैसे विरोधी दल के पार्षदों को खुश करके रखने की परंपरा बाकोलिया के दोस्त भूतपूर्व नगर परिषद सभापति स्वर्गीय वीर कुमार के जमाने से ही चली आ रही है। बाकोलिया भी उसी परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। कदाचित इसी वजह से भाजपा पार्षद दल की धार उसकी ताकत के मुताबिक तेज नहीं है। पिछले दिनों कार्यकाल के दो साल पूरे होने पर जब बाकोलिया ने उपलब्धियां गिनाई तो विरोध में भाजपा की ओर से आयोजित सद्बुद्धि यज्ञ फौरी विरोध बन कर रह गया। विरोध होने पर बाकोलिया की पेशानी पर एक भी सलवट न पडऩा इसका प्रमाण है। उन्होंने यज्ञ को बड़े ही हल्के फुल्के अंदाज में लिया। और कोई निगम होता तो बाकोलिया का जीना हराम हो जाता।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

लाइलाज है बांग्लादेशियों की घुसपैठ?

असम में हुई हिंसा और उसके बाद देश के कई भागों से असमियों के पलायन के साथ ही बांग्लोदेशियों की घुसपैठ की समस्या का मुद्दा फिर ज्वलंत हो उठा है। भाजपा ने तो बाकायदा इस मुद्दे पर अभियान तक छेड़ दिया है। ऐसे में एक बार फिर यह बहस छिड़ गई है कि आखिर इस घुसपैठ का अंत कब होगा?
हालांकि यहां अवैध रूप से आए बांग्लादेशी यदा-कदा गिरफ्तार होते रहे हैं और पिछले पांच साल में ही तकरीबन ढ़ाई सौ पकड़े जा चुके है, मगर आज तक न तो इनकी आवाजाही बंद हुई है। और जो वर्षों पहले यहां आ कर बस गए, वे तो लाइलाज हैं ही। अब तो हालत ये हो गई है कि जब भी कोई बांग्लादेशी घुसपैठिया पकड़ा जाता है तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होता। अखबारों में भी इस खबर को उतना ही स्थान मिलता है, जितना किसी छोटी-मोटी दुर्घटना को।
असल में बांग्लादेशी दरगाह जियारत के बहाने यहां आते हंै और यहीं बसने की फिराक में रहते हैं। दरगाह जियारत के सिलसिले में देशभर के लोगों की रोजाना की आवाजाही और दरगाह इलाके की बसावट का फायदा उठा कर वे यहां आसानी से घुल-मिल जाते हैं। हालांकि अधिसंख्य मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट पालते हैं, मगर कई आपराधिक गतिविधियों में लिप्त पाए गए हैं। बांग्लादेशी घुसपैठिये नकली नोटों के साथ भी पकड़े जा चुके हैं। सूत्र बताते हैं कि वे मादक पदार्थों के ट्रांजिट सेंटर बन चुके अजमेर में तस्करों के संपर्क में आते हैं और उनके लिए संदेश वाहक का काम करते हैं। दरगाह इलाके में अंडरवल्र्ड की गतिविधियां भी जारी हैं और शातिर अपराधी यहां फरारी काटने चले आते हैं।
देश के किसी और इलाके में घूमने का वीजा बनवा कर अचानक दरगाह जियारत के बहाने अजमेर आने वालों की तो लंबी फेहरिश्त है, लेकिन आज तक पता नहीं लगा कि आखिर ऐसा संभव कैसे हो गया? सीमा पर भी इतनी लापरवाही बरती जाती है कि ऐसे लोगों को खदेडऩे के बाद वे फिर वे आ जाते हैं। कानून की स्थिति ये है कि देश निकाला देने और आइंदा भारत न आने देने के लिए पाबंद करने के अलावा उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो पाती। साफ जाहिर है कि पाकिस्तान व बांग्लादेश से आने वाले लोगों को पता है कि उन्हें भविष्य में भारत न आने देने के लिए सिर्फ पाबंद भर किया जाएगा। इसी कारण भारतीय कानून के प्रति वे कितने पूरी तरह से लापरवाह हैं। पिछले तीस साल में बांग्लादेशियों की पहचान कर इन्हें खदेडऩे की कार्यवाही पर अनेक बार विचार किया गया, गिरफ्तारियां भी हुईं, लेकिन आज तक उस पर ठीक से अमल नहीं किया गया। प्रशासन और पुलिस की लापरवाही किस हद को पार कर गई है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अधिकतर बांग्लादेशियों ने राशनकार्ड बनवा लिए हैं। उन्होंने अपने मकानों की रजिस्ट्रियां तक करवा ली हैं। कई ने यहीं शादी कर ली और उनके बच्चे भी हैं। यहां तक कि राजनीति में भी सक्रिय हो गए हैं।
जब भी कोई आतंकी वारदात होती है तो पूरा प्रशासनिक तंत्र वर्षों से यहां जमे बांग्लादेशी घुसपैठियों की धरपकड़ करने में लग जाता है। तब बड़ा हल्ला होता है कि बांग्लादेशियों को खदेड़ा जाना चाहिए। प्रशासन तो सक्रिय होता ही है, हिंदूवादी संगठन भी सिर पर आसमान उठा लेते हैं। कुछ दिन मीडिया भी बारीक से बारीक बातों को उजागर करता है, मगर आखिर होता वही है, ढ़ाक के तीन पात। वजह स्पष्ट है यह समस्या जितनी प्रशासनिक नहीं, उससे कहीं अधिक राजनीतिक है। एक मात्र यही वजह है जिस कारण आज तक बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या से निजात नहीं मिल पाई है।  इसका एक उदाहरण देखिए। जब एक संदिग्ध बांग्लादेशी घुसपैठिया यूसुफ पकड़ा गया तो पता लगा कि उसकी बीवी श्रीमती जीनत बानो कांग्रेस में सक्रिय है। वह भी शहर महिला कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर। हालांकि शहर महिला कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सुरजीत कपूर ने पल्ला झाड़ते हुए साफ कर दिया कि उसे अनैतिक गतिविधियों के कारण डेढ़ माह पहले ही पार्टी से निकाला जा चुका है। हो सकता है उनका दावा सही हो, लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या किसी को पार्टी में शामिल करते वक्त और कोई महत्वपूर्ण पद देते समय इस बात का ध्यान रखा ही नहीं जाता कि उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि या चरित्र कैसा है? एक बांग्लादेशी घुसपैठिये की बीवी पार्टी में घुसपैठ कर जाए और संगठन चलाने वालों को हवा तक न लगे, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा? बांग्लादेशी घुसपैठियों के राजनीतिक संबंधों का यह अकेला मामला नहीं है। कुछ साल पहले जब शहर युवक कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सैयद गुलाम मुस्तफा ने गरीबों के राशन कार्ड बनवाने का अभियान चलाया था, तब भी यह उजागर हुआ था कि कुछ बांग्लादेशी घुसपैठियों ने अभियान का लाभ उठाने की कोशिश की है। ऐसे में संगठन को अपना दामन बचाने के लिए अभियान को समेटना पड़ा था। इन दो घटनाओं से स्पष्ट है कि बांग्लादेशी घुसपैठिये पनप ही इस कारण रहे हैं कि उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिल जाता है। और यह भी साफ है कि जब तक इस प्रकार के संरक्षण को खत्म नहीं किया जाता, घुसपैठ की समस्या से निजात नहीं मिल पाएगी।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 19 अगस्त 2012

