शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

रलावता ने हटाया विशेषण, मगर उनके भाई अब भी राजा


शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता वाकई ईमानदार हैं। मीडिया द्वारा विवाद किए जाने पर और बाद में फागुन महोत्सव में बाकायदा राजा साहब पर एक रोचक झलकी दिखाए जाने पर उसे गंभीरता से लिया। हाल ही जब उनके परिवार में एक शादी हुई तो उन्होंने निमंत्रण पर अपने नाम के आगे से राजा शब्द हटा लिया।
दरअसल पिछले दिनों जब एक पारिवारिक शादी कार्ड में अपने नाम के आगे राजा शब्द का विशेषण लगाया तो बड़ी चर्चा हुई। होनी ही थी। लोकतांत्रिक देश में अगर अब भी कोई अपने आपको राजा कहलाता है तो अटपटा लगेगा ही। यूं अगर कोई अपने नाम के आगे राजा शब्द लगाता है, तो कौन ध्यान देता है, मगर चूंकि वे उस पार्टी के शहर अध्यक्ष हैं, जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में राजा, महाराजा, राजकुमार, कुंवर शब्द से परहेज रखने का फरमान जारी किया था, इस कारण उन्हें लगा कि सार्वजनिक जीवन की जिम्मेदारी का पालन करते हुए राजा शब्द हटा लेना चाहिए। हालांकि शब्द हटाए जाने से वे कोई राजा नहीं रह जाएंगे, ऐसा है नहीं। वे अब भी राजा हैं। उन्हें उनके परिचित प्यार से राजा शब्द से ही संबोधित करते हैं। यूं राजा के नाम से पूर्व विधायक डा. राजकुमार जयपाल को भी संबोधित किया जाता रहा है, मगर ऐसा उनका नाम राजकुमार होने के कारण है।
बहरहाल, मुद्दा ये नहीं है। असल रोचक बात ये है कि ताजा शादी कार्ड में जहां राजा साहब के नाम के आगे से राजा शब्द गायब है, वहीं ठीक नीचे उनके भाई गजेन्द्र सिंह रलावता के नाम के आगे राजा शब्द लगा हुआ है। जिसने भी कार्ड देखा, मुस्कराए बिना नहीं रह सका। रलावता भले ही अपने नाम के आगे से राजा शब्द हटा लें, मगर जब उनके भाई राजा हैं तो स्वाभाविक रूप से वे भी राजा ही हैं। गजेन्द्र बन्ना तो फिर भी सरकारी महकमे में हैं, अगर वे राजा हैं तो सक्रिय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले महेन्द्र बन्ना के राजा शब्द पर ऐतराज नहीं करना चाहिए था। आप भी सोचेंगे कि इतना बड़ा मुद्दा तो है नहीं कि ये आइटम बनाया जाए, मगर आप जानते हैं कि राजाओं के तो छोटे-मोटे किस्से भी सुर्खियां पाते हैं। रलावता भी राजा हैं, इस कारण इतनी चर्चा है, वरना अपुन ठहरे छोटे आदमी, हमारी तो कोई चर्चा नहीं करता।
लगे हाथ मसले का एक पहलु भी आपकी नजर पेश है। राजस्थान क्षत्रिय महासभा के महासचिव व राजपूत स्टूडेंट यूथ ऑर्गेनाइजेशन के प्रदेशाध्यक्ष कुंवर दशरथ सिंह सकराय का तर्क है कि राजपूत समाज में ठाकुर, कुंवर, कुंवरानी, बाईसा जैसे शब्दों से उद्बोधन करना सांस्कृतिक परम्परा है, जिसका पट्टा राजूपत समाज को किसी राजनीतिक या सरकार से लेने की आवश्यकता नहीं है। ये हमारी सांस्कृतिक विरासत है। ठीक उसी प्रकार जैसे मुस्लिम समाज में नवाब, बेगम, शहजादी, शहजादा शब्दों का प्रचलन आम बोलचाल में संस्कृति का स्वरूप लिए हुए हैं। बात में दम तो है भाई। सकराय जी के इस तर्क के बाद तो ये आइटम ही बेमानी हो जाता है।
तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें