शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

जारी है आनासागर में डूबने का सिलसिला, कब चेतेगा प्रशासन?

 रामप्रसाद घाट
अजमेर की ऐतिहासिक झील में हाल ही एक और जिंदगी मौत में तब्दील हो गई। इस पर लील गया रामप्रसाद घाट शीर्षक से शहर के जागरूक नागरिक जनाब ऐतेजाद अहमद खान ने फेसबुक पर लिखा है कि जब से यह घाट बना है, अगर आप इसके आंकड़े निकलवा कर देखंगे तो पाएंगे, हर महीने कम से कम 2-3 लोगों की यह बलि लेता है, और ज्यादातर लोग बाहर के होते हैं और परदेस मैं अपनों को खो देते हैं। उनका कहना है कि इस सिलसिले में वे पूर्व सचिव अश्फाक हुसैन को भी कह चुके हैं कि हरिद्वार की तर्ज पर यहां भी चैन और सुरक्षा का इन्तजाम होना चहिये। चेतावनी का बोर्ड होना चहिये। पर अफसर बात सुन कर उस पर अमल कर दे तो भारत अमेरिका और कनाडा नहीं हो जाये।
उनकी बात वाकई सही है। एक और जागरूक नागरिक सोमश्वर शर्मा जी ने इसी पर प्रतिक्रिया करते हुए लिखा है आपदा प्रबंधन इचार्ज पूर्व पार्षद श्री अशोक मलिक इस ओर ध्यान दें। साथ ही अजमेरनामा से भी अपेक्षा की है कि इस बारे में कुछ किया जाए। यद्यपि अजमेरनामा के नाम से चल रहे ब्लाग पर पूर्व में इस बारे में लिखा जा चुका है, मगर इन महानुभावों से प्रेरणा ले कर एक बार और इस मसले पर चर्चा कर लेते हैं।
हालांकि पहले बारादरी से गिर कर डूबने के वाकये होते थे, मगर वे अमूमन आत्महत्या के हुआ करते थे। डूबने की घटनाएं रामप्रसाद घाट बनने के बाद बढ़ गई हैं। यह सही है कि रामप्रसाद घाट यूआईटी की एक उपलब्धि है और इससे जायरीन को नहाने में काफी सुविधा होती है, लेकिन वहां सुरक्षा के इंतजाम आज तक दुरुस्त नहीं किए गए हैं। दरअसल घाट बनाए जाने के दौरान ही सुरक्षा के इंतजाम साथ-साथ किए जाने चाहिए थे।
इस बारे में पहले पूर्व नगर निगम महापौर धर्मेन्द्र गहलोत स्वीकार कर चुके हैं कि सरकार की ओर से सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। भ्रमण के लिए मोटर बोट जरूर हैं, जिनका जरूरत पडऩे पर उपयोग किया जाता है। कितने अफसोस की बात है कि जिला प्रशासन ने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। इसकी एक मात्र वजह ये है कि आनासागर किसी एक विभाग के अधीन नहीं आता। हक जताने के लिए जरूर नगर परिषद, सिंचाई विभाग और मत्स्य पालन विभाग आगे आते हैं, लेकिन जब कोई दुर्घटना हो जाती है तो सभी दूर हट जाते हैं। ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि जिला प्रशासन पहल कर जिम्मेदारी तय करे। या तो अलग से कोई सेल स्थापित करे या फिर इन्हीं तीनों विभागों में से किसी एक पर जिम्मेदारी डाले। वैसे तो आनासागर के चारों ओर खतरा ही खतरा है, लेकिन ज्यादातर घटनाएं रामप्रसाद घाट पर हो रही हैं। दरअसल घाट बनाने वक्त प्रशासन ने यह सोचा ही नहीं कि यदि कोई फिसला तो उसे बचाने के लिए क्या इंतजाम होने चाहिए। जब-जब भी कोई मौत होती है तो सुरक्षा के इंतजाम की चर्चा होती जरूर है, लेकिन कोई कदम नहीं उठाया जाता। प्रशासन को इस पर गंभीरता से विचार कर तुरंत इंतजाम करने चाहिए। घाट व बारहदरी पर स्थाई रूप से तैराकों की तैनाती करने की सख्त जरूरत है, ताकि यदि कोई आत्महत्या की कोशिश करे या फिर कोई फिसल कर डूबने लगे तो वे उसे तुरंत बचाने की कोशिश कर सकें। बचाव के लिए हर वक्त बोट की भी व्यवस्था होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त लाइफ सेविंग ट्यूब व जैकेट भी रखे जाने चाहिए। घाट के आसपास दलदल, काई और गंदगी की नियमित सफाई के इंतजाम भी किए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त रात्रि गश्त और पर्याप्त रोशनी की भी व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रशासन को चाहिए कि वह स्थिति की गंभीरता को समझे और शीघ्र ही सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करे। हालांकि अजमेर के जैसे हालात हैं, जैसा सुस्त प्रशासन है, जैसे सोये हुए लोग हैं और जैसे लापरवाह नेता हैं, पहले की तरह कुछ दिन चर्चा होगी और नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात का होने वाला है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रलावता ने हटाया विशेषण, मगर उनके भाई अब भी राजा


शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता वाकई ईमानदार हैं। मीडिया द्वारा विवाद किए जाने पर और बाद में फागुन महोत्सव में बाकायदा राजा साहब पर एक रोचक झलकी दिखाए जाने पर उसे गंभीरता से लिया। हाल ही जब उनके परिवार में एक शादी हुई तो उन्होंने निमंत्रण पर अपने नाम के आगे से राजा शब्द हटा लिया।
दरअसल पिछले दिनों जब एक पारिवारिक शादी कार्ड में अपने नाम के आगे राजा शब्द का विशेषण लगाया तो बड़ी चर्चा हुई। होनी ही थी। लोकतांत्रिक देश में अगर अब भी कोई अपने आपको राजा कहलाता है तो अटपटा लगेगा ही। यूं अगर कोई अपने नाम के आगे राजा शब्द लगाता है, तो कौन ध्यान देता है, मगर चूंकि वे उस पार्टी के शहर अध्यक्ष हैं, जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में राजा, महाराजा, राजकुमार, कुंवर शब्द से परहेज रखने का फरमान जारी किया था, इस कारण उन्हें लगा कि सार्वजनिक जीवन की जिम्मेदारी का पालन करते हुए राजा शब्द हटा लेना चाहिए। हालांकि शब्द हटाए जाने से वे कोई राजा नहीं रह जाएंगे, ऐसा है नहीं। वे अब भी राजा हैं। उन्हें उनके परिचित प्यार से राजा शब्द से ही संबोधित करते हैं। यूं राजा के नाम से पूर्व विधायक डा. राजकुमार जयपाल को भी संबोधित किया जाता रहा है, मगर ऐसा उनका नाम राजकुमार होने के कारण है।
बहरहाल, मुद्दा ये नहीं है। असल रोचक बात ये है कि ताजा शादी कार्ड में जहां राजा साहब के नाम के आगे से राजा शब्द गायब है, वहीं ठीक नीचे उनके भाई गजेन्द्र सिंह रलावता के नाम के आगे राजा शब्द लगा हुआ है। जिसने भी कार्ड देखा, मुस्कराए बिना नहीं रह सका। रलावता भले ही अपने नाम के आगे से राजा शब्द हटा लें, मगर जब उनके भाई राजा हैं तो स्वाभाविक रूप से वे भी राजा ही हैं। गजेन्द्र बन्ना तो फिर भी सरकारी महकमे में हैं, अगर वे राजा हैं तो सक्रिय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले महेन्द्र बन्ना के राजा शब्द पर ऐतराज नहीं करना चाहिए था। आप भी सोचेंगे कि इतना बड़ा मुद्दा तो है नहीं कि ये आइटम बनाया जाए, मगर आप जानते हैं कि राजाओं के तो छोटे-मोटे किस्से भी सुर्खियां पाते हैं। रलावता भी राजा हैं, इस कारण इतनी चर्चा है, वरना अपुन ठहरे छोटे आदमी, हमारी तो कोई चर्चा नहीं करता।
लगे हाथ मसले का एक पहलु भी आपकी नजर पेश है। राजस्थान क्षत्रिय महासभा के महासचिव व राजपूत स्टूडेंट यूथ ऑर्गेनाइजेशन के प्रदेशाध्यक्ष कुंवर दशरथ सिंह सकराय का तर्क है कि राजपूत समाज में ठाकुर, कुंवर, कुंवरानी, बाईसा जैसे शब्दों से उद्बोधन करना सांस्कृतिक परम्परा है, जिसका पट्टा राजूपत समाज को किसी राजनीतिक या सरकार से लेने की आवश्यकता नहीं है। ये हमारी सांस्कृतिक विरासत है। ठीक उसी प्रकार जैसे मुस्लिम समाज में नवाब, बेगम, शहजादी, शहजादा शब्दों का प्रचलन आम बोलचाल में संस्कृति का स्वरूप लिए हुए हैं। बात में दम तो है भाई। सकराय जी के इस तर्क के बाद तो ये आइटम ही बेमानी हो जाता है।
तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com