दो साल तो परिपक्व होने में ही लग गए कमल बाकोलिया को

अजमेर नगर निगम के मेयर कमल बाकोलिया के कार्यकाल के दो साल पूरे हो गए। दो साल में उपलब्धि के नाम पर कुछ खास दर्ज नहीं करवा पाए। हां, एक उपलब्धि जरूर गिनी जा रही है। उनकी बॉडी लैंग्वेज और आत्मविश्वास के साथ की गई घोषणाओं को आधार मान कर मीडिया वाले अब यह मानने लगे हैं कि बाकोलिय नौसीखिए नहीं रहे। परिपक्व हो गए हैं।  यानि कि दो साल तो उन्हें केवल परिपक्व होने में ही लग गए। बाकी बचे तीन साल में क्या कर पाएंगे, पता नहीं। अलबत्ता तीसरे साल के प्रवेश में जो घोषणाएं की हैं, उससे यह जरूर लगता है कि अब उनकी समझदानी में आ गया है कि वे मेयर हैं और मेयर चाहे तो बहुत कुछ कर सकता है। यानि कि अब यह माना जा सकता है कि उनका माइंडसेट बदल गया गया है। बदलना भी चाहिए। करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। एक और उपलब्धि भी रेखांकित की जा रही है। वो ये कि पार्षदों पर भले ही गाहे बगाहे भ्रष्टाचार  व पक्षपात के आरोप लगे हों, मगर खुद की कमीज अभी सफेद ही है। 
असल में हुआ ये कि जब बाकोलिया मेयर बने तो राजनीति में कोरे कागज थे। गैस एजेंसी चलाते-चलाते यकायक शहर को चलाने की जिम्मेदारी आ गई तो भला उनसे उम्मीद की भी कैसे जा सकती थी कि उनके पास कोई विजन भी होगा। न राजनीति की समझ, न नगर निगम के कामकाज की और न ही शहर के बारे में कोई समझदारी से भरी सोच। इन सब चीजों को सीखने में दो साल तो लगने ही थे। दुर्भाग्य से, जिसे कि उनके लिए सौभाग्य कहना ज्यादा उचित होगा कि उन्हें जहां बोर्ड में भाजपा का बहुमत मिला, वहीं सी आर मीणा जैसे परिपक्व सीईओ। उनसे भिड़ंत लेते-लेते न केवल राजनीतिक समझ बढ़ी है, अपितु अफसरों-कर्मचारियों से किए जाने वाले व्यवहार की जानकारी भी। करीब डेढ़ साल पहले अपुन ने दैनिक न्याय सबके लिए के द थर्ड आई कॉलम में इशारा कर दिया था कि बाकोलिया भाग्य से मिला मेयर बनने का मौका गंवा रहे हैं। किसी विद्वान का यह सूत्र भी सुझाया था कि जीवन ताश का खेल है, जिसमें एक बार ताश के पत्ते बंट जाने के बाद हमें उन्हीं पत्तों से ही खेलना होता है। उसके अलावा कोई चारा भी नहीं। मगर अमूमन होता ये है कि हम यह कह कर सियापा करते हैं कि काश हमें हमारी पसंद के पत्ते मिले होते तो हम ये कर लेते, वो कर लेते। और उसी में अपना वक्त जाया करते हैं। जबकि होना यह चाहिए हम किस्मत से मिले पत्तों से ही बेहतर से बेहतर खेलने की कोशिश करें। जो मिले ही नहीं, उनकी कल्पना करने का कोई मतलब ही नहीं। शायद यही सूत्र और अपनी नियती समझने में उन्हें इतना वक्त लग गया। माना कि वे ऐसे बोर्ड के मेयर हैं, जिसमें भाजपा पार्षदों का बहुमत है और कई कांग्रेसी भी ऐसे हैं, जो उनके नाथने में नहीं नाथे जा पा रहे। ऐसे में उन्हें मिले हुए पत्तों से ही खेलना होगा, जो कि उनकी किस्मत के कारण मिले हैं। उसी किस्मत का ही कमाल है कि उन्हें अपने स्वर्गीय पिता श्री हरिशचंद जटिया के कर्मों की बदौलत मेयर का टिकट मिला और जीत भी गए। मगर कमी सिर्फ ये थी कि मेयर जैसा माइंड सेट नहीं था। वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि वे क्या से क्या हो गए हैं। हालांकि उन्होंने निगम की सियासी स्थिति को देखते हुए सीईओ के रूप में सी आर मीणा जैसे अधिकारी को लगवाया जो उनके लिए काफी मददगार हो सकता था, मगर उन्हीं के साथ ट्यूनिंग नहीं बैठा पाए। उनके इर्द-गिर्द जो चौकड़ी जुटी रही, वह भी उलटे-उलटे रास्ते सुझाती रही। उसी के कारण शहर के कई तो ऐसे हैं जो उनके चेंबर इसी कारण नहीं घुसते कि उनके आसपास कुछ छुटभैया मटरगस्ती कर रहे होंगे।
खैर, देर आयद, दुरुस्त आयद। कम से कम अब मीडिया वाले भी मानने को मजबूर हैं कि बाकोलिया पूरे आत्म विश्वास के साथ भरे हुए हैं। कुछ करना चाहते हैं। क्या कर पाते हैं ये तो वक्त ही बताएगा।
सब कुछ बदल देने के विजन के साथ फॉर्म में आए बाकोलिया को नगर निगम को हाई टैक करने की सीख किसने दी पता नहीं, मगर है तारीफ ए काबिल। केन्द्रीय सूचना प्रौद्यागिकी एवं दूरसंचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के शागिर्द होने के नाते कम से कम ये सोच तो आनी ही चाहिए थी।
दो नए दफ्तर रामगंज, माकड़वाली रोड या जयपुर रोड पर बनाने की योजना और अतिक्रमण से निपटने के लिए निगम का अपना पुलिस दस्ता बनाने की इच्छा सराहनीय है। संकड़ी गलियों वाले शहर में आपदा प्रबंधन के लिए हाईटेक उपकरणों से सुसज्जित करने का विचार भी उत्तम है।
बहरहाल, दो साल पूरे होने पर नगर के प्रथम नागरिक को नए जोश व जब्जे के लिए ढ़ेरों शुभकामनाएं।
-तेजवानी गिरधर

ईद पर अतिरिक्त सावधानी की जरूरत

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और इलाहाबाद में शुक्रवार को हुई हिंसा के मद्देनजर केंद्र सरकार ने एक बार फिर राजस्थान सहित सभी राज्यों से कहा है कि वे ईद के मौके पर हर स्तर पर सतर्कता बरतें।
गृह मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक खुफिया सूत्रों से जानकारी मिली है कि कुछ शरारती तत्व असम की घटनाओं को देश के अन्य इलाकों में दोहराना चाहते हैं। मुंबई की हिंसा के बाद कर्नाटक में अफवाहों के चलते पूर्वोत्तर के लोगों का पलायन इसी मुहिम का नतीजा है। सूत्रों के मुताबिक ऐसी सूचनाएं हैं कि ईद के मौके पर कुछ शरारती तत्व खुरापात कर सकते हैं, ऐसे में राजस्थान सहित महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, यूपी, बिहार, दिल्ली, हरियाणा और कर्नाटक को खासतौर पर सतर्क रहने को कहा गया है।
यूं तो सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह व तीर्थराज पुष्कर को अपने आंचल में समेटे अजमेर की आध्यात्मिक धरा पूरी दुनिया में सांप्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल मानी जाती है, लेकिन साथ ही एक बार दरगाह में बम विस्फोट हो चुकने और मुंबई सीरियल ब्लास्ट के मास्टर माइंड हेडली की गुप्त पुष्कर यात्रा सहित अन्या कई घटनाओं के बाद यह शहर भी अति संवेदनशील शहरों में शुमार किया जाता है। विशेष रूप से पिछले स्वतंत्रता दिवस पर दरगाह के निजाम गेट पर पाक समर्थित पोस्टर लगाने की कोशिश चिंता का विषय है। हांलाकि पोस्टर लगाने वाले बिहार स्थित पुरनिया के 26 बांसवाड़ी आयल बाइसी निवासी मोहम्मद इस्माइल (42) पुत्र मोहम्मद ताहिर को देशद्रोह के आरोप में रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया गया, मगर आज तक पता नहीं लग पाया है कि इसके पीछे किसका हाथ था। खुद पुलिस को भी उसके किसी दहशतगर्द गिरोह से संबद्ध होने की आशंका है। इसके अतिरिक्त शक ये भी है कि इस्माइल के अतिरिक्त पकड़े गए अन्य आरोपी कहीं स्लीपर सेल के लिए काम तो नहीं कर रहे थे।
कुल मिला कर गृह मंत्रालय की चेतावनी की रोशनी और अजमेर के हालात के मद्देनजर खुफिया एजेंसियों व पुलिस को अतिरिक्त सतर्कता बरतनी होगी, ताकि कोई सिरफिरा इस शांत नगरी में नफरत की हवा न फैला सके।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

आखिर ले ही लिया अंजुमनों ने नजराने का हिस्सा


पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की ओर से दरगाह जियारत के दौरान पांच करोड़ का नजराना दिए जाने की घोषणा पर अपना हक जता कर विवाद करने वाली खादिमों की दोनों अंजुमनों ने अपना-अपना हिस्सा लेकर खुद ही विवाद को समाप्त कर दिया। न केवल उन्होंने पाकिस्तान के दिल्ली स्थित उच्चायुक्त सलमान बशीर के हाथों नजराने के चैक लिए, अपितु उनका इस्तकबाल भी किया। सलमान बशीर ने दरगाह कमेटी के सदर प्रोफेसर सोहेल अहमद, अंजुमन मोईनिया फकरिया चिश्तिया सैय्यद जादगान के सदर सैय्यद हिसामुद्दीन नियाजी व अंजुमन यादगार चिश्तिया शेख जादगान के सदर शमशाद मोहम्मद चिश्ती को नजराने की राशि चैक के माध्यम से दी। तीनों चैक की राशि 5 करोड़ 47 लाख 48 हजार 905 रुपये है।
बेशक अंजुमनों का विवाद समाप्त करने का यह कदम न केवल दुनिया की कदीमी दरगाह शरीफ व भारत की प्रतिष्ठा के अनुकूल है, अपितु उनकी सदाशयता का प्रतीक भी बन गया है। बेहतर ये होता कि वे इस पर कोई विवाद नहीं करते तो नजराने की राशि के चैक वितरण का समारोह भव्य होता और हमारे देश व पाकिस्तान के अवाम को भी अच्छा संदेश जाता।
ज्ञातव्य है कि नजराने की राशि की घोषणा जब अमलीजामा पहनने जा रही थी तो इसके बंटवारे को लेकर विवाद खड़ा हो गया था। एक ओर जहां दरगाह कमेटी ने दरगाह एक्ट और बायलॉज के हिसाब से स्वयं को नजर का हकदार बताया, वहीं दूसरी ओर खादिमों ने भी कानूनी व शरई तौर पर स्वयं को ही नजर का अधिकारी बताया।
असल में जहां तक धार्मिक परंपरा का सवाल है, बेशक नजराना दिया ही खादिम को जाता है, मगर चूंकि यह रकम काफी बड़ी थी, इस कारण इसको लेकर खींचतान मची। हालांकि भारत स्थित पाक उच्चायोग के काउंसलर अबरार हाशमी ने स्पष्ट कर दिया था कि जरदारी की जियारत के दो दिन पूर्व ही मीडिया में 5 करोड़ रुपए का नजरान देने की बात आ चुकी थी, इस कारण यह कह कर कि घोषणा गुंबद शरीफ के नीचे हुई है, उस पर विवाद बेमानी है। उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि जरदारी ने नजराने की राशि दरगाह में विकास कार्यों के लिए घोषित की गई थी। इसके बावजूद अंजुमनें विवाद करती रहीं। उनका कहना था कि यदि नजराने की राशि का बंटवारा किया गया तो वे अपना हिस्सा नहीं लेंगी।
अंजुमन सचिव सैयद वाहिद अंगारा का कहना था कि जरदारी ने जियारत के बाद नजराने की घोषणा की थी। जरदारी ने दरगाह में गुंबद शरीफ के नीचे घोषणा की गई, वहां केवल खादिमों का अधिकार है। वहां दीवान और दरगाह कमेटी का कोई हक ही नहीं है। जरदारी ने साफ तौर पर नजराने का ऐलान किया है, किसी प्रकार के डवलपमेंट की कोई बात नहीं हुई। इसके अतिरिक्त उनका तर्क ये भी था कि नजर में बंटवारा नहीं हो सकता। इस नजर पर पहला हक संबंधित खादिम का होता है। खादिम अपने परिवार पर यह राशि खर्च करता है। इसके बाद वह कल्याणकारी कार्यों में राशि व्यय करता है। अंजुमन का यह भी कहना था कि चूंकि मामला नजराने का है, इस कारण यह दरगाह स्थित महफिलखाने में होना चाहिए।
जहां तक पाक सरकार का सवाल है, कदाचित उसे यह पता नहीं था कि नजराने पर अंजुमन के हक को लेकर विवाद हो जाएगा, इस कारण बाद में अपना प्रतिनिधि भेज कर विवाद को निपटाने की कवायद की। विवाद के कारण ही चैक वितरण का कार्यक्रम सुरक्षा कारणों के बहाने महफिलखाने की बजाय जवाहर रंगमंच पर करना तय किया गया। लेकिन जब विवाद निपटता नहीं दिखा तो आखिर एक बहुत ही संक्षिप्त कार्यक्रम सर्किट हाउस में किया गया।
अपुन ने पहले ही लिखा था कि यदि विवाद बढ़ता है और अंजुमन बंटवारे का हिस्सा लेने से इंकार करती हैं तो इससे अच्छा संदेश नहीं जाएगा। इससे नजराना देने वाले का दिल भी दुखेगा। भविष्य में कोई राष्ट्राध्यक्ष अथवा वीवीआईपी इस प्रकार नजराना घोषित करने से बचेगा। भला कौन अपनी श्रद्धा को इस प्रकार के विवाद में उलझाना चाहेगा। बेहतर यही होगा कि सभी पक्ष इस मामले में समझदारी का परिचय देते हुए बीच का रास्ता निकालें। हालात को समझते हुए अंजुमनों ने आखिर बीच का रास्ता अख्तियार कर ही लिया, इसके लिए वे बधाई की पात्र हैं।
प्रसंगवश आपको बता दें कि नजराने की राशि का चौथा हिस्सा होने की बात भी उठी थी। दैनिक समाचार पत्र अमर उजाला की खबर के अनुसार दरगाह दीवान जेनुल आबेदीन ने अपने हिस्से को लेकर पाक उच्चायोग को पत्र लिखा था। उसके पीछे सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को आधार बना कर तर्क ये दिया गया होगा कि दरगाह शरीफ के गुबंद के भीतर आने वाले किसी भी चढ़ावे पर सज्जादानशीन का 50 प्रतिशत अधिकार है। अब जब कि पाकिस्तान सरकार ने केवल तीन पक्षों को ही नजराने का बंटवारा कर दिया है, देखना ये होगा कि दीवान इस पर कोई ऐतराज करते हैं अथवा नहीं।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

हिम्मत कैसे होती है पाक समर्थित पोस्टर लगाने की?


स्वतंत्रता दिवस पर दरगाह के निजाम गेट पर पाक समर्थित पोस्टर लगाने पर बिहार स्थित पुरनिया के 26 बांसवाड़ी आयल बाइसी निवासी मोहम्मद इस्माइल (42) पुत्र मोहम्मद ताहिर को देशद्रोह के आरोप में रंगे हाथ गिरफ्तार करने पर भले ही पुलिस अपनी पीठ थपथपा रही हो, मगर सवाल ये उठता है कि इस तरह की हरकत करने की किसी की हिम्मत होती ही कैसे है? वो भी चौड़े-धाड़े? चौड़े-धाड़े ही इस्माइल ने पोस्टर लगाने की भूल की, इसी कारण वह तुरंत पकड़ा गया, वरना पुलिस को आज तक पता नहीं लगता कि पोस्टर कौन लगा गया?
हालांकि यह अभी जांच का विषय है कि इस्माइल का मकसद क्या था और किसके कहने पर उसने ऐसा किया, मगर सबसे बड़ा सवाल ये है कि उसकी हिम्मत खुले-आम पोस्टर लगाने की कैसे हो गई? यदि उसका मकसद अपनी मर्जी से अथवा किसी के इशारे पर पोस्टर लगाना ही था तो वह चोरी-छुपे भी लगा सकता था। उसकी इस हरकत से इस बात की आशंका भी होती है कि कहीं वह मानसिक रूप से अस्वस्थ तो नहीं था? जैसा कि खुद उसका बयान है कि उसे ख्वाजा साहब ने सपने में कहा था कि यह पोस्टर लगाना है, इस आशंका को बल प्रदान करता है कि उसने धर्म भीरुता के चलते ऐसा किया हो। जहां तक पोस्टर में लिखे मजमून का सवाल है, उसमें भी पूरी दुनिया का मालिक गरीब नवाज लिखा है, न कि पूरी दुनिया का मालिक पाकिस्तान, जैसा कि पुलिस व मीडिया बयान कर रहा है।
बेशक उसमें पाकिस्तान भी लिखा है, वह ऊपर अलग से लिखा है। पूरी दुनिया का मालिक गरीब नवाज वाक्य की फोंट साइज एक ही है, इससे साफ झलकता है कि उसका ज्यादा जोर गरीब नवाज पर है, न कि पाकिस्तान पर। अकेला पाकिस्तान शब्द उसे देशद्रोह की श्रेणी में गिनवा रहा है, जबकि न तो भारत के खिलाफ कुछ लिखा है और न ही पाकिस्तान के समर्थन में कोई बात लिखी है। फिर भी पाकिस्तान लिख कर वह क्या जताना चाहता था, इसकी छानबीन होने पर ही सच सामने आएगा। दूसरी अहम बात ये है कि आखिर उसने 15 अगस्त का दिन ही क्यों चुना? इस दिन का हमारी स्वतंत्रता, संप्रभुता, एकता, अखंडता से सीधा भावनात्मक संबंध है। ऐसे मौके पर यदि कोई मुस्लिम दरगाह जैसे पवित्र स्थान पर पाकिस्तान का जिक्र करता हुआ पोस्टर लगाएगा तो जाहिर तौर पर यह उसके पाक परस्त होने की इशारा करता है। ऐसा पाक परस्त यदि स्वाधीनता दिवस के मौके पर घटिया हरकत करता है तो यह इस बात का सबूत भी है कि उसे पुलिस तंत्र की कोई परवाह नहीं थी। और यदि वह किसी दहशतगर्द गिरोह से संबद्ध है तो यह और भी गंभीर बात है। वस्तुत: यह पुलिस और सीआईडी को खुली चुनौती है, जिसका तोड़ पुलिस को ही निकालना है। खुफिया एजेंसियों को इस्माइल के अतिरिक्त पकड़े गए आरोपियों के स्लीपर सेल के लिए काम करने की भी आशंका जाहिर है। ज्ञातव्य है कि दहशतगर्दों की स्लीपर सेल में शामिल होने वाले शातिरों के बैंक खातों में संगठन पैसा जमा करवाता है। इसका खुलासा तो पूरी जांच होने पर हो पाएगा।
कुल मिला कर इस प्रकार की हरकतें हमारे शांतिप्रिय शहर के वसियों के लिए भी सोचनीय हैं। विशेष रूप से इस कारण कि दरगाह में एक बार बम विस्फोट हो चुका है और आतंकी व तस्करी वारदातों के अनेक मामले सामने आ चुके हैं।
-तेजवानी गिरधर

जैन स्थानक भवन ढ़हने के लिए जिम्मेदार कौन?


अजमेर में रामद्वारा गली, पुरानी मंडी स्थित मसूदा की हवेली नाम से ख्यात जैन स्थानक भवन का एक हिस्सा पर्यूषण पर्व पर बाल संस्कार शिविर एवं महिला चौपी के दौरान गिरने से एक बुजुर्ग की मौत हो गई और जैन संत राजेश मुनि सहित सात अन्य धर्मावलंबियों के घायल हो गए। मौका ए वारदात पर राहत पहुंचाना आसान भी नहीं था, इस कारण हादसा काफी भीषण होने की आशंका थी, मगर सौभाग्य से टल गया। बात आई गई हो गई, मगर ऐसे में सवाल ये तो उठता है कि इस हादसे के लिए जिम्मेदार किसे माना जाना चाहिए?
असल में इस भवन का संचालन श्री स्थानकवासी जैन श्रावक संघ की ओर से किया जाता रहा है। जैसा कि संघ के सचिव पारसमल विनायका का कहना है, उन्हें यह तो पता है कि मेंटीनेंस समाज की ओर से समय-समय पर किया जाता रहा है और वर्तमान में भवन की स्थिति ठीक ही थी, लेकिन उन्हें यह जानकारी नहीं कि पिछली बार मैंटीनेंस कब हुआ। भवन गिरने क्या कारण रहा, इसके बारे में हालांकि उनका कहना है कि दिन में अचानक बिजली गिरी थी, जो सीधे भवन पर आई थी। यह सब अचानक हुआ। इसका सीधा सा अर्थ है कि वे भवन को गिरने की वजह बिजली को मान रहे हैं, मगर इसकी पुष्टि आसपास के लोगों ने नहीं की। सीधी सी बात है कि वे इस पुराने भवन की हालत खराब होने को नकार रहे हैं।
ऐसा अमूमन होता है। जब भी कोई हादसा होता है तो संबंधित लोग जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करते ही हैं। विशेष रूप से समाज का भवन होने पर सीधे तौर पर किसी व्यक्ति विशेष पर जिम्मेदारी आयद की भी नहीं जा सकती। और फिर सामाजिक मामला होने के कारण मामले को दबाने की कोशिश ही की जाती है, अगर समाज में ही दूसरा गुट सक्रिय न हो। जो कुछ भी हो, कहीं न कहीं त्रुटि तो हुई ही है। या तो भवन के रखरखाव में चूक हुई है, या लापरवाही बरती गई है। भले ही इस हादसे के लिए फौरी तौर पर संघ को इसके लिए जिम्मेदार मान भी लिया जाए, मगर उससे होना जाना क्या है? उसे साबित करना न तो संभव है और न ही कार्यवाही की कोई उम्मीद। सांप मरने के बाद लकीर पीटने से होना क्या है? बेहतर यही है कि हम इस दुर्घटना को एक सबक के रूप में लें।
असल में शहर के घने इलाकों में अनेक भवन काफी पुराने हैं। जर्जरावस्था की दृष्टि से तकरीबन पचास भवनों को चिन्हित भी किया गया है। वे कभी भी गिर सकते हैं। हर बार बारिश आने से पहले नगर निगम एक ढर्ऱे के रूप में जर्जर भवनों के मालिकों को भवन गिराने अथवा मरम्मत कराने के लिए नोटिस जारी करता है। इस बार भी मार्च माह में यह दस्तूर निभाया गया, ताकि बाद में हादसा हो तो निगम को जिम्मेदार न ठहराया जाए, मगर उनका फॉलोअप आज तक नहीं किया। नतीजतन दो जर्जर भवन गिर चुके हैं। ये दीगर बात है कि हादसे बड़े नहीं हुए, इस कारण निगम के अफसर चैन की नींद सो रहे हैं। जानकार लोगों का मानना है कि जर्जर भवनों की हालत को लेकर निगम तभी चेतता है, जब तक कोई ऐसा भवन ही न हो, जो कि बस गिरने ही वाला हो। इस मामले में कई बार निगम मजबूर भी होता है। कई भवनों में मकान मालिक और किरायेदारों के बीच कोर्ट में विवाद चल रहे हैं, इस वजह से निगम के हाथ बंधे रहते हैं।
बहरहाल, जो भी हालात हों, जो भी अड़चनें हों, उनके बीच से ही निगम को रास्ता निकालना है। चाहे वह संबंधित मालिकों को भवन गिराने को विवश न कर पाए, मगर कम से कम उनकी मरम्मत करवाने को तो मजबूर कर ही सकता है।
इस बार जिस तरह से लगातार दो दिन तक कभी रिमझिम तो कभी तेज बारिश हुई है, धूप खिलने पर कुछ और भवन धराशायी हो सकते हैं। निगम को चाहिए कि वे पहले से चिन्हित भवनों की सुध ले और उनमें से जिनको बेहद जरूरी हो गिराने की कार्यवाही तुरंत करे, वरना कोई बड़ा हादसा होगा और हमारे पास सियापा करने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाएगा।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 13 अगस्त 2012

क्या दरगाह दीवान को भी मिलेगा नजराने का हिस्सा?

हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के नजराने पर अब तक तो दरगाह कमेटी व खादमों की दोनों अंजुमनें दावा कर रही थीं, मगर ऐसा लगता है कि इस पर ख्वाजा साहब के वश्ंाज दरगाह दीवान के हिस्से को लेकर भी विचार की स्थिति बन गई है। दैनिक समाचार पत्र अमर उजाला की खबर को सही मानें तो जानकारी ये है कि दीवान जेनुल आबेदीन ने इस संबंध में पाक उच्चायोग को पत्र लिखा है।
समझा जाता है कि इसी के साथ दीवान के हिस्से पर भी पाक सरकार को विचार करने की स्थिति आ जाएगी। अब तक की स्थिति ये है कि दरगाह से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति सज्जादानशीन सैयद जैनुल आबेदीन अली खान को पाक उच्चायोग ने पूरी तरह नजरअंदाज किया है, जबकि दरगाह गुबंद के भीतर आने वाले किसी भी चढ़ावे पर सज्जादानशीन का 50 प्रतिशत अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि मजार पर आने वाले चढ़ावे को दो हिस्सों में बांटा जाएगा, जिसमें एक खादिमों का और दूसरा सज्जादानशीन का होगा। इस फैसले की रोशनी में अगर दीवान को हिस्सा नहीं दिया गया तो बाद में यह विवाद का रूप ले सकता है।
गौरतलब है कि दरगाह कमेटी केंद्र सरकार के अधीन है। लिहाजा इस विवाद को अल्पसंख्यक मंत्रालय ने विदेश मंत्रालय के समक्ष भेजा था, लेकिन विदेश मंत्रालय ने इस संबंध में कोई भी राय देने से इनकार कर दिया।
ज्ञातव्य है कि जरदारी ने 8 अप्रैल को अपने पुत्र बिलावल के साथ हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जियारत के समय दस हजार डालर (पांच करोड़ रुपये) नजराने के तौर पर देने की घोषणा की थी। पाक उच्चायोग इस राशि को 16 अगस्त को अजमेर जाकर देने का कार्यक्रम बना चुका है। उच्चायोग ने पाक राष्ट्रपति के नजराने को तीन भागों में विभाजित किया है, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा गठित दरगाह कमेटी को 3.5 करोड़, अंजुमन सैयद जादगान को एक करोड़ तथा अंजुमन शेखजादगान को 50 लाख रुपये देना तय किया गया है। नजराने की राशि के इस तरह वितरण को खादिमों की दोनों अंजुमनों ने सिरे से खारिज कर दिया है। अंजुमन सैयद जादगान के सचिव वाहिद चिश्ती का कहना है कि गुंबद शरीफ के भीतर किसी भी तरह के नजराने पर सिर्फ खादिमों का हक है। दरगाह कमेटी को इसे लेने का कोई हक नहीं है। लिहाजा इस तरह के वितरण को वे किसी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे।
-तेजवानी गिरधर

सारस्वत को मिली भाजपा में अहम जिम्मेदारी

भाजपा के शिक्षा प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक प्रो.बीपी सारस्वत को पार्टी के सदस्यता अभियान का अजमेर जिला संयोजक बना कर पहली बार अजमेर भाजपा की मुख्य धारा से जोड़ा गया है। संगठन की दृष्टि से इस जिम्मेदारी को काफी अहम माना जाता है। हालांकि वे लंबे अरसे से संघ और विश्व हिंदू परिषद से जुड़े रहे हैं और उसमें रहते खूब नाम कमाया, मगर इस प्रकार सीधे भाजपा में सक्रिय जिम्मेदारी का मौका पहली बार मिला है। वैसे कुछ माह पहले वे शहर भाजपा अध्यक्ष पद के प्रबल दावेदार थे। बताया जाता है कि उनका नाम घोषित होते-होते रह गया। वे भाजपा शिक्षा प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं, लेकिन पहली बार शहर जिला भाजपा सदस्यता अभियान की जिम्मेदारी मिलने से अब से सीधे तौर पर अजमेर की राजनीति से जुड़ गए हैं। इससे अजमेर भाजपा में उनका कद तो कायम होगा ही, भविष्य में चुनावी राजनीति में पदार्पण का रास्ता भी खुल सकता है, जो कि उनकी काफी समय से प्रमुख इच्छा रही है।
जहां भाजपा की अंदरूनी खींचतान का सवाल है, सारस्वत की नियुक्ति  अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के प्रतिकूल पड़ती हैं। हालांकि खुद सारस्वत ने प्रदेश उपाध्यक्ष ओंकार सिंह लखावत, शहर अध्यक्ष रासासिंह रावत, विधायक अनिता भदेल के साथ ही वासुदेव देवनानी का नाम लेते हुए सभी से चर्चा कर अभियान को सफल बनाने की बात कही है, मगर माना उन्हें देवनानी विरोधी खेमे में ही जाता है। खास बात ये है कि वे हैं तो संघ पृष्ठभूमि से लेकिन साथ ही इन दिनों पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के भी करीबी हैं। यह गणित उनकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा प्रतीत होता है।
भाजपा में उन्हें मूल्य आधारित विचारधारा का पोषक माना जाता है और इन्हीं मूल्यों की रक्षा के कारण ही उठापटक की राजनीति में अप्रासंगिक से नजर आते हैं। नैतिक मूल्यों की रक्षा की खातिर ही उन्होंने भाजपा के शिक्षा प्रकोष्ठ के प्रदेशाध्यक्ष पद को त्याग दिया था, हालांकि उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया। सिद्धांतवादी होने के कारण सदस्यता अभियान में भी उनसे ईमानदारी की अपेक्षा की जाएगी। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद व विश्व हिंदू परिषद में सक्रिय रहे हैं और ब्यावर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार रहे हैं। पिछली अशोक गहलोत सरकार के दौरान विहिप नेता प्रवीण भाई तोगडिय़ा के त्रिशूल दीक्षा कार्यक्रम के दौरान उनको सहयोग करने वालों में प्रमुख होने के कारण उनके खिलाफ भी मुकदमा दर्ज हुआ था। उनका जन्म जिले के छोटे से गांव ब्रिक्चियावास में सन् 1960 में हुआ। विद्यार्थी काल से ही वे संघ और विद्यार्थी परिषद से जुड़ गए। वे सन् 1981 से 86 तक परिषद के विभाग प्रमुख रहे। वे सन् 1992 से 95 तक संघ के ब्यावर नगर कार्यवाह रहे। वे सन् 1997 से 2004 तक विश्व हिंदू परिषद के प्रांत मंत्री रहे हैं। वे सन् 1986 से 97 तक राजस्थान यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अनेक पदों पर और 2001 से 2003 तक अजमेर यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे हैं। काम के प्रति निष्ठा की वजह ही उन्हें विश्वविद्यालय में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी जाती रही हैं।
-तेजवानी गिरधर

भगत की फिसली जुबान, भाजपा नेताओं ने पकड़ ली

जैसे केले के छिलके पर पैर पड़ते ही आदमी गिरता है तो देखने वाले की यकायक हंसी फूट पड़ती है, वैसे ही अगर जुबान फिसल जाए तो भी जग हंसाई होती है। और खासकर अगर मामला राजनीतिक व्यक्ति का हो तो स्वाभाविक रूप से विरोधी दल वाले चटकारे ले ले कर मजे लेते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ कांग्रेस नेता व नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत के साथ।
हुआ यूं कि हाल ही अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने भगत व यूआईटी सचिव पुष्पा सत्यानी पर जमीन के एक मामले में भ्रष्टाचार का गंभीर आरोप लगाया। इस सिलसिले में जब भगत का पक्ष जानने को इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के बंदे उनके पास गए तो उन्होंने कहा कि राजनीतिक विद्वेष की वजह से उन पर ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं। वे कहना चाहते थे वे चूंकि कांग्रेस के हैं, इस कारण भाजपा विधायक ने उन पर झूठे आरोप लगाए हैं, मगर यकायक मुंह से निकला-चूंकि मैं भाजपा का हूं, इस कारण………..।
यदि यही साक्षात्कार प्रिंट मीडिया वाले ले रहे होते तो उसे तुरंत दुरुस्त करने पर वे इसे नजरअंदाज कर देते, मगर चूंकि वे कैमरे के सामने बोल रहे थे, इस कारण उनका बयान रिकार्ड पर आ गया। ऐसा दिलचस्प बयान सुनने में भी बड़े मजे देता है। बात यहीं तक नहीं ठहरी। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने उनके इस बयान पर भाजपा नेताओं की भी राय जानी। इस पर अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी कुटिल मुस्कार के साथ कहा कि वैसे तो उनकी पार्टी में भ्रष्टाचारियों के लिये कोई जगह नहीं है, मगर फिर भी वे पुरानी बातों को छोड़ कर बीजेपी की सदस्यता के लिये आवेदन करते है, तो पार्टी जरूर विचार कर सकती है। इसी प्रकार भारतीय जनता युवा मोर्चा नेता नीरज जैन ने भी उनका भाजपा में स्वागत किया, मगर कहा कि वे पहले खुद पर लगी कालिख साफ करके आएं। विधायक अनिता भदेल ने तो इसे कलई खुलने पर हड़बड़ाहट का सबूत करार दे दिया। कुल मिला कर मामला भले ही जुबान फिसलने का हो, मगर भाजपाइयों को चटकारे का मौका जरूर मिल गया है।
लीजिये देखिये भगत ने क्या कहा था, इस लिंब पर क्लिक कीजिए
भगत की फिसली जुबान, भाजपा नेताओं ने पकड़ ली

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

लाला बन्ना ने दिया ईमानदारी व दिलेरी का सबूत


कहते हैं कि ईमानदारी तभी कायम रहती है, जब कि आदमी दिलेर भी हो। लाला बन्ना के नाम से चर्चित अजमेर नगर परिषद के पूर्व उपसभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत पर यह कहावत चरितार्थ होती है। हाल ही इसका उदाहरण उन्होंने बाकायदा सार्वजनिक रूप से पेश किया है।
वाकया इस प्रकार है कि दैनिक भास्कर के एक कॉलम यादों में छात्र संघ के अंतर्गत लाला बन्ना ने बड़ी ईमानदारी और बेबाकी से स्वीकार किया है कि सन् 1990 के जीसीए छात्रसंघ चुनाव में उन्होंने भारतीय जनता विद्यार्थी मोर्चा के शहर अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे कर स्टूडेंट वेलफेयर ऑर्गेनाइजेशन का गठन किया और उसके बैनर तले ज्योति तंवर को अध्यक्ष पद का चुनाव जितवाया। जो शख्स पिछले विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से भाजपा का टिकट पाते पाते रह गया हो और वर्तमान में भी प्रबल दावेदार हो, उसका इस प्रकार बिंदास हो कर बयान देना इस अर्थ में तारीफ ए काबिल है कि उन्होंने सच्चाई को छिपाने की बजाय खुल कर स्वीकार किया कि उन्होंने एबीवीपी के प्रत्याशी उमरदान लखावत को हराया, जो कि अजमेर के भीष्म पितामह कहलाने वाले औंकारसिंह लखावत के पुत्र हैं। हालांकि उन्होंने यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं किया है। कोई नई बात नहीं कही है। राजनीति के जानकारों को सब पता है, मगर बीस साल बाद, जबकि पूरा परिदृश्य बदल गया है, इसे पूरी ईमानदारी से स्वीकार करना वाकई दिलेरी का जीता जागता नमूना है। इसके विपरीत भाजपा के सभी नेता इस बात को जानते हुए भी सार्वजनिक रूप से इस बारे में चर्चा करने तक से कतराते हैं। इसी मसले को लेकर पिछले दिनों राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र यादव की मौजूदगी में हुए एक जलसे में जब भावनाओं में बह कर विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने लाला बन्ना की तारीफ करते हुए यह सच उगला तो सभी भाजपा नेता भौंचक्के रह गए थे कि वे यह क्या कह रही हैं। बाद में अनिता को भी गलती का अहसास हुआ।
इसी से जुड़ी एक और दिलचस्प बात है। वो ये कि एसडब्ल्यूओ के गठन में लाला बन्ना के कुछ पत्रकार साथियों की भी भूमिका रही थी, जो कि अब प्रतिष्ठित स्थानों पर हैं। मीडिया फ्रेंडली होने की वजह से अनिता भदेल की जुबान से फिसले बयान को अधिकतर अखबारों ने हजम भी कर लिया। अर्थात वे भी इस सच पर पर्दा ही पड़े रहने देना चाहते थे। इसे यूं भी कह सकते हैं कि गढ़े मुर्दे नहीं उखाडऩा चाहते थे।
 इस प्रसंग की छोडिय़े, उस चुनाव में हारने वाले उमरदान लखावत तक ने एक दिन पूर्व ही इसी कॉलम में अपने अनुभव बांटते हुए घटनाक्रम का तो जिक्र किया, मगर सदायश्ता व सावधानी बरतते हुए लाला बन्ना का जिक्र तक नहीं किया। अर्थात वे भी पार्टी मसला होने के कारण इस सच्चाई को कहने का साहस नहीं दिखा सके। कोई भी राजनीतिक व्यक्ति इस प्रकार खुल कर बोलने से बचेगा। ऐसे में यदि लाला बन्ना उस सच को बेकाकी स्वीकार करते हैं तो ये उनकी साफगोई का सबसे बड़ा सबूत है। इसका एक बड़ा फायदा ये होगा कि अब उनका कोई विरोधी इस घटना को भुना नहीं पाएगा। कोई भी व्यक्ति किसी की कमजोरी को तभी भुना सकता है जबकि वह उसको छिपाने की कोशिश करता हो।
आप को याद दिला दें कि पिछले दिनों जब शहर भाजपा युवा मोर्चा के अध्यक्ष पद पर देवेन्द्र सिंह शेखावत की नियुक्ति हुई तो उनके विरोधी खेमे ने एसडब्ल्यूओ के इसी मुद्दे को ही उठा कर उनका कड़ा विरोध किया था। हालांकि बाद में तकरीबन 15-16 साल तक भाजपा को दी गई सेवाओं को ध्यान में रखते हुए पार्टी हाईकमान ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। पार्टी की नजर में भी वह बात आई-गई हो गई है, मगर लाला बन्ना की स्वीकारोक्ति उनका दिल साफ होने का सबूत देती है, जो कि आम तौर पर राजनीतिज्ञों में कम ही नजर आती है। कुछ इसी तरह की साफगोई हाल ही बार अध्यक्ष राजेश टंडन ने भी यह कह कर दिखाई थी कि उनको छात्रसंघ चुनाव में अशोक गहलोत ने हरवाया था। कांग्रेस में रहते हुए अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री के बारे में इतना साफ कहने के लिए भी जिगर चाहिए होता है।
-तेजवानी गिरधर

नजराने पर विवाद करना कितना उचित?

पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की ओर से पिछले दिनों दरगाह जियारत के दौरान पांच करोड़ का नजराना दिए जाने की घोषणा जब अमलीजामा पहनने जा रही है तो इसके बंटवारे को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। एक ओर जहां दरगाह कमेटी ने दरगाह एक्ट और बायलॉज के हिसाब से स्वयं को नजर का हकदार बताया है, वहीं दूसरी ओर खादिमों ने भी कानूनी व शरई तौर पर स्वयं को ही नजर का अधिकारी बताया है।
असल में जहां तक धार्मिक परंपरा का सवाल है, बेशक नजराना दिया ही खादिम को जाता है, मगर चूंकि यह रकम काफी बड़ी है, इस कारण इसको लेकर खींचतान मची हुई है। दूसरा महत्वपूर्ण पहलु ये है कि जरदारी ने नजराना किस मकसद से घोषित किया था। जाहिर सी बात है कि केवल जियारत करवाने वाले से खुश हो कर पूरी रकम उसी की नजर करने की मंशा होगी, यह बात गले नहीं उतरती। स्पष्ट है कि उन्होंने दरगाह के विकास को ध्यान में रख कर इतना बड़ा नजराना घोषित किया होगा। इस बारे में भारत स्थित पाक उच्चायोग के काउंसलर अबरार हाशमी का भी स्पष्ट कहना है कि जरदारी की जियारत के दो दिन पूर्व ही मीडिया में 5 करोड़ रुपए नजराने की बात आ चुकी थी। जरदारी ने नजराने की घोषणा दरगाह से पहले पाकिस्तान में ही कर दी थी। यह राशि दरगाह में विकास कार्यों के लिए घोषित की गई थी। इस राशि को जायरीन के लिए होने वाले विकास कार्यों में लगाये जाने की मंशा रही है। हाशमी ने यह भी साफ कर दिया कि यह रकम पाकिस्तान के लोगों और सरकार की है, जिसको सार्वजनिक रूप से समारोह आयोजित कर दिया जाएगा और सुरक्षा कारणों से संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा की राय पर जवाहर रंगमंच पर कार्यक्रम करने की योजना है।
इस बारे में दरगाह कमेटी के सदर प्रो. सोहेल अहमद खां ने स्पष्ट किया कि दरगाह नाजिम या उसके द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि, जो भी नजराना दरगाह में विभिन्न स्थानों पर दान पेटी, देग और दरगाह फंड में आता है, एकत्रित कर सकते हैं। दरगाह में पेश की जाने वाले सभी चैक, मनी ऑर्डर, और अन्य वस्तुएं प्राप्त कर सकता है। कोई भी व्यक्ति या संस्था नाजिम की अनुमति के बिना किसी प्रकार का फंड प्राप्त नहीं कर सकता। खां ने कोर्ट के हवाले से भी कमेटी को ही दान लेने के लिए अधिकृत बताया।
दूसरी ओर अंजुमन सचिव सैयद वाहिद अंगारा का कहना है कि जरदारी ने जियारत के बाद नजराने की घोषणा की थी। जरदारी ने दरगाह में गुंबद शरीफ के नीचे घोषणा की गई, वहां केवल खादिमों का अधिकार है। वहां दीवान और दरगाह कमेटी का कोई हक ही नहीं है। जरदारी ने साफ तौर पर नजराने का ऐलान किया है, किसी प्रकार के डवलपमेंट की कोई बात नहीं हुई। इसके अतिरिक्त उनका तर्क ये भी था कि नजर में बंटवारा नहीं हो सकता। इस नजर पर पहला हक संबंधित खादिम का होता है। खादिम अपने परिवार पर यह राशि खर्च करता है। इसके बाद वह कल्याणकारी कार्यों में राशि व्यय करता है। अंजुमन भी प्रोजेक्ट चलाती है। अंजुमन का यह भी कहना है कि चूंकि मामला नजराने का है, इस कारण यह दरगाह स्थित महफिलखाने में होना चाहिए।
जहां तक पाक सरकार की मंशा का सवाल है, कदाचित उसे यह पता नहीं होगा कि नजराने पर अंजुमन के हक को लेकर विवाद हो जाएगा, इस कारण अब वह दरगाह से जुड़ी संस्थाओं दरगाह कमेटी व खादिमों की दोनों संस्थाओं को यह राशि देना चाहती है। और इसी मकसद ने उसने इसकी तहकीकात करवाई कि इन संस्थाओं की जायरीन हित की योजनाएं क्या हैं।  इस पर दरगाह कमेटी ने विकास कार्यों के लिए छह करोड़ की योजना का खाका पेश कर दिया। इसी प्रकार अंजुमन शेखजादगान के सदर शेखजादा शमशाद मोहम्मद चिश्ती और सचिव एस. हफीजुर्रहमान चिश्ती ने अंजुमन की ओर से कराए जा रहे कार्यों का ब्यौरा दिया। साथ ही ऑडिट रिपोर्ट की प्रति और बैंक अकाउंट नंबर भी दिया। दूसरी ओर अंजुमन सैयद जादगान ने शर्त रखी कि पहले खुलासा किया जाए कि 5 करोड़ का पाक सरकार क्या कर रही है। ये राशि वह किसे देना चाहती है। इसके बाद अंजुमन 16 को प्रस्तावित कार्यक्रम में शिरकत के बारे में निर्णय करेगी। हाशमी के बार-बार मांगने पर भी अंजुमन सैयदजादगान के पदाधिकारियों ने अंजुमन के बैंक अकाउंट नंबर नहीं दिए। अंगारा ने कहा कि खादिमों का कल्याणकारी कार्यों का अपना तरीका है। कागजी प्रोजेक्ट बना कर पैसा बटोरना उनका मकसद नहीं है। अंजुमन ख्वाजा साहब की शिक्षाओं के प्रचार, शिक्षण संस्था का संचालन और विभिन्न औलिया ए किराम के उर्स के मौकों पर लंगर आदि आयोजन करती है। उन्होंने दरगाह कमेटी के प्रस्तावित प्रोजेक्टों को कागजी करार दिया।
कुल मिला कर यह विवाद हुआ ही इस कारण कि जरदारी ने गुंबद के नीचे नजराने के बतौर पांच करोड़ देने की घोषणा की, इस कारण इस पर खादिम अपना हक जता रहे हैं, मगर जब नजर देने वाला ही यह कह रहा है कि उसने तो दरगाह विकास के मकसद से नजराना घोषित किया था, तो उसे दरगाह विकास के नाम पर नजर के रूप में देखा जाना चाहिए। वैसे भी यदि दरगाह कमेटी व अंजुमनें विकास की ही बात कर रही हैं तो उन्हें इस मामले में बीच का रास्ता निकालना चाहिए। कदाचित अंजुमन इस कारण अड़ी हुई है क्योंकि यह मामला आगे चल कर एक नजीर बन जाएगा, मगर उसे इसे विशेष मामला मानते हुए अपना रुख नरम करना चाहिए। यदि विवाद बढ़ता है और अंजुमन बंटवारे का हिस्सा लेने से इंकार करती है तो इससे अच्छा संदेश नहीं जाएगा। इससे नजराना देने वाले का दिल दुखेगा। भविष्य में कोई राष्ट्राध्यक्ष अथवा वीवीआईपी इस प्रकार नजराना घोषित करने से बचेगा। भला कौन अपनी श्रद्धा को इस प्रकार के विवाद में उलझाना चाहेगा। बेहतर यही होगा कि सभी पक्ष इस मामले में समझदारी का परिचय देते हुए बीच का रास्ता निकालें।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

इस बार भाजपा जाट प्रत्याशी उतारेगी लोकसभा चुनाव में?

ऐसा समझा जाता है कि इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा किसी जाट प्रत्याशी पर दाव लगाएगी। इस बात की संभावना के चलते कुछ रिटायर्ड जाट अधिकारियों ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है।
असल में पिछली बार परिसीमन की वजह से अजमेर संसदीय क्षेत्र का रावत बहुल मगरा इलाका कट जाने पर पूर्व सांसद व मौजूदा शहर जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. रासासिंह को यहां से चुनाव मैदान में नहीं उतारा गया था। उनके स्थान पर पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट के चुनाव मैदान में उतारे जाने की पूरी संभावना थी। इसकी एक मात्र वजह ये थी कि अब इस संसदीय क्षेत्र में जाटों के वोट तकरीबन दो लाख माने जाते हैं। उनके लिए आखिर तक पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राज ने पूरा जोर लगाया, मगर पार्टी हाईकमान के पास यह रिपोर्ट थी कि जाट की स्थानीय कई नेताओं से नहीं बनती। विशेष रूप से यह आकलन भी था कि मसूदा, भिनाय व नसीराबाद के गांवों में उनके शागिर्दों की हरकतों के कारण अन्य समुदायों में नाराजगी है। ऐसे में यह चुनाव जाट बनाम बैर जाट होने की आशंका थी। यही वजह रही कि आखिरकार उनका लगभग पक्का टिकट काट दिया गया। यूं प्रदेश भाजपा महामंत्री रामलाल जाट की भी संभावना थी, मगर उनकी स्थानीय जाटों पर पकड़ कुछ खास नहीं थी। आखिरकार पार्टी ने दो लाख वैश्य मतदाताओं के दम पर किरण माहेश्वरी को चुनाव मैदान में उतारा, मगर वे हार गईं। अब चूंकि उन्हें दुबारा यहां से टिकट मिलने की संभावना नहीं है, इस कारण जाट नेताओं में आगामी चुनाव को लेकर काफी आशा है।
यूं अब भी प्रो. जाट की दावेदारी मजबूत है, मगर समझा जाता है कि उनकी रुचि विधानसभा चुनाव में ही ज्यादा है। उनके अतिरिक्त पूर्व विधायक भागीरथ सिंह भी दावेदार हो सकते हैं, मगर उनके साथ भी यही परेशानी है कि किशनगढ़ इलाके में उनकी अन्य समुदायों से कुछ खास ट्यूनिंग नहीं है। इसी के चलते कुछ रिटायर्ड जाट अधिकारी भाग्य आजमाने की सोच रहे हैं। इनमें प्रमुख रूप से राजस्थान लोक सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष सी. आर. चौधरी व अजमेर में कलेक्टर रह चुके महावीर सिंह का नाम सामने आ रहा है। यूं सी. बी. गैना का नाम भी चर्चा में है। चूंकि कांग्रेस की ओर से मौजूदा सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के ही यहां दुबारा चुनाव लडऩे की संभावना है, इस कारण भाजपा खेमा यह मान कर चलता है कि जाट प्रत्याशी उन्हें बेहतर टक्कर देने की स्थिति में होगा। सोच ये है कि दो लाख जाट, दो लाख वैश्य, सवा लाख रावत, एक लाख सिंधी व एक लाख राजपूत मतदाता जाट प्रत्याशी को जितवा सकते हैं। हालांकि कांग्रेस की जाटों पर भी पकड़ है, मगर यदि भाजपा की ओर से जाट प्रत्याशी खड़ा होता है कि अधिसंख्य जाट मतदाता जाट की बेटी जाट को व जाट का वोट जाट को की कहावत चरितार्थ हो सकती है। यह मार्शल कौम कहलाती हैं, इस कारण इसका मतदान प्रतिशत ज्यादा ही रहता है। कुल मिला कर इस बार भाजपा की ओर से जाट प्रत्याशी ही मैदान में आएगा।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

महज वाहवाही के लिए शुरू किया ट्रोमा सेंटर?


ट्रोमा वार्ड के शुभारंभ का फाइल फोटो
लंबी प्रतीक्षा के बाद हालांकि जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में ट्रोमा सेंटर का औपाचारिक शुभारंभ दिग्गज मंत्रियों व नेताओं की फौज की मौजूदगी में हो तो गया, मगर ऐसा लगता है कि यह केवल एक रस्म अदायगी थी और सरकार ने फोकट वाहवाही लूटने के मकसद से किया। वरना क्या वजह है कि शुभारंभ के एक हफ्ते बाद भी ट्रोमा सेंटर स्टाफ के अभाव में काम नहीं कर पा रहा है?
ज्ञातव्य है कि एक हफ्ते पहले ही केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य मंत्री एमामुद्दीन अहमद दुर्रु मियां व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ ने विभिन्न जनप्रतिनिधियों के साथ जवाहरलाल नेहरू चिकित्सालय में नवनिर्मित ट्रोमा यूनिट का लोकार्पण किया था। पायलट व दुर्रु मियां ने मीडिया कर्मियों को बताया कि इससे जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय की सुपर स्पेशलिटी सेवाओं में वृद्धि हुई है और इसका लाभ अजमेर संभाग व राज्य के अन्य स्थानों के मरीजों व बच्चों को मिलेगा। पायलट, दुर्रु मियां व श्रीमती इंसाफ ने संसदीय सचिव ब्रह्मदेव कुमावत, विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर, नाथूराम सिनोदिया, श्रीमती अनिता भदेल, महापौर कमल बाकोलिया, नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत की मौजूदगी में ट्रोमा वार्ड परिसर का निरीक्षण कर यहां की सुविधाओं की तारीफ करते हुए कहा कि इसका लाभ मरीजों को मिलेगा।
इस मौके पर यह भी बताया गया कि ट्रोमा सेन्टर के संचालन हेतु राज्य सरकार द्वारा पैरा मेडिकल के 34 नये पदों का सर्जन किया गया है, जिसकी प्रशासनिक व वित्तीय स्वीकृति जारी हो चुकी है। इस सेन्टर की स्थापना से हाईवे पर अजमेर संभाग में होने वाली दुर्घटनाओं से ग्रसित घायलों को तुरन्त राहत व उपचार उपलब्ध हो पायेगा। भारत सरकार के परिवहन मंत्रालय द्वारा इस हेतु एक एम्बुलेंस भी उपलब्ध कराई गई है। मगर धरातल का सच ये है कि स्टाफ की कमी के चलते अस्पताल अधीक्षक डॉ. ब्रिजेश माथुर को सर्जरी, आर्थोपेडिक व मेडिसन विभाग के विभागाध्यक्षों की बैठक लेकर यह तय करना पड़ा कि ट्रोमा सेंटर की जिम्मेदारी रेजीडेंट डॉक्टर्स संभालेंगे।  संबंधित विभागों के वरिष्ठ चिकित्सक ऑन कॉल सेवाएं देंगे। डॉ. माथुर ने बताया कि केंद्र सरकार ने सेवानिवृत्त चिकित्सक लगाए जाने के निर्देश दिए थे। जो वेतन तय किया गया है, उस पर कोई भी चिकित्सक सेवाएं देने को राजी नहीं है। ऐसी स्थिति में व्यवस्थाओं को बनाने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। जानकारी तो यहां तक भी मिली है कि जिन लोगों की ड्यूटी लगाने पर विचार किया जा रहा है, वे अपने रसूखातों से ड्यूटी निरस्त करवाने में भी लग गए हैं। ऐसे में व्यवस्थाओं को बनाने में जवाहरलाल नेहरू अस्पताल प्रशासन को खासी मशक्कत करनी पड़ रही है।
कितने दुर्भाग्य की बात है कि एक ओर तो सरकार के जिम्मेदार नुमाइंदों ने चंद रोज पहले इसका लोकार्पण कर अखबारों के बड़े-बड़े फोटो खिंचवा कर वाहवाही लूटी और दूसरी ओर सरकार को यह परवाह ही नहीं है कि इसका संचालन आखिर बिना पर्याप्त स्टाफ के होगा कैसे?
-तेजवानी गिरधर

अच्छा, टंडन की गहलोत से पुरानी खुन्नस है

हाल ही दैनिक भास्कर में छात्रसंघ चुनाव के सिलसिले में एक रोचक किस्सा छपा है। इसमें खुद अजमेर बार अध्यक्ष राजेश टंडन ने खुलासा किया है कि मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से उनके छात्र जीवनकाल में कैसे संबंध थे। इसमें उन्होंने बताया है कि वर्ष 1974 में उन्होंने जीसीए छात्र संघ अध्यक्ष चुनाव का चुनाव लड़ा था, लेकिन अशोक गहलोत ने हरवा दिया। उन्होंने बताया है कि उस जमाने में पूर्व विधायक स्वर्गीय केसरी चंद चौधरी की तूती बोलती थी, मगर तत्कालीन विधायक स्वर्गीय किशन मोटवानी से उनका छत्तीस का आंकड़ा था। चौधरीजी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी से मुलाकात करवाई और जीत का आशीर्वाद दिलवाया। उधर मोटवानीजी ने शांतिराज सिंघवी को मैदान में उतार दिया। सिंघवी जोधपुर के रहने वाले थे और अशोक गहलोत के दोस्त थे। गहलोत उस समय एनएसयूआई के अध्यक्ष हुआ करते थे और टंडन यूथ काग्रेंस के शहर जिला अध्यक्ष। सिंघवी ने चुनाव प्रचार के लिए गहलोत को अजमेर बुलवा लिया। जब गहलोत से उन्होंने आग्रह किया कि मैं भी तो कांग्रेसी हूं, आप मेरा सहयोग नहीं करोगे क्या, इस पर गहलोत ने से कहा कि वे व्यक्तिगत संबंधों की वजह से यहां आए हैं और सिंघवी के पक्ष में ही चुनाव प्रचार करूंगा। आखिर उस चुनाव में टंडन को हार का सामना करना पड़ा था।
टंडन के इस खुलासे को राजनीतिक हलकों में टंडन व गहलोत के मौजूद संबंधों से जोड़ कर देखा जा रहा है। ज्ञातव्य है कि टंडन वरिष्ठ और सक्रिय कांग्रेस नेता हैं, मगर गहलोत ने उन्हें किसी भी तरह से उपकृत नहीं किया है। समझा जाता है कि उनके तभी के संबंधों को अभी तक निभाया जा रहा है। ये तो गनीमत है कि टंडन ने अपने बलबूते बार अध्यक्ष पद फिर से हासिल कर लिया है, वरना कांग्रेस की ओर से तो उन्हें हाशिये पर ही डाला हुआ है।
टंडन के कथित सरकार विरोधी रवैये को भी गहलोत के पुराने संबंधों ेसे जोड़ कर देखा जा रहा है। ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों उर्स की बदइंतजामियों को लेकर टंडन ने कलेक्ट्रेट पर धरना दिया तो संगठन की ओर से यही कहा गया कि वे निजी तौर पर धरना दे रहे हैं, जिसका कांग्रेस से कोई लेना-देना नहीं है। टंडन के इस कदम को सरकार विरोधी भी करार दिया गया, हालांकि टंडन का यह कहना था कि वे आम जनता के हित में प्रशासनिक शिथिलता पर प्रहार कर रहे हैं।
आपको याद होगा कि हाल ही जब शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता ने कांग्रेस मानसिकता के वकीलों पर टिप्पणी की तो उस पर टंडन ने कड़ा ऐतराज किया था। इस पर रलावता के समर्थकों ने टंडन पर आरोपों की झड़ी लगा दी। इस सिलसिले में उन्होंने गहलोत को पत्र लिख कर बताया कि उर्स के दौरान जिला प्रशासन ने व्यवस्थाएं नहीं की, लिहाजा उपवास किया। आनासागर के राम प्रसाद घाट पर जायरीन की हिफाजत के लिए गोताखोरों की तैनाती, तारागढ़ पर पेयजल की मांग की, इसे रलावता गहलोत सरकार विरोधी कदम बता रहे हैं। टंडन ने गहलोत से आग्रह किया है कि वे संगठन में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को यह जरूर समझाएं कि कार्यकर्ता प्रशासनिक खामी को उजागर करता है तो उसे गहलोत विरोधी करार देने से बाज आएं। टंडन ने मुख्यमंत्री को भेजे पत्र में लिखा कि महेंद्रसिंह रलावता से यह पूछा जाना चाहिए कि व्यवस्थाओं के लिए मेरे द्वारा किए गए विरोध सरकार विरोधी कदम हैं तो मुख्यमंत्री के काफिले के साथ अपनी कार उर्स के दौरान दरगाह तक जाने की जिद, नहीं जाने देने पर महफिल खाने में सीढिय़ों पर धरना देकर प्रशासनिक खामियों का रोना रोने, पुलिस व प्रशासनिक अफसरों का सार्वजनिक घेराव, बदतमीजी करने, किशनगढ़ हवाई पट्टी पर महिला कलेक्टर को गाड़ी से उतार कर आवेश में दुव्र्यवहार करने को क्या कहा जाए? सरकार प्रेम! टंडन की बात में दम तो है, मगर हाल ही उन्होंने छात्रसंघ चुनाव को लेकर को खुलासा किया है, लोग उसे ताजा घटनाक्रम से जोड़ कर देख रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 5 अगस्त 2012

किसे चाहिए अन्ना पार्टी का विधानसभा टिकट?

कीर्ति पाठक
प्रमिला सिंह
हालांकि टीम अन्ना ने अभी यह घोषणा मात्र की है कि वह आंदोलन छोड़ कर अब सीधे राजनीति के मैदान में दो-दो हाथ करेगी, पार्टी का नाम व स्वरूप क्या होगा, घोषणा पत्र कैसा होगा, यह अभी तय नहीं है, मगर अभी से यह चर्चा होने लगी है कि अजमेर में अन्ना पार्टी से चुनाव कौन लड़ेगा।
असल में यूं तो पहला दावा टीम अन्ना की मौजूदा प्रभारी श्रीमती कीर्ति पाठक का बनता है, जिन्होंने अजमेर में विपरीत परिस्थितियों में भी जिंदा रखा, दूसरा गुट मौजूद होने के बाद भी अपने गुट को दमदार बनाए रखा, मगर फिलवक्त वे चुनाव लडऩे की इच्छुक नजर नहीं आतीं। हो सकता है कि उनके लिए यह नया सवाल होने के कारण इस बारे में तुरंत निर्णय करना कठिन हो रहा हो। वैसे यह तय है कि अन्ना पार्टी अपना प्रत्याशी मैदान में जरूर उतारेगी। इसकी वजह ये कि उसे अभी इस बात की चिंता नहीं है कि उसके प्रत्याशी हार जाएंगे, बल्कि पहला लक्ष्य ये है कि पूरे देश में ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल किए जाएं, ताकि आयोग से मान्यता मिलने में आसानी रहे। अन्य पार्टियां भी इसी तरह से करती रही हैं। जोर जिताऊ पर रहता है, मगर हराऊ को भी खड़ा किया जाता है। वो इसलिए कि वह हारने वाला जितने भी वोट लेकर आएगा वह राष्ट्रीय स्तर पर उसे मिले वोटों की गिनती में शामिल होगा। इसी सिलसिले में उदाहरण तो ऐसे भी हैं कि कुछ पार्टियों ने पैसे दे कर भी प्रत्याशी उतारे हैं। अलबत्ता अन्ना पार्टी के पास इतना फंड नहीं कि वह प्रत्याशी पर पैसे खर्च कर सके। यानि कि प्रत्याशी को पूरी तरह से खुद के दम पर ही चुनाव लडऩा होगा। अलबत्ता कुछ प्रचार सामग्री जरूर मिल जाएगी।
खैर, हालांकि फिलवक्त कीर्ति पाठक भले ही चुनाव लडऩे के लिए मना कर रही हों, मगर संभव है ऐन वक्त पर पार्टी कहे कि पार्टी के खाते में वोट दर्ज करवाने के लिए ही शहीद हो जाओ। तब पार्टी की खातिर उन्हेें मन को मारना पड़ सकता है। यूं टीम अन्ना के दूसरे गुट की श्रीमती प्रमिला सिंह भी दावेदार हो सकती हैं। उनमें तनिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी नजर आती रही है। मगर दोनों गुटों में जिस तरह की खींचतान है, लगता नहीं कि कीर्ति पाठक इतनी आसानी से उन्हें टिकट लेने देंगी। वैसे भी टीम अन्ना की अधिकृत प्रभारी कीर्ति पाठक ही बताई जाती हैं।
समझा जाता है कि कांग्रेस व भाजपा के टिकटों की दावेदारी करने वाले नेताओं में से भी कुछ की लार टपक रही हो। वे इस फिराक में हो सकते हैं कि अगर उनकी पार्टी टिकट नहीं देती तो अन्ना पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ लेंगे। कयास के आधार पर फिलहाल उनके नामों पर चर्चा इस कारण बेमानी है, क्योंकि लिस्ट काफी लंबी हो जाएगी। इनमें कुछ ऐसे भी हो सकते हैं, जो जीतने के लिए नहीं, बल्कि किसी को हराने के लिए खड़े होने को तैयार हो जाएंगे। ऐसा लगता है कि कुछ नए चेहरे केवल अपना नाम चमकाने की खातिर ही टिकट के दावेदार बन जाएं। हार भले ही जाएं, मगर अन्ना पार्टी का ठप्पा तो लग ही जाएगा।
वैसे अन्ना पार्टी का प्रत्याशी किसको नुकसान पहुंचाएगा, यह तो प्रत्याशी पर ही निर्भर करेगा कि वह किस पार्टी से नाराज हो कर आ रहा है, मगर ज्यादा संभावना इसी बात की है कि कांग्रेस को ज्यादा नुकसान होगा। जो मतदाता भ्रष्टाचार व महंगाई से त्रस्त हो कर भाजपा की ओर जा सकता था, उसे दूसरा विकल्प जो मिल रहा है। वैसे भी अन्ना टीम धर्मनिरपेक्षता पक्षधर है, इस कारण ज्यादा सेंध कांग्रेस पार्टी में ही डालेगी।
माना कि अभी इस मुद्दे पर चर्चा करना बतोलेबाजी लगे, मगर आगे चल कर इन्हीं समीकरणों पर चुनाव मैदान सजेगा।

-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

आखिर आ ही गया जर्दा मिश्रित गुटके का विकल्प


एक ओर जहां जर्दा मिश्रित गुटके पर प्रतिबंध लगने के बाद दैनिक भास्कर निकोटिन युक्त सादा पान मसाला के खिलाफ मुहिम चलाए हुए है और सरकार पर निरंतर दबाव बनाए हुए है, वहीं दूसरी कुछ उत्पादकों ने जर्दा मिश्रित गुटके का विकल्प भी बाजार में उतार दिया है। पूर्व में जर्दा मिश्रित गुटका बेचने वाली विमल गुटका कंपनी सहित कुछ और उत्पादकों ने सादा पान मसाला के साथ अपने ही ब्रांड के नाम से जर्दे की पुडिय़ा भी बेचना शुरू कर दिया है। अर्थात जर्दा मिश्रित गुटका खाने वालों के लिए एक आसान विकल्प आ गया है। अब वे सादा पान मसाला के साथ जर्दा मिला कर पहले की ही तरह अपनी लत की पूर्ति कर रहे हैं।
असल में यह आशंका शुरू से ही थी कि सरकार ने एक जनहितकारी कदम उठाने में इतनी जल्दबाजी दिखाई कि वह तुगलकी निर्णय सा प्रतीत होती थी। मुद्दा ये था कि यदि सरकार को यह निर्णय करना ही था तो पहले गुटखा बनाने वाली फैक्ट्रियों को उत्पादन बंद करने का समय देती, स्टाकिस्टों को माल खत्म करने की मोहलत देती तो उचित रहता, मगर सरकार ने ऐसा नहीं किया। जैसा कि अंदेशा था, सरकार के आदेश की आड़ में अब स्टाकिस्टों ने पहले से जमा माल डेढ़ से दो गुना दामों में चोरी-छिपे बेचना शुरू कर दिया है।
आपको ख्याल होगा कि जब सरकार ने प्रतिबंध लागू किया था तभी यह मुद्दा उठा था कि पाबंदी केवल तंबाकू मिश्रित गुटखे पर लगी है। पान मसाला अलग से मिलेगा और तंबाकू भी। लोग दोनों को खरीद कर उसका गुटका बना कर खाएंगे। हुआ भी यही। बाजार में सादा पान मसाला और जर्दे की पुडिय़ा अलग-अलग उपलब्ध हैं। यानि कि नतीजा सिफर ही रहा।
खुद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ही कहा था कि सरकार ने आधा काम कर दिया है, आधा लोगों को गुटका छोड़ कर करना होगा। मगर ताजा हालत से तो यही कहा जा सकता है कि सरकार ने जो कदम उठाया, वह पूरी तरह से बेमानी हो गया है।
-तेजवानी गिरधर

क्यों थिरके पार्षदगण मीणा की विदाई में?


इसमें कोई दोराय नहीं कि हाल ही जिला परिषद के सीईओ बने सी आर मीणा एक सुलझे हुए आरएएस अधिकारी माने जाते हैं और अतिरिक्त जिला कलेक्टर पद पर रहते उनकी कार्यशैली की खूब तारीफ हो चुकी है, मगर कचरा प्रबंधन की प्रमुख एजेंसी नगर निगम का सीईओ बनने पर उनका जो कचरा हुआ, उसकी उन्हें कभी कल्पना तक नहीं होगी। हालांकि नगर निगम से विदाई के वक्त भी क्या कांग्रेस और क्या भाजपा, दोनों के ही नेताओं ने ही उनकी कार्यशैली के जम कर कशीदे काढ़े, मगर जिस तरह से समारोह में बैंड बाजों व ढ़ोल-ढ़माकों के बीच पार्षद थिरके, उसमें उनकी विदाई से दुखी होने की बजाय खुशी ही ज्यादा नजर आई कि चलो बला टली। मीडिया ने भी स्वीकार किया कि नगर निगम के इतिहास में पहली बार किसी अधिकारी को इस तरह की भावभीनी विदाई दी गई, मगर इस विदाई में कहीं भी ये नहीं झलक रहा था कि उनके जाने से एक भी नेता दुखी हुआ हो, अकेली पार्षद नीता केन के, जिनकी आंखों से आंसू छलक पड़े।
आपको याद होगा कि जब मेयर कमल बाकोलिया उन्हें ससम्मान सीईओ बनवा कर लाए तो लगा था कि दोनों के बीच अच्छी ट्यूनिंग रहेगी और इसका फायदा दोनों को मिलेगा। राजनीति के नए खिलाड़ी बाकोलिया को सीईओ की समझदारी काम आएगी और मीणा को भी राजनीतिक संरक्षण मिलने पर काम करने में सुविधा रहेगी। मगर हुआ ठीक इसका उलटा। नई नवेली दुल्हन नौ दिन की, खींचतान करके तेरह दिन की वाली कहावत चरितार्थ हो गई। जल्द ही दोनों के बीच ट्यूनिंग बिगड़ गई। दुर्भाग्य से बाकोलिया को भी ऐसे पार्षदों की टीम मिली जो उनके कहने में नहीं थी, नतीजतन अतिक्रमण हटाने को लेकर आए दिन पार्षदों व निगम कर्मचारियों के बीच तनातनी होती रही। मीणा की परेशानी ये होती थी कि वे जिला प्रशासन के कहने पर अतिक्रमण के खिलाफ सख्ती से पेश आते तो एक ओर पार्षदों से खींचतान होती और दूसरी ओर कर्मचारी अपने काम में बाधा आने की वजह से लामबंद हो जाते। उन्हें अनेक बार नेताओं की आपसी खींचतान के कारण बार जलालत से गुजरना पड़ा। न तो उनकी मेयर कमल बाकोलिया से पटी और न ही पार्षदों ने उन्हें अपेक्षित सम्मान दिया। कुल मिला कर मीणा बुरी तरह से घिर गए। यही वजह थी उनके बारे में यह जुमला आम हो गया था कि कहां फंसे सीईओ बन कर।
पृष्ठभूमि में राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव और पुलिस के असहयोग के चलते उनकी जो दुर्गति हुई, उसकी पराकाष्ठा तब देखने को मिली जब दरगाह बाजार की लंगरखाना गली में दरगाह कमेटी की शिकायत पर अतिक्रमण तोडऩे जाने पर सांप्रदायिक माहौल खराब होने की धमकी दी गई तो उनके मुंह से यकायक निकल गया कि ज्यादा से ज्यादा मार दोगे, इससे अधिक क्या होगा? ऐसी नौकरी से तो मौत अच्छी है। अपुन ने तब भी कहा था कि वह कथन प्रशासनिक लाचारी की इंतहा था। असल में वह कथन नहीं क्रंदन था। तब यह सवाल उठा था कि एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी आखिर इतना लाचार कैसे हो गया? मीणा की हालत ये थी कि वे चाह कर भी रो नहीं पाए और पुलिस का असहयोग होने बाबत मीडिया द्वारा सवाल पूछे जाने पर यह कह कर कि पुलिस ने असहयोग भी तो नहीं किया, सच्चाई को छिपाने की कोशिश की। दरगाह इलाके के प्रभावशाली लोगों से पोषित पुलिस की कमजोरी का प्रमाण तभी मिल गया था पार्षद योगेश शर्मा एक अतिक्रमी से झगड़ा होने पर जब वे मुकदमा दर्ज कराने के लिए दरगाह थाने गए तो सीआई भाटी ने पार्षदों से कहा था कि निगम में दम है तो दरगाह बाजार में अतिक्रमण तोड़ कर दिखाए। ऐसे में वे दिन याद आना स्वाभाविक हैं, जब तत्कालीन जिला कलैक्टर अदिति मेहता पत्थरबाजी के चलते भी डटी रहीं और अतिक्रमण को हटा कर ही दम लिया। बेशक उन पर सरकार अर्थात राजनीति का हाथ था, तभी वे ऐसा कर पाईं। दुर्भाग्य से ऐसा सपोर्ट न पूर्व कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल को मिला और न ही मीणा को।
खैर, जहां तक विदाई के वक्त सराहना होने का सवाल है, यह एक लोकाचार ही है। भला जो अधिकारी रुखसत हो रहा हो, उसको जाते-जाते तो भला बुरा नहीं कहा जाता। सो मेयर कमल बाकोलिया, शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता व भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी ने उनकी जम कर सराहना की। उनकी कार्यशैली की तारीफ की। जिन मेयर बाकोलिया से उनका पूरे कार्यकाल के दौरान छत्तीस का आंकड़ा रहा, वे अगर तारीफ करते हैं तो समझा जा सकता है कि उसमें रस्म अदायगी का कितना पुट है। चलो मेयर बाकोलिया तो फिर भी सत्तारूढ़ दल से हैं, सो वे कभी मीणा के खिलाफ खुल कर नहीं बोले, मगर विपक्षी पार्टी भाजपा के विधायक के नाते प्रो. वासुदेव देननानी के निशाने पर तो मीणा सदैव ही रहे। वे भी तारीफों के पुल बांधें तो चौंकना स्वाभाविक है। सवाल ये उठता है कि यदि मीणा की कार्यशैली इतनी ही अच्छी थी तो क्यों नहीं नगर निगम बेहतर परफोरमैंस दे पाई? यानि कि उनकी शैली तो अच्छी थी मगर कहीं न कहीं जनप्रतिनिधियों की कार्यशैली में कुछ गड़बड़ थी, तभी तो निगम जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया है।
आज जब कि मीणा विदाई ले चुके हैं तो पिछला घटनाक्रम यकायक याद आ ही जाता है। जिन हालत में मीणा की रवानगी हुई है वह स्थिति शहर के लिए तो अच्छी नहीं कही जा सकती। जब मीणा जैसे सुलझे हुए अधिकारी की ही पार नहीं पड़ रही तो निगम का भगवान ही मालिक है। देखना होगा कि नई सीईओ विनिता श्रीवास्तव क्या कर पाती हैं?
बहरहाल, अब जब कि मीणा का कथित नरक निगम से पिंड छूट ही गया है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वे नए पद पर अपनी योग्यता का बेहतर प्रदर्शन करने में कामयाब होंगे, जहां कि मौजूदा जिला प्रमुख श्रीमती सुशीली कंवर पलाड़ा के राज में भ्रष्टाचार नाम की चिडिय़ा जिला परिषद भवन पर बैठने से कतराती है।
-गिरधर तेजवानी